०९५

०९५ ...{Loading}...

०१ त्रिकद्रुकेषु महिषो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्रिक॑द्रुकेषु महि॒षो यवा॑शिरं तुवि॒शुष्म॑स्तृ॒पत्सोम॑मपिब॒द्विष्णु॑ना सु॒तं य॒थाव॑शत्।
स ईं॑ ममाद॒ महि॒ कर्म॒ कर्त॑वे म॒हामु॒रुं सैनं॑ सश्चद्दे॒वो दे॒वं स॒त्यमिन्द्रं॑ स॒त्य इन्दुः॑ ॥

०१ त्रिकद्रुकेषु महिषो ...{Loading}...

Griffith

From the three jars the Great and Strong hath drunk drink blent with meal. With Vishnu hath he quaffed the flowing Soma juice, all that he would. That hath so heightened him the Great, the Vast, to do his mighty work. So may the God attend the God, true Indu Indra who is true.

पदपाठः

त्रिऽक॑द्रुकेषु। म॒हि॒षः। यव॑ऽआशिरम्। तु॒वि॒ऽशुष्मः॑। तृ॒षत्। सोम॑म्। अ॒पि॒ब॒त्। विष्णु॑ना। सु॒तम्। यथा॑। अव॑शत्। सः। ई॒म्। म॒मा॒द॒। महि॑। कर्म॑। कर्त॑वे। म॒हाम्। उ॒रुम्। सः। ए॒न॒म्। स॒श्च॒त्। दे॒वः। दे॒वम्। स॒त्यम्। इन्द्र॑म्। स॒त्यः। इन्दुः॑। ९५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गृत्समदः
  • अष्टिः
  • सूक्त-९५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रिकद्रुकेषु) तीन [शारीरिक, आत्मिक] और सामाजिक [उन्नतियों] के विधानों में (तृपत्) तृप्त होते हुए (महिषः) महान् (तुविशुष्मः) बहुत बलवाले [शूर] ने (विष्णुना) बुद्धिमान् मनुष्य वा व्यापक परमेश्वर करके (सुतम्) निचोड़े हुए, (यवाशिरम्) अन्न के भोजनयुक्त (सोमम्) सोमक्षरण [तत्त्व रस] को (अपिबत्) पिया है, (यथा) जैसा (अवशत्) उस [शूर] ने चाहा। (सः) उस [तत्त्वरस] ने (ईम्) प्राप्तियोग्य, (महाम्) महान् (उरुम्) लम्बे-चौड़े पुरुष को (महि) बड़े (कर्म) कर्म (कर्तवे) करने के लिये (ममाद) हर्षित किया है, (सः) वह (देवः) दिव्य (सत्यः) सत्य गुणवाला, (इन्दुः) ऐश्वर्यवान् [तत्त्वरस] (एनम्) इस (देवम्) कामनायोग्य, (सत्यम्) सच्चे [सत्यकर्मा] (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी मनुष्य] को (सश्चत्) व्यापा है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करके परमात्मा और विद्वानों के सिद्धान्तों पर चलता है, वही शूर संसार में बड़े-बड़े कर्म करके सर्वहितैषी होत है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-२।२२।१, सामवेद-पू० ।८।१। तथा साम०-उ० ६।३।२० ॥ १−(त्रिकद्रुकेषु) अ० २।।७। त्रि+क्रद कदि आह्वाने-क्रुन्, कप् च। तिसॄणां शारीरिकात्मिकसामाजिकवृद्धीनां कद्रुकेषु आह्वानेषु-विधानेषु (महिषः) महान् (यवाशिरम्) अ० २०।२४।७। अन्नभोजनयुक्तम् (तुविशुष्मः) बहुबलः (तृपत्) नुमभावः। तृप्यन् (सोमम्) तत्त्वरसम् (अपिबत्) पीतवान् (विष्णुना) कर्मसु व्यापकेन विदुषा सर्वव्यापकेन परमेश्वरेण वा (सुतम्) निष्पादितम् (यथा) येन प्रकारेण (अवशत्) वश कान्तौ-छान्दसः शप्। अवष्ट। अकामयत (सः) सोमः (ईम्) प्राप्तव्यम् (ममाद) हर्षितवान् (महि) महत् (कर्म) कर्तव्यम् (कर्तवे) तुमर्थे तवेन्। कर्तुम् (महाम्) महान्तम् (उरुम्) विस्तृतम् (सः) सोमः (एनम्) (सश्चत्) सश्चतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। असश्चत्। व्याप्तवान् (देवः) दिव्यः (देवम्) कमनीयम् (सत्यम्) यथार्थकर्माणम् (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं मनुष्यम् (सत्यः) सत्यगुणयुक्तः (इन्दुः) इदि परमैश्वर्ये-कु। परमैश्वर्यवान् सोमः ॥

०२ प्रो ष्वस्मै

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्रो ष्व॑स्मै पुरोर॒थमिन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चत।
अ॒भीके॑ चिदु लोक॒कृत्सं॒गे स॒मत्सु॑ वृत्र॒हास्माकं॑ बोधि चोदि॒ता नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

०२ प्रो ष्वस्मै ...{Loading}...

Griffith

Sing strength to Indra that shall set his chariot in the foremost place. Giver of room in closest fight, slayer of foes in shock of war, be thou our great encourager. Let the weak bowstrings break upon the bows of feeble enemies.

पदपाठः

प्रो इति॑। सु। अ॒स्मै॒। पु॒रः॒ऽर॒थम्। इन्द्रा॑य। शू॒षम्। अ॒र्च॒त॒। अ॒भीके॑। चि॒त्। ऊं॒ इति॑। लो॒क॒ऽकृत्। स॒म्ऽगे। स॒मत्ऽसु॑। वृ॒त्र॒ऽहा। अ॒स्माक॑म्। बो॒धि॒। चो॒दि॒ता। नभ॑न्ताम्। अ॒न्य॒केषा॑म्। ज्या॒काः। अधि॑। धन्व॑ऽसु। ९५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुदाः पैजवनः
  • शक्वरी
  • सूक्त-९५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (अस्मै) इस (इन्द्राय) इन्द्र [महाप्रतापी राजा] के लिये (पुरोरथम्) रथ को आगे रखनेवाले (शूषम्) शत्रुओं के सुखानेवाले बल का (सु) भले प्रकार से (प्रो) अवश्य ही (अर्चत) आदर करो। (अभीके) समीप में (चित् उ) ही (संगे) मिलने पर (समत्सु) परस्पर खाने के स्थान सङ्ग्रामों में (वृत्रहा) शत्रुनाशक (अस्माकम्) हमारा (चोदिता) प्रेरक [उत्साह बढ़ानेवाला] और (लोककृत्) स्थान करनेवाला (बोधि) जाना गया है। (अन्यकेषाम्) दूसरे खोटे लोगों की (ज्याकाः) निर्बल डोरियाँ (धन्वसु अधि) धनुषों पर चढ़ी हुई (नभन्ताम्) टूट जावें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस शूर राजा के प्रताप से उपद्रवी शत्रु लोग हार मानें और प्रजागण आगे बढ़ें, विद्वान् पुरुष उस वीर का सदा मान करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र २-४ ऋग्वेद में हैं-१०।१३३।१-३। और सामवेद-उ० ९।१। तृच १४ ॥ २−(प्रो) प्र उ इति निपातसमुदायः। ओत्। पा० १।१।१। इति प्रगृह्यम्। प्रकर्षेणैव। अवश्यमेव (सु) सुष्ठु (अस्मै) (पुरोरथम्) अग्रे रथयुक्तम् (इन्द्राय) महाप्रतापिने राज्ञे (शूषम्) अ० २०।७१।१६। शत्रुशोषकं बलम् (अर्चत) सत्कुरुत (अभीके) अलीकादयश्च। उ० ४।२। अभि+इण् गतौ-कीकन्। धातोर्लोपः। आसन्ने-निरु० ३।२०। (चित्) एव (उ) अवधारणे (लोककृत्) स्थानस्य कर्ता (संगे) संगमे (समत्सु) परस्परादनस्थानेषु संग्रामेषु (वृत्रहा) शत्रुनाशकः (अस्माकम्) (बोधि) अबोधि। ज्ञायते (चोदिता) प्रेरकः। उत्साहवर्धकः (नभन्ताम्) नभतेर्वधकर्मा-निघ० २।१९। हिंस्यन्ताम्। नश्यन्तु (अन्यकेषाम्) अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः। पा० ।३।७१। अन्य-अकच्। कुत्सितानामन्येषां शत्रूणाम् (ज्याकाः) कुत्सिते। पा० ।३।७४। ज्या-क प्रत्ययः। कुत्सितो निर्बला ज्याः (अधि) उपरि (धन्वसु) धनुःषु ॥

०३ त्वं सिन्धूँरवासृजोऽधराचो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्वं सिन्धूँ॒रवा॑सृजोऽध॒राचो॒ अह॒न्नहि॑म्।
अ॑श॒त्रुरि॑न्द्र जज्ञिषे॒ विश्वं॑ पुष्यसि॒ वार्यं॒ तं त्वा॒ परि॑ ष्वजामहे॒ नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

०३ त्वं सिन्धूँरवासृजोऽधराचो ...{Loading}...

Griffith

Thou didst destroy the Dragon: thou sentest the rivers down to earth. Foeless, O Indra, wast thou born. Thou tendest well each choicest thing. Therefore we draw us close to thee. Let the weak bowstrings break upon the bows of feeble enemies.

पदपाठः

त्वम्। सिन्धू॑न्। अव॑। अ॒सृ॒जः॒। अ॒ध॒राचः॑। अह॑न्। अहि॑म्। अ॒श॒त्रुः। इ॒न्द्र॒। ज॒ज्ञि॒षे॒। विश्व॑म्। पु॒ष्य॒सि॒। वार्य॑म्। तम्। त्वा॒। परि॑। स्व॒जा॒म॒हे॒। नभ॑न्ताम्। अ॒न्य॒केषा॑म्। ज्या॒काः। अधि॑। धन्व॑ऽसु। ९५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गृत्समदः
  • शक्वरी
  • सूक्त-९५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) तूने (अधराचः) नीचे को बहनेवाले (सिन्धून्) नदी-नालों को (अ असृजः) छोड़ दिया है, (अहिम्) पारनेवाले विघ्न को (अहन्) तूने मारा है। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] तू (अशत्रुः) निर्वैरी (जज्ञिषे) हो गया है, (विश्वम्) सब (वार्यम्) जल में होनेवाले [अन्न आदि] को (पुष्यसि) तू पुष्ट करता है, (तम्) उस (त्वाम्) तुझसे (परि ष्वजामहे) हम मिलते हैं। (अन्यकेषाम्) दूसरे खोटे लोगों की [मन्त्र २] ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा पहाड़ आदि जल स्थानों से नदी-नाले निकालकर खेती आदि उद्यम को बढ़ावें, जिससे प्रजागण उससे प्रीति करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(त्वम्) (सिन्धून्) स्यन्दनशीलान् जलपूरान्। नदीः कुल्याः (अव असृजः) अवसृष्टवान् निर्गमितवानसि (अधराचः) अधोमुखमञ्चतो गन्तॄन् (अहन्) हतवानसि (अहिम्) आहन्तारं विघ्नम् (अशत्रुः) शत्रुरहितः (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (जज्ञिषे) जनेर्लिट्। प्रादुर्बभूविथ (विश्वम्) सर्वम् (पुष्यसि) वर्धयसि (वार्यम्) वार्-यत्। वारि जले भवमुत्पन्नमन्नादिकम् (तम्) तादृशम् (त्वा) त्वाम् (परि) परितः (स्वजामहे) ष्वञ्ज आलिङ्गने। आलिङ्गामः। संगच्छामहे। अन्यत् पूर्ववत् ॥

०४ वि षु

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

वि षु विश्वा॒ अरा॑तयो॒ऽर्यो न॑शन्त नो॒ धियः॑।
अस्ता॑सि॒ शत्र॑वे व॒धं यो न॑ इन्द्र॒ जिघां॑सति॒ या ते॑ रा॒तिर्द॒दिर्वसु॑।
नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

०४ वि षु ...{Loading}...

Griffith

Destroyed be all malignities and all our enemy’s designs. Thy bolt thou castest at the foe, O Indra, who would smite us dead: thy liberal bounty gives us wealth. Let the weak bow- strings break upon the bows of feeble enemies.

पदपाठः

वि। सु। विश्वाः॑। अरा॑तयः। अ॒र्यः। न॒श॒न्त॒। नः॒। धियः॑। अस्ता॑। अ॒सि॒। शत्र॑वे। व॒धम्। यः। नः॒। इ॒न्द्र॒। जिघां॑सति। या। ते॒। रा॒तिः। द॒दिः। वसु॑। नम॑न्ताम्। अ॒न्य॒केषा॑म्। ज्या॒काः। अधि॑। धन्व॑ऽसु। ९५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुदाः पैजवनः
  • शक्वरी
  • सूक्त-९५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नः) हमारे (अर्यः) शत्रु की (विश्वाः) सब (अरातयः) कंजूस प्रजाएँ और (धियः) बुद्धियाँ (सु) सर्वथा (वि नशन्त) नष्ट हो जावें। (इन्द्रः) हे इन्द्र [महाप्रतापी राजन्] तू (शत्रवे) उस वैरी पर (वधम्) शस्त्र (अस्ता) चलानेवाला (असि) है, (यः) जो (नः) हमें (जिघांसति) मारना चाहता है, (या) जो (ते) तेरी (रातिः) दान शक्ति है, [वह] (वसु) धन को (ददिः) देनेवाली है। (अन्यकेषाम्) दूसरे खोटे लोगों की (ज्याकाः) निर्बल डोरियाँ (धन्वसु अधि) धनुषों पर चढ़ी हुई (नभन्ताम्) टूट जावें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा ऐसा प्रबन्ध करे कि दुष्ट लोग उपद्रव न मचावें और सदाचारी राजभक्त सन्तुष्ट होकर सुखी रहें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(वि) विविधम् (सु) सर्वथा (विश्वाः) सर्वाः (अरातयः) अदात्र्यः प्रजाः (अर्यः) अरेः। शत्रोः (नशन्त) नश्यन्तु (नः) अस्माकम् (धियः) बुद्धयः (अस्ता) क्षेप्ता (असि) (शत्रवे) (वधम्) आयुधम् (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (इन्द्रः) महाप्रतापिन् राजन् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (या) (ते) तव (रातिः) दानशक्तिः (ददिः) ददातेः-किप्रत्ययः। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्। पा० २।२।६९। इति वसुशब्दात् षष्ठ्यभावः। दात्री (वसु) धनम्। सिद्धमन्यत्-म० २ ॥