०९२

०९२ ...{Loading}...

०१ अभि प्र

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒भि प्र गोप॑तिं गि॒रेन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे।
सू॒नुं स॒त्यस्य॒ सत्प॑तिम् ॥

०१ अभि प्र ...{Loading}...

Griffith

Praise, even as he is known, with song Indra the guardian of the kine, The Son of Truth, Lord of the brave.

पदपाठः

अ॒भि। प्र। गोऽप॑तिम्। गि॒रा। इन्द्र॑म्। अ॒र्च॒। यथा॑। वि॒दे। सू॒नुम्। स॒त्यस्य॑। सत्ऽप॑तिम्। ९२.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • गायत्री
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-३ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (गोपतिम्) पृथिवी के पालक, (सत्यस्य) सत्य के (सूनुम्) प्रेरक, (सत्पतिम्) सत्पुरुषों के रक्षक (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को, (यथा) जैसा (विदे) वह है, (गिरा) स्तुति के साथ (अभि) सब ओर से (प्र) अच्छे प्रकार (अर्च) तू पूज ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे राजा उत्तम गुणवाला हो, वैसे ही मनुष्यों को उसकी यथार्थ बड़ाई करनी चाहिये ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १-—१। ऋग्वेद में है-८।६९ [सायणभाष्य ८]। ४-१८। मन्त्र १-३ आचुके हैं- अथर्व० २०।२२।४-६ ॥ १-३ व्याख्याताः-अ० २०।२२।४-६ ॥

०२ आ हरयः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ हर॑यः ससृज्रि॒रेऽरु॑षी॒रधि॑ ब॒र्हिषि॑।
यत्रा॒भि सं॒नवा॑महे ॥

०२ आ हरयः ...{Loading}...

Griffith

Hither his bay steeds have been sent, red steeds are on the sacred grass. Where we in concert sing our songs.

पदपाठः

आ। हर॑यः। स॒सृ॒ज्रि॒रे॒। अरु॑षीः। अधि॑। ‍ब॒र्हिषि॑। यत्र॑। अ॒भि। स॒म्ऽनवा॑महे। ९२.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • गायत्री
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-३ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हरयः) दुःख हरनेवाले मनुष्य (अरुषीः) गतिशील [प्रजाओं] को (बर्हिषि) बढ़ती के स्थान में (अधि) अधिकारपूर्वक (आ ससृज्रिरे) लाये हैं, (यत्र) जहाँ पर [तुझ राजा को] (अभि) सब ओर से (संनवामहे) हम मिलकर सराहते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस राजा की सुनीति से विद्या द्वारा उन्नति होवे, प्रजासहित विद्वान् जन उसके गुणों का गान करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १-३ व्याख्याताः-अ० २०।२२।४-६ ॥

०३ इन्द्राय गाव

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्रा॑य॒ गाव॑ आ॒शिरं॑ दुदु॒ह्रे व॒ज्रिणे॒ मधु॑।
यत्सी॑मुपह्व॒रे वि॒दत् ॥

०३ इन्द्राय गाव ...{Loading}...

Griffith

For Indra thunder-armed the kine have yielded mingled milk and meath. What time he found them in the vault.

पदपाठः

इन्द्रा॑य। गावः॑। आ॒ऽशिर॑म्। दु॒दु॒ह्रे। व॒ज्रिणे॑। मधु॑। यत्। सी॒म्। उ॒प॒ऽह्व॒रे। वि॒दत्। ९२.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • गायत्री
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-३ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिणे) वज्रधारी (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] के लिये (गावः) वेदवाणियों ने (आशिरम्) सेवने वा पकाने योग्य पदार्थ [दूध, दही, घी आदि] को और (मधु) मधुविद्या [यथार्थ ज्ञान] को (दुदुह्रे) भर दिया है। (यत्) जबकि उसने [उन वेदवाणियों को] (उपह्वरे) अपने पास (सीम्) सब प्रकार (विदत्) पाया ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ऐश्वर्यवान् पुरुष वेदवाणियों से सुशिक्षित होकर दूध आदि, भोग्य पदार्थ प्राप्त करके यथार्थ ज्ञान बढ़ावें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १-३ व्याख्याताः-अ० २०।२२।४-६ ॥

०४ उद्यद्ब्रध्नस्य विष्टपम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

उद्यद्ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॑ गृ॒हमिन्द्र॑श्च॒ गन्व॑हि।
मध्वः॑ पी॒त्वा स॑चेवहि॒ त्रिः स॒प्त सख्युः॑ प॒दे ॥

०४ उद्यद्ब्रध्नस्य विष्टपम् ...{Loading}...

Griffith

When I and Indra amount on high up to the bright One’s place and home, We, having drunk of meath, will reach his seat whose Friends are three-times-seven.

पदपाठः

उत्। यत्। ब्र॒ध्नस्य॑। वि॒ष्टप॑म्। गृ॒हम्। इन्द्रः॑। च॒। गन्व॑हि। मध्वः॑। पी॒त्वा। स॒चे॒व॒हि॒। त्रि। स॒प्त। सख्युः॑। प0952गदे। ९२.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (ब्रध्नस्य) नियम करनेवाले [वा महान्, परमेश्वर] के (विष्टपम्) सहारे [अर्थात्] (गृहम्) शरण को (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला आचार्य] (च) और [मैं ब्रह्मचारी] (उत्) ऊँचे होकर (गन्वहि) हम दोनों प्राप्त करें। (त्रिः) तीन बार [सत्त्व, रज, तम तीनों गुणों सहित] (सप्त) सात [भूर् भुवः आदि सात अवस्थाओंवाले संसार] के (मध्वः) निश्चित ज्ञान का (पीत्वा) पान करके (सख्युः) सखा [मित्र, परमात्मा] के (पदे) पद [प्राप्तियोग्य मोक्षसुख] में (सचेवहि) हम दोनों सींचे जावें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - आचार्य और जिज्ञासु ब्रह्मचारी परमात्मा की शरण लेकर सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों द्वारा भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्य इन सात अवस्थाओं से सूक्ष्म और स्थूल पदार्थों को जानकर मोक्ष पद प्राप्त करके सदा वृद्धि करें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(उत्) उच्चैः (यत्) यदा (ब्रध्नस्य) अ० ७।२२।२। नियामकस्य। महतः परमेश्वरस्य (विष्टपम्) अ० १०।१०।३१। आश्रयम् (गृहम्) शरणम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवानाचार्यः (च) अहं ब्रह्मचारी च (गन्वहि) आवां प्राप्नुयाम (मध्वः) मधुनः। यथार्थज्ञानस्य (पीत्वा) पानं कृत्वा। अनुभूय (सचेवहि) षच समवाये सेके च। सिक्तौ प्रवृद्धौ भवेव (त्रिः) त्रिवारं सत्त्वरजस्तमोगुणैः (सप्त) भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्, इति सप्तावस्थाविशेषसम्बन्धिनः संसारस्य (सख्युः) सर्वमित्रस्य परमेश्वरस्य (पदे) प्राप्तव्ये मोक्षसुखे ॥

०५ अर्चत प्रार्चत

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अर्च॑त॒ प्रार्च॑त॒ प्रिय॑मेधासो॒ अर्च॑त।
अर्च॑न्तु पुत्र॒का उ॒त पुरं॒ न धृ॒ष्ण्व᳡र्चत ॥

०५ अर्चत प्रार्चत ...{Loading}...

Griffith

Sing, sing ye forth your songs of praise, ye Priyamedhas, sing your songs: Yea, let young children sing their lauds: as a strong castle praise ye him.

पदपाठः

अर्च॑त। प्र। अ॒र्च॒त॒। प्रिय॑ऽमेधासः। अर्च॑त। अर्च॑न्तु। पु॒त्र॒काः। उ॒त। पुर॑म्। न। धृ॒ष्णु। अ॒र्च॒त॒। ९२.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियमेधासः) हे प्यारी [हितकारिणी] बुद्धिवाले पुरुषो ! (धृष्णु) निर्भय (पुरं न) गढ़ के समान [उस परमेश्वर] को (अर्चत) पूजो, (प्र) अच्छे प्रकार (अर्चत) पूजो, (अर्चत) पूजो, (अर्चत) पूजो, (उत) और (पुत्रकाः) गुणी सन्तानें [उस को] (अर्चन्तु) पूजें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि वे अपने पुत्र-पुत्रियों सहित प्रत्येक क्षण में, प्रत्येक पदार्थ में, प्रत्येक कर्म में परमात्मा की शक्ति को निहारकर आत्मा की उन्नति करें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से सामवेद में भी है-पू० ४।८।३ ॥ −(अर्चत) पूजयत-इन्द्रं, परमात्मानम् (प्र) प्रकर्षेण (अर्चत) (प्रियमेधासः) अ० २०।१०।२। प्रियमेध-असुक् जसि। प्रिया हितकरी मेधा प्रज्ञा येषां तत्सम्बुद्धौ (अर्चत) (अर्चन्तु) पूजयन्तु (पुत्रकाः) अनुकम्पायाम्। पा० ।३।७६। पुत्र-क प्रत्ययः। गुणिनः सन्तानाः (उत) अपि च (पुरम्) दुर्गम् (न) यथा (धृष्णु) निर्भयम् (अर्चते) ॥

०६ अव स्वराति

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अव॑ स्वराति॒ गर्ग॑रो गो॒धा परि॑ सनिष्वणत्।
पिङ्गा॒ परि॑ चनिष्कद॒दिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मोद्य॑तम् ॥

०६ अव स्वराति ...{Loading}...

Griffith

Now loudly let the viol sound, the lute send out its voice with might, Shrill be the music of the string. To Indra is the hymn upraised.

पदपाठः

अव॑। स्वा॒रा॒ति॒। गर्ग॑रः। गो॒धा। परि॑। स॒नि॒व॒न॒त्। पिङ्गा॑। परि॑। च॒नि॒स्क॒द॒त्। इन्द्रा॑य। ब्रह्म॑। उत्ऽय॑तम्। ९२.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] के लिये (उद्यतम्) ऊँचे किये हुए (ब्रह्म) वेदज्ञान का (गर्गरः) गर्गर [सारंगी आदि बाजा] (अव स्वराति) स्वर आलापे, (गोधा) गोधा [वीणा आदि बाजा] (परि सनिष्वणत्) बोल बोले, और (पिङ्गा) पिङ्गा [धनुष की दृढ़ डोरी] (परि चनिष्कदत्) टङ्कार करे ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि घर के बीच उत्सवों में और युद्धक्षेत्र के बीच संग्रामों में परमात्मा का स्मरण भली-भाँति करते रहें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(अव स्वराति) निश्चयेन शब्दयेत् (गर्गरः) अ० ४।१।१२। गॄ शब्दे-गप्रत्ययः+रा दाने-कप्रत्ययः। गर्गरस्य कलशस्य ध्वनियुक्तो वाद्यविशेषः (गोधा) अ० ४।३।६। गुध परिवेष्टने-घञ् टाप्। वीणादिवाद्यविशेषः (परि) सर्वतः (सनिष्वणत्) स्वन शब्दे, यङ्लुकि लेट्। भृशं ध्वनिं कुर्यात् (पिङ्गा) अ० ८।६।६। पिजि बले दीप्तौ च-अच्, कुत्वम्। दृढा धनुर्ज्या (परि) (चनिष्कदत्) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-यङ्लुकि लेट्। गतिं कुर्यात् टङ्कारयेत् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते परमात्मने (ब्रह्म) वेदज्ञानम् (उद्यतम्) ऊर्ध्वीकृतम् ॥

०७ आ यत्पतन्त्येन्यः

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आ यत्पत॑न्त्ये॒न्यः᳡ सु॒दुघा॒ अन॑पस्फुरः।
अ॑प॒स्फुरं॑ गृभायत॒ सोम॒मिन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥

०७ आ यत्पतन्त्येन्यः ...{Loading}...

Griffith

When hither speed the dappled cows, unflinching, easy to be milked, Seize quickly, as it bursts away, the Soma juice for Indra’s drink.

पदपाठः

आ। यत्। पत॑न्ति। ए॒न्यः॑। सु॒ऽदुघाः॑। अन॑पऽस्‍फुरः। अ॒प॒ऽस्फुर॑म्। गृ॒भा॒य॒त॒। सोम॑म्। इन्द्रा॑य। पात॑वे। ९२.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (एन्यः) गतिवाली, (सुदुघाः) अच्छे प्रकार कामनाएँ पूरी करनेवाली, (अनपस्फुरः) निश्चल बुद्धियाँ (आ पतन्ति) आ जावें, [त्ब] (अपस्फुरम्) अत्यन्त बढ़े हुए (सोमम्) उत्पन्न करनेवाले परमात्मा को (इन्द्राय) बड़े ऐश्वर्य की (पातवे) रक्षा के लिये (गृभायत) तुम ग्रहण करो ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य सबमें गतिवाली उत्तम बुद्धि को प्राप्त होकर परमेश्वर का आश्रय लेकर अपना ऐश्वर्य बढ़ावें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(आ पतन्ति) आगच्छन्ति (यत्) यदा (एन्यः) वीज्याज्वरिभ्यो निः। उ० ४।४८। इण् गतौ-निप्रत्ययः, ङीप्। एन्यो नदीनाम-निघ० १।१३। गतिशीलाः (सुदुघाः) सुष्ठु कामानां प्रपूरयित्र्यः (अनपस्फुरः) अन् अप+स्फुर संचलने-क्विप्। निश्चला बुद्धयः (अपस्फुरम्) अप+स्फुर संचलने वृद्धौ च क्विप्। अत्यन्तं प्रवृद्धम् (गृभायत) गृह्णीत (सोमम्) उत्पादकं परमात्मानम् (इन्द्राय) ऐश्वर्यम् (पातवे) पातुम्। रक्षितुम् ॥

०८ अपादिन्द्रो अपादग्निर्विश्वे

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अपा॒दिन्द्रो॒ अपा॑द॒ग्निर्विश्वे॑ दे॒वा अ॑मत्सत।
वरु॑ण॒ इदि॒ह क्ष॑य॒त्तमापो॑ अ॒भ्य᳡नूषत व॒त्सं सं॒शिश्व॑रीरिव ॥

०८ अपादिन्द्रो अपादग्निर्विश्वे ...{Loading}...

Griffith

Indra hath drunk; Agni hath drunk all Deities have drunk their fill. Here Varuna shall have his home, to whom the floods have sung aloud as mother-kine unto their calves.

पदपाठः

अपा॑त्। इन्द्रः॑। अपा॑त्। अ॒ग्निः। विश्वे॑। दे॒वाः। अ॒म॒त्स॒त॒। वरु॑णः। इत्। इह। क्ष॒य॒त्। तम्। आपः॑। अ॒भि। अ॒नू॒ष॒त॒। व॒त्सम्। सं॒शिश्व॑रीःऽइव। ९२.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विश्वेदेवाः, वरुणः
  • प्रियमेधः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [प्रतापी सूर्य] ने [पृथिवी आदि के जल को] (अपात्) पिया है, (अग्निः) अग्नि ने [काठ हव्य आदि के रस को] (अपात्) पिया है, [उस से] (विश्वे) सब (देवाः) व्यवहार करनेवाले प्राणी (अमत्सत) तृप्त हुए हैं। (इह) इस [सब कर्म] में (वरुणः) श्रेष्ठ परमात्मा (इत्) ही (क्षयत्) समर्थ हुआ है, (तम्) उस [परमात्मा] को (आपः) प्राप्त प्रजाओं ने (अभि) सब प्रकार (अनूषत) [प्रीति से] सराहा है, (इव) जैसे (संशिश्वरीः) मिलती हुई गौएँ (वत्सम्) बछड़े को [प्रीति करती हैं] ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा के नियम से सूर्य जल को खींचकर वृष्टि द्वारा अन्न आदि उत्पन्न करने में, और आग लकड़ी, घी आदि पदार्थों को जलाकर अशुद्धि हटाने और भोजन आदि बनाने में उपकार करता है, उस परमेश्वर से सब मनुष्य आपा छोड़कर इस प्रकार प्रीति करें, जैसे गौ आपा छोड़कर अपने छोटे बच्चे से प्रीति करती है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(अपात्) पा पाने-लुङ्। पीतवान् पृथिव्यादिजलम् (इन्द्रः) प्रतापी सूर्यः (अपात्) पीतवान् काष्ठहव्यादिरसम् (अग्निः) प्रसिद्धः (विश्वे) (देवाः) व्यवहारिणः प्राणिनः (अमत्सत) मदी हर्षे। तृप्ता अभवन् (वरुणः) श्रेष्ठः परमात्मा (इत्) एव (इह) अस्मिन् सर्वस्मिन् कर्मणि (क्षयत्) क्षि ऐश्वर्ये। समर्थोऽभवत् (तम्) वरुणम् (आपः) प्राप्ताः प्रजाः (अभि) (अनूषत) अ० २०।१७।१। अस्तुवन् (वत्सम्) गोशिशुम् (संशिश्वरीः) स्नामदिपद्यर्त्ति०। उ० ४।११३। सम्+शश प्लुतगतौ-वनिप्। अकारस्य इकारः। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। संशिश्वर्यः संगच्छमाना गावः (इव) यथा ॥

०९ सुदेवो असि

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सु॑दे॒वो अ॑सि वरुण॒ यस्य॑ ते स॒प्त सिन्ध॑वः।
अ॑नु॒क्षर॑न्ति का॒कुदं॑ सू॒र्यं᳡ सुषि॒रामि॑व ॥

०९ सुदेवो असि ...{Loading}...

Griffith

Thou, Varuna, to whom belong the Seven Streams, art a glorious God. The waters flow into thy throat as’twere a pipe with ample mouth.

पदपाठः

सु॒ऽदे॒वः। अ॒सि॒। व॒रु॒ण॒। यस्य॑। ते॒। स॒प्त। सिन्ध॑वः। अ॒नु॒ऽक्षर॑न्ति। का॒कुद॑म्। सू॒र्म्य॑म्‌। स॒सु॒विराम्ऽइ॑व। ९२.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) हे श्रेष्ठ परमात्मन् ! तू (सुदेवः) बड़ा देव [अति प्रकाशमान वा दानी] (असि) है, (यस्य ते) जिस तेरे (काकुदम्) तालू को (सप्त) सात (सिन्धवः) बहते हुए समुद्र [अर्थात् भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्य, इन सात अवस्थाओं वाले सब लोक] (अनुक्षरन्ति) निरन्तर सींचते हैं, (इव) जैसे (सूर्म्यम्) बड़े वेगवाले (सुषिराम्) झरने को [जल सींचते हैं] ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - इस मन्त्र के लिये-अ० २०।३४।३ और निरुक्त ।२७। भी देखो। जिस परमात्मा की आज्ञा में यह सब बड़े-छोटे लोक इस प्रकार झुकते हैं, जैसे जल दूर-दूर से एकत्र होकर स्रोतों में झुककर गिरते हैं, हे मनुष्यो ! तुम अभिमान छोड़कर उसी जगदीश्वर के समाने झुको ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(सुदेवः) कल्याणदेवः। अतिप्रकाशमानः। महाधनी (असि) (वरुण) हे श्रेष्ठ परमात्मन् (यस्य) (ते) तव (सप्त) सप्तसंख्याकाः (सिन्धवः) स्यन्दमानाः समुद्राः। भूर्भुवराद्यवस्थाविशेषयुक्ताः सर्वे लोकाः (अनुक्षरन्ति) निरन्तरं सिञ्चन्ति (काकुदम्) तालु-निरु० ।२६। (सूर्म्यम्) कल्याणोर्मिम्। सुवेगवतीम् (सुषिराम्) इषिमदिमुदि०। उ० १।१। शुष शोषणे-किरच्, टाप्, शस्य सः। जलनिःसरणच्छिद्रम्। स्रोतः (इव) यथा ॥

१० यो व्यतीँरफाणयत्सुयुक्ताँ

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यो व्यतीँ॒रफा॑णय॒त्सुयु॑क्ताँ॒ उप॑ दा॒शुषे॑।
त॒क्वो ने॒ता तदिद्वपु॑रुप॒मा यो अमु॑च्यत ॥

१० यो व्यतीँरफाणयत्सुयुक्ताँ ...{Loading}...

Griffith

He who hath made the fleet steeds spring, well-harnessed, to the worshipper, He, the swift guide, is that fair form thot loosed the horses near at hand.

पदपाठः

यः। व्यती॑न्। अफा॑णयत्। सुऽयु॑क्तान्। उप॑। दा॒शुषे॑। त॒क्वः। ने॒ना। तत्। इत्। वपुः॑। उ॒प॒ऽमा। यः। अमु॑च्यत। ९२.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जिस [परमात्मा] ने (व्यतीन्) विविध प्रकार चलते रहनेवाले, (सुयुक्तान्) बड़े योग्य पदार्थों को (दाशुषे) आत्मदानी [भक्त] के लिये (उप) सुन्दर रीति से (अफाणयत्) सहज में उत्पन्न किया है और (यः) जिस [परमात्मा] ने (उपमाः) पास रहनेवाले को (अमुच्यत) [दुःखों से] मुक्त किया है, (तत् इत्) वही (वपुः) बीज बोनेवाला [ब्रह्म] (तक्वः) व्यापक (नेता) नेता [अगुआ परमात्मा] है ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा ने अपने सहज स्वभाव से अनोखे-अनोखे पदार्थ रचकर अपने विवेकी भक्तों को परम आनन्द दिया है, सब मनुष्य उस सर्वशक्तिमान् की उपासना करके सुखी होवें ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(यः) परमात्मा (व्यतीन्) अत सातत्यगमने-इन्। विविधसदागमनशीलान् (अफाणयत्) फण गतौ अनायासेनोत्पत्तौ च-णिच्। फणतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अनायासेनोत्पादितवान् (सुयुक्तान्) सुयोग्यान् पदार्थान् (उप) पूजायाम् (दाशुषे) आत्मदानिने। उपासकाय (तक्वः) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१। तकतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। वप्रत्ययः। व्यापकः (नेता) (तत्) (इत्) एव (वपुः) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। डुवप बीजतन्तुसन्ताने-उसि। बीजोत्पादकं ब्रह्म (उपमा) विभक्तेराकारः। उपमे अन्तिकनाम-निघ० २।१६। उपमं निकटस्थम्। उपासकम् (यः) परमात्मा (अमुच्यत) मुक्तवान् दुःखेभ्यः ॥

११ अतीदु शक्र

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अतीदु॑ श॒क्र ओ॑हत॒ इन्द्रो॒ विश्वा॒ अति॒ द्विषः॑।
भि॒नत्क॒नीन॑ ओद॒नं प॒च्यमा॑नं प॒रो गि॒रा ॥

११ अतीदु शक्र ...{Loading}...

Griffith

Indra, the very mighty, holds his enemies in utter scorn. He, far away, and yet a child, cleft the cloud smitten by his voice.

पदपाठः

अति॑। इत्। ऊं॒ इति॑। श॒क्रः। ओ॒हते॒। इन्द्रः॑। विश्वाः॑। अति॑। द्विषः॑। भि॒नत्। क॒नीनः॑। ओ॒द॒नम्। प॒च्यमा॑नम्। प॒रः। गि॒रा। ९२.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शक्रः) शक्तिमान् (इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाला परमात्मा] (इत्) ही (उ) अवश्य (अति) तिरस्कार करके (विश्वाः) सब (द्विषः) विरोध करनेवाली प्रजाओं को (अति) सर्वथा (ओहते) मारता है, [जैसे] (कनीनः) चमकता हुआ सूर्य (गिरा) वाणी [गर्जन] से (पच्यमानम्) पचाये गये [ताड़े गये] (ओदनम्) मेघ को (परः) दूर (भिनत्) छिन्न-भिन्न करता है ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हमारे सब विघ्नों को दूर कर देता है, जैसे सूर्य मेघ को छिन्न-भिन्न करके प्रकाश करता है ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(अति) अतीत्य। उल्लङ्घ्य (इत्) एव (उ) अवश्यम् (शक्रः) शक्तिमान् (ओहते) उहिर् अर्दने। नाशयति (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (विश्वाः) सर्वाः (अति) सर्वथा (द्विषः) द्वेष्ट्रीः प्रजाः (भिनत्) भिनत्ति (कनीनः) कनतिः कान्तिकर्मा-निघ० २।६। ईन् प्रत्ययः। प्रकाशमानः सूर्यः (ओदनम्) मेघम्-निघ० १।१०। (पच्यमानम्) ताड्यमानमित्यर्थः (परः) परस्तात्। दूरे (गिरा) शब्देन। गर्जनेन ॥

१२ अर्भको न

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अ॑र्भ॒को न कु॑मार॒कोऽधि॑ तिष्ठ॒न्नवं॒ रथ॑म्।
स प॑क्षन्महि॒षं मृ॒गं पि॒त्रे मा॒त्रे वि॑भु॒क्रतु॑म् ॥

१२ अर्भको न ...{Loading}...

Griffith

He, yet a boy exceeding small, mounted his newly-fashioned car. He for his Mother and his Sire cooked the wild mighty buffalo.

पदपाठः

अ॒र्भ॒कः। न। कु॒मा॒र॒कः। अधि॑। ति॒ष्ठ॒त्। नव॑म्। रथ॑म्। सः। प॒क्ष॒त्। म॒हि॒षम्। मृ॒गम्। पि॒त्रे। मा॒त्रे। वि॒भुऽक्रतु॑म्। ९२.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे (कुमारकः) खिलाड़ी (अर्भकः) बालक (नवम्) नवे (रथम्) रथ पर (अधि तिष्ठत्) चढ़े। [वैसे ही] (सः) वह [जिज्ञासु] (मात्रे) माता के लिये और (पित्रे) पिता के लिये (महिषम्) महान् (मृगम्) खोजने योग्य (विभुक्रतुम्) व्यापक कर्मवाले [परमात्मा] को (पक्षत्) ग्रहण करे ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे छोटा बालक रथ आदि क्रीड़ा आदि वस्तुओं में प्रीति करता है, वैसे ही जिज्ञासु पुरुष माता-पिता की प्रसन्नता के लिये महान् परमात्मा में प्रीति करके अपना जीवन सुधारे ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १२−(अर्भकः) बालकः (न) यथा (कुमारकः) कुमार क्रीडायाम्-वुन्। क्रीडकः (अधितिष्ठत्) आरोहेत् (नवम्) नवीनम् (रथम्) यानम् (सः) जिज्ञासुः (पक्षत्) परिगृह्णीयात् (महिषम्) महान्तम् (मृगम्) मृग्यम्। अन्वेषणीयम् (पित्रे) पितृप्रसादाय (मात्रे) मातृप्रसादाय (विभुक्रतुम्) व्यापककर्माणं परमात्मानम् ॥

१३ आ तू

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आ तू सु॑शिप्र दम्पते॒ रथं॑ तिष्ठा हिर॒ण्यय॑म्।
अध॑ द्यु॒क्षं स॑चेवहि स॒हस्र॑पादमरु॒षं स्व॑स्ति॒गाम॑ने॒हस॑म् ॥

१३ आ तू ...{Loading}...

Griffith

Lord of the Home, with beauteous cheeks, ascend thy chariot wrought of gold. We will attend the heavenly One; the thousand-footed, red of hue, matchless, who blesses where he goes.

पदपाठः

आ। तु। सु॒ऽशि॒प्र॒। इ॒म्ऽप॒ते॒। रथ॑म्। ति॒ष्ठ॒। हि॒र॒ण्यय॑म्। अध॑। द्यु॒क्षम्। स॒चे॒व॒हि॒। स॒हस्र॑ऽपादम्। अ॒रु॒षम्। स्व॒स्ति॒ऽगाम्। अ॒ने॒हस॑म्। ९२.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सुशिप्र) हे बड़े ज्ञानी ! [दम्पते] हे दमनरक्षक [जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी] (हिरण्ययम्) प्रकाशमय [ज्ञानरूपी] (रथम्) रथ पर (तु) शीघ्र (आ तिष्ठ) चढ़। (अध) फिर (द्युक्षम्) व्यवहारों में समर्थ, (सहस्रपादम्) सहस्रों [असीम] गति शक्तिवाले, (अरुधम्) व्यापक (स्वस्तिगाम्) आनन्द पहुँचानेवाले, (अनेहसम्) निर्दोष परमात्मा को (सचेवहि) हम दोनों [आचार्य और ब्रह्मचारी] मिल जावें –॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब ब्रह्मचारी ब्रह्मविद्या में पूरी निष्ठा करता है, तब आचार्य और ब्रह्मचारी परमात्मा के आश्रय में पूरा आनन्द पाते हैं ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(आ तिष्ठ) आरोह (तु) क्षिप्रम् (सुशिप्र) अ० २०।७१।९। हे बहुज्ञानयुक्त ब्रह्मचारिन् (दम्पते) दमु उपशमे-क्विप्। हे दमनरक्षक जितेन्द्रिय (रथम्) (हिरण्ययम्) तेजोमयज्ञानरूपम् (अध) अनन्तरम् (द्युक्षम्) अ० २०।९।२। दिवु व्यवहारे-डिवि+क्षि ऐश्वर्ये-ड। व्यवहारेषु समर्थम् (सचेवहि) आवामाचार्यब्रह्मचारिणौ संगच्छेवहि। संगती भवेव (सहस्रपादम्) अ० ७।४१।२। असीमगतिशक्तियुक्तम् (अरुषम्) अर्तिपॄवपि०।२।११७। ऋ गतौ-उसि। व्यापकम् (स्वस्तिगाम्) आनन्दस्य गमयितारं प्रापकम् (अनेहसम्) निर्दोषं परमात्मानम् ॥

१४ तं घेमित्था

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तं घे॑मि॒त्था न॑म॒स्विन॒ उप॑ स्व॒राज॑मासते।
अर्थं॑ चिदस्य॒ सुधि॑तं॒ यदेत॑व आव॒र्तय॑न्ति दा॒वने॑ ॥

१४ तं घेमित्था ...{Loading}...

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With reverence they come hitherward to him as to a sovran lord, That they may bring him near for this man’s good success, to prosper and bestow his gifts.

पदपाठः

तम्। घ॒। ई॒म्। इ॒त्था। न॒म॒स्विनः॑। उप॑। स्व॒ऽराज॑म्। आ॒स॒ते॒। अर्थ॑म्। चि॒त्। अ॒स्य॒। सुऽधि॑तम्। यत्। एत॑वे। आ॒ऽव॒र्तय॑न्ति। दा॒वने॑। ९२.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • पथ्याबृहती
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) उस (घ) ही (ईम्) प्राप्तियोग्य (स्वराजम्) स्वराजा [अपने आप राजा परमेश्वर] को (इत्था) इस प्रकार (नमस्विनः) नमस्कार करनेवाले लोग (उप आसते) पूजते हैं, (यत्) जब कि वे (अस्य) उस [परमात्मा] का (चित्) ही (सुधितम्) भले प्रकार रक्खा हुआ (अर्थम्) पाने योग्य धन (एतवे) पाने के लिये और (दावने) दान के लिये [उस परमात्मा] को (आवर्तयन्ति) सामने वर्तमान करते हैं ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो परमात्मा अपने आप सबका राजा है, सब लोग उसकी आज्ञा मानकर विविध प्रकार धन प्राप्त करके सुपात्रों का सहाय करें ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १४−(तम्) (घ) एव (ईम्) प्राप्यम् (इत्था) इत्थम्। अनेन प्रकारेण (नमस्विनः) नमस्कारयुक्ताः (उप आसते) सेवन्ते (स्वराजम्) स्वयं राजानं शासकम् (अर्थम्) अरणीयं, प्रापणीयं धनम् (चित्) एव (अस्य) परमात्मनः (सुधितम्) सुष्ठु स्थापितम् (यत्) यदा (एतवे) एतुम्। प्राप्तुम् (आवर्तयन्ति) अभिमुखं वर्तमानं कुर्वन्ति (दावने) दानाय ॥

१५ अनु प्रत्नस्यौकसः

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अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सः प्रि॒यमे॑धास एषाम्।
पूर्वा॒मनु॒ प्रय॑तिं वृ॒क्तब॑र्हिषो हि॒तप्र॑यस आशत ॥

१५ अनु प्रत्नस्यौकसः ...{Loading}...

Griffith

The Priyamedhas have observed the offering of the men of old, Of ancient custom, while they strewed the sacred grass and spread their sacrificial food.

पदपाठः

अनु॑। प्र॒त्नस्य॑। ओक॑सः। प्रि॒यऽमे॑धासः। ए॒षा॒म्। पूर्वा॑म्। अनु॑। प्रऽय॑तिम्। वृ॒क्तऽब॑र्हिष। हि॒तऽप्र॑यसः। आ॒श॒त॒। ९२.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • पथ्याबृहती
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (एषाम्) इन प्राणियों के बीच (प्रियमेधासः) प्यारी बुद्धिवाले, (वृक्तबर्हिषः) हिंसा त्यागनेवाले (हितप्रयसः) हितकारी अन्नवाले पुरुषों ने (प्रत्नस्य) सनातन (ओकसः) आश्रय [परमात्मा] के (अनु) पीछे होकर (पूर्वाम्) पहिली (प्रयतिम्) प्रयत्न रीति को (अनु) निरन्तर (आशत) पाया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - इन प्राणियों के बीच सर्वहितैषी विद्वान् लोग परमात्मा का आश्रय लेकर आनन्द पावें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(अनु) अनुकृत्य (प्रत्नस्य) पुराणस्य (ओकसः) आश्रयस्य परमेश्वरस्य (प्रियमेधासः) हितकरमेधायुक्ताः (एषाम्) मनुष्याणां मध्ये (पूर्वाम्) प्रथमाम् (अनु) निरन्तरम् (प्रयतिम्) यती प्रयत्ने-इन्। प्रयत्नरीतिम् (वृक्तबर्हिषः) अ० २०।२।१। त्यक्तहिंसाः (हितप्रयसः) हितकरान्नयुक्ताः (आशत) प्राप्तवन्तः ॥

१६ यो राजा

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यो राजा॑ चर्षणी॒नां याता॒ रथे॑भि॒रध्रि॑गुः।
विश्वा॑सां तरु॒ता पृत॑नानां॒ ज्येष्ठो॒ यो वृ॑त्र॒हा गृ॒णे ॥

१६ यो राजा ...{Loading}...

Griffith

He who as sovran Lord of men moves with his chariots unrestrained, The Vritra-slayer, queller of all fighting hosts, preeminent, is praised in song.

पदपाठः

यः। राजा॑। च॒र्ष॒णी॒नाम्। याता॑। रथे॑भिः। अध्रिः॑ऽगुः। विश्वा॑साम्। त॒रु॒ता। पृत॑नानाम्। ज्येष्ठः॑। यः। वृ॒त्र॒ऽहा। गृ॒णे। ९२.१६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • पुरुहन्मा
  • प्रगाथः
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [परमेश्वर] (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का (राजा) राजा (रथेभिः) रथों [के समान रमणीय लोक] के साथ (अध्रिगुः) बे-रोक (याता) चलनेवाला, और (यः) जो (विश्वासाम्) सब (पृतनानाम्) शत्रु सेनाओं का (तरुता) हरानेवाला, (ज्येष्ठः) अतिश्रेष्ठ (वृत्रहा) अन्धकारनाशक है, [उस की] (गृणे) मैं स्तुति करता हूँ ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो परमात्मा सब मनुष्य आदि प्राणियों और सूर्य आदि लोकों का स्वामी है, हम उसके गुणों को ग्रहण करके सब कष्टों से बचें ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १६-२१ ऋग्वेद में है-८।७० [सायणभाष्य ९]।१-६। मन्त्र १६, १७ सामवेद-उ० ३।१।१, मन्त्र १६, सामवेद-पू० ३।९।१, मन्त्र १६, १७ आगे हैं-अ० २०।१०।४, ॥ १६−(यः) परमेश्वरः (राजा) ऐश्वर्यवान् (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (याता) गन्ता (रथेभिः) रथसदृशै रमणीयलोकैः सह (अध्रिगुः) अ० २०।३।१। अधृतगमनः। अनिवारितगतिः (विश्वासाम्) सर्वासाम् (तरुता) ग्रसितस्कभितस्तभितो०। पा० ७।२।३४। इकारस्य उकारः। तरिता। अभिभविता (पृतनानाम्) शत्रुसेनानाम् (ज्येष्ठः) अतिश्रेष्ठः। अतिवृद्धः (यः) (वृत्रहा) अन्धकारनाशकः (गृणे) स्तौमि तम् ॥

१७ इन्द्रं तम्

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इन्द्रं॒ तं शु॑म्भ पुरुहन्म॒न्नव॑से॒ यस्य॑ द्वि॒ता वि॑ध॒र्तरि॑।
हस्ता॑य॒ वज्रः॒ प्रति॑ धायि दर्श॒तो म॒हो दि॒वे न सूर्यः॑ ॥

१७ इन्द्रं तम् ...{Loading}...

Griffith

Honour that Indra, Puruhanman! for his aid, in whose sustain- ing hand of old. The splendid bolt of thunder was deposited, as the great Sun was set in heaven.

पदपाठः

इन्द्र॑म्। तम्। शु॒म्भ॒। पु॒रु॒ऽह॒न्म॒न्। अव॑से। यस्य॑। द्वि॒ता। वि॒ऽध॒र्तरि॑। हस्ता॑य। वज्रः॑। प्रति॑। धा॒यि॒। द॒र्शतः। म॒हः। दि॒वे। न। सूर्यः॑। ९२.१७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • पुरुहन्मा
  • प्रगाथः
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुहन्मन्) हे बहुत ज्ञानी ऋषि ! (तम्) उस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] का (शुम्भ) भाषण कर, (यस्य) जिसके (द्विता) दोनों धर्म [अनुग्रह और निग्रह गुण] (विधर्तरि) बुद्धिमान् जन पर (अवसे) रक्षा के लिये और [जिस का] (दर्शतः) दर्शनीय (महः) महान् (वज्रः) वज्र [दण्डसामर्थ्य] (हस्ताय) हाथ [अर्थात् हमारे बाहुबल] के लिये (प्रति) प्रत्यक्ष (धायि) धारण किया गया है, (न) जैसे (सूर्यः) सूर्य (दिवे) प्रकाश के लिये है ॥१७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा अति प्रत्यक्षरूप से दुष्टों को दण्ड देता है और धर्मात्माओं पर अनुग्रह करता है, ऐसा निश्चय करके विद्वान् लोग सदा ईश्वर की आज्ञा में रहकर सुखी होवें ॥१७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १७−(इन्द्रम्) परमेश्वरम् (तम्) (शुम्भ) शुम्भ हिंसाभाषणभासनेषु। भाषस्व। वर्णय (पुरुहन्मन्) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४। पुरु+हन हिंसागत्योः-मनिन्। पुरु बहु हन्ति गच्छति जानातीति पुरुहन्मा तत्सम्बुद्धौ। हे बहुज्ञानिन्। ऋषे (अवसे) रक्षणाय (यस्य) परमेश्वरस्य (द्विता) द्वित्वम्। निग्रहानुग्रहरूपं गुणद्वयम् (विधर्तरि) मेधाविनि जने-निघ० ३।१। (हस्ताय) अस्माकं बाहुबलाय (वज्रः) दण्डसामर्थ्यम् (प्रति) प्रत्यक्षम् (धायि) अधारि (दर्शतः) दर्शनीयः (महः) मह-अच्। महान् (दिवे) प्रकाशाय (न) यथा (सूर्यः) ॥

१८ नकिष्टं कर्मणा

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नकि॒ष्टं कर्म॑णा नश॒द्यश्च॒कार॑ स॒दावृ॑धम्।
इन्द्रं॒ न य॒ज्ञैर्वि॒श्वगू॑र्त॒मृभ्व॑स॒मधृ॑ष्टं धृ॒ष्ण्वो᳡जसम् ॥

१८ नकिष्टं कर्मणा ...{Loading}...

Griffith

No one by deed attains to him who works and strengthens evermore: No, not by sacrifice, to Indra praised of all, resistless, daring, bold in might;

पदपाठः

नकिः॑। तम्। कर्म॑णा। न॒श॒त्। यः। च॒कार॑। स॒दाऽवृ॑धम्। इन्द्र॑म्। न। य॒ज्ञैः। वि॒श्वऽगू॑र्तम्। ऋभ्व॑सम्। अधृ॑ष्टम्। धृ॒ष्णुऽओ॑जसम्। ९२.१८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • पुरुहन्मा
  • प्रगाथः
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जिस [परमात्मा] ने (सदावृधम्) सदा बढ़ानेवाले व्यवहार को (चकार) बनाया है, (तम्) उस (विश्वगूर्तम्) सबों को उद्यम में लगानेवाले, (ऋभ्वसम्) बुद्धिमानों को ग्रहण करनेवाले, (अधृष्टम्) अजेय, (धृष्ण्वोजसम्) निर्भय बलवाले (इन्द्रम्) इन्द्र [बडे् ऐश्वर्यवाले परमात्मा] को (नकिः) न कोई (कर्मणा) कर्म से और (न) न (यज्ञैः) दानों से (नशत्) पा सकता है ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो परमात्मा सृष्टि आदि अद्भुत कर्मों को करता है, और सबको पालता है, कोई भी प्राणी उस अनन्तकर्मा और अनन्तदानी परमेश्वर के समान नहीं हो सकता है ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १८, १९ सामवेद में भी है-उ० ४।२।८, मन्त्र १८-साम० पू० ३।६।१ ॥ १८−(नकिः) न कश्चित् (तम्) प्रसिद्धम् (कर्मणा) (नशत्) प्राप्नुयात् (यः) परमेश्वरः (चकार) रचितवान् (सदावृधम्) सदावर्धकं व्यवहारम् (इन्द्रम्) (न) निषेधे (यज्ञैः) दानैः (विश्वगूर्तम्) अ० २०।३।९। विश्वं सर्वं जगत् गूर्णम् उद्यतम् उद्यमे कृतं येन तम् (ऋभ्वसम्) ऋभुर्मेधाविनाम-निघ० ३।१। अस ग्रहणे-अच्। ऋभूणां मेधाविनां ग्रहीतारम् (अधृष्टम्) अजेयम् (धृष्ण्वोजसम्) धर्षकबलम्। निर्भयपराक्रमयुक्तम् ॥

१९ अषाढमुग्रं पृतनासु

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अषा॑ढमु॒ग्रं पृत॑नासु सास॒हिं यस्मि॑न्म॒हीरु॑रु॒ज्रयः॑।
सं धे॒नवो॒ जाय॑माने अनोनवु॒र्द्यावः॒ क्षामो॑ अनोनवुः ॥

१९ अषाढमुग्रं पृतनासु ...{Loading}...

Griffith

The potent Conqueror, invincible in war, him at whose birth the mighty ones, The kine who spread afar, sent their loud voices out, heavens, earths sent their loud voices out.

पदपाठः

अषा॑ल्हम्। उ॒ग्रम्। पृत॑नासु। स॒स॒हिम्। यस्मि॑न्। म॒हीः। उ॒रु॒ऽज्रयः॑। सम्। धे॒नवः॑। जाय॑माने। अ॒नो॒न॒वुः॒। द्यावः॑। क्षामः॑। अ॒नो॒न॒वुः॒। ९२.१९।

अधिमन्त्रम् (VC)
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  • पुरुहन्मा
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  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन् जायमाने) जिस [परमात्मा] के प्रकट होने पर (महीः) पृथिवियाँ (उरुज्रयः) बहुत चलनेवाली होती हैं, (अषाढम्) उस अजेय, (उग्रम्) तेजस्वी, और (पृतनासु) सङ्ग्रामों में (सासहिम्) जितानेवाले [परमेश्वर] को (धेनवः) वाणियों ने (सम्) मिलकर (अनोनवुः) अत्यन्त सराहा है, (द्यावः) सूर्यों और (क्षामः) भूमियों ने (अनोनवुः) अत्यन्त सराहा है ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब परमात्मा अपने सामर्थ्य को प्रकट करता है, तब सब पृथिवी आदि लोक उत्पन्न होते हैं, और उसकी अद्भुत महिमा को सूर्य पृथिवी आदि लोकों में देखकर सब प्राणी आनन्द पाते हैं ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १९−(अषाढम्) षह मर्षणे अभिभवे-क्त, ओकारस्य आकारः। असोढम्। अनभिभूतम् (उग्रम्) तेजस्विनम् (पृतनासु) सङ्ग्रामेषु (सासहिम्) अ० ३।१८।। अभिभवितारम्। विजयकारकम् (यस्मिन्) परमात्मनि (महीः) पृथिव्यः (उरुज्रयः) ज्रयतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। ज्रि गतौ-इण्, डित्। बहुगतिशीलाः (सम्) एकीभूय (धेनवः) प्रीणयित्र्यो वाचः (जायमाने) प्रकटीभूयमाने (अनोनवुः) णु स्तुतौ-यङ्लुकि लङ्। भृशमस्तुवन् (द्यावः) सूर्य्याः (क्षामः) पृथिव्यः (अनोनवुः) ॥

२० यद्द्याव इन्द्र

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यद्द्याव॑ इन्द्र ते श॒तं श॒तं भूमी॑रु॒त स्युः।
न त्वा॑ वज्रिन्त्स॒हस्रं॒ सूर्या॒ अनु॒ न जा॒तम॑ष्ट॒ रोद॑सी ॥

२० यद्द्याव इन्द्र ...{Loading}...

Griffith

O Indra, if a hundred heavens and if a hundred earths were thine No, not a thousand suns could match thee at thy birth, not both the worlds, O Thunderer.

पदपाठः

यत्। द्यावः॑। इ॒न्द्र॒। ते॒। श॒तम्। श॒तम्। भूमीः॑। उ॒त। स्युरिति॒ स्युः। न। त्वा॒। व॒ज्रि॒न्। स॒हस्र॑म्। सूर्याः॑। अनु॑। न। जा॒तम्। अ॒ष्ट॒। रोद॑सी॒ इति॑। ९२.२०।

अधिमन्त्रम् (VC)
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] (यत्) जो (शतम्) सौ (द्यावः) अन्तरिक्ष [वायुलोक], (उत) और (शतम्) सौ (भूमीः) भूमिलोक (ते) तेरे [सामने] (स्युः) होवें, [न वे सब] और (न) न (सहस्रम्) सहस्र (सूर्याः) सूर्यलोक और (रोदसी) दोनों अन्तरिक्ष और भूमिलोक [मिलकर] और (न) न (जातम्) उत्पन्न हुआ जगत्, (वज्रिन्) हे दण्डधारी ! [परमात्मन्] (त्वा) तुझको (अनु) निरन्तर (अष्ट) पा सके हैं ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब असंख्य लोक और पदार्थ अलग-अलग होकर अथवा सब मिलकर परमात्मा की महिमा का पार नहीं पा सकते ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र २०, २१ आचुके हैं-अ० २०।८१।१, २ ॥ २०, २१−व्याख्यातौ-अ० २०।८१।१, २ ॥

२१ आ पप्राथ

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ प॑प्राथ महि॒ना वृष्ण्या॑ वृष॒न्विश्वा॑ शविष्ठ॒ शव॑सा।
अ॒स्माँ अ॑व मघव॒न्गोम॑ति व्र॒जे वज्रि॑ञ्चि॒त्राभि॑रू॒तिभिः॑ ॥

२१ आ पप्राथ ...{Loading}...

Griffith

Thou, Hero, hast performed thy hero deeds with might, yea, all with strength, O Strongest One. Maghavan, help us to a stable full of kine, O Thunderer, with wondrous aids.

पदपाठः

आ। प॒प्रा॒थ॒। म॒हि॒ना। वृष्ण्या॑। वृ॒ष॒न्। विश्वा॑। श॒वि॒ष्ठ॒। शव॑सा। अ॒स्मान्। अ॒व॒। म॒घ॒ऽव॒न्। गोऽम॑ति। व्र॒जे। वज्रि॑न्। चि॒त्राभिः॑। ऊ॒तिऽभिः॑। ९२.२१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • पुरुहन्मा
  • प्रगाथः
  • सूक्त-९२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषन्) हे शूर ! (शविष्ठ) हे अत्यन्त बली ! [परमात्मन्] (महिना) अपने बड़े (शवसा) बल से (विश्वा) सब (वृष्ण्या) शूर के योग्य बलों को (आ) सब ओर से (पप्राथ) तूने भर दिया है। (मघवन्) हे महाधनी ! (वज्रिन्) हे दण्डधारी ! [शासक परमेश्वर] (गोमति) उत्तम विद्यावाले (व्रजे) मार्ग में (चित्राभिः) विचित्र (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्मान्) हमें (अव) बचा ॥२१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा से प्रार्थना करके सब पदार्थों से उपकार लेकर यथावत् पालन करें ॥२१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र २०, २१ आचुके हैं-अ० २०।८१।१, २ ॥ २०, २१−व्याख्यातौ-अ० २०।८१।१, २ ॥