०९१

०९१ ...{Loading}...

०१ इमां धियम्

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इ॒मां धियं॑ स॒प्तशी॑र्ष्णीं पि॒ता न॑ ऋ॒तप्र॑जातां बृह॒तीम॑विन्दत्।
तु॒रीयं॑ स्विज्जनयद्वि॒श्वज॑न्यो॒ऽयास्य॑ उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस॑न् ॥

०१ इमां धियम् ...{Loading}...

Griffith

This holy hymn sublime and seven-headed, sprung from eternal Law, our sire discovered. Ayasya, friend of all men, hath engendered the fourth hymn as he sang his laud to Indra.

पदपाठः

इ॒माम्। धिय॒म्। स॒प्तऽशी॑र्ष्णीम्। पि॒ता। नः॒। ऋ॒तऽप्र॑जाताम्। बृह॒तीम्। अ॒वि॒न्द॒त्। तु॒रीय॑म्। स्वि॒त्। ज॒न॒य॒त्। वि॒श्वऽज॑न्यः। अ॒यास्य॑। उ॒क्थम्। इन्द्रा॑य। शंस॑न्। ९१.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नः) हमारे (पिता) पिता [मनुष्य] ने (ऋतप्रजाताम्) सत्य [अविनाशी परमात्मा] से उत्पन्न हुई (सप्तशीर्ष्णीम्) [दो कान, दो नथने, दो आँखें, और एक मुख-अ० १०।२।६] सात गोलकों में शिर [आश्रय रखनेवाली,] (इमाम्) इस (बृहतीम्) बड़ी (धियम्) बुद्धि को (अविन्दत्) पाया है। और (विश्वजन्यः) उस सब मनुष्यों के हितकारी, (अयास्यः) शुभ कर्मों में स्थिति रखनेवाले मनुष्य ने (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] की (स्वित्) ही (शंसन्) स्तुति करते हुए [तुरीयम्] बलयुक्त (उक्थम्) वचन को (जनयत्) प्रकट किया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा की जिस सत्य वेदवाणी को पूर्वज लोग परम्परा से परीक्षा करके ग्रहण करते आये हैं, विद्वान् लोग उसी वेदवाणी पर चलकर परमेश्वर की स्तुति करते हुए अपने आत्मा को बढ़ावें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।६७।१-१२ ॥ १−(इमाम्) प्रत्यक्षाम् (श्रियम्) प्रज्ञाम् (सप्तशीर्ष्णीम्) शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१।६०। शीर्षन्निति शब्दान्तरं शिरःशब्देन समानार्थम्, ङीप्। कर्णौ नासिके चक्षणी मुखम्-अ० १०।२।६। इति सप्तसु छिद्रेषु शिर आश्रयो यस्यास्ताम् (पिता) जनकः (नः) अस्माकम् (ऋतप्रजाताम्) सत्यात् परमेश्वरात् प्रादुर्भूताम् (बृहतीम्) महतीम् (अविन्दत्) लब्धवान् (तुरीयम्) तुर वेगे-क। घच्छौ च। पा० ४।४।११७। तुर-छप्रत्ययः, तत्र भव इत्यर्थे। बलयुक्तम् (स्वित्) अवधारणे (जनयत्) अजनयत्। प्रकटीकृतवान् (विश्वजन्यः) सर्वजनहितः पुरुषः (अयास्यः) इण् गतौ-अच्+आस उपवेशने-क्यप्, टाप्। अयेषु शुभकर्मसु आस्या स्थितिर्यस्य सः (उक्थम्) वचनम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते जगदीश्वराय (शंसन्) स्तुतिं कुर्वन् ॥

०२ ऋतं शंसन्त

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ऋ॒तं शंस॑न्त ऋ॒जु दीध्या॑ना दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः।
विप्रं॑ प॒दमङ्गि॑रसो॒ दधा॑ना य॒ज्ञस्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं म॑नन्त ॥

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Griffith

Thinking aright, praising eternal Order, the sons of Dyaus the Asura, those heroes, Angirases, holding the rank of sages, first honoured sacrifice’s holy statute.

पदपाठः

ऋ॒तम्। शंस॑न्तः। ऋ॒जु। दीध्या॑नाः। दि॒वः। पु॒त्रासः॑। असु॑रस्य। वी॒राः। विप्र॑म्। पद॑म्। अङ्गि॑रसः। दधा॑नाः। य॒ज्ञस्य॑। धाम॑। प्रथ॒मम्। म॒न॒न्त॒। ९१.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतम्) सत्य ज्ञान की (शंसन्तः) स्तुति करते हुए, (ऋजु) ठीक-ठीक (दीध्यानाः) ध्यान करते हुए, (दिवः) विजय चाहनेवाले (असुरस्य) बुद्धिमान् पुरुष को (वीराः) वीर (पुत्रासः) पुत्र (विप्रम्) विविध प्रकार पूर्ण (पदम्) पद [पाने योग्य वस्तु] को (दधानाः) धारण करते हुए (अङ्गिरसः) ज्ञानी ऋषियों ने (यज्ञस्य) पूजनीय व्यवहार के (प्रथमम्) मुख्य (धाम) स्थान [परब्रह्म] को (मनन्त) पूजा है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सत्यग्राही ऋषि महात्मा लोग माता-पिता आदि विद्वानों से उत्तम शिक्षा पाकर परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान में लवलीन होकर आत्मा की उन्नति करते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(ऋतम्) सत्यज्ञानम् (शंसन्तः) स्तुवन्तः (ऋजु) सरलम्। यथार्थम् (दीध्यानाः) ध्यै चिन्तायाम्-कानच्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा० ६।१।७। इति दीर्घः। ध्यायन्तः (दिवः) विजिगीषोः (पुत्रासः) पुत्राः (असुरस्य) प्रज्ञायुक्तस्य (वीराः) विक्रान्ताः (विप्रम्) विविधपूरकम् (पदम्) प्रापणीयं वस्तु (अङ्गिरसः) ज्ञानिनः। ऋषयः (दधानाः) धारयन्तः (यज्ञस्य) पूजनीयव्यवहारस्य (धाम) धारकं स्थानम् (प्रथमम्) मुख्यम् (मनन्त) मन्यतेरर्चतिकर्मा-निघ० १।४। अमनन्त। अस्तुवन्त ॥

०३ हंसैरिव सखिभिर्वावदद्भिरश्मन्मयानि

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हं॒सैरि॑व॒ सखि॑भि॒र्वाव॑दद्भिरश्म॒न्मया॑नि॒ नह॑ना॒ व्यस्य॑न्।
बृह॒स्पति॑रभि॒कनि॑क्रद॒द्गा उ॒त प्रास्तौ॒दुच्च॑ वि॒द्वाँ अ॑गायत् ॥

०३ हंसैरिव सखिभिर्वावदद्भिरश्मन्मयानि ...{Loading}...

Griffith

Girt by his friends who cried with swanlike voices, bursting the stoney barriers of the prison, Brihaspati spake in thunder to the cattle, and uttered praise and. song when he had found them.

पदपाठः

हंसैःऽइ॑व। सखि॑ऽभिः। वाव॑दत्ऽभिः। अ॒श्म॒न्ऽमया॑नि। नह॑ना। व‍ि॒ऽअस्य॑न्। बृह॒स्पतिः॑। अ॒भि॒ऽकनिक्रद॑त्। गाः। उ॒त। प्र। अ॒स्तौ॒त्। उत्। च॒। वि॒द्वान्। अ॒गा॒य॒त्। ९०.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हंसैः इव) हंसों के समान [विवेकी] (वावदद्भिः) स्पष्ट बोलते हुए (सखिभिः) मित्र पुरुषों द्वारा (अश्मन्मयानि) व्याप्तिवाले (नहना) बन्धनों [कठिन विघ्नों] को (व्यस्यन्) हटाते हुए, (अभिकनिक्रदत्) सब ओर उपदेश करते हुए (विद्वान्) विद्वान् (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े विद्वानों के स्वामी परमात्मा] ने (गाः) वेदवाणियों को (प्र अस्तौत्) प्रस्तुत किया है [सामने रक्खा है] (उत च) और भी (उत् अगायत्) ऊँचा गाया है ॥३•॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस पक्षपातरहित परमात्मा ने प्रलय के भारी अन्धकार को मिटाकर विवेकी प्यारे भक्त ऋषियों द्वारा संसार के सुख के लिये वेदों को प्रकाशित किया है, उस जगदीश्वर की उपासना से अपने आत्मा में सब लोग प्रकाश करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(हंसैरिव) हंसपक्षिवद्विवेकिभिः (सखिभिः) मित्रैः (वावदद्भिः) वद व्यक्तायां वाचि-यङ्लुकि शतृ। स्पष्टं कथयद्भिः (अश्मन्मयानि) अशू व्याप्तौ-मनिन्। व्याप्तिमन्ति (नहना) बन्धनानि। विघ्नकर्माणि (व्यस्यन्) विक्षिपन्। शिथिलयन् (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां रक्षकः (अभिकनिक्रदत्) क्रदि आह्वाने रोदने च-यङ्लुकि, शतृ। आभिमुख्येन भृशमुपदिशन् (गाः) वेदवाणीः (उत) अपि (प्र अस्तौत्) प्रस्तुतवान् (उत्) उच्चैः (च) (विद्वान्) (अगायत्) उपदिष्टवान् ॥

०४ अवो द्वाभ्याम्

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अ॒वो द्वाभ्यां॑ प॒र एक॑या॒ गा गुहा॒ तिष्ठ॑न्ती॒रनृ॑तस्य॒ सेतौ॑।
बृह॒स्पति॒स्तम॑सि॒ ज्योति॑रि॒च्छन्नुदु॒स्रा आक॒र्वि हि ति॒स्र आवः॑ ॥

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Griffith

Apart from one, away from two above him, he draye the kine that stood in bonds of falsehood. Brihaspati, seeking light amid the darkness, draye forth the bright cows: three he made apparent.

पदपाठः

अ॒वः। द्वाभ्या॑म्। प॒रः। एक॑या। गाः। गुहा॑। तिष्ठ॑न्तीः। अनृ॑तस्य। सेतौ॑। बृह॒स्पतिः॑। तम॑सि। ज्योतिः॑। इ॒च्छन्। उत्। उ॒स्राः। आ। अ॒कः॒। वि। हि। ति॒स्रः। आव॒रित्याथः॑। ९१.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तमसि) अन्धकार के बीच (ज्योतिः) प्रकाश (इच्छन्) चाहता हुआ (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों का स्वामी परमेश्वर] (द्वाभ्याम्) दोनों [प्रलय और सृष्टि की अवस्थाओं] से और (एकया) एक [स्थिति की अवस्था] से (अनृतस्य) असत्य [अज्ञान] के (सेतौ) बन्धन में (गुहा) गुहा [गुप्त वा अज्ञान दशा] के बीच (अवः) नीचे और (परः) ऊपर (तिष्ठन्तीः) ठहरी हुई (गाः) वेदवाणियों को और (तिस्रः) तीनों (उस्राः) [सूर्य, अग्नि और बिजुली रूप] प्रकाशों को (हि) निश्चय करके (उत्) उत्तम रीति से (आ अकः) आकार में लाया और (वि आवः) प्रकट किया ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पदार्थ प्रलय, सृष्टि और स्थिति के अनादि चक्र से प्रलय की अवस्था में सूक्ष्मरूप से रहते हैं, वे परमात्मा की इच्छा से आकार पाकर संसार में प्रकट होते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(अवः) अवस्तात्। नीचैः (द्वाभ्याम्) द्वित्वयुक्ताभ्यां प्रलयसृष्ट्यवस्थाभ्याम् (परः) परस्तात्। उच्चैः (एकया) एकत्वयुक्तया स्थित्यवस्थया (गाः) वेदवाणीः (गुहा) गुहायाम्। अज्ञातदशायाम् (तिष्ठन्तीः) वर्तमानाः (अनृतस्य) असत्यस्य। अज्ञानस्य (सेतौ) बन्धे (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां स्वामी परमेश्वरः (तमसि) अन्धकारे। प्रलये (ज्योतिः) प्रकाशम् (इच्छन्) कामयमानः (उत्) उत्तमत्तया (उस्राः) वस निवासे-रक्। उस्रा रश्मिनाम-निघ० १।। सूर्याग्निविद्युद्रूपप्रकाशान् (आ अकः) आकारे कृतवान् (हि) निश्चयेन (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (वि आवः) वृणोतेर्लुङि मन्त्रे घसेति च्लेर्लुक्। बहुलं छन्दसीत्यडागमः। विवृत्तवान्। प्रकाशितवान् ॥

०५ विभिद्या पुरम्

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वि॒भिद्या॒ पुरं॑ श॒यथे॒मपा॑चीं॒ निस्त्रीणि॑ सा॒कमु॑द॒धेर॑कृन्तत्।
बृह॒स्पति॑रु॒षसं॒ सूर्यं॒ गाम॒र्कं वि॑वेद स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः ॥

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Griffith

When he had cleft the lairs and western castle, he cut off three from him who held the waters. Brihaspati discovered, while he thundered like Dyaus, the dawn,. the sun, the cow, the lightning.

पदपाठः

वि॒ऽभिद्यः॑। पुर॑म्। श॒यथा॑। ई॒म्। अपा॑चीम्। निः। त्रीणि॑। सा॒कम्। उ॒द॒ऽधेः। अ॒कृ॒न्त॒त्। बृह॒स्पतिः॑। उ॒षस॑म्। सूर्य॑म्। गाम्। अ॒र्कम्। वि॒वे॒द॒। स्त॒नय॑न्ऽइव। द्यौः। ९१.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमेश्वर] ने (शयथा) सोती हुई (अपाचीम्) ओंधे मुखवाली (ईम्) प्राप्त हुई (पुरम्) पूर्ति [वा नगरी] को (विभिद्य) तोड़ डालकर (त्रीणि) तीनों [धामों अर्थात् स्थान, नाम और जाति जैसे मनुष्य पशु आदि-निरु० ६।२८] को (साकम्) एक साथ (उदधेः) जलवाले समुद्र से (निः अकृन्तत्) छाँट लिया, (द्यौः) उस प्रकाशमान [परमात्मा] ने (स्तनयन् इव) गरजते हुए बादल के समान होकर (उषसम्) तपानेवाले (सूर्यम्) सूर्य को, (गाम्) भूमि को और (अर्कम्) उष्णता देनेवाले अन्न को (विवेद) जताया है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पदार्थ परमाणु रूप से प्रलय के बीच बीजरूप में गड़बड़ पड़े थे, उनको परमात्मा ने जल द्वारा आकारयुक्त करके सूर्य, पृथिवी, अन्न आदि उत्पन्न किये हैं ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(विभिद्य) विदार्य (पुरम्) पूर्तिं नगरीं वा (शयथा) शीङ्शपिरुगमि०। उ० ३।११३। शीङ् शयने-अथप्रत्ययः। विभक्तेराकारः। शयथाम्। शयनयुक्ताम् (ईम्) प्राप्ताम् (अपाचीम्) पराङ्मुखीम् (निः) पृथग्भावे (त्रीणि) धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीनि-निरु० ९।२८। (साकम्) युगपत् (उदधेः) जलाधारात्। समुद्रात् (अकृन्तत्) छिन्नवान्। निर्गमितवान् (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां रक्षकः परमेश्वरः (उंषसम्) उषः किच्च। उ० ४।२३४। उष दाहे-असि कित्। दाहकम् (सूर्यम्) आदित्यमण्डलम् (द्याम्) पृथिवीम् (अर्कम्) अर्क तापे स्तुतौ च-घञ्। अन्नम्-निरु० ।४। (विवेद) विज्ञापितवान् (स्तनयन्) गर्जयन् मेघः (इव) यथा (द्यौः) प्रकाशमानः परमेश्वरः ॥

०६ इन्द्रो वलम्

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इन्द्रो॑ व॒लं र॑क्षि॒तारं॒ दुघा॑नां क॒रेणे॑व॒ वि च॑कर्ता॒ रवे॑ण।
स्वेदा॑ञ्जिभिरा॒शिर॑मि॒च्छमा॒नोऽरो॑दयत्प॒णिमा गा अ॑मुष्णात् ॥

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Griffith

As with a hand, so with his roaring Indra cleft Vala through,. the guardian of the cattle. Seeking the milk-draught with sweat-shining comrades he stole: the Pani’s kine and left him weeping.

पदपाठः

इन्द्रः॑। व॒लम्। र॒क्षि॒तार॑म्। दुघा॑नाम्। क॒रेण॑ऽइव। वि। च॒क॒र्त॒। रवे॑ण। स्वेदा॑ञ्जिऽभिः। आ॒ऽशिर॑म्। इ॒च्छमानः। अरो॑दयत्। प॒णिम्। आ। गाः। अ॒मु॒ष्णा॒त्। ९१.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] ने (दुघानाम्) पूर्तियों के (रक्षितारम्) रखलेनेवाले [रोकनेवाले] (वलम्) हिंसक [विघ्न] को (करेण इव) हाथ से जैसे [वैसे] (रवेण) अपने शब्द [वेद] से (वि चकर्त) काट डाला है। और (स्वेदाञ्जिभिः) मोक्ष के प्रकट करनेवाले व्यवहारों से (आशिरम्) परिपक्वता को (इच्छमानः) चाहते हुए उसने (पणिम्) कुव्यवहारी पुरुष को (अरोदयत्) रुलाया है, और (गाः) प्रकाशों को [उस से] (आ) सर्वथा (अमुष्णात्) छीन लिया है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यहाँ (इन्द्र) शब्द (बृहस्पति) अर्थात् परमात्मा का वाचक है। परमात्मा वेद द्वारा मोक्षमार्ग बताकर सुखों के रोकनेवाले विघ्नों को मिटाता है और अधर्मी पापियों को घोर अन्धकार में डालता है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (वलम्) हिंसकं विघ्नम् (रक्षितारम्) रक्षकम्। निरोधकमित्यर्थः (दुघानाम्) दुह प्रपूरणे-कप्, टाप्। पूरयित्रीणां शक्तीनाम् (करेण) हस्तेन (इव) यथा (वि) विविधम् (चकर्त) कृती छेदने-लिट्। चिच्छेद (रवेण) शब्देन वेदेन (स्वेदाञ्जिभिः) ञिष्विदा स्नेहनमोचनमोहनेषु अव्यक्तशब्दे गात्रप्रक्षरणे च-घञ्+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-इन्। मोचनस्य मोक्षस्य व्यक्तीकरणव्यवहारैः (आशिरम्) अ० २०।२२।६। आङ्+श्रीञ् पाके-क्विप्, शिर् इत्यादेशः। परिपक्वत्वम् (इच्छमानः) कामयमानः (अरोदयत्) रोदनं कारितवान् (पणिम्) कुव्यवहारिणं पुरुषम् (आ) समन्तात् (गाः) रश्मीन्। प्रकाशान् (अमुष्णात्) अपहृतवान् ॥

०७ स ईम्

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स ईं॑ स॒त्येभिः॒ सखि॑भिः शु॒चद्भि॒र्गोधा॑यसं॒ वि ध॑न॒सैर॑दर्दः।
ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्वृष॑भिर्व॒राहै॑र्घ॒र्मस्वे॑देभि॒र्द्रवि॑णं॒ व्या᳡नट् ॥

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Griffith

He with bright faithful friends, winners of booty, hath rent the milker of the cows asunder. Brihaspati with wild boars strong and mighty sweating with heat hath gained a rich possession.

पदपाठः

सः। ई॒म्। स॒त्येभिः॑। सखि॑ऽभिः। शु॒चत्ऽभिः॒। गोऽधा॑यसम्। वि। ध॒न॒ऽसैः। अ॒द॒र्द॒रित्य॑दर्दः। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। वृष॑ऽभिः। व॒राहैः॑। घ॒र्मऽस्वे॑देभिः। द्रवि॑णम्। वि। आ॒न॒ट्। ९१.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) उस (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्ड के (पतिः) स्वामी [परमेश्वर] ने (सत्येभिः) सत्य (सखिभिः) मित्ररूप, (शुचद्भिः) प्रकाशमान, (धनसैः) धन देनेवाले, (वृषभिः) बलवान्, (वराहैः) उत्तम आहार [भोजनादि] देनेवाले, (घर्मस्वेदेभिः) ताप और भाप रखनेवाले गुणों से (ईम्) प्राप्त हुए (गोधायसम्) वज्र रखनेवाले [शत्रु] को (अदर्दः) फाड़ डाला और (द्रविणम्) धन को (वि आनट्) प्राप्त किया है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा अपने सत्य आदि गुणों से सब क्लेशों को हटाकर हमें धन आदि देकर आनन्द देता है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(सः) (ईम्) प्राप्तम् (सत्येभिः) सत्यशीलैः (सखिभिः) मित्रभूतैः (शुचद्भिः) दीप्यमानैः (गोधायसम्) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वञ्च। उ० ४।२२७। गो+दधातेः-असि, णित्। गोर्वज्रस्य धारकं शत्रुम् (धनसैः) षणु दाने-उ। धनदातृभिः (अदर्दः) दॄ विदारणे-यङ्लुगन्ताल्लङि रूपम्। भृशं विदारितवान् (ब्रह्मणः) प्रवृद्धस्य ब्रह्माण्डस्य (पतिः) स्वामी (वृषभिः) बलवद्भिः (वराहैः) अ० ८।७।२३। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। वर+आङ्+हृञ् हरणे-डप्रत्ययः। वरः श्रेष्ठ आहारो भोजनादिकं योग्यस्तैः। वराहारदातृभिः (घर्मस्वेदेभिः) घर्मस्तापः स्वेदो वाष्पश्च येभ्यस्तादृशगुणैः (द्रविणम्) धनम् (वि) विविधम् (आनट्) अ० १८।३।९। आनशे। प्राप्तवान् ॥

०८ ते सत्येन

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ते स॒त्येन॒ मन॑सा॒ गोप॑तिं॒ गा इ॑या॒नास॑ इषणयन्त धी॒भिः।
बृह॒स्पति॑र्मिथोअवद्यपेभि॒रुदु॒स्रिया॑ असृजत स्व॒युग्भिः॑ ॥

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Griffith

They, longing for the kine, with faithful spirit incited with their hymns the Lord of cattle. Brihaspati freed the radiant cows with comrades self-yoked,. averting shame from one another.

पदपाठः

ते। स॒त्येन। धी॒भिः। मनसा। गोऽपतिम्। गाः। इ॒या॒नासः। इ॒ष॒ण॒य॒न्त॒। धी॒भिः। बृह॒स्पतिः॑। मि॒थःऽअवद्यपेभिः। उत्। उ॒स्रियाः॑। अ॒सृ॒ज॒त॒। स्व॒युक्ऽभिः॑। ९१.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सत्येन) सच्चे (मनसा) मन से (धीभिः) कर्मों द्वारा (गाः) वेदवाणियों को (इयानासः) पा लेनेवाले (ते) उन [विद्वानों] ने (गोपतिम्) वेदवाणी के स्वामी [परमात्मा] को (इषणयन्त) खोजा है, [कि] (बृहस्पतिः) उस बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमात्मा] ने (उस्रियाः) निवास करनेवाली प्रजाओं को (मिथोअवद्यपेभिः) आपस में पाप से बचानेवाले (स्वयुग्भिः) आत्मा के साथी कर्मों से (उत्) उत्तम रीति पर (असृजत) सृजा है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग वेदवाणी द्वारा उत्तम-उत्तम कर्म करके परमात्मा को खोजते हैं कि उसने मनुष्य आदि सृष्टि को उनके पूर्व जन्मों के कर्मफलों के अनुसार उत्पन्न किया है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(ते) विद्वांसः (सत्येन) यथार्थेन (मनसा) चित्तेन (गोपतिम्) वेदवाणीस्वामिनम् (गाः) वेदवाणीः (इयानासः) इण् गतौ-कानच्, असुक्, च। प्राप्तवन्तः (इषणयन्त) इषु इच्छायाम्-क्यु। तत् करोति तदाचष्टे। वा० पा० ३।१।२६। इषण्-णिच्, लङ्, अडभावः। इषणमिच्छां कृतवन्तः (धीभिः) कर्मभिः (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां स्वामी (मिथोअवद्यपेभिः) पातेः कप्रत्ययः। मिथः परस्परम् अवद्याद् निन्द्यात् पापाद् रक्षकैः (उत्) उत्तमतया (उस्रियाः) अ० २०।१६।६। निवासशीलाः प्रजाः (असृजत) अजनयत् (स्वयुग्भिः) युजिर् योगे-क्विप्। स्वेन आत्मना सह युक्तैः कर्मभिः ॥

०९ तं वर्धयन्तो

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तं व॒र्धय॑न्तो म॒तिभिः॑ शि॒वाभिः॑ सिं॒हमि॑व॒ नान॑दतं स॒धस्थे॑।
बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं॒ शूर॑सातौ॒ भरे॑भरे॒ अनु॑ मदेम जि॒ष्णुम् ॥

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Griffith

In our assembly with auspicious praises exalting him who roareth. like a lion. May we in every fight where heroes conquer rejoice in strong. Brihaspati the victor.

पदपाठः

तम्। व॒र्धयन्तः। म॒तिऽभिः॑। शि॒वाभिः॑। सिं॒हम्ऽइव। नान॑दतम्। स॒धऽस्थे॑। बृह॒स्पति॑म्। वृषणम्। शूर॑ऽसातौ। भरे॑ऽभरे। अनु॑। म॒दे॒म॒। जि॒ष्णुम्। ९१.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शिवाभिः) कल्याणी (मतिभिः) बुद्धियों के साथ (नानदतम्) बल से दहाड़ते हुए (सिंहम् इव) सिंह के समान (वृषणम्) बलवान् (जिष्णुम्) विजयी (तम्) उस (बृहस्पतिम्) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमेश्वर] को (सधस्थे) सभास्थान में (वर्धयन्तः) बढ़ाते हुए हम (शूरसातौ) शूरों करके सेवन योग्य (भरेभरे) सङ्ग्राम-सङ्ग्राम में (अनु मदेम) आनन्द पाते रहें ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य आपस में मिलकर परमात्मा के गुणों को निश्चय करके आत्मा की उन्नति करते हुए आनन्द पावें ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(तम्) प्रसिद्धम् (वर्धयन्तः) स्तुवन्तः (मतिभिः) बुद्धिभिः (शिवाभिः) कल्याणीभिः (सिंहम्) (इव) (नानदतम्) भृशं शब्दायमानम् (सधस्थे) सभास्थाने (बृहस्पतिम्) बृहतां ब्रह्माण्डानां स्वामिनम् (वृषणम्) बलवन्तम् (शूरसातौ) शूरैः संभजनीये (भरेभरे) रणे रणे (अनु) निरन्तरम् (मदेम) हृष्येम (जिष्णुम्) विजेतारम् ॥९॥

१० यदा वाजमसनद्विश्वरूपमा

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य॒दा वाज॒मस॑नद्वि॒श्वरू॑प॒मा द्याम॑रुक्ष॒दुत्त॑राणि॒ सद्म॑।
बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं व॒र्धय॑न्तो॒ नाना॒ सन्तो॒ बिभ्र॑तो॒ ज्योति॑रा॒सा ॥

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Griffith

When he had won him strength of every nature and gone to heaven and its most lofty mansions, Men praised Brihaspati the mighty, bringing the light within their mouths from sundry places.

पदपाठः

य॒दा। वाज॑म्। असनत्। वि॒श्वऽरूपम्। आ। द्याम्। अरु॑क्षत्। उत्ऽत॑राणि। सद्म। बृह॒स्पति॑म्। वृष॑णम्। व॒र्धय॑न्तः। नाना॑। सन्तः। बिभ्र॑तः। ज्योतिः॑। आ॒सा। ९१.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यदा) जब उस [परमात्मा] ने (विश्वरूपम्) सब संसार में रूप करनेवाले (वाजम्) बल को (असनत्) सेवन किया, और (द्याम्) चमकते हुए सूर्य को और (उत्तराणि) अधिक उत्तम (सद्म) लोकों को (आ अरुक्षत्) ऊँचा किया। [तब] (वृषणम्) उस बलवान् (बृहस्पतिम्) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमात्मा] को (आसा) मुख से (नाना) नाना प्रकार (वर्धयन्तः) बढ़ाते हुए (सन्ताः) सन्त लोग [सत्पुरुष] (ज्योतिः) ज्योति को (बिभ्रतः) धारण करनेवाले [हुए हैं] ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब परमात्मा सूर्य आदि लोकों को उत्पन्न करके अपना सामर्थ्य दिखाता है, तब योगी जन उस जगदीश्वर की स्तुति करते हुए अपने आत्मा को प्रकाशयुक्त करते हैं ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(यदा) (वाजम्) बलम् (असनत्) सेवितवान् (विश्वरूपम्) सर्वस्मिन् संसारे रूपं यस्मात् तम् (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (आ अरुक्षत्) आरोहितवान्। उत्पादितवानित्यर्थः (उत्तराणि) उत्तमतराणि (सद्म) सद्मानि। लोकान् (बृहस्पतिम्) परमात्मानम् (वृषणम्) बलवन्तम् (वर्धयन्तः) स्तुवन्तः (नाना) विविधप्रकारेण (सन्तः) सत्पुरुषाः (बिभ्रतः) धारयन्तः (ज्योतिः) प्रकाशम् (आसा) आस्येन। मुखेन ॥

११ सत्यमाशिषं कृणुता

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स॒त्यमा॒शिषं॑ कृणुता वयो॒धै की॒रिं चि॒द्ध्यव॑थ॒ स्वेभि॒रेवैः॑।
प॒श्चा मृधो॒ अप॑ भवन्तु॒ विश्वा॒स्तद्रो॑दसी शृणुतं विश्वमि॒न्वे ॥

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Griffith

Fulfil the prayer that begs for vital vigor: aid in your wonted manner e’en the humble. Let all our foes be turned and driven backward. Hear this, O Heaven and Earth, ye all-producers.

पदपाठः

स॒त्याम्। आ॒ऽशिषम्। कृ॒णु॒त॒। व॒यः॒ऽधै। की॒रिम्। चि॒त्। हि। अव॑थ। स्वेभिः॑। एवैः॑। प॒श्चा। मृधः॑। अप॑। भ॒व॒न्तु॒। विश्वाः॑। तत्। रो॒द॒सी॒ इति॑। शृ॒णु॒त॒म्। वि॒श्व॒मि॒न्वे इति॑ वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वे। ९१.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अयास्यः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (वयोधै) जीवन धारण करने के लिये (आशिषम्) मेरी प्रार्थना को (सत्याम्) सत्य (कृणुत) करो, (कीरिम्) स्तुति करनेवाले को (स्वेभिः) अपने (एवैः) उद्योगों से तुम (चित् हि) अवश्य ही (अवथ) बचाते हो। (विश्वा) सब (मृधः) सतानेवाली सेनाएँ (पश्चा) पीछे (अप भवन्तु) हट जावें (तत्) इसको, (विश्वमिश्वे) हे सबमें व्यापक (रोदसी) आकाश और भूमि ! (शृणुतम्) दोनों सुनो ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर प्रजा की रक्षा करें ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(सत्याम्) यथार्थाम् (आशिषम्) प्रार्थानाम् (कृणुत) कुरुत (वयोधै) प्रयै रोहिष्यै अव्यथिष्यै। पा० ३।४।१०। वयस्+दधातेः-कै प्रत्ययस्तुमर्थे। जीवनं धारयितुम् (कीरिम्) अ० २०।१७।१२। स्तोतारम् (चित्) अवश्यम् (हि) एव (अवथ) रक्षथ (स्वेभिः) आत्मीयैः (एवैः) गमनैः। उद्योगैः (पश्चा) पश्चात् (मृधः) हिंसिकाः सेनाः (अप) दूरे (भवन्तु) (विश्वाः) सर्वाः (तत्) वचनम् (रोदसी) हे आकाशभूमी (शृणुतम्) (विश्वमिन्वे) अ० २०।३।४। हे सर्वव्यापिके ॥

१२ इन्द्रो मह्ना

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इन्द्रो॑ म॒ह्ना म॑ह॒तो अ॑र्ण॒वस्य॒ वि मू॒र्धान॑मभिनदर्बु॒दस्य॑।
अह॒न्नहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॑न्दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥

१२ इन्द्रो मह्ना ...{Loading}...

Griffith

Indra with mighty strength hath cleft asunder the head of Arbuda the watery monster, Slain Ahi, and set free the Seven Rivers. O Heaven and Earth, with all the Gods, protect us.

पदपाठः

इन्द्रः॑। म॒ह्ना। म॒ह॒तः। अ॒र्ण॒वस्य॑। वि। मू॒र्धान॑म्। अ॒भि॒न॒त्। अ॒र्बु॒दस्य॑। अह॑न्। अहि॑म्। अरि॑णात्। स॒प्त। सिन्धू॑न्। दे॒वैः। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑। प्र। अ॒व॒त॒म्। नः॒। ९१.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
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  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-९१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (मह्ना) अपनी महिमा से (महतः) विशाल (अर्णवस्य) गतिवाले [वा जलवाले] (अर्बुदस्य) हिंसक [अथवा मेघ के समान अन्धकार करनेवाले वैरी] के (मूर्धानम्) शिर को (वि अभिनत्) तोड़ दिया है, वह [परमात्मा] (अहिम्) सब ओर चलनेवाले मेघ में (अहन्) व्यापा है, और उसने (सप्त) सात (सिन्धून्) बहते हुए समुद्रों [के समान भूर् आदि सात अवस्थावाले सब लोकों] को (अरिणात्) चलाया है, (द्यावापृथिवी) हे आकाश और भूमि ! (देवैः) उत्तम गुणों के साथ (नः) हमको (प्र अवतम्) दोनों बचालो ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - भूर्, भुवः आदि सात अवस्थाओं के लिये अ० २०।३४।३। देखो और मिलाओ। परमात्मा अपने अनन्त सामर्थ्य से बड़े-बड़े विघ्नों को हटाकर समस्त संसार की रक्षा करता है, उसी जगदीश्वर की कृपा से धर्मात्मा लोग बलवान् होकर दुष्टों को मिटाकर आनन्द पाते हैं ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १२−(इन्द्रः) परमात्मा (मह्ना) महिम्ना। महत्त्वेन (महतः) विशालस्य (अर्णवस्य) गतियुक्तस्य उदकयुक्तस्य (वि) विशेषेण (मूर्धानम्) शिरः (अभिनत्) अच्छिनत् (अर्बुदस्य) अर्व गतौ हिंसायां च-उदच् प्रत्ययः। हिंसकस्य। मेघस्येव अन्धकारविस्तारकस्य शत्रोः (अहन्) व्याप्तवान् (अहिम्, अरिणात्, सप्त, सिन्धून्) एते व्याख्याताः-अ० २०।३४।३। (देवैः) उत्तमगुणैः (द्यावापृथिवी) हे आकाशभूमी (प्र) प्रकर्षेण (अवतम्) रक्षतम् (नः) अस्मान् ॥