०९० ...{Loading}...
०१ यो अद्रिभित्प्रथमजा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यो अ॑द्रि॒भित्प्र॑थम॒जा ऋ॒तावा॒ बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो ह॒विष्मा॑न्।
द्वि॒बर्ह॑ज्मा प्राघर्म॒सत्पि॒ता न॒ आ रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यो अ॑द्रि॒भित्प्र॑थम॒जा ऋ॒तावा॒ बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो ह॒विष्मा॑न्।
द्वि॒बर्ह॑ज्मा प्राघर्म॒सत्पि॒ता न॒ आ रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति ॥
०१ यो अद्रिभित्प्रथमजा ...{Loading}...
Griffith
Served with oblations, first-born, mountain-render, Angiras’ Son, Brihaspati the holy. With twice-firm path, dwelling in light, our Father, roars loudly, as a bull, to earth and heaven.
पदपाठः
यः। अ॒द्रि॒ऽभित्। प्र॒थ॒म॒ऽजाः। ऋ॒तऽवा॑। बृह॒स्पतिः। आ॒ङ्गि॒र॒सः। ह॒विष्मा॑न्। द्वि॒बर्ह॑ऽज्मा। प्रा॒घ॒र्म॒ऽसत्। पि॒ता। नः॒। आ। रोद॑सी॒ इति॑। वृ॒ष॒भः। रो॒र॒वी॒ति॒। ९०.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः
- भरद्वाजः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-९०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (अद्रिभित्) पहाड़ों को तोड़नेवाला, (प्रथमजाः) मुख्य पद पर प्रकट होनेवाला, (ऋतावा) सत्यवान्, (आङ्गिरसः) विद्वान् पुरुष का पुत्र (हविष्मान्) देने-लेने योग्य पदार्थोंवाला (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं का रक्षक राजा] है, वह (द्विबर्हज्मा) दोनों [विद्या और पुरुषार्थ] से प्रधानता पानेवाला, (प्राघर्मसत्) अच्छे प्रकार सब ओर से प्रताप का सेवन करनेवाला (नः) हमारा (पिता) पालनेवाला है, [जैसे] (वृषभः) जल बरसानेवाला मेघ (रोदसी) आकाश और पृथिवी में (आ) व्यापकर (रोरवीति) बल से गरजता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा को चाहिये कि पहाड़ आदि कठिन स्थानों में मार्ग करके प्रजा का पालन करे, जैसे मेघ गर्जन के साथ वृष्टि करके संसार का उपकार करता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-६।७३।१-३। चौथा पाद आचुका है-अ० १८।३।६ ॥ १−(यः) (अद्रिभित्) शैलानां छेत्ता (प्रथमजाः) मुख्यपदे प्रादुर्भूतः (ऋतावा) ऋत-मत्वर्थे वनिप्। सत्यवान् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षको राजा (आङ्गिरसः) अङ्गिरसो विदुषः पुरुषस्य पुत्रः (हविष्मान्) दातव्यग्राह्यपदार्थयुक्तः (द्विबर्हज्मा) बर्ह प्राधान्ये-घञ्। जमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्०। उ० १।१९। जमु गतौ-कनिन्, अकारलोपः। द्वाभ्यां विद्यापुरुषार्थाभ्यां बर्हं प्राधान्यं जमति प्राप्नोति यः सः (प्राघर्ससत्) प्र+आ+घर्म+षण सम्भक्तौ-क्विप्। गमादीनामिति वक्तव्यम्। वा० पा० ४।४।४०। अनुनासिकलोपः। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्। अ० ६।१।७१। तुगागमः। प्रकर्षेण समन्तात् प्रतापस्य सेवनकर्ता (पिता) पालकः (नः) अस्माकम् (आ) व्याप्य (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वृषभः) वर्षिताऽपाम्-निरु० ४।८। मेघः (रोरवीति) भृशं रौति। अभिगर्जति ॥
०२ जनाय चिद्य
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जना॑य चि॒द्य ईव॑ते उ लो॒कं बृह॒स्पति॑र्दे॒वहू॑तौ च॒कार॑।
घ्नन्वृ॒त्राणि॒ वि पुरो॑ दर्दरीति॒ जयं॒ छत्रूं॑र॒मित्रा॑न्पृ॒त्सु साह॑न् ॥
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मूलम् (VS)
जना॑य चि॒द्य ईव॑ते उ लो॒कं बृह॒स्पति॑र्दे॒वहू॑तौ च॒कार॑।
घ्नन्वृ॒त्राणि॒ वि पुरो॑ दर्दरीति॒ जयं॒ छत्रूं॑र॒मित्रा॑न्पृ॒त्सु साह॑न् ॥
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Griffith
Brihaspati who made for such a people wide room and verge when Gods were invocated– Slaying his foe he breaketh down their cattles, quelling his enemies and those who hate him.
पदपाठः
जना॑य। चि॒त्। वः। ईव॑ते। ऊं॒ इति॑। लो॒कम्। बृह॒स्पतिः॑। दे॒वऽहू॑तौ। च॒कार॑। घ्नन्। वृ॒त्राणि॑। वि। पुरः॑। द॒र्द॒री॒ति॒। जय॑न्। शत्रू॑न्। अ॒मित्रा॑न्। पृ॒त्सु। सह॑न्। ९०.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः
- भरद्वाजः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-९०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जिस (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के रक्षक राजा] ने (चित् उ) अवश्य ही (ईवते) गतिमान् (जनाय) मनुष्य के लिये (देवहूतौ) विद्वानों के बुलावे में (लोकम्) दर्शनीय स्थान (चकार) किया है। वह (वृत्राणि) धनों को (घ्नन्) पाता हुआ और (अमित्रान्) सतानेवाले (शत्रून्) वैरियों को (पृत्सु) सङ्ग्रामों में (जयन्) जीतता हुआ और (साहन्) हराता हुआ (पुरः) [उनके] दुर्गों को (वि दर्दरीति) तोड़ डालता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो वीर राजा विद्वान् उद्योगी जनों का आदर करता है, वह धनवान् होकर और शत्रुओं को जीतकर प्रजा को पालता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(जनाय) (चित्) अवश्यम् (यः) (ईवते) गतिमते (उ) एव (लोकम्) दर्शनीयं स्थानम् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः (देवहूतौ) देवानामाह्वाने (चकार) कृतवान् (घ्नन्) गच्छन्। प्राप्नुवन् (वृत्राणि) धनानि (वि) विशेषेण (पुरः) शत्रूणां नगराणि। दुर्गाणि (दर्दरीति) भृशं विदृणाति (जयन्) (शत्रून्) (अमित्रान्) अम पीडने-इत्रन्। पीडकान् (पृत्सु) पृतनासु। संग्रामेषु (साहन्) अभिभवन् ॥
०३ बृहस्पतिः समजयद्वसूनि
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बृह॒स्पतिः॒ सम॑जय॒द्वसू॑नि म॒हो व्र॒जान्गोम॑तो दे॒व ए॒षः।
अ॒पः सिषा॑स॒न्त्स्व१॒॑रप्र॑तीतो॒ बृह॒स्पति॒र्हन्त्य॒मित्र॑म॒र्कैः ॥
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मूलम् (VS)
बृह॒स्पतिः॒ सम॑जय॒द्वसू॑नि म॒हो व्र॒जान्गोम॑तो दे॒व ए॒षः।
अ॒पः सिषा॑स॒न्त्स्व१॒॑रप्र॑तीतो॒ बृह॒स्पति॒र्हन्त्य॒मित्र॑म॒र्कैः ॥
०३ बृहस्पतिः समजयद्वसूनि ...{Loading}...
Griffith
Brihaspati in war hath won rich treasures, hath won, this God, the great stalls filled with cattle. Striving to win waters and light, resistless, Brihaspati with light- ning smites the foeman.
पदपाठः
बृह॒स्पतिः॑। सम्। अ॒ज॒य॒त्। वसू॑नि। म॒हः। व्र॒जान्। गोऽम॑तः। दे॒वः। ए॒षः। अ॒पः। सिसा॑सन्। स्वः॑। अप्र॑तिऽइतः। बृह॒स्पतिः॑। हन्ति॑। अ॒मित्र॑म्। अ॒र्कैः। ९०.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः
- भरद्वाजः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-९०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देवः) विजय चाहनेवाले (एषः) इस (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के रक्षक पुरुष] ने (वसूनि) धनों को और (महः) बड़े, (गोमतः) विद्याओं से युक्त (वज्रान्) मार्गों को (सम् अजयत्) जीत लिया है, (अपः) कर्म और (स्वः) सुख को, (सिषासन्) पूरे करने की इच्छा करता हुआ, (अप्रतीतः) बे-रोक (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं का रक्षक राजा] (अर्कैः) वज्रों [शस्त्रों] से (अमित्रम्) सतानेवाले को (हन्ति) नाश करता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो विजय चाहनेवाला पुरुष धन और विद्याओं को बढ़ा लेता है, वह अपने सुकर्म से दुष्टों को हराकर आनन्द पाता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: इति सप्तमोऽनुवाकः ॥ ३−(बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षको राजा (सम्) सम्यक् (अजयत्) जयेन प्राप्तवान् (वसूनि) धनानि (महः) महतः। विशालान् (व्रजान्) मार्गान् (गोमतः) विद्यायुक्तान् (देवः) विजिगीषुः (एषः) (अयं) कर्म (सिषासन्) षो अन्तकर्मणि-सन्, शतृ। समाप्तिं कर्तुमिच्छन् (स्वः) सुखम् (अप्रतीतः) अप्रतिगतः (बृहस्पतिः) (हन्ति) नाशयति (अमित्रम्) पीडकं पुरुषम् (अर्कैः) अर्को वज्रनाम-निघ० २।२०। वज्रैः। शस्त्रैः ॥