०८९

०८९ ...{Loading}...

Griffith

???

०१ अस्तेव सु

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अस्ते॑व॒ सु प्र॑त॒रं लाय॒मस्य॒न्भूष॑न्निव॒ प्र भ॑रा॒ स्तोम॑मस्मै।
वा॒चा वि॑प्रास्तरत॒ वाच॑म॒र्यो नि रा॑मय जरितः॒ सोम॒ इन्द्र॑म् ॥

०१ अस्तेव सु ...{Loading}...

Griffith

Even as an archer shoots afar his arrow, offer the laud to him with meet adornment. Quell with your voice the wicked’s voice, O sages, Singer, make Indra rest beside the Soma.

पदपाठः

अस्ता॑ऽइव। सु। प्र॒ऽत॒रम्। लाय॑म्। अस्य॑न्। भूष॑न्ऽइव। प्र। भ॒र॒। स्तोम॑म्। अ॒स्मै॒। वा॒चा। वि॒प्राः॒। त॒र॒त॒। वाच॑म्। अ॒र्यः। नि। र॒म॒य॒। ज॒रि॒त॒रित‍ि॑। सोमे॑। इन्द्र॑म्। ८९.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (जरितः) हे स्तोता विद्वान् ! (प्रतरम्) अधिक उत्तम (लायम्) हृदयवेधी तीर को (सु) अच्छे प्रकार (अस्यन्) छोड़ते हुए (अस्ता इव) धनुर्धारी के समान तू (अस्मै) इस [शूर] के लिये (स्तोमम्) स्तुति को (भूषम् इव) सजाता हुआ जैसे (प्र भर) आगे धर, और (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी मनुष्य] को (सोमे) तत्त्व रस में (नि) निरन्तर (रमय) आनन्द दे, (विप्राः) हे बुद्धिमानो ! (वाचा) [अपनी सत्य] वाणी से (अर्यः) वैरी की (वाचम्) [असत्य] वाणी को (तरत) तुम दबाओ ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे उत्तम धनुर्धारी प्रेम से कार्यसिद्धि के लिये अपने अच्छे बाण को छोड़ता है, वैसे ही विद्वान् लोग पृथक-पृथक् होकर तथा सब मिलकर प्रीति के साथ प्रतापी वीर के उत्तम गुणों को जानकर तत्त्व की ओर प्रवृत्त करें और मिथ्यावादी वैरी को हराकर आनन्द भोगें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।४२।१-११ ॥ १−(अस्ता) बाणक्षेप्ता। धानुष्कः (इव) यथा (सु) सुष्ठु (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (लायम्) लीङ् श्लेषणे-घञ्। संश्लेषिणं हृदयवेधिनं शरम् (अस्यन्) क्षिपन् (भूषन्) अलंकुर्वन् (इव) यथा (प्र भर) अग्रे धर (स्तोमम्) स्तुतिम् (अस्मै) इन्द्राय (वाचा) स्वसत्यवाण्या (विप्राः) हे मेधाविनः (तरत) अभिभवत (वाचम्) मिथ्यावाणीम् (अर्यः) अरेः शत्रोः (नि) नितराम् (रमय) आनन्दय (जरितः) हे स्तोतः (सोमे) तत्त्वरसे (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं मनुष्यम् ॥

०२ दोहेन गामुप

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

दोहे॑न॒ गामुप॑ शिक्षा॒ सखा॑यं॒ प्र बो॑धय जरितर्जा॒रमिन्द्र॑म्।
कोशं॒ न पू॒र्णं वसु॑ना॒ न्यृ॑ष्ट॒मा च्या॑वय मघ॒देया॑य॒ शूर॑म् ॥

०२ दोहेन गामुप ...{Loading}...

Griffith

Draw thy Friend to thee like a cow at milking: O singer, wake up Indra as a lover. Make thou the Hero haste to give us riches even as a vessel filled brimful with treasure.

पदपाठः

दोहे॑न। गाम्। उप॑। श‍ि॒क्ष॒। सखा॑यम्। प्र। बो॒ध॒य॒। ज॒रि॒तः॒। जा॒रम्। इन्द्र॑म्। कोश॑म्। न। पू॒र्णम्। वसु॑ना। निऽऋ॑ष्टम्। आ। च्य॒व॒य॒। म॒घ॒ऽदेया॑य। शूर॑म्। ८९.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (जरितः) हे स्तुति करनेवाले विद्वान् ! (दोहेन) दूध दोहने के लिये (गाम्) गाय को [जैसे, वैसे] (जारम्) स्तुतियोग्य (सखायम्) मित्र (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े प्रतापी पुरुष] को (उप शिक्ष) तू ग्रहण कर और (प्र) अच्छे प्रकार (बोधय) जगा (वसुना) धन से (पूर्णम्) भरे हुए (कोशं न) कोश [धनागार] के समान (न्यृष्टम्) निश्चय को प्राप्त हुए (शूरम्) शूर को (मघदेयाय) पूजनीय पदार्थ के दान के लिये (आ च्यवय) आगे बढ़ा ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे अन्न आदि देकर प्रीति के साथ गाय से दूध लेते हैं, वैसे मनुष्य आदर सत्कार के साथ कर्मवीर पुरुष से पूजनीय व्यवहार की शिक्षा ग्रहण करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(दोहेन) दुग्धदोहनार्थम् (गाम्) धेनुम् (उप शिक्ष) शिक्षतिर्दानकर्मा-निघ० ३।२०। उपपूर्वक आदाने। गृहाण (सखायम्) प्रियम् (प्र बोधय) प्रबुद्धं जागृतं कुरु (जरितः) हे स्तोतः (जारम्) जॄ स्तुतौ-घञ्, अर्शआद्यच्। स्तुतियोग्यम् (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (कोशम्) धनागारम् (न) यथा (पूर्णम्) पूरितम् (वसुना) धनेन (न्यृष्टम्) ऋषी गतौ-क्त। निश्चयगतम् (आ) अभिमुखम् (च्यवय) गमय (मघदेयाय) पूजनीयपदार्थस्य दानाय (शूरम्) वीरम् ॥

०३ किमङ्ग त्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

किम॒ङ्ग त्वा॑ मघवन्भो॒जमा॑हुः शिशी॒हि मा॑ शिश॒यं त्वा॑ शृणोमि।
अप्न॑स्वती॒ मम॒ धीर॑स्तु शक्र वसु॒विदं॒ भग॑मि॒न्द्रा भ॑रा नः ॥

०३ किमङ्ग त्वा ...{Loading}...

Griffith

Why, Maghavan, do they call thee bounteous Giver? Quicken me: thou, I hear, art he who quickens. Sakra, let my intelligence be active, and bring us luck that finds great wealth, O Indra.

पदपाठः

किम्। अ॒ङ्ग। त्वा॒। म॒घ॒ऽव॒न्। भो॒जम्। आ॒हुः॒। शि॒शी॒हि। मा॒। शि॒श॒यम्। त्वा॒। शृ॒णो॒मि॒। अप्न॑स्वती। मम॑। धीः। अ॒स्तु॒। श॒क्र॒। व॒सु॒ऽविद॑म्। भग॑म्। इ॒न्द्र॒। आ। भ॒र॒। नः॒। ८९.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अङ्ग) हे (मघवन्) धनवाले [पुरुष !] (किम्) किस लिये (त्वा) तुझको (भोजम्) पालन करनेवाला (आहुः) वे [विद्वान्] कहते हैं ? (मा) मुझको (शिशीहि) सचेत कर, (त्वा) तुझको (शिशयम्) उद्योगी (शृणोमि) मैं सुनती हूँ। (शक्र) हे शक्तिमान् ! (मम) मेरी (धीः) बुद्धि (अप्नस्वती) कर्मवाली (अस्तु) होवे, (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (नः) हमारे लिये (वसुविदम्) धन पहुँचानेवाला (भगम्) ऐश्वर्य (आ) सब ओर से (भर) भर ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - कीर्तिमान् प्रधान पुरुष ऐसा प्रयत्न करें कि सब लोग बुद्धिमान् होकर कर्मवीर होवें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(किम्) किमर्थम् (अङ्ग) सम्बोधने (त्वा) त्वाम् (मघवन्) धनवन् (भोजम्) पालकम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (शिशीहि) अ० २०।३७।८। तीक्ष्णीकुरु। सचेतसं कुरु (मा) माम् (शिशयम्) वलिमलितनिभ्यः कयन्। उ० ४।९९। शश प्लुतगतौ-कयन्, अकारस्य इकारः। उद्योगिनम् (त्वा) (शृणोमि) (अप्नस्वती) कर्मवती (मम) (धीः) प्रज्ञा (अस्तु) (शक्र) हे शक्तिमन् (वसुविदम्) धनस्य लम्भकम् (भगम्) ऐश्वर्यम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (आ) समन्तात् (भर) धर (नः) अस्मभ्यम् ॥

०४ त्वां जना

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्वां जना॑ ममस॒त्येष्वि॑न्द्र सन्तस्था॒ना वि ह्व॑यन्ते समी॒के।
अत्रा॒ युजं॑ कृणुते॒ यो ह॒विष्मा॑न्नासुन्वता स॒ख्यं व॑ष्टि॒ शूरः॑ ॥

०४ त्वां जना ...{Loading}...

Griffith

Standing, in battle for their rights, together, the people, Indra, in the fray invoke thee. Him who brings gifts the Hero makes his comrade: with him who pours no juice he seeks not friendship.

पदपाठः

त्वाम्। जनाः॑। म॒म॒ऽस॒त्येषु॑। इ॒न्द्र॒। स॒म्ऽत॒स्था॒नाः। वि। ह्व॒य॒न्ते॒। स॒म्ऽई॒के। अत्र॑। युज॑म्। कृ॒णु॒ते॒। यः। ह॒विष्मा॑न्। न। असु॑न्वत। स॒ख्यम्। व॒ष्टि॒। शूरः॑। ८९.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (ममसत्येषु) अपने-अपने उद्देश्य को सत्य माननेवाले सङ्ग्रामों के बीच (समीके) भिड़ के (सतस्थानाः) सजकर खड़े हुए (जनाः) लोग (त्वाम्) तुझको (वि) विविध प्रकार (ह्वयन्ते) पुकारते हैं। (अत्र) यहाँ पर (शूरः) शूर पुरुष [उस मनुष्य को] (युजम्) साथी (कृणुते) बनाता है, (यः) जो (हविष्मान्) भक्तिवाला है, और (असुन्वता) तत्त्व रस के न निकालनेवाले के साथ (सख्यम्) मित्रता (न) नहीं (वष्टि) चाहता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जहाँ पर दो पक्षवाले आपस में अपने-अपने उद्देश्य के लिये लड़ते हों, बुद्धिमान् पुरुष मध्यस्थ होकर धर्म्मात्मा का सहाय करें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: पदपाठ के (असुन्वत) पद में भूल दीखती है, ऋग्वेद का (असुन्वता) पदपाठ संहिता के अनुकूल है, उसीके अनुसार हमने अर्थ किया है ॥ ४−(त्वाम्) (जनाः) (ममसत्येषु) ममप्रयोजनं सत्यम्-इति ब्रुवाणा योद्धारः सन्ति यत्र। ममसत्यं संग्रामनाम-निघ० २।१७। सङ्ग्रामेषु (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (सन्तस्थानाः) तिष्ठतेः-कानच्। सम्यक् तिष्ठन्तः (वि) विविधम् (ह्वयन्ते) आह्वयन्ति (समीके) अलीकादयश्च। उ० ४।२। सम्+इण् गतौ-ईकन्। धातुलोपः। सङ्गमे। संग्रामे-निघ० २।१७। (अत्र) अस्मिन् विषये (युजम्) सखायम् (कृणुते) कुरुते (यः) पुरुषः (हविष्मान्) भक्तिमान् (न) निषेधे (असुन्वत) असुन्वता-ऋग्वेदपदपाठो यथा। तत्त्वरसं निष्पादयता (सख्यम्) सखित्वम् (वष्टि) कामयते (शूरः) निर्भयः ॥

०५ धनं न

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

धनं॒ न स्प॒न्द्रं ब॑हु॒लं यो अ॑स्मै ती॒व्रान्त्सोमाँ॑ आसु॒नोति॒ प्रय॑स्वान्।
तस्मै॒ शत्रू॑न्त्सु॒तुका॑न्प्रा॒तरह्नो॒ नि स्वष्ट्रा॑न्यु॒वति॒ हन्ति॑ वृ॒त्रम् ॥

०५ धनं न ...{Loading}...

Griffith

Whoso with plenteous juice for him expresses strong Somas as much quickly-coming treasure, For him he everthrows in early morning his swift well-weapon- ed foes and slays the tyrant.

पदपाठः

धन॑म्। न। स्प॒न्द्रम्। ब॒हु॒लम्। यः। अ॒स्मै॒। ती॒व्रान्। सोमा॑न्। आ॒ऽसु॒नोति॑। प्रय॑स्वान्। तस्मै॑। शत्रू॑न्। सु॒ऽतुका॑न्। प्रा॒तः। अह्नः॑। नि। सु॒ऽअष्ट्रा॑न्। यु॒वति॑। हन्ति॑। वृ॒त्रम्। ८९.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (प्रयस्वान्) अन्नवाला पुरुष (अस्मै) इस [वीर] को (बहुलम्) बहुत से (स्पन्द्रम्) शीघ्र प्राप्त होनेवाले (धनम् न) धन के समान (तीव्रान्) तीव्र (सोमान्) सोम [तत्त्व रसों] को (आसुनोति) सिद्ध करता है। (तस्मै) उस [पुरुष] के लिये (सुतुकान्) बड़े हिंसक, (स्वष्ट्रान्) तीक्ष्ण शस्त्रोंवाले (शत्रून्) वैरियों को (अह्नः) दिन के (प्रातः) प्रातःकाल में [अर्थात् प्रकाशरूप से] (नि युवति) वह [वीर] हटा देता है और (वृत्रम्) धन को (हन्ति) प्राप्त होता है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे प्रजागण धन मन और विद्याबल से प्रधान पुरुष की सहायता करें, वह वीर भी उसी प्रकार दुष्टों से प्रजा की रक्षा करे ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(धनम्) (न) यथा (स्पन्द्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। स्पदि किञ्चिच्चलने गतौ च-रक्। स्पन्दशीलम्। शीघ्रं प्रापणीयम् (बहुलम्) प्रभूतम् (यः) पुरुषः (अस्मै) वीराय (तीव्रान्) (सोमान्) तत्त्वरसान् (आसुनोति) निष्पादयति। संस्करोति (प्रयस्वान्) अन्नवान्-निघ० २।७। (तस्मै) पुरुषाय (शत्रून्) (सुतुकान्) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। तु गतिवृद्धिहिंसासु-कक्। बहुहिंसकान् (प्रातः) प्रभातकाले यथा (अह्नः) दिनस्य (नि) नितराम् (स्वष्ट्रान्) अमिचिमिशसिभ्यः क्त्रः। उ० ४।१६४। अशू व्याप्तौ-क्त्र, टाप्। सुष्ठु अष्टास्ताडन्यो येषां तान्। तीक्ष्णायुधान् (युवति) पृथक् करोति (हन्ति) गच्छति-निघ० २।१४। प्राप्नोति (वृत्रम्) धनम्-निघ० २।१० ॥

०६ यस्मिन्वयं दधिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यस्मि॑न्व॒यं द॑धि॒मा शंस॒मिन्द्रे॒ यः शि॒श्राय॑ म॒घवा॒ काम॑म॒स्मे।
आ॒राच्चि॒त्सन्भ॑यतामस्य॒ शत्रु॒र्न्य᳡स्मै द्यु॒म्ना जन्या॑ नमन्ताम् ॥

०६ यस्मिन्वयं दधिमा ...{Loading}...

Griffith

He unto whom we offer praises, Indra, Maghavan, who hath joined to ours his wishes Before him even afar the foe must tremble: low before him must bow all human glories.

पदपाठः

यस्मि॑न्। व॒यम्। द॒धि॒म। शंस॑म्। इन्द्रे॑। यः। शि॒श्राय॑। म॒घऽवा॑। काम॑म्। अ॒स्मै इति॑। आ॒रात्। चि॒त्। सन्। भ॒य॒ता॒म्। अ॒स्य॒। शत्रुः॑। नि। अ॒स्मै॒। द्यु॒म्ना। जन्या॑। न॒म॒न्ता॒म्। ८९.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस (इन्द्रे) इन्द्र [बड़े प्रतापी वीर] में (शंसम्) अपनी इच्छा को (वयम्) हमने (दधिम) रक्खा था और (यः) जिस (मघवा) धनवान् ने (अस्मे) हममें (कामम्) अपनी कामना को (शिश्राय) आश्रय दिया था। (आरात्) दूर (चित्) भी (सन्) रहता हुआ (शत्रुः) शत्रु (अस्य) उसका (भयताम्) भय माने, और (अस्मै) उसके लिये (जन्या) लोगों के हितकारी (द्युम्नानि) प्रकाशमान यश (नि) नित्य (नमन्तात्) नमते रहें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जहाँ पर प्रजागण और प्रधान वीर पुरुष परस्पर हित के लिये प्रयत्न करते हैं, वहाँ पर शत्रु लोग दुराचार नहीं करते, और सब लोग उन्नति करके यशस्वी होते हैं ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(यस्मिन्) (वयम्) प्रजागणाः (दधिम) धृतवन्तः (शंसम्) शसि इच्छायाम्-घञ्। आशंसाम्। आकाङ्क्षाम् (इन्द्रे) परप्रतापिनि वीरे (यः) (शिश्राय) आश्रितवान्। स्थापितवान् (मघवा) धनवान् (कामम्) अभिलाषम् (अस्मे) अस्मासु (आरात्) दूरे (चित्) अपि (सन्) भवन् (भयताम्) बिभेतु। भयं प्राप्नोतु (अस्य) वीरस्य (शत्रुः) (नि) नितराम् (अस्मै) वीराय (द्युम्ना) द्योतमानानि यशांसि (जन्या) जनहितानि (नमन्ताम्) प्रह्वीभवन्तु ॥

०७ आराच्छत्रुमप बाधस्व

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ॒राच्छत्रु॒मप॑ बाधस्व दू॒रमु॒ग्रो यः शम्बः॑ पुरुहूत॒ तेन॑।
अ॒स्मे धे॑हि॒ यव॑म॒द्गोम॑दिन्द्र कृ॒धी धियं॑ जरि॒त्रे वाज॑रत्नाम् ॥

०७ आराच्छत्रुमप बाधस्व ...{Loading}...

Griffith

With thy fierce bolt, O God invoked of many, drive to a distance from afar the foeman. O Indra, give us wealth in corn and cattle, and make the singer’s prayer gain strength and riches.

पदपाठः

आ॒रात्। शत्रू॑न्। अप॑। बा॒ध॒स्व॒। दू॒रम्। उ॒ग्रः। यः। शम्बः॑। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। तेन॑। अ॒स्मै इति॑। धे॒ह‍ि॒। यव॑ऽमत्। गोऽम॑त्। इ॒न्द्र॒। कृ॒धि। धिय॑म्। ज॒रि॒त्रे। वाज॑ऽरत्नाम्। ८९.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुहूत) हे बहुत प्रकार बुलाये गये ! [वीर] (यः) जो (शम्बः) तेरा वज्र (उग्रः) प्रचण्ड है, (तेन) उससे (शत्रुम्) शत्रु को (आरात्) दूर से (दूरम्) दूर (अप बाधस्व) हटा दे। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े प्रतापी वीर] (अस्मे) हमको (यवमत्) अन्नवाला (गोमत्) विद्याओं और गौओं वाला धन (धेहि) दे और (जरित्रे) स्तोता [गुण प्रसिद्ध करनेवाले] कि लिये (धियम्) बुद्धि को (वाजरत्नाम्) बलों और सुवर्ण आदि रत्नोंवाली (कृधि) कर ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वीर प्रधान पुरुष अपने प्रचण्ड दण्डदान से शत्रुओं को हटाकर प्रजागणों को विद्याद्वारा पराक्रमी और धनाढ्य बनावे ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(आरात्) दूरात् (शत्रुम्) (अप बाधस्व) अपगमय (दूरम्) (उग्रः) प्रचण्डः (यः) (शम्बः) अ० ९।२।६। शम्ब इति वज्रनाम, शमयतेर्वा शाततेर्वा-निरु० ।२४। वज्रः (पुरुहूत) हे बहुविधाहूत (तेन) वज्रेण (अस्मे) अस्मभ्यम् (धेहि) देहि (यवमत्) अन्नयुक्तम् (गोमत्) गोभिर्विद्याभिर्धेनुभिश्च युक्तं धनम् (इन्द्र) हे महाप्रतापिन् वीर (कृधि) कुरु (धियम्) प्रज्ञाम् (जरित्रे) स्तोत्रे (वाजरत्नाम्) वाजैर्बलैः सुवर्णादिरत्नैश्च युक्ताम् ॥

०८ प्र यमन्तर्वृषसवासो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्र यम॒न्तर्वृ॑षस॒वासो॒ अग्म॑न्ती॒व्राः सोमा॑ बहु॒लान्ता॑स॒ इन्द्र॑म्।
नाह॑ दा॒मानं॑ म॒घवा॒ नि यं॑स॒न्नि सु॑न्व॒ते व॑हति॒ भूरि॑ वा॒मम् ॥

०८ प्र यमन्तर्वृषसवासो ...{Loading}...

Griffith

Indra the swallower of strong libations with their thick residue, the potent Somas, He, Maghavan, will not restrict his bounty: he brings much wealth unto the Soma-presser.

पदपाठः

प्र। यम्। अ॒न्तः। वृ॒ष॒ऽस॒वासः॑। अज्म॑न्। ती॒व्राः। सोमाः॑। ब॒हु॒लऽअ॑न्तासः। इन्द्र॑म्। न। अह॑। दा॒मान॑म्। म॒घऽवा॑। नि। यं॒स॒त्। नि। सु॒न्व॒ते। व॒ह॒ति॒। भूरि॑। वा॒मम्। ८९.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) जिस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े प्रतापी मनुष्य] को (वृषसवासः) बलवानों को ऐश्वर्य देनेवाले, (तीव्राः) तीक्ष्ण स्वभाववाले और (बहुलान्तासः) बहुत ज्ञान को अन्त [सिद्धान्त] में रखनेवाले (सोमाः) सोम [तत्त्वरस] (अन्तः) भीतर [हृदय में] (प्र अग्मन्) प्राप्त हो गये हैं। (मघवा) वह धनवान् पुरुष (अह) निश्चय करके (दामानम्) दान को (न) नहीं (नि यंसत्) रोक सकता है वह (सुन्वते) तत्त्वरस निचोड़नेवाले को (भूरि) बहुत (वामम्) उत्तम धन (नि) नित्य (वहति) पहुँचाता है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य निश्चित सिद्धान्तों पर दृढ़ होकर चले, उस वीर से दूसरे विद्वान् शिक्षा लेकर बहुत धन प्राप्त करें ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(प्र) प्रकर्षेण (यम्) (अन्तः) मध्ये। हृदये (वृषसवासः) वृषभ्यो बलवद्भ्यः सवाः ऐश्वर्याणि सकाशात् ते तथाभूताः (अग्मन्) प्राप्तवन्तः (तीव्राः) तीक्ष्णाः (सोमाः) तत्त्वरसाः (बहुलान्तासः) बहुलं बहुज्ञानम् अन्ते सिद्धान्ते येषां ते (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (न) निषेधे (अह) एव (दामानम्) ददातेः-मनिन्। दानम् (मघवा) धनवान् (नि) (यंसत्) यमु उपरमे-लेट्। उपरतं निरुद्धं कुर्यात् (नि) नित्यम् (सुन्वते) तत्त्वं निष्पादयते पुरुषाय (वहति) प्रापयति (भूरि) प्रभूतम् (वामम्) वननीयं धनम् ॥

०९ उत प्रहामतिदीवा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति का॒ले।
यो दे॒वका॑मो॒ न धनं॑ रु॒णद्धि॒ समित्तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑ ॥

०९ उत प्रहामतिदीवा ...{Loading}...

Griffith

Yea, by superior play he wins advantage when he, a gambler, piles his gains in season. Celestial-natured, he o’erwhelms with riches the devotee who keeps not back his money.

पदपाठः

उ॒त। प्र॒ऽहाम्। अति॑ऽदीवा। ज॒य॒ति॒। कृ॒तम्ऽइ॑व। श्व॒घ्नी। वि। चि॒नो॒ति॒। का॒ले। यः। दे॒वऽका॑मः। न। धन॑म्। रु॒णध्दि॑। सम्। इत्। तम्। रा॒यः। सृ॒ज॒ति॒। स्व॒धाभिः॑। ८९.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) और (अतिदीवा) बड़ा व्यवहारकुशल पुरुष (प्रहाम्) उपद्रवी पुरुष को (जयति) जीत लेता है, (श्वघ्नी) धन नाश करनेवाला ज्वारी (काले) [हार के] समय पर (इव) ही (कृतम्) अपने काम का (वि चिनोति) विवेक करता है। (यः) जो (देवकामः) शुभ गुणों का चाहनेवाला (धनम्) धन को [शुभ काम में] (न) नहीं (रुणद्धि) रोकता है, (रायः) अनेक धन (तम्) उसको (इत्) ही (स्वधाभिः) आत्मधारण शक्तियों के साथ (सम् सृजति) मिलते हैं ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रतापी पुरुष दुष्ट को जीतकर उसे उसके दोष का निश्चय करा देता है, शुभ गुण चाहनेवाला उदारचित्त मनुष्य अनेक धन और आत्मबल पाता है ॥•९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ९, १० आ चुके हैं-अ० ७।०।६।७ •॥ ९−मन्त्रौ ९, १० व्याख्यातौ-अ० ७।०।६, ७ •॥

१० गोभिष्टरेमामतिं दुरेवाम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न वा॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वे॑।
व॒यं राज॑सु प्रथ॒मा धना॒न्यरि॑ष्टासो वृज॒नीभि॑र्जयेम ॥

१० गोभिष्टरेमामतिं दुरेवाम् ...{Loading}...

Griffith

O much-invoked, may we subdue all famine and evil want with store of grain and cattle. May we allied, as first in rank, with princes,:obtain possessions by our own exertion

पदपाठः

गोभिः॑। त॒रे॒म॒। अम॑तिम्। दुः॒ऽएवा॑म्। यवे॑न। वा॒। क्षुध॑म्। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। विश्वे॑। व॒यम्। राज॑ऽसु। प्र॒थ॒माः। धना॑नि। अरि॑ष्टासः। वृ॒ज॒नीभिः॑। ज॒ये॒म॒। ८९.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुहूत) हे बहुत बुलाये गये राजन् ! (विश्वे) हम सब लोग (गोभिः) विद्याओं से (दुरेवाम्) दुर्गतिवाली (अमतिम्) कुमति को (तरेम) हटावें, (वा) जैसे (यवेन) जौ आदि अन्न से (क्षुधम्) भूख को। (वयम्) हम लोग (राजसु) राजाओं के बीच (प्रथमाः) पहिले और (अरिष्टासः) अजेय होकर (वृजनीभिः) अनेक वर्जन शक्तियों से (धनानि) अनेक धनों को (जयेम) जीतें ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्याओं द्वारा कुमति हटाकर प्रशंसनीय गुण प्राप्त करके अनेक धन प्राप्त करें ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १० कुछ भेद से और मन्त्र ११ आ चुके हैं-अ० २०।१७।१०, ११ और आगे हैं-अ० २०।९४।१०, ११। मन्त्र १० की टिप्पणी देखो ॥

११ बृहस्पतिर्नः परि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः।
इन्द्रः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरी॑यः कृणोतु ॥

११ बृहस्पतिर्नः परि ...{Loading}...

Griffith

Brihaspati protect us from the rearward, and from above and from below, from sinners. May Indra from the front and from the centre, as friend to friends, vouchsafe us room and freedom.

पदपाठः

बृह॒स्पतिः॑। नः॒। परि॑। पा॒तु॒। प॒श्चात्। उ॒त। उत्ऽत॑रस्मात्। अध॑रात्। अ॒घ॒ऽयोः। इन्द्रः॑। पु॒रस्ता॑त्। उ॒त। म॒ध्य॒तः। नः॒। सखा॑। सखि॑ऽभ्यः। वरी॑यः। कृ॒णो॒तु॒। ८९.११

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कृष्णः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े शूरों का रक्षक सेनापति] (नः) हमें (पश्चात्) पीछे से, (उत्तरस्मात्) ऊपर से (उत) और (अधरात्) नीचे से (अघायोः) बुरा चीतनेवाले शत्रु से (परि पातु) सब प्रकार बचावे। (इन्द्रः) इन्द्र [वह बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (पुरस्तात्) आगे से (उत) और (मध्यतः) मध्य से (नः) हमारे लिये (वरीयः) विस्तीर्ण स्थान (कृणोतु) करे, (सखा) जैसे मित्र (सखिभ्यः) मित्रों के लिये [करता है] ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य वीरों में महावीर और प्रतापियों में महाप्रतापी होकर दुष्टों से प्रजा की रक्षा करे ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र आचुका है-अ० ७।१।१। मन्त्र १०, ११ की टिप्पणी भी ऊपर देखो ॥ ११−अयं मन्त्रो व्याख्यातः अ० ७।१।१ ॥