०८८

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Griffith

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०१ यस्तस्तम्भ सहसा

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यस्त॒स्तम्भ॒ सह॑सा॒ वि ज्मो अन्ता॒न्बृह॒स्पति॑स्त्रिषध॒स्थो रवे॑ण।
तं प्र॒त्नास॒ ऋष॑यो॒ दीध्या॑नाः पु॒रो विप्रा॑ दधिरे म॒न्द्रजि॑ह्वम् ॥

०१ यस्तस्तम्भ सहसा ...{Loading}...

Griffith

Him who with might hath propped earth’s ends, who sitteth in threefold seat, Brihaspati, with thunder, Him of the pleasant tongue have ancient sages, deep thinking,. holy singers, set before them.

पदपाठः

यः। त॒स्तम्भ॑। सह॑सा। वि। ज्मः। अन्ता॑न्। बृह॒स्पतिः॑। त्रि॒ऽस॒ध॒स्थः। रवे॑ण। तम्। प्र॒त्नासः॑। ऋष॑यः। दीध्या॑नाः। पु॒रः। विप्रा॑। द॒धि॒रे॒। म॒न्द्रऽजि॑ह्वम्। ८८.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • वामदेवः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जिस (त्रिषधस्थः) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] के साथ स्थित (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदविद्याओं के रक्षक पुरुष] ने (सहसा) अपने बल से और (रवेण) उपदेश से (ज्मः) पृथिवी के (अन्तान्) अन्तों [सीमाओं] को (वि) विविध प्रकार (तस्तम्भ) दृढ़ किया है। (तम्) उस (मन्द्रजिह्वम्) आनन्द देनेवाली जिह्वावाले विद्वान् को (प्रत्नासः) प्राचीन, (दीध्यानाः) प्रकाशमान [तेजस्वी], (विप्राः) बुद्धिमान् (ऋषयः) ऋषियों [वेदों के अर्थ जाननेवालों] ने (पुरः) आगे (दधिरे) धरा है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य कर्म, उपासना, ज्ञान में तत्पर होकर पृथिवी भर को आनन्द देता है, ऋषि लोग उस सत्यवादी को मुखिया करते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-४।०।१-६ ॥ १−(यः) विद्वान् दृढीकृतवान् (सहसा) बलेन (वि) विविधम् (ज्मः) जमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्। उ० १।१९। जमु अदने गतौ च-कनिन्, अकारलोपः। डाबुभाभ्यामन्यतस्याम्। पा० ४।१।१३। इति ङीप्। ज्मा पृथिवीनाम-निघ० १।१-निरु० १२।४३। आतो धातोः। पा० ६।४।१४०। इत्यत्र आत इति योगविभागादाकारलोपः। पृथिव्याः (अन्तान्) सीमाः। दिग्देशान् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः पुरुषः (त्रिषधस्थः) त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः सह स्थितः (रवेण) उपदेशेन (तम्) (प्रत्नासः) प्राचीनाः (ऋषयः) वेदार्थवेत्तारः (दीध्यानाः) अ० २।३४।३। दीधीङ् दीप्तिदेवनयोः-शानच्। दीप्यमानाः (पुरः) पुरस्तात्। अग्रे (विप्राः) मेधाविनः (दधिरे) धारितवन्तः (मन्द्रजिह्वम्) आनन्दप्रदजिह्वायुक्तम् ॥

०२ धुनेतयः सुप्रकेतम्

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धु॒नेत॑यः सुप्रके॒तं मद॑न्तो॒ बृह॑स्पते अ॒भि ये न॑स्तत॒स्रे।
पृष॑न्तं सृ॒प्रमद॑ब्धमू॒र्वं बृह॑स्पते॒ रक्ष॑तादस्य॒ योनि॑म् ॥

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Griffith

Wild in their course, in well-marked wise rejoicing were they,. Brihaspati, who pressed around us Preserve, Brihaspati, the stall uninjured,r,this company’s raining. ever-moving birth-place.

पदपाठः

धु॒नऽइ॑तयः। सु॒ऽप्र॒के॒तम्। मद॑न्तः। बृह॑स्पते। अ॒भि। ये। नः॒। त॒त॒स्रे। पृष॑न्तम्। सृ॒प्रम्। अद॑ब्धम्। ऊ॒र्वम्। बृह॑स्पते। रक्ष॑ताम्। अ॒स्य॒। योनि॑म्। ८८.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • वामदेवः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़ी विद्याओं के रक्षक] (ये) जिन (धुनेतयः) शीघ्र गतिवाले, (सुप्रकेतम्) सुन्दर ज्ञान से (मदन्तः) प्रसन्न होते हुए [विद्वानों ने] (नः) हमको (अभि) सब ओर (ततस्रे) फैलाया है [प्रसिद्ध किया है]। (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़े गुणों के स्वामी] (पृषन्तम्) सींचनेवाले, (सृप्रम्) ज्ञानवाले, (अदब्धम्) नष्ट न किये हुए, (ऊर्वम्) दोषनाशक (अस्य) उन [विद्वानों] के (योनिम्) कारण [वेदशास्त्र] को (रक्षतात्) तू रक्षित रख ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस वेदज्ञान में महात्मा लोग मग्न होकर दूसरों को सुख पहुँचाते हैं, विद्वान् लोग उस वेद की रक्षा करके अर्थात् आज्ञा में चलकर आनन्द पावें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(धुनेतयः) तृषिशुषिरसिभ्यः कित्। उ० ३।१२। धुञ् कम्पने न प्रत्ययः, कित्+इण् गतौ क्तिन्। शीघ्रगतयः (सुप्रकेतम्) यथा तथा। शोभनेन ज्ञानेन (मदन्तः) हृष्यन्तः (बृहस्पते) महतीनां विद्यानां रक्षक (अभि) सर्वतः (ये) विद्वांसः (नः) अस्मान् (ततस्रे) अ० २०।७२।२। विस्तारितवन्तः। प्रसिद्धान् कृतवन्तः (पृषन्तम्) सिञ्चन्तम् (सृप्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। सृप्लृ गतौ-रक्। ज्ञानवन्तम् (अदब्धम्) अहिंसितम्। अनाशितम् (ऊर्वम्) उर्वी हिंसायाम्-पचाद्यच्। दोषनाशकम् (बृहस्पते) बृहतां गुणानां स्वामिन् (रक्षतात्) रक्ष (अस्य) बहुवचनस्यैकवचनम्। एषां विदुषाम् (योनिम्) कारणं वेदशास्त्रम् ॥

०३ बृहस्पते या

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बृह॑स्पते॒ या प॑र॒मा प॑रा॒वदत॒ आ ते॑ ऋत॒स्पृशो॒ नि षे॑दुः।
तुभ्यं॑ खा॒ता अ॑व॒ता अद्रि॑दुग्धा॒ मध्व॑ श्चोतन्त्य॒भितो॑ विर॒प्शम् ॥

०३ बृहस्पते या ...{Loading}...

Griffith

Brihaspati, from thy remotest distance have they sat down who love the law eternal. For thee were dug wells springing from the mountain, which murmuring round about pour streams of sweetness.

पदपाठः

बृह॑स्पते। या। प॒र॒मा। प॒रा॒ऽवत्। अतः॑। आ। ते॒। ऋ॒त॒ऽस्पृशः॑। नि। से॒दुः॒। तुभ्य॑म्। खा॒ताः। अ॒व॒ताः। अद्रि॑ऽदुग्धाः। मध्वः॑। श्चो॒त॒न्ति॒। अ॒भितः॑। वि॒ऽर॒प्शम्। ८८.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • वामदेवः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़ी विद्याओं के रक्षक] (या) जो (ते) तेरी (परमा) उत्तम नीति (परावत्) उत्तम विद्यावाले राज्य में है, [उस नीति में] (ऋतस्पृशः) सत्य का स्पर्श करनेवाले लोग (आ) सब ओर से (नि षेदुः) बैठे हैं, (अतः) इसलिये (अद्रिदुग्धाः) मेघ से भरे गये, (खाताः) खोदे गये, (मध्वः) मीठे [मीठे जलवाले] (अवताः) कुए (तुभ्यम्) तेरे लिये (विरप्शम्) महान् संसार को (अभितः) सब ओर से (श्चोतन्ति) सींचते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - चतुर राजा की सुन्दर नीति से विद्वान् लोग संसार को इस प्रकार आनन्द पहुँचाते हैं, जैसे मेघ के जल कूप आदि द्वारा उपकार करते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(बृहस्पते) बृहतीनां विद्यानां रक्षक (या) (परमा) उत्कृष्टा नीतिः (परावत्) परावति। उत्कृष्टविद्यायुक्ते राज्ये (अतः) अस्मात् कारणात् (आ) समन्तात् (ते) तव (ऋतस्पृशः) सत्यस्य स्पर्शनशीलाः पुरुषाः (नि षेदुः) निषण्णा भवन्ति (तुभ्यम्) (खाताः) निखाताः (अवताः) भृमृदृशियजि०। उ० ३।११०। अव गतिरक्षणादिषु-अतच्। कूपाः-निघ० ३।२३। (अद्रिदुग्धाः) मेघेन पूरिताः (मध्वः) मधवः। मधुरजलयुक्ताः (श्चोतन्ति) सिञ्चन्ति (अभितः) सर्वतः (विरप्शम्) महान्तं संसारम् ॥

०४ बृहस्पतिः प्रथमम्

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बृह॒स्पतिः॑ प्रथ॒मं जाय॑मानो म॒हो ज्योति॑षः पर॒मे व्यो᳡मन्।
स॒प्तास्य॑स्तुविजा॒तो रवे॑ण॒ वि स॒प्तर॑श्मिरधम॒त्तमां॑सि ॥

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Griffith

Brihaspati, when first he had his being from mighty splendour in supremest heaven. Strong, with his sevenfold mouth, with noise of thunder, with his seven rays blew and dispersed the darkness.

पदपाठः

बृह॒स्पतिः॑। प्र॒थ॒मम्। जाय॑मानः। म॒हः। ज्योति॑षः। प॒र॒मे। विऽओ॑मन्। स॒प्तऽआ॑स्यः। तु॒वि॒ऽजा॒तः। रवे॑ण। वि। स॒प्तऽर॑श्मिः। अ॒ध॒म॒त्। तमां॑सि। ८८.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • वामदेवः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के रक्षक पुरुष] ने (महः) बड़े (ज्योतिषः) तेज के (परमे) उत्तम (व्योमन्) विविध प्रकार रक्षणीय स्थान में (प्रथमम्) पहिले पद पर (जायमानः) प्रकट होते हुए (तुविजातः) बहुत प्रसिद्ध होकर (रवेण) अपने उपदेश से (सप्तास्यः) सात मुखवाले अग्नि और (सप्तरश्मिः) सात किरणोंवाले सूर्य के समान (तमांसि) अन्धकारों को (वि अधमत्) बाहिर हटाया है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे अग्नि सात प्रकार की ज्वालाओं से और सूर्य सात प्रकार की किरणों से अन्धकार हटाकर पदार्थों को दिखाते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग पाँच ज्ञानेन्द्रिय मन और आत्मा से विद्याएँ ग्रहण करके अज्ञान हटाकर विद्या का प्रकाश करें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: अग्नि के सात मुख वा जिह्वाएँ अर्थात् ज्वालाएँ हैं-मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक १ खण्ड श्लोक ४ [काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरूपी च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥] काले वर्णवाली, कराली, मन का सा वेग रखनेवाली, रक्त वर्णवाली, जो गहरे धुएँ के वर्णवाली हैं, चिनगारियोंवाली और चमकती हुई झिलमिलाती हुई सब रूपों अर्थात् रंगोंवाली, यह [अग्नि की] सात जिह्वाएँ हैं ॥ सूर्य को सात किरणें इस प्रकार हैं−शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्रवर्ण ॥ ४−(बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षक (प्रथमम्) प्रधाने पदे (जायमानः) प्रादुर्भवन् (महः) महतः (ज्योतिषः) प्रकाशस्य (परमे) उत्कृष्टे (व्योमन्) अ० ।१७।६। विविधरक्षणीये स्थाने (सप्तास्यः) सप्त ज्वाला आस्यानि यस्य सः काली कराल्यादिजिह्वायुक्तोऽग्निर्यथा-मुण्डकोपनिषदि-१।२।४। (तुविजातः) बहुप्रसिद्धः (रवेण) उपदेशेन (वि) बहिर्भावे (सप्तरश्मिः) शुक्लनीलपीतादिकिरणयुक्तः सूर्यो यथा (अधमत्) धमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अगमयत् (तमांसि) अन्धकारान् ॥

०५ स सुष्टुभा

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स सु॒ष्टुभा॒ स ऋक्व॑ता ग॒णेन॑ व॒लं रु॑रोज फलि॒गं रवे॑ण।
बृह॒स्पति॑रु॒स्रिया॑ हव्य॒सूदः॒ कनि॑क्रद॒द्वाव॑शती॒रुदा॑जत् ॥

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Griffith

With the loud-shouting band who sang his praises, with thunder, he destroyed malignant Vala. Brihaspati thundering drave forth the cattle, the lowing cows who make oblations ready.

पदपाठः

सः। सु॒ऽस्तु॒भा॑। सः। ऋक्व॑ता। ग॒णेन॑। व॒लम्। रु॒रो॒ज॒। फ॒लि॒ऽगम्। र॒वे॑ण। बृह॒स्पतिः॑। उ॒स्रियाः॑। ह॒व्य॒ऽसूदः॑। कनि॑क्रदत्। वाव॑शतीः। उत्। आ॒ज॒त्। ८८.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • वामदेवः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सः सः) उसी ही [वीर पुरुष] ने (सुष्टुभा) बड़ी स्तुतिवाले (ऋक्वता) पूजनीय वाणीवाले (गणेन) समुदाय के साथ (फलिगम्) फूट डालनेवाले [वा मेघ के समान अन्धकार के फैलानेवाले] (वलम्) हिंसक वैरी को (रवेण) शब्द [धर्म घोषणा] (रुरोज) भङ्ग किया है। (हव्यसूदः) देने वा लेने योग्य पदार्थों की प्रतिज्ञा करनेवाले, (कनिक्रदत्) बल से पुकारते हुए (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के रक्षक मनुष्य] ने (वावशतीः) अत्यन्त कामना करती हुई (उस्रियाः) रहनेवाली प्रजाओं को (उत् आजत्) ऊँचा किया है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् सभापति राजा अज्ञान फैलानेवाले शत्रुओं का नाश करके विद्या और धन की वृद्धि से प्रजा का पालन करें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(सः सः) स एव (सुष्टुभा) स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४-क्विप्। शोभनस्तुतिमतां (ऋक्वता) ऋच स्तुतौ-क्विप्, मतुप्, मस्य वः। अयस्मयादीनि च्छन्दसि। पा० १।४।२०। पदत्वात् कुत्वं भत्वाज् जश्त्वाभावः। ऋग् वाङ्नाम-निघ० १।११। पूजनीयवाणीयुक्तेन (गणेन) समुदायेन (वलम्) हिंसकं शत्रुम् (रुरोज) बभञ्ज (फलिगम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। ञिफला विशरणे-इन्+गमेर्डः, अन्तर्गतण्यर्थः। फलिगो मेघनाम-निघ० १।१०। भेदस्य प्रापकम्। मेघमिवान्धकारम्य प्रसारकम् (रवेण) शब्देन। धर्मघोषणया (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षकः (उस्रियाः) अ० २०।१६।६। निवासशीलाः प्रजाः (हव्यसूदः) षूद क्षरणे, अङ्गीकारे, प्रतिज्ञायां मारणे च-अच्। हव्यानां दातव्यग्राह्यपदार्थानां प्रतिज्ञाकरः (कनिक्रदत्) अ० २।३०।। भृशमाह्वयन्तम् (वावशतीः) वश कान्तौ यङलुकि-शतृ, ङीप्। भृशं कामयमानाः (उत्) उपरिभागे (आजत्) अ० २०।१६।। अगमयत् ॥

०६ एवा पित्रे

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ए॒वा पि॒त्रे वि॒श्वदे॑वाय॒ वृष्णे॑ य॒ज्ञैर्वि॑धेम॒ नम॑सा ह॒विर्भिः॑।
बृह॑स्पते सुप्र॒जा वी॒रव॑न्तो व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥

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Griffith

Serve we with sacrifices, gifts, and homage even thus the Steer of all the Gods, the Father. Brihaspati, may we be lords of riches, with noble progeny and, store of heroes.

पदपाठः

ए॒व। पि॒त्रे। वि॒श्वऽदे॑वाय। वृष्णे॑। य॒ज्ञैः। वि॒धे॒म॒। नम॑सा। ह॒विःऽभिः॑। बृह॑स्पते। सु॒ऽप्र॒जाः। वी॒रऽव॑न्तः। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम्। ८८.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • वामदेवः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-८८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वदेवाय) सबों से स्तुति योग्य, (वृष्णे) बलवान् (पित्रे) पिता [के समान पालन करनेवाले पुरुष को] (एव) निश्चय करके (नमसा) अन्न के साथ (यज्ञः) मेल-मिलापों और (हविर्भिः) देने योग्य पदार्थों से (विधेम) हम सेवा करें। (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़ी विद्याओं के रक्षक पुरुष] (सुप्रजाः) श्रेष्ठ प्रजाओंवाले और (वीरवन्तः) वीर पुरुषोंवाले होकर (वयम्) हम (रयीणाम्) अनेक धनों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रजागण प्रजापालक नीतिज्ञ सभापति राजा का यथावत् आदर करके धनी और बलवान् होवें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(एव) निश्चयेन (पित्रे) पितृवत्पालकाय (विश्वदेवाय) सर्वस्तुत्याय (वृष्णे) बलवते (यज्ञैः) संगतिकरणैः (विधेम) परिचरेम (नमसा) अन्नेन सह (हविर्भिः) दातव्यपदार्थैः (बृहस्पते) बृहतां विद्यानां रक्षक (सुप्रजाः) श्रेष्ठप्रजावन्तः (वीरवन्तः) वीरपुरुषयुक्ताः (वयम्) (स्याम) (पतयः) स्वामिनः (रयीणाम्) अनेकधनानाम् ॥