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Griffith
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०१ ब्रह्मणा ते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ब्रह्म॑णा ते ब्रह्म॒युजा॑ युनज्मि॒ हरी॒ सखा॑या सध॒माद॑ आ॒शू।
स्थि॒रं रथं॑ सु॒खमि॑न्द्राधि॒तिष्ठ॑न्प्रजा॒नन्वि॒द्वाँ उप॑ याहि॒ सोम॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ब्रह्म॑णा ते ब्रह्म॒युजा॑ युनज्मि॒ हरी॒ सखा॑या सध॒माद॑ आ॒शू।
स्थि॒रं रथं॑ सु॒खमि॑न्द्राधि॒तिष्ठ॑न्प्रजा॒नन्वि॒द्वाँ उप॑ याहि॒ सोम॑म् ॥
०१ ब्रह्मणा ते ...{Loading}...
Griffith
Those who are yoked by prayer with prayer I harness, the two. fleet friendly Bays who joy together. Mounting thy firm and easy car, O Indra, wise and all-knowing come thou to the Soma.
पदपाठः
ब्रह्म॑णा। ते॒। ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑। यु॒न॒ज्मि॒। हरी॒ इति॑। सखा॑या। स॒ध॒ऽमादे॑। आ॒शू इति॑। स्थि॒रम्। रथ॑म्। सु॒ऽखम्। इ॒न्द्र॒। अ॒धि॒ऽतिष्ठ॑न्। प्र॒ऽजा॒नन्। वि॒द्वान्। उप॑। या॒हि॒। सोम॑म्। ८६.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वामित्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-८६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (ते) तेरे लिये (ब्रह्मणा) अन्न के साथ (ब्रह्मयुजा) धन के संग्रह करनेवाले, (आशू) शीघ्र चलनेवाले, (हरी) दोनों जल और अग्नि को (सखाया) दो मित्रों के तुल्य (सधमादे) चौरस स्थान में (युनज्मि) मैं संयुक्त करता हूँ, (स्थिरम्) दृढ़, (सुखम्) सुख देनेवाले [इन्द्रियों के लिये अच्छे हितकारी] (रथम्) रथ पर (अधितिष्ठन्) चढ़ता हुआ, (प्रजानन्) बड़ा चतुर (विद्वान्) विद्वान् तू (सोमम्) ऐश्वर्य को (उप याहि) प्राप्त हो ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जल अग्नि आदि पदार्थों के द्वारा रथों अर्थात् यान-विमानों को चलाकर देश-देशान्तरों में जाकर विद्या और धर्म से ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-३।३।४ और इसका अर्थ महर्षि दयानन्द के भाष्य के आधार पर किया गया है। निरुक्त ३।१३। में (सुख) शब्द का अर्थ [अच्छा हितकारी इन्द्रियों के लिये] है ॥ १−(ब्रह्मणा) अन्नेन (ते) तुभ्यम् (ब्रह्मयुजा) धनस्य संयोजकौ संग्रामकौ (युनज्मि) संयोजयामि (हरी) जलाग्नी (सखाया) सुहृदाविव (सधमादे) समानस्थाने (आशू) शीघ्रगामिनौ (स्थिरम्) दृढम् (रथम्) यानविमानसमूहम् (सुखम्) सुखं कस्मात् सुहितं खेभ्यः खं पुनः खनतेः-निरु० ३।१३। इन्द्रियेभ्यो हितं सुखप्रदम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (अधितिष्ठन्) आरोहन् (प्रजानन्) बहु बुध्यमानः (विद्वान्) (उप) (याहि) प्राप्नुहि (सोमम्) ऐश्वर्यम् ॥