०८४ ...{Loading}...
Griffith
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०१ इन्द्रा याहि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रा या॑हि चित्रभानो सु॒ता इ॒मे त्वा॒यवः॑।
अण्वी॑भि॒स्तना॑ पू॒तासः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रा या॑हि चित्रभानो सु॒ता इ॒मे त्वा॒यवः॑।
अण्वी॑भि॒स्तना॑ पू॒तासः॑ ॥
०१ इन्द्रा याहि ...{Loading}...
Griffith
O Indra marvellously bright, come, these libations long for thee, Thus by fine fingers purified.
पदपाठः
इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो। सु॒ताः। इ॒मे। त्वा॒ऽयवः॑। अण्वी॑भिः। तना॑। पू॒तासः॑। ८४.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-८४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (चित्रभानो) हे विचित्र प्रकाशवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति] (आ याहि) तू आ, (इमे) यह (त्वायवः) तुझको मिलनेवाले [वा तुझे चाहनेवाले], (अण्वीभिः) सूक्ष्म क्रियाओं से (पूतासः) शोधे हुए, (तना) विस्तृत धनवाले (सुताः) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य सभापति की आज्ञा में रहकर विज्ञानयुक्त क्रियाओं से उत्तम-उत्तम पदार्थ सिद्ध करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद-१।३।४-६। यजुर्वेद २०।८७-८९। सामवेद-उ० ४।२। तृच ॥ १−(इन्द्र) परमैश्वर्यवन् सभापते (आ याहि) आगच्छ (चित्रभानो) अद्भुतदीप्ते (सुताः) निष्पादिततत्त्वरसाः (इमे) दृश्यमानाः (त्वायवः) अ० २०।१८।४। त्वां प्राप्ताः। त्वां कामयमानाः (अण्वीभिः) अणुशब्दः सूक्ष्मवाचकः। वोतो गुणवचनात्। पा० ४।१।४४। अनेन ङीषि प्राप्ते छान्दसो ङीन्, नित्वादाद्युदात्तः। सूक्ष्माभिः क्रियाभिः (तना) धननाम-निघ० २।१०। विभक्तेराकारः। विस्तृतधनयुक्ताः (पूतासः) शोधिताः ॥
०२ इन्द्रा याहि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रा या॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जुतः सु॒ताव॑तः।
उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रा या॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जुतः सु॒ताव॑तः।
उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑ ॥
०२ इन्द्रा याहि ...{Loading}...
Griffith
Urged by the holy singer, sped by song, come, Indra, to the prayers. Of the libation-pouring priest.
पदपाठः
इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। धि॒या। इ॒षि॒तः। विप्र॑ऽजूतः। सु॒तऽव॑तः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। वा॒घतः॑। ८४.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-८४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति] (धिया) कर्म से (इषितः) बढ़ाया गया, और (विप्रजूतः) बुद्धिमानों से वेगवान् किया गया तू (सुतावतः) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस वाले (वाघतः) बुद्धिमान् पुरुषों को और (ब्रह्माणि) धनों को (उप=उपेत्य) प्राप्त होकर (आ याहि) आ ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य को चाहिये कि अपने उत्तम कर्म और विद्वानों की शिक्षा से विज्ञानी बुद्धिमानों के साथ धन की वृद्धि करे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(इन्द्र) (आ याहि) (धिया) कर्मणा-निघ० २।१। (इषितः) प्रेरितः (विप्रजूतः) जू इति सौत्रो धातुः गतौ-क्त। मेधाविभिः प्रेरिते वेगयुक्तः कृतः (सुतावतः) निष्पादिततत्त्वरसयुक्तान् (उप) उपेत्य (ब्रह्माणि) धनानि (वाघतः) आ० २०।१९।२। मेधाविनः पुरुषान्-निघ० ३।१ ॥
०३ इन्द्रा याहि
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इन्द्रा या॑हि॒ तूतु॑जान॒ उप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः।
सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रा या॑हि॒ तूतु॑जान॒ उप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः।
सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑ ॥
०३ इन्द्रा याहि ...{Loading}...
Griffith
Approach, O Indra, hasting thee, Lord of Bay Horses, to the prayers: Take pleasure in the juice we pour.
पदपाठः
इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। तूतु॑जानः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। ह॒रि॒ऽवः॒। सु॒ते। द॒धि॒ष्व॒। नः॒। चनः॑। ८४.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-८४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (हरिवः) हे उत्तम मनुष्योंवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (तूतुजानः) शीघ्रता करता हुआ तू (ब्रह्माणि) धनों को (उप) प्राप्त होकर (आ याहि) आ। और (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस में (नः) हमारे लिये (चनः) अन्न को (दधिष्व) धारण कर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य उत्तम विद्वानों के साथ रहकर धर्म से धन प्राप्त करते हैं, वे ही दूसरों को ज्ञानी और धनी बनाकर यश पाते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(इन्द्र) (आ याहि) (तूतुजानः) अ० २०।३।१२। त्वरमाणः (उप) उपेत्य (ब्रह्माणि) धनानि (हरिवः) हे प्रशस्तमनुष्ययुक्त (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (दधिष्व) अ० २०।६।। धत्स्व। धारय (नः) अस्मान् (चनः) चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। उ० ४।२००। चायृ पूजादौ-असुन् चकाराद् नुडागमो यलोपो ह्रस्वश्च। चन इत्यन्ननाम निरु० ६।१६। अन्नम्-निघ० ४।३ ॥