०८३ ...{Loading}...
Griffith
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०१ इन्द्र त्रिधातु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्र॑ त्रि॒धातु॑ शर॒णं त्रि॒वरू॑थं स्वस्ति॒मत्।
छ॒र्दिर्य॑च्छ म॒घव॑द्भ्यश्च॒ मह्यं॑ च या॒वया॑ दि॒द्युमे॑भ्यः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्र॑ त्रि॒धातु॑ शर॒णं त्रि॒वरू॑थं स्वस्ति॒मत्।
छ॒र्दिर्य॑च्छ म॒घव॑द्भ्यश्च॒ मह्यं॑ च या॒वया॑ दि॒द्युमे॑भ्यः ॥
०१ इन्द्र त्रिधातु ...{Loading}...
Griffith
O Indra, grant a happy home, a triple refuge, triply strong. Bestow a dwelling-place on the rich lords and me, and keep thy dart afar from these.
पदपाठः
इन्द्र॑। त्रि॒ऽधातु॑। श॒र॒णम्। त्रि॒ऽवरू॑थम्। स्व॒स्ति॒ऽमत्। छ॒र्दिः। य॒च्छ॒। म॒घव॑त्ऽभ्यः। च॒। मह्य॑म्। च॒। य॒वय॑। दि॒द्युम्। ए॒भ्यः॒। ८३.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शंयुः
- प्रगाथः
- सूक्त-८३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्रिधातु) तीन [सोना, चाँदी, लोहे] धातुओंवाला, (त्रिवरूथम्) तीन [शीत, ताप और वर्षा ऋतुओं] में उत्तम, (शरणम्) शरण [आश्रय] के योग्य और (स्वस्तिमत्) बहुत सुखवाला (छर्दिः) घर (मघवद्भ्यः) धनवालों को (च) और (मह्यम्) मुझको [अर्थात् एक-एक को] (यच्छ) दे, (च) और (एभ्यः) इन सबके लिये (दिद्युम्) प्रकाश को (यवय) संयुक्त कर ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा का कर्तव्य है कि मनुष्यों के निवासस्थान और सभास्थान आदि ऐसे उत्तम बनवावे कि जिनमें सबको मिलकर और प्रत्येक पुरुष को आवश्यक पदार्थ सुरक्षित रहने से सब ऋतुओं में सुख मिले और स्वास्थ्य बढ़ने से धन की वृद्धि होवे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-६।४६।९, १०। मन्त्र १ सामवेद-पू० ३।८।४ ॥ १−(इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (त्रिधातु) त्रिभिः सुवर्णरजतलोहधातुभिर्युक्तम् (शरणम्) आश्रययोग्यम् (त्रिवरूथम्) जॄवृञ्भ्यामूथन्। उ० २।६। वृञ् वरणे-ऊथन्। त्रिषु शीततापवर्षासु वरणीयमुत्तमम् (स्वस्तिमत्) बहुसुखयुक्तम् (छर्दिः) अर्चिशुचिहुसृपिछादिछर्दिभ्य इसिः। २।१०८। छर्द सन्दीपने वमने च-इसि। गृहम्-निघ० ३।४। (यच्छ) देहि (मघवद्भ्यः) धनयुक्तेभ्यः (च) (मह्यम्) राजभक्ताय (च) (यवय) संयोजय (दिद्युम्) अ० १।२।३। द्युत दीप्तौ-क्विप्, तलोपः। प्रकाशम् (एभ्यः) सर्वेभ्यः ॥
०२ ये गव्यता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ये ग॑व्य॒ता मन॑सा॒ शत्रु॑माद॒भुर॑भिप्र॒घ्नन्ति॑ धृष्णु॒या।
अध॑ स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनू॒पा अन्त॑मो भव ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये ग॑व्य॒ता मन॑सा॒ शत्रु॑माद॒भुर॑भिप्र॒घ्नन्ति॑ धृष्णु॒या।
अध॑ स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनू॒पा अन्त॑मो भव ॥
०२ ये गव्यता ...{Loading}...
Griffith
They who with minds intent on spoil subdue the foe, boldly attack and smite him down. From these, O Indra, Bounteous Lord who lovest song, be closest guardian of our lives.
पदपाठः
ये। ग॒व्य॒ता। मन॑सा। शत्रु॑म्। आ॒ऽद॒भुः। अ॒भि॒ऽप्र॒घ्नन्ति॑। धृ॒ष्णु॒ऽया। अघ॑। स्म॒। नः॒। म॒घ॒ऽव॒न्। इ॒न्द्र॒। गि॒र्व॒णः॒। त॒नू॒ऽपाः। अन्त॑मः। भ॒व॒। ८३.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शंयुः
- प्रगाथः
- सूक्त-८३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (धृष्णुया) निर्भय मनुष्य (गव्यता) भूमि चाहनेवाले (मनसा) मन से (शत्रुम्) वैरी को (अभिप्रघ्नन्ति) घेर लेते हैं और (आदभुः) मार डालते हैं, (मघवन्) हे महाधनी ! (गिर्वणः) हे स्तुतियों से सेवनीय (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (अध स्म) अवश्य ही (नः) हमारे (तनूपाः) शरीरों का रक्षक और (अन्तमः) अत्यन्त समीपवाला (भव) हो ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो शूर वीर पुरुष राज्य की वृद्धि चाहनेवाले शत्रुनाशक होवें, राजा उनके विश्वास से प्रजापालन करे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(ये) जनाः (गव्यता) गो-क्यच्, शतृ। गां भूमिमिच्छता (मनसा) चित्तेन (शत्रुम्) (आदभुः) लडर्थे लिट्। आदेभुः। समन्ताद् हिंसन्ति (अभिप्रघ्नन्ति) हन हिंसागत्योः। सर्वतः प्रगच्छन्ति। प्राप्नुवन्ति (धृष्णुया) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्याच्। धृष्णवः। प्रगल्भाः (अध) अवश्यम् (स्म) एव (नः) अस्माकम् (मघवन्) हे बहुधनयुक्त (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (गिर्वणः) हे स्तुतिभिः सेवनीय (तनूपाः) शरीराणां रक्षकः (अन्तमः) अन्तिकतमः। अतिसमीपस्थः (भव) ॥