०८१

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Griffith

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०१ यद्द्याव इन्द्र

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यद्द्याव॑ इन्द्र ते श॒तं श॒तं भूमी॑रु॒त स्युः।
न त्वा॑ वज्रिन्त्स॒हस्रं॒ सूर्या॒ अनु॒ न जा॒तम॑ष्ट॒ रोद॑सी ॥

०१ यद्द्याव इन्द्र ...{Loading}...

Griffith

O Indra, if a hundred heavens and if a hundred earths were: thine No, not a hundred suns could match thee at thy birth, not, both, the worlds, O Thunderer.

पदपाठः

यत्। द्यावः॑। इ॒न्द्र॒। ते॒। श॒तम्। भूमीः॑। उ॒त। स्युरिति॒। स्युः। न। त्वा॒। व॒ज्रि॒न्। स॒हस्र॑म्। सूर्याः॑। अनु॑। न। जा॒तम्। अ॒ष्ट॒। रोद॑सी॒ इति॑। ८१.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • पुरुहन्मा
  • प्रगाथः
  • सूक्त-८१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (यत्) जो (शतम्) सौ (द्यावः) अन्तरिक्ष [वायुलोक], (उत) और (शतम्) सौ (भूमीः) भूमिलोक (न) तेरे [सामने] (स्युः) होवें, [न तो वे सब] और (न) न (सहस्रम्) सहस्र (सूर्या) सूर्यलोक और (रोदसी) दोनों अन्तरिक्ष और भूमिलोक [मिल कर] और (न) न (जातम्) उत्पन्न हुआ जगत्, (वज्रिन्) हे दण्डधारी ! [परमात्मन्] (त्वा) तुझको (अनु) निरन्तर (अष्ट) पा सके हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब असंख्य लोक और पदार्थ अलग-अलग होकर अथवा सब मिलकर परमात्मा की महिमा का पार नहीं पा सकते ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह दोनों मन्त्र ऋग्वेद में हैं-८।७० [सायणभाष्य ९]।, ६। सामवेद-उ० २।२।११, और आगे हैं-अथ० २०।९२।२०, २१। मन्त्र १ सा०-पू० २।९।६ ॥ कठोपनिषद् का वचन है-वल्ली श्लोक १ [न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति] उस पर न सूर्य चमकता है, न चन्द्रमा और तारे, न ये बिजुलियाँ चमकती हैं, [फिर] यह अग्नि कहाँ, उस ही चमकते हुए के पीछे सब चमकता है, उसकी चमक से यह सब विविध प्रकार चमकता है ॥ १−(यत्) यदि (द्यावः) अन्तरिक्षलोकाः। वायुलोकाः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (ते) तवाग्रे (शतम्) बहुसंख्याकाः (शतम्) (भूमीः) भूमयः (उत) अपि च (स्युः) भवेयुः (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (वज्रिन्) दण्डधारिन्”। शासनकर्तः परमात्मन् (सहस्रम्) अगणिताः (सूर्याः) सूर्यलोकाः (अनु) निरन्तरम् (न) निषेधे (जातम्) उत्पन्नं जगत् (अष्ट) अशू व्याप्तौ-लुङ्, अडभावः, बहुवचनस्यैकवचनम्। आष्ट। आक्षत। व्याप्तवन्तः (रोदसी) अन्तरिक्षभूमी ॥

०२ आ पप्राथ

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ प॑प्राथ महि॒ना वृष्ण्या॑ वृष॒न्विश्वा॑ शविष्ठ॒ शव॑सा।
अ॒स्माँ अव॑ मघव॒न्गोम॑ति व्र॒जे वज्रिं॑ चि॒त्राभि॑रू॒तिभिः॑ ॥

०२ आ पप्राथ ...{Loading}...

Griffith

Thou, Hero, hast performed thy hero needs with might, yea, all+ with strength, O Strongest One. Maghavan, help us to a stable full of kine, O Thunderer, with) wondrous aids.

पदपाठः

आ। प॒प्रा॒थ॒। म॒हि॒ना। वृष्ण्या॑। वृ॒ष॒न्। विश्वा॑। श॒वि॒ष्ठ॒। शव॑सा। अ॒स्मान्। अ॒व॒। म॒घ॒ऽव॒न्। गोऽम॑ति। व्र॒जे। वज्रि॑न्। चि॒त्राभिः॑। ऊ॒त्ऽभिः॑। ८१.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • पुरुहन्मा
  • प्रगाथः
  • सूक्त-८१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषन्) हे शूर ! (शविष्ठ) हे अत्यन्त बली ! [परमात्मन्] (महिना) अपने बड़े (शवसा) बल से (विश्वा) सब (वृष्ण्या) शूर के योग्य बलों को (आ) सब ओर से (पप्राथ) तूने भर दिया है। (मघवन्) हे महाधनी ! (वज्रिन्) हे दण्डधारी ! [शासक परमेश्वर] (गोमति) उत्तम विद्यावाले (वज्रे) मार्ग में (चित्राभिः) विचित्र (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्मान्) हमें (अव) बचा ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा से प्रार्थना करके संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर यथावत् पालन करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(आ) समन्तात् (पप्राथ) प्रा-लिट्। पूरितवानसि (महिना) महता (वृष्ण्या) अ० ४।४।४। वृष्णे बलवते हितानि बलानि (वृषन्) हे शूर (विश्वा) सर्वाणि (शविष्ठ) बलिष्ठ (शवसा) बलेन (अस्मान्) (अव) रक्ष (मघवन्) धनवन् (गोमति) प्रशस्तविद्यायुक्ते (व्रजे) मार्गे (वज्रिन्) दण्डधारिन् शासक (चित्राभिः) अद्भुताभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः ॥