०८०

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Griffith

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०१ इन्द्र ज्येष्ठम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्र॒ ज्येष्ठं॑ न॒ आ भ॑रँ॒ ओजि॑ष्ठं॒ पपु॑रि॒ श्रवः॑।
येने॒मे चि॑त्र वज्रहस्त॒ रोद॑सी॒ ओभे सु॑शिप्र॒ प्राः ॥

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Griffith

Bring us, O Indra, name and fame, enriching, mightiest, excellent, Wherewith, O wondrous God, fair-cheeked and thunder-armed, thou hast filled full this earth and heaven.

पदपाठः

इन्द्र॑। ज्येष्ठ॑म्। नः॒। आ। भ॒र॒। ओजि॑ष्ठम्। पपु॑रि। श्रवः॑। येन॑। इ॒मे इति॑। चि॒त्र॒। व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒। रोद॑सी॒ इति॑। आ। उ॒भे इति॑। सु॒ऽशि॒प्र॒। प्राः। ८०.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शंयुः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-८०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नः) हमारे लिये (ज्येष्ठम्) अतिश्रेष्ठ, (ओजिष्ठम्) अत्यन्त बल देनेवाला, (पपुरि) पालन करनेवाला (श्रवः) यश (आ) सब ओर से (भर) धारण कर (येन) जिस [यश] से, (चित्र) हे अद्भुत स्वभाववाले, (वज्रहस्त) हे वज्र हाथ में रखनेवाले ! (सुशिप्र) हे दृढ़ जबड़ों वाले ! (इमे) इन (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और भूमि को (आ प्राः) तूने भर दिया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - दृढ़ स्वभाव और दृढ़ शरीरवाला राजा आकाश और भूमि पर चलने के लिये उपाय करके यशस्वी होवे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १, २ ऋग्वेद में हैं-६।४६।, ६ मन्त्र १ सामवेद-पू० ६।१०।१ • १−(इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्तम् (नः) अस्मभ्यम् (आ) समन्तात् (भर) धर (ओजिष्ठम्) अतिशयेन बलप्रदम् (पपुरि) आदृगमहन०। पा० ३।२।१७१। पॄ पालनपूरणयोः-क्विन्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। इत्युत्वम्। पालकम्। पोषकम् (श्रवः) यशः (येन) यशसा (इमे) दृश्यमाने (चित्र) अद्भुतस्वभाव (वज्रहस्त) शस्त्रास्त्रपाणे (रोदसी) अन्तरिक्षभूमी (आ) (उभे) (सुशिप्र) दृढहनो (प्राः) पूरितवानसि ॥

०२ त्वामुग्रमवसे चर्षणीसहम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्वामु॒ग्रमव॑से चर्षणी॒सहं॒ राज॑न्दे॒वेषु॑ हूमहे।
विश्वा॒ सु नो॑ विथु॒रा पि॑ब्द॒ना व॑सो॒ऽमित्रा॑न्सु॒षहा॑न्कृधि ॥

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Griffith

We call on thee, O King, mighty among the Gods, ruler of men, to succour us, All that is weak in us, excellent God, make firm: make our foes easy to subdue.

पदपाठः

त्वाम्। उ॒ग्रम्। अव॑से। च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म्। राज॑न्। दे॒वेषु॑। हू॒म॒हे॒। विश्वा॑। सु। नः॒। वि॒थु॒रा। पि॒ब्द॒ना। व॒सो॒ इति॑। अ॒मित्रा॑न्। सु॒ऽसहा॑न्। कृ॒धि॒। ८०.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शंयुः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-८०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (राजन्) हे राजन् ! (देवेषु) विद्वानों में (अवसे) रक्षा के लिये (उग्रम्) तेजस्वी, (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को वश में रखनेवाले (त्वाम्) तुझको (हूमहे) हम पुकारते हैं। (वसो) हे बसानेवाले ! (नः) हमारे (विश्वा) सब (विथुरा) क्लेशों को (पिब्दना) खण्डनयोग्य और (अमित्रान्) वैरियों को (सुसहान्) सहज में हारने योग्य (सु) सर्वथा (कृधि) कर ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा सदा ऐसा उपाय करे कि जिससे प्रजा के सब बाहिरी और भीतरी क्लेश दूर होवें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(त्वाम्) (उग्रम्) तेजस्विनम् (अवसे) रक्षणाय (चर्षणीसहम्) मनुष्याणां सोढारम्। अभिभवितारं वशीकर्तारम् (राजन्) ऐश्वर्यवन् (देवेषु) विद्वत्सु (हूमहे) आह्वयामः (विश्वा) सर्वाणि (सु) सर्वथा (नः) अस्माकम् (विथुरा) अ० ७।९।१। व्यथ ताडने-उरच्, कित्। व्यथनानि। क्लेशान् (पिब्दना) कॄपॄवृजिमन्दिनिधाञः क्युः। उ० २।८१। अपि+दाप् लवने दो अवखण्डने वा क्यु। आतो लोप इटि च। पा० ६।४।६४। आकारलोपः, बकारोपजनः। अपिदनानि। अवखण्डनीयानि (वसो) हे वासयितः (अमित्रान्) शत्रून् (सुसहान्) सुखेन अभिभवनीयान् (कृधि) कुरु ॥