०७७ ...{Loading}...
Griffith
???
०१ आ सत्यो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ स॒त्यो या॑तु म॒घवाँ॑ ऋजी॒षी द्रव॑न्त्वस्य॒ हर॑य॒ उप॑ नः।
तस्मा॒ इदन्धः॑ सुषुमा सु॒दक्ष॑मि॒हाभि॑पि॒त्वं क॑रते गृणा॒नः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ स॒त्यो या॑तु म॒घवाँ॑ ऋजी॒षी द्रव॑न्त्वस्य॒ हर॑य॒ उप॑ नः।
तस्मा॒ इदन्धः॑ सुषुमा सु॒दक्ष॑मि॒हाभि॑पि॒त्वं क॑रते गृणा॒नः ॥
०१ आ सत्यो ...{Loading}...
Griffith
Impetuous, true, let Maghavan come hither, and let his tawny coursers speed to reach us. For him have we pressed juice exceeding potent: here, praised with song, let him effect his visit.
पदपाठः
आ। स॒त्यः। या॒तु। म॒घऽवा॑न्। ऋ॒जी॒षी। द्रव॑न्तु। अ॒स्य॒। हर॑यः। उप॑। नः॒। तस्मै॑। इत्। अन्धः॑। सु॒सु॒म॒। सु॒ऽदक्ष॑म्। इ॒ह। अ॒भि॒ऽपि॒त्वम्। क॒र॒ते॒। गृ॒णा॒नः। ७७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सत्यः) सच्चा [सत्यवादी, सत्यकर्मी], (मघवान्) महाधनी, (ऋजीषी) सरल स्वभाववाला [राजा] (आ यातु) आवे, और (अस्य) इस [राजा] के (हरयः) मनुष्य (नः) हमारे (उपद्रवन्तु) पास आवें। (तस्मै) उसके लिये (इत्) ही (सुदक्षम्) सुन्दर बलवाला (अन्धः) अन्न (सुषुम) हमने सिद्ध किया है, (गृणानः) उपदेश करता हुआ वह (इह) यहाँ (अभिपित्वम्) मेल-मिलाप (करते) करे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा और राजा के पुरुष धर्मात्मा होकर प्रेम से प्रजा का पालन करें, और प्रजागण भी ऐश्वर्य बढ़ाकर उससे प्रीति करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-४।१६।१-८ ॥ १−(आ यातु) आगच्छतु (सत्यः) सत्यवादी। सत्यकर्मी (मघवान्) धनवान् (ऋजीषी) अर्जेर्ऋज च। उ० ४।२८। अर्ज संचये-ईषन्, कित्, ऋजादेशः, यद्वा, ऋज गतिस्थानार्जनोपार्जनेषु ईषन्, कित्, ऋजीष-इनि। ऋजुस्वभावः। सरलस्वभावः (द्रवन्तु) गच्छन्तु (अस्य) राज्ञः (हरयः) मनुष्याः (उप) (नः) अस्मान् (तस्मै) राज्ञे (इत्) एव (अन्धः) अन्नम् (सुषुम) अ० २०।३।१। वयं निष्पादितवन्तः (सुदक्षम्) शोभनबलयुक्तम् (इह) (अभिपित्वम्) अ० २०।२।६। संगमम् (करते) कुर्यात् (गृणानः) उपदिशन् ॥
०२ अव स्य
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अव॑ स्य शू॒राध्व॑नो॒ नान्ते॒ऽस्मिन्नो॑ अ॒द्य सव॑ने म॒न्दध्यै॑।
शंसा॑त्यु॒क्थमु॒शने॑व वे॒धाश्चि॑कि॒तुषे॑ असु॒र्या᳡य॒ मन्म॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अव॑ स्य शू॒राध्व॑नो॒ नान्ते॒ऽस्मिन्नो॑ अ॒द्य सव॑ने म॒न्दध्यै॑।
शंसा॑त्यु॒क्थमु॒शने॑व वे॒धाश्चि॑कि॒तुषे॑ असु॒र्या᳡य॒ मन्म॑ ॥
०२ अव स्य ...{Loading}...
Griffith
Unyoke, as at thy journey’s end, O Hero, to gladden thee to-day at this libation. Like Usana, the priest a laud shall utter, a hymn to thee, the Lord Divine, who markest.
पदपाठः
अव॑। स्य॒। शू॒र॒। अध्व॑नः। न। अन्ते॑। अ॒स्मिन्। नः॒। अ॒द्य। सव॑ने। म॒न्दध्यै॑। शंसा॑ति। उ॒क्थम्। उ॒शना॑ऽइव। वे॒धाः। चि॒कि॒तुषे॑। अ॒सु॒र्या॑य। मन्म॑। ७७.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे शूर ! (अद्य) अब (अस्मिन्) इस (अन्ते) पासवाले (सवने) ऐश्वर्य में (मन्दध्यै) आनन्द करने के लिये (नः) हमारे (अध्वनः) मार्गों को (न) मत (अव स्य) विनष्ट कर। (उशना इव) चाहने योग्य पुरुष के समान (वेधाः) बुद्धिमान् पुरुष (चिकितुषे) ज्ञानवान् (असुर्याय) प्राणियों के हितकारी के लिये (उक्थम्) कहने योग्य कर्म और (मन्म) मननयोग्य ज्ञान को (शंसाति) कहे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा ऐसा उपाय करे कि सब लोग बे-रोक स्वतन्त्र होकर संसार के पदार्थों से उन्नति करें और विद्वान् लोग मिलकर प्राणियों के हित के लिये विचार करते रहें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अव स्य) षो अन्तकर्मणि-लोट्। विनाशय (शूर) हे निर्भय राजन् (अध्वनः) मार्गान् (न) निषेधे (अन्ते) समीपस्थे (अस्मिन्) (नः) अस्माकम् (अद्य) इदानीम् (सवने) ऐश्वर्ये (मन्दध्यै) तुमर्थे सेसेनसे-असेन्०। पा० ३।४।९। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-अध्यैप्रत्ययः मन्दितुमानन्दितुम् (शंसाति) कथयेत् (उक्थम्) वक्तव्यं प्रशंसनीयं कर्म (उशनाः) अ० २०।२।। कमनीयः पुरुषः (इव) यथा (वेधाः) मेधावी (चिकितुषे) अ० ४।३०।२। कित ज्ञाने-क्वसु। ज्ञानिने (असुर्याय) अ० २०।८।४। प्राणिभ्यो हितकराय (मन्म) मननीयं ज्ञानम् ॥
०३ कविर्न निण्यम्
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क॒विर्न नि॒ण्यं वि॒दथा॑नि॒ साध॒न्वृषा॒ यत्सेकं॑ विपिपा॒नो अर्चा॑त्।
दि॒व इ॒त्था जी॑जनत्स॒प्त का॒रूनह्ना॑ चिच्चक्रुर्व॒युना॑ गृ॒णन्तः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
क॒विर्न नि॒ण्यं वि॒दथा॑नि॒ साध॒न्वृषा॒ यत्सेकं॑ विपिपा॒नो अर्चा॑त्।
दि॒व इ॒त्था जी॑जनत्स॒प्त का॒रूनह्ना॑ चिच्चक्रुर्व॒युना॑ गृ॒णन्तः॑ ॥
०३ कविर्न निण्यम् ...{Loading}...
Griffith
When the Bull quaffing praises our libation, as a sage paying holy rites in secret, Seven singers here from heaven hath he begotten, who e’en by day have wrought their works while singing.
पदपाठः
क॒विः। न। नि॒ण्यम्। वि॒दथा॑नि। साध॑न्। वृषा॑। यत्। सेक॑म्। वि॒ऽपि॒पा॒नः। अर्चा॑त्। दि॒वः। इ॒त्था। जी॒ज॒न॒त्। स॒प्त। का॒रून्। अह्ना॑। चि॒त्। च॒क्रु॒। वयुना॑। गृ॒णन्तः॑। ७७.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कविः न) जैसे बुद्धिमान् पुरुष (विदथानि) जानने योग्य कर्मों को (साधन्) सिद्ध करता हुआ (निण्यम्) गूढ़ अर्थ को, [वैसे ही] (यत्) जो (वृषा) सुखों का बरसानेवाला बलवान् [राजा] (सेकम्) सिञ्चन [वृद्धि के प्रयत्न] को (विपिपानः) विशेष करके रक्षा करता हुआ (अर्चात्) सत्कार करे, वह (इत्था) इस प्रकार से (सप्त) सात (चारून्) काम करनेवालों [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि, अथवा दो कान, दो नथने, दो आँख और एक मुख, इन सात] को (दिवः) व्यवहारकुशल (जीजनत्) उत्पन्न करे, (चित्) जैसे (गृणन्तः) उपदेश करते हुए पुरुषों ने (अह्ना) दिन के साथ (वयुनानि) जानने योग्य कर्मों को (चक्रुः) किया है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो राजा बुद्धिमानों के समान गूढ़ विचारवाला और वृद्धि करनेवाला होता है, वह सबके शरीर और बुद्धि को व्यवहारकुशल करके पहिले महात्माओं के सदृश अद्भुत कर्मों को दिन के प्रकाश के समान प्रकट करता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र में (कारु) पद ऋषि आदि वाचक है। यजुर्वेद ३०।। का वचन है (सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) शरीर में सात ऋषि रक्खे हुए हैं। [सप्त ऋषयः षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी] सात ऋषि छह इन्द्रियाँ और सातवीं विद्या [बुद्धि] है-निरु० १२।३७। (यः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि। कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्) कर्ता ने [मनुष्य के] मस्तक में सात गोलक खोदे, यह दो कान, दोनों नथने, दोनों आँखें और एक मुख-अथ० १०।२।६ ॥ ३−(कविः) मेधावी (न) यथा (निण्यम्) अ० ९।१०।१। निर्+णीञ् प्रापणे-यक्, टिलोपो रेफलोपश्च। अन्तर्हितं गूढमर्थम् (विदथानि) ज्ञातव्यानि कर्माणि (साधन्) साधयन् (वृषा) सुखानां वर्षकः। बलिष्ठः (यत्) यः (सेकम्) सिञ्चनम्। वृद्धिप्रयत्नम् (विपिपानः) पा रक्षणे कानच्। विशेषे रक्षन् (अर्चात्) सत्कुर्यात् (दिवः) दिवु व्यवहारे-क्विप्। व्यवहारकुशलान् (इत्था) अनेन प्रकारेण (जीजनत्) लडर्थे लुङ्। अजीजनत्। जनयेत् (सप्त) सप्तसंख्यकान् (कारून्) कृवापा०। उ० १।१। करोतेः-उण्। कार्यकर्तॄन् सप्त ऋषीन्। अ० ४।११।९। सप्त होतॄन्। अ० ४।२४।३। (अह्ना) दिवसेन (चित्) यथा (चक्रुः) कृतवन्तः (वयुनानि) अ० २।२८।२। ज्ञातव्यानि कर्माणि (गृणन्तः) उपदिशन्तः ॥
०४ स्वर्यद्वेदि सुदृशीकमर्कैर्महि
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स्व१॒॑र्यद्वेदि॑ सु॒दृशी॑कम॒र्कैर्महि॒ ज्योती॑ रुरुचु॒र्यद्ध॒ वस्तोः॑।
अ॒न्धा तमां॑सि॒ दुधि॑ता वि॒चक्षे॒ नृभ्य॑श्चकार॒ नृत॑मो अ॒भिष्टौ॑ ॥
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मूलम् (VS)
स्व१॒॑र्यद्वेदि॑ सु॒दृशी॑कम॒र्कैर्महि॒ ज्योती॑ रुरुचु॒र्यद्ध॒ वस्तोः॑।
अ॒न्धा तमां॑सि॒ दुधि॑ता वि॒चक्षे॒ नृभ्य॑श्चकार॒ नृत॑मो अ॒भिष्टौ॑ ॥
०४ स्वर्यद्वेदि सुदृशीकमर्कैर्महि ...{Loading}...
Griffith
When heaven’s fair light by hymns was made apparent. (they made great splendour shine at break of morning), He with his succour, best of heroes, scattered the blinding dark- ness so that men saw clearly.
पदपाठः
स्वः॑। यत्। वेदि॑। सु॒ऽदृशी॑कम्। अ॒र्कैः। महि॑। ज्योतिः॑। रु॒रु॒चुः॒। यत्। ह॒। वस्तोः॑। अ॒न्धा। तमां॑सि। दुधि॑ता। वि॒ऽचक्षे॑। नृऽभ्यः॑। च॒का॒र॒। नृऽत॑मः। अ॒भिष्टौ॑। ७७.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (अर्कैः) पूजनीय विचारों से (सुदृशीकम्) उत्तम प्रकार से देखने योग्य, (महि) बड़ा (ज्योतिः) प्रकाशमय (स्वः) सुख (वेदि) जाना गया है, और (यत्) जिस [सुख] से (ह) निश्चय करके (वस्तोः) दिन [के समान] (रुरुचुः) वे [विद्वान् जन] प्रकाशित हुए हैं। [उस सुख के लिये] (नृतमः) सबसे बड़े नेता पुरुष ने (अभिष्टौ) सब प्रकार मिलाप में (नृभ्यः) नेता लोगों के निमित्त (विचक्षे) विशेष करके देखने के अर्थ (अन्धा) भारी (तमांसि) अन्धकारों को (दुधिता) नष्ट (चकार) किया है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस सुख को महात्मा लोगों ने बड़े विचारों से अनुभव करके हृदय का आवरण हटाया है, उस सुख को सुनीतिज्ञ राजा सूर्य के प्रकाश के समान विद्वानों में बढ़ाकर प्रजापालन करे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(स्वः) सुखम् (यत्) (वेदि) अवेदि। ज्ञानम् (सुदृशीकम्) मृडः कीकच्कङ्कणौ। उ०।२४। दृशेः-कीकच्। सुष्ठु दर्शनीयम् (अर्कैः) पूजनीयविचारैः (महि) महत् (ज्योतिः) प्रकाशमयं (रुरुचुः) दीप्तियुक्ता बभूवुः ते विद्वांसः (यत्) येन सुखेन (ह) निश्चयेन (वस्तोः) दिनम्। दिनप्रकाशो यथा (अन्धा) अन्धानि। निबिडानि (तमांसि) अन्धकारान् (दुधिता) दुहिर् अर्दने-क्त, हस्य ध। दुहितानि। नाशितानि (विचक्षे) चक्षिण् व्यक्तायां वाचि दर्शने च-क्विप्। विशेषेण दर्शनाय (नृभ्यः) नेतृभ्यः (चकार) कृतवान् (नृतमः) अतिशयेन नेता (अभिष्टौ) यजेः क्तिन्। सर्वतः संगतौ ॥
०५ ववक्ष इन्द्रो
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व॑व॒क्ष इन्द्रो॒ अमि॑तमृजि॒ष्यु१॒॑भे आ प॑प्रौ॒ रोद॑सी महि॒त्वा।
अत॑श्चिदस्य महि॒मा वि रे॑च्य॒भि यो विश्वा॒ भुव॑ना ब॒भूव॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
व॑व॒क्ष इन्द्रो॒ अमि॑तमृजि॒ष्यु१॒॑भे आ प॑प्रौ॒ रोद॑सी महि॒त्वा।
अत॑श्चिदस्य महि॒मा वि रे॑च्य॒भि यो विश्वा॒ भुव॑ना ब॒भूव॑ ॥
०५ ववक्ष इन्द्रो ...{Loading}...
Griffith
Indra, impetuous One, hath waxed immensely: he with his vastness hath filled earth and heaven. E’en beyond this his majesty extendeth who hath exceeded all the worlds in greatness,
पदपाठः
व॒व॒क्षे। इन्द्रः॑। अमि॑तम्। ऋ॒जी॒षी। उ॒भे इति॑। आ। प॒प्रौ॒। रोद॑सी॒ इति॑। म॒हि॒ऽत्वा। अतः॑। चि॒त्। अ॒स्य॒। म॒हि॒मा। वि। रे॒चिः॒। अ॒भि। यः। विश्वा॑। भुव॑ना। बभूव॑। ७७.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ऋजीषी) सरल स्वभाववाले (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] ने (अमितम्) बे-नाप सामर्थ्य को (ववक्षे) पाया है, और (महित्वा) अपनी महिमा से (उभे) दोनों (रोदसी) सूर्य और भूमि को (आ) सब प्रकार (पप्रौ) भर दिया है। (अतः) इस कारण से (चित्) ही (अस्य) इस [जगदीश्वर] की (महिमा) महिमा (वि) विशेष करके (रेचि) अधिक हुई है, (यः) जो (विश्वा) सब (भुवना) लोकों में (अभि बभूव) व्यापक हुआ है ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा अपने अतोल बल से अनन्त संसार को धारण कर रहा है, उसी के गुण जानकर मनुष्य अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(ववक्षे) वहतेर्लिडर्थे लेट्। सिब्बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७६। इति शपः श्लुः। ढत्वकत्वषत्वानि। लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। वहते गतिकर्मा-निघ० २।१४। उवाह। प्राप (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तो जगदीश्वरः (अमितम्) अपरिमितसामर्थ्यम् (ऋजीषी) म० १। सरलस्वभावः (उभे) द्वे (आ) समन्तात् (पप्रौ) पूरितवान् (रोदसी) सूर्यभूमी (महित्वा) महत्वेन (अतः) अस्मात् कारणात् (चित्) एव (महिमा) (अस्य) ईश्वरस्य (वि) विशेषेण (रेचि) अरेचि। अधिकोऽभवत् (अभि) अभीत्य। व्याप्य (यः) ईश्वरः (विश्वा) सर्वाणि (भुवना) भुवनानि (बभूव) ॥
०६ विश्वानि शक्रो
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विश्वा॑नि श॒क्रो नर्या॑णि वि॒द्वान॒पो रि॑रेच॒ सखि॑भि॒र्निका॑मैः।
अश्मा॑नं चि॒द्ये बि॑भि॒दुर्वचो॑भिर्व्र॒जं गोम॑न्तमु॒शिजो॒ वि व॑व्रुः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
विश्वा॑नि श॒क्रो नर्या॑णि वि॒द्वान॒पो रि॑रेच॒ सखि॑भि॒र्निका॑मैः।
अश्मा॑नं चि॒द्ये बि॑भि॒दुर्वचो॑भिर्व्र॒जं गोम॑न्तमु॒शिजो॒ वि व॑व्रुः ॥
०६ विश्वानि शक्रो ...{Loading}...
Griffith
Sakra who knoweth well all human actions hath with his eager friends let loose the waters. They with their songs cleft e’en the mountain open, and willingly disclosed the stall of cattle.
पदपाठः
विश्वा॑नि। श॒क्र। नर्या॑णि। वि॒द्वान्। अ॒पः। रि॒रे॒च॒। सखि॑ऽभिः। निऽका॑मैः। अश्मा॑नम्। चि॒त्। ये। बि॒भि॒दुः। वच॑ऽभि। व्र॒जम्। गोऽम॑न्तम्। उ॒शिजः॑। वि। व॒व्रु॒रिति॑। वव्रुः। ७७.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (विद्वान्) विद्वान् (शक्रः) शक्तिवाले [इन्द्र मनुष्य] ने (निकामैः) निश्चित कामनावाले (सखिभिः) मित्रों के साथ (विश्वानि) सब (नर्याणि) नेताओं के हितकारी (अपः) कर्मों को (रिरेच) फैलाया है। (ये) जिन [बुद्धिमानों] ने (वचोभिः) अपने वचनों से (अश्मानम्) व्यापक विघ्न [अथवा मेघ के समान अन्धकार फैलानेवाले शत्रु] को (चित्) निश्चय करके (बिभिदुः) तोड़ा-फोड़ा है, (उशिजः) उन बुद्धिमानों ने (गोमन्तम्) वेदवाणीवाले (व्रजम्) मार्ग को (विवव्रुः) खोल दिया है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा को योग्य है कि सत्यवादी पराक्रमी मित्रों के साथ अज्ञान का नाश करके विद्या की वृद्धि से प्रजापालन करे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(विश्वानि) सर्वाणि (शक्रः) शक्तिमान् राजा (नर्याणि) नेतृभ्यो हितानि (विद्वान्) (अपः) बहुवचनस्यैकवचनम्। अपांसि कर्माणि (रिरेच) रिचिर् विरेचने। व्यक्तीकृतवान् (सखिभिः) मित्रैः (निकामैः) निश्चितकामनायुक्तैः (अश्मानम्) व्यापकं विघ्नम्। मेघमिवान्धकारकरं शत्रुम् (चित्) निश्चयेन (ये) मेधाविनः (बिभिदुः) छिन्नभिन्नं कृतवन्तः (वचोभिः) वचनैः (व्रजम्) मार्गम् (गोमन्तम्) वेदवाणीयुक्तम् (उशिजः) शुभगुणान् कामयमाना मेधाविनः (वि वव्रुः) विवृतं व्यक्तं कृतवन्तः ॥
०७ अपो वृत्रम्
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अ॒पो वृ॒त्रं व॑व्रि॒वांसं॒ परा॑ह॒न्प्राव॑त्ते॒ वज्रं॑ पृथि॒वी सचे॑ताः।
प्रार्णां॑सि समु॒द्रिया॑ण्यैनोः॒ पति॒र्भव॒ञ्छव॑सा शूर धृष्णो ॥
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मूलम् (VS)
अ॒पो वृ॒त्रं व॑व्रि॒वांसं॒ परा॑ह॒न्प्राव॑त्ते॒ वज्रं॑ पृथि॒वी सचे॑ताः।
प्रार्णां॑सि समु॒द्रिया॑ण्यैनोः॒ पति॒र्भव॒ञ्छव॑सा शूर धृष्णो ॥
०७ अपो वृत्रम् ...{Loading}...
Griffith
He smote away the flood’s obstructer Vritra: Earth conscious lent her aid to speed thy thunder. Thou sentest forth the waters of the ocean as Lord through power and might, O daring Hero.
पदपाठः
अ॒पः। वृ॒त्रम्। प॒वि॒ऽवांस॑म्। परा॑। अ॒ह॒न्। प्र। आ॒व॒त्। ते॒। वज्र॑म्। पृ॒थि॒वी। सऽचे॑ताः। प्र। अर्णा॑सि। स॒मु॒द्रिया॑णि। ऐ॒नोः॒। पतिः॑। भव॑न्। शव॑सा। शू॒र॒। धृ॒ष्णो॒ इति॑। ७७.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (धृष्णो) हे साहसी (शूर) शूर पुरुष ! (शवसा) बल के साथ (पतिः) स्वामी (भवन्) होते हुए तूने (अपः) कर्म के (वव्रिवांसम्) रोकनेवाले (वृत्रम्) अन्धकार को (परा अहन्) मार फेंका है, (सचेताः) सेचत (पृथिवी) भूमि ने (ते) तेरे (वज्रम्) वज्र [शासन] को (प्र) अच्छे प्रकार (आवत्) माना है, और तूने (समुद्रियाणि) समुद्र के योग्य (अर्णांसि) बहते हुए जलों को (प्र) आगे को (ऐनोः) चलाया है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पुरुषार्थी राजा कर्मप्रधान होकर प्रजा को शासन में रक्खे और खेती आदि सींचने के लिये नदी-नालों को पहाड़ों से समुद्र तक पहुँचावे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(अपः) कर्म-निघ० २।१। (वृत्रम्) अन्धकारम् (वव्रिवांसम्) वृणोतेः-क्वसु। आवरकम् (परा) दूरे (अहन्) मध्यमपुरुषस्य प्रथमः। अहः। नाशितवानसि (प्र) प्रकर्षेण (आवत्) अव रक्षणदानादिषु-लङ्। गृहीतवती (ते) तव (वज्रम्) दण्डम्। शासनम् (पृथिवी) (सचेतः) चेतनावती (प्र) प्रकर्षेण (अर्णांसि) गतिमन्ति जलानि (समुद्रियाणि) समुद्रार्हाणि (ऐनोः) इण् गतौ, अन्तर्गतण्यर्थः-लङ्, आडागमो वृद्धिश्च, छान्दसः श्नुः। अगमयः। प्रेरितवानसि (पतिः) स्वामी (भवन्) सन् (शवसा) बलेन (शूर) वीर (धृष्णो) दृढात्मन् ॥
०८ अपो यदद्रिम्
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अ॒पो यदद्रिं॑ पुरुहूत॒ दर्द॑रा॒विर्भु॑वत्स॒रमा॑ पू॒र्व्यं ते॑।
स नो॑ ने॒ता वाज॒मा द॑र्षि॒ भूरिं॑ गो॒त्रा रु॒जन्नङ्गि॑रोभिर्गृणा॒नः ॥
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मूलम् (VS)
अ॒पो यदद्रिं॑ पुरुहूत॒ दर्द॑रा॒विर्भु॑वत्स॒रमा॑ पू॒र्व्यं ते॑।
स नो॑ ने॒ता वाज॒मा द॑र्षि॒ भूरिं॑ गो॒त्रा रु॒जन्नङ्गि॑रोभिर्गृणा॒नः ॥
०८ अपो यदद्रिम् ...{Loading}...
Griffith
When, Much-invoked! the waters’ rock thou deftest, Sarama showed herself and went before thee. Hymned by Angirases, bursting the cowstalls, thou foundest ample strength for us as leader.
पदपाठः
अ॒पः। यत्। अद्रि॑म्। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। दर्दः॑। आ॒विः। भु॒व॒त्। स॒रमा॑। पू॒र्व्यम्। ते॒। सः। नः॒। ने॒ता। वाज॑म्। आ। द॒र्षि॒ भूरिम्। गो॒त्रा। रु॒जन्। अङ्गि॑रःऽभिः। गृ॒णा॒नः। ७७.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुहूत) हे बहुतों से बुलाये गये [राजन् !] (यत्) जब तू (अपः) जलों को (अद्रिम्) पहाड़ से (दर्दः) तोड़े [तब] (ते) तेरी (सरमा) चलने योग्य सरल नीति (पूर्व्यम्) सनातन व्यवहार को (आविः भुवत्) प्रकट करे। (सः) सो तू (नः) हमारा (नेता) नेता होकर, (गोत्रा) पहाड़ों को [मार्ग के लिये] (रुजन्) तोड़ता हुआ और (अङ्गिरोभिः) विद्वानों के साथ (गृणानः) उपदेश करता हुआ (भूरिम्) बहुत (वाजम्) पराक्रम को (आ दर्षि) आदर करे ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब राजा उत्तम नीति से पहाड़ों से नदी-नाले निकालकर प्रजा को खेती शिल्प आदि व्यवहारों से प्रसन्न रखता है, वह विद्वानों के साथ आने-जाने के लिये मार्गों को खोलकर आदर के साथ सामर्थ्य बढ़ाता है ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(अपः) जलानि (यत्) यदा (अद्रिम्) अद्रिसकाशात् पर्वतात् (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (दर्दः) दॄ विदारणे-लुङ् लिङर्थे। विदारयेः (आविः) प्राकट्ये (भुवत्) अन्तर्गतण्यर्थः। भावयेत्। कुर्यात् (सरमा) अ० ९।४।१३। सृ गतौ-अमप्रत्ययः, टाप्। सरमा पदनाम-निघ० ।। सरणीया। प्राप्तव्या सरला नीतिः (पूर्व्यम्) पुराणं व्यवहारम् (ते) तव (सः) स त्वम् (नः) अस्माकम् (नेता) नायकः (वाजम्) बलम् (आ दर्षि) अ० २०।२।३। लोडर्थे लट्। आद्रियस्व (भूरिम्) प्रभूतम् (गोत्रा) गोत्रान्। शैलान् (रुजन्) भञ्जन् (अङ्गिरोभिः) विद्वद्भिः (गृणानः) उपदिशन् ॥