०७६ ...{Loading}...
Griffith
???
०१ वने न
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वने॒ न वा॒ यो न्य॑धायि चा॒कं छुचि॑र्वां॒ स्तोमो॑ भुरणावजीगः।
यस्येदिन्द्रः॑ पुरु॒दिने॑षु॒ होता॑ नृ॒णां नर्यो॑ नृत॑मः क्ष॒पावा॑न् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वने॒ न वा॒ यो न्य॑धायि चा॒कं छुचि॑र्वां॒ स्तोमो॑ भुरणावजीगः।
यस्येदिन्द्रः॑ पुरु॒दिने॑षु॒ होता॑ नृ॒णां नर्यो॑ नृत॑मः क्ष॒पावा॑न् ॥
०१ वने न ...{Loading}...
Griffith
As sits the young bird on the tree rejoicing, ye, swift pair, have been roused by clear laudation, Whose Hoter-priest through many days is Indra, earth’s guardian, friend of men, the best of heroes.
पदपाठः
वने॑। वा॒। यः। नि। अ॒धा॒यि॒। चा॒कन्। शुचिः॑। वा॒म्। स्तोमः॑। भु॒र॒णौ॒। अ॒जी॒ग॒रिति॑। यस्य॑। इत्। इन्द्रः॑। पु॒रु॒ऽदिने॑षु। होता॑। नृ॒णाम्। नयः॑। नृऽत॑मः। क्ष॒पाऽवा॑न्। ७६.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वने) वृक्ष पर (न) जैसे (चाकन्) प्रीति करनेवाला (वा, यः=वायः) पक्षी का बच्चा (नि अधायि) रक्खा जाता है, [माता-पिताओ] (शुचिः) पवित्र (स्तोमः) बड़ाई योग्य गुण ने (वाम्) तुम दोनों को (अजीगः) ग्रहण किया है। (यस्य) जिस [बड़ाई योग्य गुण] का (इत्) ही (होता) ग्रहण करनेवाला (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष] (पुरुदिनेषु) बहुत दिनों के भीतर (नृणाम्) नेताओं का (नृतमः) सबसे बड़ा नेता, (नर्यः) मनुष्यों का हितकारी, (क्षपावान्) श्रेष्ठ रात्रियों वाला है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे चिड़िया चिरौटा बच्चे को घोंसले में धरकर पुष्ट और समर्थ करते हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष सदा दिन-रात उत्तम गुण ग्रहण करके अपने को और अपने सन्तानों को मुख्य कार्यकर्ता बनावें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।२९।१-८ ॥ हमने (वा, यः) दो पदों के स्थान पर (वायः) एक पद मानकर अर्थ किया है। भगवान् यास्क मुनि ने इस मन्त्र पर-निरुक्त ६।२८। में लिखा है−(वा और यः) शाकल्य ने [पदविभाग] किया है, किन्तु ऐसा होनेपर आख्यात उदात्त होता और अर्थ भी पूरा न होता-अर्थात् जो (वा और यः) पदकार शाकल्य ऋषि ने पदविभाग किया है, वह दो पद होता तो [यद्वृत्तान्नित्यम्। पा० ८।१।६०] इस सूत्र से (अधायि) क्रियापद उदात्त होता, किन्तु वह अनुदात्त है, और (वा) का अर्थ कुछ न बनता और वृक्ष पर क्या रक्खा हुआ है, यह आकाङ्क्षा बनी रहती। इससे (वा। यः।) दो पद भूल से हैं, (वायः) ऐसा एक पद ठीक है। सायणाचार्य और ग्रिफ़िथ महाशय ने भी (वायः) ही माना है ॥ १−(वने) वनावयवे वृक्षे (न) यथा (वा, यः=वायः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। वा गतौ-इण्, डित्। वि-अण् अपत्यार्थे। पक्षिशावकः। वन इव वायो वेः पुत्रश्चायन्निति वा कामयमान इति वा। वेति च य इति च चकार शाकल्यः। उदात्तं त्वेवमाख्यातमभविष्यदसुसमाप्तश्चार्थः-निरु० ६।२८। (नि अधायि) निहितः। धृतः (चाकन्) कनी दीप्तिकान्तिगतिषु, यङ्लुगन्तात्-क्विप्। उत्सुककमनाः (शुचिः) पवित्रः (वाम्) युवां द्वौ (स्तोमः) स्तुत्यगुणः (भुरणौ) भुरण धारणपोषणयोः-पचाद्यच्। हे भर्तारौ मातापितरौ (अजीगः) जिगर्ति नैरुक्तधातुः, यद्वा गॄ निगरणे-लङि, सिपि, इतश्च लोपे, रात्सस्य। पा० ८।२।२४। सलोपः, रेफस्य विसर्जनीयः। प्रथमपुरुषस्य मध्यमः। गृहीतवान् प्राप्तवान्। अजीगः…..अगारीर्जिगर्तिर्गिरतिकर्मा वा गृणातिकर्मा वा गृह्णातिकर्मा वा-निरु० ६।८। (यस्य) स्तोमस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (पुरुदिनेषु) बहुदिवसेषु (होता) ग्रहीता (नृणाम्) नेतॄणाम्। शूराणां मध्ये (नर्यः) नृभ्यो हितः (नृतमः) नेतृतमः। शूरतमः (क्षपावान्) क्षप प्रेरणे-अच्, टाप्। प्रशस्तरात्रिमान् ॥
०२ प्र ते
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प्र ते॑ अ॒स्या उ॒षसः॒ प्राप॑रस्या नृ॒तौ स्या॑म॒ नृत॑मस्य नृ॒णाम्।
अनु॑ त्रि॒शोकः॑ श॒तमाव॑ह॒न्नॄन्कुत्से॑न॒ रथो॒ यो अस॑त्सस॒वान् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र ते॑ अ॒स्या उ॒षसः॒ प्राप॑रस्या नृ॒तौ स्या॑म॒ नृत॑मस्य नृ॒णाम्।
अनु॑ त्रि॒शोकः॑ श॒तमाव॑ह॒न्नॄन्कुत्से॑न॒ रथो॒ यो अस॑त्सस॒वान् ॥
०२ प्र ते ...{Loading}...
Griffith
May we, when this Dawn and the next dance hither, be thy best servants, most heroic Hero! Let the victorious car with triple splendour bring hitherward the hundred chiefs with Kutsa.
पदपाठः
प्र। ते॒। अ॒स्याः। उ॒षसः॑। प्र। अप॑रस्याः। नृ॒तौ। स्या॒म॒। नृऽत॑मस्य। नृ॒णाम्। अनु॑। त्रि॒ऽशोकः॑। श॒तम्। आ। अ॒व॒ह॒त्। नॄन्। कुत्से॑नः। रथः॑। यः। अस॑त्। स॒स॒ऽवान्। ७६.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्याः) इस और (अपरस्याः) दूसरी [आनेवाली] (उषसः) उषा [प्रभात वेला] के (नृतौ) नृत्य [चेष्टा] में (नृणाम्) नेताओं के (नृतमस्य ते) तुझ सबसे बड़े नेता के [भक्त रहकर] (प्र प्र) बहुत उत्तम (स्याम) हम होवें। (यः) जो (त्रिशोकः) तीन प्रकार [बिजुली, सूर्य और अग्नि] के प्रकाशवाला (रथः) रथ (असत्) होवे, वह [रथ] (ससवान्) सेवन करता हुआ (शतम्) सौ (नॄन्) नेता पुरुषों को (कुत्सेन) मिलनसार ऋषि [सेनापति] के साथ (अनु) अनुकूल रीति से (आ अवहेत्) लावे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे प्रभात वेला सूर्य द्वारा प्रकाश करती हुई चली चलती है, वैसे ही मनुष्य अत्यन्त ज्ञानी पुरुष के आश्रय से बिजुली, सूर्य और अग्नि आदि पदार्थों के द्वारा यान विमान आदि बनाकर कार्य सिद्ध करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(प्र प्र) अतिशयेन प्रकृष्टाः (ते) तव (अस्याः) वर्तमानायाः (उषसः) प्रभातवेलायाः (अपरस्याः) अन्यस्याः। आगामिन्याः (नृतौ) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। नृती गात्रविक्षेपे-इन्, कित्। नर्तने। चेष्टने (स्याम) भवेम (नृतमस्य) नेतृतमस्य (नृणाम्) नेतॄणां मध्ये (अनु) आनुकूल्येन (त्रिशोकः) ईशुचिर् क्लेदने शौचे च-घञ्। त्रयाणां सूर्यविद्युदग्नीनां शोकः प्रकाशो यस्मिन् सः (शतम्) (आ अवहत्) लिङर्थे लङ्। आवहेत् (नॄन्) नेतॄन् पुरुषान् (कुत्सेन) अ० ४।२९।। कुस संश्लेषणे-सप्रत्ययः। ऋषिः कुत्सो भवति कर्ता स्तोमानाम्-निरु० ३।११। संगतिशीलेन ऋषिणा सेनापतिना (रथः) यानभेदः (यः) रथः (असत्) भवेत् (ससवान्) षण संभक्तौ-क्वसु। सेवमानः ॥
०३ कस्ते मद
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कस्ते॒ मद॑ इन्द्र॒ रन्त्यो॑ भू॒द्दुरो॒ गिरो॑ अ॒भ्यु१॒॑ग्रो वि धा॑व।
कद्वाहो॑ अ॒र्वागुप॑ मा मनी॒षा आ त्वा॑ शक्यामुप॒मम्राधो॒ अन्नैः॑ ॥
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मूलम् (VS)
कस्ते॒ मद॑ इन्द्र॒ रन्त्यो॑ भू॒द्दुरो॒ गिरो॑ अ॒भ्यु१॒॑ग्रो वि धा॑व।
कद्वाहो॑ अ॒र्वागुप॑ मा मनी॒षा आ त्वा॑ शक्यामुप॒मम्राधो॒ अन्नैः॑ ॥
०३ कस्ते मद ...{Loading}...
Griffith
What was the gladdening draught that pleased thee, Indra? Speed to our doors, our songs, for thou art mighty. Why comest thou to me, what gift attracts thee? Fain would I bring thee food most meet to offer.
पदपाठः
क। ते॒। मदः॑। इ॒न्द्र॒। रन्त्यः॑। भू॒त्। दुरः॑। गिरः॑। अ॒भि। उ॒ग्रः। वि। धा॒व॒। कत्। वाहः॑। अ॒र्वाक्। उप॑। मा॒। म॒नी॒षा। आ। त्वा॒। श॒क्या॒म्। उ॒प॒ऽमम्। राधः॑। अन्नैः॑। ७६.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (कः) कौनसा (ते) तेरा (मदः) हर्ष (रन्त्यः) [हमारे लिये] आनन्ददायक (भूत्) होवे, (उग्रः) तेजस्वी तू (गिरः) स्तुतियों को (अभि) प्राप्त होकर (दुरः) [हमारे] द्वारों पर (वि धाव) दौड़ता आ। (कत्) कब (वाहः) वाहन [घोड़ा रथ आदि] (मनीषा) बुद्धि के साथ (मा उप) मेरे समीप (अर्वाक्) सामने [होवे], और (उपमम्) समीपस्थ (त्वा) तुझको (आ) प्राप्त होकर (अन्नैः) अन्नों के सहित (राधः) धन (शक्याम्) पाने को समर्थ हो जाऊँ ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रजागण पुरुषार्थी धार्मिक राजा का आदरपूर्वक निमन्त्रण करके उन्नति के उपायों का विचार करें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(कः) (ते) तव (मदः) हर्षः (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (रन्त्यः) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। रमु क्रीडायाम्-तिप्रत्ययः। हितार्थे यत्। रन्तये रमणाय हितः। रमयिता। प्रीतिकरः (भूत्) भवेत् (दुरः) अस्माकं द्वाराणि (गिरः) स्तुतीः (अभि) अभिगत्य। प्राप्य (उग्रः) तेजस्वी (वि) विविधम् (धाव) धावु गतिशुद्ध्योः। शीघ्रमागच्छ (कत्) कदा (वाहः) वाहकः। अश्वरथादिकः (अर्वाक्) अभिमुखः (उप) उपेत्य (मा) माम् (मनीषा) प्रज्ञया (आ) आगत्य। प्राप्य (त्वा) त्वाम् (शक्याम्) प्राप्तुं शक्नुयाम् (उपमम्) समीपस्थम् (राधः) धनम् (अन्नैः) अदनीयपदार्थैः ॥
०४ कदु द्युम्नमिन्द्र
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कदु॑ द्यु॒म्नमि॑न्द्र॒ त्वाव॑तो॒ नॄन्कया॑ धि॒या क॑रसे॒ कन्न॒ आग॑न्।
मि॒त्रो न स॒त्य उ॑रुगाय भृ॒त्या अन्ने॑ समस्य॒ यदस॑न्मनी॒षाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
कदु॑ द्यु॒म्नमि॑न्द्र॒ त्वाव॑तो॒ नॄन्कया॑ धि॒या क॑रसे॒ कन्न॒ आग॑न्।
मि॒त्रो न स॒त्य उ॑रुगाय भृ॒त्या अन्ने॑ समस्य॒ यदस॑न्मनी॒षाः ॥
०४ कदु द्युम्नमिन्द्र ...{Loading}...
Griffith
Indra, what fame hath one like thee mid heroes? With what plan wilt thou act? Why hast thou sought us? As a true friend, Wide-Strider! to sustain us, since food absorbs the thought of each among us.
पदपाठः
कत्। ऊं॒ इति॑। द्यु॒म्नम्। इ॒न्द्र॒। त्वाऽव॑तः। नॄन्। कया॑। धि॒या। क॒र॒से॒। कत्। न॒। आ। अ॒र॒न्। मि॒त्रः। न। स॒त्यः। उ॒रु॒ऽगा॒य॒। भृ॒त्यै। अन्ने॑। स॒म॒स्य॒। यत्। अस॑न्। म॒नी॒षा। ७६.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वावतः) तुझ जैसे का (द्युम्नम्) यश (नॄन्) नेताओं में (कत् उ) किसको है, (कया धिया) किस बुद्धि के साथ (करसे) तू कर्तव्य करेगा, (उरुगाय) हे बहुत कीर्तिवाले ! (कत्) कैसे (नः) हमको (सत्यः) सच्चे (मित्रः न) मित्र के समान (भृत्यै) पालने के लिये (आ अगन्) तू प्राप्त हुआ है, (यत्) क्योंकि (अन्ने) अन्न में (समस्य) सबकी (मनीषाः) बुद्धियाँ (असन्) रहती हैं ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य संसार में अत्यन्त कीर्ति पाकर अपना पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिये प्रजा की रक्षा का विचार सच्चे हृदय से करता रहे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(कत्) कस्मै मनुष्याय (उ) एव (द्युम्नम्) अ० ६।३।३। द्योतमानं यशः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (त्वावतः) त्वत्सदृशस्य (नॄन्) सप्तम्यर्थे द्वितीया। नेतृषु (कया) कीदृश्या (धिया) प्रज्ञया (करसे) करोतेर्लेट्। कर्तव्यं करिष्यसि (कत्) कथम् (नः) अस्मान् (आ अगन्) प्राप्तवानसि (मित्रः) सखा (न) यथा (सत्यः) सत्यशीलः (उरुगाय) अ० २।१२।१। बहुकीर्ते (भृत्यै) भरणाय। पोषणाय (अन्ने) (समस्य) सर्वस्य (यत्) यतः (असन्) लेट्। भवन्ति (मनीषाः) बुद्धयः ॥
०५ प्रेरय सूरो
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प्रेर॑य॒ सूरो॒ अर्थं॒ न पा॒रं ये अ॑स्य॒ कामं॑ जनि॒धा इ॑व॒ ग्मन्।
गिर॑श्च॒ ये ते॑ तुविजात पू॒र्वीर्नर॑ इन्द्र प्रति॒शिक्ष॒न्त्यन्नैः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्रेर॑य॒ सूरो॒ अर्थं॒ न पा॒रं ये अ॑स्य॒ कामं॑ जनि॒धा इ॑व॒ ग्मन्।
गिर॑श्च॒ ये ते॑ तुविजात पू॒र्वीर्नर॑ इन्द्र प्रति॒शिक्ष॒न्त्यन्नैः॑ ॥
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Griffith
Speed happily those, as Surya ends his journey, who meet his wish as bridegrooms meet their spouses; Men who support, O Indra strong by nature, with food the many songs that tell thy praises.
पदपाठः
प्र। ई॒र॒य॒। सूरः॑। अर्थ॑म्। न। पा॒रम्। ये। अ॒स्य॒। काम॑म्। ज॒नि॒धाःऽइ॑व। ग्मन्। गिरः॑। च॒। ये। ते॒। तु॒वि॒जा॒त॒। पू॒र्वीः। नरः॑। इ॒न्द्र॒। प्र॒ति॒ऽशिक्ष॑न्ति। अन्नैः॑। ७६.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तुविजात) हे बहुत प्रकार से प्रसिद्ध (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (सूरः न) सूर्य के समान तू [उनको] (अर्थम्) पाने योग्य (पारम्) पार की ओर (प्र ईरय) आगे बढ़ा (ये) जो (जनिधाः इव) वीरों को उत्पन्न करनेवाली पत्नियों के धारण करनेवाले के समान (अस्य) उस [तेरे] (कामम्) मनोरथ को (ग्मन्) प्राप्त होते हैं, (च) और (ये) जो (नरः) नेता लोग (ते) तेरे लिये (पूर्वीः) सनातन (गिरः) वाणियों [विद्याओं] को (अन्नैः) अन्नों के साथ (प्रतिशिक्षन्ति) समर्पण करते हैं ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य वीरसू पत्नी का प्रयत्नपूर्वक आदर करते हैं, वैसी ही राजा हितैषी नेता पुरुषों की उन्नति में तत्पर रहें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(प्र) प्रकर्षेण (ईरय) गमय (सूरः) सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। षू प्रेरणे-क्रन्। सूर्यः (अर्थम्) उषिकुषिगर्तिभ्यस्थन्। उ० २।४। ऋ गतौ-थन्। अरणीयं प्रापणीयम् (न) यथा (पारम्) परतीरम् (ये) पुरुषाः (अस्य) त्वदीयस्य (कामम्) मनोरथम् (जनिधाः) अ० २।३०।। जनि+दधातेः-क्विप्। जनीनां वीरपुत्रजनयित्रीणां पत्नीनां धर्तारः (इव) यथा (ग्मन्) अगमन्। प्राप्नुवन्ति (गिरः) वाणीः। विद्याः (च) (ये) (ते) तुभ्यम् (तुविजात) बहुप्रसिद्ध (पूर्वीः) सनातनीः (नरः) नेतारः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (प्रतिशिक्षन्ति) शिक्षतिर्दानकर्मा-निघ० ३।२०। प्रत्यक्षं ददति। समर्पयन्ति (अन्नैः) ॥
०६ मात्रे नु
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मात्रे॒ नु ते॒ सुमि॑ते इन्द्र पू॒र्वी द्यौर्म॒ज्मना॑ पृथि॒वी काव्ये॑न।
वरा॑य ते घृ॒तव॑न्तः सु॒तासः॒ स्वाद्म॑न्भवन्तु पी॒तये॒ मधू॑नि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मात्रे॒ नु ते॒ सुमि॑ते इन्द्र पू॒र्वी द्यौर्म॒ज्मना॑ पृथि॒वी काव्ये॑न।
वरा॑य ते घृ॒तव॑न्तः सु॒तासः॒ स्वाद्म॑न्भवन्तु पी॒तये॒ मधू॑नि ॥
०६ मात्रे नु ...{Loading}...
Griffith
Thine are two measures, Indra, wide, well-meted, heaven for thy majesty, earth for thy wisdom. Here for thy choice are Somas mixed with butter: may the sweet meath be pleasant for thy drinking.
पदपाठः
मात्रे॒ इति॑। नु। ते॒। सुमि॑ते॒ इति॒सुऽमि॑ते। इ॒न्द्र॒। पू॒र्वी इति॑। द्यौः। म॒ज्मना॑। पृ॒थि॒वी। काव्ये॑न। वरा॑य। ते॒। घृ॒तऽव॑न्तः। सु॒तासः॑। स्वाद्म॑न्। भ॒व॒न्तु॒। पी॒तये॑। मधू॑नि। ७६.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नु) निश्चय करके (ते) तेरी (मात्रे) दो मात्राएँ [उपाय शक्तियाँ] (सुमिते) अच्छे प्रकार नापी गयी [जाँची गयीं], (पूर्वी) सनातनी हैं कि तू (मज्मना) अपने बल से और (काव्येन) बुद्धिमत्ता से (द्यौः) चमकते हुए सूर्य [के समान] और (पृथिवी) फैली हुई पृथिवी [के समान] है।। (ते) तेरे (वराय) वर [इष्टफल] के लिये (घृतवन्तः) प्रकाशमान (सुतासः) निचोड़े हुए तत्त्वरस हैं (मधूनि) निश्चित ज्ञान रस (पीतये) पीने के लिये (स्वाद्मन्) स्वादिष्ठ (भवन्तु) होवें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य दो उपायों अर्थात् पराक्रम और बुद्धि से सूर्य और भूमि के समान उपकारी होता है, उसकी इष्ट सिद्धि के लिये संसार के सब पदार्थ उपयोगी होते हैं ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(मात्रे) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। माङ् माने-त्रन्। द्वे मानकर्त्र्यौ यत्नशक्ती (नु) निश्चयेन (ते) तव (सुमिते) सुपरिमिते (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (पूर्वी) सनातन्यौ (द्यौः) द्योतमानः सूर्यो यथा (मज्मना) अ० १३।१।१४। शोधकेन बलेन (पृथिवी) विस्तृता भूमिर्यथा (काव्येन) कविकर्मणा। बुद्धिमत्तया (वराय) इष्टफलप्राप्तये (ते) तव (घृतवन्तः) दीप्तिमन्तः (सुतासः) निष्पादितास्तत्त्वरसाः (स्वाद्मन्) सातिभ्यां मनिन्मनिणौ। उ० ४।१३। ष्वद स्वाद वा आस्वादने-मनिण्, विभक्तेर्लुक्। स्वाद्मनि। स्वादिष्ठानि (भवन्तु) (पीतये) पानाय। ग्रहणाय (मधूनि) निश्चितज्ञानानि ॥
०७ आ मध्वो
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आ मध्वो॑ अस्मा असिच॒न्नम॑त्र॒मिन्द्रा॑य पू॒र्णं स हि स॒त्यरा॑धाः।
स वा॑वृधे॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्या अ॒भि क्रत्वा॒ नर्यः॒ पौंस्यै॑श्च ॥
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मूलम् (VS)
आ मध्वो॑ अस्मा असिच॒न्नम॑त्र॒मिन्द्रा॑य पू॒र्णं स हि स॒त्यरा॑धाः।
स वा॑वृधे॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्या अ॒भि क्रत्वा॒ नर्यः॒ पौंस्यै॑श्च ॥
०७ आ मध्वो ...{Loading}...
Griffith
They have poured out a bowl to him, to Indra, full of sweet juice, for faithful is his bounty. O’er earth’s expanse hath he grown great by wisdom, the friend of man, and by heroic exploits.
पदपाठः
आ। मध्वः॑। अ॒स्मै॒। अ॒सि॒च॒न्। अम॑त्रम्। इन्द्रा॑य। पू॒र्णम्। सः। हि। स॒त्यऽरा॑धाः। सः। व॒वृ॒धे॒। वीर॑मन्। आ। पृ॒थि॒व्याः। अ॒भि। क्रत्वा॑। नर्यः॑। पौंस्यैः॑। च॒। ७६.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) इस (इन्द्राय) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले मनुष्य] के लिये (मध्वः) मधुर रस [उत्तम ज्ञान] का (पूर्णम्) पूरा (अमत्रम्) पात्र (आ) सब ओर से (असिचन्) उन्होंने [विद्वानों ने] सींचा है, (हि) क्योंकि (सः) वह (सत्यराधाः) सच्चे साधन धनवाला है। (सः) वह (नर्यः) नरों का हितकारी (पृथिव्याः) पृथिवी के (वरिमन्) फैलाव में (क्रत्वा) अपनी बुद्धि से (च) और (पौंस्यैः) मनुष्य कर्मों से (अभि) सब प्रकार (आ) पूरा-पूरा (वावृधे) बढ़ा है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वानों का सिद्धान्त है कि पराक्रमी मनुष्य पूरा ज्ञानी होकर अपनी बुद्धि और कर्मों से परोपकार करता हुआ अभीष्ट वर अर्थात् मोक्षसुख पाता है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(आ) समन्तात् (मध्वः) मधुनः। मधुररसस्य। उत्तमज्ञानस्य (अस्मै) (असिचन्) असिञ्चन्। सिक्तवन्तः (अमत्रम्) पात्रम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मनुष्याय (पूर्णम्) (सः) (हि) यस्मात् कारणात् (सत्यराधाः) सत्यं राधः साधकं धनं यस्य सः (सः) (वावृधे) वृद्धिं चकार (वरिमन्) वरिमनि। उरुत्वे। विस्तारे (आ) समन्तात् (पृथिव्याः) भूमेः (अभि) सर्वतः (क्रत्वा) क्रतुना। प्रज्ञया (नर्यः) नृभ्यो हितः (पौंस्यैः) अ० २०।६७।२। मनुष्यकर्मभिः (च) ॥
०८ व्यानडिन्द्रः पृतनाः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
व्या॑न॒डिन्द्रः॒ पृत॑नाः॒ स्वोजा॒ आस्मै॑ यतन्ते स॒ख्याय॑ पू॒र्वीः।
आ स्मा॒ रथं॒ न पृत॑नासु तिष्ठ॒ यं भ॒द्रया॑ सुम॒त्या चो॒दया॑से ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
व्या॑न॒डिन्द्रः॒ पृत॑नाः॒ स्वोजा॒ आस्मै॑ यतन्ते स॒ख्याय॑ पू॒र्वीः।
आ स्मा॒ रथं॒ न पृत॑नासु तिष्ठ॒ यं भ॒द्रया॑ सुम॒त्या चो॒दया॑से ॥
०८ व्यानडिन्द्रः पृतनाः ...{Loading}...
Griffith
Indra hath conquered in his wars the mighty: men strive in multitudes to win his friendship. Ascend thy chariot as it were in battle, which thou shalt drive to us with gracious favour,
पदपाठः
वि। आ॒न॒ट्। इन्द्रः॑। पृत॑नाः। सु॒ऽओजाः॑। आ। अस्मै॑। य॒त॒न्ते॒। स॒ख्याय॑। पू॒र्वीः। आ। स्म॒। रथ॑म्। न। पृत॑नासु। ति॒ष्ठ॒। यम्। भ॒द्रया॑। सु॒ऽम॒त्या। चो॒दया॑से। ७६.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-७६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (स्वोजाः) सुन्दर बलवाला (इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाला पुरुष] (पृतनाः) मनुष्यों में (वि आनट्) फैल गया है, (अस्मै) इसकी (सख्याय) मित्रता के लिये (पूर्वीः) सब [मनुष्य] (आ यतन्ते) यत्न करते रहते हैं। [हे राजन् !] (न) अब (पृतनासु) मनुष्यों के बीच (स्म) अवश्य (रथम्) रथ पर (आतिष्ठ) तू चढ़, (यम्) जिस [रथ] को (भद्रया) कल्याणी (सुमत्या) सुमति के साथ (चोदयासे) तू चलावेगा ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो धर्मात्मा पुरुष सबमें प्रबल और सुबोध होता है, सब मनुष्य उसके मित्र बन जाते हैं और वह सभी रथ रूपी राजकाज आदि व्यवहार को उत्तम रीति से चलाता है ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(वि आनट्) व्याप्नोति (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (पृतनाः) मनुष्यान्-निघ० २।३। (स्वोजाः) शोभनबलः (आ) समन्तात् (अस्मै) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। अस्य। इन्द्रस्य (यतन्ते) यत्नं कुर्वन्ति (सख्याय) सखित्वाय मित्रभावाय (पूर्वीः) समस्ता मनुष्यप्रजाः (स्म) अवश्यम् (रथम्) रथरूपं राज्यव्यवहारम् (न) सम्प्रति (पृतनासु) मनुष्येषु (आ तिष्ठ) आरोह (यम्) रथम् (भद्रया) कल्याण्या (सुमत्या) शोभनया बुद्ध्या (चोदयासे) लेटि रूपम्। चोदयेः। प्रेरयेः ॥