०७४

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Griffith

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०१ यच्चिद्धि सत्य

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यच्चि॒द्धि स॑त्य सोमपा अनाश॒स्ता इ॑व॒ स्मसि॑।
आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

०१ यच्चिद्धि सत्य ...{Loading}...

Griffith

O Soma-drinker, ever true, utterly hopeless though we be, Do thou, O Indra, give us hope of beauteous horses and of kine, In thousands, O most wealthy One.

पदपाठः

यत्। चि॒त्। हि। स॒त्य॒। सो॒म॒ऽपाः॒। अ॒ना॒श॒स्ताःऽइ॑व। स्मसि॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒। ७४.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शुनःशेपः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-७४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सत्य) हे सच्चे ! [सत्यवादी, सत्यगुणी] (सोमपाः) हे सोम [तत्त्व रस] पीनेवाले ! [वा ऐश्वर्य के रक्षक राजन्] (यत् चित्) जो कभी (हि) भी (अनाशस्ताः इव) निन्दनीय कर्मवालों के समान (स्मसि) हम होवें। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े प्रतापी राजन्] (तु) निश्चय करके (नः) हमको (सहस्रेषु) सहस्रों (शुभ्रिषु) शुभ गुणवाले (गोषु) विद्वानों और (अश्वेषु) कामों में व्यापक (बलवानों में (आ) सब ओर से (शंसय) बड़ाईवाला कर ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यदि धार्मिक लोगों से किसी कारण विशेष से अपराध हो जावे, नीतिज्ञ राजा यथायोग्य बर्ताव करके उन भूले-भटकों को फिर सुमार्ग पर लावे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।२९।१-७ ॥ १−(यत् चित्) यद्यपि (हि) एव (सत्य) हे यथार्थवादिन्। यथार्थ गुणिन्। (सोमपाः) हे तत्त्वरसस्य पानकर्तः। ऐश्वर्यरक्षक। (अनाशस्ताः) अप्रशस्ताः। निन्दनीयकर्माणः (इव) यथा (स्मसि) भवामः (आ) समन्तात् (तु) निश्चयेन (नः) अस्मान् (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् ! (शंसय) प्रशस्तान् कुरु (गोषु) गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। स्तोतृषु। विद्वत्सु (अश्वेषु) कर्मसु व्यापकेषु। बलवत्सु (शुभ्रिषु) अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्। उ० ४।६। शुभ दीप्तौ-क्रिन्। शुभगुणयुक्तेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) हे बहुधनवन् ॥

०२ शिप्रिन्वाजानां पते

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शिप्रि॑न्वाजानां पते॒ शची॑व॒स्तव॑ दं॒सना॑।
आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

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Griffith

O Lord of strength, whose jaws are strong, great deeds are thine, the powerful: Do thou, O Indra, give us hope of beauteous horses and of kine, In thousands, O most wealthy One.

पदपाठः

शिप्रि॑न्। वा॒जा॒ना॒म्। प॒ते॒। शची॑ऽवः। तव॑। दं॒सना॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒। ७४.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शुनःशेपः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-७४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शिप्रिन्) हे बड़े ज्ञानी ! [वा दृढ़ जबड़े आदि अङ्गोंवाले] (वाजानां पते) हे अन्नों के स्वामी ! (शचीवः) हे उत्तम कर्मवाले ! [राजन्] (तव) तेरी ही (दंसना) दर्शनीय क्रिया है। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े प्रतापी राजन्]…… [मन्त्र १] ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - बलवान् राजा बड़ा ज्ञानी, धनी और सत्कर्मी होकर प्रजापालन करे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(शिप्रिन्) अ० २०।४।१। हे बहुज्ञानिन्। हे दृढहनुयुक्त। हे दृढाङ्ग (वाजानाम्) अन्नानाम् (पते) स्वामिन् (शचीवः) अ० २०।२१।३। हे प्रशस्तकर्मन् (तव) (दंसना) ण्यासश्रन्थो युच्। पा० ३।३।१०७। दसि दर्शनसंदशनयोर्भाषायां च-णिचि युच्, टाप्। दर्शनीयक्रिया वर्तते। अन्यत् पूर्ववत् ॥

०३ नि ष्वापया

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नि ष्वा॑पया मिथू॒दृशा॑ स॒स्तामबु॑ध्यमाने।
आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

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Griffith

Lull thou asleep, to wake no more, the pair who on each other look: Do thou, O Indra, give us hope of beauteous horses and of kine, In thousands, O most wealthy One.

पदपाठः

नि। स्वा॒प॒य॒। मि॒थु॒ऽदृशा॑। स॒स्ताम्। अबु॑ध्यमाने॒। इति॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒। ७४.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शुनःशेपः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-७४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन्] (मिथुदृशा) दोनों हिंसा दिखानेवाले [शरीर और मन] को (नि स्वापय) सुला दे, (अबुध्यमाने) बिना जगे हुए वे दोनों (सस्ताम्) सो जावें। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! ……. [मन्त्र १] ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा अपने सुप्रबन्ध से सब प्रजा को सुबोध और निरालसी बनावे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(निष्वापय) नितरां सुप्तं कुरु (मिथुदृशा) पॄभिदिव्यधि०। उ० १।२३। मिथृ मेधाहिंसनयोः-कु+दृशेः-क्विप्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। द्वे हिंसादर्शके शरीरमनसी (सस्ताम्) वस स्वप्ने। शयाताम् (अबुध्यमाने) अजागरिते। निद्रां प्राप्ते। अन्यद् गतम् ॥

०४ ससन्तु त्या

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स॒सन्तु॒ त्या अरा॑तयो॒ बोध॑न्तु शूर रा॒तयः॑।
आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

०४ ससन्तु त्या ...{Loading}...

Griffith

Hero, let hostile spirits sleep, and every gentler Genius wake: Do thou, O Indra, give us hope of beauteous horses and of kine, In thousands, O most wealthy One.

पदपाठः

स॒सन्तु॑। त्याः। अरा॑तयः। बोध॑न्तु। शू॒र॒। रा॒तयः॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒। ७४.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शुनःशेपः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-७४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे शूर ! [निर्भय] (त्याः) वे (अरातयः) दान न करनेवाली शत्रुप्रजाएँ (ससन्तु) सो जावें, और (रातयः) दानी लोग (बोधन्तु) जागते रहें। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! ….. [मन्त्र १] ॥•४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा अपने पराक्रम से दुष्टों को शिर न उठाने दे और धर्मात्मा दाता लोगों को उत्साही करे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(ससन्तु) शेरताम् (त्याः) ताः (अरातयः) अदानशीलाः शत्रुप्रजाः (बोधन्तु) जाग्रतु (शूर) हे वीर (रातयः) दातारः। अन्यद् गतम् ॥

०५ समिन्द्र गर्दभम्

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समि॑न्द्र गर्द॒भं मृ॑ण नु॒वन्तं॑ पा॒पया॑मु॒या।
आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

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Griffith

Destroy this ass, O Indra, who in tones discordant brays to thee: Do thou, O Indra, give us hope of beauteous horses and of kine, In thousands, O most wealthy One.

पदपाठः

सम्। इ॒न्द्र॒। ग॒र्द॒भम्। मृ॒ण॒। नु॒वन्त॑म्। पा॒पया॑। अ॒मु॒या। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒। ७४.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शुनःशेपः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-७४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े प्रतापी राजन्] (अमुया) उस (पापया) पाप क्रिया के साथ (नुवन्तम्) स्तुति करते हुए (गर्दभम्) गदहे के [समान व्यर्थ रेंकनेवाले निन्दक पुरुष] को (सम् मृण) मार डाल। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! …… [मन्त्र १] ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा गदहे के समान कटुवाची, मिथ्याभाषी दुर्जन को कुशिक्षा फैलने से रोके ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(सम्) सम्यक् (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (गर्दभम्) कॄशॄशलिकलिगर्दिभ्योऽभच्। उ० ३।१२२। गर्द शब्दे-अभच्। खरमिव कटुभाषिणम् (मृण) मारय (नुवन्तम्) स्तुवन्तम् (पापया) पापक्रियया (अमुया) अनया प्रसिद्धया। अन्यद् गतम् ॥

०६ पताति कुण्डृणाच्या

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पता॑ति कुण्डृ॒णाच्या॑ दू॒रं वातो॒ वना॒दधि॑।
आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

०६ पताति कुण्डृणाच्या ...{Loading}...

Griffith

Far distant on the forest fall the tempest in a circling course; Do thou, O Indra, give us hope of beauteous horses and of kine, In thousands, O most wealthy One.

पदपाठः

पता॑ति। कु॒ण्डृ॒णाच्या॑। दू॒रम्। वातः॑। वना॑त्। अधि॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒। ७४.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शुनःशेपः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-७४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (कुण्डृणाच्या) रक्षा पहुँचानेवाली क्रिया के साथ (दूरम्) दूर तक (वनात् अधि) वन [उपवन वाटिका आदि] के ऊपर होता हुआ (वातः) पवन (पताति) चला करे। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ….. [मन्त्र १] ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा वन, उपवन, वाटिका आदि से प्रजा का स्वास्थ्य बढ़ावे ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(पताति) लेटि आडागमः। गच्छेत्। वहेत् (कुण्डृणाच्या) दिवेर्ऋ। उ० २।९९। कुडि दाहे वैकल्ये रक्षणे च-ऋप्रत्ययः। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। कुण्डृ+णक्ष गतौ-अण् ङीप्, क्षकारस्य चकारः। रक्षाप्रापिकया क्रियया (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (वातः) वायुः (वनात्) वृक्षसमूहात् (अधि) उपरि गच्छन्। अन्यद् गतम् ॥

०७ सर्वं परिक्रोशम्

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सर्वं॑ परिक्रो॒शं ज॑हि ज॒म्भया॑ कृकदा॒श्व᳡म्।
आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

०७ सर्वं परिक्रोशम् ...{Loading}...

Griffith

Slay each reviler and destroy him who in secret injures us: Do thou, O Indra, give us thope of beauteous horses and of kine, In thousands, O most wealthy One.

पदपाठः

सर्व॑म्। प॒रि॒ऽक्रो॒शम्। ज॒हि॒। ज॒म्भय॑। कृ॒क॒दा॒श्व॑म्। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒। ७४.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शुनःशेपः
  • पङ्क्तिः
  • सूक्त-७४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (सर्वम्) प्रत्येक (परिक्रोशम्) निन्दक, (कृकदाश्वम्) कष्ट देनेवाले को (जहि) पहुँच और (जम्भय) मार डाल। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े प्रतापी राजन्] (तु) निश्चय करके (नः) हमको (सहस्रेषु) सहस्रों (शुभ्रिषु) शुभ गुणवाले (गोषु) विद्वानों और (अश्वेषु) कामों में व्यापक बलवानों में (आ) सब ओर से (शंसय) बड़ाईवाला कर ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा गुणों में दोष लगानेवाले कुचाली हिंसकों को नष्ट करके प्रजा को सब प्रकार सुखी रक्खे ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(सर्वम्) प्रत्येकम् (परिक्रोशम्) क्रुश आह्वाने शब्दे च-पचाद्यच्। परिक्रोशकम्। निन्दकम् (जहि) हन हिंसागत्योः। गच्छ। प्राप्नुहि (जम्भय) मारय (कृकदाश्वम) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। कृञ् हिंसायाम्-कक्। कृवापाजि०। उ० १।१। दाशृ दाने-उण्। अमि यणादेशः। पीडादातारम्। अन्यद् गतम् ॥