०७३ ...{Loading}...
Griffith
???
०१ तुभ्येदिमा सवना
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तुभ्येदि॒मा सव॑ना शूर॒ विश्वा॒ तुभ्यं॒ ब्रह्मा॑णि॒ वर्ध॑ना कृणोमि।
त्वं नृभि॒र्हव्यो॑ वि॒श्वधा॑सि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तुभ्येदि॒मा सव॑ना शूर॒ विश्वा॒ तुभ्यं॒ ब्रह्मा॑णि॒ वर्ध॑ना कृणोमि।
त्वं नृभि॒र्हव्यो॑ वि॒श्वधा॑सि ॥
०१ तुभ्येदिमा सवना ...{Loading}...
Griffith
All these libations are for thee, O Hero: to thee I offer these my prayers that strengthen. Ever, in every place, must men invoke thee.
पदपाठः
तुभ्य॑। इत्। इ॒मा। सव॑ना। शू॒र॒। विश्वा॑। तुभ्य॑म्। ब्रह्मा॑णि। वर्ध॑ना। कृ॒णो॒मि॒। त्वम्। नृऽभिः॑। हव्यः॑। वि॒श्वधा॑। अ॒सि॒। ७३.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसिष्ठः
- त्रिपदा विराडनुष्टुप्
- सूक्त-७३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे शूर ! [निर्भय मनुष्य] (तुभ्य) तेरे लिये (इत्) ही (इमा) इन (विश्वा) सब (सवना) ऐश्वर्ययुक्त वस्तुओं को और (तुभ्यम्) तेरे लिये (वर्धना) उन्नति करनेवाले (ब्रह्माणि) धनों वा अन्नों को (कृणोमि) मैं करता हूँ। (त्वम्) तू (नृभिः) नेता मनुष्यों से (विश्वधा) सब प्रकार (हव्यः) ग्रहण करने योग्य (असि) है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - चतुर सेनापति सब अधिकारियों की यथायोग्य पालना करता रहे, जिससे वे लोग सेवा करने में सदा प्रसन्न रहें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १, २ ऋग्वेद में है-७।२२।७, ८ ॥ १−(तुभ्य) तुभ्यम् (इत्) एव (इमा) इमानि (सवना) ऐश्वर्ययुक्तानि वस्तूनि (शूर) निर्भय मनुष्य (विश्वा) सर्वाणि (तुभ्यम्) (ब्रह्माणि) धनानि अन्नानि वा (वर्धना) उन्नतिकराणि (कृणोमि) करोमि (त्वम्) (नृभिः) नेतृभि पुरुषैः (हव्यः) ग्रहणीयः (विश्वधा) सर्वप्रकारेण (असि) ॥
०२ नू चिन्नु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
नू चि॒न्नु ते॒ मन्य॑मानस्य द॒स्मोद॑श्नुवन्ति महि॒मान॑मुग्र।
न वी॒र्य᳡मिन्द्र ते॒ न राधः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नू चि॒न्नु ते॒ मन्य॑मानस्य द॒स्मोद॑श्नुवन्ति महि॒मान॑मुग्र।
न वी॒र्य᳡मिन्द्र ते॒ न राधः॑ ॥
०२ नू चिन्नु ...{Loading}...
Griffith
Never do men attain, O Wonder-worker, thy greatness, Mighty One who must be lauded, Nor, Indra, thine heroic power and bounty.
पदपाठः
नु। चि॒त्। नु। ते॒। मन्य॑मानस्य। द॒स्म॒। उत्। अ॒श्नु॒व॒न्ति॒। म॒हि॒मान॑म्। उ॒ग्र॒। न। वी॒र्य॑म्। इ॒न्द्र॒। ते॒। न। राधः॑। ७३.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसिष्ठः
- त्रिपदा विराडनुष्टुप्
- सूक्त-७३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (दस्म) हे दर्शनीय ! (उग्र) हे तेजस्वी (इन्द्र) इन्द्र ! [राजन्] (मन्यमानस्य ते) तुझ महाज्ञानी की (न) न तो (महिमानम्) महिमा को और (न) न (ते) तेरे (वीर्यम्) पराक्रम और (राधः) धन को वे [अन्य पुरुषों] (नु चित्) कभी भी (नु) किसी प्रकार (उत्) अधिकता से (अश्नुवन्ति) पहुँचते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य महिमा और विद्या आदि शुभ गुणों, पराक्रम और धन में अधिक होवे, वह सभापति राजा होवे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(नु चित्) कदापि (नु) निश्चयेन (ते) तव (मन्यमानस्य) मन ज्ञाने-शानच्। विदुषः पुरुषस्य (दस्म) अ० २०।१७।२। हे दर्शनीय (उत) आधिक्ये (अश्नुवन्ति) प्राप्नुवन्ति (महिमानम्) महत्त्वम् (उग्र) तेजस्विन् (न) निषेधे (वीर्यम्) पराक्रमम् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (ते) तव (न) निषेधे (राधः) धनम् ॥
०३ प्र वो
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प्र वो॑ म॒हे म॑हि॒वृधे॑ भरध्वं॒ प्रचे॑तसे॒ प्र सु॑म॒तिं कृ॑णुध्वम्।
विशः॑ पू॒र्वीः प्र च॑रा चर्षणि॒प्राः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र वो॑ म॒हे म॑हि॒वृधे॑ भरध्वं॒ प्रचे॑तसे॒ प्र सु॑म॒तिं कृ॑णुध्वम्।
विशः॑ पू॒र्वीः प्र च॑रा चर्षणि॒प्राः ॥
०३ प्र वो ...{Loading}...
Griffith
Bring to the Wise, the Great who waxeth mighty your offerings and make ready your devotion: To many clans he goeth, man’s Controller.
पदपाठः
प्र। वः॒। म॒हे। म॒हि॒ऽवृधे॑। भ॒र॒ध्व॒म्। प्रऽचे॑तसे। प्र। सु॒म॒तिम्। कृ॒णु॒ध्व॒म्। विशः॑। पू॒र्वीः। प्र। च॒र॒। च॒र्ष॒णिः॒। प्राः। ७३.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसिष्ठः
- त्रिपदा विराडनुष्टुप्
- सूक्त-७३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (वः) अपने लिये (महे) महान् (महिवृधे) बड़ों के बढ़ानेवाले, (प्रचेतसे) उत्तम ज्ञानी [दूरदर्शी राजा] के लिये (सुमतिम्) सुन्दर मति को (प्र) अच्छे प्रकार (भरध्वम्) धारण करो और (प्र) सामने (कृणुध्वम्) करो। [हे सभापते !] (चर्षणिप्राः) मनुष्यों के मनोरथ पूरा करनेवाला तू (पूर्वीः) प्राचीन (विशः) प्रजाओं को (प्र चर) फैला ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग चतुर नीतिज्ञ सभापति के आश्रय से अपनी उन्नति करें और सभापति उन लोगों के मेल से अपना और प्रजा का ऐश्वर्य बढ़ावें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-७।३१।१० ॥ ३−(प्र) प्रकर्षेण (वः) युष्मभ्यम्। स्वकीयार्थम् (महे) महते (महिवृधे) महीनां महतां वर्धकाय (भरध्वम्) धारयत (प्रचेतसे) प्रकृष्टज्ञानाय। दूरदर्शिने (प्र) (सुमतिम्) शोभनां बुद्धिम् (कृणुध्वम्) कुरुत (विशः) प्रजाः (पूर्वीः) प्राचीनाः पितापितामहादिभ्यः प्राप्ताः (प्र चर) प्रसारय (चर्षणिप्राः) अ० २०।११।७। मनुष्याणां मनोरथपूरकः ॥
०४ यदा वज्रम्
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य॒दा वज्रं॒ हिर॑ण्य॒मिदथा॒ रथं॒ हरी॒ यम॑स्य॒ वह॑तो॒ वि सू॒रिभिः॑।
आ ति॑ष्ठति म॒घवा॒ सन॑श्रुत॒ इन्द्रो॒ वाज॑स्य दी॒र्घश्र॑वस॒स्पतिः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
य॒दा वज्रं॒ हिर॑ण्य॒मिदथा॒ रथं॒ हरी॒ यम॑स्य॒ वह॑तो॒ वि सू॒रिभिः॑।
आ ति॑ष्ठति म॒घवा॒ सन॑श्रुत॒ इन्द्रो॒ वाज॑स्य दी॒र्घश्र॑वस॒स्पतिः॑ ॥
०४ यदा वज्रम् ...{Loading}...
Griffith
When, with the Princes, Maghavan, famed of old, comes nigh the thunderbolt of gold and the Controller’s car Which his two tawny coursers draw, then Indra is the Sovran Lord of power whose fame spreads far and wide.
पदपाठः
य॒दा। वज्र॑म्। हिर॑ण्यम्। इत्। अथ॑। रथ॑म्। हरी॒ इ॒ति। यम्। अ॒स्य॒। वह॑तः। वि। सू॒रिऽभिः॑। आ। ति॒ष्ठ॒ति॒। म॒घऽवा॑। सन॑ऽश्रुतः। इन्द्रः॑। वाज॑स्य। दी॒र्घऽश्र॑वसः। पतिः॑। ७३.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- जगती
- सूक्त-७३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यदा) जब (अस्य) इस [सेनापति] के (यम्) जिस (हिरण्यम्) तेजोमय (वज्रम्) वज्र [दण्ड] (अथ) और (रथम्) रथ [राज्यव्यवहार] को (हरी) दो घोड़े [के समान बल और पराक्रम] (सूरिभिः) प्रेरक विद्वानों के साथ (इत्) ही (वि) विविध प्रकार (वहतः) ले चलते हैं। [तब उस पर] (मघवा) महाधनी, (सनश्रुतः) दान के लिये प्रसिद्ध, (दीर्घश्रवसः) बहुत यशवाले (वाजस्य) पराक्रम का (पतिः) स्वामी (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी सेनापति] (आ तिष्ठति) ऊँचा बैठता है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब राजा विद्वानों से मिलकर धर्मयुक्त नीति के साथ राज्य को चलाता है, वह प्रजापालक महाधनी होकर बड़ी कीर्ति पाता है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-१०।२३।३- ॥ ४−(यदा) यस्मिन् काले (वज्रम्) दण्डम् (हिरण्यम्) तेजोमयम् (इत्) एव (अथ) अनन्तरम् (रथम्) रथमिव रमणीयं राज्यव्यवहारम् (हरी) अश्वाविव बलपराक्रमौ (यम्) वज्रं रथं वा (अस्य) सेनापतेः (वहतः) नयतः (वि) विविधम् (सूरिभिः) अ० २०।३४।१७। प्रेरकैर्विद्वद्भिः (आ तिष्ठति) आरोहति। उपरि वर्तते (मघवा) महाधनी (सनश्रुतः) षणु दाने-अच्। दानाय प्रसिद्धः (इन्द्रः) महाप्रतापी सेनापतिः (वाजस्य) पराक्रमस्य (दीर्घश्रवसः) बहुकीर्तियुक्तस्य (पतिः) स्वामी ॥
०५ सो चिन्नु
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सो चि॒न्नु वृ॒ष्टिर्यू॒थ्या॒३॒॑ स्वा सचाँ॒ इन्द्रः॒ श्मश्रू॑णि॒ हरि॑ता॒भि प्रु॑ष्णुते।
अव॑ वेति सु॒क्षयं॑ सु॒ते मधूदिद्धू॑नोति॒ वातो॒ यथा॒ वन॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सो चि॒न्नु वृ॒ष्टिर्यू॒थ्या॒३॒॑ स्वा सचाँ॒ इन्द्रः॒ श्मश्रू॑णि॒ हरि॑ता॒भि प्रु॑ष्णुते।
अव॑ वेति सु॒क्षयं॑ सु॒ते मधूदिद्धू॑नोति॒ वातो॒ यथा॒ वन॑म् ॥
०५ सो चिन्नु ...{Loading}...
Griffith
With him too is this rain of his that comes like herds: Indra throws drops of moisture on his yellow beard. When the sweet juice is shed he seeks the pleasant place, and stirs the worshipper as the wind disturbs the wood.
पदपाठः
सो इति॑। चि॒त्। नु। वृ॒ष्टिः। यू॒थ्या॑। स्वा। सचा॑। इन्द्रः॑। श्मश्रू॑णिः। हरि॑ता। अ॒भि। प्रु॑ष्णु॒ते॒। अव॑। वे॒ति॒। सु॒ऽक्षय॑म्। सु॒ते। मधु॑। उत्। इत्। धू॒नो॒ति॒। वातः॑। यथा॑। वन॑म्। ७३.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- जगती
- सूक्त-७३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सो) वही (इन्द्रः) इन्द्र [बड़ा ऐश्वर्यवान् पुरुष] (वृष्टिः चित्) वृष्टि के समान (नु) निश्चय करके (सचा) नित्य मेल के साथ (स्वा) अपने (हरिता) स्वीकार करने योग्य (यूथ्या) समुदायों को (श्मश्रूणि) अपने शरीर में आश्रित अङ्गों [के समान] (अभि) सब प्रकार (प्रुष्णुते) सींचता है। और वह (सुते) उत्पन्न जगत् में (सुक्षयम्) बड़े ऐश्वर्यवाले (मधु) निश्चित ज्ञान [मधु विद्या] को (इत्) अवश्य (अव वेति) पा लेता है और [पापों को] (उत्) (धूनोति) उखाड़कर हिला देता है, (यथा) जैसे (वातः) पवन (वनम्) वन को ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वृष्टि के समान जो मनुष्य शरीर के अङ्गों के तुल्य प्रिय अपने लोगों पर उपकार करता है, वह संसार में ऐश्वर्ययुक्त ज्ञान प्राप्त करके पापों को हटाकर आनन्द पाता है ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(सो) स एव (चित्) उपमार्थे (नु) निश्चयेन (वृष्टिः) जलवर्षा (यूथ्या) स्वार्थे यत्। यूथानि। सजातीयसमुदायान् (स्वा) स्वकीयानि (सचा) समवायेन (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् मनुष्यः (श्मश्रूणि) अ० ।१९।१४। शीङ्, शयने-मनिन्, डित्+श्रिञ् सेवायाम्-डुन्। श्म शरीरम्…..श्मश्रु लोम श्मनि श्रितं भवति-निरु० ३।। शरीरे श्रितान्यङ्गानि यथा (हरिता) अ० २०।३०।३। स्वीकरणीयानि (अभि) सर्वतः (प्रुष्णुते) प्रुष स्नेहनसेचनपूरणेषु-लट्। सिञ्चति। वर्धयति (अव वेति) वी गत्यादिषु। अधिगच्छति। प्राप्नोति (सुक्षयम्) क्षि ऐश्वर्ये-अच्। बह्वैश्वर्ययुक्तम् (सुते) उत्पन्ने जगति (मधु) निश्चितं ज्ञानम्। मधुविद्याम् (उत्) उत्कृष्य (इत्) एव (धूनोति) कम्पयति पापानि (वातः) वायुः (यथा) (वनम्) वृक्षसमूहम् ॥
०६ यो वाचा
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यो वा॒चा विवा॑चो मृ॒ध्रवा॑चः पु॒रू स॒हस्राशि॑वा ज॒घान॑।
तत्त॒दिद॑स्य॒ पौंस्यं॑ गृणीमसि पि॒तेव॒ यस्तवि॑षीं वावृ॒धे शवः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यो वा॒चा विवा॑चो मृ॒ध्रवा॑चः पु॒रू स॒हस्राशि॑वा ज॒घान॑।
तत्त॒दिद॑स्य॒ पौंस्यं॑ गृणीमसि पि॒तेव॒ यस्तवि॑षीं वावृ॒धे शवः॑ ॥
०६ यो वाचा ...{Loading}...
Griffith
We laud and praise his several deeds of valour who, fatherlike,. with power hath made us stronger; Who with his voice slew many thousand wicked ones who spake in varied manner with contemptuous cries.
पदपाठः
यः। वा॒चा। विऽवा॑चः। मृ॒ध्रऽवा॑चः। पु॒रू। स॒हस्रा॑। अशि॑वा। ज॒घान॑। तत्ऽत॑त्। इत्। अ॒स्य॒। पौंस्य॑म्। गृ॒णी॒म॒सि॒। पि॒ताऽइ॑व। यः। तवि॑षीम्। व॒वृ॒धे। शवः॑। ७३.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसुक्रः
- अभिसारिणी
- सूक्त-७३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जिस [शूर] ने (वाचा) [अपनी सत्य] वाणी से (विवाचः) विरुद्ध बोलनेवाले, (मृध्रवाचः) हिंसक वाणी वाले के (पुरु) बहुत (सहस्रा) सहस्रों (अशिवा) क्रूर कर्मों को (जघान) नष्ट किया है और (यः) जिस [शूर] ने (पिता इव) पिता के समान (तविषीम्) हमारी शक्ति और (शवः) पराक्रम को (वावृधे) बढ़ाया है, (अस्य) उसके (तत्-तत्) उस-उस (इत्) ही (पौंस्यम्) मनुष्यपन [वा बल] की (गृणीमसि) हम बड़ाई करते हैं ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो वीर पुरुष दुराचारियों का नाश करके प्रजा को कष्ट से छुड़ाता है, प्रजागण उस गुणवान् पुरुष को ही मुखिया बनाकर प्रीति करते हैं ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(यः) वीरः (वाचा) सत्यवाण्या (विवाचः) विरुद्धवाणीयुक्तस्य (मृध्रवाचः) हिंसकवाणीयुक्तस्य (पुरु) बहूनि (सहस्रा) सहस्राणि (अशिवा) अभद्राणि। क्रूरकर्माणि (जघान) नाशितवान् (तत्-तत्) सुप्रसिद्धम् (इत्) एव (अस्य) शूरस्य (पौंस्यम्) अ० २०।६७।२। पुंसः कर्म। बलम् (गृणीमसि) वयं स्तुमः (पिता) (इव) (यः) शूरः (तविषीम्) अ० २०।९।२। शक्तिम् (वावृधे) वर्धितवान् (शवः) बलम् ॥