०७०

०७० ...{Loading}...

Griffith

???

०१ वीडु चिदारुजत्नुभिर्गुहा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

वी॒डु चि॑दारुज॒त्नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः।
अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑ ॥

०१ वीडु चिदारुजत्नुभिर्गुहा ...{Loading}...

Griffith

Thou, Indra, with the Tempest-Gods, the breakers down of what is firm, Foundest the kine even in the cave.

पदपाठः

वीलु। चि॒त्। आ॒रु॒ज॒त्नुऽभिः॑। गुहा॑। चि॒त्। इ॒न्द्र॒। वह्नि॑भिः। अवि॑न्दः। उ॒स्रियाः॑। अनु॑। ७०.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी मनुष्य] (गुहा) गुहा [गुप्त स्थान] में (चित्) भी [शत्रुओं के] (वीडु) दृढ़ गढ़ को, (आरुजत्नुभिः) तोड़ डालनेवाले (वह्निभिः) अग्नियों [आग्नेय शस्त्रों] से (चित्) निश्चय करके (उस्रियाः अनु) निवास करनेवाली प्रजाओं के पीछे (अविन्दः) तूने पाया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रतापी वीर मनुष्य आग्नेय शस्त्र, बाण, तोप, भुषुण्डी आदि से गुप्त स्थानों में छिपे वैरियों को नष्ट करके प्रजा की रक्षा करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १-६ ऋग्वेद में है-१।६।-१०, मन्त्र १ सामवेद-उ० २।२।७ ॥ १−(वीडु) वीडयतिः संस्तम्भकर्मा-निरु० ।१७। भृमृशीङ्तॄ०। उ० १।७। उप्रत्ययः। वीडु बलनाम-निघ० २।९। दृढस्थानम्। दुर्गम् (चित्) अपि (आरुजत्नुभिः) कृहनिभ्यां क्त्नुः। उ० ३।३०। आङ्+रुजो भङ्गे-क्त्नु प्रत्ययः अकारसहितः। समन्ताद् भञ्जद्भिः। सम्यग्भञ्जनशीलैः (गुहा) गुहायाम्। गुप्तस्थाने (चित्) निश्चयेन (इन्द्र) महाप्रतापिन् मनुष्य (वह्निभिः) वहिश्रिश्रु०। उ० ४।१। वह प्रापणे-नि। वोढृभिः। नेतृभिः पुरुषैः (अविन्दः) विद्लृ लाभे-लङ्। लब्धवानसि (उस्रियाः) अथ० २०।१६।७। निवासशीलाः प्रजाः (अनु) अनुलक्ष्य ॥

०२ देवयन्तो यथा

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दे॑व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑।
म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम् ॥

०२ देवयन्तो यथा ...{Loading}...

Griffith

Worshipping even as they list, singers laud him who findeth wealth, The far-renowned, the mighty One.

पदपाठः

दे॒व॒ऽयन्तः॑। यथा॑। म॒तिम्। अच्छ॑। वि॒दत्ऽव॑सुम्। गिरः॑। म॒हाम्। अ॒नू॒ष॒त॒। श्रु॒तम्। ७०.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवयन्तः) विजय चाहनेवाले (गिरः) विद्वान् लोगों ने (यथा) जैसे (विदद्वसुम्) धनों के प्रसिद्ध करनेवाले (मतिम्) बुद्धिमान् की, [वैसे ही] (महाम्) महान् और (श्रुतम्) विख्यात पुरुष की (अच्छ) अच्छे प्रकार (अनूषत) स्तुति की है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विजयी विद्वान् लोग अनुभवी प्रसिद्ध पुरुषों से उत्तम गुण ग्रहण करते रहें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(देवयन्तः) दिवु विजिगीषायाम्, चुरादिः-शतृ। यद्वा देव-क्यच्, शतृ। विजिगीषमाणाः। विजयमिच्छन्तः (यथा) येन प्रकारेण (मतिम्) क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। मन ज्ञाने क्तिच्। मतयो मेधाविनाम निघ० ३।१। मेधाविनम् (अच्छ) उत्तमरीत्या (विदद्वसुम्) विद ज्ञाने-शतृ। विदन्ति जानन्ति वसूनि धनानि यस्मात् तम् (गिरः) गॄ विज्ञापे स्तुतौ च-क्विप्। विद्वांसः (महाम्) नकारतकारलोपः। महान्तम् (अनूषत) अथ० २०।१७।१। स्तुतवन्तः (श्रुतम्) विख्यातम् ॥

०३ इन्द्रेण सम्

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इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा।
म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा ॥

०३ इन्द्रेण सम् ...{Loading}...

Griffith

Then, faring on by Indra’s side, the fearless, let thyself be seen,. Both gracious and in splendour peers.

पदपाठः

इन्द्रे॑ण। सम्। हि। दृक्ष॑से। स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः। अबि॑भ्युषा। म॒न्दू इति॑। स॒मा॒नऽव॑र्चसा। ७०.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मरुद्गणः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजागण !] (अबिभ्युषा) निडर (इन्द्रेण) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] के साथ (हि) ही (संजग्मानः) मिलता हुआ तू (सम्) अच्छे प्रकार (दृक्षसे) दिखाई देता है। (समानवर्चसा) एक से तेज के साथ (मन्दू) तुम दोनों [राजा और प्रजा] आनन्द देनेवाले हो ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस राज्य में प्रजागण राजा से और राजा प्रजा से प्रसन्न रहते हैं, वही राज्य विद्या और धन में उन्नति करता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ३, ४ आचुके हैं-अथ० २०।४०।१, २ ॥ ३, ४-मन्त्रौ व्याख्यातौ अथ० २०।४०।१०२ ॥

०४ अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति

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अ॑नव॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति।
ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॑ ॥

०४ अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति ...{Loading}...

Griffith

With Indra’s well-beloved hosts, the blameless, tending heaven- ward, The sacrificer cries aloud.

पदपाठः

अ॒न॒व॒द्यैः। अ॒भिद्यु॑ऽभिरः। म॒खः। सह॑स्वत्। अ॒र्च॒ति॒। ग॒णैः। इन्द्र॑स्य। काम्यैः॑। ७०.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मरुद्गणः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अनवद्यैः) निर्दोष, (अभिद्युभिः) सब ओर से प्रकाशमान और (काम्यैः) प्रीति के योग्य (गणैः) गणों [प्रजागणों] के साथ (इन्द्रस्य) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] का (मखः) यज्ञ [राज्य व्यवहार] (सहस्वत्) अति दृढ़ता से (अर्चति) सत्कार पाता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब राज-काज उत्तम विद्वान् लोगों के मेल से अच्छे प्रकार सिद्ध होते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३, ४-मन्त्रौ व्याख्यातौ अथ० २०।४०।१०२ ॥

०५ अतः परिज्मन्ना

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अतः॑ परिज्म॒न्ना ग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑।
सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिरः॑ ॥

०५ अतः परिज्मन्ना ...{Loading}...

Griffith

Come from this place, O wanderer, or downward from the light of heaven! Our songs of praise all yearn for this.

पदपाठः

अतः॑। प॒रि॒ऽज्म॒न्। आ। ग॒हि॒। दि॒वः। वा॒। रो॒च॒नात्। अधि॑। सम्। अ॒स्मि॒न्। ऋ॒ञ्ज॒ते॒। गिरः॑। ७०.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मरुद्गणः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अतः) इसलिये, (परिज्मन्) हे सर्वत्र गतिवाले शूर ! (दिवः) विजय की इच्छा से (वा) और (रोचनात्) प्रीति भाव से (अधि) ऊपर (आ गहि) आ, (अस्मिन्) इस [वचन] में (गिरः) हमारी स्तुतियाँ (सम्) ठीक-ठीक (ऋञ्जते) सिद्ध होती हैं ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पूर्वोक्त प्रकार से आवश्यकता जताकर श्रेष्ठ प्रजागण धीर-वीर पुरुष को उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(अतः) अस्मात् पूर्वोक्तात् कारणात् (परिज्मन्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। परि+अज गतिक्षेपणयोः-मनिन्, अकारलोपः। हे सर्वतो गतिशील (आ गहि) आगच्छ (दिवः) दिवु विजिगीषायाम्-क्विप्। विजयेच्छायाः सकाशात् (वा) चार्थे (रोचनात्) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च युच्। प्रीतिभावात् (अधि) उपरि (सम्) सम्यक् (अस्मिन्) वचसि (ऋञ्जते) ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा-निरु० ६।२१। प्रकर्षेण सिध्यन्ति (गिरः) स्तुतयः-निरु० १।१० ॥

०६ इतो वा

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इ॒तो वा॑ सा॒तिमीम॑हे दि॒वो वा॒ पार्थि॑वा॒दधि॑।
इन्द्रं॑ म॒हो वा॒ रज॑सः ॥

०६ इतो वा ...{Loading}...

Griffith

Or Indra we implore for help from here, from heaven above the earth, Or from the spacious firmament.

पदपाठः

इ॒तः। वा॒। सा॒तिम्। ईम॑हे। दि॒वः। वा॒। पार्थि॑वात्। अधि॑। म॒हः। वा॒। रज॑सः। ७०.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इतः) इसलिये (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े प्रतापी मनुष्य] के द्वारा (दिवः) प्रकाश से (वा) और (पार्थिवात्) पृथिवी के संयोग से (वा) और (महः) बड़े (रजसः) जल [अथवा वायुमण्डल] से (वा) निश्चय करके (सातिम्) दान [उपकार] को (अधि) अधिकारपूर्वक (ईमहे) हम माँगते हैं ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि पूर्वोक्त प्रकार से विचारपूर्वक बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा विद्या ग्रहण करके संसार के सब अग्नि आदि पदार्थों से उपकार लेकर उन्नति करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(इतः) अस्मात् पूर्वोक्तात् कारणात् (वा) च (सातिम्) ऊतियूतिजूतिसातिहेति० पा० ३।३।९७। षणु दाने-क्तिन्। दानम्। उपकारम् (ईमहे) ईङ् गतौ शपो लुकि श्यनभावः। याचामहे-निघ० ३।१९। (दिवः) प्रकाशात् (वा) च (पार्थिवात्) सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणञौ। पा० ।१।४१। पृथिवी-अञ् प्रत्ययः संयोगविषये। पृथिवीसंयोगात् (अधि) अधिकारपूर्वकम् (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं मनुष्यम् (महः) महतः (वा) अवधारणे (रजसः) उदकं रज उच्यते-निरु० ४।१९। जलात्। अन्तरिक्षात्। वायुमण्डलात् ॥

०७ इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः

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इन्द्र॒मिद्गा॒थिनो॑ बृ॒हदिन्द्र॑म॒र्केभि॑र॒र्किणः॑।
इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषत ॥

०७ इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः ...{Loading}...

Griffith

Indra the singers with high praise, Indra reciters with their lauds, Indra the choirs have glorified.

पदपाठः

इन्द्र॑म्। इत्। गा॒थिनः॑। बृ॒हत्। इन्द्र॑म्। अ॒र्केभिः॑। अ॒र्किणः॑। इन्द्र॑म्। वाणीः॑। अ॒नू॒ष॒त॒। ७०.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (गाथिनः) गानेवालों और (अर्किणः) विचार करनेवालों ने (अर्केभिः) पूजनीय विचारों से (इन्द्रम्) सूर्य [के समान प्रतापी], (इन्द्रम्) वायु [के समान फुरतीले] (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को और (वाणीः) वाणियों [वेदवचनों] को (इत्) निश्चय करके (बृहत्) बड़े ढंग से (अनूषत) सराहा है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य सुनीतिज्ञ प्रतापी, उद्योगी राजा के और परमेश्वर की दी हुई वेदवाणी के गुणों को विचारकर सबके सुख के लिये यथावत् उपाय करें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ७-९ आचुके हैं-अथ० २०।३८।४-६ तथा ४७।४-६ ॥ ७-९−एते मन्त्रा आगताः-अथ० २०।३८।४-६ तथा ४७।४-६ ॥

०८ इन्द्र इद्धर्योः

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इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमिश्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑।
इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑ ॥

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Griffith

Indra hath ever close to him his two bay steeds and word-yoked car, Indra the golden, Thunder-armed.

पदपाठः

इन्द्रः॑। इत्। हर्योः॑। सचा॑। सम्ऽमि॑श्लः। आ। व॒चः॒। युजा॑। इन्द्रः॑। व॒ज्री। हि॒र॒ण्ययः॑। ७.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्री) वज्रधारी, (हिरण्ययः) तेजोमय (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (इत्) ही (इन्द्रः) वायु [के समान] (सचा) नित्य मिले हुए (हर्योः) दोनों संयोग-वियोग गुणों का (संमिश्लः) यथावत् मिलानेवाला (आ) और (वचोयुजा) वचन का योग्य बनानेवाला है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे पवन के आने-जाने से पदार्थों में चलने, फिरने, ठहरने का और जीभ में बोलने का सामर्थ्य होता है, वैसे ही दण्डदाता प्रतापी राजा के न्याय से सब लोगों में शुभ गुणों का संयोग और दोषों का वियोग होकर वाणी में सत्यता होती है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७-९−एते मन्त्रा आगताः-अथ० २०।३८।४-६ तथा ४७।४-६ ॥

०९ इन्द्रो दीर्घाय

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इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद्दि॒वि।
वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत् ॥

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Griffith

Indra hath raisedjthe Sun on high in heaven, that he may see afar: He burst the mountain for the kine.

पदपाठः

इन्द्रः॑। दी॒र्घाय॑। चक्ष॑से। आ। सूर्य॑म्। रो॒ह॒य॒त्। दि॒वि। वि। गोभिः॑। अद्रि॑म्। ऐ॒र॒य॒त्। ७०.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (दीर्घाय) दूर तक (चक्षसे) देखने के लिये (दिवि) व्यवहार [वा आकाश] के बीच (गोभिः) वेदवाणियों द्वारा [वा किरणों वा जलों द्वारा] (सूर्यम्) सूर्य [के समान प्रेरक] और (अद्रिम्) मेघ [के समान उपकारी पुरुष] को (आ रोहयत्) ऊँचा किया और (वि) विविध प्रकार (ऐरयत्) चलाया है ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे परमेश्वर के नियम से सूर्य आकाश में चलकर तापि आदि गुणों से अनेक लोकों को धारण करता और किरणों द्वारा जल खींचकर फिर बरसाकर उपकार करता है, वैसे ही दूरदर्शी राजा अपने प्रताप और उत्तम व्यवहारों से सब प्रजा को नियम में रक्खे और कर लेकर उनका प्रतिपालन करे ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७-९−एते मन्त्रा आगताः-अथ० २०।३८।४-६ तथा ४७।४-६ ॥

१० इन्द्र वाजेषु

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इन्द्र॒ वाजे॑षु नोऽव स॒हस्र॑प्रधनेषु च।
उ॒ग्र उ॒ग्राभि॑रू॒तिभिः॑ ॥

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Griffith

Help us, O Indra, in the frays, yea, frays where thousand spoils are gained, With awful aids, O awful One.

पदपाठः

इन्द्रः॑। वाजे॑षु। नः॒। अ॒व॒। स॒हस्र॑ऽप्रधनेषु। च॒। उ॒ग्रः। उ॒ग्राभिः॑। ऊ॒तिऽभिः॑। ७०.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले परमात्मा] (उग्रः) उग्र [प्रचण्ड] तू (वाजेषु) पराक्रमों के बीच (च) और (सहस्रप्रधनेषु) सहस्रों बड़े धनवाले व्यवहारों में (उग्राभिः) उग्र [दृढ़] (ऊतिभिः) रक्षासाधनों के साथ (नः) हमें (अव) बचा ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा की प्रार्थना करके वीर पुरुष पराक्रमी और धनी होकर प्रजा का पालन करें ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १०-१६ ऋग्वेद में है-१।७।४-१०, म० १० सामवेद-पू० ६।११।४ तथा-उ० २।१।८ ॥ १०−(इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (वाजेषु) पराक्रमेषु (नः) अस्मान् (अव) रक्ष (सहस्रप्रधनेषु) असंख्यप्रकृष्टधनयुक्तेषु व्यवहारेषु (च) समुच्चये (उग्रः) प्रचण्डः (उग्राभिः) प्रचण्डाभिः। दृढाभिः (ऊतिभिः) रक्षासाधनैः ॥

११ इन्द्रं वयम्

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इन्द्रं॑ व॒यं म॑हाध॒न इन्द्र॒मर्भे॑ हवामहे।
युजं॑ वृ॒त्रेषु॑ व॒ज्रिण॑म् ॥

११ इन्द्रं वयम् ...{Loading}...

Griffith

In mighty battle we invoke, Indra, Indra in lesser fight, The friend who bends his bolt at fiends.

पदपाठः

इन्द्र॑म्। व॒यम्। म॒हा॒ऽध॒ने। इन्द्र॑म्। अर्भे॑। ह॒वा॒म॒हे॒। युज॑म्। वृ॒त्रेषु॑। व॒ज्रि॒ण॑म्। ७०.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) हम (अर्भे) चलते हुए (महाधने) बहुत धन प्राप्त करानेवाले संग्राम में [अथवा बहुत धन में] (युजम्) सहायकारी और (वृत्रेषु) रोकनेवाले शत्रुओं पर (वज्रिणम्) वज्रधारी (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] को, (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] को (हवामहे) बुलाते हैं ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - युद्धों में तथा बहुत धन में वीर पुरुष−“हे इन्द्र जगदीश्वर ! हे इन्द्र जगदीश्वर− ऐसा स्मरण करके अपना बल बढ़ावें और प्रयत्न करके शत्रुओं को हटावें ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र सामवेद में भी है-पू० २।४।६ ॥ ११−(इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं जगदीश्वरम् (वयम्) (महाधने) महाधने संग्रामनाम-निघ० २।१७। प्रभूतधननिमित्ते संग्रामे। यद्वा, महच्च तद् धनं च। प्रभूते धने (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं जगदीश्वरम् (अर्भे) अर्त्तिगॄभ्यां भन्। उ० ३।१२। ऋ गतौ-भन्। गतिशीले (हवामहे) आह्वयामहे (युजम्) युजिर् योगे, युज समाधौ च-क्विप्। सहायकम् (वृत्रेषु) आवरकेषु शत्रुषु (वज्रिणम्) दण्डधारिणम् ॥

१२ स नो

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स नो॑ वृषन्न॒मुं च॒रुं सत्रा॑दाव॒न्नपा॑ वृधि।
अ॒स्मभ्य॒मप्र॑तिष्कुतः ॥

१२ स नो ...{Loading}...

Griffith

Unclose, our manly Hero, thou for ever bounteous, yonder cloud, For us, thou irresistible.

पदपाठः

सः। नः॒। वष॒न्। अ॒मुम्। च॒रुम्। सत्रा॑ऽदावन्। अप॑। वृ॒धि॒। अ॒स्मभ्य॑म्। अप्र॑तिऽस्कुतः। ७०.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषन्) हे सुख बरसानेवाले ! (सत्रादावन्) हे सत्य ज्ञान देनेवाले परमेश्वर ! (अप्रतिष्कुतः) बे-रोक गतिवाला (सः) सो तू (नः) हमारे लिये, (अस्मभ्यम्) हमार लिये (अमुम्) उस (चरुम्) मेघ के समान ज्ञान को (अप वृधि) खोल दे ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य ईश्वर से मेघसमान उपकारी सत्यज्ञान को प्राप्त करके सुखी होवे ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र सामवेद में है-उ० ८।१।२ ॥ १२−(सः) परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (वृषन्) हे सुखवर्षक (अमुम्) प्रसिद्धम् (चरुम्) भृमृशीङ्तॄचरि०। उ० १।७। चर गतिभक्षणयोः-उप्रत्ययः। चरुर्मेघनाम निघ० १।१०। मेघमिवोपकारकं ज्ञानम् (सत्रादावन्) सत्रा सत्यनाम-निघ० ३।१०। अतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७२। ददातेर्वनिप्। हे सत्यज्ञानस्य दातः (अप वृधि) वृञ् आच्छादने-लोट्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७३। श्नोर्लुक्, श्रुशॄणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि। पा० ९।४।१०२। इति हेर्धिः। उत्पाटय। उद्घाटय (अस्मभ्यम्) (अप्रतिष्कुतः) अथ० २०।४१।१। अप्रतिगतः ॥

१३ तुञ्जेतुञ्जे य

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तु॒ञ्जेतु॑ञ्जे॒ य उत्त॑रे॒ स्तोमा॒ इन्द्र॑स्य व॒ज्रिणः॑।
न वि॑न्धे अस्य सुष्टु॒तिम् ॥

१३ तुञ्जेतुञ्जे य ...{Loading}...

Griffith

Still higher, at each strain of mine, thunder-armed Indra’s, praises rise: I find no laud worthy of him.

पदपाठः

तञ्जेऽतु॑ञ्जे। ये। उत्ऽत॑रे। स्तोमाः॑। इन्द्र॑स्य। व॒ज्रिणः॑। न। व‍ि॒न्धे॒। अ॒स्य॒। सु॒ऽस्तु॒तिम्‌। ७०.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिणः) अत्यन्त पराक्रमवाले (इन्द्रस्य) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] के (तुञ्जे तुञ्जे) दान-दान में (ये) जो (उत्तरे) उत्तम-उत्तम (स्तोमाः) स्तोत्र हैं, [उन से] उसकी (सुष्टुतिम्) सुन्दर स्तुति (न विन्धे) मैं नहीं पाता हूँ ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा ने प्राणियों के सुख के लिये अनन्त पदार्थ दिये हैं, अल्पज्ञ मनुष्य उनकी गणना करके उसकी स्तुति नहीं कर सकता ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(तुञ्जे तुञ्जे) तुजि हिसायां पालने च-भावे घञ्। तुजस्तुञ्जतेर्दानकर्मणः-निरु० ६।१७। दाने दाने-निरु० ६।१८। (ये) (उत्तरे) उत्कृष्टाः (स्तोमाः) स्तोत्राणि (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो जगदीश्वरस्य (वज्रिणः) वीर्यवतः। प्रशस्तपराक्रमिणः (न) निषेधे (विन्धे) विद्लृ लाभे-लट्, दकारस्य धकारः। विन्दे। विन्दामि। प्राप्नोमि (अस्य) परमेश्वरस्य (सुष्टुतिम्) शोभनां स्तुतिम् ॥

१४ वृषा यूथेव

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वृषा॑ यू॒थेव॒ वंस॑गः कृ॒ष्टीरि॑य॒र्त्योज॑सा।
ईशा॑नो॒ अप्र॑तिष्कुतः ॥

१४ वृषा यूथेव ...{Loading}...

Griffith

Even as the bull drives on the herds, he drives the people with his might, The ruler irresistible:

पदपाठः

वृषा॑। यू॒थाऽइ॑व। वंस॑गः। कृ॒ष्टीः। इ॒य॒र्ति॒। ओज॑सा। ईशा॑नः। अप्र॑त‍िऽस्फुतः। ७०.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषा) बलवान् बैल (यूथा इव) जैसे अपने झुण्डों को, [वैसे ही] (वंसगः) सेवनीय पदार्थों का पहुँचानेवाला, (अप्रतिष्कुतः) बे-रोक गतिवाला (ईशानः) परमेश्वर (ओजसा) अपने बल से (कृष्टीः) मनुष्यों को (इयर्ति) प्राप्त होता है ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे बलवान् बैल अपने झुण्ड को वश में रखता है, वैसे ही परमात्मा सबमें व्यापकर मनुष्य आदि प्राणियों को अपने नियम में रखता है ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र सामवेद में भी है-उ० ८।१।२ ॥ १४−(वृषा) वीर्यवान् बलीवर्दः (यूथा) तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। यु मिश्रणामिश्रणयोः-थक्। सजातीयसमुदायान् (इव) यथा (वंसगः) अ० १८।३।३६। सेवनीयपदार्थानां प्रापयिता (कृष्टीः) अ० ३।२४।३। मनुष्यान्-निघ० २।३। (इयर्ति) ऋ गतौ-लट् शपः श्लुः। प्राप्नोति (ओजसा) बलेन (ईशानः) ईश ऐश्वर्ये-शानच्। परमेश्वरः (अप्रतिष्कुतः) म० १२। अप्रतिगतः ॥

१५ य एकश्चर्षणीनाम्

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य एक॑श्चर्षणी॒नां वसू॑नामिर॒ज्यति॑।
इन्द्रः॒ पञ्च॑ क्षिती॒नाम् ॥

१५ य एकश्चर्षणीनाम् ...{Loading}...

Griffith

Indra who rules with single sway men, riches, and the fivefold race. Of those who dwell upon the earth.

पदपाठः

यः। एकः॑। च॒र्ष॒णी॒नाम्। वसू॑नाम्। इ॒र॒ज्यति॑। इन्द्रः॑। पञ्च॑। क्षि॒ती॒नाम्। ७०.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (एकः) अकेला (चर्षणीनाम्) चलनेवाले मनुष्यों और (वसूनाम्) श्रेष्ठ गुणों का (इरज्यति) स्वामी है, (इन्द्रः) वही इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश] से सम्बन्धवाले (क्षितीनाम्) चलते हुए लोकों का [स्वामी है] ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा सब प्राणियों, सब श्रेष्ठ गुणों और सब लोकों का स्वामी है, मनुष्य उसकी भक्ति से अपना सामर्थ्य बढ़ावे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(यः) परमेश्वरः (एकः) अद्वितीयः (चर्षणीनाम्) अ० १।।४। चरणशीलानां मनुष्याणाम्-निघ० २।३। (वसूनाम्) श्रेष्ठगुणानाम् (इरज्यति) इरज इर्ष्यायाम्, कण्वादिः। इरज्यतिरैश्वर्यकर्मा-निघ० २।२१। ईष्टे (इन्द्रः) स परमेश्वरः (पञ्च) सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१७। पचि व्यक्तीकरणे-कनिन्। पृथिवीजलतेजोवाय्वाकाशपञ्चभूतसम्बद्धानाम् (क्षितीनाम्) क्षि निवासगत्योः-क्तिन्। क्षितिः पृथिवीनाम-निघ० १।१। गतिशीलानां लोकानाम् ॥

१६ इन्द्रं वो

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इन्द्रं॑ वो वि॒श्वत॒स्परि॒ हवा॑महे॒ जने॑भ्यः।
अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः ॥

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Griffith

For your sake from each side we call Indra away from other men: Ours, and none others’, may he be.

पदपाठः

इन्द्र॑म्। वः॒। वि॒श्वतः॑। परि॑। हवा॑महे। जने॑भ्यः। अ॒स्माक॑म्। अ॒स्तु॒। केव॑लः। ७०.१६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवान् परमात्मा] को (वः) तुम्हारे लिये और (विश्वतः) सब (जनेभ्यः) प्राणियों के लिये (परि) सब प्रकार (हवामहे) हम बुलाते हैं। वह (अस्माकम्) हमारा (केवलः) सेवनीय (अस्तु) होवे ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य सर्वहितकारी जगदीश्वर की आज्ञा में रहकर आनन्द पावें ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र आचुका है-अ० २०।३९।१ ॥ १६−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० २०।३९।१ ॥

१७ एन्द्र सानसिम्

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एन्द्र॑ सान॒सिं र॒यिं स॒जित्वा॑नं सदा॒सह॑म्।
वर्षि॑ष्ठमू॒तये॑ भर ॥

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Griffith

Indra, bring wealth that gives delight, the victor’s ever-conquer- ing wealth, Most excellent, to be our aid;

पदपाठः

आ। इ॒न्द्र॒। सा॒न॒सिम्। र॒यिम्। स॒ऽजित्वा॑नम्। स॒दा॒सऽह॑म्। वर्षि॑ष्ठम्। ऊ॒तये॑। भ॒र॒। ७०.१७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] (सानसिम्) सेवनीय, (सजित्वानम्) जीतनेवालों के साथ वर्तमान, (सदासहम्) सदा वैरियों के हरानेवाले, (वर्षिष्ठम्) अत्यन्त बढ़े हुए (रयिम्) उस धन को (ऊतये) हमारी रक्षा के लिये (आ) सब ओर से (भर) भर ॥१७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य परमेश्वर का आश्रय लेकर पुरुषार्थ के साथ विद्याओं द्वारा धन बढ़ावें और शरीर और बुद्धिबल तथा अश्व आदि सेना को दृढ़ करके शत्रुओं को जीतें ॥१७, १८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १७-२० ऋग्वेद में है-१।८।१-४ मन्त्र १७ साम०-पू० २।४। ॥ १७−(आ) समन्तात् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (सानसिम्) अ० २०।१४।२। षण संभक्तौ-असिप्रत्ययः। सेवनीयम् (रयिम्) धनम् (सजित्वानम्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। जि जये-क्वनिप्, सहस्य सभावः। जित्वभिर्जेतृभिः सह वर्तमानम् (सदासहम्) सर्वदा शत्रूणामभिभवितारम् (वर्षिष्ठम्) अ० ४।९।८। वृद्ध-इष्ठन्। अतिशयेन वृद्धम् (ऊतये) रक्षायै (भर) धर ॥

१८ नि येन

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नि येन॑ मुष्टिह॒त्यया॒ नि वृ॒त्रा रु॒णधा॑महै।
त्वोता॑सो॒ न्यर्व॑ता ॥

१८ नि येन ...{Loading}...

Griffith

By means of which we may repel our foes in battle hand to hand. By thee assisted with the car.

पदपाठः

नि। येन॑। मु॒ष्टि॒ऽह॒त्यया॑। नि। वृ॒त्रा। रु॒णधा॑महै। त्वाऽऊ॑तासः। नि। अर्व॑ता। ७०.१८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस [धन] के द्वारा (मुष्टिहत्यया) मुट्ठियों की मार [बाहुयुद्ध] से और (अर्वता) घुडचढ़े दल से (वृत्रा) शत्रुओं को (त्वोतासः) तुझसे रक्षा किये गये हम (नि) निश्चय करके (नि) नित्य (नि रुणधामहै) रोकते रहें ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य परमेश्वर का आश्रय लेकर पुरुषार्थ के साथ विद्याओं द्वारा धन बढ़ावें और शरीर और बुद्धिबल तथा अश्व आदि सेना को दृढ़ करके शत्रुओं को जीतें ॥१७, १८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १७-२० ऋग्वेद में है-१।८।१-४ मन्त्र १७ साम०-पू० २।४। ॥ १८−(नि) निश्चयेन (येन) धनेन (मुष्टिहत्यया) हनस्त च। पा० ३।१।१०८। मुष्टि+हन हिंसागत्योः-क्यप्। मुष्टिप्रहारेण। बाहुयुद्धेन (नि) नितराम् (वृत्रा) शत्रून् (रुणधामहै) निरुणधाम। निरुद्धान् करवाम (त्वोतासः) त्वया ऊता रक्षिताः (नि) निश्चयेन (अर्वता) अश्वदलेन ॥

१९ इन्द्र त्वोतास

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इन्द्र॒ त्वोता॑स॒ आ व॒यं वज्रं॑ घ॒ना द॑दीमहि।
जये॑म॒ सं यु॒धि स्पृधः॑ ॥

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Griffith

Aided by thee, the Thunder-armed, Indra; may we lit up the bolt, And conquer all our foes in fight.

पदपाठः

इन्द्र॑। त्वाऽऊ॑तासः। आ। व॒यम्। वज्र॑म्। घ॒ना। द॒दी॒म॒हि॒। जये॑म। सम्। यु॒धि। स्पृधः॑। ७०.१९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
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  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (त्वोतासः) तुझसे रक्षा किये गये (वयम्) हम (वज्रम्) वज्र [बिजुली और अग्नि के शस्त्रों] और (घना) घनों [मारने के तलवार आदि हथियारों] को (आ ददीमहि) ग्रहण करें और (युधि) युद्ध में (स्पृधः) ललकारते हुए शत्रुओं को (सम्) ठीक-ठीक (जयेम) जीतें ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य परमात्मा की शरण में रहकर वीर सेना और पुष्कल युद्धसामग्री लेकर शत्रुओं को हरावें ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १९−(इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (त्वोतासः) त्वया रक्षिताः (वयम्) धार्मिकाः (वज्रम्) विद्युदग्निशस्त्रास्त्रसमूहम् (घना) दृढानि युद्धसाधनानि लौहमुद्गरखङ्गादीनि (आ ददीमहि) गृह्णीयाम (जयेम) अभिभवेम (सम्) सम्यक् (युधि) युद्धे (स्पृधः) स्पर्ध संघर्षे-क्विप्। बहुलं छन्दसि। पा० ६।१।३४। रेफस्य सम्प्रसारणमल्लोपश्च। स्पर्धमानान्। युद्धाय शब्दमानान् शत्रून् ॥

२० वयं शूरेभिरस्तृभिरिन्द्र

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व॒यं शूरे॑भि॒रस्तृ॑भि॒रिन्द्र॒ त्वया॑ यु॒जा व॒यम्।
सा॑स॒ह्याम॑ पृतन्य॒तः ॥

२० वयं शूरेभिरस्तृभिरिन्द्र ...{Loading}...

Griffith

With thee, O Indra, for ally, with missile-darting heroes may We conquer our embattled foes.

पदपाठः

व॒यम्। शूरे॑भिः। अस्तृ॑ऽभिः। इन्द्र॑। त्वया॑। यु॒जा। व॒यम्। स॒स॒ह्याम॑। पृ॒त॒न्य॒तः। ७०.२०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-७०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] (वयम्) हम, (वयम्) हम (युजा त्वया) तुझ सहायक के साथ (अस्तृभिः) हथियार चलानेवाले (शूरेभिः) शूरों के द्वारा (पृतन्यतः) सेना चढ़ानेवाले वैरियों को (सासह्याम) हरा दें ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर में दृढ़ विश्वास करके धर्मयुद्ध में युद्धकुशल शूरों द्वारा वैरियों को जीतकर प्रजापालन करें ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २०−(वयम्) सेनापतयः (शूरेभिः) शूरैः। वीरैः (अस्तृभिः) शस्त्रास्त्रप्रक्षेपणदक्षैः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (त्वया) (युजा) सामर्थ्यसंयोजकेन। सहायकेन (वयम्) वीप्सायां द्विर्वचनम् (सासह्याम) षह मर्षणे यङ्लुकि लिङि रूपम्। पुनः पुनः सहेमहि जयेम (पृतन्यतः) अ० १।२१।२। आत्मनः पृतनां सेनामिच्छतः शत्रून् ॥