०६९ ...{Loading}...
Griffith
???
०१ स घा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स घा॑ नो॒ योग॒ आ भु॑व॒त्स रा॒ये स पुरं॑ध्याम्।
गम॒द्वाजे॑भि॒रा स नः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स घा॑ नो॒ योग॒ आ भु॑व॒त्स रा॒ये स पुरं॑ध्याम्।
गम॒द्वाजे॑भि॒रा स नः॑ ॥
०१ स घा ...{Loading}...
Griffith
May he stand by us in our need and in abundance for our wealth: With riches may he come to us;
पदपाठः
सः। घ॒। नः॒। योगे॑। आ। भु॒व॒त्। सः। रा॒ये। सः। पुर॑म्ऽध्याम्। गम॑त्। वाजे॑भिः। आ। सः। नः॒। ६९.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सः घ) [वही परमात्मा वा पुरुषार्थी मनुष्य] (नः) हमारे (योगे) मेल में, (सः सः) वही (राये) हमारे धन के लिये (पुरन्ध्याम्) नगरों के धारण करनेवाली बुद्धि में (आ) सब प्रकार (भुवत्) होवे। (सः) वही (वाजेभिः) अन्नों वा बलों के साथ (नः) हमको (आ गमत्) सब प्रकार प्राप्त होवे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमात्मा की उपासना से और आप्त पुरुषार्थी विद्वानों के सत्सङ्ग से बुद्धि को उत्तम बनाकर बल और धन की वृद्धि कर ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १-८ ऋग्वेद में हैं-१।।३-१०, मन्त्र १ सामवेद-उ० १।२।१० ॥ १−(सः) इन्द्रः परमेश्वरः पुरुषार्थी मनुष्यो वा (घ) एव (नः) अस्माकम् (योगे) संयोगे (आ) समन्तात् (भुवत्) आशिषि लिङि छान्दसं रूपम्। भूयात् (सः) (राये) धनलाभाय (सः) (पुरन्ध्याम्) अ० १९।१०।२। पुरां नगराणां धारिका बुद्धिः (गमत्) गमेर्लेटि शपो लुक्, अडागमः, यद्वा लिडर्थे लुङ् अडभावः। गच्छेत् प्राप्नुयात् (वाजेभिः) अन्नैर्बलैर्वा सह (आ) सर्वतः (सः) (नः) अस्मान् ॥१॥
०२ यस्य संस्थे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः।
तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः।
तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत ॥
०२ यस्य संस्थे ...{Loading}...
Griffith
Whose pair of tawny horses yoked in battles foemen challenge not: To him, to Indra, sing your song.
पदपाठः
यस्य॑। स॒म्ऽस्थे। न। वृ॒ण्वते॑। हरी॒ इति॑। स॒मत्ऽसु॑। शत्र॑वः। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। गा॒य॒त॒। ६९.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (संस्थे) संस्था [न्यायव्यवस्था] में (यस्य) जिस [वीर] के (हरी) पदार्थों के पहुँचानेवाले बल और पराक्रम को (समत्सु) संग्रामों के बीच (शत्रवः) वैरी लोग (न) नहीं (वृण्वते) ढकते हैं, (तस्मै) उस (इन्द्राय) इन्द्र [महाप्रतापी मनुष्य] के लिये (गायत) तुम गान करो ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो पुरुष न्यायकारी, दृढ़स्वभाव, पराक्रमी होवे, उसके गुणों को सब लोग ग्रहण करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(यस्य) पुरुषस्य (संस्थे) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।१।१३६। सम्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क। संस्थायाम्। न्यायपथव्यवस्थायाम् (न) निषेधे (वृणुते) आच्छादयन्ति (हरी) पदार्थानां हरणशीलौ बलपराक्रमौ (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (शत्रवः) अमित्राः (तस्मै) तादृशाय (इन्द्राय) महाप्रतापिने मनुष्याय (गायत) गानं कुरुत ॥
०३ सुतपाव्ने सुता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सु॑त॒पाव्ने॑ सु॒ता इ॒मे शुच॑यो यन्ति वी॒तये॑।
सोमा॑सो॒ दध्या॑शिरः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सु॑त॒पाव्ने॑ सु॒ता इ॒मे शुच॑यो यन्ति वी॒तये॑।
सोमा॑सो॒ दध्या॑शिरः ॥
०३ सुतपाव्ने सुता ...{Loading}...
Griffith
Nigh to the Soma-drinker come, for his enjoyment, these bright drops, The Somas mingled with the curd.
पदपाठः
सु॒त॒ऽपाव्ने॑। सु॒ताः। इ॒मे। शुच॑यः। य॒न्ति॒। वी॒तये॑। सोमा॑सः। दधि॑ऽआशिरः। ६९.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सुतपाव्ने) ऐश्वर्य के रक्षक मनुष्य को (वीतये) भोग के लिये (इमे) यह (सुताः) निचोड़े हुए (शुचयः) शुद्ध (दध्याशिरः) पोषक पदार्थों के यथावत् सेवन [वा परिपक्व अर्थात् दृढ़] करनेवाले (सोमासः) सोमरस [तत्त्व वा अमृतरस] (यन्ति) पहुँचते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अपने और प्रजा के ऐश्वर्य की रक्षा कर सकता है, वही संसार में वृद्धिकारक सिद्धान्तों को दृढ़ जमाता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(सुतपाव्ने) षु ऐश्वर्ये-क्त। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। सुत+पा रक्षणे वनिप्। ऐश्वर्याणां रक्षकाय (सुताः) निष्पादिताः (इमे) (शुचयः) पवित्राः (यन्ति) गच्छन्ति। प्राप्नुवन्ति (वीतये) वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु-क्तिन्। भोगाय (सोमासः) तत्त्वरसाः। अमृतरसाः (दध्याशिरः) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। डुधाञ् धारणपोषणयोः-किन्। दधति पुष्णन्तीति दधयः। अपस्पृधेथामानृचु०। पा० ६।१।३६। आङ्+श्रिञ् सेवायां श्रीञ् पाके वा-क्विप्, धातोः शिर् इत्यादेशः। आशीराश्रयणाद्वाश्रपणाद् वा, अथेयमितराशीराशास्तेः-निरु० ६।८। पोषकपदार्थानामाश्रयदातारः परिपक्वकर्तारो वा ॥
०४ त्वं सुतस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः।
इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः।
इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो ॥
०४ त्वं सुतस्य ...{Loading}...
Griffith
Thou, grown at once to perfect strength, wast born to drink the Soma juice, strong Indra, for preeminence.
पदपाठः
त्वम्। सु॒तस्य॑। पी॒तये॑। स॒द्यः। वृ॒द्धः। अ॒जा॒य॒थाः॒। इन्द्र॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो। ६९.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सुक्रतो) हे श्रेष्ठ कर्म और बुद्धिवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े प्रतापी मनुष्य] (त्वम्) तू (सद्यः) शीघ्र (सुतस्य) तत्त्वरस के (पीतये) पीने के लिये और (ज्येष्ठ्याय) प्रधानपन के लिये (वृद्धः) वृद्धियुक्त पण्डित (अजायथाः) हुआ है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य तीव्रबुद्धि होकर शीघ्र तत्त्व को ग्रहण करते हैं, वे ही संसार में बड़े पद के योग्य होते हैं ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(त्वम्) (सुतस्य) निष्पादितस्य तत्त्वरसस्य (पीतये) पानाय। ग्रहणाय (सद्यः) शीघ्रम् (वृद्धः) वृद्धियुक्तः पण्डितः (अजायथाः) प्रसिद्धोऽभवः (इन्द्र) महाप्रतापिन् मनुष्य (ज्यैष्ठ्याय) गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च। पा० ।१।१२४। ज्येष्ठ-ष्यञ्। प्रधानत्वप्राप्तये (सुक्रतो) श्रेष्ठकर्मबुद्धियुक्त ॥
०५ आ त्वा
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आ त्वा॑ विशन्त्वा॒शवः॒ सोमा॑स इन्द्र गिर्वणः।
शं ते॑ सन्तु॒ प्रचे॑तसे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ त्वा॑ विशन्त्वा॒शवः॒ सोमा॑स इन्द्र गिर्वणः।
शं ते॑ सन्तु॒ प्रचे॑तसे ॥
०५ आ त्वा ...{Loading}...
Griffith
O Indra, lover of the song, may these quick Somas enter thee: May they bring bliss to thee the Sage.
पदपाठः
आ। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। आ॒शवः॑। सोमा॑सः। इ॒न्द्र॒। गि॒र्व॒णः॒। शम्। ते॒। स॒न्तु॒। प्रऽचे॑तसे। ६९.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गिर्वणः) हे स्तुतियों से सेवनीय (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी मनुष्य] (आशवः) वेग गुणवाले (सोमासः) सोमरस (त्वा) तुझमें (आ) सब ओर से (विशन्तु) प्रवेश करें और (प्रचेतसे ते) तुझ दूरदर्शी के लिये (शम्) सुखदायक (सन्तु) होवें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य तीव्रबुद्धि होकर शीघ्र गुणकारी सिद्धान्तों का ग्रहण करके सुखी होवें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(आ) सर्वतः (त्वा) त्वाम् (विशन्तु) प्रविशन्तु। व्याप्नुवन्तु (आशवः) वेगगुणयुक्ताः (सोमासः) तत्त्वरसाः (इन्द्र) महाप्रतापिन् मनुष्य (गिर्वणः) अ० २०।६।६। स्तुतिभिः सेवनीय (शम्) सुखप्रदाः (ते) तुभ्यम् (सन्तु) (प्रचेतसे) प्रकृष्टज्ञानिने दूरदर्शिने ॥
०६ त्वां स्तोमा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वां स्तोमा॑ अवीवृध॒न्त्वामु॒क्था श॑तक्रतो।
त्वां व॑र्धन्तु नो॒ गिरः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वां स्तोमा॑ अवीवृध॒न्त्वामु॒क्था श॑तक्रतो।
त्वां व॑र्धन्तु नो॒ गिरः॑ ॥
०६ त्वां स्तोमा ...{Loading}...
Griffith
O Lord of Hundred Powers, our chants of praise and lauds have strengthened thee: So strengthen thee the songs we sing!
पदपाठः
त्वाम्। स्तोमाः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। त्वाम्। उ॒क्था। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। त्वाम्। व॒र्ध॒न्तु॒। नः॒। गिरः॑। ६९.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शतक्रतो) हे सैकड़ों व्यवहारों में बुद्धिवाले मनुष्य (त्वाम्) तुझको (स्तोमाः) बड़ाई योग्य गुणों ने और (त्वाम्) तुझको (उक्था) कहने योग्य कर्मों ने (अवीवृधन्) बढ़ाया है। (त्वाम्) तुझको (नः) हमारी (गिरः) स्ततियाँ (वर्धन्तु) बढ़ावें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - श्रेष्ठकर्मी मनुष्य सदा विद्वानों के सत्सङ्ग से उपकार शक्ति बढ़ाते रहें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(त्वाम्) (स्तोमाः) स्तुत्यगुणाः (अवीवृधन्) वृधु वृद्धौ ण्यन्ताल्लुङ्। वर्धितवन्तः (त्वाम्) (उक्था) पातॄतुदिवचि०। उ० २।७। वच परिभाषणे-थक्। वक्तव्यानि प्रशंसनीयानि कर्माणि (शतक्रतो) बहुव्यवहारेषु बुद्धियुक्त (त्वाम्) (वर्धन्तु) अन्तर्गतण्यर्थः। वर्धयन्तु (नः) अस्माकम् (गिरः) स्तुतयः ॥
०७ अक्षितोतिः सनेदिमम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अक्षि॑तोतिः सनेदि॒मं वाज॒मिन्द्रः॑ सह॒स्रिण॑म्।
यस्मि॒न्विश्वा॑नि॒ पौंस्या॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अक्षि॑तोतिः सनेदि॒मं वाज॒मिन्द्रः॑ सह॒स्रिण॑म्।
यस्मि॒न्विश्वा॑नि॒ पौंस्या॑ ॥
०७ अक्षितोतिः सनेदिमम् ...{Loading}...
Griffith
Indra, whose succour never fails, accept this treasure thousand- fold, Wherein all manly powers abide.
पदपाठः
अक्षि॑तऽऊतिः। स॒ने॒त्। इ॒मम्। वाज॑म्। इन्द्रः॑। म॒ह॒स्रिण॑म्। यस्मि॑न्। विश्वा॑नि। पौंस्या॑। ६९.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अक्षितोतिः) अक्षय रक्षा वा ज्ञानवाला (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी मनुष्य] (इमम्) इस (सहस्रिणम्) सहस्रों सुखवाले (वाजम्) ज्ञान का (सनेत्) सेवन करें, (यस्मिन्) जिसमें (विश्वानि) सब (पौंस्या) मनुष्यकर्म [वा बल] हैं ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रतापी होकर सर्वोपकारी कार्य करके सुखी होवे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(अक्षितोतिः) अक्षीणा वर्धमाना ऊती रक्षा ज्ञानं वा यस्य सः (सनेत्) षण संभक्तौ-विधिलिङ्। सेवेत (इमम्) वक्ष्यमाणम् (वाजम्) विज्ञानम् (इन्द्रः) महाप्रतापी मनुष्यः (सहस्रिणम्) अ० २०।९।२। असंख्यसुखयुक्तम् (यस्मिन्) ज्ञाने (विश्वानि) सर्वाणि (पौंस्या) अ० २०।६७।२। मनुष्यकर्माणि। बलानि ॥
०८ मा नो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मा नो॒ मर्ता॑ अ॒भि द्रु॑हन्त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः।
ईशा॑नो यवया व॒धम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मा नो॒ मर्ता॑ अ॒भि द्रु॑हन्त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः।
ईशा॑नो यवया व॒धम् ॥
०८ मा नो ...{Loading}...
Griffith
O Indra, thou who lovest song, let no man hurt our bodies, keep. Slaughter far from us, for thou canst.
पदपाठः
मा। नः॒। मर्ताः। अ॒भि। द्रु॒ह॒न्। त॒नूना॑म्। इ॒न्द्र॒। गि॒र्व॒णः॒। ईशा॑नः। य॒व॒य॒। व॒धम्। ६९.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गिर्वणः) हे स्तुतियों से सेवनीय (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी मनुष्य] (मर्ताः) मनुष्य (नः) हमारी (तनूनाम्) उपकार क्रियाओं का (मा अभि द्रुहन्) कभी द्रोह न करें। तू (ईशानः) स्वामी होकर (वधम्) उनके वध [हनन व्यवहार] को (यवय) हटा ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् प्रतापी मनुष्य ऐसा प्रयत्न करें कि सब लोग वैर छोड़कर परस्पर उपकारी होकर सुखी होवें ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (मर्ताः) मनुष्याः (अभि) सर्वतः (द्रुहन्) द्रुह जिघांसायाम्-लुङ्, अडभावः, छान्दसः शविकरणः। द्रोहं कुर्वन्तु (तनूनाम्) कृषिचमितनि०। उ० १।८०। तनु विस्तारे श्रद्धोपकरणयोश्च-ऊप्रत्ययः। उपकारक्रियाणाम् (इन्द्र) महाप्रतापिन् मनुष्य (गिर्वणः) म० । स्तुतिभिः सेवनीय (ईशानः) समर्थः (यवय) प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च। इति वार्तिकेन यवशब्दाद् धात्वर्थे-णिच्, टिलोपः। पृथक् कुरु (वधम्) हन हिंसागत्योः-अप्। हननव्यवहारम् ॥
०९ युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑।
रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑।
रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥
०९ युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषम् ...{Loading}...
Griffith
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑ । रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥९॥
पदपाठः
यु॒ञ्जन्ति॑। ब्र॒ध्नम्। अ॒रु॒षम्। चर॑न्तम्। परि॑। त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते। रो॒च॒ना। दि॒वि। ६९.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
९-११ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्थुषः) मनुष्य आदि प्राणियों और लोकों में (परि) सब ओर से (चरन्तम्) व्यापे हुए, (ब्रध्नम्) महान् (अरुषम्) हिंसारहित [परमात्मा] को (रोचना) प्रकाशमान पदार्थ (दिवि) व्यवहार के बीच (युञ्जन्ति) ध्यान में रखते और (रोचन्ते) प्रकाशित होते हैं ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमाणुओं से लेकर सूर्य आदि लोक और सब प्राणी सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता परमात्मा की आज्ञा को मानते हैं, उसीकी उपासना से मनुष्य पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके आत्मा की उन्नति करें ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र ९-११ आचुके हैं-अ० २०।२६।४-६ तथा ४७।१०-१२ ॥ ९-११−एते मन्त्रा आगताः-अ० २०।२६।४-६ तथा ४७।१०-१२ ॥
१० युञ्जन्त्यस्य काम्या
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यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑।
शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑।
शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥
१० युञ्जन्त्यस्य काम्या ...{Loading}...
Griffith
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑ । शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥१०॥
पदपाठः
यु॒ञ्जन्ति॑। अ॒स्य॒। काम्या॑। हरी॒ इति॑। विऽप॑क्षसा। रथे॑। शोणा॑। धृ॒ष्णू इति॑। नृ॒ऽवाह॑सा। ६९.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
९-११ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [परमात्मा-म० ९] के (काम्या) चाहने योग्य, (विपक्षसा) विविध प्रकार ग्रहण करनेवाले, (शेणा) व्यापक, (धृष्णू) निर्भय, (नृवाहसा) नेताओं [दूसरों के चलानेवाले सूर्य आदि लोकों] के चलानेवाले (हरी) दोनों धारण-आकर्षण गुणों को (रथे) रमणीय जगत् के बीच (युञ्जन्ति) वे [प्रकाशमान पदार्थ-म० ९] ध्यान में रखते हैं ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा के धारण आकर्षण-सामर्थ्य में सूर्य आदि पिण्ड अन्य लोकों और प्राणियों को चलाते हैं, मनुष्य उन सब पदार्थों से उपकार लेकर उस ईश्वर को धन्यवाद दें ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९-११−एते मन्त्रा आगताः-अ० २०।२६।४-६ तथा ४७।१०-१२ ॥
११ केतुं कृण्वन्नकेतवे
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के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑।
समु॒षद्भि॑रजायथाः ॥
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मूलम् (VS)
के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑।
समु॒षद्भि॑रजायथाः ॥
११ केतुं कृण्वन्नकेतवे ...{Loading}...
Griffith
के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑ । समु॒षद्भि॑रजायथाः ॥११॥
पदपाठः
के॒तुम्। कृ॒ण्वन्। अ॒के॒तवे॑। पेशः॑। म॒र्याः॒। अ॒पे॒शसे॑। सम्। उ॒षत्ऽभिः॑। अ॒जा॒य॒थाः॒। ६९.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
९-११ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मर्याः) हे मनुष्यो ! (अकेतवे) अज्ञान हटाने के लिये (केतुम्) ज्ञान को और (अपेशसे) निर्धनता मिटाने के लिये (पेशः) सुवर्ण आदि धन को (कृण्वन्) उत्पन्न करता हुआ वह [परमात्मा-म० ९, १०] (उषद्भिः) प्रकाशमान गुणों के साथ (सम्) अच्छे प्रकार (अजायथाः) प्रकट हुआ है ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रयत्न करके परमात्मा को विचारते हुए सृष्टि के पदार्थों से उपकार लेकर ज्ञानी और धनी होवें ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९-११−एते मन्त्रा आगताः-अ० २०।२६।४-६ तथा ४७।१०-१२ ॥
१२ आदह स्वधामनु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे।
दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे।
दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥
१२ आदह स्वधामनु ...{Loading}...
Griffith
Thereafter they, as is their wont, threw off the state of babes urborn, Taking their sacrificial name.
पदपाठः
आत्। अह॑। स्व॒धाम्। अनु॑। पुनः॑। ग॒र्भ॒ऽत्वम्। आ॒ऽई॒रि॒रे। दधा॑नाः। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्। ६९.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मरुद्गणः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-६९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (आत्) फिर (अह) अवश्य (स्वधाम् अनु) अपनी धारण शक्ति के पीछे (यज्ञियम्) सत्कारयोग्य (नाम) नाम [यश] का (दधानाः) धारण करते हुए लोगों ने (पुनः) निश्चय करके (गर्भत्वम्) गर्भपन [सारपन, बड़े पद] को (एरिरे) सब प्रकार से पाया है ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जहाँ पर पूर्वोक्त प्रकार से न्याययुक्त स्वतन्त्रता के साथ लोग कार्य करते हैं, वहाँ पर सब पुरुष बड़ाई पात हैं ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र, आचुका है-अ० २०।४०।३ ॥ १२-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० २०।४०।३ ॥