०६६ ...{Loading}...
Griffith
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०१ स्तुहीन्द्रं व्यश्ववदनूर्मिम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्तु॒हीन्द्रं॑ व्यश्व॒वदनू॑र्मिं वा॒जिनं॒ यम॑म्।
अ॒र्यो गयं॒ मंह॑मानं॒ वि दा॒शुषे॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्तु॒हीन्द्रं॑ व्यश्व॒वदनू॑र्मिं वा॒जिनं॒ यम॑म्।
अ॒र्यो गयं॒ मंह॑मानं॒ वि दा॒शुषे॑ ॥
०१ स्तुहीन्द्रं व्यश्ववदनूर्मिम् ...{Loading}...
Griffith
As Vyasva did, praise Indra, praise the strong unfluctuating guide. Who gives the foe’s possessions to the worshipper.
पदपाठः
स्तु॒हि। इन्द्र॑म्। व्य॒श्व॒ऽवत्। अनू॑र्मिम्। वा॒जिन॑म्। यम॑म्। अ॒र्यः। गय॑म्। मंह॑मानम्। वि। दा॒शुषे॑। ६६.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वमनाः
- उष्णिक्
- सूक्त-६६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ऐश्वर्यवान् पुरुष के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (व्यश्ववत्) विविध वेगवाले पुरुष के समान (अनूर्मिम्) बिना पीड़ाओंवाले, (वाजिनम्) पराक्रमी, (यमम्) न्यायकारी (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] की (स्तुहि) स्तुति कर। (अर्यः) स्वामी (दाशुषे) आत्मदानी भक्त के लिये (वि) विविध प्रकार (मंहमानम्) बढ़ते हुए (गयम्) धन सदृश हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो पुरुष पराक्रम करके भूख आदि पीड़ाओं से बचा रहता है, उसके गुणों को ग्रहण करके मनुष्य सुखी होवें। विद्वानों ने छह पीड़ाएँ मानी हैं, जिनसे बचने का मनुष्य उपाय करता रहे−
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: [बुभुक्षा च पिपासा च प्राणस्य मनसः स्मृतौ। शोकमोहौ शरीरस्य जरामृत्यू षडूर्मयः ॥१॥] प्राण की भूख और प्यास, मन का शोक और मोह, शरीर की जरा और मृत्यु, यह छह पीड़ाएँ कही गयी हैं ॥१॥ यह तृच ऋग्वेद में है-गत सूक्त से आगे, ८।२४।२२-२४ ॥ १−(स्तुहि) प्रशंस (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (व्यश्ववत्) वि+अशू व्याप्तौ-क्वन्, सादृश्ये वतिः। विविधवेगवान् पुरुष इव (अनूर्मिम्) ऊर्मिभिर्बुभुक्षापिपासादिषट्पीडाभी रहितम् (वाजिनम्) पराक्रमिणम् (यमम्) न्यायिनम् (अर्यः) स्वामी (गयम्) धनरूपम् (मंहमानम्) महि वृद्धौ-शानच्। वर्धमानम् (वि) विविधम् (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥
०२ एवा नूनमुप
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ए॒वा नू॒नमुप॑ स्तुहि॒ वैय॑श्व दश॒मं नव॑म्।
सुवि॑द्वांसं च॒र्कृत्यं॑ च॒रणी॑नाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ए॒वा नू॒नमुप॑ स्तुहि॒ वैय॑श्व दश॒मं नव॑म्।
सुवि॑द्वांसं च॒र्कृत्यं॑ च॒रणी॑नाम् ॥
०२ एवा नूनमुप ...{Loading}...
Griffith
Now, son of Vyasva, praise thou him who to the tenth time still is new. The very wise, whom living men must glorify.
पदपाठः
ए॒व। नू॒नम्। उप॑। स्तु॒हि॒। वैय॑श्व। द॒श॒मम्। नव॑म्। सुऽवि॑द्वांसम्। च॒र्कृत्य॑म्। च॒रणी॑नाम्। ६६.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वमनाः
- उष्णिक्
- सूक्त-६६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ऐश्वर्यवान् पुरुष के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वैयश्व) हे विविध वेगवाले पुरुष ! (दशमम्) प्रकाशमान [अथवा जीवन के दसवें काल तक] (नवम्) स्तुतियोग्य [वा नवीन अर्थात् बलवान्], (सुविद्वांसम्) बड़े विद्वान् और (चरणीनाम्) चलनेवाले मनुष्यों में (चर्कृत्यम्) अत्यन्त करने योग्य कर्मों में चतुर की (एव) निश्चय करके (नूनम्) अवश्य (उप) आदर से (स्तुहि) तू स्तुति कर ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो पुरुष बड़े प्रतापी, जीवन के सौ वर्ष में से नब्बे वर्ष के ऊपर भी अर्थात् अन्त काल तक आत्मिक और शारीरिक बलवाले कर्मकुशल वीर होवें, उनके गुणों को सब मनुष्य ग्रहण करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(एव) निश्चयेन (नूनम्) अवश्यम् (उप) पूजायाम् (स्तुहि) प्रशंस (वैयश्व) वि+अश्व-अण्। न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ तु ताभ्यामैच्। पा० ७।३।३। इति ऐकारागमः। अश्वो वेगः। हे विविधवेगवन् पुरुष (दशमम्) प्रथेरमच्। उ० ।६८। दशि भाषायां दीप्तौ च-अमच्, नकारलोपः। दीप्यमानम्। यद्वा दशानां पूरणः, डटि मुडागमः। पुरुषाणां शतायुष्यनियमात् तस्यायुषो दशधा विभागे नवत्यधिकायामवस्थायां वर्तमानम्। अतिवृद्धावस्थापर्यन्तम् (नवम्) स्तुत्यम्। नवीनं बलवन्तम् (सुविद्वांसम्) अतिशयेन ज्ञानिनम् (चर्कृत्यम्) अ० ६।९८।१। यङ्लुगन्तात् करोतेः-क्त, ततः साध्वर्थे-यत्। चर्कृतेषु अतिशयेन कर्तव्येषु कर्मसु कुशलम् (चरणीनाम्) अतिसृधृ०। उ० २।१०२। चर गतिभक्षणयोः-अनि। चर्षणीनां गमनशीलानां मनुष्याणाम् ॥
०३ वेत्था हि
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वेत्था॒ हि निरृ॑तीनां॒ वज्र॑हस्त परि॒वृज॑म्।
अह॑रहः शु॒न्ध्युः प॑रि॒पदा॑मिव ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वेत्था॒ हि निरृ॑तीनां॒ वज्र॑हस्त परि॒वृज॑म्।
अह॑रहः शु॒न्ध्युः प॑रि॒पदा॑मिव ॥
०३ वेत्था हि ...{Loading}...
Griffith
Thou knowest, Indra, thunder-armed, how to avoid destructive Powers, As one secure from pitfalls each succeeding day.
पदपाठः
वेत्थ॑। हि। निःऽऋ॑तीनाम्। वज्र॑ऽहस्त। प॒रि॒ऽवृज॑म्। अहः॑ऽअहः। शु॒न्ध्युः। प॒रि॒पदा॑म्ऽइव। ६६.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वमनाः
- उष्णिक्
- सूक्त-६६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ऐश्वर्यवान् पुरुष के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रहस्त) हे वज्र हाथ में रखनेवाले ! (हि) निश्चय करके (परिपदाम्) विपत्तियों के (शुन्ध्युः इव) शोधनेवाले के समान (अहरहः) दिन-दिन (निर्ऋतीनाम्) महाविपत्तियों के (परिवृजम्) रोकने को (वेत्थ) तू जानता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य शूर पराक्रमियों के समान विघ्नों को हटाकर प्रजा की रक्षा करे, उसका सब लोग आदर करें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥ ३−(वेत्था) सांहितिको दीर्घः। वेत्सि। जानासि (हि) एव (निर्ऋतीनाम्) अ० २।१०।१। कृच्छ्रापत्तीनाम् निरु० २।७। (वज्रहस्त) हे वज्रपाणे (परिवृजम्) वृजी वर्जने-घञर्थे क। परिवर्जनम्। निवारणम् (अहरहः) प्रतिदिनम् (शुन्ध्युः) अ० २०।१७।१। शोधकः (परिपदाम्) विपदाम्। विपत्तीनाम् (इव) यथा ॥