०६२ ...{Loading}...
Griffith
???
०१ वयमु त्वामपूर्व्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द्भर॑न्तोऽव॒स्यवः॑।
वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द्भर॑न्तोऽव॒स्यवः॑।
वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥
०१ वयमु त्वामपूर्व्य ...{Loading}...
Griffith
व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द् भर॑न्तोऽव॒स्यवः॑ । वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥१॥
पदपाठः
व॒यम्। ऊं॒ इति॑। त्वाम्। अ॒पू॒र्व्य॒। स्थू॒रम्। न। कत्। चि॒त्। भर॑न्तः। अ॒व॒स्यवः॑। वाजे॑। चि॒त्रम्। ह॒वा॒म॒हे॒। ६२.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सौभरिः
- प्रगाथः
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अपूर्व्य) हे अनुपम ! [राजन्] (कत् चित्) कुछ भी (स्थूरम्) स्थिर (न) नहीं (भरन्तः) रखते हुए, (अवस्यवः) रक्षा चाहनेवाले (वयम्) हम (वाजे) सङ्ग्राम के बीच (चित्रम्) विचित्र स्वभाववाले (त्वाम्) तुझको (उ) ही (हवामहे) बुलाते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब दुष्ट चोर-डाकू लोग अत्यन्त सतावें, प्रजागण वीर राजा की शरण लेकर रक्षा करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १-४ आ चुके हैं-अथर्व० २०।१४।१-४ ॥ १-४−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।१४।१-४ ॥
०२ उप त्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उप॑ त्वा॒ कर्म॑न्नू॒तये॒ स नो॒ युवो॒ग्रश्च॑क्राम॒ यो धृ॑षत्।
त्वामिद्ध्य॑वि॒तारं॑ ववृ॒महे॒ सखा॑य इन्द्र सान॒सिम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उप॑ त्वा॒ कर्म॑न्नू॒तये॒ स नो॒ युवो॒ग्रश्च॑क्राम॒ यो धृ॑षत्।
त्वामिद्ध्य॑वि॒तारं॑ ववृ॒महे॒ सखा॑य इन्द्र सान॒सिम् ॥
०२ उप त्वा ...{Loading}...
Griffith
उप॑ त्वा॒ कर्म॑न्नू॒तये॑ स नो॒ युवो॒ग्रश्च॑क्राम॒ यो धृ॒षत्।
त्वामिद्ध्य॑वि॒तारं॑ ववृ॒महे॒ सखा॑य इन्द्र सान॒सिम्॥२॥
पदपाठः
उप॑। त्वा॒। कर्म॑न्। ऊ॒तये॑। सः। नः॒। युवा॑। उ॒ग्रः। च॒क्रा॒म॒। यः। धृ॒षत्। त्वाम्। इत्। हि। अ॒वि॒तार॑म्। व॒वृ॒महे॑। सखा॑यः। इ॒न्द्र॒। सा॒न॒सिम्। ६२.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सौभरिः
- प्रगाथः
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कर्मन्) कर्म के बीच (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा के लिये (सः) उस (यः) जिस (युवा) स्वभाव से बलवान्, (उग्रः) तेजस्वी और (धृषत्) निर्भय पुरुष ने (चक्राम) पैर बढ़ाया है, (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (अवितारम्) उस रक्षक और (सानसिम्) दानी (त्वा) तुझको, (त्वाम्) तुझको (हि) ही (इत्) अवश्य (सखायः) हम मित्र लोग (उप) आदर से (ववृमहे) चुनते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो पुरुष प्रजारक्षण में बड़ा पराक्रमी हो, प्रजागण सब लोगों में से उसीको राजा बनावें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १-४−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।१४।१-४ ॥
०३ यो न
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यो न॑ इ॒दमि॑दं पु॒रा प्र वस्य॑ आनि॒नाय॒ तमु॑ व स्तुषे।
सखा॑य॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यो न॑ इ॒दमि॑दं पु॒रा प्र वस्य॑ आनि॒नाय॒ तमु॑ व स्तुषे।
सखा॑य॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ ॥
०३ यो न ...{Loading}...
Griffith
यो न॑ इ॒दमि॑दं पु॒रा प्र वस्य॑ आनि॒नाय॒ तमु॑ व स्तुषे । सखा॑य॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ ॥३॥
पदपाठः
यः। नः॒। इ॒दम्ऽइ॑दम्। पु॒रा। प्र। वस्यः॑। आ॒ऽनि॒नाय॑। तम्। ऊं॒ इति॑। वः॒। स्तु॒षे॒। सखा॑यः। इन्द्र॑म्। ऊ॒तये॑। ६२.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सौभरिः
- प्रगाथः
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [पराक्रमी] (नः) हमारे लिये (इदमिदम्) इस-इस (वस्यः) उत्तम वस्तु को (प्र) अच्छे प्रकार (आनिनाय) लाया है, (तम् उ) उस ही (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी वीर] को, (सखायः) हे मित्रो ! (वः) तुम्हारी (ऊतये) रक्षा के लिये (स्तुषे) मैं सराहता हूँ ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो पुरुष पहले ही से धीर-वीर होवें, लोग उसकी बड़ाई करके गुण ग्रहण करें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १-४−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।१४।१-४ ॥
०४ हर्यश्वं सत्पतिम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
हर्य॑श्वं॒ सत्प॑तिं चर्षणी॒सहं॒ स हि ष्मा॒ यो अम॑न्दत।
आ तु नः॒ स व॑यति॒ गव्य॒मश्व्यं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ श॒तम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
हर्य॑श्वं॒ सत्प॑तिं चर्षणी॒सहं॒ स हि ष्मा॒ यो अम॑न्दत।
आ तु नः॒ स व॑यति॒ गव्य॒मश्व्यं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ श॒तम् ॥
०४ हर्यश्वं सत्पतिम् ...{Loading}...
Griffith
हर्य॑श्वं॒ सत्प॑तिं चर्षणी॒सहं॒ स हि ष्मा॒ यो अम॑न्दत ।
आ तु नः॒ स व॑यति॒ गव्य॒मश्व्यं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ श॒तम्॥४॥
पदपाठः
हरि॑ऽअश्वम्। सत्ऽप॑तिम्। च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म्। सः। हि। स्म॒। यः। अम॑दन्त। आ। तु। नः॒। सः। व॒य॒ति॒। गव्य॑म्। अश्व्य॑म्। स्तो॒तृऽभ्यः॑। म॒घऽवा॑। श॒तम्। ६२.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सौभरिः
- प्रगाथः
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह (हि) ही (स्म) अवश्य [मनुष्य है], (यः) जिसने (हर्यश्वम्) ले चलनेवाले घोड़ों से युक्त, (सत्पतिम्) सत्पुरुषों के रक्षक, (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को नियम में रखनेवाले [राजा] को (अमन्दत) प्रसन्न किया है। (सः) वह (मघवा) महाधनी (तु) तो (नः) हम (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों को (शतम्) सौ [बहुत] (गव्यम्) गौओं का समूह और (अश्व्यम्) घोड़ों का समूह (आ वयति) लाता है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब प्रजागण आज्ञा मानकर शूर धर्मात्मा राजा को प्रसन्न रक्खें, जिससे वह उत्तम प्रबन्ध के साथ प्रजा का ऐश्वर्य बढ़ावे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १-४−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।१४।१-४ ॥
०५ इन्द्राय साम
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रा॑य॒ साम॑ गायत॒ विप्रा॑य बृह॒ते बृ॒हत्।
ध॑र्म॒कृते॑ विप॒श्चिते॑ पन॒स्यवे॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रा॑य॒ साम॑ गायत॒ विप्रा॑य बृह॒ते बृ॒हत्।
ध॑र्म॒कृते॑ विप॒श्चिते॑ पन॒स्यवे॑ ॥
०५ इन्द्राय साम ...{Loading}...
Griffith
To Indra sing a Saman, sing to the high Sage a lofty song, To him who keeps the Law, inspired and fain for praise.
पदपाठः
इन्द्रा॑य। साम॑। गा॒य॒त॒। विप्रा॑य। बृ॒ह॒ते। बृ॒हत्। ध॒र्म॒ऽकृते॑। वि॒पः॒ऽचिते॑। प॒न॒स्यवे॑। ६२.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नृमेधः
- उष्णिक्
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (विप्राय) बुद्धिमान्, (बृहते) महान्, (धर्मकृते) धर्म [धारणयोग्य नियम] के बनानेवाले, (विपश्चिते) विशेष महाज्ञानी, (पनस्यवे) सबके लिये व्यवहार चाहनेवाले, (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] के लिये (बृहत्) बड़े (साम) साम [दुःखनाशक मोक्षज्ञान] का (गायत) तुम गान करो ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य वेदद्वारा धर्मविधान पर चलकर परमात्मा की उपासना से बुद्धिमान् और व्यवहारकुशल होकर मोक्षसुख प्राप्त करें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र -७ ऋग्वेद में है-८।९८ [सायणभाष्य ८७]।१-३। सामवेद-उ० ३।२। तृच २२, मन्त्र , पू० ४।१०।८ ॥ −(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते जगदीश्वराय (साम) अ० ७।४।१। दुःखनाशकं मोक्षज्ञानम् (गायत) पठत (विप्राय) मेधाविने (बृहते) महते (बृहत्) महत् (धर्मकृते) धर्मस्य धारणीयनियमस्य कर्त्रे (विपश्चिते) अ० ६।२।३। वि+प्र+चिती संज्ञाने-क्विप्। विशेषमहाज्ञानिने (पनस्यवे) पण स्तुतौ व्यवहारे च-असुन्-क्यच्-उ। सर्वेभ्यो व्यवहारमिच्छते ॥
०६ त्वमिन्द्राभिभूरसि त्वम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वमि॑न्द्राभि॒भूर॑सि॒ त्वं सूर्य॑मरोचयः।
वि॒श्वक॑र्मा वि॒श्वदे॑वो म॒हाँ अ॑सि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वमि॑न्द्राभि॒भूर॑सि॒ त्वं सूर्य॑मरोचयः।
वि॒श्वक॑र्मा वि॒श्वदे॑वो म॒हाँ अ॑सि ॥
०६ त्वमिन्द्राभिभूरसि त्वम् ...{Loading}...
Griffith
Thou, Indra, art preeminent: thou gavest splendour to the Sun. Maker of all things, thou art mighty and All-God.
पदपाठः
त्वम्। इ॒न्द्र॒। अ॒भि॒ऽभूः। अ॒सि॒। त्वम्। सूर्य॑म्। अ॒रो॒च॒यः॒। वि॒श्वऽक॑र्मा। वि॒श्वऽदे॑वः। म॒हान्। अ॒सि॒। ६२.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नृमेधः
- उष्णिक्
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (त्वम्) तू (अभिभूः) विजयी (असि) है, (त्वम्) तूने (सूर्यम्) सूर्य को (अरोचयः) चमक दी है। तू (विश्वकर्मा) विश्वकर्मा [सबका बनानेवाला], (विश्वदेवः) विश्वदेव [सबका पूजनीय] और (महान्) महान् [अति प्रबल] (असि) है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य उस महाबली परमात्मा की उपासना से अपने आत्मा को बलवान् करें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (अभिभूः) अभिभविता। विजेता (असि) (त्वम्) (सूर्यम्) रविमण्डलम् (अरोचयः) अदीपयः (विश्वकर्मा) सर्वस्य कर्ता (विश्वदेवः) सर्वैः स्तुत्यः (महान्) अतिप्रबलः (असि) ॥
०७ विभ्राजं ज्योतिषा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि॒भ्राजं॒ ज्योति॑षा॒ स्व१॒॑रग॑च्छो रोच॒नं दि॒वः।
दे॒वास्त॑ इन्द्र स॒ख्याय॑ येमिरे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि॒भ्राजं॒ ज्योति॑षा॒ स्व१॒॑रग॑च्छो रोच॒नं दि॒वः।
दे॒वास्त॑ इन्द्र स॒ख्याय॑ येमिरे ॥
०७ विभ्राजं ज्योतिषा ...{Loading}...
Griffith
Radiant with light thou wentest to the sky, the luminous realms: of heaven. The Gods, O Indra, strove to win thee for their friend.
पदपाठः
वि॒ऽभ्राज॑न्। ज्योति॑षा। स्वः॑। अग॑च्छ। रो॒च॒नम्। दि॒वः। दे॒वाः। ते॒। इ॒न्द्र॒। स॒ख्याय॑। ये॒मि॒रे॒। ६२.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नृमेधः
- उष्णिक्
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (ज्योतिषा) अपनी ज्योति से (विभ्राजन्) चमकता हुआ तू (दिवः) सूर्य के, (रोचनम्) चमकानेवाले (स्वः) अपने आनन्दस्वरूप को (अगच्छः) प्राप्त हुआ है, (देवाः) विद्वानों ने (ते) तेरी (सख्याय) मित्रता के लिये (येमिरे) उद्योग किया है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो प्रकाशस्वरूप परमात्मा अपनी महिमा से प्रत्येक वस्तु में चमकता है, उसकी उपासना से हम अपने आत्मा में प्रकाश करें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(विभ्राजन्) विविधं प्रकाशमानः (ज्योतिषा) स्वतेजसा (स्वः) स्वकीयं सुखस्वरूपम् (अगच्छः) प्राप्तवानसि (रोचनम्) प्रकाशकम् (दिवः) सूर्यस्य (देवाः) विद्वांसः (ते) तव (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (सख्याय) मित्रत्वाय (येमिरे) नियमितवन्तः। उद्यतवन्तः ॥
०८ तम्वभि प्र
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तम्व॒भि प्र गा॑यत पुरुहू॒तं पु॑रुष्टु॒तम्।
इन्द्रं॑ गीर्भिस्तवि॒षमा वि॑वासत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तम्व॒भि प्र गा॑यत पुरुहू॒तं पु॑रुष्टु॒तम्।
इन्द्रं॑ गीर्भिस्तवि॒षमा वि॑वासत ॥
०८ तम्वभि प्र ...{Loading}...
Griffith
Sing forth to him whom many men invoke, to him whom many laud: Invite the potent Indra with your songs of praise;
पदपाठः
तम्। ऊं॒ इति॑। अ॒भि। प्र। गा॒य॒त॒। पु॒रु॒ऽहू॒तम्। पु॒रु॒ऽस्तु॒तम्। इन्द्र॑म्। गी॒ऽभिः। त॒वि॒षम्। आ। वि॒वा॒स॒त॒। ६२.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
- उष्णिक्
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (तम् उ) उस ही (पुरुहूतम्) बहुत पुकारे हुए, (पुरुष्टुतम्) बहुत बड़ाई किये हुए, (तविषम्) महान् (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] को (अभि) सब ओर से (प्र) भले प्रकार (गायत) गाओ, और (गीर्भिः) वाणियों से (आ) सब प्रकार (विवासत) सत्कार करो ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! वह परमात्मा सबसे बड़ा है, उसीके गुणों को हृदय में धारण करके आत्मबल बढ़ाओ ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र ८-१० आचुके हैं-अ० २०।६१।४-६ ॥ ८-१०−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६१।४-६ ॥
०९ यस्य द्विबर्हसो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत्सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी।
गि॒रीँरज्राँ॑ अ॒पः स्व᳡र्वृषत्व॒ना ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत्सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी।
गि॒रीँरज्राँ॑ अ॒पः स्व᳡र्वृषत्व॒ना ॥
०९ यस्य द्विबर्हसो ...{Loading}...
Griffith
Whose lofty might–for doubly strong is he–supports the heaven and earth, And hills and plains and floods and light with manly power.
पदपाठः
यस्य॑। द्वि॒ऽबर्ह॑सः। बृ॒हत्। सहः॑। दा॒धार॑। रोद॑सी॒ इति॑। गि॒रीन्। अज्रा॑न्। अ॒पः। स्वः॑। वृ॒ष॒ऽत्व॒ना। ६२.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
- उष्णिक्
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (द्विबर्हसः) दोनों विद्या और पुरुषार्थ में बढ़े हुए (यस्य) जिस [परमात्मा] के (बृहत्) बड़े (सहः) सामर्थ्य ने (रोदसी) सूर्य और भूमि, (अज्रान्) शीघ्रगामी (गिरीन्) मेघों, (अपः) जलों [समुद्र आदि] और (स्वः) प्रकाश को (वृषत्वना) बल के साथ (दाधार) धारण किया है ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरुषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥९, १०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८-१०−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६१।४-६ ॥
१० स राजसि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे।
इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रवस्या᳡ च॒ यन्त॑वे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे।
इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रवस्या᳡ च॒ यन्त॑वे ॥
१० स राजसि ...{Loading}...
Griffith
Such, praised by many! thou art King. Alone thou smitest foe- men dead, To gain, O Indra, spoils of war and high renown.
पदपाठः
सः। रा॒ज॒सि॒। पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒। एकः॑। वृ॒त्राणि॑। जि॒घ्न॒से॒। इन्द्र॑। जैत्रा॑। श्र॒व॒स्या॑। च॒। यन्त॑वे। ६२.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
- उष्णिक्
- सूक्त-६२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे बहुत स्तुति किये हुए (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (सः) सो (एकः) अकेला तू (जैत्रा) जीतनेवालों के योग्य धनों (च) और (श्रवस्या) यश के लिये हितकारी कर्मों को (यन्तवे) नियम में रखने में लिये (राजसि) राज्य करता है, और (वृत्राणि) रोकनेवाले विघ्नों को (जिघ्नसे) मिटाता है ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरुषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥९, १०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८-१०−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६१।४-६ ॥