०६०

०६० ...{Loading}...

Griffith

???

०१ एवा ह्यसि

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ए॒वा ह्यसि॑ वीर॒युरे॒वा शूर॑ उ॒त स्थि॒रः।
ए॒वा ते॒ राध्यं॒ मनः॑ ॥

०१ एवा ह्यसि ...{Loading}...

Griffith

For so thou art the hero’s Friend, a Warrior too art thou, and strong: So may thy heart be won to us.

पदपाठः

ए॒व। हि। असि॑। वी॒र॒ऽयुः। ए॒व। शूरः॑। उ॒त। स्थि॒रः। ए॒व। ते॒। राध्य॑म्। मनः॑। ६०.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुतकक्षः
  • गायत्री
  • सूक्त-६०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे पुरुष !] तू (एव) निश्चय करके (हि) ही (वीरयुः) वीरों का चाहनेवाला, (एव) निश्चय करके (शूरः) शूर (उत) और (स्थिरः) दृढ़ (असि) है, (एव) निश्चय करके (ते) तेरा (मनः) मन [विचारसामर्थ्य] (राध्यम्) बड़ाई योग्य है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य धार्मिक सत्य सङ्कल्पों की पूर्ति के लिये सदा दृढ़ प्रयत्न करे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १-३ ऋग्वेद में हैं-८।९२ [सायणभाष्य ८१]।२८-३०। सामवेद-उ० २।१। तृच १८ मन्त्र १-पू० ३।४।१० ॥ १−(एव) निश्चयेन (हि) अवधारणे (असि) (वीरयुः) वीर-क्यच्। उप्रत्ययः वीरान् कामयमानः (एव) (शूरः) (उत) अपि (स्थिरः) दृढः (एव) (ते) तव (राध्यम्) आराधनीयम् (मनः) मननसामर्थ्यम् ॥

०२ एवा रातिस्तुवीमघ

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ए॒वा रा॒तिस्तु॑वीमघ॒ विश्वे॑भिर्धायि धा॒तृभिः॑।
अधा॑ चिदिन्द्र मे॒ सचा॑ ॥

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Griffith

So hath the offering; wealthiest Lord, been paid by all the worshippers: So dwell thou, Indra, even with me.

पदपाठः

ए॒व। रा॒तिः। तु॒वि॒ऽम॒घ॒। विश्वे॑भिः। धा॒यि॒। धा॒तृऽभिः॑। अध॑। चि॒त्। इ॒न्द्र॒। मे॒। सचा॑। ६०.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुतकक्षः
  • गायत्री
  • सूक्त-६०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तुविमघ) हे बहुत धनवाले ! (रातिः) [तेरा] दान (एव) निश्चय करके (विश्वेभिः) सब (धातृभिः) कर्मधारियों करके (धायि) धारण किया गया है, (अध) सो, (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (मे) मेरे लिये (चित्) भी (सचा) नित्य मेल से [रह] ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वीर पुरुष बहुत धन को एकत्र करके अपने कर्मकारियों को सदा प्रसन्न रक्खे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(एव) निश्चयेन (रातिः) दानम् (तुविमघ) हे बहुधनवन् (विश्वेभिः) सर्वैः (धायि) अधायि। धार्यते (धातृभिः) कर्मधारकैः (अध) अनन्तरम् (चित्) एव (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (मे) मह्यम् (सचा) समवायेन वर्तस्वेति शेषः ॥

०३ मो षु

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मो षु ब्र॒ह्मेव॑ तन्द्र॒युर्भुवो॑ वाजानां पते।
मत्स्वा॑ सु॒तस्य॒ गोम॑तः ॥

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Griffith

Be not thou, like a slothful priest, O Lord of wealth and spoil: rejoice. In the pressed Soma blent with milk.

पदपाठः

मो इति॑। सु। ब्र॒ह्माऽइ॑व। त॒न्द्र॒युः। भुवः॑। वा॒जा॒ना॒म्। प॒ते॒। मत्स्व॑। सु॒तस्य॑। गोऽम॑तः। ६०.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुतकक्षः
  • गायत्री
  • सूक्त-६०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वाजानां पते) हे अन्नों के रक्षक ! (ब्रह्मा इव) ब्रह्मा [वेदज्ञाता] के समान [होकर] तू (तन्द्रयुः) आलसी (मो षु भुवः) कभी भी मत हो, (गोमतः) वेदवाणी से युक्त (सुतस्य) तत्त्व रस का (मत्स्व) आनन्द भोग ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों के समान निरालसी होकर तत्त्वज्ञान के अभ्यास से सुखी होवें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(मो) नैव (सु) (ब्रह्मा) वेदज्ञाता (इव) यथा (तन्द्रयुः) तद्रि अवसादे मोहे च-घञ्, क्यच्-उ। तन्द्रम् आलस्यमिच्छन्। आलस्ययुक्तः (भुवः) भूयाः (वाजानाम्) अन्नानाम् (पते) रक्षक (मत्स्व) हर्षं प्राप्नुहि (सुतस्य) तत्त्वरसस्य (गोमतः) वेदवाणीयुक्तस्य ॥

०४ एवा ह्यस्य

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ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही।
प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑ ॥

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Griffith

So also is his excellence, great copious, rich in cattle, like A ripe branch to the worshipper.

पदपाठः

ए॒व। हि। अ॒स्य॒। सू॒नृता॑। वि॒ऽर॒प्शी। गोऽम॑ती। म॒ही। प॒क्वा। शाखा॑। न। दा॒शुषे॑। ६०.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-६०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) उस [सभापति] की (सूनृता) अन्नवाली क्रिया (एव) निश्चय करके (हि) ही (विरप्शी) स्पष्ट वाणीवाली, (गोमती) श्रेष्ठ दृष्टिवाली, (मही) सत्कारयोग्य, (पक्वा) परिपक्व [फल-फूलवाली] (शाखा न) शाखा के समान (दाशुषे) आत्मदानी पुरुष के लिये [होवे] ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा आदि सभापति दूरदर्शी होकर अन्न आदि पदार्थों से हितैषी सुपात्रों का सत्कार करके सुखी करें, जैसे फल-फूलवाले वृक्ष आनन्द देते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-१।८।८-१०। और आगे हैं, २०।७१।४-६ ॥ ४−(एव) निश्चयेन (हि) अवधारणे (अस्य) सभापतेः (सूनृता) सूनृतेत्यन्ननाम-निघ० २।७। अन्नवती क्रिया (विरप्शी) अ० ।२९।१३। वि+रप व्यक्तायां वाचि-क्विप् शप्प्रत्ययो मत्वर्थे, ङीप्। स्पष्टवाग्वती (गोमती) श्रेष्ठदृष्टियुक्ता (मही) महती। पूज्या (पक्वा) फलपुष्पयुक्ता (शाखा) वृक्षावयवः (न) इव (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥

०५ एवा हि

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ए॒वा हि ते॒ विभू॑तय ऊ॒तय॑ इन्द्र॒ माव॑ते।
स॒द्यश्चि॒त्सन्ति॑ दा॒शुषे॑ ॥

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Griffith

For verily thy mighty powers, Indra, are saving helps at once Unto a worshipper like me.

पदपाठः

ए॒व। हि। ते॒। विऽभू॑तयः। ऊ॒तयः॑। इ॒न्द्र॒। माऽव॑ते। स॒द्यः। चि॒त्। सन्ति॑। दा॒शुषे॑। ६०.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-६०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (एव) निश्चय करके (हि) ही (ते) तेरे (विभूतयः) अनेक ऐश्वर्य (मावते) मेरे तुल्य (दाशुषे) आत्मदानी के लिये (सद्यः चित्) तुरन्त ही (ऊतयः) रक्षासाधन (सन्ति) होते हैं ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा अपना ऐश्वर्य श्रेष्ठ उपकारी पुरुषों की रक्षा में लगाता रहे ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(एव) निश्चयेन (हि) अवधारणे (ते) तव (विभूतयः) विविधैश्वर्याणि (ऊतयः) रक्षासाधनानि (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (मावते) वतुप्प्रकरणे युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्। वा० पा० ।२।३९। अस्मद्-वतुप् सादृश्ये। आ सर्वनाम्नः। पा० ६।३।९१। इत्याकारादेशः। मत्सदृशाय (सद्यः) शीघ्रम् (चित्) एव (सन्ति) भवन्ति (दाशुषे) आत्मदानिने ॥

०६ एवा ह्यस्य

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ए॒वा ह्य॑स्य॒ काम्या॒ स्तोम॑ उ॒क्थं च॒ शंस्या॑।
इन्द्रा॑य॒ सोम॑पीतये ॥

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Griffith

So are his lovely gifts: let laud be said and praise to Indra sung. That he may drink the Soma juice.

पदपाठः

ए॒व। हि। अ॒स्य॒। काम्या॑। स्तोमः॑। उ॒क्थम्। च॒। शंस्या॑। इन्द्रा॑य। सोम॑ऽपीतये। ६०.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मधुच्छन्दाः
  • गायत्री
  • सूक्त-६०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) निश्चय करके (हि) ही (अस्य) उस [सभापति] के (काम्या) मनोहर और (शंस्या) प्रशंसनीय (स्तोमः) उत्तम गुण (च) और (उक्थम्) कहने योग्य कर्म (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् पुरुष के लिये (सोमपीतये) तत्त्वरस पीने के निमित्त [हैं] ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - उत्तम गुणी पुरुष को सभापति बनाकर सब मनुष्य ऐश्वर्यवाले और तत्त्वज्ञानवाले होवें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(एव) निश्चयेन (हि) अवधारणे (अस्य) सभापतेः (काम्या) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति द्विवचनस्य आकारः। कमनीये (स्तोमः) स्तुत्यगुणः (उक्थम्) वक्तव्यं कर्म (च) (शंस्या) पूर्ववद् आकारः। प्रशंसनीये (इन्द्राय) ऐश्वर्यवते पुरुषाय (सोमपीतये) तत्त्वरसपानाय ॥