०५९

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Griffith

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०१ उदु त्ये

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उदु॒ त्ये मधु॑ मत्त॒मा गिर॒ स्तोमा॑स ईरते।
स॑त्रा॒जितो॑ धन॒सा अक्षि॑तोतयो वाज॒यन्तो॒ रथा॑ इव ॥

०१ उदु त्ये ...{Loading}...

Griffith

उदु॒ त्ये मधु॑मत्तमा॒ गिर॒ स्तोमा॑स ईरते ।
स॒त्रा॒जितो॑ धन॒सा अक्षि॑तोतयो वाज॒यन्तो॒ रथा॑ इव ॥१॥

पदपाठः

उत्। ऊं॒ इति॑। त्ये। मधु॑मत्ऽतमाः। गिरः॑। स्तोमा॑सः। ई॒र॒ते॒। स॒त्रा॒ऽजितः॑। ध॒न॒साः। अक्षि॑तऽऊतयः। वा॒ज॒ऽयन्तः॑। रथाः॑ऽइव। ५९.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मेध्यातिथिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-५९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-२ ईश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (त्ये) वे (मधुमत्तमाः) अतिमधुर (स्तोमासः) स्तोत्र (उ) और (गिरः) वाणियाँ (उत् ईरते) ऊँची जाती हैं। (इव) जैसे (सत्राजितः) सत्य से जीतनेवाले, (धनसाः) धन देनेवाले, (अक्षितोतयः) अक्षय रक्षा करनेवाले, (वाजयन्तः) बल प्रकट करते हुए (रथाः) रथ [आगे बढ़ते हैं] ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे शूरवीरों के रथ रणक्षेत्र में विजय पाने के लिये उमंग से चलते हैं, वैसे ही मनुष्य दोषों और दुष्टों को वश में करने के लिये परमात्मा की स्तुति को किया करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १, २ आचुके हैं-अ० २०।१०।१-२ ॥ १-२−मन्त्रौ व्याख्यातौ अ० २०।१०।१-२ ॥

०२ कण्वा इव

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कण्वा॑ इव॒ भृग॑वः॒ सूर्या॑ इव॒ विश्व॒मिद्धी॒तमा॑नशुः।
इन्द्रं॒ स्तोमे॑भिर्म॒हय॑न्त आ॒यवः॑ प्रि॒यमे॑धासो अस्वरन् ॥

०२ कण्वा इव ...{Loading}...

Griffith

कण्वा॑ इव॒ भृग॑वः॒ सूर्या॑ इव॒ विश्व॒मिद्धी॒तमा॑नशुः ।
इन्द्रं॒ स्तोमे॑भिर्म॒हय॑न्त आ॒यवः॑ प्रि॒यमे॑धासो अस्वरन्॥२॥

पदपाठः

कण्वाः॑ऽइव। भृग॑वः। सूर्या॑ऽइव। विश्व॑म्। इत्। धी॒तम्। आ॒न॒शुः॒। इन्द्र॑म्। स्तोमे॑भिः। म॒हऽय॑न्तः। आ॒यवः॑। प्रि॒यमे॑धासः। अ॒स्व॒र॒न्। ५९.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मेध्यातिथिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-५९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-२ ईश्वर की उपासना का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वाः इव) बुद्धिमानों के समान, और (सूर्याः इव) सूर्यों के समान [तेजस्वी], (भृगवः) परिपक्व ज्ञानवाले, (महयन्तः) पूजते हुए, (प्रियमेधासः) यज्ञ को प्रिय जाननेवाले (आयवः) मनुष्यों ने (विश्वम्) व्यापक, (धीतम्) ध्यान किये गये (इन्द्रम्) इन्द्र [परमात्मा] को (इत्) ही (स्तोमेभिः) स्तोत्रों से (आनशुः) पाया है और (अस्वरन्) उच्चारा है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य बुद्धिमानों और सूर्यों के समान प्रतापी होकर परमात्मा के गुणों को गाते हुए आत्मोन्नति करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १-२−मन्त्रौ व्याख्यातौ अ० २०।१०।१-२ ॥

०३ उदिन्न्वस्य रिच्यतेऽंशो

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उदिन्न्व॑स्य रिच्य॒तेंऽशो॒ धनं॒ न जि॒ग्युषः॑।
य इन्द्रो॒ हरि॑वा॒न्न द॑भन्ति॒ तं रि॑पो॒ दक्षं॑ दधाति सो॒मिनि॑ ॥

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His portion is exceeding great, like a victorious soldier’s spoil. Him who is Indra, Lord of Bays, no foes subdue. He gives the Soma-pourer strength.

पदपाठः

उत्। इत्। नु। अ॒स्य॒। रि॒च्य॒ते॒। अंशः॑। धन॑म्। न। जि॒ग्युषः॑। यः। इन्द्रः॑। हरि॑ऽवान्। न। द॒भ॒न्ति॒। तम्। रिपः॑। दक्ष॑म्। द॒धा॒ति॒। सो॒मिनि॑। ५९.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-५९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

३-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) उस [राजा] का (इत्) ही (अंशः) भाग (जिग्युषः) विजयी वीर के (धनं न) धन के समान (नु) शीघ्र (उत् रिच्यते) बढ़ता जाता है (यः) जो (हरिवान्) श्रेष्ठ मनुष्योंवाला (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (सोमिनि) तत्त्व रसवाले व्यवहार में (दक्षम्) बल को (दधाति) लगाता है, और (तम्) उस [राजा] को (रिपः) वैरी लोग (न) नहीं (दभन्ति) सताते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो राजा अपने बल को श्रेष्ठ व्यवहारो में लगाता है, वह राज्य में उन्नति करके प्रतिष्ठा पाता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में है-७।३२।१२, १३ ॥ ३−(उत्) आधिक्ये (इत्) एव (नु) क्षिप्रम् (अस्य) राज्ञः (रिच्यते) अधिको भवति (अंशः) भागः (धनम्) (न) इव (जिग्युषः) जि जये-क्वसु। जयशीलस्य (यः) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (हरिवान्) प्रशस्तमनुष्यैर्युक्तः (न) निषेधे (दभन्ति) हिंसन्ति (तम्) राजानम् (रिपः) रिपवः। शत्रवः (दक्षम्) बलम् (दधाति) धरति (सोमिनि) तत्त्वरसवति व्यवहारे ॥

०४ मन्त्रमखर्वं सुधितम्

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मन्त्र॒मख॑र्वं॒ सुधि॑तं सु॒पेश॑सं॒ दधा॑त य॒ज्ञिये॒ष्वा।
पू॒र्वीश्च॒न प्रसि॑तयस्तरन्ति॒ तं य इन्द्रे॒ कर्म॑णा॒ भुव॑त् ॥

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Make for the holy Gods a hymn that is not mean, but well arranged and fair in form. Full many snares and bonds subdue not him who dwells with Indra through his sacrifice.

पदपाठः

मन्त्र॑म्। अख॑र्वम्। सुऽधि॑तम्। सु॒ऽपेश॑सम्। दधा॑त। य॒ज्ञिये॑षु। आ। पू॒र्वीः। च॒न। प्रऽसि॑तयः। त॒र॒न्ति॒। तम्। यः। इन्द्रे॑। कर्म॑णा। भुव॑त्। ५९.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-५९
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

३-४ राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (अखर्वम्) अनीच [धार्मिक], (सुधितम्) अच्छे प्रकार व्यवस्था किये गये, (सुपेशसम्) बहुत सोना आदि धन करनेवाले (मन्त्रम्) मन्त्र [मन्तव्य विचार] को (यज्ञियेषु) पूजायोग्य व्यवहारों में (आ) सब ओर से (दधात्) धारण करो। (पूर्वीः) प्राचीन (चन) ही (प्रसितयः) उत्तम प्रबन्ध (तम्) उस मनुष्य को (तरन्ति) पार लगाते हैं, (यः) जो पुरुष (इन्द्रे) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] के निमित्त (कर्मणा) क्रिया के साथ (भुवत्) होवे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा और विद्वान् जन मिलकर गूढ़ विचारों के साथ सर्वहितकारी काम करके आपस में प्रीति बढ़ावें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(मन्त्रम्) मन्तव्यं विचारम् (अखर्वम्) खर्व गतौ दर्पे च-अच्। अनीचम्। धार्मिकम् (सुधितम्) दधातेः-क्त। सुविहितम्। सुष्ठु व्यवस्थापितम् (सुपेशसम्) पेशो हिरण्यनाम-निघ० १।२। सुपेशांसि शोभनानि सुवर्णादिधनानि यस्मात् तम् (दधात) धत्त (यज्ञियेषु) पूजार्हेषु व्यवहारेषु (आ) समन्तात् (पूर्वीः) प्राचीनाः (चन) अपि (प्रसितयः) उत्तमप्रबन्धाः (तरन्ति) पारयन्ति (तम्) पुरुषम् (यः) (इन्द्रे) ऐश्वर्यवति राजनि निमित्ते (कर्मणा) सत्क्रियया (भुवत्) भवेत् ॥