०५८ ...{Loading}...
Griffith
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०१ श्रायन्त इव
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श्राय॑न्त इव॒ सूर्यं॒ विश्वेदिन्द्र॑स्य भक्षत।
वसू॑नि जा॒ते जन॑मान॒ ओज॑सा॒ प्रति॑ भा॒गं न दी॑धिम ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
श्राय॑न्त इव॒ सूर्यं॒ विश्वेदिन्द्र॑स्य भक्षत।
वसू॑नि जा॒ते जन॑मान॒ ओज॑सा॒ प्रति॑ भा॒गं न दी॑धिम ॥
०१ श्रायन्त इव ...{Loading}...
Griffith
Turning, as ’twere, to meet the Sun, enjoy from Indra all good things. When he who will be born is born with power we look to treasures as our heritage.
पदपाठः
श्राय॑न्तःऽइव। सूर्य॑म्। विश्वा॑। इत्। इन्द्र॑स्य। भ॒क्ष॒त॒। वसू॑नि। जा॒ते। जन॑माने। ओज॑सा। प्रति॑। भा॒गम्। न। दी॒धि॒म॒। ५८.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नृमेधः
- प्रगाथः
- सूक्त-५८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ईश्वर विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (सूर्यम्) सूर्य [रवि] का (श्रायन्तः इव) आश्रय करते हुए [किरणों] के समान (इन्द्रस्य) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् परमात्मा] के (ओजसा) सामर्थ्य से (विश्वा) सब (इत्) ही (वसूनि) वस्तुओं को (भक्षत) भोगो, [उनको] (जाते) उत्पन्न हुए और (जनमाने) उत्पन्न होनेवाले जगत् में (भागम् न) अपने भाग के समान (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (दीधिम) हम प्रकाशित करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे किरणें सूर्य के आश्रय से रहती हैं, वैसे ही परमात्मा का आश्रय लेकर संसार के पदार्थों से उपकार लेते हुए हम आगे होनेवालों के लिये पिता के धन के समान अपना कर्म छोड़ जावें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १, २ ऋग्वेद में हैं-८।९९ [सायणभाष्य ८८]। ३, ४ सामवेद-उ० ।२।१४, म० १-पू० ३।८। तथा यजुर्वेद-३३।४१ ॥ १−(श्रायन्तः) श्रिञ् सेवायाम्-शतृ। गुणे प्राप्ते छान्दसी वृद्धिः। श्रयन्तः। आश्रयन्तः किरणाः (इव) यथा (सूर्यम्) रविमण्डलम् (विश्वा) सर्वाणि (इत्) इव (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमात्मनः (भक्षत) भक्ष अदने-लोट्। भक्षयत। सेवध्वम् (वसूनि) वस्तूनि (जाते) उत्पन्ने (जनमाने) छान्दसं रूपम्। जनिष्यमाणे। उत्पत्स्यमाने जगति (ओजसा) सामर्थ्येन (प्रति) प्रत्यक्षेण (भागम्) सेवनीयमशंम् (न) इव (दीधिम) दीधीङ् दीप्तिदेवनयोः। छान्दसं परस्मैपदम्, अन्तर्गतण्यर्थः। प्रकाशयेम ॥
०२ अनर्शरातिं वसुदामुप
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अन॑र्शरातिं वसु॒दामुप॑ स्तुहि भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तयः॑।
सो अ॑स्य॒ कामं॑ विध॒तो न रो॑षति॒ मनो॑ दा॒नाय॑ चो॒दय॑न् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अन॑र्शरातिं वसु॒दामुप॑ स्तुहि भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तयः॑।
सो अ॑स्य॒ कामं॑ विध॒तो न रो॑षति॒ मनो॑ दा॒नाय॑ चो॒दय॑न् ॥
०२ अनर्शरातिं वसुदामुप ...{Loading}...
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Praise him who sends us wealth, whose bounties injure none. Good are the gifts which Indra gives. He is not wroth with one who satisfies his wish: he turns his mind to granting boons.
पदपाठः
अन॑र्शऽरातिम्। व॒सु॒ऽदााम्। उप॑। स्तु॒हि॒। भ॒द्राः। इन्द्र॑स्य। रा॒तयः॑। सः। अ॒स्य॒। काम॑म्। वि॒ध॒तः। न। रो॒ष॒ति॒। मनः॑। दा॒नाय॑। चो॒दय॑न्। ५८.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नृमेधः
- प्रगाथः
- सूक्त-५८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ईश्वर विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (अनर्शरातिम्) निर्दोष दानी, (वसुदाम्) धन देनेवाले [परमात्मा] की (उप) आदरपूर्वक (स्तुहि) स्तुति कर, (इन्द्रस्य) उस इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] के (रातयः) दान (भद्राः) कल्याणकारी हैं। (सः) वह [परमात्मा] (विधतः) सेवक के (मनः) मन को (दानाय) दान के लिये (चोदयन्) बढ़ाता हुआ (अस्य) उसकी (कामम्) इच्छा को (न) नहीं (रोषति) नष्ट करता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमात्मा के अक्षय भण्डार से अनन्त दानों को पाकर सदा उपकार में लगावें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अनर्शरातिम्) ऋश हिंसायाम्-अच्, सौत्रो धातुः। अनर्शरातिमनश्लीलदानमश्लीलं पापकमश्रिमद् विषमम्-निरु० ६।२३। निर्दोषदानम् (वसुदाम्) धनस्य दातारम् (उप) पूजायाम् (स्तुहि) प्रशंस (भद्राः) कल्याण्यः (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (रातयः) दानानि (सः) परमात्मा (अस्य) उपासकस्य (कामम्) मनोरथम् (विधतः) परिचरतः पुरुषस्य (न) निषेधे (रोषति) हिनस्ति। नाशयति (मनः) अन्तःकरणम् (दानाय) (चोदयन्) प्रेरयन् सन् ॥
०३ बण्महाँ असि
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बण्म॒हाँ अ॑सि सूर्य॒ बडा॑दित्य म॒हाँ अ॑सि।
म॒हस्ते॑ स॒तो म॑हि॒मा प॑नस्यते॒ऽद्धा दे॑व म॒हाँ अ॑सि ॥
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मूलम् (VS)
बण्म॒हाँ अ॑सि सूर्य॒ बडा॑दित्य म॒हाँ अ॑सि।
म॒हस्ते॑ स॒तो म॑हि॒मा प॑नस्यते॒ऽद्धा दे॑व म॒हाँ अ॑सि ॥
०३ बण्महाँ असि ...{Loading}...
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Verily, Surya, thou art great; truly, Aditya, thou art great. As thou art great indeed thy greatness is admired: yea, verily, great art thou, O God.
पदपाठः
बट्। म॒हान्। अ॒सि॒। सू॒र्य॒। बट्। आ॒दि॒त्य॒। म॒हान्। अ॒सि॒। म॒हः। ते॒। स॒तः। म॒हि॒मा। प॒न॒स्य॒ते॒। अ॒ध्दा। दे॒व॒। म॒हान्। अ॒सि॒। ५८.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- भरद्वाजः
- प्रगाथः
- सूक्त-५८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ईश्वर विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्य) हे चराचर के प्रेरक [परमेश्वर] तू (बट्) सत्य-सत्य (महान्) बड़ा (असि) है, (आदित्य) हे अविनाशी ! तू (बट्) ठीक-ठीक (महान्) महान् [पूजनीय] (असि) है। (ते) तुझ (महः) महान्, (सतः) सत्यस्वरूप की (महिमा) महिमा (पनस्यते) स्तुति की जाती है, (देव) हे दिव्य गुणवाले ! तू (अद्धा) निश्चय करके (महान्) महान् (असि) है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा की महिमा सब सृष्टि के पदार्थ जताते हैं, सब मनुष्य उसकी उपासना करके अपनी उन्नति करें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र ३ कुछ भेद से आचुका है-अ० १३।२।२९। मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में हैं-८।१०१ [सायणभाष्य ९०]।११, १२ यजुर्वेद ३३।३९, ४०। और सामवेद-उ० ९।१।९ ॥ ३−(बट्) सत्यम् (महान्) विशालः (असि) (सूर्य) हे चराचर-प्रेरक (बट्) (आदित्य) हे अविनाशिस्वरूप (महान्) पूजनीयः (असि) (महः) महतः (ते) तव (सतः) सत्यस्वरूपस्य (पनस्यते) स्तूयते (अद्धा) सत्यम् (देव) हे दिव्यगुणविशिष्ट (महान्) (असि) ॥
०४ बट्सूर्य श्रवसा
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बट्सू॑र्य॒ श्रव॑सा म॒हाँ अ॑सि स॒त्रा दे॑व म॒हाँ अ॑सि।
म॒ह्ना दे॒वाना॑मसु॒र्यः᳡ पु॒रोहि॑तो वि॒भु ज्योति॒रदा॑भ्यम् ॥
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मूलम् (VS)
बट्सू॑र्य॒ श्रव॑सा म॒हाँ अ॑सि स॒त्रा दे॑व म॒हाँ अ॑सि।
म॒ह्ना दे॒वाना॑मसु॒र्यः᳡ पु॒रोहि॑तो वि॒भु ज्योति॒रदा॑भ्यम् ॥
०४ बट्सूर्य श्रवसा ...{Loading}...
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Yea, Surya, thou art great in fame: thou evermore, O God, art great. By greatness thou art President of Gods, divine, far-spread, inviolable light.
पदपाठः
बट्। सू॒र्य॒। श्रव॑सा। म॒हान्। अ॒सि॒। स॒त्रा। दे॒व॒। म॒हान्। अ॒सि॒। मह्ना। दे॒वाना॑म्। अ॒सू॒र्यः। पु॒रःऽहि॑तः। वि॒ऽभु। ज्योतिः॑। अदा॑भ्यम्। ५८.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- भरद्वाजः
- प्रगाथः
- सूक्त-५८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ईश्वर विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्य) हे सूर्य ! [सूर्य के समान सबके प्रकाशक परमेश्वर] तू (श्रवसा) यश वा धन से (बट्) सचमुच (महान्) बड़ा (असि) है, (देव) हे सुखदाता तू (सत्रा) सचमुच (महान्) बड़ा (असि) है। (देवानाम्) चलनेवाले लोकों के बीच (मह्ना) अपनी बड़ाई से तू (असुर्यः) प्राणियों वा बुद्धिवालों का हितकारी (पुरोहितः) पुरोहित [अगुआ] और (विभु) व्यापक (अदाभ्यम्) न दबने योग्य (ज्योतिः) ज्योति है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो प्रकाशस्वरूप, सबका पुरोहित अर्थात् मुखिया होकर सब प्राणियों का हित करता है, मनुष्य उसकी आराधना करके आत्मबल बढ़ावें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(बट्) सत्यम् (सूर्य) हे सवितृवत् स्वप्रकाशक (श्रवसा) यशसा धनेन वा (महान्) (असि) (मह्ना) महिम्ना। महत्त्वेन (देवानाम्) गतिशीलानां लोकानां मध्ये (असुर्यः) असुः प्राणः। प्रज्ञानाम-निघ० ३।९, रो मत्वर्थीयः, यत् हितार्थे। असुरत्वं प्रज्ञावत्वं ज्ञानवत्त्वं वा-निरु० १०।३४। प्राणिभ्यो बुद्धिमद्भ्यो वा हितकरः (पुरोहितः) अ० ३।१९।१। पुरस्+डुधाञ् धारणपोषणयोः-क्त। अग्रे धृतः स्थापितः। प्रधानः (विभु) व्यापकम् (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूपम् (अदाभ्यम्) अहिंसनीयम् ॥