०५७ ...{Loading}...
Griffith
???
०१ सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सु॑रूपकृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑।
जु॑हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सु॑रूपकृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑।
जु॑हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥
०१ सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव ...{Loading}...
Griffith
As a good cow to him who milks, we call the doer of fair deeds. To our assistance day by day.
पदपाठः
सु॒रू॒प॒ऽकृ॒त्नुम्। ऊ॒तये॑। सु॒दुघा॑म्ऽइव। गो॒ऽदुहे॑। जु॒हू॒मसि॑। द्यवि॑ऽद्यवि॑। ५७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सुरूपकृत्नुम्) सुन्दर स्वभावों के बनानेवाले [राजा] को (ऊतये) रक्षा के लिये (द्यविद्यवि) दिन-दिन (जुहूमसि) हम बुलाते हैं, (इव) जैसे (सुदुघाम्) बड़ी दुधेल गौ को (गोदुहे) गौ दोहनेवाले के लिये ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे दुधेल गौ को दूध दोहने के लिये प्रीति से बुलाते हैं, वैसे ही प्रजागण विद्या आदि शुभ गुणों के बढ़ानेवाले राजा का आश्रय लेकर उन्नति करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: म० १-३ ऋग्वेद में है-१।४।१-३ और आगे है अ० २०।६८।१-३ ॥ १−(सुरूपकृत्नुम्) कृहनिभ्यां क्त्नुः। उ० ३।३०। करोतेः-क्त्नु। शोभनस्वभावानां कर्तारम् (ऊतये) रक्षायै (सुदुघाम्) अ० ७।७३।७। बहुदोग्ध्रीं गाम् (इव) यथा (गोदुहे) सत्सूद्विषद्रुहदुह०। पा० ३।२।६१। गो+दुह प्रपूरणे-क्विप्। गोर्दोग्ध्रे। दुग्धादिकमिच्छवे (जुहूमसि) ह्वयतेर्लेट् शपः श्लुः। अभ्यस्तस्य च। पा० ६।१।३३। इति अभ्यस्तीभविष्यतो ह्वयतेः सम्प्रसारणम्। सम्प्रसारणाच्च। पा० ६।१।१०८। इति पूर्वरूपत्वम्। हलः। पा० ६।४।२। इति। दीर्घः। श्लौ। पा० ६।१।१७। द्विर्वचनम्। ह्रस्वः। पा० ७।४।९। इति अभ्यासस्य ह्रस्वः। श्चुत्वजश्त्वे। इदन्तो मसि। पा० ७।१।४६। इति इकारागमः। जुहूमः। आह्वयामः (द्यविद्यवि) दिने-दिने निघ० १।६ ॥
०२ उप नः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उप॑ नः॒ सव॒ना ग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब।
गो॒दा इद्रे॒वतो॒ मदः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उप॑ नः॒ सव॒ना ग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब।
गो॒दा इद्रे॒वतो॒ मदः॑ ॥
०२ उप नः ...{Loading}...
Griffith
Come thou to our libations, drink of Soma, Soma-drinker thou! The rich One’s rapture giveth kine.
पदपाठः
उप॑। नः॒। सव॑ना। आ। ग॒हि॒। सोम॑स्य। सोम॒ऽपाः॒। पि॒ब॒। गो॒ऽदाः। इत्। रे॒वतः॑। मदः॑। ५७.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सोमपाः) हे ऐश्वर्य के रक्षक ! [राजन्] (नः) हमारे लिये (सवना) ऐश्वर्ययुक्त पदार्थों को (उप) समीप से (आ गहि) तू प्राप्त हो और (सोमस्य) सोम [तत्त्व रस] का (पिब) पान कर, (रेवतः) धनवान् पुरुष का (मदः) हर्ष (इत्) ही (गोदाः) दृष्टि का देनेवाला है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा ऐश्वर्यवान् और दूरदर्शी होकर प्रसन्नतापूर्वक प्रजा को ज्ञानवान् बनावे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(उप) समीपे (नः) अस्मभ्यम् (सवना) ऐश्वर्ययुक्तानि वस्तूनि (आ) समन्तात् (गहि) गच्छ। प्राप्नुहि (सोमस्य) तत्त्वरसस्य (सोमपाः) हे ऐश्वर्यरक्षक (पिब) पानं कुरु (गोदाः) क्विप् च। पा० ३।२।७६। गो+ददातेः-क्विप्। गोर्दृष्टेर्दाता (इत्) एव (रेवतः) धनवतः पुरुषस्य (मदः) हर्षः ॥
०३ अथा ते
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अथा॑ ते॒ अन्त॑मानां वि॒द्याम॑ सुमती॒नाम्।
मा नो॒ अति॑ ख्य॒ आ ग॑हि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अथा॑ ते॒ अन्त॑मानां वि॒द्याम॑ सुमती॒नाम्।
मा नो॒ अति॑ ख्य॒ आ ग॑हि ॥
०३ अथा ते ...{Loading}...
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So may we be acquainted with thine innermost benevolence: Neglect us not, come hitherward.
पदपाठः
अथ॑। ते॒। अन्त॑मानाम्। वि॒द्याम॑। सु॒ऽम॒ती॒नाम्। मा। नः॒। अति॑। ख्यः॒। आ। ग॒हि॒। ५७.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (अथ) और (ते) तेरी (अन्तमानाम्) अत्यन्त समीप रहनेवाली (सुमतीनाम्) सुन्दर बुद्धियों का (विद्याम) हम ज्ञान करें। तू (नः) हमें (अति) छोड़कर (मा ख्यः) मत बोल, (आ गहि) तू आ ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब राजा पूर्ण प्रीति से प्रजापालन करता है, प्रजागण उसकी धार्मिक नीतियों से लाभ उठाकर उससे प्रीति करते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(अथ) अनन्तरम् (ते) तव (अन्तमानाम्) अन्तः सामीप्यम्। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। इति अन्त-ठन् प्रत्ययः। ततोऽतिशायिने तमप्। पृषोदरादित्वात् तिक्शब्दस्य लोपः। अन्तमानाम्, अन्तिकनाम-निघ० २।१६। अन्तिकतमानाम्। अतिशयेन समीपस्थानाम् (विद्याम) वेत्तेर्लङ्। ज्ञानं कुर्याम, (मा) निषेधे (नः) अस्मान् (अति) अतीत्य। उल्लङ्घ्य। (ख्यः) ख्या प्रकथने लुङ्। माङ्योगेऽडभावः। प्रकथय (आ गहि) आगच्छ ॥
०४ शुष्मिन्तमं न
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शु॒ष्मिन्त॑मं न ऊ॒तये॑ द्यु॒म्निनं॑ पाहि॒ जागृ॑विम्।
इन्द्र॒ सोमं॑ शतक्रतो ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शु॒ष्मिन्त॑मं न ऊ॒तये॑ द्यु॒म्निनं॑ पाहि॒ जागृ॑विम्।
इन्द्र॒ सोमं॑ शतक्रतो ॥
०४ शुष्मिन्तमं न ...{Loading}...
Griffith
Drink for our help the Soma bright, vigilant, and exceeding strong, O Indra, Lord of Hundred Powers.
पदपाठः
यु॒ष्मिन्ऽत॑मम्। नः॑। ऊ॒तये॑। द्यु॒म्निन॑म्। पा॒हि॒। जागृ॑विम्। इन्द्र॑। सोम॑म्। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो॒। ५७.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वमित्रः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शतक्रतो) हे सैकड़ों कर्मों वा बुद्धियोंवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा के लिये (शुष्मिन्तमम्) अत्यन्त बलवान्, (द्युम्निनम्) अत्यन्त धनी वा यशस्वी और (जागृविम्) जागनेवाले [चौकस] पुरुष की और (सोमम्) ऐश्वर्य की (पाहि) रक्षा कर ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा धर्मात्मा शूरवीरों की और सबके ऐश्वर्य की यथावत् रक्षा करके प्रजा का पालन करे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र ४-१० आ चुके हैं-अ० २०।२०।१-७ ॥ ४-१०- एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २।२०।१-७ ॥
०५ इन्द्रियाणि शतक्रतो
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इ॑न्द्रि॒याणि॑ शतक्रतो॒ या ते॒ जने॑षु प॒ञ्चसु॑।
इन्द्र॒ तानि॑ त॒ आ वृ॑णे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॑न्द्रि॒याणि॑ शतक्रतो॒ या ते॒ जने॑षु प॒ञ्चसु॑।
इन्द्र॒ तानि॑ त॒ आ वृ॑णे ॥
०५ इन्द्रियाणि शतक्रतो ...{Loading}...
Griffith
O Satakratu, powers which thou mid the Five Races hast dis- played, These, Indra, do I claim of thee.
पदपाठः
इ॒न्द्रि॒याणि॑। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। या। ते॒। जने॑षु। प॒ञ्चऽसु॑। इन्द्र॑। तानि॑। ते॒। आ। वृ॒णे॒। ५७.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वमित्रः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शतक्रतो) हे सैकड़ों कर्मों वा बुद्धियोंवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (या) जो (ते) तेरे (इन्द्रियाणि) इन्द्र [ऐश्वर्यवान्] के चिह्न धनादि (पञ्चसु जनेषु) पञ्च [मुख्य] लोगों में हैं। (ते) तेरे (तानि) उन [चिह्नों] को (आ) सब प्रकार (वृणे) मैं स्वीकार करता हूँ ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् धार्मिक राजा बड़े-बड़े अधिकारियों का आदर करके प्रजा की रक्षा करे ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४-१०- एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २।२०।१-७ ॥
०६ अगन्निन्द्र श्रवो
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अग॑न्निन्द्र॒ श्रवो॑ बृ॒हद्द्यु॒म्नं द॑धिष्व दु॒ष्टर॑म्।
उत्ते॒ शुष्मं॑ तिरामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अग॑न्निन्द्र॒ श्रवो॑ बृ॒हद्द्यु॒म्नं द॑धिष्व दु॒ष्टर॑म्।
उत्ते॒ शुष्मं॑ तिरामसि ॥
०६ अगन्निन्द्र श्रवो ...{Loading}...
Griffith
Indra, great glory hast thou gained. Win splendid fame which none may mar. We make thy might perpetual.
पदपाठः
अग॑न्। इ॒न्द्र॒। श्रवः॑। बृ॒हत्। द्यु॒म्नम्। इ॒धि॒ष्व॒। दु॒स्तर॑म्। उत्। ते॒। शुष्म॑म्। ति॒र॒म॒सि॒। ५७.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वमित्रः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (बृहत्) बड़ा (श्रवः) अन्न [हमको] (अगन्) प्राप्त हुआ है, (दुस्तरम्) दुस्तर [अजेय] (द्युम्नम्) चमकनेवाले यश को (दधिष्व) तू धारण कर, (ते) तेरे (शुष्मम्) बल को (उत् तिरामसि) हम बढ़ाते हैं ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस राजा के कारण बहुत अन्न आदि पदार्थ मिलें, प्रजागण उसके बल बढ़ाने में सदा प्रयत्न करें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४-१०- एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २।२०।१-७ ॥
०७ अर्वावतो न
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अ॑र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॒ह्यथो॑ शक्र परा॒वतः॑।
उ॑ लो॒को यस्ते॑ अद्रिव॒ इन्द्रे॒ह त॑त॒ आ ग॑हि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॒ह्यथो॑ शक्र परा॒वतः॑।
उ॑ लो॒को यस्ते॑ अद्रिव॒ इन्द्रे॒ह त॑त॒ आ ग॑हि ॥
०७ अर्वावतो न ...{Loading}...
Griffith
Come to us either from anear, or, Sakra, come from far away. Indra, wherever be thy home, come thence, O Caster of the Stone.
पदपाठः
अ॒र्वा॒ऽवतः॑। नः॒। आ। ग॒हि॒। अथो॒ इति॑। श॒क्र॒। प॒रा॒वतः॑। ऊं॒ इति॑। लो॒कः। यः। ते॒। अ॒द्रि॒ऽवः॒। इन्द्र॑। इ॒ह। ततः॑। आ। ग॒हि॒। ५७.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वमित्रः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शक्र) हे समर्थ ! (अर्वावतः) समीप से (अथो) और (परावतः) दूर से (नः) हमें (आ गहि) प्राप्त हो, (अद्रिवः) हे वज्रधारी (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (उ) और (यः) जो (ते) तेरा (लोकः) स्थान है, (ततः) वहाँ से (इह) यहाँ पर (आ गहि) तू आ ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा अधिकारियों द्वारा समीप और दूर से प्रजा की सुधि रक्खे और उनको आप भी जा कर देखा करे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४-१०- एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २।२०।१-७ ॥
०८ इन्द्रो अङ्ग
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इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग म॒हद्भ॒यम॒भी षदप॑ चुच्यवत्।
स हि स्थि॒रो विच॑र्षणिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग म॒हद्भ॒यम॒भी षदप॑ चुच्यवत्।
स हि स्थि॒रो विच॑र्षणिः ॥
०८ इन्द्रो अङ्ग ...{Loading}...
Griffith
Verily Indra, conquering all, driveth even mighty fear away. For firm is he and swift to act.
पदपाठः
इन्द्रः॑। अ॒ङ्ग। म॒हत्। भ॒यम्। अ॒भि। सत्। अप॑। चु॒च्यव॒त्। सः। हि। स्थि॒रः। विऽच॑र्षणिः। ५७.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गृत्समदः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अङ्ग) हे विद्वान् ! (इन्द्र) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] ने (महत्) बड़े और (अभि) सब ओर से (सत्) वर्तमान (भयम्) भय को (अप चुच्यवत्) हटा दिया है। (सः हि) वही (स्थिरः) दृढ़ और (विचर्षणिः) विशेष देखनेवाला है ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा दृढ़स्वभाव और सावधान रहकर दुष्टों से प्रजा की रक्षा करे ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४-१०- एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २।२०।१-७ ॥
०९ इन्द्रश्च मृडयाति
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इन्द्र॑श्च मृ॒डया॑ति नो॒ न नः॑ प॒श्चाद॒घं न॑शत्।
भ॒द्रं भ॑वाति नः पु॒रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्र॑श्च मृ॒डया॑ति नो॒ न नः॑ प॒श्चाद॒घं न॑शत्।
भ॒द्रं भ॑वाति नः पु॒रः ॥
०९ इन्द्रश्च मृडयाति ...{Loading}...
Griffith
Indra be gracious unto us: sin shall not reach us afterward, And good shall be before us still.
पदपाठः
इन्द्रः॑। च॒। मृलया॑ति। नः॒। न। नः॒। प॒श्चात्। अ॒घम्। न॒श॒त्। भ॒द्रम्। भ॒वा॒ति॒। नः॒। पु॒रः। ५७.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गृत्समदः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (च) निश्चय करके (नः) हमें (मृडयाति) सुखी करे, (अघम्) पाप (नः) हमको (पश्चात्) पीछे (न) न (नशत्) नाश करे। (भद्रम्) कल्याण (नः) हमारे लिये (पुरः) आगे (भवाति) होवे ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि धर्मात्मा राजा के प्रबन्ध में रहकर पापों से बचकर सुख भोगें ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४-१०- एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २।२०।१-७ ॥
१० इन्द्र आशाभ्यस्परि
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इ॑न्द्र॒ आशा॑भ्य॒स्परि॒ सर्वा॑भ्यो॒ अभ॑यं करत्।
जेता॒ शत्रू॒न्विच॑र्षणिः ॥
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मूलम् (VS)
इ॑न्द्र॒ आशा॑भ्य॒स्परि॒ सर्वा॑भ्यो॒ अभ॑यं करत्।
जेता॒ शत्रू॒न्विच॑र्षणिः ॥
१० इन्द्र आशाभ्यस्परि ...{Loading}...
Griffith
From all the regions of the world let Indra send security. The foe-subduer, swift to act.
पदपाठः
इन्द्रः॑। आशा॑भ्यः। परि॑। सर्वा॑भ्यः। अभ॑यम्। क॒र॒त्। जेता॑। शत्रू॑न्। विच॑र्षणिः। ५७.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गृत्समदः
- गायत्री
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-१० मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (सर्वाभ्यः) सब (आशाभ्यः) आशाओं [गहरी इच्छाओं] के लिये (अभयम्) अभय (परि) सब ओर से (करत्) करे। वह (शत्रून् जेता) शत्रुओं को जीतनेवाला और (विचर्षणिः) विशेष देखनेवाला है ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा अपने न्याययुक्त प्रबन्ध से विघ्नों को हटाकर प्रजा की उन्नति की गहरी इच्छाओं को पूरा करे ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४-१०- एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २।२०।१-७ ॥
११ क ईम्
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क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे।
अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे।
अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥
११ क ईम् ...{Loading}...
Griffith
क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद् वयो॑ दधे ।
अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥११॥
पदपाठः
कः। ई॒म्। वे॒द॒। सु॒ते। सचा॑। पिब॑न्तम्। कत्। वयः॑। द॒धे॒। अ॒यम्। यः। पुरः॑। वि॒ऽभि॒नत्ति॑। ओज॑सा। म॒न्दा॒नः। शि॒प्री। अन्ध॑सः। ५७.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
११-१३ सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कौन (सचा) नित्य मेल के साथ (सुते) तत्त्वरस (पिबन्तम्) पीते हुए (ईम्) प्राप्तियोग्य [सेनापति] को (वेद) जानता है ? (कत्) कितना (वयः) जीवनसामर्थ्य [पराक्रम] (दधे) वह रखता है ? (अयम्) यह (यः) जो (शिप्री) दृढ़ जबड़ेवाला, (अन्धसः) अब का (मन्दानः) आनन्द देनेवाला [वीर] (ओजसा) बल से (पुरः) दुर्गों को (विभिनत्ति) तोड़ देता है ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस पराक्रमी पुरुष के शरीर बल और बुद्धिबल की थाह सामान्य पुरुष नहीं जानते, वह नीतिज्ञ अन्न आदि पदार्थ एकत्र करके वैरियों को जीतता है ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र ११-१३ आचुके हैं-अ० २०।३।१-३ ॥ ११-१३ एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥
१२ दाना मृगो
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दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे।
नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हांश्च॑र॒स्योज॑सा ॥
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मूलम् (VS)
दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे।
नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हांश्च॑र॒स्योज॑सा ॥
१२ दाना मृगो ...{Loading}...
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दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे ।
नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हांश्च॑र॒स्योज॑सा ॥१२॥
पदपाठः
दा॒ना। मृगः। न। वा॒र॒णः। पु॒रु॒ऽत्रा। च॒रथ॑म्। द॒धे॒। नकिः॑। त्वा॒। नि। य॒म॒त्। आ। सु॒ते। ग॒मः॒। म॒हान्। च॒र॒सि॒। ओज॑सा। ५७.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
११-१३ सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे (मृगः) जंगली (वारणः) हाथी (दाना) मद के कारण (पुरुत्रा) बहुत प्रकार से (चरथम्) झपट (दधे) लगाता है। [वैसे ही] (नकि) कोई नहीं (त्वा) तुझे (नि यमत्) रोक सकता, (सुते) तत्त्वरस को (आ गमः) तू प्राप्त हो, (महान्) महान् होकर तू (ओजसा) बल के साथ (चरसि) विचरता है ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे वन का मदमत्त हाथी सब ओर बे-रोक घूमकर उपद्रव मचाता है, वैसे ही नीतिज्ञ सेनापति तत्त्व विचारकर शत्रुओं को शीघ्र दबावे ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११-१३ एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥
१३ य उग्रः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृतः स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः।
यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृतः स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः।
यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत् ॥
१३ य उग्रः ...{Loading}...
Griffith
य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृत स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः ।
यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत्॥१३॥
पदपाठः
यः। उ॒ग्रः। सन्। अनिः॑ऽस्तृतः। स्थि॒रः। रणा॑य। संस्कृ॑तः। यदि॑। स्तो॒तुः। म॒घऽवा॑। शृ॒णव॑त्। हव॑म्। हव॑म्। न। इन्द्रः॑। यो॒ष॒ति॒। आ। ग॒म॒त्। ५७.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
११-१३ सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [वीर] (उग्रः) प्रचण्ड, (अनिष्टृतः) कभी न हराया गया, (स्थिरः) दृढ़ (सन्) होकर (रणाय) रण के लिये (संस्कृतः) संस्कार किये हुए है। (यदि) यदि (मघवा) वह महाधनी (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला सेनापति] (स्तोतुः) स्तुति करनेवाले की (हवम्) पुकार (शृणवत्) सुने, [तो] (न योषति) वह अलग न रहे, [किन्तु] (आ गमत्) आता रहे ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रतापी, अजेय, युद्धकुशल सेनापति प्रजा की पुकार को सदा ध्यान देकर सुनता रहे ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११-१३ एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥
१४ वयं घ
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व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः।
प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न्परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः।
प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न्परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥
१४ वयं घ ...{Loading}...
Griffith
We compass thee like waters, we whose grass in trimmed and Soma pressed. Here where the filter pours its stream thy worshippers round thee, O Vritra-slayer, sit.
पदपाठः
व॒यम्। घ॒। त्वा॒। सु॒तऽव॑न्तः। आपः॑। न। वृ॒क्तऽब॑र्हिषः। प॒वित्र॑स्य। प्र॒ऽस्रव॑णेषु। वृ॒त्र॒ऽह॒न्। परि॑। स्तो॒तारः॑। आ॒स॒ते॒। ५७.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र १४-१६ परमात्मा की उपासना का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक ! [परमात्मन्] (सुतवन्तः) तत्त्व के धारण करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) हिंसा त्यागनेवाले [अथवा बुद्धि पानेवाले विद्वान्], (स्तोतारः) स्तुति करनेवाले (वयम्) हम लोग (घ) निश्चय करके (त्वा) तुझको (परि आसते) सेवते हैं, (पवित्रस्य) शुद्ध स्थान के (प्रस्रवणेषु) झरना में (आपः न) जैसे जल [ठहरते हैं] ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - तत्त्वग्राही विद्वान् लोग उस परमात्मा के ही ध्यान में शान्ति पाते हैं, जैसे बहता हुआ पानी शुद्ध चौरस स्थान में आकर ठहर जाता है ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १४-१६ आचुके हैं-अ० २०।२।१-३ ॥ १४-१६। एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥
१५ स्वरन्ति त्वा
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स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिनः॑।
क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओक॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिनः॑।
क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओक॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥
१५ स्वरन्ति त्वा ...{Loading}...
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Men, Vasu, by the Soma with lauds call thee to the foremost place. When comest thou athirst unto the juice as home, O Indra, like a bellowing bull?
पदपाठः
स्वर॑न्ति। त्वा॒। सु॒ते। नरः॑। वसो॒ इति॑। नि॒रे॒के। उ॒क्थिनः॑। क॒दा। सृ॒तम्। तृ॒षा॒णः। ओकः॑। आ। ग॒मः। इन्द्र॑। स्व॒ब्दीऽइ॑व। वंस॑गः। ५७.१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र १४-१६ परमात्मा की उपासना का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वसो) हे श्रेष्ठ ! [परमात्मन्] (उक्थिनः) कहने योग्य वचनोंवाले (नरः) नर [नेता लोग] (निरेके) निःशङ्क स्थान में (सुते) सार पदार्थ के निमित्त (त्वा) तुझको (स्वरन्ति) पुकारते हैं−(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (कदा) कब (तृषाणः) प्यासे [के समान] तू (सुतम्) पुत्र को (ओकः) घर में (आ गमः) प्राप्त होगा, (स्वब्दी इव) जैसे सुन्दर जल देनेवाला मेघ (वंसगः) सेवनीय पदार्थों का प्राप्त करानेवाला [होता है] ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य सार पदार्थ पाने के लिये परमात्मा की भक्ति निर्भय होकर करता है, परमात्मा उसको इस प्रकार चाहता है, जैसे प्यासा जल को, और इस प्रकार उसका उपकार करता है, जैसे सूखा के पीछे मेह आनन्द देता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४-१६। एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥
१६ कण्वेभिर्धृष्णवा धृषद्वाजम्
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कण्वे॑भिर्धृष्ण॒वा धृ॒षद्वाजं॑ दर्षि सह॒स्रिण॑म्।
पि॒शङ्ग॑रूपं मघवन्विचर्षणे म॒क्षू गोम॑न्तमीमहे ॥
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मूलम् (VS)
कण्वे॑भिर्धृष्ण॒वा धृ॒षद्वाजं॑ दर्षि सह॒स्रिण॑म्।
पि॒शङ्ग॑रूपं मघवन्विचर्षणे म॒क्षू गोम॑न्तमीमहे ॥
१६ कण्वेभिर्धृष्णवा धृषद्वाजम् ...{Loading}...
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Boldly, bold Hero, bring us spoil in thousands for the Kanvas’ sake. O active Maghavan, with eager prayer we crave the yellow-hued with store of kine.
पदपाठः
क॒ण्वे॑भिः। धृ॒ष्णो॒ इति॑। आ। धृ॒षत्। वाज॑म्। द॒र्षि॒। स॒ह॒स्रिण॑म्। पि॒शङ्ग॑ऽरूपम्। म॒घ॒ऽव॒न्। वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒। म॒क्षू। गोम॑न्तम्। ई॒म॒हे॒। ५७.१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र १४-१६ परमात्मा की उपासना का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (धृष्णो) हे निर्भय ! [परमात्मन्] (धृषत्) दृढ़ता से (कण्वेभिः) बुद्धिमानों करके [किये हुए] (सहस्रिणम्) सहस्रों आनन्दवाले (वाजम्) वेग का (आ दर्षि) तू आदर करता है, (मघवन्) हे धनवाले ! (विचर्षणे) हे दूरदर्शी ! (पिशङ्गरूपम्) अवयवों को रूप देनेवाले, (गोमन्तम्) वेदवाणीवाले [तुझ] से (मक्षु) शीघ्र (ईमहे) हम प्रार्थना करते हैं ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वह परमात्मा परमाणुओं से सूर्य आदि बड़े-बड़े लोकों का बनानेवाला है, उस निर्भय की उपासना से मनुष्य धर्मात्मा होकर निर्भय होवें ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४-१६। एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥