०५६ ...{Loading}...
Griffith
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०१ इन्द्रो मदाय
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रो॒ मदा॑य वावृधे॒ शव॑से वृत्र॒हा नृभिः॑।
तमिन्म॒हत्स्वा॒जिषू॒तेमर्भे॑ हवामहे॒ स वाजे॑षु॒ प्र नो॑ऽविषत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रो॒ मदा॑य वावृधे॒ शव॑से वृत्र॒हा नृभिः॑।
तमिन्म॒हत्स्वा॒जिषू॒तेमर्भे॑ हवामहे॒ स वाजे॑षु॒ प्र नो॑ऽविषत् ॥
०१ इन्द्रो मदाय ...{Loading}...
Griffith
Indra, foe-slayer, hath been raised to joy and power by the men. Him, verily, we invocate in battles whether great or small: be he our aid in fights for spoil.
पदपाठः
इन्द्रः॑। मदा॑य। व॒वृ॒धे॒। शव॑से। वृ॒त्र॒हा। नृऽभिः॑। तम्। इत्। म॒हत्ऽसु॑। आ॒जिषु॑। उ॒त। ई॒म्। अर्भे॑। ह॒वा॒म॒हे॒। सः। वाजे॑षु। प्र। नः॒। अ॒वि॒ष॒त्। ५६.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमः
- पङ्क्तिः
- सूक्त-५६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहा) रोकनेवाले शत्रुओं का नाश करनेवाला (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला सभापति] (मदाय) आनन्द और (शवसे) बल के लिये (नृभिः) नरों [नेताओं] के साथ (वावृधे) बढ़ा है। (तम् ईम्) उस प्राप्तियोग्य को (इत्) ही (महत्सु) बड़े (आजिषु) संग्रामों में (उत) और (अर्भे) छोटे [संग्राम] में (हवामहे) हम बुलाते हैं, (सः) वह (वाजेषु) सङ्ग्रामों में (नः) हमें (प्र) अच्छे प्रकार (अविषत्) बचावे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य प्रजा की भलाई के लिये पराक्रम करके शत्रुओं को मारे, उसी हितैषी को सेनापति बनाना चाहिये ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।८१।१-३, ७-९। तृच १ कुछ भेद से सामवेद में है-उ० ३।२। तृच १४।, मन्त्र १, पू० ।३।३ ॥ १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभाध्यक्षः (मदाय) आनन्दाय (वावृधे) लिटि रूपम्। प्रवृद्धो बभूव (शवसे) बलाय (वृत्रहा) आवरकाणां शत्रूणां नाशकः (नृभिः) नेतृभिः पुरुषैः (तम्) सेनापतिम् (इत्) एव (महत्सु) महाप्रबलेषु (आजिषु) अ० २।१४।६। संग्रामेषु (उत) अपि (ईम्) प्राप्तव्यम् (अर्भे) अल्पे संग्रामे (हवामहे) आह्वयामः (सः) सेनापतिः (वाजेषु) संग्रामेषु (प्र) (नः) अस्मान् (अविषत्) अव रक्षणे-लेट्, इकारलोपः सिप् च इडागमश्च। रक्षेत् ॥
०२ असि हि
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असि॒ हि वी॑र॒ सेन्यो॑ऽसि॒ भूरि॑ पराद॒दिः।
असि॑ द॒भ्रस्य॑ चिद्वृ॒धो य॑जमानाय शिक्षसि सुन्व॒ते भूरि॑ ते॒ वसु॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
असि॒ हि वी॑र॒ सेन्यो॑ऽसि॒ भूरि॑ पराद॒दिः।
असि॑ द॒भ्रस्य॑ चिद्वृ॒धो य॑जमानाय शिक्षसि सुन्व॒ते भूरि॑ ते॒ वसु॑ ॥
०२ असि हि ...{Loading}...
Griffith
For, Hero, thou art like a host, art giver of abundant prey. Strengthening even the feeble, thou aidest the sacrificer, thou givest the worshipper ample wealth.
पदपाठः
असि॑। हि। वी॒रः॒। सेन्यः॑। असि॑। भूरि॑। प॒रा॒ऽद॒दिः। असि॑। द॒भ्रस्य॑। चि॒त्। वृ॒धः। यज॑मानाय। शि॒क्ष॒सि॒। सुन्व॒ते। भूरि॑। ते॒। वसु॑। ५६.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमः
- पङ्क्तिः
- सूक्त-५६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वीर) हे वीर तू (हि) ही (सेन्यः) सेनाओं का हितकारी (असि) है, (भूरि) बहुत प्रकार से (पराददिः) शत्रुओं का पकड़नेवाला (असि) है। तू (दभ्रस्य) छोटे पुरुष का (चित्) अवश्य (वृधः) बढ़ानेवाला (असि) है, तू (सुन्वते) तत्त्व निचोड़नेवाले (यजमानाय) यजमान को (ते) अपना (भूरि) बहुत (वसु) धन (शिक्षसि) देता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वीर सेना हितकारी योग्य छोटे अधिकारियों को बढ़ाकर श्रेष्ठों का मान करे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(असि) (हि) (वीर) (सेन्यः) सेनाभ्यो हितः (असि) (भूरि) बहु (पराददिः) पर+आङ्+डु दाञ् दाने-किप्रत्ययः। पराञ्च्छत्रूनादाता ग्रहीता (असि) (दभ्रस्य) अल्पस्य पुरुषस्य (चित्) एव (वृधः) वृधेरन्तर्गतण्यन्तात् कप्रत्ययः। वर्धयिता (यजमानाय) श्रेष्ठकर्मकारकाय (शिक्षसि) ददासि-निघ० ३।२०। (सुन्वते) तत्त्वं संस्कुर्वते (भूरि) बहु (ते) त्वदीयम्। स्वकीयम् (वसु) धनम् ॥
०३ यदुदीरत आजयो
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यदु॒दीर॑त आ॒जयो॑ धृ॒ष्णवे॑ धीयते॒ धना॑।
यु॒क्ष्वा म॑द॒च्युता॒ हरी॒ कं हनः॒ कं वसौ॑ दधो॒ऽस्माँ इ॑न्द्र॒ वसौ॑ दधः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यदु॒दीर॑त आ॒जयो॑ धृ॒ष्णवे॑ धीयते॒ धना॑।
यु॒क्ष्वा म॑द॒च्युता॒ हरी॒ कं हनः॒ कं वसौ॑ दधो॒ऽस्माँ इ॑न्द्र॒ वसौ॑ दधः ॥
०३ यदुदीरत आजयो ...{Loading}...
Griffith
When war and battles are on foot, booty is laid before the bold. Yoke thou thy wildly rushing Bays. Whom wilt thou slay and whom enrich? Do thou, O Indra, make us rich,
पदपाठः
यत्। उ॒त्ऽईर॑ते। आ॒जयः॑। धृ॒ष्णवे॑। धी॒य॒ते॒। धना॑। यु॒क्ष्व। म॒द॒ऽच्युता॑। हरी॒ इति॑। कम्। हनः॑। कम्। वसौ॑। द॒धः॒। अ॒स्मान्। इ॒न्द्र॒। वसौ॑। द॒धः॒। ५६.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमः
- पङ्क्तिः
- सूक्त-५६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (आजयः) सङ्ग्राम (उदीरते) उठते हैं, (धृष्णवे) निर्भय पुरुष के लिये (धना) धन (धीयते) धरा जाता है। (मदच्युता) आनन्द देनेवाले (हरी) दो घोड़ों [के समान बल और पराक्रम] को (युक्ष्व) जोड़, (कम्) किस [शत्रु] को (हनः) तू मारेगा ? (कम्) किस [मित्र] को (वसौ) धन के बीच (दधः) तू रक्खेगा ? (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] (अस्मान्) हमें तू (वसौ) धन में (दधः) रख ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विजय पाने पर वीर पुरुष धन पाता है, यह विचारकर राजा बल और पराक्रम से युद्धसामग्री एकत्र करके शत्रुओं को मारता हुआ और मित्रों का सत्कार करता हुआ प्रजा की उन्नति करे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(यत्) यदा (उदीरते) उद्गच्छन्ति (आजयः) संग्रामाः (धृष्णवे) प्रगल्भाय (धीयते) ध्रियते (धना) विभक्तेराकारः। धनम् (युक्ष्व) सांहितिको दीर्घः। युजिर् योगे-लोट्, अन्तर्गतण्यर्थः। योजय (मदच्युता) मदस्य हर्षस्य च्यावयितारौ प्रापयितारौ (हरी) अश्वाविव बलपराक्रमौ (कम्) शत्रुम् (हनः) हन्तर्लेट्। हन्याः (कम्) सुहृदम् (वसौ) वसुनि। धने। (दधः) दध धारणे-लेट्। दध्याः (अस्मान्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् सेनापते (वसौ) धने (दधः) स्थापय ॥
०४ मदेमदे हि
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मदे॑मदे॒ हि नो॑ द॒दिर्यू॒था गवा॑मृजु॒क्रतुः॑।
सं गृ॑भाय पु॒रु श॒तोभ॑याह॒स्त्या वसु॑ शिशी॒हि रा॒य आ भ॑र ॥
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मूलम् (VS)
मदे॑मदे॒ हि नो॑ द॒दिर्यू॒था गवा॑मृजु॒क्रतुः॑।
सं गृ॑भाय पु॒रु श॒तोभ॑याह॒स्त्या वसु॑ शिशी॒हि रा॒य आ भ॑र ॥
०४ मदेमदे हि ...{Loading}...
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He, righteous-hearted, at each time of rapture gives us herds of kine. Gather in both thy hands for us treasures of many hundred sorts. Sharpen thou us, and bring us wealth.
पदपाठः
मदे॑ऽमदे। हि। नः॒। द॒दिः। यू॒था। गवा॑म्। ऋ॒जु॒ऽक्रतुः॑। सम्। गृ॒भा॒य॒। पु॒रु। श॒ता। उ॒भ॒या॒ह॒स्त्या। वसु॑। शि॒शी॒हि। रा॒यः। आ। भ॒र॒। ५६.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमः
- पङ्क्तिः
- सूक्त-५६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ऋजुक्रतुः) सच्ची बुद्धि वा कर्मवाला तू (मदेमदे) आनन्द-आनन्द पर (हि) निश्चय करके (नः) हमको (गवाम्) गो आदि पशुओं के (यूथा) समूहों का (ददिः) देनेवाला है, (उभयाहस्त्या) दोनों हाथों से (पुरु) बहुत (शता) सैकड़ों (वसु) धनों को (सं गृभाय) संग्रह कर, (शिशीहि) तीक्ष्ण हो और (रायः) धनों को (आ) सब ओर से (भर) भर ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् राजा आनन्द के प्रत्येक अवसर पर योग्य पुरुषों का सत्कार करे और उचित व्यय करने के लिये सदा धन का संग्रह करता रहे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(मदेमदे) प्रत्येकहर्षावसरे (हि) निश्चयेन (नः) अस्मभ्यम् (ददिः) डुदाञ् दाने-किप्रत्ययः। दाता (यूथा) यूथानि। समूहान् (गवाम्) गवादिपशूनाम् (ऋजुक्रतुः) सरलबुद्धिः। सत्यकर्मा (संगृभाय) सम्यग् गृहाण (पुरु) बहूनि (शता) शतानि (उभयाहस्त्या) विभक्तेर्ड्याजादेशः, छान्दसो दीर्घः। उभाभ्यां हस्ताभ्याम् (वसु) वसूनि। धनानि (शिशीहि) शो तनूकरणे, विकरणस्य श्लुः, अभ्यासस्य इत्वम्। ई हल्यघोः। पा० ६।४।११३। इति धातोरीत्वम्। श्य। तीक्ष्णीभव। उद्यतो भव (रायः) धनानि (आ) समन्तात् (भर) धेहि ॥
०५ मादयस्व सुते
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मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से।
वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से।
वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व ॥
०५ मादयस्व सुते ...{Loading}...
Griffith
Refresh thee, Hero, with the juice outpoured for bounty and for strength. We know thee Lord of ample store, to thee have sent our heart’s desires: be therefore our protector thou.
पदपाठः
मा॒दय॑स्व। सु॒ते। सचा॑। शव॑से। शू॒र॒। राध॑से। वि॒द्म। हि। त्वा॒। पु॒रु॒ऽवसु॑म्। उप॑। कामा॑न्। स॒सृ॒ज्महे॑। अथ॑। नः॒। अ॒वि॒ता। भ॒व॒। ५६.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमः
- पङ्क्तिः
- सूक्त-५६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे शूर ! (सुते) उत्पन्न जगत् में (सचा) नित्य मेल के साथ (शवसे) बल के लिये और (राधसे) धन के लिये (मादयस्व) आनन्द दे। (त्वा) तुझको (हि) निश्चय करके (पुरुवसुम्) बहुतों में श्रेष्ठ (विद्म) हम जानते हैं, और (कामान्) मनोरथों को (उप) समीप से (ससृज्महे) हम सिद्ध करते हैं, (अथ) इसलिये तू (नः) हमारा (अविता) रक्षक (भव) हो ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - बल और धन की वृद्धि के लिये शूर सेनापति के आश्रय से मनोरथ सिद्ध करके रक्षा करे ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(मादयस्व) आनन्दय (सुते) उत्पन्ने जगति (सचा) समवायेन। नित्यसम्बन्धेन (शवसे) बलाय (शूर) हे शत्रुनिवारक (राधसे) धनाय (विद्म) जानीमः (हि) अवधारणे (त्वा) त्वाम् (पुरुवसुम्) बहुषु श्रेष्ठम् (उप) समीपे (कामान्) मनोरथान् (ससृज्महे) सृज विसर्गे, विकरणस्य श्लुः। निष्पादयामः। साधयामः (अथ) अनन्तरम् (नः) अस्माकम् (अविता) अवतेस्तृच्। रक्षकः (भव) ॥
०६ एते त
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ए॒ते त॑ इन्द्र ज॒न्तवो॑ विश्वं पुष्यन्ति॒ वार्य॑म्।
अ॒न्तर्हि ख्यो जना॑नाम॒र्यो वेदो॒ अदा॑शुषां॒ तेषां॑ नो॒ वेद॒ आ भ॑र ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ए॒ते त॑ इन्द्र ज॒न्तवो॑ विश्वं पुष्यन्ति॒ वार्य॑म्।
अ॒न्तर्हि ख्यो जना॑नाम॒र्यो वेदो॒ अदा॑शुषां॒ तेषां॑ नो॒ वेद॒ आ भ॑र ॥
०६ एते त ...{Loading}...
Griffith
These people, Indra, keep for thee all that is worthy of thy choice. Discover thou, as Lord, the wealth of men who offer up no gifts: bring thou to us this wealth of theirs.
पदपाठः
ए॒ते। ते॒। इ॒न्द्रः॒। ज॒न्तवः॑। विश्व॑म्। पु॒ष्य॒ति॒। वार्य॑म्। अ॒न्तः। हि। ख्यः। जना॑नाम्। अ॒र्यः। वेदः॑। अदा॑शुषाम्। तेषा॑म्। नः॒। वेदः॑। आ। भ॒र॒। ५६.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमः
- पङ्क्तिः
- सूक्त-५६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (ते) तेरे लिये (एते) यह (जन्तवः) लोग (विश्वम्) सब (वार्यम्) स्वीकार योग्य पदार्थ को (पुष्यन्ति) पुष्ट करते हैं। (अर्यः) स्वामी तू (तेषाम्) उन (जनानाम्) मनुष्यों के (अन्तः) बीच (हि) निश्चय करके (अदाशुषाम्) अदानी लोगों की (वेदः) समझ को (ख्यः) देख और (नः) हमारे लिये (वेदः) विज्ञान को (आ) सब प्रकार (भर) प्राप्त करा ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे प्रजागण श्रेष्ठ पदार्थों के दान से राजभक्ति करें, वैसे ही राजा अदाताओं से प्रजा की रक्षा करके विज्ञान की वृद्धि करे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(एते) उपस्थिताः (ते) तुभ्यम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (जन्तवः) जीवाः जनाः (विश्वम्) सर्वम् (पुष्यन्ति) वर्धयन्ति (वार्यम्) स्वीकार्यं पदार्थम् (अन्तः) मध्ये (हि) अवश्यम् (ख्यः) ख्या प्रकथने दर्शने च लोडर्थे लुङ्। पश्य (जनानाम्) जन्तूनाम्। जीवानाम् (अर्यः) स्वामी (वेदः) बोधम् (अदाशुषाम्) अदातॄणाम् (तेषाम्) पूर्वोक्तानां जन्तूनाम् (नः) अस्मभ्यम् (वेदः) विज्ञानम् (आ) समन्तात् (भर) प्रापय ॥