०५३ ...{Loading}...
Griffith
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०१ क ईम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे।
अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे।
अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥
०१ क ईम् ...{Loading}...
Griffith
Who knows what vital power he wins, drinking beside the flowing juice? This is the fair-cheeked God who, joying in the draught, breaks down the castles in his strength.
पदपाठः
कः। ई॒म्। वे॒द॒। सु॒ते। सचा॑। पिब॑न्तम्। कत्। वयः॑। द॒धे॒। अ॒यम्। यः। पुरः॑। वि॒ऽभि॒नत्ति॑। ओज॑सा। म॒न्दा॒नः। शि॒प्री। अन्ध॑सः। ५३.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कौन (सचा) नित्य मेल के साथ (सुते) तत्त्व रस (पिबन्तम्) पीते हुए (ईम्) प्राप्तियोग्य [सेनापति] को (वेद) जानता है ? (कत्) कितना (वयः) जीवनसामर्थ्य [पराक्रम] (दधे) वह रखता है ? (अयम्) यह (यः) जो (शिप्री) दृढ़ जबड़ेवाला, (अन्धसः) अन्न का (मन्दानः) आनन्द देनेवाला [वीर] (ओजसा) बल से (पुरः) दुर्गों को (विभिनत्ति) तोड़ देता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस पराक्रमी पुरुष के शरीर बल और बुद्धिबल की चाह सामान्य मनुष्य नहीं जानते, वह नीतिज्ञ अन्न आदि पदार्थ एकत्र करके वैरियों को जीतता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।३३।७-९, सामवेद-उ० ८।२। तृच १, आगे है-अथ० २।७।११-१३, मन्त्र १ सामवेद-पू० ४।१। ॥ १−(कः) सामान्यपुरुषः (ईम्) प्राप्तव्यं सेनापतिम् (वेद) वेत्ति (सुते) सुतम्। तत्त्वरसम् (सचा) समवायेन। नित्यसम्बन्धेन (पिबन्तम्) (कत्) कियत् परिमाणम् (वयः) जीवनसामर्थ्यम्। पराक्रमम् (दधे) लडर्थे लिट्। धारयति (अयम्) (यः) (पुरः) नगराणि। दुर्गाणि (विभिनत्ति) विशेषेण छिनत्ति (ओजसा) बलेन (मन्दानः) अ० २०।९।१। आमोदयिता (शिप्री) अ० २०।४।१। दृढहनुः (अन्धसः) अन्नस्य ॥
०२ दाना मृगो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे।
नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हाँश्च॑र॒स्योज॑सा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे।
नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हाँश्च॑र॒स्योज॑सा ॥
०२ दाना मृगो ...{Loading}...
Griffith
As a wild elephant rushes on, this way and that way, mad with heat. None may restrain thee; yet come hither to the draught: thou movest mighty in thy power.
पदपाठः
दा॒ना। मृ॒गः। वा॒र॒णः। पु॒रु॒ऽत्रा। च॒रथ॑म्। द॒धे॒। नकिः॑। त्वा॒। नि। य॒म॒त्। आ। सु॒ते। ग॒मः॒। म॒हान्। च॒र॒सि॒। ओज॑सा। ५३.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे (मृगः) जंगली (वारणः) हाथी (दाना) मद के कारण (पुरुत्रा) बहुत प्रकार से (चरथम्) झपट (दधे) लगाता है। [वैसे ही] (नकिः) कोई नहीं (त्वा) तुझे (नि यमत्) रोक सकता, (सुते) तत्त्व रस को (आ गमः) तू प्राप्त हो, (महान्) महान् होकर तू (ओजसा) बल के साथ (चरसि) विचरता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे वन का मदमत्त हाथी सब ओर बेरोक घूमकर उपद्रव मचाता है, वैसे ही नीतिज्ञ सेनापति तत्त्व विचारकर शत्रुओं को शीघ्र दबावे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(दाना) दानेन। मदजलेन (मृगः) वनचरः (न) यथा (वारणः) गजः (पुरुत्रा) बहुप्रकारेण (चरथम्) शीङ्शपिरुगमि। उ० ३।११३। चरतेः अथप्रत्ययः। संचरणम् (दधे) धरति (नकिः) न कोऽपि (त्वा) त्वाम् (नि यमत्) नियच्छति (आ) (सुते) तत्त्वरसम् (गमः) प्राप्नुहि (महान्) (चरसि) (ओजसा) ॥
०३ य उग्रः
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य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृतः स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः।
यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृतः स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः।
यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत् ॥
०३ य उग्रः ...{Loading}...
Griffith
When he, the mighty, ne’er o’erthrown, stedfast, made ready for the fight. When Indra, Bounteous Lord, lists to his praiser’s call, he will not stand aloof, but come.
पदपाठः
यः। उ॒ग्रः। सन्। अनिः॑ऽस्तृतः। स्थि॒रः। रणा॑य। संस्कृ॑तः। यदि॑। स्तो॒तुः। म॒घऽवा॑। शृ॒ण्व॑त्। हव॑म्। न। इन्द्रः॑। यो॒ष॒ति॒। आ। ग॒म॒त्। ५३.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-५३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [वीर] (उग्रः) प्रचण्ड, (अनिष्टृतः) कभी न हराया गया, (स्थिरः) दृढ़ (सन्) होकर (रणाय) रण के लिये (संस्कृतः) संस्कार किये हुए हैं। (यदि) यदि (मघवा) वह महाधनी (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला सेनापति] (स्तोतुः) स्तुति करनेवाले की (हवम्) पुकार (शृणवत्) सुने, [तो] (न योषति) वह अलग न रहे, [किन्तु] (आ गमत्) आता रहे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रतापी अजेय, युद्धकुशल सेनापति प्रजा की पुकार को सदा ध्यान देकर सुनता रहे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(यः) वीरः (उग्रः) प्रचण्डः (सन्) भवन् (अनिष्टृतः) अ+निः+स्तृञ् आच्छादने हिसायां च-क्त। स्तृणातिर्वधकर्मा-निघः० २।१९। न कदापि हिंसितः (स्थिरः) दृढः (रणाय) युद्धाय (संस्कृतः) कृतसंस्कारः। सन्नद्धः (यदि) सम्भावनायाम् (स्तोतुः) (मघवा) महाधनी (शृणवत्) शृणुयात् (हवम्) आह्वानम् (न) निषेधे (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापतिः (योषति) यु मिश्रणामिश्रणयोः-लेट्। पृथग् भवेत् (आगमन्) आ गच्छेत् ॥