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Griffith

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०१ कन्नव्यो अतसीनाम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

कन्नव्यो॑ अत॒सीनां॑ तु॒रो गृ॑णीत॒ मर्त्यः॑।
न॒ही न्व॑स्य महि॒मान॑मिन्द्रि॒यं स्व᳡र्गृ॒णन्त॑ आन॒शुः ॥

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Griffith

What newest of imploring hymns shall, then, the zealous mortal sing? For have not they who laud his might and Indra-power won for themselves the light of heaven?

पदपाठः

कत्। नव्यः॑। अ॒त॒सीना॑म्। तु॒रः। गृ॒णी॒त॒। मर्त्यः॑। न॒हि। नु। अ॒स्य॒। म॒हि॒ऽमान॑म्। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वः॑। गृ॒णन्तः॑। आ॒न॒शुः। ५०.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मेधातिथिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-५०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर की महिमा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अतसीनाम्) सदा चलती हुई [सृष्टियों] के (तुरः) वेग देनेवाले [परमात्मा] के (नव्यः) अधिक नवीन कर्म को (मर्त्यः) मनुष्य (कत्) कैसे (गृणीत) बता सके ? (नु) क्या (अस्य) उसकी (महिमानम्) महिमा और (इन्द्रियम्) इन्द्रपन [परम ऐश्वर्य] को (गृणन्तः) वर्णन करते हुए पुरुषों ने (स्वः) आनन्द (नहि) नहीं (आनशुः) पाया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यद्यपि अल्पज्ञ मनुष्य सब सृष्टियों के चलानेवाले जगदीश्वर के अनन्त गुणों को नहीं जान सकता, तो भी वह उसकी महिमा और परम ऐश्वर्य को विचारते-विचारते और पुरुषार्थ करते-करते अवश्य आनन्द पाता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।३।१३, १४ ॥ १−(कत्) कथम् (नव्यः) अ० २०।३६।७। नवीयः। नवतरं कर्म (अतसीनाम्) अत्यविचमितमि०। उ० ३।११७। अत सातत्यगमने-असच्, गौरादित्वाद् ङीष्। संततगामिनीनां सृष्टीनाम् (तुरः) तुर वेगे-क्विप्। प्रेरकस्य परमेश्वरस्य (गृणीत) गॄ विज्ञापे-लिङ्। गारयेत। वर्णयेत (मर्त्यः) मनुष्यः (नहि) न कदापि (नु) प्रश्ने (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमानम्) महत्त्वम् (इन्द्रियम्) इन्द्रलिङ्गम्। परमैश्वर्यम् (स्वः) सुखम् (गृणन्तः) स्तुवन्तो जनाः (आनशुः) अश्नोतेर्लिटि परस्मैपदं छान्दसम्। प्रापुः ॥

०२ कदु स्तुवन्त

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कदु॑ स्तु॒वन्त॑ ऋतयन्त दे॒वत॒ ऋषिः॒ को विप्र॑ ओहते।
क॒दा हवं॑ मघवन्निन्द्र सुन्व॒तः कदु॑ स्तुव॒त आ ग॑मः ॥

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Griffith

When shall they keep the Law and praise thee mid the Gods? Who counts as Rishi and as sage? When wilt thou ever, Indra, Bounteous Lord, come nigh to presser’s or to praiser’s call?

पदपाठः

कत्। ऊं॒ इति॑। स्तु॒वन्तः॑। ऋ॒त॒ऽय॒न्त॒। दे॒वता॑। ऋषिः॑। कः। विप्रः॑। ओ॒ह॒ ते॒। क॒दा। हव॑म्। म॒घ॒ऽव॒न्। इ॒न्द्र॒। सु॒न्व॒तः। कत्। ऊं॒ इति॑। स्तु॒व॒तः। आ। ग॒मः॒। ५०.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • मेधातिथिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-५०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर की महिमा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (कत् उ) कैसे ही (स्तुवन्तः) स्तुति करनेवाले लोगों ने (ऋतयन्त) सत्य धर्म को चाहा है ? (देवता) विद्वानों में (कः) कौन (ऋषिः) ऋषि [धर्म का साक्षात् करनेवाला], (विप्र) बुद्धिमान् पुरुष (ओहते) सब-प्रकार से विचार करे ? (मघवन्) हे अति पूजनीय ! (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (सुन्वतः) तत्त्व निचोड़नेवाले, (स्तुवतः) स्तुति करनेवाले की (हवम्) पुकार को (कदा) कब और (कत्) कैसे (उ) निश्चय करके (आ) सब प्रकार से (गमः) तू पहुँचा है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब ऋषि महात्मा भी परमात्मा को ठीक-ठीक नहीं पहुँचते, तो हम अल्पज्ञ होकर उस तक कैसे पहुँचे ? हम ऐसी शङ्का करने लगते हैं। परन्तु परमात्मा अपनी शक्तिमत्ता से अपने भक्तों की पुकार सदा सुनता है, यह सोचकर हम अवश्य उसके लिये पुरुषार्थ करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: भगवान् यास्कमुनि ने कहा है−धर्म के साक्षात् करनेवाले ऋषि हुए, उन्होंने छोटों, धर्म के साक्षात् न करनेवालों को उपदेश द्वारा मन्त्र दिये थे-निरु० १।२० ॥ २−(कत्) कथम् (उ) एव (स्तुवन्तः) स्तुतिं कुर्वन्तः (ऋतयन्त) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। ऋत-क्यच्, आत्मनेपदत्त्वम्, ईत्वं दीर्घाभावोऽडभावश्च च्छान्दसः। अर्तीयन्। ऋतं सत्यधर्ममैच्छन् (देवता) देवतासु। विद्वत्सु (ऋषिः) मन्त्रार्थद्रष्टा। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० १।११। साक्षात्कृतधर्म्माण ऋषयो बभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान्त्सम्प्रादुः-निरु० १।२० (कः) (विप्रः) मेधावी (ओहते) समन्तादूहते तर्कयति (कदा) कस्मिन् काले (हवम्) आह्वानम् (मघवन्)। हे बहुपूजनीय (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (सुन्वतः) तत्त्वरसं संस्कुर्वतः (कत्) कथम् (उ) एव (स्तुवतः) स्तुतिं कुर्वतः पुरुषस्य (आ) समन्तात् (गमः) अगमः। प्राप्तवानसि ॥