०४८

०४८ ...{Loading}...

Griffith

???

०१ अभि त्वा

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अ॒भि त्वा॒ वर्च॑सा॒ गिरः॑ सि॒ञ्चन्ती॒राच॑र॒ण्यवः॑।
अ॒भि व॒त्सं न धे॒नवः॑ ॥

०१ अभि त्वा ...{Loading}...

Griffith

The swiftly-moving songs of praise pour on thee streams of vital strength As mother cows refresh the calf.

पदपाठः

अ॒भि। त्वा॒। वर्च॑सा। गिरः॒। सिञ्च॑न्तीः। आच॑र॒ण्यवः॑। अ॒भि। व॒त्सम्। न। धे॒नवः॑। ४८.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, सूर्यः
  • खिलः
  • गायत्री
  • सूक्त-४८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-३ परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] (आचरण्यवः) सब ओर चलती हुई (गिरः) वाणियाँ (त्वा) तुझको (वर्चसा) प्रकाश के साथ (अभि) सब प्रकार (सिञ्चन्तीः) सींचती हुई [हैं]। (न) जैसे (धेनवः) दुधेल गाएँ (वत्सम्) [अपने] बच्चे को (अभि) सब प्रकार [सींचती हैं] ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य प्रकाशस्वरूप परमात्मा की अनन्य भक्ति करके आनन्द पावें, जैसे गौएँ अपने तुरन्त उत्पन्न हुये बच्चों से प्रीति करके सुखी होती हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: [सूचना−मन्त्र १-३ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं है, और इनका पदपाठ भी गवर्नमेन्ट बुकडिपो बम्बई के पुस्तक में नहीं है। हम स्वामी विश्वेश्वरानन्द नित्यानन्द कृत पदसूची से संग्रह करके यहाँ लिखते हैं, बुद्धिमान् जन विचार लेवें। सूचना अथ० २०।३४।१२ भी देखें।]१−(अभि) सर्वतः) (त्वा) (वर्चसा) तेजसा (गिरः) वाचः (सिञ्चन्तीः) सिञ्चन्त्यः। वर्धयन्त्यः (आचरण्यवः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। आ+चरण गतौ-युच्। समन्ताद् गतिशीलाः (अभि) (वत्सम्) शिशुम् (न) यथा (धेनवः) दोग्ध्र्यो गावः ॥

०२ ता अर्षन्ति

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ता अ॑र्षन्ति शु॒भ्रियः॑ पृञ्च॒तीर्वर्च॑सा॒ प्रि॒यः॑।
जा॒तं जा॒त्रीर्यथा॑ हृ॒दा ॥

०२ ता अर्षन्ति ...{Loading}...

Griffith

Swift move the bright ones while they blend the Milk with vital vigour, as A dame her infant with her heart.

पदपाठः

ताः। अ॑र्षन्त‍ि। शु॒भ्रियः॒। पृञ्च॑न्तीः॒। वर्च॑सा। प्रि॒यः। जा॒तम्। जा॒त्रीः। यथा॑। हृ॒दा। ४८.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, सूर्यः
  • खिलः
  • गायत्री
  • सूक्त-४८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-३ परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शुभ्रियः) शुद्ध (प्रियः) प्रीति करती हुई (ताः) वे [वाणियाँ-मन्त्र १] (वर्चसा) प्रकाश के साथ (पृञ्चन्तीः) छूती हुई [तुझको-मन्त्र १] (अर्षन्ति) ग्रहण करती हैं। (यथा) जैसे (जात्रीः) माताएँ (जातम्) जने हुए बच्चों को (हृदा) हृदय से [ग्रहण करती हैं] ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को एकाग्रचित्त होकर परमात्मा की उपासना ऐसी रीति से करनी चाहिये, जैसे माता तुरन्त जन्मे बालक से प्रीति करती है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(ताः) गिरः-म० १ (अर्षन्ति) ऋषी गतौ। प्राप्नुवन्ति। गृह्णन्ति (शुभ्रियः) अदिशदिभृशुभिभ्यः क्रिन्। उ० ४।६। शुभ शोभायाम्-क्रिन्, ङीप्। शुद्धाः (पृञ्चन्तीः) सम्पर्कं कुर्वन्त्यः (वर्चसा) तेजसा (प्रियः) प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च-क्विप्। तर्पयित्र्यः (जातम्) उत्पन्नं सन्तानम् (जात्रीः) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१९। जन जनने-ष्ट्रन्, ङीष्। जनयित्र्यः। जनन्यः (यथा) (हृदा) हृदयेन ॥

०३ वज्रापवसाध्यः कीर्तिर्म्रियमाणमावहन्

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वज्रा॑पव॒साध्यः॑ की॒र्तिर्म्रि॒यमा॑ण॒माव॑हन्।
मह्य॒मायु॑र्घृ॒तं पयः॑ ॥

०३ वज्रापवसाध्यः कीर्तिर्म्रियमाणमावहन् ...{Loading}...

Griffith

Fair hymns bring glory to the Strong, and Indra-vigour; unto, me Fatness and milk and length of days.

पदपाठः

वज्रा॑पव॒साध्यः॑। की॒र्तिः। म्रि॒यमा॑ण॒म्। आव॑हन्। मह्य॑म्। आयुः॑। घृ॒तम्। पयः॑। ४८.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, सूर्यः
  • खिलः
  • गायत्री
  • सूक्त-४८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-३ परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रापवसाध्यः) शस्त्रों के शोधनेवालों [उजले शस्त्रवालों] की सिद्धि करनेवाला, (कीर्तिः) कीर्तिरूप [बड़े ही यश वाला, परमेश्वर] (मह्यम्) मेरे लिये (म्रियमाणम्) नष्ट होते हुए (आयुः) जीवन, (घृतम्) घी [वा जल] और (पयः) दूध [वा अन्न] को (आवहन्) यथावत् लाता हुआ है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब हम किसी विपत्ति से निर्बल होकर अति दुःखी होवें, तब हम उस जगत्पालक परमात्मा का आश्रय लेकर शस्त्र आदि कर्तव्य ठीक करके कार्यसिद्धि करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता के अनुसार इस मन्त्र का यह पाठ है−उ॒ग्राय॑ य॒शसो॒ धियः॑ की॒र्तिमि॑न्द्रि॒यमा व॑हान्। मह्य॒मायु॑र्घृ॒तं॒ पयः॑ ॥३॥ (यशसः) यशस्वी [परमेश्वर] (उग्राय मह्यम्) मुझ तेजस्वी के लिये (धियः) बुद्धियाँ (कीर्तिम्) कीर्ति [बड़ाई], (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य, (आयुः) जीवन, (घृतम्) घी [वा जल] (पयः) दूध [वा अन्न] (आ) अच्छे प्रकार (वहान्) लावे ॥३॥मनुष्य परमेश्वर का आश्रय लेकर उत्तम विद्याएँ पाकर आवश्यकीय पदार्थ पावे ॥३॥ ३−(वज्रापवसाध्यः) वज्र+आ+पूञ् शोधने-अप्। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। साध संसिद्धौ-ण्यत्। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति कर्तरि प्रत्ययः। साध्याः साधनात्-निरु० ८।४०। वज्राणां शस्त्राणाम्। आपवानां संशोधकानां साध्यः साधकः सिद्धिकर्ता (कीर्तिः) यशोरूपः परमेश्वरः (म्रियमाणम्) विनश्यमानम् (आवहन्) आ समन्ताद् वहन् प्रापयन् वर्तते (मह्यम्) उपासकाय (आयुः) जीवनम् (घृतम्) आज्यं जलं वा (पयः) दुग्धमन्नं वा ॥ ३−(उग्राय) तेजस्विने (यशसः) अर्शआद्यच्। यशस्वी परमात्मा (धियः) प्रज्ञाः (कीर्तिम्) यशः (इन्द्रियम्) ऐश्वर्यम् (आ) समन्तात् (वहान्) लेट्। वहेत्। प्रापयेत् (मह्यम्) उपासकाय। अन्यत् पूर्ववत् ॥

०४ आयं गौः

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आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः।
पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः᳡ ॥

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Griffith

This brindled Bull hath come and sat before the Mother in the east, Advancing to the Father Heaven.

पदपाठः

आ। अ॒यम्। गौः। पृश्निः॑। अ॒क्र॒मी॒त्। अस॑दत्। मा॒तर॑म्। पु॒रः। पि॒तर॑म्। च॒। प्र॒ऽयन्। स्वः॑। ४८.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, सूर्यः
  • सार्पराज्ञी
  • गायत्री
  • सूक्त-४८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह (गौः) चलने वा चलानेवाला, (पृश्निः) रसों वा प्रकाश का छूनेवाला सूर्य (आ अक्रमीत्) घूमता हुआ है, (च) और (पितरम्) पालन करनेवाले (स्वः) आकाश में (प्रयन्) चलता हुआ (पुरः) सन्मुख होकर (मातरम्) सबकी बनानेवाली पृथिवी माता को (असदत्) व्यापा है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यह सूर्य अन्तरिक्ष में घूमकर आकर्षण, वृष्टि आदि व्यापारों से पृथिवी आदि लोकों का उपकार करता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ४-६ आचुके हैं-अ० ६।३१।१-३, वहाँ सविस्तार अर्थ देखो। ४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० ६।३१।१-३ ॥

०५ अन्तश्चरति रोचना

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अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः।
व्य॑ख्यन्महि॒षः स्वः᳡ ॥

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Griffith

As expiration from breath she moves along the lucid spheres: The Bull shines forth through all the sky.

पदपाठः

अ॒न्तः। च॒र॒ति॒। रो॒च॒ना। अ॒स्य। प्रा॒णात्। अ॒पा॒न॒तः। वि। अ॒ख्य॒त्। म॒हि॒षः। स्वः॑। ४८.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, सूर्यः
  • सार्पराज्ञी
  • गायत्री
  • सूक्त-४८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणात्) भीतर के श्वास के पीछे (अपानतः) बाहर को श्वास निकालते हुए (अस्य) इस [सूर्य] की (रोचना) रोचक ज्योति (अन्तः) [जगत् के] भीतर (चरति) चलती है, और वह (महिषः) बड़ा सूर्य (स्वः) आकाश को (वि) विविध प्रकार (अख्यत्) प्रकाशित करता है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे सब प्राणी श्वास-प्रश्वास से जीवित रहकर चेष्टा करते हैं, वैसे ही सूर्य प्रकाश का ग्रहण और त्याग करके लोकों को प्रकाशित करता है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० ६।३१।१-३ ॥

०६ त्रिंशद्धामा वि

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त्रिं॒शद्धामा॒ वि रा॑जति॒ वाक्प॑त॒ङ्गो अ॑शिश्रियत्।
प्रति॒ वस्तो॒रह॒र्द्युभिः॑ ॥

०६ त्रिंशद्धामा वि ...{Loading}...

Griffith

Song is bestowed upon the Bird. It reigns supreme throughout thirty realms Throughout the days at break of morn.

पदपाठः

त्रिं॒शत्। धाम॑। वि। रा॒ज॒ति॒। वाक्। प॒त॒ङ्गः। अ॒शि॒श्रि॒य॒त्। प्रति॑। वस्तोः॑। अहः॑। द्युऽभिः॑। ४८.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, सूर्यः
  • सार्पराज्ञी
  • गायत्री
  • सूक्त-४८
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पतङ्गः) चलनेवाला वा ऐश्वर्यवाला सूर्य (त्रिंशद् धामा) तीस धामों पर [दिन-रात्रि के तीस मुहूर्तों पर] (वस्तोः, अहः) दिन-दिन (द्युभिः) अपनी किरणों और गतियों के साथ (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (वि) विविध प्रकार (राजति) राज करता वा चमकता है, (वाक्) इस वचन ने [उस सूर्य में] (अशिश्रियत्) आश्रय लिया है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यह बात स्वयं सिद्ध है कि यह सूर्य सर्वदा सब ओर चमकता रहकर अपनी परिधि के सब लोकों को गमन, आकर्षण, विकर्षण, वृष्टि, शीत, ताप आदि द्वारा स्थिर रखता है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० ६।३१।१-३ ॥