०४७ ...{Loading}...
Griffith
???
०१ तमिन्द्रं वाजयामसि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे।
स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे।
स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥
०१ तमिन्द्रं वाजयामसि ...{Loading}...
Griffith
We make this Indra show his strength, to strike the mighty Vritra dead: A vigorous Hero shall he be.
पदपाठः
तम्। इन्द्र॑म्। वा॒ज॒या॒म॒सि॒। म॒हे। वृ॒त्राय॑। हन्त॑वे। सः। वृषा॑। वृ॒ष॒भः। भु॒व॒त्। ४७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सुकक्षः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) उस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (महे) बड़े (वृत्राय) रोकनेवाले वैरी के (हन्तवे) मारने को (वाजयामसि) हम बलवान् करते हैं [उत्साही बनाते हैं], (सः) वह (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठ वीर (भुवत्) होवे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रजागण राजा को शत्रुओं के मारने के लिये सहाय करें, और राजा भी प्रजा की भलाई के लिये प्रयत्न करे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १-३ ऋग्वेद में है-८।९३ [सायणभाष्य ८२]।७-९ कुछ भेद से सामवेद-उ० ।१। तृच १०। मन्त्र १। पू० २।३। और यह तृच आगे है-अथ० २०।१३७।१२-१४ ॥ १−(तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (वाजयामसि) बलवन्तं कुर्मः। उत्साहयामः (महे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। महान्तम् (वृत्राय) आवरकं, शत्रुम् (हन्तवे) मारयितुम् (सः) (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठो वीरः (भुवत्) भवेत् ॥
०२ इन्द्रः स
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इन्द्रः॒ स दाम॑ने कृ॒त ओजि॑ष्ठः॒ स मदे॑ हि॒तः।
द्यु॒म्नी श्लो॒की स सो॒म्यः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रः॒ स दाम॑ने कृ॒त ओजि॑ष्ठः॒ स मदे॑ हि॒तः।
द्यु॒म्नी श्लो॒की स सो॒म्यः ॥
०२ इन्द्रः स ...{Loading}...
Griffith
Indra was made for giving, most powerful, friendly in carouse, Bright, meet for Soma, famed in song.
पदपाठः
इन्द्रः॑। सः। दाम॑ने। कृ॒तः। ओजि॑ष्ठः। सः। मदे॑। हि॒तः। द्यु॒म्नी। श्लो॒की। सः। सो॒म्यः। ४७.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सुकक्षः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (दामने) दान करने के लिये और (सः) वह (मदे) आनन्द देने के लिये (ओजिष्ठः) महाबली और (हितः) हितकारी (कृतः) बनाया गया है, (सः) वह (द्युम्नी) अन्नवाला और (श्लोकी) कीर्तिवाला पुरुष (सोम्यः) ऐश्वर्य के योग्य है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रजागण प्रतापी, गुणी पुरुष को इसलिये राजा बनावें कि वह प्रजा के उपकार के लिये दान करके प्रयत्न करे और अन्न आदि पदार्थ बढ़ाकर कीर्ति पावे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (सः) (दामने) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४। ददातेः-मनिन्। दानाय (कृतः) स्वीकृतः (ओजिष्ठः) ओजस्वितमः (सः) (मदे) आनन्ददानाय (हितः) हितकरः (द्युम्नी) अन्नवान् (श्लोकी) कीर्तिमान् (सः) (सोम्यः) ऐश्वर्ययोग्यः ॥
०३ गिरा वज्रो
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गि॒रा वज्रो॒ न संभृ॑तः॒ सब॑लो॒ अन॑पच्युतः।
व॑व॒क्ष ऋ॒ष्वो अस्तृ॑तः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
गि॒रा वज्रो॒ न संभृ॑तः॒ सब॑लो॒ अन॑पच्युतः।
व॑व॒क्ष ऋ॒ष्वो अस्तृ॑तः ॥
०३ गिरा वज्रो ...{Loading}...
Griffith
By song, as ’twere, the mighty bolt, which none may parry, was prepared: Lofty, invincible he grew.
पदपाठः
गि॒रा। वज्रः॑। न। सम्ऽभृ॑तः। सऽब॑लः। अन॑पऽच्युतः। व॒व॒क्षे। ऋ॒ष्वः। अस्तृ॑तः। ४७.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सुकक्षः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गिरा) वाणी से (संभृतः) पुष्ट किया गया, (सबलः) सबल, (अनपच्युतः) न गिरने योग्य, (ऋष्वः) गतिवाला, और (अस्तृतः) बे-रोक सेनापति (वज्रः न) बिजुली के समान (ववक्षे) रिस होवे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अपनी बात में सच्चा, महाबली हो, वह सेनानी होकर शत्रुओं पर बिजुली के समान क्रोध करे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(गिरा) वाण्या (वज्रः) विद्युत् (न) यथा (संभृतः) सम्यक् पोषितः (सबलः) बलसहितः (अनपच्युतः) परैरपरिच्युतः। अनभिगतः (ववक्षे) अ० २०।३।९। लेडर्थे लिट्। रोषं कुर्यात् (ऋष्वः) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।११। ऋषी गतौ-क्वन्। गतिमान्। महान्-निघ० ३।३। (अस्तृतः) अहिंसितः। अनिवारितः ॥
०४ इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः
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इन्द्र॒मिद्गा॒थिनो॑ बृ॒हदिन्द्र॑म॒र्केभि॑र॒र्किणः॑।
इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्र॒मिद्गा॒थिनो॑ बृ॒हदिन्द्र॑म॒र्केभि॑र॒र्किणः॑।
इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषत ॥
०४ इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः ...{Loading}...
Griffith
इन्द्र॒मिद् गा॒थिनो॑ बृ॒हदिन्द्र॑म॒र्केभि॑र॒र्किणः॑ । इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषत ॥४॥
पदपाठः
इन्द्र॑म्। इत्। गा॒थिनः॑। बृ॒हत्। इन्द्र॑म्। अ॒र्केभिः॑। अ॒र्किणः॑। इन्द्र॑म्। वाणीः॑। अ॒नू॒ष॒त॒। ४७.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गाथिनः) गानेवालों और (अर्किणः) विचार करनेवालों ने (अर्केभिः) पूजनीय विचारों से (इन्द्रम्) सूर्य [के समान प्रतापी], (इन्द्रम्) वायु के समान फुरतीले (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को और (वाणीः) वाणियों [वेदवचनों] को (इत्) निश्चय करके (बृहत्) बड़े ढंग से (अनूषत) सराहा है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य सुनीतिज्ञ, प्रतापी, उद्योगी राजा के और परमेश्वर की दी हुई वेदवाणी के गुणों को विचारकर सबके सुख के लिये यथावत् उपाय करे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र ४-६ आ चुके हैं-अ० २०।३८।४-६ और आगे हैं-२०।७०।७-९ ॥ ४-६-एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३८।४-६ ॥
०५ इन्द्र इद्धर्योः
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इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑।
इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑।
इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑ ॥
०५ इन्द्र इद्धर्योः ...{Loading}...
Griffith
इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑ । इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑ ॥५॥
पदपाठः
इन्द्र॑। इत्। हर्योः॑। सचा॑। सम्ऽमि॑श्लः। आ। व॒चः॒ऽयुजा॑। इन्द्रः॑। व॒ज्री। हि॒र॒ण्ययः॑। ४७.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वज्री) वज्रधारी, (हिरण्ययः) तेजोमय (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (इत्) ही (इन्द्रः) वायु [के समान] (सचा) नित्य मिले हुए (हर्योः) दोनों संयोग-वियोग गुणों का (संमिश्लः) यथावत् मिलानेवाला (आ) और (वचोयुजा) वचन का योग्य बनानेवाला है ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे पवन के आने-जाने से पदार्थों में चलने, फिरने, ठहरने का और जीभ में बोलने का सामर्थ्य होता है, वैसे ही दण्डदाता प्रतापी राजा के न्याय से सब लोगों में शुभ गुणों का संयोग और दोषों का वियोग होकर वाणी में सत्यता होती है ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४-६-एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३८।४-६ ॥
०६ इन्द्रो दीर्घाय
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इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद्दि॒वि।
वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद्दि॒वि।
वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत् ॥
०६ इन्द्रो दीर्घाय ...{Loading}...
Griffith
इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद् दि॒वि। वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत्॥६॥
पदपाठः
इन्द्रः॑। दी॒र्घाय॑। चक्ष॑से। आ। सूर्य॑म्। रो॒ह॒य॒त्। दि॒वि। वि। गोभिः॑। अद्रि॑म्। ऐ॒र॒य॒त्। ४७.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (दीर्घाय) दूर तक (चक्षसे) देखने के लिये (दिवि) व्यवहार [वा आकाश] के बीच (गोभिः) वेदवाणियों द्वारा [वा किरणों वा जलों द्वारा] (सूर्यम्) सूर्य [के समान प्रेरक] और (अद्रिम्) मेघ [के समान उपकारी पुरुष] को (आ रोहयत्) ऊँचा किया और (वि) विविध प्रकार (ऐरयत्) चलाया है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे परमेश्वर के नियम से सूर्य आकाश में चलकर ताप आदि गुणों से अनेक लोकों को धारण करता और किरणों द्वारा जल सींचकर फिर बरसाकर उपकार करता है, वैसे ही दूरदर्शी राजा अपने प्रताप और उत्तम व्यवहार से सब प्रजा को नियम में रक्खे और कर लेकर उनका प्रतिपालन करे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४-६-एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३८।४-६ ॥
०७ आ याहि
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आ या॑हि सुषु॒मा हि त॒ इन्द्र॒ सोमं॒ पिबा॑ इ॒मम्।
एदं ब॒र्हिः स॑दो॒ मम॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ या॑हि सुषु॒मा हि त॒ इन्द्र॒ सोमं॒ पिबा॑ इ॒मम्।
एदं ब॒र्हिः स॑दो॒ मम॑ ॥
०७ आ याहि ...{Loading}...
Griffith
आ या॑हि सुषु॒मा हि त॒ इन्द्र॒ सोमं॒ पिबा॑ इ॒मम्। एदं ब॒र्हिः स॑दो॒ मम॑ ॥७॥
पदपाठः
आ। या॒हि॒। सु॒सु॒म। हि। ते॒। इन्द्र॑। सोम॑म्। पिब॑। इ॒मम्। आ। इ॒दम्। ब॒र्हिः। स॒दः॒। मम॑। ४७.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- इरिम्बिठिः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (आ याहि) तू आ, (हि) क्योंकि (ते) तेरे लिये (सोमम्) सोम [उत्तम ओषधियों का रस] (सुषुम) हमने सिद्ध किया है, (इमम्) इस [रस] को (पिब) पी, (मम) मेरे (इदम्) इस (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आ सदः) बैठ ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - लोग विद्वान् सद्वैद्य के सिद्ध किये हुए महौषधियों के रस से राजा को स्वस्थ बलवान् रखकर राजसिंहासन पर सुशोभित करें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र ७-९ आ चुके हैं-अ० २०।३।१-३ तथा ३८।१-३ ॥
०८ आ त्वा
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आ त्वा॑ ब्रह्म॒युजा॒ हरी॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑।
उप॒ ब्रह्मा॑णि नः शृणु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ त्वा॑ ब्रह्म॒युजा॒ हरी॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑।
उप॒ ब्रह्मा॑णि नः शृणु ॥
०८ आ त्वा ...{Loading}...
Griffith
आ त्वा॑ ब्रह्म॒युजा॑ हरी॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑ । उप॒ ब्रह्मा॑णि नः शृणु ॥८॥
पदपाठः
आ। त्वा॒। ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑। हरी॒ इति॑। वह॑ताम्। इ॒न्द्र॑। के॒शिना॑। उप0951ग। ब्रह्मा॑णि। नः॒। शृ॒णु॒। ४७.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- इरिम्बिठिः
- गायत्री
- सूक्त-४७
०९ ब्रह्माणस्त्वा वयम्
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ब्र॒ह्माण॑स्त्वा व॒यं यु॒जा सो॑म॒पामि॑न्द्र सो॒मिनः॑।
सु॒ताव॑न्तो हवामहे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ब्र॒ह्माण॑स्त्वा व॒यं यु॒जा सो॑म॒पामि॑न्द्र सो॒मिनः॑।
सु॒ताव॑न्तो हवामहे ॥
०९ ब्रह्माणस्त्वा वयम् ...{Loading}...
Griffith
ब्र॒ह्माण॑स्त्वा व॒यं यु॒जा सो॑म॒पामि॑न्द्र सो॒मिनः॑ । सु॒ताव॑न्तो हवामहे ॥९॥
पदपाठः
ब्र॒ह्माणः॑। त्वा॒। व॒यम्। यु॒जा। सो॒म॒ऽपाम्। इ॒न्द्र॒। सो॒मिनः॑। सु॒तऽव॑न्तः। ह॒वा॒म॒हे॒। ४७.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- इरिम्बिठिः
- गायत्री
- सूक्त-४७
१० युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषम्
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यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑।
रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑।
रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥
१० युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषम् ...{Loading}...
Griffith
They who stand round him as he moves harness the bright, the ruddy Steed: The lights are shining in the sky.
पदपाठः
यु॒ञ्जन्ति॑। ब॒ध्नम्। अ॒रु॒षम्। चर॑न्तम्। परि॑। त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते। रो॒च॒ना। दि॒वि। ४७.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१०-१२-परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्थुषः) मनुष्य आदि प्राणियों और लोकों में (परि) सब ओर से (चरन्तम्) व्यापे हुए, (ब्रध्नम्) महान् (अरुषम्) हिंसारहित [परमात्मा] को (रोचना) प्रकाशमान पदार्थ (दिवि) व्यवहार के बीच (युञ्जन्ति) ध्यान में रखते और (रोचन्ते) प्रकाशित होते हैं ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमाणुओं से लेकर सूर्य आदि लोक और सब प्राणी सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता परमेश्वर की आज्ञा को मानते हैं, उसीकी उपासना से मनुष्य पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके आत्मा की उन्नति करें ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १०-१२ आचुके हैं-अ० २०।२६।४-६ और आगे हैं-२०।६९।९-११ ॥ १०-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।२६।४-६ ॥
११ युञ्जन्त्यस्य काम्या
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यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑।
शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑।
शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥
११ युञ्जन्त्यस्य काम्या ...{Loading}...
Griffith
They yoke on both sides to the car the two bay coursers dear to him, Bold, tawny, bearers of the Chief.
पदपाठः
यु॒ञ्जन्ति॑। अ॒स्य॒। काम्या॑। हरी॒ इति॑। विऽप॑क्षसा। रथे॑। शोणा। धृ॒ष्णू इति॑। नृ॒ऽवाह॑सा। ४७.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१०-१२-परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [परमात्मा-मन्त्र १०] के (काम्या) चाहने योग्य, (विपक्षसा) विविध प्रकार ग्रहण करनेवाले, (शोणा) व्यापक (धृष्णू) निर्भय, (नृवाहसा) नेताओं [दूसरों के चलानेवाले सूर्य आदि लोकों] के चलानेवाले (हरी) दोनों धारण-आकर्षण गुणों को (रथे) रमणीय जगत् के बीच (युञ्जन्ति) वे [प्रकाशमान पदार्थ-मन्त्र १०] ध्यान में रखते हैं ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा के धारण-आकर्षण सामर्थ्य में सूर्य आदि पिण्ड ठहरकर अन्य लोकों और प्राणियों को चलाते हैं, मनुष्य उन सब पदार्थों से उपकार लेकर उस ईश्वर को धन्यवाद दें ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।२६।४-६ ॥
१२ केतुं कृण्वन्नकेतवे
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के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑।
समु॒षद्भि॑रजायथाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑।
समु॒षद्भि॑रजायथाः ॥
१२ केतुं कृण्वन्नकेतवे ...{Loading}...
Griffith
Thou, making light where no light was, and form, O Men r where no form was, Wast born together with the Dawns,
पदपाठः
के॒तुम्। कृ॒ण्वन्। अ॒के॒तवे॑। पेशः॑। म॒र्याः॒। अ॒पे॒शसे॑। सम्। उ॒षत्ऽभिः॑। अ॒जा॒य॒थाः॒। ४७.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दाः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१०-१२-परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मर्याः) हे मनुष्यो ! (अकेतवे) अज्ञान हटाने के लिये (केतुम्) ज्ञान को और (अपेशसे) निर्धनता मिटाने के लिये (पेशः) सुवर्ण आदि धन को (कृण्वन्) उत्पन्न करता हुआ वह [परमात्मा-मन्त्र १०, ११] (उषद्भिः) प्रकाशमान गुणों के साथ (सम्) अच्छे प्रकार (अजायथाः) प्रकट हुआ है ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रयत्न करके परमात्मा को विचारते हुए सृष्टि के पदार्थों से उपकार लेकर ज्ञानी और धनी होवें ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।२६।४-६ ॥
१३ उदु त्यम्
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उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑।
दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑।
दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म् ॥
१३ उदु त्यम् ...{Loading}...
Griffith
His bright rays bear him up aloft, the God who knoweth all that= is, Surya, that every one may see.
पदपाठः
उत्। ऊं॒ इति॑। त्यम्। जा॒तऽवे॑दसम्। दे॒वम्। व॒ह॒न्ति॒। के॒तवः॑। दृ॒शे। विश्वा॑य। सूर्य॑म्। ४७.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (केतवः) किरणें (त्यम्) उस (जातवेदसम्) उत्पन्न पदार्थों को प्राप्त करनेवाले, (देवम्) चलते हुए (सूर्यम्) रविमण्डल को (विश्वाय दृशे) सबके देखने के लिये (उ) अवश्य (उत् वहन्ति) ऊपर ले चलती हैं ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार सूर्य किरणों के आकर्षण से ऊँचा होकर सब पदार्थों को प्रकट करता है, वैसे ही मनुष्य विद्या और धर्म से उन्नति करके सबका उपकार करें ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १३-२१ आ चुके हैं-अ० १३।२।१६-२४ ॥ १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
१४ अप त्ये
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अप॒ त्ये ता॒यवो॑ यथा॒ नक्ष॑त्रा यन्त्य॒क्तुभिः॑।
सूरा॑य वि॒श्वच॑क्षसे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अप॒ त्ये ता॒यवो॑ यथा॒ नक्ष॑त्रा यन्त्य॒क्तुभिः॑।
सूरा॑य वि॒श्वच॑क्षसे ॥
१४ अप त्ये ...{Loading}...
Griffith
The constellations pass away, like thieves, together with their- beams, Before the all-beholding Sun.
पदपाठः
अप॑। त्ये। ता॒यवः॑। य॒था॒। नक्ष॑त्रा। य॒न्ति॒। अ॒क्तुऽभिः॑। सूरा॑य। वि॒श्वऽच॑क्षसे। ४७.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वचक्षसे) सबके दिखानेवाले (सूराय) सूर्य के लिये (अक्तुभिः) रात्रियों के साथ (नक्षत्रा) तारा गण (अप यन्ति) भाग जाते हैं, (यथा) जैसे (त्ये) वे (तायवः) चोर [भाग जाते हैं] ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सूर्य के प्रकाश से रात्रि का अन्धकार मिट जाता है, मन्द चमकनेवाले नक्षत्र छिप जाते हैं, और चोर लोग भाग जाते हैं, वैसे ही वेदविज्ञान फैलने से अधर्म का नाश और धर्म की वृद्धि होती है ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
१५ अदृश्रन्नस्य केतवो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अदृ॑श्रन्नस्य के॒तवो॒ वि र॒श्मयो॒ जनाँ॒ अनु॑।
भ्राज॑न्तो अ॒ग्नयो॑ यथा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अदृ॑श्रन्नस्य के॒तवो॒ वि र॒श्मयो॒ जनाँ॒ अनु॑।
भ्राज॑न्तो अ॒ग्नयो॑ यथा ॥
१५ अदृश्रन्नस्य केतवो ...{Loading}...
Griffith
His herald rays are seen afar refulgent o’er the world of men, Like fiery flames that burn and blaze.
पदपाठः
अदृ॑श्रन्। अ॒स्य॒। के॒तवः॑। वि। र॒श्मयः॑। जना॑न्। अनु॑। भ्राज॑न्तः। अ॒ग्नयः॑। य॒था॒। ४७.१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [सूर्य] की (केतवः) जतानेवाली (रश्मयः) किरणें (जनान् अनु) प्राणियों में (वि) विविध प्रकार से (अदृश्रन्) देखी गयी हैं, (यथा) जैसे (भ्राजन्तः) दहकते हुए (अग्नयः) अंगारे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य की किरणें धूप, बिजुली और अग्नि के रूप से संसार में फैलती हैं, वैसे ही सब मनुष्य शुभ गुण कर्म और स्वभाव से प्रकाशमान होकर आत्मा और समाज की उन्नति करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
१६ तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त॒रणि॑र्वि॒श्वद॑र्शतो ज्योति॒ष्कृद॑सि सूर्य।
विश्व॒मा भा॑सि रोचन ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त॒रणि॑र्वि॒श्वद॑र्शतो ज्योति॒ष्कृद॑सि सूर्य।
विश्व॒मा भा॑सि रोचन ॥
१६ तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि ...{Loading}...
Griffith
Swift and all-beautiful art thou, O Surya, maker of the light. Illuming all the radiant realm.
पदपाठः
त॒रणिः॑। वि॒श्वऽद॑र्शतः। ज्यो॒तिः॒ऽकृत्। अ॒सि॒। सू॒र्य॒। विश्व॑म्। आ। भा॒सि॒। रो॒च॒न॒। ४७.१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्य) हे सूर्य ! तू (तरणिः) अन्धकार से पार करनेवाला, (विश्वदर्शतः) सबका दिखानेवाला, (ज्योतिष्कृत्) [चन्द्र आदि में] प्रकाश करनेवाला (असि) है। (रोचन) हे चमकनेवाले ! तू (विश्वम्) सबको (आ) भले प्रकार (भासि) चमकाता है ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे यह सूर्य, अग्नि, बिजुली, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि पर अपना प्रकाश डालकर उन्हें चमकीला बनाता है, वैसे ही परमात्मा अपने सामर्थ्य से सब सूर्य आदि को रचता है और वैसे ही विद्वान् लोग विद्या के प्रकाश से संसार को आनन्द देते हैं ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
१७ प्रत्यङ्देवानां विशः
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प्र॒त्यङ्दे॒वानां॒ विशः॑ प्र॒त्यङ्ङुदे॑षि॒ मानु॑षीः।
प्र॒त्यङ्विश्वं॒ स्व᳡र्दृ॒शे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र॒त्यङ्दे॒वानां॒ विशः॑ प्र॒त्यङ्ङुदे॑षि॒ मानु॑षीः।
प्र॒त्यङ्विश्वं॒ स्व᳡र्दृ॒शे ॥
१७ प्रत्यङ्देवानां विशः ...{Loading}...
Griffith
Thou guest to the troops of Gods, thou comest hither to man- kind, Hither, all light for us to see.
पदपाठः
प्र॒त्यङ्। दे॒वाना॑म्। विशः॑। प्र॒त्यङ्। उत्। ए॒षि॒। मानु॑षीः। प्र॒त्यङ्। विश्व॑म्। स्वः॑। दृ॒शे। ४७.१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे सूर्य !] (देवानाम्) गतिशील [चन्द्र आदि लोकों] की (विशः) प्रजाओं को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर, (मानुषीः) मानुषी [मनुष्यसम्बन्धी पार्थिव प्रजाओं] को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर और (विश्वम्) सब जगत् को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर (स्वः) सुख से (दृशे) देखने के लिये (उत्) ऊँचा होकर (एहि) तू प्राप्त होता है ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सूर्य गोल आकार बहुत बड़ा पिण्ड है, इसलिये वह सब लोकों के सन्मुख दीखता है, और सब लोक उसके आकर्षण प्रकाशन आदि से सुख पाते हैं, ऐसे ही परमात्मा के सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान् होने से उसके नियम पर चलकर सब सुखी रहते हैं ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
१८ येना पावक
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
येना॑ पावक॒ चक्ष॑सा भुर॒ण्यन्तं॒ जनाँ॒ अनु॑।
त्वं व॑रुण॒ पश्य॑सि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
येना॑ पावक॒ चक्ष॑सा भुर॒ण्यन्तं॒ जनाँ॒ अनु॑।
त्वं व॑रुण॒ पश्य॑सि ॥
१८ येना पावक ...{Loading}...
Griffith
Thou with that eye of thine wherewith thou seest, brilliant. Varuna, The active one throughout mankind.
पदपाठः
येन॑। पा॒व॒क॒। चक्ष॑सा। भु॒र॒ण्यन्त॑म्। जना॑न्। अनु॑। त्वम्। व॒रु॒ण॒। पश्य॑सि। १७.१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पावक) हे पवित्र करनेवाले ! (वरुण) हे उत्तम गुणवाले ! [सूर्य रविमण्डल] (येन) जिस (चक्षसा) प्रकाश से (भुरण्यन्तम्) धारण और पोषण करते हुए [पराक्रम] को (जनान् अनु) उत्पन्न प्राणियों में (त्वम्) तू (पश्यसि) दिखाता है ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अपने प्रकाश से वृष्टि आदि द्वारा अपने घेरे के सब प्राणियों और लोकों का धारण-पोषण करता है, वैसे ही मनुष्य सर्वोपरि विराजमान परमात्मा के ज्ञान से परस्पर सहायक होकर सुखी होवें ॥१८, १९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
१९ वि द्यामेषि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि द्या॑मेषि॒ रज॑स्पृ॒थ्वह॒र्मिमा॑नो अ॒क्तुभिः॑।
पश्यं॒ जन्मा॑नि सूर्य ॥
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मूलम् (VS)
वि द्या॑मेषि॒ रज॑स्पृ॒थ्वह॒र्मिमा॑नो अ॒क्तुभिः॑।
पश्यं॒ जन्मा॑नि सूर्य ॥
१९ वि द्यामेषि ...{Loading}...
Griffith
Pervadest heaven and wide mid-air, melting the days out with. thy beams, Sun, seeing all things that have birth.
पदपाठः
वि। द्याम्। ए॒षि॒। रजः॑। पृ॒थु॒। अहः॑। मिमा॑नः। अ॒क्तुभिः॑। पश्य॑न्। जन्मा॑नि। सू॒र्य॒। १७.१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [उस प्रकाश से] (सूर्य) हे सूर्य ! [रविमण्डल] (अहः) दिन को (अक्तुभिः) रात्रियों के साथ (मिमानः) बनाता हुआ और (जन्मानि) उत्पन्न वस्तुओं को (पश्यन्) दिखाता हुआ तू (द्याम्) आकाश में (पृथु)-फैले हुए (रजः) लोक को (वि) विविध प्रकार (एषि) प्राप्त होता है ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अपने प्रकाश से वृष्टि आदि द्वारा अपने घेरे के सब प्राणियों और लोकों का धारण-पोषण करता है, वैसे ही मनुष्य सर्वोपरि विराजमान परमात्मा के ज्ञान से परस्पर सहायक होकर सुखी होवें ॥१८, १९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
२० सप्त त्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स॒प्त त्वा॑ ह॒रितो॒ रथे॒ वह॑न्ति देव सूर्य।
शो॒चिष्के॑शं विचक्ष॒णम् ॥
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मूलम् (VS)
स॒प्त त्वा॑ ह॒रितो॒ रथे॒ वह॑न्ति देव सूर्य।
शो॒चिष्के॑शं विचक्ष॒णम् ॥
२० सप्त त्वा ...{Loading}...
Griffith
Seven bay steeds, harnessed to thy car, bear thee, O.thou far- seeing One, God, Surya, thee with radiant hair.
पदपाठः
स॒प्त। त्वा॒। ह॒रितः॑। रथे॑। वह॑न्ति। दे॒व॒। सू॒र्य॒। शो॒चिःऽके॑शम्। वि॒ऽच॒क्ष॒णम्। ४७.२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देव) हे चलनेवाले (सूर्य) सूर्य ! [रविमण्डल] (सप्त) सात [शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश, चित्र वर्ण वाली] (हरितः) आकर्षक किरणें (शोचिष्केशम्) पवित्र प्रकाशवाले (विचक्षणम्) विविध प्रकार दिखानेवाले (त्वा) तुझको (रथ) रथ [गमन विधान] में (वहन्ति) ले चलती हैं ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह प्रकाशमान सूर्यलोक, शुक्ल, नील, पीत आदि सात किरणों द्वारा अपनी धुरी पर अपने घेरे में घूमता है। इस नियम का बनानेवाला वह परमेश्वर है ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
२१ अयुक्त सप्त
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अयु॑क्त स॒प्त शु॒न्ध्युवः॒ सूरो॒ रथ॑स्य न॒प्त्यः᳡।
ताभि॑र्याति॒ स्वयु॑क्तिभिः ॥
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मूलम् (VS)
अयु॑क्त स॒प्त शु॒न्ध्युवः॒ सूरो॒ रथ॑स्य न॒प्त्यः᳡।
ताभि॑र्याति॒ स्वयु॑क्तिभिः ॥
२१ अयुक्त सप्त ...{Loading}...
Griffith
Surya hath yoked the seven bright mares, the daughters of the car: With these, His own dear team, he travelleth.
पदपाठः
अयु॑क्तः। स॒प्त। शु॒न्ध्युवः॑। सुरः॑। रथ॑स्य। न॒प्त्यः॑। ताभिः॑। या॒ति॒। स्वयु॑क्तिऽभिः। ४७.२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- प्रस्कण्वः
- गायत्री
- सूक्त-४७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूरः) सूर्य [लोकप्रेरक रविमण्डल] ने (रथस्य) रथ [अपने चलने के विधान] की (नप्त्यः) न गिरानेवाली (सप्त) सात [शुक्ल, नील, पीत आदि मन्त्र २०] (शुन्ध्युवः) शुद्ध किरणों को (अयुक्त) जोड़ा है। (ताभिः) उन (स्वयुक्तिभिः) धन से संयोगवाली [किरणों] के साथ (याति) वह चलता है ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो सूर्य अपनी परिधि के लोकों को अपने आकर्षण में रखकर चलाता है और जिसकी किरणें रोगों को हटाकर प्रकाश और वृष्टि आदि से संसार को धनी बनाती हैं, उस सूर्य को जगदीश्वर परमात्मा ने बनाया है ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥