०४४ ...{Loading}...
Griffith
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०१ प्र सम्राजम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नामिन्द्रं॑ स्तोता॒ नव्यं॑ गीर्भिः।
नरं॑ नृ॒षाहं॒ मंहि॑ष्ठम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नामिन्द्रं॑ स्तोता॒ नव्यं॑ गीर्भिः।
नरं॑ नृ॒षाहं॒ मंहि॑ष्ठम् ॥
०१ प्र सम्राजम् ...{Loading}...
Griffith
Praise Indra whom our songs must laud, great Sovran of man- kind, the Chief Most liberal who controlleth men.
पदपाठः
प्र। स॒म्ऽराज॑म्। च॒र्ष॒णी॒नाम्। इन्द्र॑म्। स्तो॒त॒। नव्य॑म्। गी॒ऽभिः। नर॑म्। नऽसह॑म्। मंहि॑ष्ठम्। ४४.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- इरिम्बिठिः
- गायत्री
- सूक्त-४४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के (सम्राजम्) सम्राट् [राजाधिराज], (नव्यम्) स्तुतियोग्य, (नरम्) नेता, (नृषाहम्) नेताओं को वश में रखनेवाले, (मंहिष्ठम्) अत्यन्त दानी (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (गीर्भिः) वाणियों से (प्र) अच्छे प्रकार (स्तोत) सराहो ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् प्रजागण अभिनन्दन आदि से उदारचित्त राजा के बड़े-बड़े उपकारी कामों की प्रशंसा करके सत्कार करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।१६।१-३। मन्त्र १ सामवेद-पू० २।।१० ॥ १−(प्र) प्रकर्षेण (सम्राजम्) राजराजेश्वरम् (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (स्तोत) स्तुत (नव्यम्) स्तुत्यम् (गीर्भिः) वाणीभिः (नरम्) नेतारम् (नृषाहम्) नेतॄणामभिभवितारं वशयितारम् (मंहिष्ठम्) अ० २०।१।१। उदारतमम् ॥
०२ यस्मिन्नुक्थानि रण्यन्ति
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यस्मि॑न्नु॒क्थानि॒ रण्य॑न्ति॒ विश्वा॑नि च श्रवस्या᳡।
अ॒पामवो॒ न स॑मु॒द्रे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यस्मि॑न्नु॒क्थानि॒ रण्य॑न्ति॒ विश्वा॑नि च श्रवस्या᳡।
अ॒पामवो॒ न स॑मु॒द्रे ॥
०२ यस्मिन्नुक्थानि रण्यन्ति ...{Loading}...
Griffith
In whom the hymns of praise delight, and all the glory-giving songs, Like the flood’s longing for the sea.
पदपाठः
यस्मि॑न्। उ॒क्था॑नि। रण्य॑न्ति। विश्वा॑नि। च॒। श्र॒व॒स्या॑। अ॒पाम्। अव॑। न। स॒मु॒द्रे। ४४.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- इरिम्बिठिः
- गायत्री
- सूक्त-४४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस [पुरुष] में (विश्वानि) सब (उक्थानि) कहने योग्य वचन (च) और (श्रवस्या) धन के लिये हितकारी कर्म (रण्यन्ति) पहुँचते हैं, (न) जैसे (समुद्रे) समुद्र में (अपाम्) जलों की (अवः) गति [पहुँचती हैं] ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे नदियाँ समुद्र में जाकर विश्राम पाती हैं, वैसे ही विद्वान् लोग पराक्रमी राजा के पास पहुँचकर अपना गुण प्रकाशित करके सुख पावें ॥२, ३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(यस्मिन्) पुरुषे (उक्थानि) वक्तव्यानि वचनानि (रण्यन्ति) अ० २०।१७।६। गच्छन्ति (विश्वानि) सर्वाणि (च) (श्रवस्या) अ० २०।१२।१। धनाय हितानि कर्माणि (अपाम्) जलानाम् (अवः) अव गतौ-असुन्। गमनम् (न) यथा (समुद्रे) उदधौ ॥
०३ तं सुष्टुत्या
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तं सु॑ष्टु॒त्या वि॑वासे ज्येष्ठ॒राजं॒ भरे॑ कृ॒त्नुम्।
म॒हो वा॒जिनं॑ स॒निभ्यः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तं सु॑ष्टु॒त्या वि॑वासे ज्येष्ठ॒राजं॒ भरे॑ कृ॒त्नुम्।
म॒हो वा॒जिनं॑ स॒निभ्यः॑ ॥
०३ तं सुष्टुत्या ...{Loading}...
Griffith
Him I invite with eulogy, best King, effective in the fight, Strong for the gain of mighty spoil.
पदपाठः
तम्। सु॒ऽस्तु॒त्या। आ। वि॒वा॒से॒। ज्ये॒ष्ठ॒ऽराज॑म्। भरे॑। कृ॒त्नुम्। म॒हः। वा॒जिन॑म्। स॒निऽभ्यः॑। ४४.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- इरिम्बिठिः
- गायत्री
- सूक्त-४४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) उस (ज्येष्ठराजम्) सबसे बड़े राजा, (भरे) सङ्ग्राम में (कृत्नुम्) काम करनेवाले, (वाजिनम्) महाबलवान् [पुरुष] की, (महः) महत्त्व के (सनिभ्यः) दानों के लिये, (सुष्टुत्या) सुन्दर स्तुति के साथ (आ) सब प्रकार (विवासे) मैं सेवा करता हूँ ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे नदियाँ समुद्र में जाकर विश्राम पाती हैं, वैसे ही विद्वान् लोग पराक्रमी राजा के पास पहुँचकर अपना गुण प्रकाशित करके सुख पावें ॥२, ३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(तम्) (सुष्टुत्या) शोभनया स्तुत्या (आ) समन्तात् (विवासे) विवासतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।। परिचरामि (ज्येष्ठराजम्) प्रशस्यतमं राजानम् (भरे) सङ्ग्रामे (कृत्नुम्) कृहनिभ्यां क्त्नुः। उ० ३।३०। करोतेः-क्त्नु। कार्यकर्तारम् (महः) मह पूजायाम्-क्विप्। महत्त्वस्य (वाजिनम्) महाबलिनम् (सनिभ्यः) दानेभ्यः ॥