०३७

०३७ ...{Loading}...

Griffith

???

०१ यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गो वृष॒भो न भी॒म एकः॑ कृ॒ष्टीश्च्या॒वय॑ति॒ प्र विश्वाः॑।
यः शश्व॑तो॒ अदा॑शुषो॒ गय॑स्य प्रय॒न्तासि॒ सुष्वि॑तराय॒ वेदः॑ ॥

०१ यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो ...{Loading}...

Griffith

He, like a bull with sharpened horns, terrific, singly excites and agitates all the people. Then givest him who largely pours libation his wealth who pours not, for his own possession.

पदपाठः

यः। ति॒ग्मऽशृ॑ङ्गः। वृ॒ष॒भः। न। भी॒मः। एकः॑। कृ॒ष्टीः। च्य॒वय॑ति। प्र। विश्वाः॑। यः। शश्व॑तः। अदा॑शुषः। गय॑स्य। प्र॒ऽय॒न्ता। अ॒सि॒। सुस्वि॑ऽतराय। वेदः॑। ३७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (एकः) अकेला [वही] (विश्वा) सब (कृष्टीः) मनुष्य प्रजाओं को (प्र) अच्छे प्रकार (च्यावयति) चलाता है, (यः) जो (तिग्मशृङ्गः न) तीखी किरणोंवाले सूर्य के समान (भीमः) भयङ्कर और (वृषभः) बरसा करनेवाला है। और (यः) जो (शश्वतः) निरन्तर (अदाशुषः) न देनेवाले के (गयस्य) घर का (वेदः) धन (सुष्वितराय) अधिक ऐश्वर्यवाले व्यवहार के लिये (प्रयन्ता) देनेवाला (असि) है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अपने ताप से जल खींच बरसा करके उपकार करता है, वैसे ही राजा कुदानी वा कंजूसों से धन लेकर विद्या आदि शुभ कर्मों में लगावे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-७।१९।१-११॥१−(यः) पुरुषः (तिग्मशृङ्गः) तिग्मानि तेजःस्वीनि शृङ्गाणि किरणा यस्य स सूर्यः (वृषभः) वृष्टिकरः (न) इव (भीमः) भयङ्करः (एकः) अद्वितीयः (कृष्टीः) मनुष्यप्रजाः (च्यावयति) चालयति (प्र) प्रकर्षेण (विश्वाः) सर्वाः (यः) (शश्वतः) निरन्तरस्य, सदा वर्तमानस्य (अदाशुषः) अदातुः पुरुषस्य (गयस्य) गृहस्य (प्रयन्ता) नियमयिता। प्रदाता (असि) अस्ति (सुष्वितराय) अ०२०।३।१। अधिकैश्वर्यवते व्यवहाराय (वेदः) धनम्-निघ०२।१०॥

०२ त्वं ह

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑मावः शुश्रूषमाणस्त॒न्वा᳡ सम॒र्ये।
दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्य᳡स्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥

०२ त्वं ह ...{Loading}...

Griffith

Thou verily, Indra, gavest help to Kutsa, willingly lending ear to him in battle. When, aiding Arjunneya, thou subduedst to him both Kuyava and the Dasa Sushna.

पदपाठः

त्वम्। ह॒। त्यत्। इ॒न्द्र॒। कुत्स॑म्। आ॒वः॒। शुश्रू॑षमाणः। त॒न्वा॑। स॒ऽम॒र्ये। दास॑म्। यत्। शुष्ण॑म्। कुय॑वम्। नि। अ॒स्मै॒। अर॑न्धयः। आ॒र्जु॒ने॒याय॑। शिक्ष॑न्। ३७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (शुश्रूषमाणः) सुनने की इच्छा करते हुए [वा सेवा करते हुए] (त्वम्) तूने (ह) ही (त्यत्) तब (कुत्सम्) मिलनसार ऋषि [वा वज्रधारी शूर] को (तन्वा) शरीर से (समर्थे) सङ्ग्राम में (आवः) बचाया है। (यत्) जबकि (दासम्) नाश करनेवाले, (शुष्णम्) सुखानेवाले, (कुयवम्) अन्नों के बिगाड़ देनेवाले [वैरी] को (अस्मै) उस (आर्जुनेयाय) विद्या प्राप्ति करानेवाली [विदुषी स्त्री] के पुत्र के लिये (शिक्षन्) शिक्षा देते हुए तूने (नि अरन्धयः) वश में कर लिया है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो राजा प्रजा की पुकार सुनता और विद्वानों का सत्कार करता है और शत्रुओं का नाश करके विद्या फैलाता है, वह स्थिर ऐश्वर्य को प्राप्त होता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(त्वम्) (ह) निश्चयेन (त्यत्) तदा (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (कुत्सम्) अ०२०।२१।१०। संगतिशीलम्। ऋषिम्। कुत्सो वज्रनाम-निघ०२।२०। अर्शआद्यच्। वज्रधारिणम् (आवः) अरक्षः (शुश्रूषमाणः) श्रोतुमिच्छन्। सेवां कुर्वाणः (तन्वा) शरीरेण (समर्ये) मर्यो मनुष्यनाम-निघ०२।३। मनुष्यैर्युक्ते सङ्ग्रामे (दासम्) दसु उपक्षये-घञ्। नाशयितारम् (यत्) यदा (शुष्णम्) शोषकम् (कुयवम्) कु कुत्सिता नाशिता यवा अन्नानि येन तं शत्रुम् (नि) निरन्तरम् (अस्मै) (अरन्धयः) अ०१०।४।१०। वशीकृतवानसि (आर्जुनेयाय) अर्जेर्णिलुक् च। उ०३।८। अर्ज संचये-णिच्-उनन् णेश्च लुक्, गौरादित्वाद् ङीप्। स्त्रीभ्यो ढक्। पा०४।१।१२०। अर्जुनी-ढक्। अर्जयति विद्याः सा अर्जुनी। अर्जुन्या विदुष्याः पुत्राय (शिक्षन्) शिक्षां कुर्वन् ॥

०३ त्वं धृष्णो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्वं धृ॑ष्णो धृष॒ता वी॒तह॑व्यं॒ प्रावो॒ विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑ सु॒दास॑म्।
प्र पौरु॑कुत्सिं त्र॒सद॑स्युमावः॒ क्षेत्र॑साता वृत्र॒हत्ये॑षु पू॒रुम् ॥

०३ त्वं धृष्णो ...{Loading}...

Griffith

O Bold One, thou with all thine aids hast boldly helped Sudas whose offerings were accepted, Puru in winning land and slaying foemen, and Trasadasyu son of Purukutsa.

पदपाठः

त्वम्। धृ॒ष्णो॒ इति॑। धृ॒ष॒ता। वी॒तऽह॑व्यम्। प्र। आ॒वः॒। विश्वा॑भिः। ऊ॒तिऽभिः॑। सु॒ऽदास॑म्। प्र। पौरु॑ऽकुत्सिम्। त्र॒सद॑स्युम्। आ॒वः॒। क्षेत्र॑ऽसा॒ता। वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑षु। पू॒रुम्। ३७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (धृष्णो) हे निडर पुरुष ! (त्वम्) तूने (धृषता) निडरपन से (विश्वाभिः) सब (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ (वीतहव्यम्) पाने योग्य पदार्थ के पानेवाले, (सुदासम्) बड़े दाता को (प्र) अच्छे प्रकार (आवः) बचाया है। और (पौरुकुत्सिम्) बहुत वज्र आदि हथियारों के जाननेवाले के सन्तान, (त्रसदस्युम्) डाकुओं के डरानेवाले (पूरुम्) मनुष्य को (क्षेत्रसाता) रणक्षेत्र के विभाग में (वृत्रहत्येषु) शत्रुओं के मारनेवाले सङ्ग्रामों के बीच (प्र) अच्छे प्रकार (आवः) तृप्त किया है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा लोग सङ्ग्राम में शत्रुओं को जीतनेवाले, शस्त्रविद्या में चतुर वीरों का सत्कार करके सुखी होवें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(त्वम्) (धृष्णो) अ०१।१३।४। ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्नु। हे निर्भय (धृषता) अ०२०।३६।६। प्रागल्भ्येन (वीतहव्यम्) अ०६।१३७।१। प्राप्तप्राप्तव्यपदार्थम् (प्र) प्रकर्षेण (आवः) रक्षितवानसि (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (सुदासम्) बहुदातारम् (प्र) (पौरुकुत्सिम्) अत इञ्। पा०४।१।९। पुरुकुत्स-इञ्। पुरुकुत्सस्य बहुवज्रादिशस्त्रास्त्रविदः पुरुषस्य सन्तानम् (त्रसदस्युम्) त्रसी उद्वेगे-अच्। त्रसा उद्विग्ना भयभीता दस्यवः साहसिका यस्मात् तम् (आवः) अव तृप्तौ। तर्पितवानसि (क्षेत्रसाता) क्षेत्रसातौ। रणक्षेत्रविभागे (वृत्रहत्येषु) अ०२०।२१।६। शत्रुहननेषु सङ्ग्रामेषु (पूरुम्) पॄभिदिव्यधि०। उ०१।२३। पूरी आप्यायने कु। मनुष्यम्-निघ०२।३॥

०४ त्वं नृभिर्नृमणो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्वं नृभि॑र्नृमणो दे॒ववी॑तौ॒ भूरी॑णि वृ॒त्रा ह॑र्यश्व हंसि।
त्वं नि दस्युं॒ चुमु॑रिं॒ धुनिं॒ चास्वा॑पयो द॒भीत॑ये सु॒हन्तु॑ ॥

०४ त्वं नृभिर्नृमणो ...{Loading}...

Griffith

At the Gods’ banquet, Hero-souled! with heroes, Lord of Bay Steeds, thou slewest many Vritras. Thou sentest in swift death to sleep the Dasyu, both Chumuri and Dhuni, for Dabhiti,

पदपाठः

त्वम्। नृऽभिः॑। नृ॒ऽम॒नः॒। दे॒वऽवी॑ता। भूरी॑णि। वृ॒त्रा। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। हं॒सि॒। त्वम्। नि। दस्यु॑म्। चुमु॑रिम्। धुनि॑म्। च॒। अस्वा॑पयः। द॒भीत॑ये। सु॒ऽहन्तु॑। ३७.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नृमणः) हे नरों के समान मन वाले ! (हर्यश्व) हे वायुसमान फुरतीले घोड़ोंवाले ! (त्वम्) तू (नृभिः) नरों के साथ (देववीतौ) दिव्यगुणों की प्राप्ति में (भूरीणि) बहुत (वृत्राणि) धनों को (हंसि) पाता है। (च) और (त्वम्) तूने (चुमुरिम्) हिंसाकारी, (धुनिम्) कंपानेवाले (दस्युम्) डाकू को (दभीतये) शासन के लिये (सुहन्तु) अच्छे प्रकार मारनेवाले हथियार से (नि) नीचे (अस्वापयः) सुलाया है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा धन आदि पदार्थ प्राप्त करके वीर सेनाध्यक्षों के साथ शत्रुओं का नाश करके प्रजापालन करें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(त्वम्) (नृभिः) नेतृभिः (नृमणः) अ०१६।३।। नेतृतुल्यमनस्क (देववीतौ) दिव्यगुणानां प्राप्तौ (भूरीणि) बहूनि (वृत्राणि) धनानि-निघ०२।१०। (हर्यश्व) अ०२०।२।७। हे हरिभिर्वायुतुल्यैः शीघ्रगामिभिस्तुरङ्गैर्युक्त (हंसि) गच्छसि। प्राप्नोषि (त्वम्) (नि) नीचैः (दस्युम्) साहसिकम् (चुमुरिम्) चुबि वक्त्रसंयोगे हिंसायां च-उरिन्, बलोपः। हिंसकम् (धुनिम्) सुवृषिभ्यां कित्। उ०४।४९। धूञ् कम्पने-निप्रत्ययः कित्। कम्पयितारम् (च) (अस्वापयः) स्वापितवानसि। नाशितवानसि (दभीतये) वसेस्तिः। उ०४।१८०। दभ प्रेरणे-तिप्रत्ययः, ईकार उपजनः। प्रेरणाय। शासनाय (सुहन्तु) विभत्तेर्लुक्। सुहातुना। सुहननसाधनेन शस्त्रेण ॥

०५ तव च्यौत्नानि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

तव॑ च्यौ॒त्नानि॑ वज्रहस्त॒ तानि॒ नव॒ यत्पुरो॑ नव॒तिं च॑ स॒द्यः।
नि॒वेश॑ने शतत॒मावि॑वेषी॒रहं॑ च वृ॒त्रं नमु॑चिमु॒ताह॑न् ॥

०५ तव च्यौत्नानि ...{Loading}...

Griffith

These were thy mighty powers that, Thunder-wielder! then swiftly crushedst nine-and ninety castles. Thou capturedst the hundredth in thine onslaught; thou slewest Namuchi, thou slewest Vritra.

पदपाठः

तव॑। च्यौ॒त्नानि॑। व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒। तानि॑। नव॑। यत्। पुरः॑। न॒व॒तिम्। च॒। स॒द्यः। नि॒ऽवेश॑ने। श॒त॒ऽत॒मा। अ॒वि॒वे॒षीः॒। अह॑न्। च॒। वृ॒त्रम्। नमु॑चिम्। उ॒त। अ॒ह॒न्। ३७.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रहस्त) हे हाथों में वज्र रखनेवाले ! (ते) तेरे (तानि) वे (च्यौत्नानि) बल हैं, (यत्) कि (सद्यः) तुरन्त (नव) नव (च) और (नवतिम्) नब्बे [निन्नानवे] (पुरः) नगरों में और (निवेशने) छावनी के बीच (शततमा) सौवें [नगर] में (अविवेषीः) तू व्याप गया है, (च) और (वृत्रम्) रोकनेवाले शत्रु को (अहन्) तूने मारा है (उत) और (नमुचिम्) न छोड़ने योग्य डाकू को (अहन्) मारा है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा अपनी उत्तम सेना के द्वारा वैरी के सब नगरों और राजधानी को अधीन करके शत्रुओं को मारे ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(नव) (च्यौत्नानि) जनिदाच्युसृवृ०। उ०४।१०४। च्युङ् गतौ-त्नण् प्रत्ययः। बलानि-निघ०२।९। (वज्रहस्त) हे शस्त्रपाणे (तानि) प्रसिद्धानि (नवनवतिम्) एकोनशतसंख्याकाः (पुरः) नगर्यः (च) (सद्यः) शीघ्रम् (निवेशने) निवेशे। सेनास्थितिस्थाने (शततमा) नित्यं शतादिमासार्ध०। पा०।२।७। डटस्तमडागमः। शततमीम्। शतसंख्यापूरिकां पुरीम् (अविवेषीः) विष्लृ व्याप्तौ-यङ्लुगन्ताल्लुङि। व्याप्तवानसि (अहन्) मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। अहः। हतवानसि (च) (वृत्रम्) आवरकं शत्रुम् (नमुचिम्) अ०२०।२१।७। अमोचनीयम्। दण्डनीयम् (उत) अपि च (अहन्) हतवानसि ॥

०६ सना ता

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

सना॒ ता त॑ इन्द्र॒ भोज॑नानि रा॒तह॑व्याय दा॒शुषे॑ सु॒दासे॑।
वृष्णे॑ ते॒ हरी॒ वृष॑णा युनज्मि॒ व्यन्तु॒ ब्रह्मा॑णि पुरुशाक॒ वाज॑म् ॥

०६ सना ता ...{Loading}...

Griffith

Old are the blessings, Indra, which thou gavest Sudas the wor- shipperwho brought oblations. For thee, the strong I yoke thy strong bay horses: let them, approach our prayers and wealth, Most Mighty!

पदपाठः

सना॑। ता। ते॒। इ॒न्द्र॒। भोज॑नानि। रा॒तऽह॑व्याय। दा॒शुषे॑। सु॒ऽदासे॑। वृष्णे॑। ते॒। हरी॒ इति॑। वृष॑णा। यु॒न॒ज्मि॒। व्यन्तु॑। ब्रह्मा॑णि। पु॒रुऽशा॒क॒। वाज॑म्। ३७.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (ता) वे (ते) तेरे (भोजनानि) पालन साधन (रातहव्याय) पाने योग्य पदार्थ के पानेवाले, (सुदासे) बड़े उदार (दाशुषे) दाता के लिये (सना) सेवनीय हैं। (पुरुशाक) हे महाबली ! (वृष्णे ते) तुझ बलवान् के लिये (वृषणा) दो बलवान् (हरी) घोड़ों [के समान बल और पराक्रम] को (युनज्मि) मैं जोड़ता हूँ, वे [प्रजाजन] (ब्रह्माणि) अनेक धनों को और (वाजम्) बल को (व्यन्तु) प्राप्त होवें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा लोग कर देनेवाले राजभक्तों का पालन करके बल और पराक्रम के साथ प्रजाजनों की सब प्रकार उन्नति करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(सना) षण संभक्तौ-अप्। सनानि सनातनानि। विभजनीयानि (ता) प्रसिद्धानि (ते) तव (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (भोजनानि) पालनसाधनानि (रातहव्याय) रा दानादनयोः-क्त। प्राप्तप्राप्तव्यपदार्थाय (दाशुषे) दात्रे (सुदासे) दासृ दाने-विट्। महादानिने। उदाराय (वृष्णे) बलवते (हरी) अश्वसमानौ बलपराक्रमौ (वृषणा) बलवन्तौ (युनज्मि) योजयामि (व्यन्तु) अ०७।४९।२। वी गत्यादिषु। प्राप्नुवन्तु (ब्रह्माणि) धनानि (पुरुशाक) शक्लृ शक्तौ-घञ्। हे बहुशक्तिमन् (वाजम्) बलम् ॥

०७ मा ते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

मा ते॑ अ॒स्यां स॑हसाव॒न्परि॑ष्टाव॒घाय॑ भूम हरिवः परा॒दै।
त्राय॑स्व नोऽवृ॒केभि॒र्वरू॑थै॒स्तव॑ प्रि॒यासः॑ सू॒रिषु॑ स्याम ॥

०७ मा ते ...{Loading}...

Griffith

Give us not up, Lord of Bay Horses, victor, in this our time of- trouble, to the wicked. Deliver us with true and faithful succour: dear may we be to thee among the princes.

पदपाठः

मा। ते॒। अ॒स्याम्। स॒ह॒सा॒ऽव॒न्। परि॑ष्टौ। अ॒घाय॑। भू॒म॒। ह॒रि॒ऽवः॒। प॒रा॒ऽदौ। त्राय॑स्‍व। नः॒। अ॒वृ॒केभिः॑। वरू॑थैः। तव॑। प्रि॒यासः॑। सू॒रिषु॑। स्या॒म॒। ३७.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सहसावन्) हे बहुत बलवाले ! (हरिवः) हे प्रशंसनीय मनुष्योंवाले ! [राजन्] (ते) तेरी (अस्याम्) इस (परिष्टौ) सब ओर से इष्ट सिद्धि में (परादै) छोड़ने योग्य (अघाय) पाप करने के लिये (मा भूम) हम न होवें। (नः) हमको (अवृकेभिः) चोर न होनेवाले (वरूथैः) श्रेष्ठों के द्वारा (त्रायस्व) बचा, (सूरिषु) प्रेरक नेताओं के बीच हम लोग (ते) तेरे (प्रियासः) प्यारे [प्रसन्न करनेवाले] (स्याम) होवें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे प्रजागण धर्मात्मा राजा की उन्नति के लिये प्रयत्न करें, वैसे ही वह भी उत्तम-उत्तम विद्याओं और बड़े-बड़े अधिकारों के देने से प्रजा को प्रसन्न करें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(मा) निषेधे (ते) तव (अस्याम्) उपस्थितायाम् (सहसावन्) मध्ये तृतीयाविभक्तिश्छान्दसी। हे सहस्वन्। बहुबलयुक्त (परिष्टौ) शकन्ध्वादित्वात् पररूपम्। परित इष्टसिद्धौ (अघाय) पापकरणाय (भूम) भवेम (हरिवः) अ०२०।३१।। प्रशस्तमनुष्ययुक्त (परादै) प्रयै रोहिष्यै अव्यथिष्यै। पा०३।४।१०। परा+ददातेः-कै प्रत्ययस्तुमर्थे। परादानाय त्यागाय। त्यक्तव्याय-इति दयानन्दभाष्ये (त्रायस्व) पाहि (नः) अस्मान् (अवृकेभिः) अचोरैः (वरूथैः) वरैः। श्रेष्ठैः (तव) (प्रियासः) प्रीताः (सूरिषु) प्रेरकेषु नेतृषु (स्याम) भवेम ॥

०८ प्रियास इत्ते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः।
नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥

०८ प्रियास इत्ते ...{Loading}...

Griffith

May we men, Bounteous Lord, the friends thou lovest, near i thee be joyful under thy protection. Fain to fulfil the wish of Atithigva, bow Turvasa, bow down,. the son of Yadu.

पदपाठः

प्रियासः॑। इत्। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भिष्टौ॑। नरः॑। म॒दे॒म॒। श॒र॒णे। सखा॑यः। नि। तु॒र्वश॑म्। नि। याद्व॑म्। शि॒शी॒हि॒। अ॒त‍ि॒थि॒ऽग्वाय॑। शंस्य॑म्। क॒रि॒ष्यन्। ३७.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) हे महाधनी ! (अभिष्टौ) सब प्रकार इष्टसिद्धि में (नरः) हम नेता लोग (ते इत्) तेरे ही (प्रियासः) प्यारे (सखायः) मित्र होकर (शरणे) शरण में [रहकर] (मदेम) प्रसन्न होवें। (शंस्यम्) बड़ाई योग्य कर्म (करिष्यन्) करता हुआ तू (तुर्वशम्) हिंसकों को वश में करनेवाले (याद्वम्) प्रयत्नशील मनुष्य को (अतिथिग्वाय) अतिथियों [विद्वानों] की प्राप्ति के लिये (नि) निश्चय करके (नि) नित्य (शिशीहि) तीक्ष्ण कर ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा अपनी और प्रजा की बढ़ती के लिये शान्ति स्थापित करके सबको प्रसन्न रक्खे, जिससे विद्वान् लोग बे-रोक आ-जाकर उन्नति का उपदेश करते रहें ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(प्रियासः) प्रीताः (इत्) एव (ते) तव (मघवन्) महाधनिन् (अभिष्टौ) पररूपम्। अभित इष्टसिद्धौ (नरः) नेतारः (मदेम) आनन्देम (शरणे) शरणागतपालने कर्मणि (सखायः) सुहृदः सन्तः (नि) निश्चयेन (तुर्वशम्) तुर तूर त्वरणहिंसनयोः-क्विप्+वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा०३।३।८। वश कान्तौ-अप्। तुरां हिंसकानां वशयितारम् (नि) नित्यम् (याद्वम्) इण्शिभ्यां वन्। उ०१।१२। यती प्रयत्ने वा यत ताडने-वन्, णित्, तस्य दः। यद्वो मनुष्यनाम-निघ०२।३। प्रयत्नवन्तं मनुष्यम् (शिशीहि) अ०।२।७। शो तनूकरणे-श्यनः श्लुः, लोट्। बहुलं छन्दसि। पा०७।४।७८। अभ्यासस्य इत्वम्। ई हल्यघोः। पा०६।४।११३। आत ईत्वम्। तीक्ष्णीकुरु (अतिथिग्वाय) अ०२०।२१।८। अतिथीनां विदुषां गमनाय (शंस्यम्) प्रशंसनीयं कर्म (करिष्यन्) कुर्वन् ॥

०९ सद्यश्चिन्नु ते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

स॒द्यश्चि॒न्नु ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरः॑ शंसन्त्युक्थ॒शास॑ उ॒क्था।
ये ते॒ हवे॑भि॒र्वि प॒णीँरदा॑शन्न॒स्मान्वृ॑णीष्व॒ युज्या॑य॒ तस्मै॑ ॥

०९ सद्यश्चिन्नु ते ...{Loading}...

Griffith

Swiftly, in truth, O Bounteous Lord, about thee men skilled im hymning sing their songs and praises. Elect us shares of their love and friendship who by their calls on, thee despoiled the niggards.

पदपाठः

स॒द्यः। चि॒त्। नु। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भिष्टौ॑। परः॑। शं॒स॒न्ति॒। उ॒क्थ॒ऽशसः॑। उ॒क्था। ये। ते॒। हवे॑भिः। वि। प॒णीन्। अदा॑शन्। अ॒स्मात्। वृ॒णी॒ष्व॒। युज्या॑य। तस्मै॑। ३७.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) हे बड़े पूजनीय ! (ये) जो (उक्थशासः) प्रशंसनीय अर्थों का उपदेश करनेवाले (नरः) नर [नेता लोग] (ते) तेरी (अभिष्टौ) सब प्रकार इष्ट सिद्धि में (सद्यः) शीघ्र (चित्) ही (नु) निश्चय करके (उक्था) कहने योग्य वचनों को (शंसन्ति) कहते हैं। और (ते) तेरे (हवेभिः) बुलावों से (पणीन्) व्यवहारों का (वि) विविध प्रकार (अदाशन्) दान करते हैं, [उन] (अस्मान्) हमको (तस्मै) उस (युज्याय) योग्य व्यवहार के लिये (वृणीष्व) तू स्वीकार कर ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य राज्य की भलाई का उपदेश करें और अवसर होने पर उत्तम उपाय करें, राजा उनका सदा सन्मान करें ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(सद्यः) शीघ्रम् (चित्) अपि (नु) निश्चयेन (ते) तव (मघवन्) हे महापूज्य (अभिष्टौ) अभीष्टसिद्धौ (नरः) नेतारः (शंसन्ति) कथयन्ति (उक्थशासः) उक्थानां प्रशंसनीयार्थानां वक्तारः (उक्था) कथनीयानि वचनानि (ये) (ते) तव (हवेभिः) आह्वानैः (वि) विविधम् (पणीन्) व्यवहारान् (अदाशन्) लडर्थे लङ्। ददति (अस्मान्) (तान्) तथाविधान् (वृणीष्व) स्वीकुरु (युज्याय) युजिर् योगे-क्यप्। योग्यव्यवहाराय (तस्मै) ॥

१० एते स्तोमा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ए॒ते स्तोमा॑ न॒रां नृ॑तम॒ तुभ्य॑मस्म॒द्र्य᳡ञ्चो॒ दद॑तो म॒घानि॑।
तेषा॑मिन्द्र वृत्र॒हत्ये॑ शि॒वो भूः॒ सखा॑ च॒ शूरो॑ऽवि॒ता च॑ नृ॒णाम् ॥

१० एते स्तोमा ...{Loading}...

Griffith

Thine are these Lauds, O manliest of heroes, Lauds which revert to us and give us riches. Favour these, Indra, when they strike the foemen, as Friend and Hero and the heroes’ helper.

पदपाठः

ए॒ते। स्तोमाः॑। न॒राम्। नृ॒ऽत॒म॒। तुभ्य॑म्। अ॒स्म॒द्र्य॑ञ्चः। दद॑तः। म॒घानि॑। तेषा॑म्। इ॒न्द्र॒। वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑। शि॒वः। भूः। सखा॑। च॒। शूरः॑। अ॒वि॒ता। च॒। नृ॒णाम्। ३७.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नराम्) नरों के बीच (नृतम) हे बड़े नर ! [नेता] (एते) यह (अस्मद्र्यञ्चः) हमको मिलनेवाले (स्तोमाः) प्रशंसनीय विद्वान् लोग (तुभ्यम्) तेरे लिये (मघानि) धनों को (ददतः) देते हुए हैं। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् !] (वृत्रहत्ये) शत्रुओं के मारनेवाले संग्राम में (तेषाम्) उन (नृणाम्) नरों का (शिवः) मङ्गलकारी (सखा) मित्र (च च) और (शूरः) शूर (अविता) रक्षक (भूः) तू हो ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा विद्वानों द्वारा धन आदि बढ़ाकर शत्रुओं का नाश करके प्रजा की रक्षा करे ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(एते) (स्तोमाः) प्रशंसनीयाः पुरुषाः (नराम्) नॄ नये-विट्। नेतॄणां मध्ये (नृतम) नयतेर्डिच्च। उ०२।१००। णीञ् प्रापणे-ऋप्रत्ययो-डित्, तमप्। हे अतिशयेन नायक (तुभ्यम्) (अस्मद्र्यञ्चः) अस्मद्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। विष्वग्देवयोश्च टेरद्र्यञ्चतावप्रत्यये। पा०६।३।९२। अस्मद्-शब्दस्य टेरद्रि। अस्मान् अञ्चन्तः प्राप्नुवन्तः (ददतः) प्रयच्छन्तः सन्ति (मघानि) धनानि (तेषाम्) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (वृत्रहत्ये) वृत्राणां शत्रूणां हत्या हननं यस्मिंस्तस्मिन्, सङ्ग्रामे (शिवः) मङ्गलकारी (भूः) अभूः। भव (सखा) सुहृत् (च) (शूरः) निर्भयः (अविता) रक्षकः (सृ) (नृणाम्) नेतॄणाम् ॥

११ नू इन्द्र

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

नू इ॑न्द्र शूर॒ स्तव॑मान ऊ॒ती ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा᳡ वावृधस्व।
उप॑ नो॒ वाजा॑न्मिमी॒ह्युप॒ स्तीन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥

११ नू इन्द्र ...{Loading}...

Griffith

Now, lauded for thine aid, heroic Indra, sped by our prayer,, wax mighty in thy body. To us apportion wealth and habitations. Ye Gods, protect us- evermore with blessings.

पदपाठः

नु। इ॒न्द्र॒। शू॒र॒। स्तव॑मानः। ऊ॒ती। ब्रह्म॑ऽजूतः। त॒न्वा॑। व॒वृ॒ध॒स्व॒। उप॑। नः॒। वाजा॑न्। मि॒मी॒हि॒। उप॑। स्तीन्। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒। ३७.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे शूर (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नु) शीघ्र (स्तवमानः) उत्साह देता हुआ और (ब्रह्मजूतः) धन वा अन्न को प्राप्त होता हुआ तू (ऊती) रक्षा के साथ (तन्वा) शरीर से (वावृधस्व) अत्यन्त बढ़। (नः) हमारे (वाजान्) बलों को और (स्तीन्) घरों को (उप) आदर से (उप मिमीहि) उपमा योग्य [बड़ाई योग्य] कर। [हे वीरो !] (यूयम्) तुम सब (स्वस्तिभिः) सुखों के साथ (सदा) सदा (नः) हमें (पात) रक्षित रक्खो ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा वीर पुरुषों को उत्साह देकर उनकी और अपनी वृद्धि करे और सब लोग उत्तम गुणों से उपमायोग्य प्रशंसनीय होकर परस्पर रक्षा करें ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: इस मन्त्र का चौथा पाद आ चुका है-अ०२०।१२।६, और १७।१२, और आगे है-२०।८७।७॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥११−(नु) शीघ्रम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (शूर) निर्भय (स्तवमानः) स्तुवन्। उत्साहयन् (ऊती) रक्षया (ब्रह्मजूतः) ब्रह्म धनम् अन्नं वा जूतः प्राप्तः (उप) पूजायाम् (तन्वा) शरीरेण (वावृधस्व) भृशं वर्धस्व (नः) अस्माकम् (वाजान्) पराक्रमान् (उप मिमीहि) माङ् माने शब्दे च। भृञामित्। पा०७।४।७६। अभ्यासस्य इत्वम्। ई हल्यघोः। पा०६।४।११३। इति आत ईत्वम्। मिमीष्व। उपमितान् उपमायोग्यान् स्तुत्यान् कुरु (स्तीन्) अच इः। उ०४।१३९। ष्टै वेष्टने-इप्रत्ययः। गृहान्। अन्यत् पूर्ववत्-अ०२०।१२।६॥