०३५

०३५ ...{Loading}...

Griffith

???

०१ अस्मा इदु

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒स्मा इदु॒ प्र त॒वसे॑ तु॒राय॒ प्रयो॒ न ह॑र्मि॒ स्तोमं॒ माहि॑नाय।
ऋची॑षमा॒याध्रि॑गव॒ ओह॒मिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मा॑णि रा॒तत॑मा ॥

०१ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

To him, to him swift, strong, and high-exalted, I bring my song of praise as dainty viands; My thought to him resistless, meet for praises, prayers offered most devotedly to Indra.

पदपाठः

अ॒स्मै। इत्। ऊं॒ इति॑। प्र। त॒वसे॑। तु॒राय॑। प्रयः॑। न। ह॒र्मि॒। स्तोम॑म्। माहि॑नाय। ऋची॑षमाय। अध्रि॑ऽगवे। ओह॑म्। इन्द्रा॑य। ब्रह्मा॑णि। रा॒तऽत॑मा। ३५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) इस [संसार] के हित के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (तवसे) बल के निमित्त, (तुराय) फुरतीले, (माहिनाय) पूजनीय, (ऋचीषमाय) स्तुति के समान गुणवाले, (अध्रिगवे) बेरोक गतिवाले, (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति] के लिये (स्तोमम्) स्तुति को, (ओहम्) पूरे विचार को और (राततमा) अत्यन्त देने योग्य (ब्रह्माणि) धनों को (प्रयः न) तृप्ति करनेवाले अन्न के समान (प्र हर्मि) मैं आगे लाता हूँ ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि पूजनीय, उत्तम गुणवाले, अति बुद्धिमान् राजा आदि प्रधान पुरुषों का धन आदि से सत्कार करें और प्रधान लोग भी इसी प्रकार उनका आदर करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।६१।१-१६॥१−(अस्मै) परिदृश्यमानस्य संसारस्य हिताय (इत्) एव (उ) वितर्के। विचारे (प्र) (नवसे) अ०४।३२।३। बलार्थम् (तुराय) तुर त्वरणे-कप्रत्ययः। वेगवते (प्रयः) सर्वधातुभ्य असुन्। उ०४।१८९। प्रीञ् तर्पणे-असुन्। प्रीतिकरम् अन्नम्-निघ०२।७। (न) यथा (हर्मि) शपो लुक्। हरामि। नयामि (स्तोमम्) स्तुतिम् (माहिनाय) महेरिनण् च। उ०२।६। मह पूजायाम्-इनण्। पूजनीयाय (ऋचीषमाय) इगुपधात् कित्। उ०४।१२०। ऋच स्तुतौ-इन्, कित् ङीप्+षम अवैकल्यै-अच्। ऋचीषम् ऋचा समः-निरु०६।२३। ऋचा स्तुत्या तुल्याय। स्तुतितुल्यगुणवते (अध्रिगवे) भुजेः किच्च। उ०४।

०२ अस्मा इदु

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अ॒स्मा इदु॒ प्रय॑ इव॒ प्र यं॑सि॒ भरा॑म्याङ्गू॒षं बाधे॑ सुवृ॒क्ति।
इन्द्रा॑य हृ॒दा मन॑सा मनी॒षा प्र॒त्नाय॒ पत्ये॒ धियो॑ मर्जयन्त ॥

०२ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

To him I offer praise as choice refreshment, bring forth my song, with seemly laud besiege him. For Indra, Lord of olden time, the singers shall deck their hymns with heart and mind and spirit.

पदपाठः

अ॒स्मै। इत्। ऊं॒ इति॑। प्रयः॑ऽइव। प्र। यं॒सि। भरा॑मि। आ॒ङ्गू॒षम्। बाधे॑। सु॒ऽवृ॒क्ति। इन्द्रा॑य। हदा। मन॑सा। म॒नी॒षा। प्र॒त्नाय॑। पत्ये॑। धियः॑। म॒र्ज॒य॒न्त॒। ३५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (अस्मै) इस [संसार के हित के लिये] (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक, (प्रयः इव) तृप्ति करनेवाले अन्न के समान (आङ्गूषम्) प्राप्तियोग्य स्तुति को (प्र यंसि) तू देता है और (बाधे) बाधा रोकने के लिये (सुवृक्ति) सुन्दर ग्रहण करने योग्य कर्म को (भरामि) मैं पुष्ट करता हूँ। (प्रत्नाय) प्राचीन (पत्ये) स्वामी, (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति] के लिये (हृदा) हृदय से, (मनसा) मनन से और (मनीषा) बुद्धि से (धियः) कर्मों को (मर्जयन्त) मनुष्य शुद्ध करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य मिलकर परस्पर हित के लिये सुपरीक्षित विद्वान् उपकारी पुरुष को सभापति बनाकर उसके लिये प्रिय आचरण करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (प्रयः) म०१। प्रीतिकरमन्नम् (इव) यथा (प्र यंसि) यमु उपरमे-शपो लुक्। प्रयच्छसि। ददासि हे विद्वन् (भरामि) पुष्णामि (आङ्गूषम्) पीयेरूषन्। उ०४।७६। आङ्+अङ्ग गतौ-ऊषन्। आङ्गूषः स्तोम आघोषः-निरु०।११। प्रापणीयं स्तोमम् (बाधे) बाधृ विलोडने-क्विप्। क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा०२।३।१४। इति तुमुनः कर्मणि चतुर्थी। बाधं बाधां व्यथां निवारयितुम् (सुवृक्ति) सु+वृक आदाने-क्तिन्। सुष्ठु ग्राह्यं कर्म (इन्द्राय) म०१। (हृदा) हृदयेन (मनसा) मननेन (मनीषा) विभक्तेर्डा। मनीषया बुद्ध्या (प्रत्नाय) प्राचीनाय (पत्ये) स्वामिने (धियः) कर्माणि-निघ०२।१। (मर्जयन्त) मृजूष् शुद्धौ-लोडर्थे लङ् अडभावश्च। मर्जयन्तु शोधयन्तु ॥

०३ अस्मा इदु

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अ॒स्मा इदु॒ त्यमु॑प॒मं स्व॒र्षां भरा॑म्याङ्गू॒षमा॒स्ये᳡न।
मंहि॑ष्ठ॒मच्छो॑क्तिभिर्मती॒नां सु॑वृ॒क्तिभिः॑ सू॒रिं वा॑वृ॒धध्यै॑ ॥

०३ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

To him then with my lips my song of praises, excellent, winning heavenly light, I offer, To magnify with hymns of invocation and eulogies the Lord, most bounteous Giver.

पदपाठः

अ॒स्मै। इत्। ऊं॒ इति॑। त्यम्। उ॒प॒ऽमम्। स्वः॒ऽसाम्। भरा॑मि। आ॒ङ्गू॒षम्। आ॒स्ये॑न। मंहि॑ष्ठम्। अच्छो॑क्तिऽभिः। म॒तो॒नाम्। सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑। सू॒रिम्। व॒वृ॒धध्यै॑ ३५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) इस [संसार] के हिते के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (त्यम्) उस (उपमम्) उपमायोग्य, (स्वर्षाम्) सुख देनेवाली, (आङ्गूषम्) प्राप्तियोग्य स्तुति को (आस्येन) [अपने] मुख से (मतीनाम्) बुद्धिमानों में (अच्छोक्तिभिः) अच्छे वचनोंवाली (सुवृक्तिभिः) सुन्दर ग्रहणयोग्य क्रियाओं के साथ (मंहिष्ठम्) उस अत्यन्त उदार, (सूरिम्) प्रेरक विद्वान् के (वावृधध्यै) बढ़ाने के लिये (भरामि) मैं धारण करता हूँ ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अपने शुभ लक्षणों से सबमें श्रेष्ठ गुणी विद्वान् हो, उसको आदरपूर्वक सभापति बनावें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(अस्मै) (इत्) (उ) म०१। (त्यम्) तम् (उपमम्) दृष्टान्तयोग्यम् (स्वर्षाम्) अ०।२।८। स्वः+षणु दाने-विट्। सुखस्य दातारम् (भरामि) धरामि (आङ्गूषम्) म०२। प्रापणीयं स्तोमम् (मंहिष्ठम्) अ०२०।१।१। दातृतमम् (अच्छोक्तिभिः) श्रेष्ठवचनयुक्ताभिः (मतीनाम्) मेधाविनाम्-निघ०३।१। (सुवृक्तिभिः) म०२। सुष्ठु ग्राह्याभिः क्रियाभिः (सूरिम्) अ०२।११।४। प्रेरकं विद्वांसम् (वावृधध्यै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३।४।९। वृधु वृद्धौ-कध्यैप्रत्ययः, अन्तर्गतण्यर्थः, कित्वाद् गुणाभावः, द्विर्भावश्छान्दसः। वर्धयितुम्। स्तोतुम् ॥

०४ अस्मा इदु

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अ॒स्मा इदु॒ स्तोमं॒ सं हि॑नोमि॒ रथं॒ न तष्टे॑व॒ तत्सि॑नाय।
गिर॑श्च॒ गिर्वा॑हसे सुवृ॒क्तीन्द्रा॑य विश्वमि॒न्वं मेधि॑राय ॥

०४ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

Even for him I frame a laud–so fashions the wright a chariot for the man who needs it Songs for wise Indra hymned with invocation, a song composed with care and all-impelling.

पदपाठः

अ॒स्मै। इत्। ऊं॒ इति॑। स्तोम॑म्। सम्। हि॒नो॒मि॒। रथ॑म्। न। तष्टा॑ऽइव। तत्ऽसि॑नाय। गिरः॑। च॒। गिर्वा॑हसे। सु॒ऽवृ॒क्ति। इन्द्रा॑य। वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वम्। मेध‍ि॑राय। ३५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
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  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) इस [संसार] के हित के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (गिर्वाहसे) विद्याओं के पहुँचानेवाले, (मेधिराय) बुद्धिमान् (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति] के लिये (सुवृक्ति) सुन्दर ग्रहण करने योग्य क्रियाओं के साथ (विश्वमिन्वम्) सबमें फैलनेवाले (स्तोमम्) स्तुतियोग्य व्यवहार (च) औऱ (गिरः) वेदवाणियों को (सम्) यथावत् (हिनोमि) मैं बढ़ाता हूँ, (रथम्) रथ को (तष्टा इव) जैसे विश्वकर्मा [बड़ा जाती बढ़ई] (न) अब (तत्सिनाय) उस [रथ] से अन्न के लिये बढ़ाता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् शिल्पी कला यन्त्र लगाकर सुन्दर रथ बनाकर उससे अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करता-कराता है। वैसे ही मनुष्य बुद्धिमान् पुरुष से आदर के साथ उत्तम गुण ग्रहण करके आनन्द पावें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (स्तोमम्) स्तुत्यं व्यवहारम् (सम्) सम्यक् (हिनोमि) हि गतिवृद्ध्योः। वर्धयामि। स्तौमि (रथम्) रमणीयं यानम् (न) सम्प्रति (तष्टा) तक्षू तनूकरणे-तृन्, ऊदित्वात्पक्षे इडभावः। तक्षकः। विश्वकर्म्मा। शिल्पी (इव) यथा (तत्सिनाय) इण्सिञ्जि०। उ०३।२। षिञ् बन्धने-नक्। सिनमन्नं भवति सिनाति भूतानि-निरु०।। तेन रथेन सिनस्य अन्नस्य प्राप्तये (गिरः) वेदवाणीः (च) (गिर्वाहसे) सर्वधातुभ्य असुन्। उ०४।१८९। गिर्+वह प्रापणे-असुन्, धातोर्दीर्घश्छान्दसः। गिरां विद्यानां प्रापकाय (सुवृक्ति) म०२। सु+वृक आदाने-क्तिन्। विभक्तेर्लुक्। सुष्ठु ग्राह्याभिः क्रियाभिः (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते सभापतये (विश्वमिन्वम्) इवि व्याप्तौ-पचाद्यच्, विभक्त्यलुक्। सर्वव्यापकम् (मेधिराय) मेधारथाभ्यामिरन्निरचौ वक्तव्यौ। वा० पा०।२।१०९। मेधा-हरन्। मेधाविने ॥

०५ अस्मा इदु

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अ॒स्मा इदु॒ सप्ति॑मिव श्रव॒स्येन्द्रा॑या॒र्कं जु॒ह्वा॒३॒॑ सम॑ञ्जे।
वी॒रं दा॒नौक॑सं व॒न्दध्यै॑ पु॒रां गू॒र्तश्र॑वसं द॒र्माण॑म् ॥

०५ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

So with my tongue I deck, to please that Indra, my hymn as’t- were a horse, through love of glory, To reverence the Hero, bounteous Giver, famed far and wide, destroyer of the castles.

पदपाठः

अस्मै॑। इत्। ऊं॒ इति॑। सप्ति॑म्ऽइव। अ॒व॒स्‍या। इन्द्रा॑य। अ॒र्कम्। जु॒ह्वा॑। सम्। अ॒ञ्जे॒। वी॒रम्। दा॒नऽओ॑कसम्। व॒न्दध्यै॑। पु॒राम्। गू॒र्तऽश्र॑वसम्। द॒र्माण॑म्। ३५.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
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  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) इस [संसार] के हिते के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (इन्द्राय) ऐश्वर्य के अर्थ (श्रवस्या) कीर्ति की इच्छा से (जुह्वा) देने-लेने वाली क्रिया के साथ (सप्तिम् इव) जैसे फुरतीले घोड़े को [वैसे] (अर्कम्) पूजनीय (वीरम्) वीर, (दानौकसम्) दान के घर [बड़े दानी], (गूर्तश्रवसम्) उद्यमयुक्त यशवाले, (पुराम्) शत्रुओं के गढ़ों के (दर्माणम्) ढानेवाले [सभापति] को (वन्दध्यै) सत्कार करने के लिये (सम्) अच्छे प्रकार (अञ्जे) मैं चाहता हूँ ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे फुरतीले घोड़े को चढ़ने और रथ आदि ले चलने के लिये चाहते हैं, वैसे ही मनुष्य शुभगुण वाले महाकीर्तिमान् पुरुषार्थी जन को संसार के हित के लिये आदर से चाहते हैं ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (सप्तिम्) वसेस्तिः। उ०४।१८०। इति षप समवाये-ति। सप्तिरिति अश्वनाम-निघ०१।१४। शीघ्रगामिनम् अश्वम् (इव) यथा (श्रवस्या) सुप आत्मनः क्यच्। पा०३।१।८। श्रवस्-क्यच्। तस्मात् अप्रत्ययः, टाप्। तृतीयायां डादेशः। कीर्तीच्छया (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्राप्तये (अर्कम्) अर्चनीयम् (जुह्वा) अ०१८।४।। हु दानादानादनेषु-क्विप्, तृतीयैकवचनम्। दानादानक्रियया (सम्) सम्यक् (अञ्जे) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-आत्मनेपदं छान्दसम्। अहं कामये (वीरम्) शूरम् (दानौकसम्) दानस्य गृहम्। महादानिनम् (वन्दध्ये) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३।४।९। वदि अभिवादनस्तुत्योः-कध्यै। वन्दितुम्। सत्कर्तुम् (पुराम्) शत्रूणां पुराणां दुर्गाणाम् (गूर्तश्रवसम्) नसत्तनिषत्ताऽनुत्तप्रतूर्तसूर्तगूर्तानिच्छन्दसि। पा०८।२।६१। गूरी उद्यमने-क्त नत्वाभावः। गूर्णम् उद्योगयुक्तं श्रवो यशो यस्य तम् (दर्माणम्) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ०४।१४। दॄ विदारणे-मनिन्। विदारयितारम् ॥

०६ अस्मा इदु

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अ॒स्मा इदु॒ त्वष्टा॑ तक्ष॒द्वज्रं॒ स्वप॑स्तमं स्व॒र्यं१॒॑ रणा॑य।
वृ॒त्रस्य॑ चिद्वि॒दद्येन॒ मर्म॑ तु॒जन्नीशा॑नस्तुज॒ता कि॑ये॒धाः ॥

०६ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

Even for him hath Tvashtar forged the thunder, most deftly wrought, celestial, for the battle. Wherewith he reached the vital parts of Vritra, striking–the vast, the mighty–with the striker,

पदपाठः

अ॒स्मै। इत्। ऊं॒ इति॑। त्वष्टा॑। त॒क्ष॒त्। वज्र॑म्। स्वपः॑ऽतमम्। स्व॒र्य॑म्। रणा॑य। वृ॒त्रस्य॑। चि॒त्। वि॒दत्। येन॑। मर्म॑। तु॒जन्। ईशा॑नः। तु॒ज॒ता। कि॒ये॒धाः। ३५.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
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  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) इस [संसार] के हित के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (त्वष्टा) सूक्ष्म करनेवाले [सूक्ष्मदर्शी विश्वकर्मा सभापति] ने (स्वपस्तमम्) अत्यन्त सुन्दर रीति से काम सिद्ध करनेवाला, (स्वर्यम्) सुख देनेवाला (वज्रम्) वज्र [बिजुली आदि शस्त्र] (रणाय) रण जीतने को (तक्षत्) तीक्ष्ण किया है। (तुजता येन) जिस काटनेवाले [वज्र] से (वृत्रस्य) वैरी के (मर्म) मर्म [जीवन स्थान] को (चित्) ही (तुजन्) छेद कर (ईशानः) ऐश्वर्यवान्, (कियेधाः) कितने [अर्थात् बड़े बल] के धारण करनेवाले [उस सभापति] ने (विदत्) पाया है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सभापति राजा तीक्ष्ण-तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को दण्ड देकर प्रजा को आनन्द देवें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: इस मन्त्र का मिलान करो-अ०२।।६॥६−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (त्वष्टा) अ०२।।६। त्वक्षू तनूकरणे-तृन्। व्यवहाराणां तनूकर्ता सूक्ष्मदर्शी विश्वकर्मा (तक्षत्) तक्षू तनूकरणे-लङ्। अतक्षत्। तीक्ष्णमकरोत् (वज्रम्) विद्युदादिशस्त्रसमूहम् (स्वपस्तमम्) अपः कर्मनाम-निघ०२।१। सुष्ठु अपांसि कर्माणि यस्मात् तम् (स्वर्यम्) अ०२।।६। स्वः-यत्। सुखे साधुम् (रणाय) रणं युद्धं जेतुम् (वृत्रस्य) शत्रोः (चित्) एव (विदत्) विद्लृ लाभे-लुङ्। अविदत्। लब्धवान् (येन) वज्रेण (मर्म) अ०।८।९। सन्धिस्थानं जीवस्थानम् (तुजन्) तुज हिंसायाम्-शतृ, शपि प्राप्ते छान्दसः शः। हिंसन् (ईशानः) ऐश्वर्यवान् (तुजता) छेदकेन (कियेधाः) कियत्+दधातेर्विच्, कियतः किये भावः। कियेधाः कियद्धा इति वा क्रममाणधा इति वा-निरु०६।२०। कियतो महतो बलस्य धारकः ॥

०७ अस्येदु मातुः

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अ॒स्येदु॑ मा॒तुः सव॑नेषु स॒द्यो म॒हः पि॒तुं प॑पि॒वां चार्वन्ना॑।
मु॑षा॒यद्विष्णुः॑ पच॒तं सही॑या॒न्विध्य॑द्वरा॒हं ति॒रो अद्रि॒मस्ता॑ ॥

०७ अस्येदु मातुः ...{Loading}...

Griffith

As soon as, at libations of his mother, great Vishnu had drunk up the draught, he plundered. The dainty cates, the cooked mess; but One stronger transfixed the wild boar, shooting through the mountain.

पदपाठः

अ॒स्य। इत्। ऊं॒ इति॑। मा॒तुः। सव॑नेषु। स॒द्यः। म॒हः। पि॒तुम्। प॒पि॒ऽवान्। चारु॑। अन्ना॑। मु॒षा॒यत्। विष्णुः॑। प॒च॒तम्। सही॑यान्। विध्य॑त्। व॒रा॒हम्। ति॒रः। अद्रि॑म्। अस्ता॑। ३५.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [जगत्] के (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (महः) बड़े (मातुः) निर्माता [बनानेवाले परमेश्वर] के (सवनेषु) ऐश्वर्यों में (सद्यः) तुरन्त (चारु) सुन्दर (पितुम्) पीने योग्य रस को और (अन्ना) अन्नों को (पपिवान्) खाने-पीने वाला, (पचतम्) परिपक्व [वैरी के अन्न वा धन] को (मुषायत्) लूटता हुआ, (विष्णुः) विद्याओं में व्यापक, (सहीयान्) विजयी, (अद्रिम्) वज्र का (अस्ता) चलानेवाला [सेनापति] (वराहम्) वराह [सूअर के समान अच्छे पदार्थ नाश करनेवाले शत्रु] को (तिरः) आर-पार (विध्यत्) छेदता है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो परमेश्वर के बनाये ऐश्वर्ययुक्त पदार्थों का ठीक-ठीक उपयोग करके जङ्गली सूअर के समान उपद्रवी शत्रुओं का नाश करे, वही पुरुष सभापति सेनापति होवे ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(अस्य) संसारस्य (इत्) एव (उ) वितर्के (मातुः) निर्मातुः। रचकस्य परमेश्वरस्य (सवनेषु) ऐश्वर्येषु (सद्यः) समाने दिने। इदानीम् (महः) मह पूजायाम्-विट्। महतः। पूजनीयस्य (पितुम्) अ०४।६।३। पा पाने रक्षणे वा-तुप्रत्ययो धातोः पिभावः। पितुरित्यन्ननाम पातेर्वा पिबतेर्वा प्यायतेर्वा-निरु०९।२४। पानीयं रसम् (पपिवान्) अ०७।९७।३। पिबतेः क्वसु। पीतवान्। खादितवान् (चारु) विभक्तेर्लुक्। सुन्दरम् (अन्ना) अन्नानि (मुषायत्) मुष स्तेये-घञर्थे कविधानम्। सुप आत्मनः क्यच्। पा०३।१”।८। मुष-क्यच्। नच्छन्दस्यपुत्रस्य। पा०७।४।३। ईत्ववद् दीर्घस्यापि प्रतिषेधे छान्दसो दीर्घः। अस्मात् क्यजन्तात् शतृ, नुमभावः। आत्मनः स्तेयमिच्छन् अपहरन् (विष्णुः) विद्यासु व्यापनशीलः (पचतम्) भृमृदृशियजिपर्विपच्यमि०। उ०३।११०। पचतेः-अतच्। शत्रूणां परिपक्वमन्नं धनं वा (सहीयान्) सोढृ-ईयसुन्। अतिशयेन अभिभविता, विजेता (विध्यत्) विध्यति। ताडयति (वराहम्) वृञ् वरणे-अप् अन्येष्वपि दृश्यते। पा०३।२।१०१। वर+आङ्+हृञ् नाशने वा हन हिंसागत्योः-डप्रत्ययः। वरस्य उत्कृष्टस्य पदार्थस्य आहर्तारम् आहन्तारं नाशयितारं शूकरमिव शत्रुम्। वराहो मेघो भवति वराहार… अयमपीतरो वराह एतस्मादेव। बृंहति मूलानि, वरं वरं मूलं बृंहतीति वा, अङ्गिरसोऽपि वाराहा उच्यन्ते-निरु०४। (तिरः) तिरस्कृत्य (अद्रिम्) वज्रम् (अस्ता) असु क्षेपणे-तृन्, इडभावः। न लोकाव्ययनिष्ठा०। पा०२।३।६९। षष्ठीप्रतिषेधः। प्रक्षेप्ता ॥

०८ अस्मा इदु

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अ॒स्मा इदु॒ ग्नाश्चि॑द्दे॒वप॑त्नी॒रिन्द्रा॑या॒र्कम॑हि॒हत्य॑ ऊवुः।
परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी ज॑भ्र उ॒र्वी नास्य॒ ते म॑हि॒मानं॒ परि॑ ष्टः ॥

०८ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

To him, to Indra when he slew the Dragon, the Dames too, Consorts of the Gods, wove praises. The mighty heaven and earth hath he encompassed: thy great- ness heaven and earth, combined, exceed not.

पदपाठः

अ॒स्मै। इत्। ऊं॒ इति॑। ग्नाः। चि॒त्। दे॒वऽप॑त्नीः। इन्द्रा॑य। अ॒र्कम्। अ॒हि॒ऽहत्ये॑। ऊ॒वु॒रित्यू॑वुः। परि॑। द्यावा॑पृथि॒वी इत‍ि॑। ज॒भ्रे॒। उ॒र्वी इति॑। न। अ॒स्य॒। ते इति॑। म॒हि॒मान॑म्। परि॑। स्त॒ इति॑ स्तः। ३५.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) इस [संसार] के हित के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (देवपत्नीः) विद्वानों से पालने योग्य (ग्नाः) वेदवाणियों ने (चित्) भी (अहिहत्ये) सब ओर से नाश करनेवाले [विघ्न] के मिटने पर (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] के लिये (अर्कम्) पूजनीय व्यवहार को (ऊवुः) बुना है [फैलाया है]। उस [परमात्मा] ने (उर्वी) चौड़े (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी को (परि) सब ओर से (जभ्रे) ग्रहण किया है, (ते) वे दोनों (अस्य) इस [परमात्मा] की (महिमानम्) महिमा को (न) नहीं (परि अस्तः) पहुँच सकते हैं ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे सबसे बड़े परमात्मा ने प्रलय के अन्धकार आदि क्लेश मिटाकर सूर्य पृथिवी आदि लोक रचकर वेदद्वारा अपनी महिमा फैलायी है, वैसे ही सभापति आदि पुरुष कठिनाइयों को झेलकर सबको आनन्द देवें ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (ग्नाः) अ०७।४९।२। गमेर्नप्रत्ययः, डाप्, टिलोपः। ग्ना वाङ्नाम-निघ०१।११। वेदवाण्यः (चित्) अपि (देवपत्नीः) विद्वद्भिः पालनीयाः (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते परमात्मने (अर्कम्) अर्चनम्। पूजनम् (अहिहत्ये) अहेराहन्तुः समन्ताद् नाशकस्य विघ्नस्य हत्यायां नाशने (ऊवुः) वेञ् तन्तुसन्ताने-लिट्। विस्तारयामासुः अतन्वत (परि) सर्वतः (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (जभ्रे) हृञो लिट्। हस्य भः। जह्रे। गृहीतवान् (उर्वी) विस्तृते (न) निषेधे (अस्य) परमेश्वरस्य (ते) उभे (महिमानम्) महत्वम् (परि अस्तः) पराभवतः। प्राप्नुतः ॥

०९ अस्येदेव प्र

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अ॒स्येदे॒व प्र रि॑रिचे महि॒त्वं दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षात्।
स्व॒राडिन्द्रो॒ दम॒ आ वि॒श्वगू॑र्तः स्व॒रिरम॑त्रो ववक्षे॒ रणा॑य ॥

०९ अस्येदेव प्र ...{Loading}...

Griffith

Yea, of a truth, his magnitude surpasseth the magnitude of earth, mid-air and heaven. Indra whom all men praise, the Sovran Ruler, waxed in his home loud-voiced and strong for battle.

पदपाठः

अ॒स्य। इत्। ए॒व। प्र। रि॒रि॒चे। म॒हि॒ऽत्वम्। दि॒वः। पृ॒थि॒व्याः। परि॑। अ॒न्तरि॑क्षात्। स्व॒ऽराट्। इन्द्रः॑। दमे॑। आ। वि॒श्वऽगू॑र्तः। सु॒ऽअ॒रिः। अम॑त्रः। व॒व॒क्षे॒। रणा॑य। ३५.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [परमेश्वर] का (इत्) ही (महित्वम्) महत्त्व (एव) निश्चय करके (दिवः) सूर्य से, (पृथिव्याः) पृथिवी से और (अन्तरिक्षात्) आकाश से (परि) सब प्रकार (प्र रिरिचे) अधिक बड़ा है। (स्वराट्) स्वयं राजा, (विश्वगूर्तः) सबको उद्यम में लगानेवाला, (स्वरिः) बड़ा प्रेरक, (अमत्रः) ज्ञानवान् (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमात्मा] (दमे) शासन के बीच (रणाय) रण मिटाने के लिये (आ ववक्षे) क्रोधित हुआ है ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे परमात्मा सबसे बड़ा होकर सूर्य आदि सब बड़ों से बड़ों को शासन में रखता है, वैसे ही सबसे अधिक गुणी पुरुष प्रधान होकर प्रजा का पालन करे ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(अस्य) सर्वत्र व्यापकस्य परमेश्वरस्य (इत्) एव (एव) निश्चयेन (प्र) प्रकर्षेण (रिरिचे) रिचिर् विरेचने-लिट्। अधिकं बभूव (महित्वम्) महत्त्वम् (दिवः) सूर्यलोकात् (पृथिव्याः) भूलोकात् (परि) सर्वतः (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (स्वराट्) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च-क्विप्। स्वयं राजा शासकः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (दमे) दमु उपशमे-घञ्। शासने (विश्वगूर्तः) गूरी उद्यमे-क्त। नसत्तनिषत्ताऽनुत्तप्रतूर्त्तसूर्तगूर्तानिच्छन्दसि। पा०८।२।६१। निष्ठानत्त्वाभावः। विश्वं सर्वं जगद् गूर्णम् उद्यतम् उद्यमे कृतं येन सः (स्वरिः) अच इः। उ०४।१३९। सु+ऋ गतिप्रापणयोः-इप्रत्ययः। सुप्रेरकः (अमत्रः) अमिनक्षियजि०। उ०३।१०। अम गत्यादिषु अत्रन्। ज्ञानवान् (ववक्षे) वक्ष रोषसंघातयोः-लिट्, आत्मनेपदं छान्दसम्। रोषं चकार (रणाय) रणं युद्धं नाशयितुम् ॥

१० अस्येदेव शवसा

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अ॒स्येदे॒व शव॑सा शु॒षन्तं॒ वि वृ॑श्च॒द्वज्रे॑ण वृ॒त्रमिन्द्रः॑।
गा न व्रा॒णा अ॒वनी॑रमुञ्चद॒भि श्रवो॑ दा॒वने॒ सचे॑ताः ॥

१० अस्येदेव शवसा ...{Loading}...

Griffith

Through his own strength with bolt of thunder Indra smote piece-meal Vritra, drier up of waters. He let the floods go free, like cows imprisoned, for glory, with a heart inclined to bounty.

पदपाठः

अ॒स्य। इत्। ए॒व। शव॑सा। शु॒षन्त॑म्। वि। वृ॒श्च॒त्। वज्रे॑ण। वृ॒त्रम्। इन्द्रः॑। गाः। न। व्रा॒णाः। अ॒वनीः॑। अ॒मु॒ञ्च॒त्। अ॒भि। श्रवः॑। दा॒वने॑। सऽचे॑ता। ३५.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] ने (अस्य) इस [परमेश्वर] के (इत् एव) ही (शवसा) बल से (शुषन्तम्) सुखानेवाले (वृत्रम्) वैरी को (वज्रेण) वज्र [बिजुली आदि शस्त्र] द्वारा (वि वृश्चत्) छेद डाला। और (श्रवः अभि) कीर्ति के निमित्त (दावने) सुख दान के लिये (सचेताः) चित्तवाला होकर (व्राणाः) घिरी हुई (अवनीः) रक्षा योग्य भूमियों को (गाः न) गौओं के समान (अमुञ्चत्) छुड़ाया ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा परमेश्वर का आश्रय लेकर दुःखदायी शत्रुओं का नाश करके प्रजा को कष्ट से छुड़ाकर और कीर्ति पाकर सुख का दान करे, जैसे ग्वाला गौओं को बन्धन से खोलकर सुखी करके वन में चराता हैं ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(अस्य) परमेश्वरस्य (इत् एव) (शवसा) बलेन (शुषन्तम्) जुष शोषणे-श्यनि प्राप्ते शः। शुष्यन्तम्। शोषकम् (वि) विविधम् (वृश्चत्) अच्छिनत् (वज्रेण) विद्युदादिशस्त्रेण (वृत्रम्) आचरकं शत्रुम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापतिः (गाः) धेनूः (न) इव (व्राणाः) वृञ् वरणे-कर्मणि शानच्, यको लुक्, गुणाभावे यणादेशः। आवृताः (अवनीः) अर्त्तिसृधृधम्यम्यश्यवितॄभ्योऽनिः। उ०२।१०२। अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशश्रवणस्वाम्यर्थयाचनक्रियेच्छादीप्त्यवाप्त्यालिङ्गनहिंसादानभागवृद्धिषु अनि प्रत्ययः। भूमिदेशान् (अमुञ्चत्) अमोचयत् (अभि) अभिलक्ष्य (श्रवः) कीर्तिम् (दावने) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा०३।२।७४। ददातेर्वनिप्, अल्लोपाभावश्छान्दसः। सुखदानाय (सचेताः) चेतसा ज्ञानेन सह वर्तमानः ॥

११ अस्येदु त्वेषसा

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अ॒स्येदु॑ त्वे॒षसा॑ रन्त॒ सिन्ध॑वः॒ परि॒ यद्वज्रे॑ण सी॒मय॑च्छत्।
ई॑शान॒कृद्दा॒शुषे॑ दश॒स्यन्तु॒र्वीत॑ये गा॒धं तु॒र्वणिः॒ कः ॥

११ अस्येदु त्वेषसा ...{Loading}...

Griffith

Through his resplendent power still stood the rivers when with his bolt on every side he stayed them. With lordly might favouring him who worshipped, he made a ford, victorious, for Turviti.

पदपाठः

अ॒स्य। इत्। ऊं॒ इति॑। त्वे॒षसा॑। र॒न्त॒। सिन्ध॑वः। परि॑। यत्। वज्रे॑ण। सी॒म्। अय॑च्छत्। ई॒शा॒न॒ऽकृत्। दा॒शुषे॑। द॒श॒स्यन्। तु॒र्वीत॑ये। गा॒धम्। तु॒र्वणिः॑। क॒रिति॑। कः। ३५.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [सभापति] के (इत्) ही (उ) निश्चय करके (त्वेषसा) तेज [पराक्रम] से (सिन्धवः) नदियाँ [नाले बरहा आदि] (रन्त) रमे हैं [बहे हैं], (यत्) क्योंकि उसने (वज्रेण) वज्र [बिजुली फडुआ आदि शस्त्रों] से (सीम्) बन्ध [बाँध आदि] को (परि) सब ओर से (यच्छत्) बाँधा है। (दाशुषे) दानी मनुष्य को (ईशानकृत्) ऐश्वर्यवान् करनेवाले, (दशस्यन्) कवच [रक्षासाधन] के समान काम करते हुए, (तुर्वणिः) शीघ्रता सेवन करनेवाले [सभाध्यक्ष] ने (तुर्वीतये) शीघ्रता करनेवालों के चलने के लिये (गाधम्) उथले स्थान [घाट आदि] को (कः) बनाया है ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रधान राजा को चाहिये कि पहाड़ों से बड़े-बड़े नाले काटकर पृथिवी पर जल लाकर खेती आदि करावे, और यात्रियों के लिये सेतु [पुल] घाट आदि बनावे ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(अस्य) सभाध्यक्षस्य (इत् उ) अवधारणे (त्वेषसा) तेजसा। पराक्रमेण (रन्त) रमु क्रीडायाम्-लङि शपो लुक्। अरमन्त (सिन्धवः) नद्यः (परि) सर्वतः (यत्) यतः (वज्रेण) विद्युदादिभूखननशरत्रेण (सीम्) अ०२०।२०।६। षिञ् बन्धने-ईप्रत्ययः। बन्धम् (अयच्छत्) यमु उपरमे-लङ्। नियमितवान्। अवरुद्धवान् (ईशानकृत्) ऐश्वर्ययुक्तस्य कर्ता (दाशुषे) दानिने मनुष्याय (दशस्यन्) दंश दंशने-असुन्, स च कित्। उपमानादाचारे। पा०३।१।१०। दशसू-क्यच्, शतृ। दश कवच इवाचरन् (तुर्वीतये)। तुर वेगे-क्विप्+वी गतौ-क्तिन्। तुरां शीघ्रकारिणां गतये गमनाय (गाधम्) गाधृ प्रतिष्ठायाम्-घञ्। तलस्पर्शस्थानम्। अवतरणस्थानम् (तुर्वणिः) तुर्+वन संभक्तौ-इन्। शीघ्रत्वस्य वेत्रस्य संभक्ता (कः) करोतेर्लुङ् छान्दसं रूपम् अकार्षीत् ॥

१२ अस्मा इदु

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अ॒स्मा इदु॒ प्र भ॑रा॒ तूतु॑जानो वृ॒त्राय॒ वज्र॒मीशा॑नः किये॒धाः।
गोर्न पर्व॒ वि र॑दा तिर॒श्चेष्य॒न्नर्णां॑स्य॒पां च॒रध्यै॑ ॥

१२ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

Vast, with thine ample power, with eager movement against this Vritra cast thy bolt of thunder. Rend thou his joints, as of an ox dissevered, with bolt oblique that floods of rain may follow.

पदपाठः

अ॒स्मै। इत्। ऊं॒ इति॑। प्र। भ॒र॒। तूतु॑जानः। वृ॒त्राय॑। वज्र॑म्। ईशा॑नः। कि॒ये॒धाः। गोः। न। पर्व॑। वि। र॒द॒। ति॒र॒श्चा। इष्य॑न्। अर्णा॑सि। अ॒पाम्। च॒रध्यै॑। ३५.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
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  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) इस [संसार] के निमित्त (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (तूतुजानः) शीघ्रता करता हुआ, (ईशानः) ऐश्वर्यवान्, (कियेधाः) कितने [अर्थात् बड़े बल] का धारण करनेवाला तू (वृत्राय) वैरी के लिये (वज्रम्) वज्र [बिजुली आदि शस्त्र] को (प्र) अच्छे प्रकार (भर) धारण कर। और (तिरश्चा) तिरछी चाल के साथ (अर्णांसि) अपनी चालों को (इष्यन्) चलता हुआ तू (अपाम्) प्रजाओं के (चरध्यै) चलने के लिये (पर्व) [वैरी के] जोड़ों को (वि रद) चीर डाल, (गोः न) जैसे भूमि के [जोड़ों को किसान चीरते हैं]॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे किसान पृथिवी को जोतकर, घास आदि काट कर एकसा करके अन्न उत्पन्न कर सुख देते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष राजा शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके प्रजा को सुखी करे ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १२−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (प्र) प्रकर्षेण (भर) धर (तूतुजानः) तुज हिंसाबलादाननिकेतनेषु-कानच्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा०६।१।७। इति दीर्घः। तूतुजानः क्षिप्रनाम-निघ०२।१। त्वरमाण (ईशानः) ऐश्वर्यवान् (कियेधाः) म०६। कियतो महतो बलस्य धारकः (गोः) पृथिव्याः (न) इव (पर्व) पर्वाणि (वि) विविधम् (रद) रद विलेखने। विदारय (तिरश्चा) ऋत्विग्दधृक्०। पा०३।२।९। तिरस्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। तिर्यग्गत्या (इष्यन्) गच्छन् (अर्णांसि) उदके च। उ०४।१७६। ऋ गतिप्रापणयोः-असुन् नुक् च। नयनानि (अपाम्) आपः, आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये यजु०६।२७। प्रजानाम् (चरध्यै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३४।९। चरतेः-अध्यैप्रत्ययः। चरितुम्। गन्तुम् ॥

१३ अस्येदु प्र

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अ॒स्येदु॒ प्र ब्रू॑हि पू॒र्व्याणि॑ तु॒रस्य॒ कर्मा॑णि॒ नव्य॑ उ॒क्थैः।
यु॒धे यदि॑ष्णा॒न आयु॑धान्यृघा॒यमा॑णो निरि॒णाति॒ शत्रू॑न् ॥

१३ अस्येदु प्र ...{Loading}...

Griffith

Sing with new lauds his exploits wrought aforetime, the deeds of him, yea, him who moveth swiftly, When, hurling forth his weapons in the battle, he with impetuous wrath lays low the foemen.

पदपाठः

अ॒स्य। इत्। ऊं॒ इंति॑। प्र। ब्रू॒हि॒। पू॒र्व्याणि॑। तु॒रस्य॑। कर्मा॑णि। नव्यः॑। उ॒थ्यैः। यु॒धे। यत्। इ॒ष्णा॒नः। आयु॑धानि। ऋ॒धा॒यमा॑णः। नि॒ऽरि॒णाति॑। ३५.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) उस (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (तुरस्य) शीघ्रता करनेवाले [सभापति] के (पूर्व्याणि) पहिले किये हुए (कर्माणि) कामों को (प्र) अच्छे प्रकार (ब्रूहि) तू कह, (उक्थैः) कहने योग्य वचनों से (नव्यः) स्तुतियोग्य होकर, (युधे) युद्ध के लिये (आयुधानि) हथियारों को (इष्णानः) बार-बार चलाता हुआ और (ऋघायमाणः) बढ़ता हुआ [बे-रोक चलता हुआ] (यत्) जो [सभापति] (शत्रून्) वैरियों को (निरिणाति) मारता जाता है ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो सभाध्यक्ष सेनापति शस्त्र-अस्त्र विद्या में चतुर और विजयी शूर होवें, विद्वान् लोग उसके विद्या, विनय, वीरता आदि गुणों की बड़ाई करके उसका मान और उत्साह बढ़ावें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(अस्य) सभापतेः (इत्) (उ) (प्र) प्रकर्षेण (ब्रूहि) कथय (पूर्व्याणि) पूर्व्यं पुराणनाम-निघ०३।२७। पुराणानि (तुरस्य) तुरमाणस्य (कर्माणि) वीरकर्माणि (नव्यः) अ०२।।२। अचो यत्। पा०३।१।९७। णु स्तुतौ-यत्। (उक्थैः) पातॄतुदिवचि०। उ०२”।७। वच परिभाषणे थक्। वक्तुं योग्यैर्वचनैः (युधे) युद्धाय (यत्) यः सेनापतिः (इष्णानः) इष आभीक्ष्ण्ये-शानच्। वारं-वारं प्रेरयन् (आयुधानि) शस्त्राणि (ऋघायमाणः) इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा०३।१।१३। ऋधु वृद्धौ-क, धस्य घः। लोहितादिडाज्भ्यः क्यच्। पा०३।१।१३। ऋध-भवत्यर्थे-क्यच्, शानच्। ऋध ऋधो वृद्धो भवतीति। प्रवर्धमानः। अप्रतिहतगतिः (निरिणाति) री गतिरेषणयोः श्ना। प्वादीनां ह्रस्वः। पा०७।३।८०। इति ह्रस्वः। निरन्तरं हिनस्ति (शत्रून्) वैरिणो दुष्टान् ॥

१४ अस्येदु भिया

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अ॒स्येदु॑ भि॒या गि॒रय॑श्च दृ॒ढा द्यावा॑ च॒ भूमा॑ ज॒नुष॑स्तुजेते।
उपो॑ वे॒नस्य॒ जोगु॑वान ओ॒णिं स॒द्यो भु॑वद्वी॒र्या᳡य नो॒धाः ॥

१४ अस्येदु भिया ...{Loading}...

Griffith

When he, yea, he is born the firm-set mountains and the whole heaven and earth tremble in terror. May Nodhas ever lauding the protection of this dear Friend win straightway strength heroic.

पदपाठः

अ॒स्य। इत्। ऊं॒ इति॑। भि॒या। गि॒रयः॑। च॒। दृ॒ह्लाः। द्यावा॑। च॒। भूम॑। ज॒नुषः॑। तु॒जे॒ते॒ इति॑। उपो॒ इति॑। वे॒नस्य॑। जोगु॑वानः। ओ॒णिम्। स॒द्यः। भु॒व॒त्। वी॒र्या॑य। नो॒धाः। ३५.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस (जनुषः) उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] के (इत्) ही (उ) निश्चय करके (भिया) भय से (गिरयः) पहाड़ (च) भी (दृढाः) दृढ़ हैं, (च) और (द्यावा भूमा) सूर्य और भूमि (तुजेते) बलवान् हैं। (वेनस्य) प्यारे [वा बुद्धिमान् परमेश्वर] के (ओणिम्) दुःख मिटाने को (जोगुवानः) बार-बार कहता हुआ (नोधाः) नेताओं [वा स्तुतियों] का धारण करनेवाला [सभापति] (सद्यः) तुरन्त (वीर्याय) पराक्रम सिद्ध करने के लिये (उपो) समीप ही (भुवत्) होवे ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो परमात्मा अपने अनन्त सामर्थ्य से सब लोकों को नियमपूर्वक अपने-अपने काम के लिये समर्थ बनाता है, सभाध्यक्ष आदि उस जगदीश्वर का आश्रय लेकर अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १४−(अस्य) सर्वत्र वर्तमानस्य (इत्) एव (उ) निश्चयेन (भिया) भयेन (गिरयः) पर्वताः (च) अपि (दृढाः) स्थिराः सन्ति (द्यावा भूमा) दिवो द्यावा। पा०६।३।२९। दिव्शब्दस्य द्यावा इत्यादेशः। सुपां सुलुक्०। पा०७।१।३९। विभक्तेर्डा आदेशः, देवता द्वन्द्वे च। पा०६।२।१४१। इत्युभयदपदप्रकृतिस्वरत्वम्, अत्वम् पदपाठे विचारणीयम्, चकारेण व्यवधानं सांहितिकम्। द्यावाभूमी। सूर्यपृथिव्यौ (च) समुच्चये (जनुषः) जनेरुसिः। उ०२।११। जन-जनने-उसि। जनयितुः परमेश्वरस्य (तुजेते) तुज हिंसाबलादाननिकेतनेषु-लट्, चुरादिस्थाने तुदादित्वम्। तोजयतः। बलवत्यौ भवतः (उपो) समीप एव (वेनस्य) अ०२।१।१। कमनीयस्य। मेधाविनः परमेश्वरस्य (जोगुवानः) गुङ् अव्यक्ते शब्दे यङ्लुकि शानच्। भृशं कथयन् (ओणिम्) अ०७।१४।१। ओणृ अपनयने-इन्। दुःखस्य अपनयनं नाशनम् (सद्यः) शीघ्रम् (भुवत्) भवेत् (वीर्याय) पराक्रमसम्पादनाय (नोधाः) गमेर्डोः। उ०२।६७। णीञ् प्रापणे, यद्वा णु स्तुतौ-डोप्रत्ययः। गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ०४।२२७। नो+डुधाञ् धारणपोषणयोः-असि। नोधाः ऋषिर्भवति नवनं दधाति-निरु०४।१६। नेतॄणां स्तुतीनां वा धारकः ॥

१५ अस्मा इदु

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अ॒स्मा इदु॒ त्यदनु॑ दाय्येषा॒मेको॒ यद्व॒व्ने भूरे॒रीशा॑नः।
प्रैत॑शं॒ सूर्ये॑ पस्पृधा॒नं सौव॑श्व्ये॒ सुष्वि॑माव॒दिन्द्रः॑ ॥

१५ अस्मा इदु ...{Loading}...

Griffith

Now unto him of these things hath been given what he, who rules alone o’er much, electeth. Indra helped Etasa, the Soma presser, contending in the chariot- race with Surya.

पदपाठः

अ॒स्मै। इत्। ऊं॒ इति॑। त्यत्। अनु॑। दा॒यि॒। ए॒षा॒म्। एकः॑। यत्। व॒व्ने। भूरेः॑। ईशा॑नः। प्र। एत॑शम्। सूर्ये॑। प॒स्पृ॒धा॒नम्। सौव॑श्व्यै। सुस्वि॑म्। आ॒व॒त्। इन्द्रः॑। ३५.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) उस [मनुष्य] को (इत्) ही (उ) निश्चय करके (त्यत्) वह [वस्तु] (अनु) निरन्तर (दायि) दी गयी है, (यत्) जो [वस्तु] (एषाम्) इन [मनुष्यों] के बीच (एकः) अकेले (भूरेः) बहुत [राज्य] के (ईशानः) स्वामी ने (वव्ने) माँगी है। (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] ने (सौवश्व्ये) फुरतीले घोड़ोंवाले संग्राम के बीच (सूर्ये) सूर्य के प्रकाश में [जैसे स्पष्ट रीति से] (पस्पृधानम्) झगड़ते हुए (सुष्विम्) ऐश्वर्यवान् (एतशम्) ब्राह्मण [ब्रह्मज्ञानी सभापति] को (प्र) अच्छे प्रकार (आवत्) बचाया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो आत्मविश्वासी मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण से दुष्टों को जीतने में प्रयत्न करता है, परमात्मा अवश्य उसकी रक्षा करता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(अस्मै) तस्मै मनुष्याय (इत्) एव (उ) निश्चयेन (त्यत्) तद् वस्तु (अनु) निरन्तरम् (दायि) अदायि। दत्तमस्ति (एषाम्) मनुष्याणां मध्ये (एकः) असहायः। केवलः (यत्) वस्तु (वव्ने) वनु याचने-लिट्, उपधालोपः। ववने। ययाचे (भूरेः) प्रभूतस्य राज्यस्य (ईशानः) अधिपतिः (प्र) प्रकर्षेण (एतशम्) इणस्तशन्तशसुनौ। उ०३।१४९। इण् गतौ-तशन्। एतशः, अश्वनामे-निघ०१।१९। गमनशीलम्। ब्राह्मणम्। ब्रह्मज्ञानिनं सभापतिम् (सूर्ये) सूर्यप्रकाशे यथा। अतिस्पष्टरीत्या (पस्पृधानम्) स्पर्ध संघर्षे कानच्। शर्पूर्वाः खयः। पा०७।४।६१। इत्यभ्यासस्य पकारः शिष्यते, धात्वकारस्य लोपो रेफस्य सम्प्रसारणं च पृषोदरादित्वात्। स्पर्धमानम्। मत्सरं कुर्वन्तम् (सौवश्व्यै) गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च। पा०।४।१२४। स्वश्व-ष्यञ्। न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ तु ताभ्यामैच्। पा०७।३।३। वकारात् पूर्वम् औकारागमः। शोभना वेगवन्तोऽश्वास्तुरङ्गाः स्वश्वाः, तेषां कर्मणि। वेगवदश्वयुक्ते सङ्ग्रामे (सुष्विम्) किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। वा०। पा०३।२।१७१। षु प्रसवैश्वर्ययोःकिन्, यणादेशः उवङादेशाभावश्छान्दसः। ऐश्वर्यवन्तम् (आवत्) अरक्षत् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा ॥

१६ एवा ते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ए॒वा ते॑ हारियोजना सुवृ॒क्तीन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि॒ गोत॑मासो अक्रन्।
ऐषु॑ वि॒श्वपे॑शसं॒ धियं॑ धाः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥

१६ एवा ते ...{Loading}...

Griffith

Thus to thee, Indra, yoker of bay coursers, the Gotamas have brought their prayers and praises. Bestow upon them thought, decked with all beauty. May he, enriched with prayer, come soon and early.

पदपाठः

ए॒व। ते॒। हा॒रि॒ऽयो॒ज॒न॒। सु॒ऽवृ॒क्ति। इन्द्र॑। ब्रह्मा॑णि। गोत॑मासः। अ॒क्र॒न्। आ। ए॒षु॒। वि॒श्वऽपे॑शसम्। धिय॑म्। धाः। प्रा॒तः। म॒क्षु। धि॒याऽव॑सुः। ज॒ग॒म्या॒त्। ३५.१६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नोधाः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-३५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हारियोजन) हे घोड़ों के जोतनेवाले ! (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवान पुरुष] (ते) तेरे लिये (एव) ही (गोतमासः) अत्यन्त ज्ञानी [ऋषियों] ने (सुवृक्ति) अच्छे प्रकार ग्रहण करने योग्य (ब्रह्माणि) वेदज्ञानों को (अक्रन्) किया है [बताया है]। (धियावसुः) बुद्धि और कर्म के साथ रहनेवाला तू (एषु) इन [ज्ञानों] में (विश्वपेशसम्) सब रूपोंवाली (धियम्) निश्चल बुद्धि को (आ) सब ओर से (धाः) धारण कर और (प्रातः) प्रातःकाल (मक्षु) शीघ्र (जगम्यात्) [उस बुद्धि को] प्राप्त हो ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् पुरुष सभापति आदि को सदा वेदशास्त्रों का उपदेश करें और प्रधान आदि जन अन्तःकरण से ग्रहण करके परोपकार करते रहें ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १६−(एव) निश्चयेन (ते) तुभ्यम् (हारियोजन) वसिवपियजि०। उ०४।१२। हृञ् प्रापणे-इञ्+युजिर् योगे-ल्यु। हे हारीणां हरीणाम् अश्वानां योजक (सुवृक्ति) म०२। विभक्तेर्लुक्। सुवृक्तीनि। सुग्राह्याणि (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (ब्रह्माणि) वेदज्ञानानि (गोतमास) गमेर्डोः। उ०२।६७। गम्लृ गतौ यद्वा गै गानै-डो प्रत्ययः, तमप्, असुक् च। गौरिति स्तोतृनाम-निघ०३।१६। अतिशयेन ज्ञानिनः। महर्षयः (अक्रन्) अ०२९।७। करोतेर्लुङ् छान्दसं रूपम्। अकार्षुः (आ) समन्तात् (एषु) ब्रह्मसु। वेदज्ञानेषु (विश्वपेशसम्) सर्वरूपोपेताम् (धियम्) धारणावतीं प्रज्ञाम् (धाः) दधातेर्लुङ् लोडर्थे। धेहि। धर (प्रातः) प्रातःकाले (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) प्रज्ञाकर्मभ्यां सह निवासी (जगम्यात्) अ०७।२६।२। गमेः शपः श्लुः, विधिलिङ्, मध्यमपुरुषस्य प्रथमः। गम्याः। प्राप्याः ॥