०२७

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Griffith

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०१ यदिन्द्राहं यथा

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यदि॑न्द्रा॒हं यथा॒ त्वमीशी॑य॒ (=ईश्वरस्स्याम्) वस्व॒ (=धनस्य) एक॒ इत् ।
स्तो॒ता मे॒ गोष॑खा स्यात् १

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Griffith

If I, O Indra, were, like thee, the single sovran of all wealth. My worshipper should be rich in kine.

पदपाठः

यत्। इ॒न्द्र॒। अ॒हम्। यथा॑। त्वम्। ईशीय॑। वस्वः॑। इत्। स्तो॒ता। मे॒। गोऽस॑खा। स्या॒त्। २७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
  • गायत्री
  • सूक्त-२७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यत्) जब (यथा) जैसे-जैसे (एकः) अद्वितीय (त्वम्) तू (इत्) ही (मे) मेरा [स्वामी होवे], (अहम्) मैं (वस्वः) धन का (ईशीय) स्वामी हो जाऊँ, और (स्तोता) गुणों का व्याख्यान करनेवाला [प्रत्येक पुरुष] (गोसखा) पृथिवी [अर्थात् तेरे राज्य] का मित्र (स्यात्) हो जावे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - अद्वितीय प्रतापी राजा विद्वान् गुणी पुरुषों का आदर करता रहे, जिससे सब लोग राज्य की वृद्धि में लगे रहें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१४।१-६ मन्त्र १-३ सामवेद में है-उ० २।९। तृच ९, और मन्त्र १ सामवेद में है-पू० २।३।७ ॥ १−(यत्) यदा (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (अहम्) (यथा) येन येन प्रकारेण (त्वम् ईशिषे)-इति शेषः (ईशीय) ईश्वरः स्वामी स्याम् (वस्वः) धनस्य (इत्) एव (एकः) अद्वितीयः (स्तोता) गुणानां व्याख्याता (मे) मम (गोसखा) गोः पृथिव्यास्तव राज्यस्य मित्रभूतः (स्यात्) भवेत् ॥

०२ शिक्षेयमस्मै दित्सेयम्

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शिक्षे॑यमस्मै॒ दित्से॑यं॒ शची॑पते मनी॒षिणे॑।
यद॒हं गोप॑तिः॒ स्याम् ॥

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Griffith

I should be fain, O Lord of Might, to strengthen and enrich the sage, Were I the lord of herds of kine,

पदपाठः

शिक्षे॑यम्। अ॒स्मै॒। दित्से॑यम्। शची॑ऽपते। म॒नी॒षिणे॑। यत्। अ॒हम्। गोऽप॑तिः। स्याम्। २७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
  • गायत्री
  • सूक्त-२७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शचीपते) हे बुद्धि के स्वामी ! [राजन्] (अस्मै) इस (मनीषिणे) बुद्धिमान् [ब्रह्मचारी] को (शिक्षेयम्) मैं शिक्षा करूँ और (दित्सेयम्) दान दूँ, (यत्) जो (अहम्) मैं (गोपतिः) विद्या का स्वामी (स्याम्) हो जाऊँ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् राजा आदि धनी लोग प्रबन्ध करें कि ब्रह्मचारी लोग निश्चिन्त होकर उत्तम शिक्षकों से उत्तम विद्या पावें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(शिक्षेयम्) शिक्षां दद्याम् (अस्मै) उपस्थिताय (दित्सेयम्) दा दाने-सन् प्रत्ययः। दातुमिच्छेयम् (शचीपते) अ० ३।१०”।१२। शच व्यक्तायां वाचि-इन्, ङीप्। शची प्रज्ञानाम-निघ० ३।९। हे बुद्धिस्वामिन् (मनीषिणे) बुद्धिमते ब्रह्मचारिणे (यत्) यदि (अहम्) पुरुषः (गोपतिः) गोर्विद्यायाः स्वामी (स्याम्) भवेयम् ॥

०३ धेनुष्ट इन्द्र

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धे॒नुष्ट॑ इन्द्र सू॒नृता॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते।
गामश्वं॑ पि॒प्युषी॑ दुहे ॥

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Griffith

To worshippers who press the juice thy goodness, Indra, is a cow. Yielding in plenty kine and steeds.

पदपाठः

धे॒नुः। ते॒। इ॒न्द्र॒। सू॒नृता॑। यज॑मानाय। सु॒न्व॒ते। गाम्। अश्व॑म्। पि॒प्युषी॑। दु॒हे॒। २७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
  • गायत्री
  • सूक्त-२७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (ते) तेरी (धेनुः) वाणी (सूनृता) प्यारी और सच्ची और (पिप्युषी) बढ़ती करनेवाली होकर (सुन्वते) तत्त्व निचोड़नेवाली (यजमानाय) यजमान [विद्वानों का सत्कार, सत्सङ्ग और विद्या आदि दान करनेवाले] के लिये (गाम्) भूमि, विद्या वा गौओं और (अश्वम्) घोड़ों को (दुहे) भरपूर करती है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सत्यवादी ऐश्वर्यवान् राजा सत्कार करके विद्वानों की उन्नति करके राज्य की उन्नति करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(धेनुः) वाक्-निघ० १।११ (ते) तव (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (सूनृता) अ० ३।१२।२ प्रियसत्यात्मिका (यजमानाय) देवपूजासंगतिकरणविद्यादिदानकारकाय (सुन्वते) तत्त्वनिष्पादनं कुर्वते (गाम्) भूमिं विद्यां गोसमूहं वा (अश्वम्) अश्वसमूहम् (पिप्युषी) ओप्यायी वृद्धौ, क्वसु, ङीप्। वर्धयित्री (दुहे) तलोपः। दुग्धे। प्रपूरयति ॥

०४ न ते

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न ते॑ व॒र्तास्ति॒ राध॑स॒ इन्द्र॑ दे॒वो न मर्त्यः॑।
यद्दित्स॑सि स्तु॒तो म॒घम् ॥

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Griffith

None is there, Indra, God or man, to hinder thy munificence, The wealth which, lauded, thou wilt give.

पदपाठः

न। ते॒। व॒र्ता। अ॒स्ति॒। राध॑सः। इन्द्र॑। दे॒वः। न। मर्त्यः॑। यत्। दित्स॑सि। स्तु॒तः। म॒घम्। २७.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
  • गायत्री
  • सूक्त-२७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (ते) तेरे (राधसः) ऐश्वर्य का (वर्ता) रोकनेवाला, (न) न तो (देवः) विद्वान् पुरुष और (न) न (मर्त्यः) सामान्य पुरुष (अस्ति) है, (यत्) जब कि (स्तुतः) स्तुति किया गया तू (मघम्) धन (दित्ससि) देना चाहता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा अपने उत्तम गुणों से अनुपम होकर सुपात्रों को दान देकर उन्नति करे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(न) निषेधे (ते) तव (वर्ता) निवारकः (अस्ति) (राधसः) ऐश्वर्यस्य (इन्द्र) (देवः) विद्वान् पुरुषः (न) निषेधे (मर्त्यः) सामान्यो मनुष्यः (यत्) यदा (दित्ससि) दातुमिच्छसि (स्तुतः) (मघम्) मंहनीयं धनम् ॥

०५ यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिम्

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य॒ज्ञ इन्द्र॑मवर्धय॒द्यद्भूमिं॒ व्य॑वर्तयत्।
च॑क्रा॒ण ओ॑प॒शं दि॒वि ॥

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Griffith

The sacrifice made Indra strong when he unrolled the earth and made Himself a diaden in heaven.

पदपाठः

य॒ज्ञः। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। यत्। भूमि॑म्। वि। अव॑र्तयत्। च॒क्रा॒णः। ओ॒प॒शम्। दि॒वि। २७.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
  • गायत्री
  • सूक्त-२७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञः) यज्ञ [विद्वानों के सत्कार, सत्सङ्ग और विद्या आदि दान] ने (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] को (अवर्धयत्) बढ़ाया है, (यत्) जब कि (दिवि) व्यवहार के बीच (ओपशम्) पूरा उद्योग (चक्राणः) कर चुकते हुए उसने (भूमिम्) भूमि को (वि अवर्तयत्) व्याख्यात किया है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब मनुष्य पृथिवी पर प्रत्येक काम को योग्यता से करता है, तब वह उन्नति करके कीर्ति पाता है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र सामवेद में है पू० २”।३।७ तथा उ० ८।१।९ ॥ −(यज्ञः) देवपूजासंगतिकरणविद्यादिदानव्यवहारः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (अवर्धयत्) वर्धितवान् (यत्) यदा (भूमिम्) (वि अवर्तयत्) विवृतां व्याख्यातां कृतवान् (चक्राणः) करोतेः-कानच्। कृतवान् सन् (ओपशम्) अ० ६।१३८।१। आङ्+उप+शीङ् शयने-ड। ओपशः-उपशयः=उपयोगः। समन्तादुपयोगम् (दिवि) व्यवहारे ॥

०६ वावृधानस्य ते

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वा॑वृधा॒नस्य॑ ते व॒यं विश्वा॒ धना॑नि जि॒ग्युषः॑।
ऊ॒तिमि॒न्द्रा वृ॑णीमहे ॥

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Griffith

Thine aid we claim, O Indra, thine who after thou hast waxen great. Hast won all treasures for thine own.

पदपाठः

व॒वृ॒धा॒नस्य॑। ते॒। व॒यम्। विश्वा॑। धना॑नि। जि॒ग्युषः॑। ऊ॒तिम्। इ॒न्द्र॒। आ। वृ॒णी॒म॒हे॒। २७.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
  • गायत्री
  • सूक्त-२७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (वावृधानस्य) बढ़ते हुए और (विश्वा) सब (धनानि) धनों को (जिग्युषः) जीत चुकनेवाले (ते) तेरी (ऊतिम्) रक्षा को (वयम्) हम (आ) सब ओर से (वृणीमहे) माँगते हैं ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब राजा पराक्रमी और धनी होता है, तब प्रजागण सुरक्षित रहकर उस राज्य की वृद्धि चाहते हैं ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(वावृधानस्य) वर्धमानस्य (ते) तव (वयम्) प्रजाजनाः (विश्वा) सर्वाणि (धनानि) (जिग्युषः) जि जये-क्वसु। जितवतः (ऊतिम्) रक्षाम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (आ) समन्तात् (वृणीमहे) याचामहे ॥