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VH anukramaṇī

(१-७) १-५ गोतमः, ७ अष्टकः। इन्द्रः। जगती, ७ त्रिष्टुप्।

Griffith

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०१ अश्वावति प्रथमो

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अश्वा॑वति प्रथ॒मो गोषु॑ गच्छति सुप्रा॒वीरि॑न्द्र॒ मर्त्य॒स्तवो॒तिभिः॑।
तमित्पृ॑णक्षि॒ वसु॑ना॒ भवी॑यसा॒ सिन्धु॒मापो॒ यथा॒भितो॒ विचे॑तसः ॥

०१ अश्वावति प्रथमो ...{Loading}...

Griffith

Indra, the mortal man well guarded by thine aid goes foremost in the wealth of horses and of kine. With amplest wealth thou fillest him, as round about the waters clearly seen afar fill Sindhu full.

पदपाठः

अश्व॑ऽवति। प्र॒थ॒मः। गोषु॑। ग॒च्छ॒ति॒। सु॒प्र॒ऽअ॒वीः। इ॒न्द्र॒। मर्त्यः॑। तव॑। ऊ॒तिऽभिः॑। तम्। इत्। पृ॒ण॒क्षि॒। वसु॑ना। भवी॑यसा। सिन्धु॑म्। आपः॑। यथा॑। अ॒भितः॑। विऽचे॑तसः। २५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोतमः
  • जगती
  • सूक्त-२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर वा राजन्] (मर्त्यः) मनुष्य (तव) तेरी (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अश्वावति) उत्तम घोड़ोंवाले [सेनादल] में (प्रथमः) पहिला [प्रधान] (प्रावीः) बड़ा रक्षक होकर (गोषु) भूमियों पर (गच्छति) चलता है। (तम् इत्) उसको ही (भवीयसा) अति अधिक (वसुना) धन से (पृणक्षि) तू भर देता है, (यथा) जैसे (अभितः) सब ओर से (विचेतसः) विविध प्रकार जाने गये (आपः) जलसमूह (सिन्धुम्) समुद्र को [भरते हैं] ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो राजा और सेनापति आदि कार्यकर्ता परमेश्वर में विश्वास करके एक-दूसरे को रक्षा और सत्कार करते हैं, वे सब देशों में विजयी होकर बहुत धनी होते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १-६ ऋग्वेद में हैं-१।८३।१-६ ॥ १−(अश्वावति) मन्त्रे सोमाश्वे०। पा० ६।३।१३१। इति दीर्घः। श्रेष्ठाश्वैर्युक्तै सैन्ये (प्रथमः) मुख्यः (गोषु) भूमिदेशेषु (गच्छति) चलति (प्राचीः) अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ० ३।१८। अव रक्षणे-ईप्रत्ययः। सुरक्षकः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमेश्वर राजन् वा (मर्त्यः) मनुष्यः (तव) (ऊतिभिः) रक्षाभिः (तम्) मनुष्यम् (इत्) एव (पृणक्षि) पृची सम्पर्के”। संयोजयसि। पूरयसि (वसुना) धनेन (भवीयसा) भवितृ-ईयसुन्। तुरिष्ठेमेयःसु। पा० ६।४।१४। इति तृलोपः। अत्यधिकेन। भूयसा (सिन्धुम्) समुद्रम् (आपः) जलानि (यथा) येन प्रकारेण (अभितः) सर्वतः (विचेतसः) विविधानि चेतांसि ज्ञानानि यासां ताः। विविधज्ञातव्याः ॥

०२ आपो न

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आपो॒ न दे॒वीरुप॑ यन्ति हो॒त्रिय॑म॒व प॑श्यन्ति॒ वित॑तं॒ यथा॒ रजः॑।
प्रा॒चैर्दे॒वासः॒ प्र ण॑यन्ति देव॒युं ब्र॑ह्म॒प्रियं॑ जोषयन्ते व॒रा इ॑व ॥

०२ आपो न ...{Loading}...

Griffith

The heavenly waters come not nigh the priestly bowl: they but look down and see how far mid-air is spread: The Deities conduct the pious man to them: like suitors they delight in him who loveth prayer.

पदपाठः

आपः॑। न। दे॒वीः। उप॑। य॒न्ति॒। हो॒त्रिय॑म्। अ॒वः। प॒श्य॒न्ति॒। विऽत॑तम्। यथा॑। रजः॑। प्रा॒चैः। दे॒वासः॑। प्र। न॒य॒न्ति॒। दे॒व॒ऽयुम्। ब्र॒ह्म॒ऽप्रिय॑म्। जो॒ष॒य॒न्ते॒। व॒राःऽइ॑व। २५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
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  • सूक्त-२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (आपः न) व्याप्त जलों के समान [उपकारी] (देवासः) विद्वान् लोग (देवीः) दिव्य गुणवाली [विद्याओं] को (उप) आदर से (यन्ति) पाते हैं, और (होत्रियम्) देने-लेने योग्य (अवः) रक्षा को (यथा रजः) रज [धूलि] के समान (विततम्) फैला हुआ (पश्यन्ति) देखते हैं। और (वराः इव) श्रेष्ठ पुरुषों के समान वे (प्राचैः) पुराने व्यवहारों के साथ (देवयुम्) उत्तम गुण चाहनेवाले, (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वर और वेद में प्रीति करनेवाले पुरुष को (प्रणयन्ति) आगे बढ़ाते हैं और (जोषयन्ते) सेवा करते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग उत्तम-उत्तम विद्याएँ प्राप्त करके संसार के प्रत्येक पदार्थ से उपकार लेते हैं और श्रेष्ठ धर्मात्मा ईश्वरभक्त को अगुआ बनाकर उसकी आज्ञा में चलते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(आपः) व्याप्तानि जलानि (न) यथा (देवीः) दिव्यगुणवतीः सुविद्याः (उप) पूजायाम् (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (होत्रियम्) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। हु दानादानादनेषु-त्रन्। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। होत्र-घप्रत्ययः। होत्राणामिदम्। दातव्यादातव्यम् (अवः) रक्षणम् (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (विततम्) विस्तृतम् (यथा) येन प्रकारेण (प्राचैः) प्र+अञ्चतेः-घञर्थे कप्रत्ययः। प्राचीनैर्व्यवहारैः (देवासः) विद्वांसः (प्र) प्रकर्षेण। अग्रे (नयन्ति) प्रापयन्ति (देवयुम्) देव-क्यच्, उ। देवान् दिव्यगुणान् कामयमानम् (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वरो वेदो वा प्रियो यस्य तम् (जोषयन्ते) जुषी प्रीतिसेवनयोः-स्वार्थे णिच्। सेवन्ते (वराः) श्रेष्ठाः पुरुषाः (इव) यथा ॥

०३ अधि द्वयोरदधा

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अधि॒ द्वयो॑रदधा उ॒क्थ्यं१॒॑ वचो॑ य॒तस्रु॑चा मिथु॒ना या स॑प॒र्यतः॑।
असं॑यत्तो व्र॒ते ते॑ क्षेति॒ पुष्य॑ति भ॒द्रा श॒क्तिर्यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

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Griffith

Praiseworthy blessing hast thou laid upon the pair who with uplifted ladle serve thee, man and wife. Unchecked he dwells and prospers in thy law: thy power brings blessing to the sacrificer pouring gifts.

पदपाठः

अधि॑। द्वयोः॑। अ॒द॒धाः॒। उ॒क्थ्य॑म्। वचः॑। य॒तऽस्रु॑चा। मि॒थु॒ना। या। स॒प॒र्यतः॑। अस॑म्ऽयत्तः। व्र॒ते। ते॒। क्षे॒ति॒। पुष्य॑ति। भ॒द्रा। श॒क्तिः। यज॑मानाय। सु॒न्व॒ते। २५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (द्वयोः अधि) उन दोनों के ऊपर (उक्थ्यम्) बड़ाई के योग्य (वचः) वचन को (अदधाः) तूने धारण किया है, (या) जो (यतस्रुचा) चमचा [भोजन साधन] लिये हुए (मिथुना) दोनों मिलनसार स्त्री-पुरुष (सपर्यतः) सेवा करते हैं। वह [स्त्री वा पुरुष] (ते) तेरे (व्रते) नियम में (असंयत्तः) बे रोक [स्वतन्त्र] होकर (क्षेति) रहता है और, (पुष्यति) पुष्ट होता है, (भद्रा) कल्याण करनेहारी (शक्तिः) शक्ति (यजमानाय) यजमान [सत्कार, संगति और दान करनेहारे] (सुन्वते) ऐश्वर्यवान् पुरुष के लिये [होती है] ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष विद्वानों के उपदेश और मार्ग पर चलकर स्वाधीनता के साथ भोजन आदि से आप सुख पाते और सबको सुख देते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(अधि) उपरि (द्वयोः) स्त्रीपुरुषोः (अदधाः) धारितवानसि (उक्थ्यम्) कथनीयं स्तुत्यम् (वचः) वचनम् (यतस्रुचा) यमु उपरमे-क्त। चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ-चिक्। यता नियताः स्रुचः चमसा भोजनसाधनानि याभ्यां तौ (मिथुना) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।। मिथृ मेथृ संगमे वधे मेधायां च-उनन्, कित्। मिलितौ स्त्रीपुरुषौ (या) यौ (सपर्यतः) सपर पूजायाम्-कण्ड्वादित्वाद् यक्। सपर्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।। परिचरतः। सेवेते (असंयत्तः)। नञ्+सम्+यती प्रयत्ने-क्त। अनायत्तः। अवशीभूतः। स्वतन्त्रः (व्रते) नियमे (ते) तव (क्षेति) क्षि निवासगत्योः विकरणस्य लुक्। क्षियति। निवसति (पुष्यति) पुष्टो भवति (भद्रा) कल्याणी (शक्तिः) समर्थता (यजमानाय) पूजासंगतिदानशीलाय (सुन्वते) षु ऐश्वर्ये-शतृ, स्वादित्वं छान्दसम्। ऐश्वर्यवते ॥

०४ आदङ्गिराः प्रथमम्

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आदङ्गि॑राः प्रथ॒मं द॑धिरे॒ वय॑ इ॒द्धाग्न॑यः॒ शम्या॒ ये सु॑कृ॒त्यया॑।
सर्वं॑ प॒णेः सम॑विन्दन्त॒ भोज॑न॒मश्वा॑वन्तं॒ गोम॑न्त॒मा प॒शुं नरः॑ ॥

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Griffith

First the Angirases won themselves vital power, whose fires were kindled through good deeds and sacrifice. The men together found the Pani’s hoarded wealth, the cattle, and the wealth in horses and in kine,

पदपाठः

आत्। अङ्गि॑राः। प्र॒थ॒मम्। द॒धि॒रे॒। वयः॑। इ॒द्धऽअ॑ग्नयः। शम्या॑। ये। सु॒ऽकृ॒त्यया॑। सर्व॑म्। प॒णेः। सम्। अ॒वि॒न्द॒न्त॒। भोज॑नम्। अश्व॑ऽवन्तम्। गोऽम॑न्तम्। आ। प॒शुम्। नरः॑। २५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जिन (इद्धाग्नयः) अग्नि के प्रकाश करनेवाले (अङ्गिराः) अङ्गिराओं [ज्ञानी ऋषियों] ने (प्रथमम्) श्रेष्ठ (वयः) जीवन को (सुकृत्यया) सुन्दर रीति से करने योग्य (शम्या) शान्तिदायक कर्म से (दधिरे) धारण किया था, (आत्) तब ही (नरः) उन नेताओं ने (पणेः) उद्यम से (सर्वम्) सब (भोजनम्) भोजन [पालन साधन धन अन्न आदि], (अश्वावन्तम्) उत्तम घोड़ोंवाले (आ) और (गोमन्तम्) उत्तम गौओंवाले (पशुम्) पशुसमूह को (सम्) अच्छे प्रकार (अविन्दन्त) पाया है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो अग्निविद्या में कुशल, पुरुषार्थी, विज्ञानी लोग धार्मिक कर्म करके उत्तम जीवन बनाते हैं, वे ही उद्योग करके सब प्रकार से सुख पाते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(आत्) अनन्तरम् (अङ्गिराः) अ० १९।३४।। अगि गतौ-किरच् नित्। विज्ञानिनः। ऋषयः (प्रथमम्) श्रेष्ठम् (दधिरे) धारितवन्तः (वयः) जीवनम् (इद्धाग्नयः) प्रकाशिताग्नयः। अग्निविद्याकुशलाः (शम्या) शमु उपशमे-इन्, ङीप्। शान्तिप्रदेन कर्मणा-निघ० २।१ (ये) (सुकृत्यया) शोभनकर्तव्ययुक्तया (सर्वम्) (पणेः) पण व्यवहारे स्तुतौ च-इन्। उद्योगात् (सम्) सम्यक् (अविन्दन्त) अलभन्त (भोजनम्) धननाम-निघ० २।१०। भोजनसाधनं धनान्नादिकम् (अश्वावन्तम्) म० १। प्रशस्ततुरङ्गयुक्तम् (गोमन्तम्) उत्तमधेनुयुक्तम् (आ) समुच्चये (पशुम्) पशुसमूहम् (नरः) नेतारः ॥

०५ यज्ञैरथर्वा प्रथमः

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य॒ज्ञैरथ॑र्वा प्रथ॒मः प॒थस्त॑ते॒ ततः॒ सूर्यो॑ व्रत॒पा वे॒न आज॑नि।
आ गा आ॑जदु॒शना॑ का॒व्यः सचा॑ य॒मस्य॑ जा॒तम॒मृतं॑ यजामहे ॥

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Griffith

Atharvan first by sacrifices laid the path; then, guardian of the Law, sprang up the loving Sun. Usana Kavya drove the kine hither with him: let us with offer- ings honour Yama’s deathless birth.

पदपाठः

य॒ज्ञैः। अथ॑र्वा। प्र॒थ॒मः। प॒थः। त॒ते॒। ततः॑। सूर्यः॑। व्र॒त॒पाः। वे॒नः। आ। अ॒ज॒नि॒। आ। गाः। आ॒ज॒त्। उ॒शना॑। का॒व्यः। सचा॑। य॒मस्य॑। जा॒तम्। अ॒मृत॑म्। य॒जा॒म॒हे॒। २५.५।

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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रथमः) सबसे पहिले वर्तमान (अथर्वा) निश्चल परमात्मा ने (यज्ञैः) संगति कर्मों [परमाणुओं के मेलों] से (पथः) मार्गों को (तते) फैलाया, (ततः) फिर (व्रतपाः) नियम पालनेवाला, (वेनः) पियारा (सूर्यः) सूर्यलोक (आ) सब ओर (अजनि) प्रकट हुआ। (उशना) पियारे, (काव्यः) बड़ाई योग्य उस [सूर्य] ने (गाः) पृथिवियों [चलते हुए लोकों] को (आ) सब ओर (आजत्) खींचा हैं, (यमस्य) उस नियमकर्ता परमेश्वर के (सचा) मेल से (जातम्) उत्पन्न हुए (अमृतम्) अमरण [मोक्षसुख वा जीवनसामर्थ्य] को (यजामहे) हम पाते हैं ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा ने आकाश, सूर्य, पृथिवी आदि लोक बनाकर हमें जीवन दिया है, उस बड़े जगदीश्वर की उपासना से विद्वान् लोग आत्मिक बल बढ़ाकर मोक्षसुख भोगें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(यज्ञैः) संगतिकरणैः। परमाणूनां संगमैः (अथर्वा) अ० ४।१।७। नञ्+थर्व चरणे-गतौ-वनिप्, वलोपः। निश्चलः परमेश्वरः (प्रथमः) सर्वेषामादिः (पथः) मार्गान् (तते) तनु विस्तारे-लिट्, छान्दसं रूपम्। तेने। विस्तारितवान् (सूर्यः) सवितृलोकः (व्रतपाः) नियमपालकः (वेनः) कमनीयः (आ) समन्तात् (अजनि) जनी प्रादुर्भावे-लुङ्। प्रादुरभूत् (आ) समन्तात् (गाः) गमनशीलान् पृथिव्यादिलोकान् (आजत्) अज गतिक्षेपणयोः-लङ्। प्रक्षिप्तवान्। आकर्षणे धारितवान् (उशना) वशेः क्नसि। उ० ४।२३९। वश कान्तौ-क्नसि, सम्प्रसारणं च। ऋदुशनस्पुरदंशोऽनेहसां च। पा० ७।१।९४। अनङ् आदेशः। सर्वनामस्थाने चा०। पा० ६।४।८। उपधादीर्घः। हल्ङ्याञ्भ्यो०। पा० ६।१।६८। सुलोपः। नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य। पा० ८।२।७। नलोपः। कमनीयः (काव्यः) अ० ४।१।६। कवृ स्तुतौ-ण्यत्। स्तुत्यः सूर्यः (सचा) षच समवाये-क्विप्। सम्मेलनेन (यमस्य) सर्वनियन्तुः परमेश्वरस्य (जातम्) उत्पन्नम्। प्रसिद्धम् (अमृतम्) अमरणम्। मोक्षसुखं जीवनसामर्थ्यं वा (यजामहे) संगच्छामहे। प्राप्नुमः ॥

०६ बर्हिर्वा यत्स्वपत्याय

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ब॒र्हिर्वा॒ यत्स्व॑प॒त्याय॑ वृ॒ज्यते॒ऽर्को वा॒ श्लोक॑मा॒घोष॑ते दि॒वि।
ग्रावा॒ यत्र॒ वद॑ति का॒रुरु॒क्थ्य१॒॑स्तस्येदिन्द्रो॑ अभिपि॒त्वेषु॑ रण्यति ॥

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Griffith

When sacred grass is trimmed to aid the auspicious work, or the hymn makes its voice of praise sound to the sky, Where the stone rings as ’twere a singer skilled in laud,–Indra in truth delights when these come near to him.

पदपाठः

ब॒र्हिः। वा॒। यत्। सु॒ऽअ॒प॒त्याय॑। वृ॒ज्यते॑। अ॒र्कः। वा॒। श्लोक॑म्। आ॒ऽघोष॑ते। दि॒वि। ग्रावा॑। यत्र॑। वद॑ति। का॒रुः। उ॒क्थ्यः॑। तस्य। इत्। इन्द्रः॑। अ॒भि॒ऽपि॒त्वेषु॑। र॒ण्य॒ति॒। २५.६।

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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (बर्हिः) उत्तम आसन (स्वपत्याय) गुणी सन्तान के लिये (वा) विचारपूर्वक (वृज्यते) छोड़ा जाता है, (वा) अथवा (अर्कः) पूजनीय विद्वान् (श्लोकम्) अपनी वाणी को (दिवि) व्यवहार के बीच (आघोषते) कह सुनाता है। और (यत्र) जहाँ (ग्रावा) मेघ [के समान उपकारी], (उक्थ्यः) प्रशंसनीय (कारुः) शिल्पी विद्वान् (वदति) बोलता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष] (तस्य) इस [सब] के (इत्) ही (अभिपित्वेषु) सङ्ग्रामों में (रण्यति) आनन्द पाता है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस स्थान में विद्वान् गुणी सन्तानों का आदर होता है और जहाँ पर बड़े विज्ञानी शिल्पी लोग उत्तम-उत्तम विद्याओं का आविष्कार करते हैं, वहाँ पर सब प्राणियों को सुख मिलता है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(बर्हिः) उत्तमासनम् (वा) वेति विचारणार्थे-निरु० १।४। विचारपूर्वकम् (यत्) यदा (स्वपत्याय) गुणिने सन्तानाय (वृज्यते) वृजी वर्जने। त्यज्यते। दीयते (अर्कः) पूजनीयः पण्डितः (वा) अथवा (श्लोकम्) वाणीम् (आघोषते) घुषिर् विशब्दने। उच्चारयति (दिवि) व्यवहारे (ग्रावा) मेघनाम-निघ० १।१०। मेघ इवोपकारी (यत्र) यस्मिन् देशे (वदति) उपदिशति (कारुः) शिल्पकर्ता विद्वान् (उक्थ्यः) प्रशंसनीयः (तस्य) पूर्वोक्तस्य सर्वस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (अभिपित्वेषु) जनिदाच्यु०। उ० ४।१०४। पि गतौ-त्वन् प्रत्ययः। अभिप्राप्तिषु। संगमेषु (रण्यति) रमु क्रीडायाम्-छान्दसः श्यन् परस्मैपदं मकारस्य नत्वं च। रमते। आनन्दितो भवति ॥

०७ प्रोग्रां पीतिम्

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प्रोग्रां पी॒तिं वृष्ण॑ इयर्मि स॒त्यां प्र॒यै सु॒तस्य॑ हर्यश्व॒ तुभ्य॑म्।
इन्द्र॒ धेना॑भिरि॒ह मा॑दयस्व धी॒भिर्विश्वा॑भिः॒ शच्या॑ गृणा॒नः ॥

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Griffith

To make thee start, a strong true draught I offer to thee the Bull, O thou whom bay steeds carry. Here take delight. O Indra, in our voices while thou art hymned with power and all our spirit.

पदपाठः

प्र। उ॒ग्राम्। पी॒तिम्। वृष्णे॑। इ॒य॒र्मि॒। स॒त्याम्। प्र॒ऽयै। सु॒तस्य॑। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। तुभ्य॑म्। इन्द्र॑। धेना॑भिः। इ॒ह। मा॒द॒य॒स्व॒। धी॒भिः। विश्वा॑भिः। शच्या॑। गृ॒णा॒नः। २५.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हर्यश्व) हे वायु समान फुरतीले घोड़ोंवाले ! (वृष्णे तुभ्यम्) तुझ महाबली को (प्रयै) आगे चलने के लिये (सुतस्य) निचोड़ [सिद्धान्त] का (उग्राम्) तीव्र, (सत्याम्) सत्यगुणवाला (पीतिम्) घूँट (प्र इयर्मि) आगे रखता हूँ। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले विद्वान्] (धेनाभिः) वेदवाणियों द्वारा (इह) यहाँ पर (विश्वाभिः) समस्त (धीभिः) बुद्धियों से और (शच्या) कर्म से (गृणानः) उपदेश करता हुआ तू (मादयस्व) आनन्द दे ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य फुरतीली सेनावाला ज्ञानवान् और बलवान् हो, सब लोग आदर करके उस बुद्धिमान् कर्मकुशल की वैदिक शिक्षाओं से आनन्द पावें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१०।१०४।३। और आगे है-अ० २०।३३।२ ॥ इति तृतीयेऽनुवाके द्वितीयः पर्यायः ॥ ७−(उग्राम्) तीव्राम् (पीतिम्) पानम् (वृष्णे) महाबलवते (प्र इयर्मि) ऋ गतौ जुहोत्यादिः। प्रेरयामि। अग्रे धरामि (सत्याम्) यथार्थगुणयुक्ताम् (प्रयै) प्रयै रोहिष्यै अव्यथिष्यै। पा० ३।४।१०। प्र+या गतिप्रापणयोः-कैप्रत्ययः, तुमर्थे। प्रयातुम्। अग्रे गन्तुम् (सुतस्य) (संस्कृतस्य) सिद्धान्तस्य (हर्यश्व) अ० ।३।८। हृञ् प्रापणस्वीकारस्त्येननाशनेषु-इन्+अशू व्याप्तौ-क्वन्। हरी इन्द्रस्य-निघ० २।१। हरिर्वायुः। हे हरिभिर्वायुतुल्यैः शीघ्रगामिभिस्तुरङ्गैर्युक्त (तुभ्यम्) (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् विद्वन् (धेनाभिः) धेट इच्च। उ० ३।११। धेट् पाने-नप्रत्ययः, टाप्। धेना वाङ्नाम-निघ० १।११। वेदवाणीभिः (इह) अत्र (मादयस्व) आनन्दय (धीभिः) प्रज्ञाभिः (विश्वाभिः) सर्वाभिः (शच्या) अ० ।११।८। शच व्यक्तायां वाचि-इन्, ङीप्। कर्मणा-निघ० २।१। (गृणानः) उपदिशंस्त्वम् ॥