०२२

०२२ ...{Loading}...

VH anukramaṇī

(१-६) १-३ त्रिशोकः, ४-६ प्रियमेधः। इन्द्रः। गायत्री।

Griffith

???

०१ अभि त्वा

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अ॒भि त्वा॑ वृषभा सु॒ते सु॒तं सृ॑जामि पी॒तये॑।
तृ॒म्पा व्य᳡श्नुही॒ मद॑म् ॥

०१ अभि त्वा ...{Loading}...

Griffith

Hero, the Soma being pressed I pour the juice for thee to drink Sate thee and finish thy carouse.

पदपाठः

अ॒भि। त्वा॒। वृ॒ष॒भ॒। सु॒ते। सु॒तम्। सृ॒जा॒मि॒। पी॒तये॑। तृ॒म्प। वि। अ॒श्नु॒हि॒। मद॑म्। २२.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • त्रिशोकः
  • गायत्री
  • सूक्त-२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषभ) हे वीर ! (सुते) निचोड़ने पर (सुतम्) निचोड़े हुए [सोम रस] को (पीतये) पीने के लिये (त्वा अभि) तुझे (सृजामि) मैं देता हूँ। (तृम्प) तू तृप्त हो और (मदम्) आनन्द को (वि अश्नुहि) प्राप्त हो ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे राजा सद्वैद्यों द्वारा सोम आदि उत्तम ओषधियों के सेवन से प्रसन्न रहें, वैसे ही मनुष्य वेद आदि सत्य शास्त्रों का तत्त्व ग्रहण करके आनन्द पावें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १-३। ऋग्वेद में हैं-८।४।२२-२४ तथा सामवेद में हैं- उ० १।२ तृच ७ तथा मन्त्र १ सामवेद में है-पू० २।७।७ ॥ १−(अभि) प्रति (त्वा) त्वाम् (वृषभ) हे वीर ! हे इन्द्र (सुते) अभिषुते। संस्कृते (सुतम्) अभिषुतं संस्कृतं सोमम् (सृजामि) त्यजामि। ददामि (पीतये) पानाय (तृम्प) तृम्प तृप्तौ। तृप्तो भव (वि) विविधम् (अश्नुहि) अशू व्याप्तौ-परस्मैपदम्। अश्नुष्व। प्राप्नुहि (मदम्) हर्षम् ॥

०२ मा त्वा

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मा त्वा॑ मू॒रा अ॑वि॒ष्यवो॒ मोप॒हस्वा॑न॒ आ द॑भन्।
माकीं॑ ब्रह्म॒द्विषो॑ वनः ॥

०२ मा त्वा ...{Loading}...

Griffith

Let not the fools, or those who mock, beguile thee when they seek thine aid: Love not the enemies of prayer.

पदपाठः

मा। त्वा॒। मू॒राः। अ॒वि॒ष्यवः॑। मा। उ॒प॒ऽहस्वा॑नः। आ। द॒भ॒न्। माकी॑म्। ब्र॒ह्म॒ऽद्विषः॑। व॒नः॒। २२.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • त्रिशोकः
  • गायत्री
  • सूक्त-२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वा) तुझको (मा) न तो (मूराः) मूढ़ (अविष्यवः) हिंसा चाहनेवाले और (मा) न (उपहस्वानः) ठट्ठा करनेवाले लोग (आ दभन्) कभी दबावें। तू (ब्रह्मद्विषः) वेद के वैरियों को (माकीम्) मत (वनः) सेवन कर ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् राजा सदा श्रेष्ठ कर्म करे, जिससे कोई दुष्ट उसका उपहास आदि न कर सके ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (मूराः) मूढाः-निरु–० ६।८ (अविष्यवः) अ० ११।२।२। अव हिंसायाम्-इसि, क्यच्, उप्रत्ययः। परहिंसेच्छवः (मा) निषेधे (उपहस्वानः) उप+हसतेः-वनिप्। उपहासकर्तारः (आ) समन्तात् (दभन्) दम्भु दम्भे-लुङ्। हिंसन्तु (माकीम्) निषेधे। मा शब्दार्थे (ब्रह्मद्विषः) वेदद्वेष्टॄन् (वनः) वन संभक्तौ-लङ्। भजेथाः ॥

०३ इह त्वा

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इ॒ह त्वा॒ गोप॑रीणसा म॒हे म॑न्दन्तु॒ राध॑से।
सरो॑ गौ॒रो यथा॑ पिब ॥

०३ इह त्वा ...{Loading}...

Griffith

Here let them with rich milky draught cheer thee to great munificence: Drink as the wild bull drinks the lake.

पदपाठः

इ॒ह। त्वा॒। गोऽप॑रीणसा। म॒हे। म॒न्द॒न्तु॒। राध॑से। सरः॑। गौ॒रः। यथा॑। पि॒ब॒। २२.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • त्रिशोकः
  • गायत्री
  • सूक्त-२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) यहाँ पर (त्वा) तुझको (गोपरीणसा) भूमि की प्राप्ति से (महे) बड़े (राधसे) धन के लिये (मदन्तु) लोग प्रसन्न करें। तू [आनन्द रस को] (पिब) पी, (यथा) जैसे (गौरः) गौर हरिण (सरः) जल [पीता है] ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा राज्य पाकर प्रजा जनों को उन्नति के साथ प्रसन्न करके प्रसन्न होवे, जैसे प्यासा हरिण जल पीकर आनन्द पाता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(इह) अत्र राज्ये (त्वा) त्वाम् (गोपरीणसा) णस कौटिल्ये गतौ च-क्विप्। नसत इति गतिकर्मा-निघ० २।१४। भूमिप्राप्त्या (महे) पूजनीयाय। महते (राधसे) धनाय (सरः) जलम् (गौरः) गौरमृगः (यथा) (पिब) आनन्दरसस्य पानं कुरु ॥

०४ अभि प्र

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अ॒भि प्र गोप॑तिं गि॒रेन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे।
सू॒नुं स॒त्यस्य॒ सत्प॑तिम् ॥

०४ अभि प्र ...{Loading}...

Griffith

Praise, even as he is known, with song Indra, the guardian of the kine, The Son of Truth, Lord of the brave.

पदपाठः

अ॒भि। प्र। गोऽप॑तिम्। गि॒रा। इन्द्र॑म्। अ॒र्च॒। यथा॑। वि॒दे। सू॒नम्। स॒त्यस्य॑। सत्ऽप॑तिम्। २२.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • गायत्री
  • सूक्त-२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (गोपतिम्) पृथिवी के पालक, (सत्यस्य) सत्य के (सूनुम्) प्रेरक, (सत्पतिम्) सत्पुरुषों के रक्षक (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को, (यथा) जैसा (विदे) वह है, (गिरा) स्तुति के साथ (अभि) सब ओर से (प्र) अच्छे प्रकार (अर्च) तू पूज ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे राजा उत्तम गुणवाला हो, वैसे ही मनुष्यों को उसकी यथार्थ बड़ाई करनी चाहिये ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-८।६९ [सायणभाष्य ८]। ४-६ और सामवेद में हैं-उ० ७।१। तृच १ और मन्त्र १ सामवेद में है- पू० २।८।४। तीनों मन्त्र आगे हैं-अथर्व० २०।९२।१-३ ॥ ४−(अभि) सर्वतः (प्र) प्रकर्षेण (गोपतिम्) भूपालम् (गिरा) स्तुत्या (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (अर्च) पूजय (विदे) विद सत्तायाम्, लडर्थे लिट्, छान्दसं रूपम्। विविदे। विद्यते स इन्द्रः (सूनुम) अ० ६।१।२। षू प्रेरणे-नु। प्रेरकम्। प्रचारकम् (सत्यस्य) यथार्थज्ञानस्य (सत्पतिम्) सत्पुरुषाणां रक्षकम् ॥

०५ आ हरयः

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आ हर॑यः ससृज्रि॒रेऽरु॑षी॒रधि॑ ब॒र्हिषि॑।
यत्रा॒भि सं॒नवा॑महे ॥

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Griffith

Hither his bay steeds have been sent, red steeds are on the sacred grass. Where we in concert sing our songs.

पदपाठः

आ। हर॑यः। स॒सृ॒जि॒रे॒। अरु॑षीः। अधि॑। ब॒र्हिषि॑। यत्र॑। अ॒भि। स॒म्ऽनवा॑महे। २२.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • गायत्री
  • सूक्त-२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हरयः) दुःख हरनेवाले मनुष्य (अरुषीः) गतिशील [उद्योगी] प्रजाओं को (बर्हिषि) बढ़ती के स्थान में (अधि) अधिकारपूर्वक (आ ससृज्रिरे) लाये हैं, (यत्र) जहाँ पर [तुझ राजा को] (अभि) सब ओर से (संनवामहे) हम मिलकर सराहते हैं ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस राजा की सुनीति से विद्या द्वारा उन्नति होवे, प्रजा सहित विद्वान् जन उसके गुणों का गान करें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(हरयः) हरयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। दुःखहर्तारो विद्वांसः (आ ससृज्रिरे) सृज विसर्गे-लिट्, रुडागमः। आ ससृजिरे। आनीतवन्तः (अरुषीः) अ० २०।१७।९। ऋ गतौ-उषच्, ङीप्। गतिशीलाः। उद्योगिनीः प्रजाः (अधि) अधिकारपूर्वकम् (बर्हिषि) बृह वृद्धौ-इसुन्। वृद्धिस्थाने (यत्र) यस्मिन् स्थाने (अभि) सर्वतः (संनवामहे) णु स्तुतौ। राजानं वयं मिलित्वा स्तुमः ॥

०६ इन्द्राय गाव

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इन्द्रा॑य॒ गाव॑ आ॒शिरं॑ दुदु॒ह्रे व॒ज्रिणे॒ मधु॑।
यत्सी॑मुपह्व॒रे वि॒दत् ॥

०६ इन्द्राय गाव ...{Loading}...

Griffith

For Indra, Thunder-armed, the kine have yielded mingled milk and meath, What time he found them in the vault.

पदपाठः

इन्‍द्रा॑य। गावः॑। आ॒ऽशिर॑म्। दु॒दु॒ह्रे। व॒ज्रिणे॑। मधु॑। यत्। सी॒म्। उ॒प॒ऽह्व॒रे। वि॒दत्। २२.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • प्रियमेधः
  • गायत्री
  • सूक्त-२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिणे) वज्रधारी (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] के लिये (गावः) वेदवाणियों ने (आशिरम्) सेवने वा पकाने योग्य पदार्थ [दूध, दही, घी आदि] को और (मधु) मधुविद्या [यथार्थ ज्ञान] को (दुदुह्रे) भर दिया है। (यत्) जब कि उसने [उन वेदवाणियों] को (उपह्वरे) अपने पास (सीम्) सब प्रकार (विदत्) पाया ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ऐश्वर्यवान् पुरुष वेदवाणियों से सुशिक्षित होकर दूध आदि भोग्य पदार्थ प्राप्त करके यथार्थ ज्ञान बढ़ावे ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते राज्ञे (गावः) वेदवाण्यः (आशिरम्) अपस्पृधेथामानृचु०। पा० ६।१।३६। आङ्+श्रिञ् सेवायां श्रीञ् पाके वा-क्विप्, धातोः शिर इत्यादेशः। यद्वा। अशेर्नित्। उ० १।२। आङ्+अश भोजने अशू व्याप्तौ वा-किरन् नित्। आशीराश्रयणाद् वाश्रपणाद् वा, अथेयमितराशीराशास्तेः-निरु० ६।८। आश्रययोग्यं परिपाकयोग्यं वा दुग्धदधिघृतादिपदार्थम् (दुदुह्रे) दुह प्रपूरणे लिटि रुट्। दुदुहिरे। पूरितवत्यः (वज्रिणे) वज्रधारिणे (मधु) मधुविद्याम्। यथार्थज्ञानम् (यत्) यदा (सीम्) अवितॄस्तृ० तु० ३।१९। षिञ् बन्धने-ईप्रत्ययः। सीमिति परिग्रहार्थीयो वा पदपूरणो वा सर्वत इति वा-निरु० १।७। सर्वतः (उपह्वरे) उप+ह्वृ कौटिल्ये-अप्। निकटे। युद्धे (विदत्) विद्लृ लाभे-लुङ्। प्राप्तवान् स इन्द्रस्ता वाणीः ॥