०१७ ...{Loading}...
VH anukramaṇī
(१-१२) १-११ कृष्णः, १२ वसिष्ठः। इन्द्रः। १-१० जगती, ११-१२ त्रिष्टुप्।
Griffith
???
०१ अच्छा म
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अच्छा॑ म॒ इन्द्रं॑ म॒तयः॑ स्व॒र्विदः॑ स॒ध्रीची॒र्विश्वा॑ उश॒तीर॑नूषत।
परि॑ ष्वजन्ते॒ जन॑यो॒ यथा॒ पतिं॒ मर्यं॒ न शु॒न्ध्युं म॒घवा॑नमू॒तये॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अच्छा॑ म॒ इन्द्रं॑ म॒तयः॑ स्व॒र्विदः॑ स॒ध्रीची॒र्विश्वा॑ उश॒तीर॑नूषत।
परि॑ ष्वजन्ते॒ जन॑यो॒ यथा॒ पतिं॒ मर्यं॒ न शु॒न्ध्युं म॒घवा॑नमू॒तये॑ ॥
०१ अच्छा म ...{Loading}...
Griffith
In perfect unison all yearning hymns of mine that find the light of heaven have sung forth Indra’s praise. As wives embrace their lord, the comely bridegroom, so they compass Maghavan about that he may help.
पदपाठः
अच्छ॑। मे॒। इन्द्र॑म्। म॒तयः॑। स्वः॒ऽविदः॑। स॒ध्रीचीः॑। विश्वाः॑। उ॒श॒तीः। अ॒नू॒ष॒त॒। परि॑। स्व॒ज॒न्ते॒। जन॑यः। यथा॑। पति॑म्। मर्य॑म्। न। शु॒न्ध्युम्। म॒घऽवा॑नम्। ऊ॒तये॑। १७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (स्वर्विदः) सुख पहुँचानेवाली, (सध्रीचीः) आपस में मिली हुई, (उशतीः) कामना करती हुई, (विश्वाः) सब (मे) मेरी (मतयः) बुद्धियों ने (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी राजा] को (अच्छ) अच्छे प्रकार से (अनूषत) सराहा है और (ऊतये) रक्षा के लिये [ऐसे, उसे] (परि ष्वजन्ते) सब ओर घेरती है, (यथा) जैसे (जनयः) पत्नियाँ (पतिम्) [अपने अपने] पति को, और (न) जैसे (शुन्ध्युम्) शुद्ध आचारवाले, (मघवानम्) महाधनी (मर्यम्) मनुष्य को [लोग घेरते हैं] ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि धर्मात्मा पराक्रमी मनुष्य का आश्रय लेकर रक्षा करें, जैसे स्त्रियाँ अपने पतियों का, और सब लोग सदाचारी कमाऊ जन का आश्रय लेते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १-११ ऋग्वेद में है-१०।४३।१-११ ॥ १−(अच्छ) सुष्ठु (मे) मम (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (मतयः) बुद्धयः (स्वर्विदः) सुखस्य लम्भयित्र्यः (सध्रीचीः) अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्, ङीप्। सहाञ्चनाः। परस्परं संगताः (विश्वाः) सर्वाः (उशतीः) कामयमानाः (अनूषत) णु स्तुतौ-लुङ्। आत्मनेपदत्वम् उकारस्य दीर्घत्वं च छान्दसम्। अस्तुवन् (परि) सर्वतः (स्वजन्ते) आलिङ्गन्ति। वेष्टन्ते (जनयः) पत्न्यः (यथा) (पतिम्) स्वस्वभर्तारम् (मर्यम्) मनुष्यम् (न) यथा (शुन्ध्युम्) अ० १३।२।२४। शुन्ध विशुद्धौ-युच्। शुद्धाचारवन्तम् (मघवानम्) महाधनिनम् (ऊतये) रक्षणाय ॥
०२ न घा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
न घा॑ त्व॒द्रिगप॑ वेति मे॒ मन॒स्त्वे इत्कामं॑ पुरुहूत शिश्रय।
राजे॑व दस्म॒ नि ष॒दोऽधि॑ ब॒र्हिष्य॒स्मिन्त्सु सोमे॑ऽव॒पान॑मस्तु ते ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न घा॑ त्व॒द्रिगप॑ वेति मे॒ मन॒स्त्वे इत्कामं॑ पुरुहूत शिश्रय।
राजे॑व दस्म॒ नि ष॒दोऽधि॑ ब॒र्हिष्य॒स्मिन्त्सु सोमे॑ऽव॒पान॑मस्तु ते ॥
०२ न घा ...{Loading}...
Griffith
Directed unto thee my spirit never strays, for I have set my hopes on thee, O much-invoked! Sit, wonderful! as King upon the sacred grass, and let thy drinking-place be by the Soma juice.
पदपाठः
न। घ॒। त्व॒द्रिक्। अप॑। वे॒ति॒। मे॒। मनः॑। त्वे इति॑। इत्। काम॑म्। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। शि॒श्र॒य॒। राजा॑ऽइव। द॒स्म॒। नि। स॒दः॒। अधि॑। ब॒र्हिषि॑। अ॒स्मिन्। सु। सोमे॑। अ॒व॒ऽपान॑म्। अ॒स्तु॒। ते॒। १७.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुहूत) हे बहुत प्रकार से बुलाये गये ! (त्वद्रिक्) तेरी ओर गया हुआ (मे) मेरा (मनः) मन (न घ) न कभी (अप वेति) भटकता है, (त्वे) तुझमें (इत्) ही (कामम्) [अपनी] आशा को (शिश्रय) मैंने ठहराया है। (दस्म) हे दर्शनीय ! (राजा इव) राजा के समान (बर्हिषि) उत्तम आसन पर (अधि) अधिकारपूर्वक (नि षदः) तू बैठ, और (अस्मिन्) इस (सोमे) ऐश्वर्य में (ते) तेरा (अवपानम्) निश्चित रक्षा कर्म (सु) सुन्दर रीति से (अस्तु) होवे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रजागण पूर्ण राजभक्ति से उचित उपहार देकर धर्मात्मा राजा को प्रसन्न रक्खें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(न घ) न कदापि (त्वद्रिक्) युष्मद्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। विष्वग्देवयोश्च टेरद्र्यञ्चतावप्रत्यये। पा० ६।३।९२। इति सर्वनाम्नः टेः अद्रि इत्यादेशः। अचः। पा० ६।४।१३८। लुप्तनकारस्याञ्चतेर्भस्य अकारस्य लोपः। त्वां गच्छत् (अप वेति) अपगच्छति (मे) मम (मनः) चित्तम् (त्वे) शे इत्यादेशः। त्वयि (इत्) एव (कामम्) आशाम् (पुरुहूत) हे बहुविधाहूत (शिश्रय) श्रिञ् सेवायाम्-लिट्। अहमाश्रितवान् स्थापितवानस्मि (राजा) (इव) (दस्म) इषियुधीन्धिदसि०। उ० ४।१४। दसु उपक्षये, यद्वा, दस दसि दर्शनसन्दशनयोः-मक्। हे दर्शनीय (नि षदः) लेटि रूपम्। निषीद (अधि) अधिकारपूर्वकम् (बर्हिषि) उत्तमासने (अस्मिन्) (सु) सुष्ठु (सोमे) ऐश्वर्ये (अवपानम्) निश्चितरक्षणम् (अस्तु) (ते) तव ॥
०३ विषूवृदिन्द्रो अमुतेरुत
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि॑षू॒वृदिन्द्रो॒ अमु॑तेरु॒त क्षु॒धः स इद्रा॒यो म॒घवा॒ वस्व॑ ईशते।
तस्येदि॒मे प्र॑व॒णे स॒प्त सिन्ध॑वो॒ वयो॑ वर्धन्ति वृष॒भस्य॑ शु॒ष्मिणः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि॑षू॒वृदिन्द्रो॒ अमु॑तेरु॒त क्षु॒धः स इद्रा॒यो म॒घवा॒ वस्व॑ ईशते।
तस्येदि॒मे प्र॑व॒णे स॒प्त सिन्ध॑वो॒ वयो॑ वर्धन्ति वृष॒भस्य॑ शु॒ष्मिणः॑ ॥
०३ विषूवृदिन्द्रो अमुतेरुत ...{Loading}...
Griffith
From indigence and hunger Indra turns away: Maghavan hath dominion over precious wealth. These the Seven Rivers flowing on their downward path increase the vital vigour of the Mighty Steer.
पदपाठः
वि॒षु॒ऽवृत्। इन्द्रः॑। अम॑तेः। उ॒त। क्षु॒धः। सः। इत्। रा॒यः। म॒घऽवा॑। वस्वः॑। ई॒श॒ते॒। तस्य॑। इत्। इ॒मे। प्र॒व॒णे। स॒प्त। सिन्ध॑वः। वयः॑। व॒र्ध॒न्ति॒। वृ॒ष॒भस्य॑। शु॒ष्मिणः॑। १७.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी राजा] (अमतेः) कंगाल का (उत) और (क्षुधः) भूख का (विषुवृत्) सर्वथा हटानेवाला है, (सः इत्) वही (मघवा) महाधनी (रायः) धन का और (वस्वः) वस्तु का (ईशते) स्वामी है। (तस्य इत्) उसी ही (वृषभस्य) श्रेष्ठ (शुष्मिणः) महाबली के (प्रवणे) सेवनीय लम्बे राज्य में (इमे) यह (सप्त सिन्धवः) बहते हुए सात समुद्ररूप छेद [हमारे दो, कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख अथर्व० १०।२।६] (वयः) अन्न को (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - धार्मिक प्रतापी, धनी राजा की सुनीति से प्रजागण जितेन्द्रिय होकर विद्यावृद्धि करके धनवान् और अन्नवान होवें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(विषुवृत्) विषु+वृतु वर्तने-क्विप्। सर्वथा निवर्तयिता (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (अमतेः) अमेरतिः। उ० ४।९। अम पीडने-अति। दारिद्र्यस्य (क्षुधः) बुभुक्षायाः (सः) (इत्) एव (रायः) धनस्य (मघवा) महाधनी (वस्वः) वसुनः। वस्तुनः (ईशते) छान्दसः शप्। ईष्टे। ईश्वरो भवति (तस्य) (इत्) (इमे) प्रत्यक्षाः (प्रवणे) वन सम्भक्तौ-अच्। सेवनीये। आयते दीर्घे राज्ये (सप्त) सप्तसंख्याकानि शीर्षण्यानि च्छिद्राणि। कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्-अथर्व० १०।२।६ (सिन्धवः) स्यन्दमानानि समुद्ररूपाणि च्छिद्राणि (वयः) अन्नम् (वर्धन्ति) वर्धयन्ति (वृषभस्य) श्रेष्ठस्य (शुष्मिणः) महाबलवतः ॥
०४ वयो न
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वयो॒ न वृ॒क्षं सु॑पला॒शमास॑द॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ म॒न्दिन॑श्चमू॒षदः॑।
प्रैषा॒मनी॑कं॒ शव॑सा॒ दवि॑द्युतद्वि॒दत्स्व१॒॑र्मन॑वे॒ ज्योति॒रार्य॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वयो॒ न वृ॒क्षं सु॑पला॒शमास॑द॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ म॒न्दिन॑श्चमू॒षदः॑।
प्रैषा॒मनी॑कं॒ शव॑सा॒ दवि॑द्युतद्वि॒दत्स्व१॒॑र्मन॑वे॒ ज्योति॒रार्य॑म् ॥
०४ वयो न ...{Loading}...
Griffith
As on the fair-leafed tree rest birds, to Indra flow the gladden- ing Soma juices that the bowls contain. Their face that glows with splendour through their mighty power hath found the shine of heaven for man, the Aryas’ light.
पदपाठः
वयः॑। न। वृ॒क्षम्। सु॒ऽप॒ला॒शम्। आ। अ॒स॒द॒न्। सोमा॑सः। इन्द्र॑म्। म॒न्दिनः॑। च॒मू॒ऽसदः॑। प्र। ए॒षा॒म्। अनी॑कम्। शव॑सा। दवि॑द्युतत्। वि॒दत्। स्वः॑। मन॑वे। ज्योतिः॑। आर्यम्। १७.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वयः न) जैसे पक्षी गण (सुपलाशम्) सुन्दर पत्तोंवाले (वृक्षम्) वृक्ष को, [वैसे ही] (मन्दिनः) आनन्द देनेवाले, (चमूषदः) सेनाओं में ठहरनेवाले (सोमासः) ऐश्वर्यवान् पुरुष (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी सेनापति] को (आ असदन्) आकर प्राप्त हुए हैं। (शवसा) बल के साथ (एषाम्) इन [ऐश्वर्यवानों] के (दविद्युतत्) अत्यन्त चमकते हुए (अनीकम्) सेनादल ने (मनवे) मनुष्य के लिये (आर्यम्) उत्तम (स्वः) सुख और (ज्योतिः) तेज को (प्र) अच्छे प्रकार (विदत्) पाया है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सुन्दर फल, पुष्प और छायावाले वृक्ष पर पक्षी आकर रहते हैं, वैसे ही तीक्ष्ण हथियारवाले धीर-वीर लोग महाप्रतापी राजा का आश्रय लेकर प्रजा को सुख देते और प्रकाश का मार्ग खोलते हैं ॥४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(वयः) पक्षिणः (न) यथा (वृक्षम्) (सुपलाशम्) सुपल्लवितम् (आ) आगत् (असदन्) प्राप्नुवन् (सोमासः) ऐश्वर्यवन्तः पुरुषाः (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं राजानम् (मन्दिनः) प्रजोरिनिः। पा० ३।२।१६। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-इनि प्रत्ययो बाहुलकात्। आनन्दयितारः (चमूषदः) चमूषु सेनासु सीदन्ति तिष्ठन्ति ये ते (प्र) प्रकर्षेण (एषाम्) ऐश्वर्यवताम् (अनीकम्) अन प्राणने-ईकन्। सैन्यम् (शवसा) बलेन (दविद्युतत्) दाधर्तिदर्धर्ति०। पा० ७।४।६। द्युत दीप्तौ-यङ्लुकि शतरि रूपसिद्धिः। भृशं दीप्यमानम् (विदत्) अविदत्। अलभत (स्वः) सुखम् (मनवे) मनुष्याय (ज्योतिः) तेजः (आर्यम्) श्रेष्ठम् ॥
०५ कृतं न
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कृ॒तं न श्व॒घ्नी वि चि॑नोति॒ देव॑ने सं॒वर्गं॒ यन्म॒घवा॒ सूर्यं॒ जय॑त्।
न तत्ते॑ अ॒न्यो अनु॑ वी॒र्यं᳡ शक॒न्न पु॑रा॒णो म॑घव॒न्नोत नूत॑नः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
कृ॒तं न श्व॒घ्नी वि चि॑नोति॒ देव॑ने सं॒वर्गं॒ यन्म॒घवा॒ सूर्यं॒ जय॑त्।
न तत्ते॑ अ॒न्यो अनु॑ वी॒र्यं᳡ शक॒न्न पु॑रा॒णो म॑घव॒न्नोत नूत॑नः ॥
०५ कृतं न ...{Loading}...
Griffith
As in the game a gambler piles his winnings, so Maghavan, sweeping all together, gained the Sun. This mighty deed of thine none other could achieve, none, Maghavan, before thee, none in recent time.
पदपाठः
कृ॒तम्। न। श्व॒ऽघ्नी। वि। चि॒नो॒ति॒। देव॑ने। स॒म्ऽवर्ग॑म्। यत्। म॒घऽवा॑। सूर्य॑म्। जय॑त्। न। तत्। ते॒। अ॒न्यः। अनु॑। वी॒र्य॑म्। श॒क॒त्। न। पु॒रा॒णः। म॒घ॒ऽव॒न्। न। उ॒त। नूत॑नः। १७.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे (श्वघ्नी) धन नाश करनेवाला जुआरी (कृतम्) जीते धन को (देवने) जुए में (वि चिनोति) बटोर लेता है, [वैसे ही] (यत्) जब (मघवा) महाधनी [राजा] (सूर्यम्=सूर्यस्य) प्रेरणा करनेवाले [प्रधान] के (संवर्गम्) रोकनेवाले [शत्रु] को (जयत्) जीतता है, (तत्) तब (मघवन्) हे महाधनी ! [राजन्] (अन्यः) कोई दूसरा (ते) तेरे (वीर्यम्) वीरपन को (न) नहीं (अनु शकत्) पा सकता है, (न) न तो (पुराणः) कोई प्राचीन (उत) और (न) न (नूतनः) कोई नवीन जन ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वीर राजा अनुपम पराक्रम के साथ संग्राम में शत्रुओं को जीतकर प्रजा का पालन करें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(कृतम्) द्यूते प्राप्तं धनम् (न) यथा (श्वघ्नी) स्व+हन हिंसागत्योः-घञर्थे कप्रत्ययः। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। इनिप्रत्ययः, सकारस्य शः। श्वघ्नी कितवो भवति स्वं पुनराश्रितं भवति-निरु० ।२२। स्वस्य धनस्य नाशकः। कितवः। द्यूतकारकः (वि चिनोति) विविधं संगृह्णाति (देवने) द्यूते (संवर्गम्) वृजी वर्जने-घञ्, कुत्वम्। संवर्जयितारम् (यत्) यदा (मघवा) महाधनी (सूर्यम्) षष्ठ्यर्थे द्वितीया। सूर्यस्य। प्रेरकप्रधानस्य (जयत्) जयति (न) निषेधे (तत्) तदा (ते) तव (अन्यः) इतरः (वीर्यम्) वीरत्वम् (अनु शकत्) अनुकर्त्तुं शक्नोति (न) निषेधे (पुराणः) प्राचीनः (मघवन्) हे महाधनिन् (न) निषेधे (उत) अपि च (नूतनः) आधुनिकः ॥
०६ विशंविशं मघवा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
विशं॑विशं म॒घवा॒ पर्य॑शायत॒ जना॑नां॒ धेना॑ अव॒चाक॑श॒द्वृषा॑।
यस्याह॑ श॒क्रः सव॑नेषु॒ रण्य॑ति॒ स ती॒व्रैः सोमैः॑ सहते पृतन्य॒तः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
विशं॑विशं म॒घवा॒ पर्य॑शायत॒ जना॑नां॒ धेना॑ अव॒चाक॑श॒द्वृषा॑।
यस्याह॑ श॒क्रः सव॑नेषु॒ रण्य॑ति॒ स ती॒व्रैः सोमैः॑ सहते पृतन्य॒तः ॥
०६ विशंविशं मघवा ...{Loading}...
Griffith
Maghavan came by turns to all the tribes of men: the Steer took notice of the people’s songs of praise. The man in whose libations Sakra hath delight by means of potent Somas vanquisheth his foes.
पदपाठः
विश॑म्ऽविशम्। म॒घऽवा॑। परि॑। अ॒शा॒य॒त॒। जना॑नाम्। धेनाः॑। अ॒व॒ऽचाक॑शत्। वृषा॑। यस्य॑। अह॑। श॒क्रः। सव॑नेषु। रण्य॑ति। सः। ती॒व्रैः। सोमैः॑। स॒ह॒ते॒। पृ॒त॒न्य॒तः। १७.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मघवा) महाधनी, (वृषा) बलवान् [सेनापति] (जनानाम्) मनुष्यों की (धेनाः) वाणियों को (अवचाकशत्) ध्यान से देखता हुआ (विशंविशम्) मनुष्य-मनुष्य को (परि अशायत) पहुँचा है। (शक्रः) शक्तिमान् [सेनापति] (यस्य अह) जिसके ही (सवनेषु) यज्ञों के बीच (रण्यति) पहुँचता है, (सः) वह [मनुष्य] (तीव्रैः) पौष्टिक (सोमैः) सोमों [ऐश्वर्यों वा महौषधियों के रसों] से (पृतन्यतः) सेना चढ़ानेवाले [शत्रुओं] को (सहते) हराता है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - चतुर सेनापति समस्त प्रजा की पुकार सुनकर ऐसे-ऐसे उत्तम उपाय करे, जिससे प्रजागण ऐश्वर्यवान् और बलवान् होकर शत्रुओं को जीतें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(विशंविशम्) मनुष्यं मनुष्यम् (मघवा) महाधनी सेनापतिः (परि अशायत) शीङ् शयने णिचि-लङ्। प्राप्तवान् (जनानाम्) मनुष्याणाम् (धेनाः) वाणीः-निघ० १।११ (अवचाकशत्) अ० ६।८०।१। अव+काशृ दीप्तौ यङ्लुकि शतृ। भृशं पश्यन्-निघ० ३।११। (वृषा) महाबली (यस्य) पुरुषस्य (अह) एव (शक्रः) शक्तिमान् (सवनेषु) यज्ञेषु (रण्यति) रण गतौ शब्दे च दिवादिः। गच्छति। प्राप्नोति (सः) मनुष्यः (तीव्रैः) तीव्र स्थौल्ये-रक्। स्थूलैः। पौष्टिकैः (सोमैः) ऐश्वर्यैः। सदौषधिरसैः (सहते) अभिभवति (पृतन्यतः) पृतनां सेनामात्मन इच्छतः शत्रून् ॥
०७ आपो न
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आपो॒ न सिन्धु॑म॒भि यत्स॒मक्ष॑र॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ कु॒ल्या इ॑व ह्र॒दम्।
वर्ध॑न्ति॒ विप्रा॒ महो॑ अस्य॒ साद॑ने॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्दि॒व्येन॒ दानु॑ना ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आपो॒ न सिन्धु॑म॒भि यत्स॒मक्ष॑र॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ कु॒ल्या इ॑व ह्र॒दम्।
वर्ध॑न्ति॒ विप्रा॒ महो॑ अस्य॒ साद॑ने॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्दि॒व्येन॒ दानु॑ना ॥
०७ आपो न ...{Loading}...
Griffith
As waters flow together to the river, thus Somas to Indra flow, as rivulets to the lake. In place of sacrifice sages exalt his might, as the rain swells the corn by moisture sent from heaven.
पदपाठः
आपः॑। न। सिन्धु॑म्। अ॒भि। यत्। स॒म्ऽअक्ष॑रन्। सोमा॑स। इन्द्र॑म्। कु॒ल्याःऽइ॑व। ह्र॒दम्। वर्ध॑न्ति। विप्राः॑। महः॑। अ॒स्य॒। सद॑ने। यव॑म्। न। वृ॒ष्टिः। दि॒व्येन॑। दानु॑ना। १७.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे (आपः) नदियाँ (सिन्धुम् अभि) समुद्र को और (इव) जैसे (कुल्याः) नाले (ह्रदम्) झील को [मिलकर बह जाते हैं], वैसे ही (यत्) जब (सोमासः) सोम [ऐश्वर्य] (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी पुरुष] को (समक्षरन्) मिलकर बह आये हैं, [तब] (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (अस्य) इस [शूर] की (महः) बड़ाई को (सदने) समाज के बीच (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं, (न) जैसे (यवम्) अन्न को (वृष्टिः) बरसा (दिव्येन) दिव्य आकाश से आये (दानुना) जलदान से [बढ़ाती है] ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो महाप्रतापी राजा सब प्रकार से ऐश्वर्यवान् हो, विद्वान् लोग उसके गुणों की प्रशंसा करके उन्नति करें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(आपः) जलवत्यो नद्यः (न) यथा (सिन्धुम्) समुद्रम् (अभि) प्रति (यत्) यदा (समक्षरन्) मिलित्वा वहन्ति स्म (सोमासः) ऐश्वर्याणि (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (कुल्याः) अल्पाः सरितः (इव) (ह्रदम्) जलाशयम् (वर्धन्ति) वर्धयन्ति (विप्राः) मेधाविनः (महः) मह पूजायाम्-असुन्। महत्त्वम् (अस्य) शूरस्य (सदने) समाजे (यवम्) अन्नम् (न) यथा (वृष्टिः) जलवर्षणम् (दिव्येन) दिवि आकाशे भवेन (दानुना) दाभाभ्यां नुः। उ० ३।३२। ददातेः-नु। जलदानेन ॥
०८ वृषा न
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वृषा॒ न क्रु॒द्धः प॑तय॒द्रजः॒स्वा यो अ॒र्यप॑त्नी॒रकृ॑णोदि॒मा अ॒पः।
स सु॑न्व॒ते म॒घवा॑ जी॒रदा॑न॒वेऽवि॑न्द॒ज्ज्योति॒र्मन॑वे ह॒विष्म॑ते ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वृषा॒ न क्रु॒द्धः प॑तय॒द्रजः॒स्वा यो अ॒र्यप॑त्नी॒रकृ॑णोदि॒मा अ॒पः।
स सु॑न्व॒ते म॒घवा॑ जी॒रदा॑न॒वेऽवि॑न्द॒ज्ज्योति॒र्मन॑वे ह॒विष्म॑ते ॥
०८ वृषा न ...{Loading}...
Griffith
He rushes through the region like a furious bull, he who hath made these floods the dames of worthy lords. This Maghavan hath found light for the man who brings oblation, sheds the juice, and promptly pours his gifts.
पदपाठः
वृषा॑। न। क्रु॒ध्दः। प॒त॒य॒त्। रजः॑ऽसु। आ। यः। अ॒र्यऽप॑त्नीः। अकृ॑णोत्। इ॒माः। अ॒पः। सः। सु॒न्व॒ते। म॒घऽवा॑। जी॒रदा॑नवे। अवि॑न्दत्। ज्योतिः॑। मन॑वे। ह॒विष्म॑ते। १७.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (क्रुद्धः) क्रुद्ध (वृषा न) बैल के समान, (यः) जो [सेनापति] (रजःसु) देशों में (आ पतयत्) झपट पड़ता है, और [जिसने] (इमाः) इन (अपः) प्रजाओं को (अर्यपत्नीः) स्वामी से रक्षित (अकृणोत्) किया है। (सः) उस (मघवा) महाधनी [सेनापति] ने (सुन्वते) तत्त्व निचोड़नेवाले, (जीरदानवे) शीघ्रदानी और (हविष्मते) ग्राह्य पदार्थोंवाले (मनवे) मननशील पुरुष के लिये (ज्योतिः) प्रकाश को (अविन्दत्) पाया है ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पराक्रमी सेनापति शत्रुओं को यथावत् दण्ड देकर प्रजा की रक्षा करे और राजभक्तों को यथोचित ऊँचा करके प्रतापी बनावे ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(वृषा) बलीवर्दः (न) यथा (क्रुद्धः) कुपितः (पतयत्) पतयति पतति शीघ्रं धावति (रजःसु) देशेषु (आ) समन्तात् (यः) सेनापतिः (अर्यपत्नीः) अर्येण स्वामिना पालिताः (अकृणोत्) अकरोत् (इमा) दृश्यमानाः (अपः) प्राप्ताः प्रजाः (सः) (सुन्वते) तत्त्वस्य निष्पादयित्रे (मघवा) महाधनी (जीरदानवे) अ० ७।१८।२। शीघ्रदानिने (अविन्दत्) अलभत (ज्योतिः) प्रकाशम् (मनवे) मननवते पुरुषाय (हविष्मते) ग्राह्यपदार्थयुक्ताय ॥
०९ उज्जायतां परशुर्ज्योतिषा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उज्जा॑यतां पर॒शुर्ज्योति॑षा स॒ह भू॒या ऋ॒तस्य॑ सु॒दुघा॑ पुराण॒वत्।
वि रो॑चतामरु॒षो भा॒नुना॒ शुचिः॒ स्व१॒॑र्ण शु॒क्रं शु॑शुचीत॒ सत्प॑तिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उज्जा॑यतां पर॒शुर्ज्योति॑षा स॒ह भू॒या ऋ॒तस्य॑ सु॒दुघा॑ पुराण॒वत्।
वि रो॑चतामरु॒षो भा॒नुना॒ शुचिः॒ स्व१॒॑र्ण शु॒क्रं शु॑शुचीत॒ सत्प॑तिः ॥
०९ उज्जायतां परशुर्ज्योतिषा ...{Loading}...
Griffith
Let the keen axe come forth together with the light: here be, as erst, the teeming cow of sacrifice. Let the Red God shine pure with his refulgent ray, and let the Lord of heroes glow like heaven’s clear sheen.
पदपाठः
उत्। जा॒य॒ता॒म्। प॒र॒शुः। ज्योति॑षा। स॒ह। भू॒याः। ऋ॒तस्य॑। सु॒ऽदुघा॑। पु॒रा॒ण॒ऽवत्। वि। रो॒च॒ता॒म्। अ॒रु॒षः। भा॒नुना॑। शुचिः॑। स्वः॑। न। शु॒क्रम्। शु॒शु॒ची॒त॒। सत्ऽप॑तिः। १७.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (परशुः) फरसा [कुल्हाड़ा] (ज्योतिषा सह) प्रकाश के साथ (उत् जायताम्) ऊँचा होवे, (ऋतस्य) सत्य की (सुदुघा) अच्छे प्रकार पूर्ण करनेहारी [वेदवाणी] (पुराणवत्) पहिले के समान (भूयाः) वर्तमान होवे। (अरुषः) गतिमान् (शुचिः) शुद्धाचारी, (सत्पतिः) सत्पुरुषों का रक्षक पुरुष (भानुना) अपने प्रकाश से (वि) विविध प्रकार (रोचताम्) प्रिय होवे, और (शुक्रम्) निर्मल (स्वः न) सूर्य के समान (शुशुचीत) चमकता रहे ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब शूर सेनापति अपने उज्ज्वल तीक्ष्ण हथियारों से शत्रुओं को मारकर सत्य की स्थापना करता है, तब वह अपने उपकारों से सूर्यसमान प्रतापी होकर सबको प्रिय लगता है ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(उत्) ऊर्ध्वम् (जायताम्) प्रादुर्भवतु (परशुः) कुठारः। वज्रः (ज्योतिषा) प्रकाशेन (सह) (भूयाः) प्रथमस्य मध्यमपुरुषः। भूयात् (ऋतस्य) सत्यस्य (सुदुघा) दुह प्रपूरणे-कप्, टाप्, हस्य घः। सुष्ठु पूरयित्री वेदवाणी (पुराणवत्) पूर्वं यथा (वि) विविधम् (रोचताम्) रोचकः प्रियो भवतु (अरुषः) अ० ३।३।२। पॄनहिकलिभ्य उषच्। उ० ४।७। ऋ गतिप्रापणयोः-उषच्। गतिशीलः (भानुना) स्वप्रकाशेन (शुचिः) शुद्धाचारी (स्वः) आदित्यः (न) यथा (शुक्रम्) शुक्लम्। निर्मलम् (शुशुचीत) शुच शोके-लिङि शपः श्लु। दीप्यताम् (सत्पतिः) सत्पुरुषाणां पालकः ॥
१० गोभिष्टरेमामतिं दुरेवाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वा॑म्।
व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना॑न्य॒स्माके॑न वृ॒जने॑ना जयेम ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वा॑म्।
व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना॑न्य॒स्माके॑न वृ॒जने॑ना जयेम ॥
१० गोभिष्टरेमामतिं दुरेवाम् ...{Loading}...
Griffith
O much-invoked, may we subdue all famine and evil want with store of grain and cattle. May we allied, as first in rank, with princes, obtain possessions by our own exertion.
पदपाठः
गोभिः॑। त॒रे॒म॒। अम॑तिम्। दुः॒ऽएवा॑म्। यवे॑न। क्षुध॑म्। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। विश्वा॑म्। व॒यम्। राज॑ऽभिः। प्र॒थ॒माः। धना॑नि। अ॒स्माके॑न। वृ॒जने॑न। ज॒ये॒म॒। १७.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- जगती
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुहूत) हे बहुतों से बुलाये गये ! [राजन्] (गोभिः) विद्याओं से (दुरेवाम्) दुर्गतिवाली (अमतिम्) कुमति [वा कङ्गाली] को और (यवेन) अन्न से (विश्वाम्) सब (क्षुधम्) भूख को (तरेम) हम हटावें। (वयम्) हम (राजभिः) राजाओं के साथ (प्रथमाः) प्रथम श्रेणीवाले होकर (धनानि) अनेक धनों को (अस्माकेन) अपने (वृजनेन) बल से (जयेम) जीतें ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रयत्न करके विद्याओं द्वारा कुमति और निर्धनता हटाकर भोजन पदार्थ प्राप्त करें और अपने भुजबल से महाधनी होकर राजाओं के साथ प्रथम श्रेणीवाले होवें ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से ऊपर आचुका है-अ० ७।०।७। और मन्त्र १०, ११ आगे हैं-२०।८९।१०, ११ तथा २०।९४।१०, ११ ॥ १०-अय मन्त्रो भेदेन आगतः-अ० ७।०।७ (गोभि) विद्याभिः (तरेम) अभिभवेम (अमतिम्) म० ३। दुर्बुद्धिम्। दारिद्र्यम् (यवेन) अन्नेन (क्षुधम्) बुभुक्षाम् (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (विश्वाम्) सर्वाम् (वयम्) (राजभिः) नृपैः (प्रथमाः) मुख्याः (धनानि) (अस्माकेन) अ० ४।३३।३। आस्माकेन। आत्मीयेन (वृजनेन) बलेन (जयेम) जयेन प्राप्नुयाम ॥
११ बृहस्पतिर्नः परि
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बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः।
इन्द्रः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरि॑वः कृणोतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः।
इन्द्रः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरि॑वः कृणोतु ॥
११ बृहस्पतिर्नः परि ...{Loading}...
Griffith
Brihaspati protect us from the rearward, and from above, and from below, from sinners. May Indra from the front, and from the centre, as friend to friends, vouchsafe us room and freedom.
पदपाठः
बृह॒स्पतिः॑। नः॒। परि॑। पा॒तु॒। प॒श्चात्। उ॒त। उत्ऽत॑रसमात्। अध॑रात्। अ॒घ॒ऽयोः। इन्द्रः॑। पु॒रस्ता॑त्। उ॒त। म॒ध्य॒तः। नः॒। सखा॑। सखि॑ऽभ्यः। वरि॑वः। कृ॒णो॒तु॒। १७.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े शूरों का रक्षक सेनापति] (नः) हमें (पश्चात्) पीछे से (उत्तरस्मात्) ऊपर से (उत) और (अधरात्) नीचे से (अघायोः) बुरा चीतनेवाले शत्रु से (परि पातु) सब प्रकार बचावे। (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (पुरस्तात्) आगे से (उत) और (मध्यतः) मध्य से (नः) हमारे लिये (वरिवः) सेवनीय धन (कृणोतु) करे, (सखा) [जैसे] मित्र (सखिभ्यः) मित्रों के लिये [करता है] ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य वीरों में महावीर और प्रतापियों में महाप्रतापी होकर दुष्टों से प्रजा की सदा रक्षा करें ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से ऊपर आ चुका है-अ० ७।१।१, मन्त्र १० की भी टिप्पणी देखो ॥ ११−(वरिवः) अ० २०।११।१। बहुवरणीयं धनम्। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ७।१।१ ॥
१२ बृहस्पते युवमिन्द्रश्च
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
बृह॑स्पते यु॒वमिन्द्र॑श्च॒ वस्वो॑ दि॒व्यस्ये॑शाथे उ॒त पार्थि॑वस्य।
ध॒त्तं र॒यिं स्तु॑व॒ते की॒रये॑ चिद्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
बृह॑स्पते यु॒वमिन्द्र॑श्च॒ वस्वो॑ दि॒व्यस्ये॑शाथे उ॒त पार्थि॑वस्य।
ध॒त्तं र॒यिं स्तु॑व॒ते की॒रये॑ चिद्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥
१२ बृहस्पते युवमिन्द्रश्च ...{Loading}...
Griffith
Ye twain are Lords of wealth in earth and heaven, thou, O Brihaspati, and thou, O Indra. Mean though he be, give wealth to him who lauds you. Preserve us evermore, ye Gods, with blessings.
पदपाठः
बृह॑स्पते। यु॒वम्। इन्द्रः॑। च॒। वस्वः॑। दि॒व्यस्य॑। ई॒शा॒थे॒ इति॑। उ॒त। पार्थि॑वस्य। ध॒त्तम्। र॒यिम्। स्तु॒व॒ते॒। की॒रये॑। चि॒त्। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒। १८.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कृष्णः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त-१७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़ी वेदवाणी के रक्षक विद्वान्] (च) और (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (युवम्) तुम दोनों (दिव्यस्य) आकाश के (उत) और (पार्थिवस्य) पृथिवी के (वस्वः) धन के (ईशाथे) स्वामी हो। (स्तुवते) स्तुति करते हुए (कीरये) विद्वान् को (रयिम्) धन (चित्) अवश्य (धत्तम्) तुम दोनों दो, [हे वीरो !] (यूयम्) तुम सब (स्वस्तिभिः) सुखों के साथ (सदा) सदा (नः) हमें (पात) रक्षित रक्खो ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् मन्त्री और पराक्रमी राजा और सब शूर पुरुष आकाशस्थ वायु वृष्टि आदि, और पृथिवीस्थ अन्न सुवर्ण आदि का सुप्रबन्ध करके प्रजा की रक्षा करें ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-७।९७।१० और आगे है अथ० २०।८७।७ और चौथा पाद ऊपर आचुका है-२०।१२।६ और आगे है-२०।३७।११ ॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥ १२−(बृहस्पते) हे बृहत्या वेदवाण्या रक्षक विद्वन् (युवम्) युवाम् (इन्द्र) हे महाप्रतापिन् राजन् (च) (वस्वः) वसुनः। धनस्य (दिव्यस्य) दिवि आकाशे भवस्य (ईशाथे) स्वामिनौ भवथः (उत) अपि च (पार्थिवस्य) पृथिव्यां भवस्य (धत्तम्) दत्तम् (रयिम्) धनम् (स्तुवते) स्तोत्रं कुर्वते (कीरये) कॄगॄशॄपॄ०। उ० ४।१४३। कॄ क्षेपे-इप्रत्ययः, दीर्घश्छान्दसः, यद्वा कील बन्धने-इन्, लस्य रः। कीरिः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। किरति वाचा प्रेरयति स किरिः तस्मै विदुषे (चित्) अवश्यम्। अन्यद् गतम्-अ० २०।१२।६ ॥