०१५

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VH anukramaṇī

१-६गोतमः। इन्द्रः। त्रिष्टुप्।

Griffith

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०१ प्र मंहिष्ठाय

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प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे।
अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम् ॥

०१ प्र मंहिष्ठाय ...{Loading}...

Griffith

To him most liberal, lofty Lord of lofty wealth, verily powerful and strong, I bring my hymn, Whose checkless bounty, as of waters down a slope, is spread abroad for all that live, to give them strength.

पदपाठः

प्र। मंहि॑ष्ठाय। बृ॒ह॒ते। बृ॒हत्ऽर॑ये। स॒त्यऽशु॑ष्माय। त॒वसे॑। म॒तिम्। भ॒रे॒। अ॒पाम्ऽइ॑व। प्र॒व॒णे। यस्य॑। दुः॒ऽधर॑म्। राधः॑। वि॒श्वऽआ॑यु। शव॑से। अप॑ऽवृतम्। १५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोतमः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मंहिष्ठाय) अत्यन्त दानी, (बृहते) महागुणी, (बृहद्रये) महाधनी, (सत्यशुष्माय) सच्चे बलवान् [सभाध्यक्ष] के लिये (तवसे) बल पाने को (मतिम्) बुद्धि (प्र) उत्तम रीति से (भरे) मैं धारण करता हूँ। (प्रवणे) ढालू स्थान में (अपाम् इव) जलों के [प्रवाह के] समान, (यस्य) जिस [सभाध्यक्ष] का (दुर्धरम्) बेरोक, (विश्वायु) सबको जीवन देनेवाला (राधः) धन (शवसे) बल के लिये (अपावृतम्) फैला हुआ है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो सभाध्यक्ष सुपात्रों को दान देकर प्रजा को सुशिक्षित बलवान् बनाता है, उसके उपकारों की महिमा ऐसी सुखदायक होती है, जैसे जल ढालू स्थानों में बहकर खेती आदि बढ़ाकर आनन्द देता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।७।१-६ ॥ १−(प्र) प्रकर्षेण (मंहिष्ठाय) मंहतिर्दानकर्मा-निघ० ३।२०। महि वृद्धौ दाने च-तृच्, मंहितृ-इष्ठन्, तृलोपः। दातृतमाय (बृहते) गुणैर्महते (बृहद्रये) रैशब्दस्य ऐकारस्य एकारः। प्रभूतधनाय (सत्यशुष्माय) अवितथबलाय (तवसे) अ० ४।२२।३। बलप्राप्तये (मतिम्) बुद्धिम् (भरे) अहं धरे (अपाम्) जलानां प्रवाहः (इव) यथा (प्रवणे) अवनतदेशे (यस्य) सभाध्यक्षस्य (दुर्धरम्) दुःखेन धरणीयं निवारणीयम् (राधः) धनम् (विश्वायु) विश्वस्मै सर्वस्मै आयुर्जीवनं यस्मात् तत् (शवसे) बललाभाय (अपावृतम्) छान्दसो दीर्घः। अपगतावरणं व्यावृतं वर्तते ॥

०२ अध ते

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अध॑ ते॒ विश्व॒मनु॑ हासदि॒ष्टय॒ आपो॑ नि॒म्नेव॒ सव॑ना ह॒विष्म॑तः।
यत्पर्व॑ते॒ न स॒मशी॑त हर्य॒त इन्द्र॑स्य॒ वज्रः॒ श्नथि॑ता हिर॒ण्ययः॑ ॥

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Griffith

Now all this world, for worship, shall come after thee–the offerer’s libations like descending floods, When the well-loved one seems to rest upon the hill, the thun- derbolt of Indra, shatterer wrought of gold.

पदपाठः

अध॑। ते॒। विश्व॑म्। अनु॑। ह॒। अ॒स॒त्। इ॒ष्टये॑। आपः॑। नि॒म्नाऽइ॑व। सव॑ना। ह॒विष्म॑तः। यत्। पर्व॑ते। न। स॒म्ऽअशी॑त। ह॒र्य॒तः। इन्द्र॑स्य। वज्रः॑। श्नथि॑ता। हि॒र॒ण्ययः॑। १५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोतमः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) फिर (विश्वम्) सब जगत् (हविष्मतः) दानयोग्य पदार्थोंवाले (ते) तेरे (सवना अनु) ऐश्वर्यों के पीछे (इष्टये) अभीष्ट सिद्धि के लिये (ह) निश्चय करके (असत्) होवे, (आपः) जल (निम्नाइव) जैसे नीचे स्थानों के [पीछे बह चलते हैं]। (यत्) जब (इन्द्रस्य) इन्द्र [अत्यन्त ऐश्वर्यवाले सभाध्यक्ष] का (हर्यतः) कमनीय, (श्नथिता) चूर-चूर करनेवाला, (हिरण्ययः) तेजोमय (वज्रः) वज्र [हथियारों का झुण्ड] (पर्वते न) जैसे पहाड़ पर, (सम्-अशीत) वर्तमान हुआ है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे जल ऊँचे स्थान से नीचे स्थान में फैलकर संसार का उपकार करता है, वैसे ही राजा धन का संग्रह करके प्रजापालन करे, और शत्रुओं के मारने में ऐसा दृढ़ उपाय करे, जैसे पहाड़ काटने के लिये दृढ़ हथियार आवश्यक होते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(अध) अथ। अनन्तरम् (विश्वम्) सर्वं जगत् (अनु) अनुसृत्य (ह) निश्चयेन (असत्) भवेत् (इष्टये) अभीष्टसिद्धये (आपः) जलानि (निम्ना) निम्नानि स्थलानि अनुसृत्य (इव) यथा (सवना) ऐश्वर्याणि (हविष्मतः) हवींषि दानयोग्यानि वस्तूनि यस्य (यत्) यदा (पर्वते) शैले (न) यथा (समशीत) शीङ् स्वप्ने-लङ्। गुणाभावः। अशेत। सम्यग् वर्तमानोऽभूत् (हर्यतः) कर्मनीयः (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः सभाध्यक्षस्य (वज्रः) आयुधसमूहः (श्नथिता) श्नथ हिंसायाम्-तृन्, नित्वादाद्युदात्तः। हिंसिता। संपेष्टा (हिरण्ययः) तेजोमयः ॥

०३ अस्मै भीमाय

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अ॒स्मै भी॒माय॒ नम॑सा॒ सम॑ध्व॒र उषो॒ न शु॑भ्र॒ आ भ॑रा॒ पनी॑यसे।
यस्य॒ धाम॒ श्रव॑से॒ नामे॑न्द्रि॒यं ज्योति॒रका॑रि ह॒रितो॒ नाय॑से ॥

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Griffith

To him the terrible, most worthy of high praise, like radiant Dawn, bring gifts with reverence in this rite, Whose being, for renown, yea, Indra-power and light, have been created, like bay steeds, to move with speed.

पदपाठः

अ॒स्मै। भी॒माय॑। नम॑सा। सम्। अ॒ध्व॒रे। उषः॑। न। शु॒भ्रे॒। आ। भ॒र॒। पनी॑यसे। यस्य॑। धाम॑। अव॑से। नाम॑। इ॒न्द्रि॒यम्। ज्योतिः॑। अका॑रि। ह॒रितः॑। न। अय॑से। १५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोतमः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शुभ्रे) हे चमकीली (उषः) उषा ! [प्रभात वेला के समान सुखदायक पुरुष] (न) अव (अस्मै) इस (भीमाय) भीम [भयङ्कर], (पनीयसे) अत्यन्त व्यवहारकुशल [सभाध्यक्ष] के लिये (अध्वरे) हिंसारहित कर्म में (नमसा) सत्कार के साथ (सम्) अच्छे प्रकार (आ भर) भरपूर हो। (यस्य) जिस [सभाध्यक्ष] का (धाम) धाम [न्यायालय आदि स्थान], (नाम) नाम [यश], (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य और (ज्योतिः) प्रताप (श्रवसे) अन्न के लिये (अकारि) बनाया गया है, (हरितः न) जैसे दिशाएँ (अयसे) चलने के लिये [बनी] हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे प्रातःकाल में अन्धकार के नाश से आनन्द होता है, वैसे ही मनुष्य योग्य सभाध्यक्ष के सत्कार करने में सुखी होवें, और वह भी अपना सर्वस्व प्रजा को सुख देने में सब ओर लगावे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(अस्मै) प्रसिद्धाय (भीमाय) भयङ्कराय (नमसा) सत्कारेण (सम्) सम्यक् (अध्वरे) हिंसारहिते कर्मणि (उषः) पादादित्वाद् निघाताभावः। हे प्रभातवेले (न) सम्प्रति-निरु० ७।३१ (शुभ्रे) स्फायितञ्चि०”। उ० २।१३। शुभ दीप्तौ-रक् टाप्। हे दीप्यमाने (आ) समन्तात् (भर) धृतः पूरितो भव (पनीयसे) पन व्यवहारे स्तुतौ च-तृच्, ईयसुन्, तृलोपः। अत्यन्तव्यवहारकुशलाय सभाध्यक्षाय (यस्य) सभाध्यक्षस्य (धाम) न्यायालयादिस्थानम् (श्रवसे) अन्नलाभाय (नाम) यशः (इन्द्रियम्) इन्द्रियं धननाम-निघ० २।१०। इन्द्रलिङ्गम्। ऐश्वर्यम् (ज्योतिः) प्रतापः (अकारि) कृतम् (हरितः) हरितो दिङ्नाम-निघ० १।९। दिशः (न) इव (अयसे) अय गतौ-असुन्। गमनाय ॥

०४ इमे त

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इ॒मे त॑ इन्द्र॒ ते व॒यं पु॑रुष्टुत॒ ये त्वा॒रभ्य॒ चरा॑मसि प्रभूवसो।
न॒हि त्वद॒न्यो गि॑र्वणो॒ गिरः॒ सघ॑त्क्षो॒णीरि॑व॒ प्रति॑ नो हर्य॒ तद्वचः॑ ॥

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Griffith

Thine, Indra, praised by many excellently rich! are we who trusting in thy help draw near to thee. Lover of praise, none else but thou receives our laud: as Earth loves all her creatures, love thou this our hymn.

पदपाठः

इ॒मे। ते॒। इ॒न्द्र॒। ते। व॒यम्। पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒। ये। त्वा॒। आ॒रभ्य॑। चरा॑मसि। प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो। न॒हि। त्वत्। अ॒न्यः। गि॒र्व॒णः॒। गिरः॑। सघ॑त्। क्षो॒णीःऽइ॑व। प्रति॑। नः॒। ह॒र्य॒। तत्। वचः॑। १५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोतमः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे बहुत स्तुति किये गये ! (प्रभुवसो) हे अधिक धनवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (इमे) यह लोग और (ते) वे लोग (वयम्) हम सब (ते) तेरे हैं, (ये) जो हम (त्वा आरभ्य) तेरा सहारा लेकर (चरामसि) विचरते हैं। (गिर्वणः) हे स्तुतियों से सेवनयोग्य ! (त्वत्) तुझसे (अन्यः) दूसरा पुरुष (गिरः) [हमारी] वाणियों को (नहि) नहीं (सधत्) सह सकता, (क्षोणी इव) पृथिवियों के समान तू (नः) हमारे (तत्) उस (वचः) वचन में (प्रति) निश्चय करके (हर्य) प्रीति कर ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों के बीच अद्वितीय पराक्रमी धर्मज्ञ राजा निकटवर्ती और दूरवर्ती प्रजा की पुकार सुनकर रक्षा करे, जैसे पृथिवी सब उत्पन्न मात्र की रक्षा करती है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र सामवेद में भी है-पू० ४।९।३ ॥ ४−(इमे) समीपवर्तिनः (ते) तव (इन्द्रः) हे महाप्रतापिन् राजन् (ते) दूरवर्तिनः पुरुषाः (वयम्) सर्वे (पुरुष्टुत) हे बहुप्रकारं स्तुत (ये) (त्वा) त्वाम् (आरभ्य) आश्रित्य (चरामसि) विचरामः (प्रभूवसो) हे प्रभूतधन (नहि) निषेधे (त्वत्) तव सकाशात् (अन्यः) मित्रपुरुषः (गिर्वणः) गॄ शब्दे-क्विप्+सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। वन संभक्तौ-असुन्। गिर्वणा देवो भवति गीर्भिरेनं वनयन्ति-निरु० ६।१४। हे गीर्भिः स्तुतिभिर्वननीय सेवनीय (गिरः) वाणीः (सघत्) सहेर्लेटि, अडागमः, हस्य घः। सहेत। स्वीकुर्यात् (क्षोणीः) पृथिव्यः (इव) यथा (प्रति) निश्चयेन (नः) अस्माकम् (हर्य) कामयस्व (तत्) (वचः) वचनम् ॥

०५ भूरि त

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भूरि॑ त इन्द्र वी॒र्य१॒॑ तव॑ स्मस्य॒स्य स्तो॒तुर्म॑घव॒न्काम॒मा पृ॑ण।
अनु॑ ते॒ द्यौर्बृ॑ह॒ती वी॒र्यं᳡ मम इ॒यं च॑ ते पृथि॒वी ने॑म॒ ओज॑से ॥

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Griffith

Great is thy power, O Indra, we are thine. Fulfil, O Maghavan, the wish of this thy worshipper. After thee lofty heaven hath measured out its strength to thee and to thy power this earth hath bowed itself.

पदपाठः

भूरि॑। ते॒। इ॒न्द्र॒। वी॒र्य॑म्। तव॑। स्म॒सि॒। अ॒स्य॒। स्तो॒तुः। म॒घ॒ऽव॒न्। काम॑म्। आ। पृ॒ण॒। अनु॑। ते॒। द्यौः। बृ॒ह॒ती। वी॒र्य॑म्। म॒मे॒। इ॒यम्। च॒। ते॒। पृ॒थ‍ि॒वी। मे॒मे॒। ओज॑से। १५.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोतमः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (ते) तेरा (वीर्यम्) पराक्रम (भूरि) बहुत है, हम (ते) तेरे [प्रजा] (स्मसि) हैं, (मघवन्) हे महाधनी ! (अस्य) इस (स्तोतुः) स्तुति करनेवाले की (कामम्) कामना को (आ) सब ओर से (पृण) तृप्त कर। (ते) तेरे (वीर्यम् अनु) पराक्रम के पीछे (बृहती) बड़ा (द्यौः) आकाश (ममे) नापा गया है, (च) और (ते) तेरे (ओजसे) बल के लिये (इयम्) यह (पृथिवी) पृथिवी (नेमे) झुकी है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो विज्ञानी राजा प्रजा को प्रसन्न रखकर विद्वानों का उचित सत्कार करता है, वह वायु विमान आदि से आकाश को, तथा स्थल और जलयान आदि से पृथिवी को वश में करके राज्य की उन्नति करता है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(भूरि) बहु (ते) तव (इन्द्र) हे प्रतापिन् राजन् (वीर्यम्) पराक्रमः (ते) तव (स्मसि) वयं प्रजाः स्मः (अस्य) (स्तोतुः) गुणप्रकाशकस्य (मघवन्) हे बहुधन (कामम्) अभिलाषम् (पृण) पृण प्रीणने। तर्पय (अनु) अनुसृत्य (ते) तव (द्यौः) आकाशः (बृहती) महती (वीर्यम्) पराक्रमम् (ममे) माङ् माने शब्दे च-लिट्। परिमिता बभूव (इयम्) दृश्यमाना (च) (ते) तव (पृथिवी) भूमिः (नेमे) णम प्रह्वत्वे-लिट्। प्रह्वी नम्रा बभूव (ओजसे) बलाय ॥

०६ त्वं तमिन्द्र

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त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं म॒हामु॒रुं वज्रे॑ण वज्रिन्पर्व॒शश्च॑कर्तिथ।
अवा॑सृजो॒ निवृ॑ताः॒ सर्त॒वा अ॒पः स॒त्रा विश्वं॑ दधिषे॒ केव॑लं॒ सहः॑ ॥

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Griffith

Thou, who hast thunder for thy weapon, with thy bolt hast shattered into pieces this broad massive cloud. Thou hast sent down obstructed floods that they may flow: thou hast, thine own for ever, all victorious might.

पदपाठः

त्वम्। तम्। इ॒न्द्र॒। पर्व॑तम्। म॒हान्। उ॒रुम्। वज्रे॑ण। व॒ज्र‍ि॒न्। प॒र्व॒ऽशः। च॒क॒र्ति॒थ॒। अव॑। अ॒सृ॒जः॒। निऽवृ॑ताः। सर्त॒वै। अ॒पः। स॒त्रा। विश्व॑म्। द॒धि॒षे॒। केव॑लम्। सहः॑। १५.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • गोतमः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिन्) हे वज्रधारी (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (त्वम्) तूने (तम्) उस (महाम्) बड़े, (उरुम्) चौड़े (पर्वतम्) पहाड़ के (वज्रेण) वज्र [हथियारों के झुण्ड] से (पर्वशः) टुकड़े-टुकड़े करके (चकर्तिथ) काट डाला है। और (निवृतः) रोके हुए (अपः) जलों को (सर्तवै) बहने के लिये (अव असृजः) छोड़ दिया है, (सत्रा) सत्य रूप से (विश्वम्) सम्पूर्ण, (केवलम्) असाधारण (सहः) बल को (दधिषे) तूने धारण किया है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो वीर पराक्रमी राजा पहाड़ों को काटकर वहाँ पर एकत्र हुए जल को पृथिवी पर लाकर खेती आदि में उपयुक्त करे, वह संसार के बीच कीर्तिमान् होवे ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(त्वम्) (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (पर्वतम्) शैलम् (महाम्) नकारतकारयोर्लोपः। महान्तम् (उरुम्) विस्तीर्णम् (वज्रेण) आयुधसमूहेन (वज्रिन्) हे शस्त्रास्त्रधारिन् (पर्वशः) खण्डशः (चकर्तिथ) कृती छेदने-लिट्। छिन्नवानसि (अवासृजः) मुक्तवानसि (निवृताः) निवारिताः। निरुद्धाः (सर्तवै) सरतेः कृत्यार्थे तवैप्रत्ययः। सरणाय। वहनाय (अपः) जलानि (सत्रा) सत्यरूपेण (विश्वम्) सर्वम् (दधिषे) धारितवानसि (केवलम्) असाधारणम् (सहः) बलम् ॥