०१४

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VH anukramaṇī

१-४ सोभरिः। इन्द्रः। प्रगाथः (विषमा ककुम्+समा सतोबृहती)

Griffith

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०१ वयमु त्वामपूर्व्य

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व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द्भर॑न्तोऽव॒स्यवः॑।
वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥

०१ वयमु त्वामपूर्व्य ...{Loading}...

Griffith

We call on thee, O peerless One. We, seeking help, possessing nothing firm ourselves, Call on thee wonderful in fight.

पदपाठः

व॒यम्। ऊं॒ इति॑। त्वाम्। अ॒पू॒र्व्य॒। स्थू॒रम्। न। कत्। चि॒त्। भर॑न्तः। अ॒व॒स्यवः॑। वाजे॑। चि॒त्रम्। ह॒वा॒म॒हे॒। १४.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सौभरिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अपूर्व्य) हे अनुपम ! [राजन्] (कत् चित्) कुछ भी (स्थूरम्) स्थिर (न) नहीं (भरन्तः) रक्खे हुए, (अवस्यवः) रक्षा चाहनेवाले (वयम्) हम (वाजे) संग्राम के बीच (चित्रम्) विचित्र स्वभाववाले (त्वाम्) तुझको (उ) ही (हवामहे) बुलाते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब दुष्ट चोर डाकू लोग अत्यन्त सतावें, प्रजागण वीर राजा की शरण लेकर रक्षा करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १, २ ऋग्वेद में है-८।२१।१, २। मन्त्र १ सामवेद में है-पू० ।२।१० तथा मन्त्र १, २ उ० १।१।२२ और मन्त्र १-४ आगे हैं-अथ० २०।६२।१-४ ॥ १−(वयम्) प्रजाः (उ) अवधारणे (त्वाम्) (अपूर्व्य) स्वार्थे यत्। नास्ति पूर्वः श्रेष्ठो यस्मात्, सः, अपूर्वः, अपूर्व्यः। हे अनुपम (स्थूरम्) स्थः किच्च। उ० ।४। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-ऊरन्, क्ति। स्थिरम् (न) निषेधे (कच्चित्) किमपि (भरन्तः) धरन्तः (अवस्यवः) अवस-क्यच्, उ। रक्षाकामाः (वाजे) संग्रामे-निघ० २।१७ (चित्रम्) अद्भुतस्वभावम् (हवामहे) आह्वयामः ॥

०२ उप त्वा

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उप॑ त्वा॒ कर्म॑न्नू॒तये॒ स नो॒ युवो॒ग्रश्च॑क्राम॒ यो धृ॒षत्।
त्वामिद्ध्य॑वि॒तारं॑ ववृ॒महे॒ सखा॑य इन्द्र सान॒सिम् ॥

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Griffith

On thee for aid in sacrifice. This youth of ours, the bold, the mighty, hath gone forth. We, therefore, we thy friends, Indra, have chosen thee, free- giver, as our guardian God.

पदपाठः

उप॑। त्वा॒। कर्म॑न्। ऊ॒तये॑। सः। नः॒। युवा॑। उ॒ग्रः। च॒क्रा॒मः॒। यः। धृ॒षत्। त्वाम्। इत्। हि। अ॒वि॒तार॑म्। व॒वृ॒महे॑। सखा॑यः। इ॒न्द्र॒। सा॒न॒सिम्। १४.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सौभरिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (कर्मन्) कर्म के बीच (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा के लिये (सः) उस (यः) जिस (युवा) स्वभाव से बलवान्, (उग्रः) तेजस्वी और (धृषत्) निर्भय पुरुष ने (चक्राम) पैर बढ़ाया है, (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (अवितारम्) उस रक्षक और (सानसिम्) दानी (त्वा) तुझको, (त्वाम्) तुझको (हि) ही (इत्) अवश्य (सखायः) हम मित्र लोग (उप) आदर से (ववृमहे) चुनते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पुरुष प्रजारक्षण में बड़ा पराक्रमी हो, प्रजागण सब लोगों में से उसीको राजा बनावें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(उप) आदरेण (त्वा) त्वाम् (कर्मन्) कर्मणि। व्यवहारे (ऊतये) रक्षायै (सः) (नः) अस्माकम् (युवा) निसर्गबलवान् (उग्रः) प्रचण्डः (चक्राम) क्रमु पादविक्षेपे-लिट्। अग्रे जगाम (यः) (धृषत्) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८। ञिधृषा प्रागल्भ्ये-अतिप्रत्ययः। प्रगल्भः। निर्भयः (त्वाम्) (इत्) एव (हि) (अवितारम्) रक्षकम् (ववृमहे) वृणीमहे। स्वीकुर्मः (सखायः)। मित्रभूता वयम् (इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवन् (सानसिम्) सानसिवर्णसिपर्णसि०। उ० ४।१०७। षणु दाने-असि, उपधावृद्धिः। दातारम् ॥

०३ यो न

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यो न॑ इ॒दमि॑दं पु॒रा प्र वस्य॑ आनि॒नाय॒ तमु॑ व स्तुषे।
सखा॑य॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ ॥

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Griffith

Him who of old hath brought to us this and that blessing, him I magnify for you, Even Indra, O my friends, for help:

पदपाठः

यः। नः॒। इ॒दम्ऽइ॑दम्। पु॒रा। प्र। वस्यः॑। आ॒ऽनि॒नाय॑। तम्। ऊं॒ इति॑। वः॒। स्तु॒षे॒। सखा॑यः। इ॒न्द्र॑म्। ऊ॒तये॑। १४.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सौभरिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [पराक्रमी] (नः) हमारे लिये (इदमिदम्) इस-इस (वस्यः) उत्तम वस्तु को (पुरा) पहिले (प्र) अच्छे प्रकार (आनिनाय) लाया है, (तम् उ) उस ही (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी वीर] को, (सखायः) हे मित्रो ! (वः) तुम्हारी (ऊतये) रक्षा के लिये (स्तुवे) मैं सराहता हूँ ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पुरुष पहिले से ही धीर-वीर होवे, लोग उसकी बड़ाई करके गुण ग्रहण करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में है-८।२१।९, १०। मन्त्र ३ सामवेद में है-उ० ।२।२ ॥ ३−(यः) पराक्रमी (नः) अस्मभ्यम् (इदमिदम्) बहुनिर्दिष्टम् (पुरा) अग्रे (प्र) प्रकर्षेण (वस्यः) वसु-ईयसुन्, ईकारलोपः। वसीयः प्रशस्तं वस्तु (आनिनाय) आनीतवान् (तम्) (उ) अवधारणे (वः) युष्माकम् (स्तुषे) लडर्थे लेडुत्तमैकवचने। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। स्तुवे। स्तौमि (सखायः) हे सुहृदः (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं वीरम् (ऊतये) रक्षायै ॥

०४ हर्यश्वं सत्पतिम्

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हर्य॑श्वं॒ सत्प॑तिं चर्षणी॒सहं॒ स हि ष्मा॒ यो अम॑न्दत।
आ तु॑ नः॒ स व॑यति॒ गव्य॒मश्व्यं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ श॒तम् ॥

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Griffith

Borne by bay steeds, the Lord of heroes, ruling men, for it is he who takes delight. The Bounteous Lord bestows on us his worshippers hundreds of cattle and of steeds.

पदपाठः

हरि॑ऽअश्वम्। सत्ऽप॑तिम्। च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म्। सः। हि। स्म॒। यः। अम॑न्दत। आ। तु। नः॒। सः। व॒य॒ति॒। गव्य॑ति। गव्य॑म्। अश्व्य॑म्। स्तो॒तृऽभ्यः॑। म॒घऽवा॑। श॒तम्। १४.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सौभरिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह (हि) ही (स्म) अवश्य [मनुष्य है] (यः) जिसने (हर्यश्वम्) ले चलनेवाले घोड़ों से युक्त, (सत्पतिम्) सत्पुरुषों के रक्षक, (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को नियम में रखनेवाले [राजा] को (अमन्दत) प्रसन्न किया है। (सः) वह (मघवा) महाधनी (तु) तो (नः) हम (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों को (शतम्) सौ [बहुत] (गव्यम्) गौओं का समूह और (अश्व्यम्) घोड़ों का समूह (आ वयति) लाता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब प्रजागण आज्ञा मानकर शूर धर्मात्मा राजा को प्रसन्न रक्खें, जिससे वह उत्तम प्रबन्ध के साथ प्रजा का ऐश्वर्य बढ़ावे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(हर्यश्वम्) हरयो हरणशीला अश्वा यस्य तम्। शीघ्रगामितुरङ्गवन्तम् (सत्पतिम्) सतां कर्मश्रेष्ठानां पालकम् (चर्षणीसहम्) चर्षणीनां मनुष्याणां सोढारम् अभिभवितारं नियन्तारम् (सः) हि (स्म) अवश्यम् (यः) पुरुषः (अमन्दत) मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-लङ्। आमोदितवान्। तर्पितवान् (आ वयति) वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु-लट्, छान्दसः शप्। आगमयति। प्रापयति (तु) अवधारणे। नियोगे (नः) अस्मभ्यम् (सः) (गव्यम्) गोसमूहम् (अश्व्यम्) अश्वसमूहम् (स्तोतृभ्यः) (मघवा) महाधनी (शतम्) बहु ॥