००६

००६ ...{Loading}...

VH anukramaṇī

१-९ विश्वामित्रः। इन्द्रः। गायत्री।

Griffith

???

०१ इन्द्र त्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्र॑ त्वा वृष॒भं व॒यं सु॒ते सोमे॑ हवामहे।
स पा॑हि॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः ॥

०१ इन्द्र त्वा ...{Loading}...

Griffith

Thee, Indra, we invoke, the Bull, what time the Soma is ex- pressed. So drink thou of the savoury juice.

पदपाठः

इन्द्र॑। त्वा॒। वृ॒ष॒भम्। व॒यम्। सु॒ते। सोमे॑। ह॒वा॒म॒हे॒। सः। पा॒हि॒। मध्वः॑। अन्ध॑सः। ६.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • विश्वामित्रः
  • गायत्री
  • सूक्त-६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) हे इन्द्रः [अत्यन्त ऐश्वर्यवाले राजन्] (वृषभम्) बलिष्ठ (त्वा) तुझको (सुते) सिद्ध किये हुए (सोमे) सोम [ऐश्वर्य वा ओषधियों के समूह] में (वयम्) हम (हवामहे) बुलाते हैं। (सः) सो तू (मध्वः) मधुरगुण से युक्त (अन्धसः) अन्न की (पाहि) रक्षा कर ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रजाजन सत्कार के साथ ऐश्वर्य देकर धर्मात्मा राजा से अपनी रक्षा करावें, जैसे सद्वैद्य उत्तम ओषधियों से रोगी को अच्छा करता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र आचुका है-अ० २०।१।१। यह सूक्त ऋग्वेद में है-३।४०।१-९ ॥ १−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० २०।१।१ ॥

०२ इन्द्र क्रतुविदम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्र॑ क्रतु॒विदं॑ सु॒तं सोमं॑ हर्य पुरुष्टुत।
पिबा वृ॑षस्व॒ तातृ॑पिम् ॥

०२ इन्द्र क्रतुविदम् ...{Loading}...

Griffith

Indra, whom many laud, accept the strength-confering Soma juice. Quaff, pour down drink that satisfies.

पदपाठः

इन्द्र॑। क्र॒तु॒ऽविद॑म्। सु॒तम्। सोम॑म्। ह॒र्य॒। पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒। पिब॑। आ। वृ॒ष॒स्व॒। ततृ॑पिम्। ६.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • विश्वामित्रः
  • गायत्री
  • सूक्त-६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे बहुतों से बड़ाई किये गये (इन्द्रः) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (क्रतुविदम्) बुद्धि के प्राप्त करानेवाले, (तातृपिम्) तृप्त करनेवाले, (सुतम्) सिद्ध किये हुए (सोमम्) सोम [महौषधियों के रस] की (हर्य) इच्छा कर, (पिब) पी (आ) और (वृषस्व) बलवान् हो ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा बल और बुद्धि बढ़ानेवाले खान-पान के भोजन से तृप्त होकर स्वस्थ रहे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्र आगे है-अ० २०।७।४ ॥ २−(इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (क्रतुविदम्) प्रज्ञाप्रापकम् (सुतम्) संस्कृतम् (सोमम्) महौषधिरसम् (हर्य) कामयस्व (पुरुष्टुत) हे बहुभिः प्रशंसित (पिब) (आ) समुच्चये (वृषस्व) बलिष्ठो भव (तातृपिम्) किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। वा० पा० ३।२।१७१। तृप प्रीणने-किन्, सांहितिको दीर्घः। तर्पकम्। प्रीणयितारम् ॥

०३ इन्द्र प्र

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्र॒ प्र णो॑ धि॒तावा॑नं य॒ज्ञं विश्वे॑भिर्दे॒वेभिः॑।
ति॒र स्त॑वान विश्पते ॥

०३ इन्द्र प्र ...{Loading}...

Griffith

Indra, with all the Gods promote our wealth-bestowing sacrifice, Thou highly-lauded Lord of men.

पदपाठः

इन्द्र॑। प्र। नः॒। धि॒तऽवा॑नम्। य॒ज्ञम्। विश्वे॑भिः। दे॒वेभिः॑। ति॒र। स्त॒वा॒न॒। वि॒श्प॒ते॒। ६.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • विश्वामित्रः
  • गायत्री
  • सूक्त-६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तवान) हे बड़ाई किये गये ! (विश्पते) हे प्रजापालक ! (इन्द्रः) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (विश्वेभिः) सब (देवेभिः) विद्वानों के साथ (नः) हमारे लिये (धितवानम्) सेवनीय धन धारण करानेवाले (यज्ञम्) यज्ञ [विद्वानों के सत्कार, सत्सङ्ग और दान] को (प्र तिर) बढ़ा ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रजापालक राजा विद्वानों के साथ विद्या आदि श्रेष्ठ कर्मों की उन्नति करके प्रजा का ऐश्वर्य बढ़ावे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(इन्द्रः) (प्र तिर) वर्धय (नः) अस्मभ्यम् (धितवानम्) धि धृतौ-क्त+वन सेवने-घञ्। धितो धृतो वानः सेवनीयं धनं यस्मात् तम् (यज्ञम्) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारम् (विश्वेभिः) सर्वैः (देवेभिः) विद्वद्भिः (स्तवान) ष्टुञ् स्तुतौ-शानच्, छान्दसं रूपम्, कर्मणि कर्तृप्रत्ययः। हे स्तूयमान (विश्पते) हे प्रजापालक ॥

०४ इन्द्र सोमाः

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इन्द्र॒ सोमाः॑ सु॒ता इ॒मे तव॒ प्र य॑न्ति सत्पते।
क्षयं॑ च॒न्द्रास॒ इन्द॑वः ॥

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Griffith

Lord of the brave, to thee proceed these drops of Soma juice expressed, The bright drops to thy dwelling-place.

पदपाठः

इन्द्र॑। सोमाः॑। सु॒ताः। इ॒मे। तव॑। प्र। य॒न्ति॒। स॒त्ऽप॒ते॒। क्षय॑म्। च॒न्द्रासः॑। इन्द॑वः। ६.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
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  • सूक्त-६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सत्पते) हे सत्पुरुषों के पालन करनेवाले (इन्द्रः) इन्द्र ! [सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाले राजन्] (इमे) यह (चन्द्रासः) आनन्दकारक, (इन्दवः) गीले [रसीले], (सुताः) सिद्ध किये हुए (सोमाः) सोम [महौषधियों के रस] (तव) तेरे (क्षयम्) रहने के स्थान को (प्रयन्ति) पहुँचते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा विद्वानों द्वारा उत्तम उपयोगी पदार्थों का संग्रह करके प्रजा को पाले ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(इन्द्रः) (सोमाः) महौषधिरसाः (सुताः) संस्कृताः (इमे) (तव) (प्र) प्रकर्षेण (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (सत्पते) सतां सत्पुरुषाणां पालक (क्षयम्) निवासस्थानम् (चन्द्रासः) चदि आह्लादने दीप्तौ च-रक्, असुगागमः। आह्लादकाः (इन्दवः) उन्देरिच्चादेः। उ० १।१२। उन्दी क्लेदने-उण्, उकारस्य इकारः। क्लिन्नाः। सजलाः। रसात्मकाः ॥

०५ दधिष्वा जठरे

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द॑धि॒ष्वा ज॒ठरे॑ सु॒तं सोम॑मिन्द्र॒ वरे॑ण्यम्।
तव॑ द्यु॒क्षास॒ इन्द॑वः ॥

०५ दधिष्वा जठरे ...{Loading}...

Griffith

Within thy belly, Indra take Soma the juice most excellent: The heavenly drops belong to thee.

पदपाठः

द॒धि॒ष्व। ज॒ठरे॑। सु॒तम्। सोम॑म्। इ॒न्द्र॒। वरे॑ण्यम्। तव॑। द्यु॒क्षासः॑। इन्द॑वः। ६.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
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  • गायत्री
  • सूक्त-६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) हे इन्द्र [सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाले राजन्] (वरेण्यम्) अङ्गीकार करने योग्य (सुतम्) सिद्ध किये हुए (सोमम्) सोम [अन्न आदि महौषधियों के रस] को (जठरे) पेट में (दधिष्व) धर, (द्युक्षासः) व्यवहार में रहनेवाले (इन्दवः) रसीले पदार्थ (तव) तेरे [ही हैं] ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा आदि श्रेष्ठ जन उत्तम पदार्थों के सेवन से बल और बुद्धि बढ़ावें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(दधिष्व) दधातेर्लोट्, सांहितिको दीर्घः। धत्स्व। धरस्व (जठरे) उदरे (सुतम्) संस्कृतम् (सोमम्) अन्नादिमहौषधिरसम् (इन्द्रः) (वरेण्यम्) अ० ७।१४।४। वृञ् वरणे-एण्य। स्वीकरणीयम् (तव) तवैव (द्युक्षासः) दिव्+क्षि निवासगत्योः-डप्रत्ययः, असुगागमः। दिवि व्यवहारे निवासशीलाः (इन्दवः) म० ४। सजलाः। रसात्मकाः पदार्थाः ॥

०६ गिर्वणः पाहि

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गिर्व॑णः पा॒हि नः॑ सु॒तं मधो॒र्धारा॑भिरज्यसे।
इन्द्र॒ त्वादा॑त॒मिद्यशः॑ ॥

०६ गिर्वणः पाहि ...{Loading}...

Griffith

Drink our libation, Lord of hymns: with streams of meath thou art bedewed: Our glory, Indra, is thy gift.

पदपाठः

गिर्व॑णः। पा॒हि। नः॒। सु॒तम्। मधोः॑। धारा॑भिः। अ॒ज्य॒से॒। इन्द्र॑। त्वाऽदा॑तम्। इत्। यशः॑। ६.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (गिर्वणः) हे वाणियों से सेवनयोग्य ! (नः) हमारे (सुतम्) ऐश्वर्य की (पाहि) रक्षा कर, (मधोः) मधुर रस की (धाराभिः) धाराओं करके (अज्यसे) तू प्राप्त किया जाता है। (इन्द्रः) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वादातम्) तेरा दिया हुआ [वा शोधा हुआ] (इत्) ही (यशः) [हमारा] यश है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रजागण धर्मात्मा राजा का यथायोग्य धनादि से सत्कार करके अपना ऐश्वर्य और यश बढ़ावें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र सामवेद में भी है-पू० ३।१।२ ॥ ६−(गिर्वणः) गॄ शब्दे-क्विप्+वन संभक्तौ-असुन्। गिर्वणा देवो भवति गीर्भिरेनं वनयन्ति-निरु० ६।१४। हे गीर्भिर्वाणीभिः सेवनीय (पाहि) रक्ष (नः) अस्माकम् (सुतम्) षु ऐश्वर्ये-क्त। ऐश्वर्यम् (मधोः) मधुररसस्य (धाराभिः) प्रवाहैः (अज्यसे) प्राप्यसे (इन्द्रः) (त्वादातम्) त्वा+ददातेः क्त, छान्दसं रूपम्, यद्वा दैप् शोधने-क्त। त्वादातम्=त्वया दातव्यम्-निरु० ४।४। त्वया दत्तं शोधितं विशदीकृतं वा (इत्) एव (यशः) अस्माकं कीर्तिः ॥

०७ अभि द्युम्नानि

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अ॒भि द्यु॒म्नानि॑ व॒निन॒ इन्द्रं॑ सचन्ते॒ अक्षि॑ता।
पी॒त्वी सोम॑स्य वावृधे ॥

०७ अभि द्युम्नानि ...{Loading}...

Griffith

To Indra go the treasures of the worshipper which never fail: He drinks the Soma and is strong.

पदपाठः

अ॒भि। द्यु॒म्नानि॑। व॒निनः॑। इ॒न्द्र॑म्। स॒च॒न्ते॒। अक्षि॑ता। पी॒त्वी॒। सोम॑स्य। व॒वृ॒धे॒। ६.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • विश्वामित्रः
  • गायत्री
  • सूक्त-६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वनिनः) सेवक लोग (अक्षिता) न घटनेवाले (द्युम्नानि) धनों [वा यशों] को (अभि=अभिलक्ष्य) देखकर (इन्द्रम्) [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] से (सचन्ते) मिलते हैं। वह (सोमस्य) सोम [अन्न आदि महौषधियों का रस] (पीत्वी) पीकर (वावृधे) बढ़ा है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पराक्रमी धर्मात्मा राजा अक्षय धन और कीर्ति प्राप्त करता है, प्रजागण उससे प्रीति करते हैं ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(अभि) अभिलक्ष्य (द्युम्नानि) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। द्यु दीप्तौ-नप्रत्ययः, तकारस्य मकारः। द्युम्नं धननाम-निघ० २।१०। द्युम्नं द्योततेर्यशो वान्नं वा-निरु० ।। धनानि। यशांसि (वनिनः) वन संभक्तौ-अच्। अत इनिठनौ। पा० ।–२।११। वन-इनि। संभजमानाः। सेवकाः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (सचन्ते) षच समवाये। संगच्छन्ते (अक्षिता) अक्षीणानि (पीत्वी) स्वात्व्यादयश्च। पा० ७।१।४९। इति त्वीभावः। पीत्वा। पानं कृत्वा (सोमस्य) अन्नादिमहौषधिरसस्य (वावृधे) प्रवृद्धो बभूव ॥

०८ अर्वावतो न

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अ॑र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॑हि परा॒वत॑श्च वृत्रहन्।
इ॒मा जु॑षस्व नो॒ गिरः॑ ॥

०८ अर्वावतो न ...{Loading}...

Griffith

From far away, from near at hand, O Vritra-slayer, come to us: Accept the songs we sing to thee.

पदपाठः

अ॒र्वा॒ऽवतः॑। नः॒। आ। ग॒हि॒। प॒रा॒ऽवतः॑। च॒। वृ॒त्र॒ऽह॒न्। इ॒माः। जु॒ष॒स्व॒। नः॒। ग‍िरः॑। ६.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्) हे धन के पानेवाले ! (अर्वावतः) समीप देश से (च) और (परावतः) दूर देश से (नः) हममें (आ गहि) आ। और (नः) हमारी (इमाः) इन (गिरः) वाणियों का (जुषस्व) सेवन कर ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा धनवान् होकर समीप और दूर से प्रजा की पुकार सुनकर सदा रक्षा करे ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: इस मन्त्र का पूर्वार्ध कुछ भेद से आगे है-अ० २०।२०।४ और ७।८ ॥ ८−(अर्वावतः) अर्वाचीनात्। समीपदेशात् (नः) अस्मान् (आ गहि) आगच्छ (परावतः) दूरदेशात् (च) समुच्चये (वृत्रहन्) वृत्रं धननाम-निघ० २।१०। हन हिंसागत्योः-क्विप्। यो वृत्रं धनं हन्ति प्राप्नोति स वृत्रहा तत्सम्बुद्धौ (इमाः) उच्चार्यमाणाः (जुषस्व) सेवस्व (नः) अस्माकम् (गिरः) वाचः ॥

०९ यदन्तरा परावतमर्वावतम्

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यद॑न्त॒रा प॑रा॒वत॑मर्वा॒वतं॑ च हू॒यसे॑।
इन्द्रे॒ह तत॒ आ ग॑हि ॥

०९ यदन्तरा परावतमर्वावतम् ...{Loading}...

Griffith

यद॑न्त॒रा प॑रा॒वत॑मर्वा॒वतं॑ च हू॒यसे॑ । इन्द्रे॒ह तत॒ आ ग॑हि ॥९॥

पदपाठः

यत्। अ॒न्त॒रा। प॒रा॒ऽवत॑म्। अ॒र्वा॒ऽवत॑म्। च॒। हू॒यसे॑। इन्द्र॑। इ॒ह। ततः॑। आ। ग॒हि॒। ६.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • विश्वामित्रः
  • गायत्री
  • सूक्त-६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यत्) जबकि (परावतम्) दूर देश (च) और (अर्वावतम्) समीप देश के (अन्तरा) बीच में (हूयसे) तू पुकारा जाता है, (ततः) इसलिये (इह) यहाँ पर (आ गहि) तू आ ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो न्यायी राजा योग्य अधिकारियों द्वारा सब स्थान में प्रजा को पाले, सब लोग उससे प्रीति करें ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(यत्) यदा (अन्तरा) मध्ये। अन्तरान्तरेण युक्ते। पा० २।३।४। इति द्वितीया (परावतम्) दूरदेशम् (अर्वावतम्) समीपदेशम् (च) (हूयसे) आहूतो भवसि (इन्द्रः) (इह) अत्र (ततः) तस्मात् कारणात् (आ गहि) आगच्छ ॥