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VH anukramaṇī

१-३ इरिम्बिठिः। इन्द्रः। गायत्री।

Griffith

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०१ आ नो

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आ नो॑ याहि सु॒ताव॑तो॒ऽस्माकं॑ सुष्टु॒तीरुप॑।
पिबा॒ सु शि॑प्रि॒न्रन्ध॑सः ॥

०१ आ नो ...{Loading}...

Griffith

Come unto us who poured the juice, come hither to our eulogies. Drink of the juice, O fair of face.

पदपाठः

आ। नः॒। या॒हि॒। सु॒तऽव॑तः। अ॒स्माक॑म्। सु॒ऽस्तु॒तीः। उप॑। पिब॑। सु। शि॒प्रि॒न्। अन्ध॑सः। ४.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • इरिम्बिठिः
  • गायत्री
  • सूक्त-४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महौषधियों के रसपान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे इन्द्र राजन् !] (अस्माकम्) हमारी (सुष्टुतीः) सुन्दर स्तुतियों को (उप=उपेत्य) प्राप्त होकर (सुतावतः) उत्तम पुत्र आदि [सन्तानों] वाले (नः) हम लोगों को (आ याहि) आकर प्राप्त हो। (सुशिप्रिन्) हे दृढ़ जबड़ेवाले ! (अन्धसः) इस अन्न रस का (सु) भले प्रकार (पिब) पान कर ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य सुन्दर महौषधियों के रस के सेवन से हृष्ट-पुष्ट होवें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।१७।४-६ ॥ १−(आ) आगत्य (नः) अस्मान् (याहि) प्राप्नुहि (सुतावतः) उत्तमसन्तानयुक्तान् (अस्माकम्) (सुष्टुतीः) शोभनाः स्तुतीः (उप) उपेत्य (पिब) पानं कुरु (सु) सुष्ठु (शिप्रिन्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। शिञ् निशाने छेदने-रक्, पुक् च, यद्वा सृप्लृ गतौ-रक्, सृशब्दस्य शिभावः। शिप्रे हनूनासिके वा-निरु० ६।१७। हे दृढहनूयुक्त (अन्धसः) अन्नरसस्य ॥

०२ आ ते

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आ ते॑ सिञ्चामि कु॒क्ष्योरनु॒ गात्रा॒ वि धा॑वतु।
गृ॑भा॒य जि॒ह्वया॒ मधु॑ ॥

०२ आ ते ...{Loading}...

Griffith

I pour it down within thee, so through all thy members let it run. Take with thy tongue the pleasant drink.

पदपाठः

आ। ते॒। सि॒ञ्चा॒मि॒। कु॒क्ष्योः। अनु॑। गात्रा॑। वि। धा॒व॒तु॒। गृ॒भा॒य। जि॒ह्वया॑। मधु॑। ४.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • इरिम्बिठिः
  • गायत्री
  • सूक्त-४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महौषधियों के रसपान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (ते) तेरी (कुक्ष्योः) दोनों कोखों में (मधु) मधुर पान को (आ) भली-भाँति (सिञ्चामि) मैं सींचता हूँ, वह (गात्रा अनु) [तेरे] अङ्गों में (वि धावतु) दौड़ने लगे, [इसको] (जिह्वया) जीभ से (गृभाय) ग्रहण कर ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सद्वैद्य रुधिरसंचारक ओषधियों का सेवन कराके मनुष्यों को पुष्ट रक्खें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(आ) समन्तात् (ते) तव (सिञ्चामि) अवनयामि। पूरयामि (कुक्ष्योः) सव्यदक्षिणपार्श्वयोः (अनु) प्रति (गात्रा) अङ्गानि (वि) विविधम्। सर्वत्र (धावतु) प्रवहतु (गृभाय) श्नः शायजादेशः, हस्य भः। गृहाण (जिह्वया) रसनया (मधु) मधुरपानम् ॥

०३ स्वादुष्टे अस्तु

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स्वा॒दुष्टे॑ अस्तु सं॒सुदे॒ मधु॑मान्त॒न्वे॒३॒॑ तव॑।
सोमः॒ शम॑स्तु ते हृ॒दे ॥

०३ स्वादुष्टे अस्तु ...{Loading}...

Griffith

Sweet to thy body let it be, delicious be the savoury juice. Sweet be the Soma to thy heart.

पदपाठः

स्वा॒दुः। ते॒। अ॒स्तु॒। स॒म्ऽसुदे॑। मधु॑ऽमान्। त॒न्वे॑। तव॑। सोमः॑। शम्। अ॒स्तु॒। ते॒। हृदे। ४.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • इरिम्बिठिः
  • गायत्री
  • सूक्त-४
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महौषधियों के रसपान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (सोमः) सोम [उत्तम ओषधियों का रस] (ते) तेरे (संसुदे) स्वीकार करने के लिये (स्वादुः) स्वादु [रोचक] और (तव) तेरे (तन्वे) शरीर के लिये (मधुमान्) मधुर रसवाला (अस्तु) होवे और (ते) तेरे (हृदे) हृदय के लिये (शम्) शान्तिकारक (अस्तु) होवे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य ऐसी उत्तम ओषधियों का रससेवन करें जो खाने में स्वादिष्ट हों, शरीर को पुष्ट और हृदय को शान्त करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(स्वादुः) रोचकः (ते) तव (अस्तु) (संसुदे) षूद आश्रुतिहत्योः-क्विप्, छान्दसो ह्रस्वः, आश्रुतिरङ्गीकारः। सम्यक् स्वीकरणाय (मधुमान्) माधुर्योपेतः (तन्वे) शरीराय (तव) (सोमः) सदौषधिरसः (तन्वे) शरीराय (शम्) सुखकरः (अस्तु) (ते) तव (हृदे) हृदयाय ॥