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VH anukramaṇī

(१-३) १ विश्वामित्रः, २ गोतमः, ३ विरूपः। १ इन्द्रः, २ मरुतः, ३ अग्निः। गायत्री।

Griffith

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०१ इन्द्र त्वा

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इन्द्र॑ त्वा वृष॒भं व॒यं सु॒ते सोमे॑ हवामहे।
स पा॑हि॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः ॥

०१ इन्द्र त्वा ...{Loading}...

Griffith

Thee, Indra, we invoke, the Bull, what time the Soma hath been pressed. Drink of the sweetly-flavoured juice.

पदपाठः

इन्द्र॑। त्वा॒। वृ॒ष॒भम्। व॒यम्। सु॒ते। सोमे॑। ह॒वा॒म॒हे॒। सः। पा॒हि॒। मध्वः॑। अन्ध॑सः। १.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • विश्वामित्रः
  • गायत्री
  • सूक्त-१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [अत्यन्त ऐश्वर्यवाले राजन्] (वृषभम्) बलिष्ठ (त्वा) तुझको (सुते) सिद्ध किये हुए (सोमे) ऐश्वर्य वा ओषधियों के समूह में (वयम्) हम (हवामहे) बुलाते हैं। (सः) सो तू (मध्वः) मधुर गुण से युक्त (अन्धसः) अन्न की (पाहि) रक्षा कर ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रजाजन सत्कार के साथ ऐश्वर्य देकर धर्मात्मा राजा से अपनी रक्षा करावें, जैसे सद्वैद्य उत्तम ओषधियों से रोगी को अच्छा करता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-३।४०।१ और आगे है-अथ० २०। सूक्त ६। म० १ ॥ १−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (त्वा) त्वाम् (वृषभम्) बलिष्ठम् (वयम्) प्रजाजनाः (सुते) निष्पन्ने। सिद्धे (सोमे) ऐश्वर्ये ओषधिगणे वा (हवामहे) आह्वयामः (सः) स त्वम् (पाहि) रक्षां कुरु (मध्वः) मधुरगुणयुक्तस्य (अन्धसः) अन्नस्य-निघ० २।७ ॥

०२ मरुतो यस्य

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मरु॑तो॒ यस्य॒ हि क्षये॑ पा॒था दि॒वो वि॑महसः।
स सु॑गो॒पात॑मो॒ जनः॑ ॥

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Griffith

The best of guardian hath the man within whose dwelling-place ye drink, O Maruts, giants of the sky.

पदपाठः

मरु॑तः। यस्य॑। हि। क्षय॑। पा॒थ। दि॒वः। वि॒ऽम॒ह॒सः॒। सः। सु॒ऽगो॒पात॑मः। जनः॑। १.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मरुद्गणः
  • गौतमः
  • गायत्री
  • सूक्त-१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विमहसः) हे विविध पूजनीय (मरुतः) शूर विद्वानो ! (यस्य) जिस [राजा] के (क्षये) ऐश्वर्य में (दिवः) उत्तम व्यवहारों की (पाथ) तुम रक्षा करते हो, (सः हि) वही (सुगोपातमः) अच्छे प्रकार पृथिवी का अत्यन्त पालनेवाला (जनः) पुरुष है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् प्रजागण बुद्धिमान् राजा का सहाय करके परस्पर ऐश्वर्य बढ़ावें, जिससे वह सर्वथा प्रजा की रक्षा कर सके ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।८६।१ और यजु० ८।३१ ॥ २−(मरुतः) हे शूरविद्वांसः (यस्य) राज्ञः (हि) खलु (क्षये) क्षि निवासगत्योः, ऐश्वर्ये च-अच्। ऐश्वर्ये (पाथ) सांहितिको दीर्घः। रक्षथ (दिवः) दिव्यव्यवहारान् (विमहसः) हे विविधपूजनीयाः (सः) स राजा (सुगोपातमः) अतिशयेन सुष्ठु पृथिवीरक्षकः (जनः) पुरुषः ॥

०३ उक्षान्नाय वशान्नाय

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उ॒क्षान्ना॑य व॒शान्ना॑य॒ सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑।
स्तोमै॑र्विधेमा॒ग्नये॑ ॥

०३ उक्षान्नाय वशान्नाय ...{Loading}...

Griffith

Let us serve Agni with our hyms, Sage who consumeth ox and cow, Who beareth Soma on his back.

पदपाठः

उ॒क्षऽअ॑न्नाय। व॒शाऽअ॑न्नाय। सोम॑ऽपृष्ठाय। वे॒धसे॑। स्तोमैः॑। वि॒धे॒म॒। अ॒ग्नये॑। १.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • विरूपः
  • गायत्री
  • सूक्त-१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उक्षान्नाय) प्रबलों के अन्नदाता (वशान्नाय) वशीभूत [निर्बल प्रजाओं] के अन्नदाता, (सोमपृष्ठाय) ऐश्वर्य के सींचनेवाले (वेधसे) बुद्धिमान् (अग्नये) अग्नि [समान तेजस्वी राजा] की (स्तोमैः) स्तुतियोग्य कर्मों से (विधेम) हम पूजा करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस प्रकार राजा अपने पराक्रम और धर्म-नीति से प्रजा का उपकार करे, वैसे ही प्रजागण योग्य रीति से राजा की सेवा करते रहें ॥–३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-८।४३।११ और कुछ भेद से पहिले आचुका है-अ० ३।२१।६ ॥ ३−(उक्षान्नाय) अ० ३।२१।६। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१९। उक्ष सेचने वृद्धौ च-कनिन्। उक्षा महन्नाम-निघ० ३।३। उक्षभ्यो महद्भ्यः प्रबलेभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। प्रबलानां भोजनदात्रे (वशान्नाय) वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।३।८। वश स्पृहायाम्, अन्, टाप्। वशाभ्यो वशीभूताभ्यः प्रजाभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। निर्बलप्रजानां भोजनदात्रे (सोमपृष्ठाय) पृषु सेचने-थक्। ऐश्वर्यस्य सेचकाय वर्धकाय, (वेधसे) मेधाविने-निघ० ३।१ (स्तोमैः) स्तुत्यकर्मभिः (विधेम) परिचरेम (अग्नये) अग्निवत्तेजस्विने राज्ञे ॥