०६२ सर्वप्रियत्वम्

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Whitney subject
  1. For popularity.
VH anukramaṇī

सर्वप्रियत्वम्।
१ ब्रह्मा। ब्रह्मणस्पतिः। अनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Brahman (etc., as 61).—anuṣṭubh.]

Whitney

Comment

Wanting in Pāipp. and in the comm.

Translations

Translated: Zimmer, p. 205; Griffith, ii. 318.

Griffith

A prayer for the love of Gods and men

०१ प्रियं मा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्रि॒यं मा॑ कृणु दे॒वेषु॑ प्रि॒यं राज॑सु मा कृणु।
प्रि॒यं सर्व॑स्य॒ पश्य॑त उ॒त शू॒द्र उ॒तार्ये॑ ॥

०१ प्रियं मा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Make thou me dear to the gods, make me dear to kings, dear to
    everything that sees, both to śūdra and to Āryan.
Notes

A nearly corresponding verse is found in the supplement to RV. x. 128
(Aufr.², p. 685), and in HGS. i. 10. 6, ⌊and in Kaṭha-hss., p. 36⌋. In
the first half-verse, RV. differs only by reading both times kuru; its
c is priyaṁ viśveṣu gotreṣu, and its d entirely different from
ours. HGS. also has kuru, with mā brahmaṇi for rājasu mā in b,
and the second half-verse reads priyaṁ viśyeṣu śūdreṣu cf. ⌊rúcaṁ
víśyeṣu śūdréṣu
, VS. xviii. 48⌋ priyam mā kuru rājasu. The mss. read
in c-d ⌊with varying accent⌋ paśyato ’ta (p. paśyata: uta); ⌊but
one of SPP’s pada-mss. has paśyatáḥ, p.m.⌋; and a part of the mss.
(including ⌊so far as noted⌋ all the pada-mss.) have śūdrám in
d. SPP’s text agrees throughout with ours. ⌊With this verse Zimmer
compares 32. 8, above, and VS. xviii. 48 etc. With the d of the
Berlin text, cf. the d of iv. 20. 4 and 8. Zimmer rightly notes that
the “gods” of a are the Brahmans, and aptly cites śB. ii. 2. 2⁶,
with 32. 8 etc. as just mentioned.⌋

Griffith

Make me beloved among the Gods, beloved among the Princes, make Me dear to everyone who sees, to Sudra and to Aryan man.

पदपाठः

प्रि॒यम्। मा॒। कृ॒णु॒। दे॒वेषु॑। प्रि॒यम्। राज॑ऽसु। मा॒। कृ॒णु॒। प्रि॒यम्। सर्व॑स्य। पश्य॑त। उ॒त। शू॒द्रे। उ॒त। आर्ये॑। ६२.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मणस्पतिः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • सर्वप्रिय सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (मा) मुझे (देवेषु) ब्राह्मणों [ज्ञानियों] में (प्रियम्) प्रिय (कृणु) कर, (मा) मुझे (राजसु) राजाओं में (प्रियम्) प्रिय (कृणु) कर। (उत) और (आर्ये) वैश्य में (उत) और (शूद्रे) शूद्र में और (सर्वस्य) सब (पश्यतः) देखनेवाले [जीव] का (प्रियम्) प्रिय [कर] ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे परमेश्वर सब ब्राह्मण आदि से निष्पक्ष होकर प्रीति करता है, वैसे ही विद्वानों को सब संसार से प्रीति करनी चाहिये ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: इस मन्त्र का मिलान अथ० १९।३२।८ और निम्नलिखित मन्त्र से करो-यजु० १८।४८ ॥ रुचे॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ राज॑सु नस्कृधि। रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म् ॥ [हे जगदीश्वर !] (नः) हमारी (रुचम्) प्रीति को (ब्राह्मणेषु) ब्राह्मणों [वेदवेत्ताओं] में (धेहि) धारण कर, (नः) हमारी (रुचम्) प्रीति को (राजसु) राजाओं में (कृधि) कर। (रुचम्) [हमारी] प्रीति को (विश्येषु) मनुष्यों के हितकारी वैश्यों में और (शूद्रेषु) शोकयुक्त शूद्रों में [कर], (मयि) मुझमें (रुचा) [मेरी] प्रीति के साथ (रुचम्) [उनकी] प्रीति को (धेहि) धर ॥१−(प्रियम्) हितकरम् (मा) माम् (कृणु) कुरु (देवेषु) ब्राह्मणेषु। वेदज्ञेषु (प्रियम्) (राजसु) क्षत्रियेषु (मा) (कृणु) (प्रियम्) (सर्वस्य) समस्तस्य (पश्यतः) दृष्टिवतो जीवस्य (उत) अपि च (शूद्रे) शुचेर्दश्च। उ० २।१९। शुच शोके-रक्प्रत्ययः, दश्चान्तादेशो धातोर्दीर्घश्च। शोचनीये मूर्खे (उत) (आर्ये) अ० १९।३२।८। आर्यशब्द उत्तमवर्णब्राह्मणक्षत्रियवैश्यवाचकत्वादत्र वैश्यवाची। वैश्ये ॥