००५ जगतो राजा

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Whitney subject
  1. Praise and prayer to Indra.
VH anukramaṇī

जगतो राजा
१ अथर्वाङ्गिराः। इन्द्रः। त्रिष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Atharvān̄giras (?).—ekarcam. āindram. trāiṣṭubham.]

Whitney

Comment

The verse is RV. vii. 27. 3, without variation, and is found also, with the same text, in Pāipp. xx. The comm. gives as its viniyoga that one who desires riches may worship Indra with it.

Translations

Translated: Griffith, ii. 261; also by the RV. translators.

Griffith

A prayer for riches

०१ इन्द्रो राजा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्रो॒ राजा॒ जग॑तश्चर्षणी॒नामधि॑ क्षमि॒ विषु॑रूपं॒ यद॑स्ति।
ततो॑ ददाति दा॒शुषे॒ वसू॑नि॒ चोद॒द्राध॒ उप॑स्तुतश्चिद॒र्वाक् ॥

०१ इन्द्रो राजा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Indra [is] king of the moving creation (jágat), of human beings
    (carṣaṇí), whatever of various form is upon the earth (kṣám); thence
    he gives good things to his worshiper (dāśvā́ṅs); may he, whenever
    praised, urge (cud) hitherward bestowal (rā́dhas).
Notes
Griffith

King of the living world and men is Indra, of all in varied form that earth containeth. Thence to the worshipper he giveth riches: may he enrich even us when we have praised him.

पदपाठः

इन्द्रः॑। राजा॑। जग॑तः। च॒र्ष॒णी॒नाम्। अधि॑। क्षमि॑। विषु॑ऽरूपम्। यत्। अस्ति॑। ततः॑। द॒दा॒ति॒। दा॒शुषे॑। वसू॑नि। चोद॑त्। राधः॑। उप॑ऽस्तुतः। चि॒त्। अ॒र्वाक्। ५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वाङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • जगद् राजा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् पुरुष (जगतः) जगत् के बीच (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का, और (यत्) जो कुछ (अधि क्षमि) पृथिवी पर (विषुरूपम्) नाना रूप [धन आदि] (अस्ति) है, [उस का भी] (राजा) राजा है। (ततः) इसी कारण से वह (दाशुषे) दाता [आत्मदानी राजभक्त] के लिये (वसूनि) धनों को (ददाति) देता है, [तभी] (उपस्तुतः) समीप से प्रशंसित होकर (चित्) अवश्य (राधः) धन को (अर्वाक्) सन्मुख (चोदत्) प्रवृत्त करे [बढ़ावे] ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो राजा अपनी प्रजा की और उसकी सब सम्पत्ति की सुधि रखकर रक्षा करे, और योग्य राजभक्तों का यथोचित धन आदि से सत्कार करे, वही प्रशंसा पाकर राज्य में धन बढ़ा सकता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है−७।२७।३ ॥ १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (राजा) शासकः (जगतः) संसारस्य मध्ये (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्-निघ० २।३। (अधि) उपरि (क्षमि) आतो धातोः। पा० ६।४।१४०।आतः इति योगविभागात् क्षमाशब्दात् सप्तम्येकवचन आकारलोपः। क्षमायाम्। भूम्याम् (विषुरूपम्) नानाविधम् (यत्) यत् किमपि धनादिकम्, तस्य च (अस्ति) भवति (ततः) तस्मात् कारणात्, (ददाति) प्रयच्छति (दाशुषे) दात्रे। आत्मसमर्पकाय राजभक्ताय (वसूनि) धनानि (चोदत्) चोदयेत्। प्रेरयत्। प्रवर्तयेत् (राधः) धनम् (उपस्तुतः) समीपे प्रशंसितः (चित्) अवधारणे (अर्वाक्) अभिमुखम् ॥