००३ जातवेदाः

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Whitney subject
  1. Praise to Agni.
VH anukramaṇī

जातवेदाः।
१-४ अथर्वाङ्गिराः। अग्निः। त्रिष्टुप्, २ भुरिक्।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan̄giras.—caturṛcam. āgneyam. trāiṣṭubham: 2. bhurij.]

Whitney

Comment

The hymn occurs also in Pāipp. xx., but only in fragments, not intelligible beyond the first half-verse. The comm. notices that the hymn has the same pratīka as ix. 1, and labors to point out that it ⌊xix. 3⌋ and its successor have features adapting them to the same use as the two parts of ix. 1; and that hence they may also be regarded as quoted (Kāuś. 10. 24; 12. 15; etc.) by that pratīka: this is, of course, a worthless bit of special pleading. Vāit. (16. 12), wishing to quote ix. 1 only, adds the specification madhusūktena.

Translations

Translated: Griffith, ii. 260.

Griffith

A hymn to Agni for protection and prosperity

०१ दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षाद्वनस्पतिभ्यो

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दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षा॒द्वन॒स्पति॑भ्यो॒ अध्योष॑धीभ्यः।
यत्र॑यत्र॒ विभृ॑तो जा॒तवे॑दा॒स्तत॑ स्तु॒तो जु॒षमा॑णो न॒ एहि॑ ॥

०१ दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षाद्वनस्पतिभ्यो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Forth from the sky, from the earth, from the atmosphere, out of the
    forest trees, the herbs—whithersoever borne, O Jātavedas, come thou,
    enjoying, thence to us.
Notes

The translation implies emendation to jātavedas, voc., in c. SPP.
reads in d táta stutó j-, with nearly all the mss.; one or two
read tátas-tato j-; ⌊this report coincides virtually with the Index,
p. 124 b: but, if I understand the Collation Book, P. and M., which
Whitney here intends, read tátas tató j-, which is neither one thing
nor the other, but a confusion between the āmreḍita and tátas +
stutó;
⌋ and the comm. has tatas-tataḥ. The mss. also, almost without
exception, give bíbhṛtas or bíbhratas in c; here SPP’s text
agrees with ours, and with the comm. Ppp. has for b vātā paśubhyo
ay oṣadhībhyaḥ
, evidently intending the text which TB. has in a
corresponding verse (in i. 2. 1²²), vā́tāt paśúbhyo ádhy óṣadhībhyaḥ.
For c, d TB. has yátra-yatra jātavedaḥ sambabhū́va ⌊so Calc. ed.,
text, p. 32, comm., p. 91; but Poona ed. has aright sambabhū́tha, text
and comm., p. 83⌋ táto no agne juṣámāṇa é ‘hi; Āp. (in v. 13. 4)
agrees with TB. ⌊precisely: reading sambabhūtha⌋.

Griffith

Whithersoe’er, from sky, earth, air’s mid-regions from plants ands herbs, from tall trees, Jatavedas. Is carried here and there to divers places, even thence come thou to us with loving-kindness.

पदपाठः

दि॒वः। पृ॒थि॒व्याः। परि॑। अ॒न्तरि॑क्षात्। वन॒स्पति॑ऽभ्यः। अधि॑। ओष॑धीभ्यः। यत्र॑ऽयत्र। विऽभृ॑तः। जा॒तऽवे॑दाः। ततः॑। स्तु॒तः। जु॒षमा॑णः। नः॒। आ। इ॒हि॒। ३.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • अथर्वाङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • जातवेदा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अग्नि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (दिवः) सूर्य से, (पृथिव्याः) पृथिवी से, (अन्तरिक्षात् परि) अन्तरिक्ष [मध्यलोक] में से, (वनस्पतिभ्यः) वनस्पतियों [पीपल आदि वृक्षों] से और (ओषधीभ्यः अधि) ओषधियों [अन्न सोमलता आदिकों] में से, और (यत्रयत्र) जहाँ-जहाँ (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान तू [अग्नि] (विभृतः) विशेष करके धारण किया गया है, (ततः) वहाँ से (स्तुतः) स्तुति किया गया [काम में लाया गया] और (जुषमाणः) प्रसन्न करता हुआ तू (नः) हमको (आ) आकर (इहि) प्राप्त हो ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य अग्नि, बिजुली, धूप आदि को सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्ष, वनस्पतियों, ओषधियों अन्य पदार्थों से ग्रहण करके शरीर की पुष्टि और शिल्पविद्या की उन्नति करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: इस मन्त्र का प्रथम पाद आया है-अ० ९।१।१ ॥ १−(दिवः) सूर्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (परि) सकाशात् (अन्तरिक्षात्) मध्यलोकात् (वनस्पतिभ्यः) पिप्पलादिवृक्षेभ्यः (अधि) सकाशात् (ओषधीभ्यः) अन्नसोमलतादिपदार्थेभ्यः (यत्रयत्र) यस्मिन् यस्मिन् पदार्थे स्थाने वा (विभृतः) विशेषेण धृतः पूर्णः (जातवेदाः) जातेषूत्पन्नेषु वेदो विद्यमानता यस्य सः (ततः) तस्मात् (स्तुतः) प्रशंसितः। प्रयुक्तः (जुषमाणः) जुषी प्रीतिसेवनयोः−शानच्। प्रीणयन् (नः) अस्मान् (आ) आगत्य (इहि) प्राप्नुहि ॥

०२ यस्ते अप्सु

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यस्ते॑ अ॒प्सु म॑हि॒मा यो वने॑षु॒ य ओष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्व१॒॑न्तः।
अग्ने॒ सर्वा॑स्त॒न्वः१॒॑ सं र॑भस्व॒ ताभि॑र्न॒ एहि॑ द्रविणो॒दा अज॑स्रः ॥

०२ यस्ते अप्सु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What thy greatness is in the waters, what in the woods, what in the
    herbs, in the cattle, within the waters—all thy bodies (tanū́), O Agni,
    grasp together; with them come to us, a giver of property, unfailing.
Notes

Two or three of our mss., ⌊and (six) half⌋ of SPP’s, read tanvā̀ḥ in
c, and some of ours have bharasva instead of rabhasva, probably
as an only accidental variation, though bharasva would be a very good
reading. A little emendation would rid us of the otiose repetition of
apsú in the first line. ⌊In d we have to pronounce nāí ‘hi, with
double sandhi (as often in Ppp.).⌋

Griffith

All majesty of thine in floods, in forest, in plants, in cattle, in the depths of waters Closely uniting all thy forms, O Agni, come unto us wealth-giv- ing, undecaying.

पदपाठः

यः। ते॒। अ॒प्ऽसु। म॒हि॒मा। यः। वने॑षु। यः। ओष॑धीषु। प॒शुषु॑। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। अग्ने॑। सर्वाः॑। त॒न्वः᳡। सम्। र॒भ॒स्व॒। ताभिः॑। नः॒। आ। इ॒हि॒। द्र॒वि॒णः॒ऽदाः। अज॑स्रः। ३.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • अथर्वाङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • जातवेदा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अग्नि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (ते) तेरा (महिमा) महत्त्व (अप्सु) जलों में, (यः) जो (वनेषु) वनों में, (यः) जो (ओषधीषु) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] में, (पशुषु) जीवों में और (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्ष के बीच है। (अग्ने) हे अग्नि ! (सर्वाः) सब (तन्वः) उपकार शक्तियों को (सं रभस्व) एकत्र ग्रहण कर और (ताभिः) उन [उपकारशक्तियों] के साथ (द्रविणोदाः) सम्पत्तिदाता (अजस्रः) लगातार वर्तमान तू (नः) हमको (आ) आकर (इहि) प्राप्त हो ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग सब पदार्थों के बीच अग्नि अर्थात् बिजुली आदि के प्रभाव को खोजें और उसकी अनेक उपयोगिताओं को काम में लाकर धन प्राप्त कर सुखी होवें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यः) ते तव (अप्सु) उदकेषु (महिमा) महत्त्वम्। प्रभावः (यः) (वनेषु) अरण्येषु (यः) (ओषधीषु) अन्नसोमलतादिषु (पशुषु) प्राणिषु (अप्सु) अन्तरिक्षे (अन्तः) मध्ये (अग्ने) हे विद्युदादिपावक (सर्वाः) समस्ताः (तन्वः) उपकृतीः (सं रभस्व) संकलय (ताभिः) तनूभिः। उपकृतिभिः (नः) अस्मान् (आ) आगत्य (इहि) प्राप्नुहि (द्रविणोदाः) सम्पत्तिदाता (अजस्रः) निरन्तरः सन् ॥

०३ यस्ते देवेषु

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यस्ते॑ दे॒वेषु॑ महि॒मा स्व॒र्गो या ते॑ त॒नूः पि॒तृष्वा॑वि॒वेश॑।
पुष्टि॒र्या ते॑ मनु॒ष्ये᳡षु पप्र॒थेऽग्ने॒ तया॑ र॒यिम॒स्मासु॑ धेहि ॥

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Whitney
Translation
  1. What thy heavenly (svargá) greatness is, among the gods, what body
    of thine entered into the Fathers, what prosperity of thine was spread
    among men (manuṣyà)—therewith, O Agni, assign wealth to us.
Notes

The translation implies at end of a svargás ⌊so SPP.⌋; our text
has -gé on the authority of only a single ms., and against the comm.
svargaḥ⌋ and the parallel texts ⌊suvargáḥ⌋ as found in TB. (in i.
2. ²¹⁻²) and Āp. (in v. 13. 4). Both these read further, for b, yás
ta ātmā́ paśúṣu práviṣṭaḥ
, and, for d, táyā no agne juṣámāṇa é
‘hi;
while TB. has in c prathé for paprathé ⌊so Calc. ed., text
and comm.: but Poona aright, paprathé⌋. The Anukr. takes no notice of
the redundant syllable in c.

Griffith

Thy majesty among the Gods in Svarga, thy body which hath past into the Fathers. Thy plenty far-diffused mid human beings, even with this, O Agni, give us riches.

पदपाठः

यः। ते॒। दे॒वेषु॑। म॒हि॒मा। स्वः॒ऽगः। या। ते॒। त॒नूः। पि॒तृषु॑। आ॒ऽवि॒वेश॑। पुष्टिः॑। या। ते॒। म॒नु॒ष्ये᳡षु। प॒प्र॒थे। अग्ने॑। तया॑। र॒यिम्। अ॒स्मासु॑। धे॒हि॒। ३.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • अथर्वाङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • जातवेदा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अग्नि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (ते) तेरी (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाली (महिमा) महिमा (देवेषु) व्यवहारकुशल विद्वानों में (या) जो (ते) तेरी (तनूः) उपकारशक्ति (पितृषु) पालक ज्ञानियों में (आविवेश) प्रविष्ट हुई है। और (या) जो (ते) तेरी (पुष्टिः) पुष्टि [वृद्धिक्रिया] (मनुष्येषु) मननशील पुरुषों में (पप्रथे) फैली है, (अग्ने) हे अग्नि ! [बिजुली आदि] (तया) उस [पुष्टि आदि] से (रयिम्) धन (अस्मासु) हम लोगों में (धेहि) धारण कर ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य को जैसे-जैसे अग्निविद्या के पण्डित संग्राम में तोप आदि, पृथिवी पर रथ आदि, समुद्र में नौका आदि, आकाश में विमान आदि बनाने और चलाने में निपुण और रुग्ण शरीर में ताप पहुँचानेवाले वैद्य प्राप्त होवें, उन से अग्निविद्या ग्रहण करके सुखी होवें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(यः) (ते) तव (देवेषु) व्यवहारकुशलेषु विद्वत्सु (महिमा) प्रभावः (स्वर्गः) सुखप्रापकः (यः) (ते) तव (तनूः) उपकृतिः (पितृषु) पालकेषु ज्ञानिषु (आविवेश) प्रविष्टवती (पुष्टिः) वृद्धिक्रिया (ते) तव (मनुष्येषु) मननशीलेषु पुरुषेषु (पप्रथे) प्रथिता विस्तृता बभूव (अग्ने) हे विद्युदादिपावक (तया) पुष्ट्यादिभिः (रयिम्) धनम् (धेहि) धारय ॥३॥

०४ श्रुत्कर्णाय कवये

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श्रुत्क॑र्णाय क॒वये॒ वेद्या॑य॒ वचो॑भिर्वा॒कैरुप॑ यामि रा॒तिम्।
यतो॑ भ॒यमभ॑यं॒ तन्नो॑ अ॒स्त्वव॑ दे॒वानां॑ यज॒ हेडो॑ अग्ने ॥

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Whitney
Translation
  1. To him of hearing ears, the poet, worthy to be known, I apply for
    gifts (rātí) with words, with speeches; whence [there is] fear, be
    there no fear for us; pacify (ava-yaj), O Agni, the wrath (héḍas) of
    the gods.
Notes

The verse is found also in Āp. xiv. 17. 1, but with very different
b: namobhir nākam upa yāmi śaṅsan; with tat kṛdkī naḥ at end of
c; and, for d, ‘gne devānām ava heḍa iyakṣva: cf. also Āp. v.
5. 8, which is far more different. ⌊In c, asty is a misprint for
astv.⌋

Griffith

To him the wise, the famous, swift to listen, with words and verses I come nigh for bounty. May we be safe from threatening danger. Soften by sacrifice the- wrath of Gods, O Agni.

पदपाठः

श्रुत्ऽक॑र्णाय। क॒वये॑। वेद्या॑य। वचः॑ऽभिः। वा॒कैः। उप॑। या॒मि॒। रा॒तिम्। यतः॑। भ॒यम्। अभ॑यम्। तत्। नः॒। अ॒स्तु॒। अव॑। दे॒वाना॑म्। य॒ज॒। हेडः॑। अ॒ग्ने॒। ३.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • अथर्वाङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • जातवेदा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अग्नि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (श्रुत्कर्णाय) सुनते हुए कानोंवाले, (कवये) बुद्धिमान् (वेद्याय) वेदों में निपुण पुरुष के लिये (वचोभिः) वचनों और (वाकैः) वेदवाक्यों द्वारा (रातिम्) धन [अर्थात् अग्निविद्या] को (उप) आदर कर के (यामि) मैं प्राप्त होता हूँ। (यतः) जिस से (भयम्) भय [हो], (तत्) उससे (नः) हमें (अभयम्) अभय (अस्तु) होवे, (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (देवानाम्) विद्वानों के (हेडः) क्रोध को (अव यज) दूर कर ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि शीघ्र सुननेवाले बुद्धिमान् होकर प्रयत्नपूर्वक अग्निविद्या प्राप्त करके ऐसा सुप्रयोग करें, जिस से सब विद्वान् लोग उनसे प्रसन्न रहें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(श्रुत्कर्णाय) श्रवणशीलकर्णयुक्ताय (कवये) मेधाविने (वेद्याय) तत्र साधुः। पा० ४।४।९४। इति यत्। वेदेषु निपुणाय (वचोभिः) वाक्यैः (वाकैः) वेदानामनुवाकैः (उप) पूजायाम् (यामि) प्राप्नोमि (रातिम्) धनम्। अग्निविद्यामित्यर्थः (यतः) यस्मात् कारणात् (भयम्) भयं भवतु (अभयम्) भयराहित्यम् (तत्) तस्मात् (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (देवानाम्) विदुषाम् (अवयज) दूरीकुरु। शान्तय (हेडः) हेड अनादरे-असुन्। क्रोधम् (अग्ने) हे विद्वन् ॥