००१ पितृमेधः ...{Loading}...
Whitney subject
- ⌊Funeral verses.⌋
VH anukramaṇī
पितृमेधः।
१-६१ अथर्वा। यमः।, मन्त्रोक्ताः, ४० रुद्रः, ४१-४३ सरस्वती, ४४-४६, ५१-५२ पितरः। त्रिष्टुप्, ८, १५ आर्षी पङ्क्तिः, १४, ४९-५० भुरिक्, १८-२०, २१-२३ जगती, ३७-३८ परोष्णिक्, ५६-५७, ६१ अनुष्टुप्, ५९ पुरोबृहती।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—ekaṣaṣṭi. yamadevatyam mantroktabahudevatyaṁ ca (41-43. sarasvatīdevatyās; 40. rāudrī; 44-46. mantroktapitṛdevatyās; 51, 52. pitrye). trāiṣṭubham: 8, 15. ārṣī pan̄kti; 14, 49, 50. bhurij; 18-20, 21-23. jagatī; 37, 38. paroṣṇih; 56, 57, 61. anuṣṭubh; 59. purābṛhatī.]
Whitney
Comment
⌊Only one verse (46) is found in Pāipp., and that in book ii. Only four sūtras of the Vāit. cite verses from this hymn, and those verses are 44-46, 51, and 55. In the Kāuś., as already noted by Whitney, p. 814, nearly all the verses from 1. 40 to the end of the book have their uses in the ritual. That Parts I. and II. and III. of the hymn as divided below are utterly impertinent to the proper subject of the book and therefore without ritual application, is a fact on which Weber, Sb. 1895, p. 819, has already animadverted.⌋
⌊A clear synoptic statement of the provenience of the different groups of verses, or of the single verses, that enter into the composition of this hymn appears so desirable for the critical study thereof, that I subjoin the following:
⌊It thus appears that every verse of our hymn has its correspondent in the RV. save four (or five, if one wishes to count vs. 57): to wit, vs. 17, which is not found to my knowledge in any other text; vss. 27, 28, repeated from AV. vii. (see above); and vs. 61, found in SV.⌋
Griffith
An accompaniment to funeral ceremonies and sacrificial offerings to ancestral spirits
०१ ओ चित्सखायंसख्या
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ओ चि॒त्सखा॑यंस॒ख्या व॑वृत्यां ति॒रः पु॒रु चि॑दर्ण॒वं ज॑ग॒न्वान्।
पि॒तुर्नपा॑त॒मा द॑धीतवे॒धा अधि॒ क्षमि॑ प्रत॒रं दीध्या॑नः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ओ चि॒त्सखा॑यंस॒ख्या व॑वृत्यां ति॒रः पु॒रु चि॑दर्ण॒वं ज॑ग॒न्वान्।
पि॒तुर्नपा॑त॒मा द॑धीतवे॒धा अधि॒ क्षमि॑ प्रत॒रं दीध्या॑नः ॥
०१ ओ चित्सखायंसख्या ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Unto a friend would I turn with friendship; having gone through much
ocean, may the pious one take a grandson of [his] father, considering
further onward upon the earth (kṣám).
Notes
That is, ‘making thoughtful provision for the future.’ The verse is,
without variant, RV. x. 10. 1. Our Bs.E. have purú in saṁhitā. The
verse is also SV. i. 340, which has a considerably different text: for
a, ā́ tvā sákhāyaḥ sakhyā́ vavṛtyus; in b, arṇavā́ṅ jagamyāḥ;
for d, asmín kṣáye pratarā́ṁ dī́dyānaḥ. The comm. takes vavṛtyām
as of causative value, = vartayāmi: dīdhyānas he explains first (as
if it were dīdyānas) by dīpyamānas, ‘becoming illustrious over the
whole earth’; but also, alternatively, by “thinking [upon a means of
impregnating me]."—The word sakhyā́ he takes as instr. of sakhyā́
‘friendship’ ⌊so Lanman, Noun-Inflection, JAOS. x. 336⌋, and renders
by sakhitvena; but also alternatively as instr. of sakhī, ‘by means
of a female friend,’ a go-between!
⌊An oxytone feminine stem sakhī́ corresponding (cf. JAOS. x. 368) to a
barytone masculine sákhi should accent its instr. sakhyā̀ (JAOS. x.
368, top, 381), not sakhyā́.⌋ ⌊Aufrecht, Festgruss an Böhtlingk,
1888, page 1, took sakhyā́ as a dative of sakhyá; and Pischel, Ved.
Stud. i. 65 (title-page dated 1889), made a cogent and interesting
argument against my view and came (independently, without doubt) to the
same conclusion as Aufrecht.—For Geldner’s interpretation of the whole
verse, see Gurupūjākaumudī, p. 19-20.⌋
Griffith
Fain would I win my friend to kindly friendship. So may the Sage, come through the air’s wide ocean, Remembering the earth and days to follow, obtain a son the issue of his father.
पदपाठः
ओ इति॑। चि॒त्। सखा॑यम्। स॒ख्या। व॒वृ॒त्या॒म्। ति॒रः। पु॒रु। चि॒त्। अ॒र्ण॒वम्। ज॒ग॒न्वान्। पि॒तुः। नपा॑तम्। आ। द॒धी॒त॒। वे॒धाः। अधि॑। क्षमि॑। प्र॒ऽत॒रम्। दीध्या॑नः। १.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ओ) ओ ! [हे पुरुष !] (सखायम्) [तुझ] मित्र को (चित्) ही (सख्या) मित्रता के साथ (ववृत्याम्) मैं [स्त्री] प्रवृत्त करूँ-(पुरु चित्) बहुत ही प्रकार से (अर्णवम्) विज्ञानयुक्तशास्त्र को (तिरः जगन्वान्) पार जा चुकनेवाले, (प्रतरम्) बहुत अधिक (दीध्यानः)प्रकाशमान, (वेधाः) बुद्धिमान् आप (पितुः) [अपने] पिता के (नपातम्) नाती [पौत्र]को (क्षमि अधि) पृथिवी पर (आ दधीत) धारण करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह मन्त्र स्त्री कावचन है। हम दोनों बड़े प्रेमी हैं, तू वेद आदि शास्त्रों का जाननेवालाबुद्धिमान् पुरुष है, ऐसा प्रयत्न किया जावे कि हम दोनों के सम्बन्ध से उत्तमसन्तान उत्पन्न हो ॥१॥इस सूक्त के मन्त्र १-१६ में यमी-यम अर्थात् जोड़िया बहिनऔर भाई के संवाद वा प्रश्न-उत्तर की रीति से यह बताया है कि वे दोनों बहिन-भाईहोकर परस्पर विवाह कभी न करें, किन्तु बहिन भाई से अन्य पुरुष के साथ और भाईबहिन से दूसरी स्त्री के साथ विवाह करे ॥मन्त्र १-५। अभेद वा भेद से ऋग्वेद मेंहैं- १०।१०।१-५ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(ओ) सम्बोधने (चित्) एव (सखायम्) सुहृदम् (सख्या) सुपांसुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। सख्येन। मित्रत्वेन (ववृत्याम्) वृतुवर्तने-लिङ्, शपः श्लुः। प्रवर्तयेयम् (तिरः) पारे (पुरु) बहुप्रकारेण (चित्) एव (अर्णवम्) अर्णवं विज्ञानम्-दयानन्दभाष्ये, यजु० १२।४९। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः।उ० ३।६। ऋ गतिप्रापणयोः-न प्रत्ययः, ततो मत्वर्थीयो वः। विज्ञानयुक्तं शास्त्रम् (जगन्वान्) गमेर्लिटः क्वसुः। गतवान् (पितुः) स्वजनकस्य (नपातम्) नप्तारंपौत्रम् (आदधीत) आदध्यात्। समन्ताद् धारयतु (वेधाः) मेधाविनाम-निघ० ३।१५। मेधावीभवान् (क्षमि अधि) भूमेरुपरि (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (दीध्यानः) दीधीङ्दीप्तिदेवनयोः-शानच्। दीप्यमानः ॥
०२ न ते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
न ते॒ सखा॑स॒ख्यं व॑ष्ट्ये॒तत्सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भव॑ति।
म॒हस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्यवी॒रा दि॒वो ध॒र्तार॑ उर्वि॒या परि॑ ख्यन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न ते॒ सखा॑स॒ख्यं व॑ष्ट्ये॒तत्सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भव॑ति।
म॒हस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्यवी॒रा दि॒वो ध॒र्तार॑ उर्वि॒या परि॑ ख्यन् ॥
०२ न ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Thy friend wants (vaś) not that friendship of thine, that she of
like sign should become of diverse form; the sons of the great Asura,
heroes, sustainers of the sky (dív), look widely about.
Notes
That is, Varuna’s spies are on the watch against such unpermitted acts.
Our Bp.Bs. read in b sálakṣmyā. The comm. understands salakṣmā
as ekodaratvalakṣaṇaṁ yasyāḥ ‘marked as from the same womb,’ and
viṣurūpā as “changing from sister to wife.” The same expression occurs
below in 1. 34, and variations of it in TS. i. 3. 10¹ (quoted further at
vi. 3. 11²) and MS. i. 2. 17 (a passage corresponding to, but different
from, that in TS.); also VS. vi. 20 b (do.). It seems to have a kind
of proverbial currency, as applied to things that change from one
character to another. The comm. renders pari khyan by pari vadanti
or nirākariṣyanti. The verse is RV. x. 10. 2.
Griffith
Thy friend loves not the friendship which considers her who is near in kindred as a stranger. Sons of the mighty Asura, the heroes, supporters of the heaven, see far around them.
पदपाठः
न। ते॒। सखा॑। स॒ख्यम्। व॒ष्टि॒। ए॒तत्। सऽल॑क्ष्मा। य॒त्। विषु॑ऽरूपा। भवा॑ति। म॒हः। पु॒त्रासः॑। असु॑रस्य। वी॒राः। दि॒वः। ध॒र्तारः॑। उ॒र्वि॒या। परि॑। ख्य॒न्। १.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सखा) [यह] प्रेमी (ते) तेरी (एतत्) यह (सख्यम्) प्रीति (न) नहीं (वष्टि) चाहता है−(यत्) कि (सलक्ष्मा) समान [धार्मिक] लक्षणवाली [आप] (विषुरूपा) नाना स्वभाववाली [चञ्चलअधार्मिक] (भवाति) हो जावें। (महः) महान् (असुरस्य) बुद्धिमान् पुरुष के (दिवः)व्यवहार के (धर्तारः) धारण करनेवाले, (वीराः) वीर (पुत्रासः) पुत्र (उर्विया)भूमि पर (परि ख्यन्) विख्यात हुए हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह मन्त्र पुरुष काउत्तर है। हे स्त्री ! तू जो मुझ से पुत्र की कामना करती है सो उचित नहीं, हमदोनों धर्मात्मा होकर अधर्म न करें−क्योंकि बड़े कुल में उत्पन्न व्यवहारकुशलधर्मात्मा वीर ही संसार में कीर्तिमान् होते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(न) निषेधे (ते) तव (सखा)प्रियः (सख्यम्) प्रीतिम् (वष्टि) कामयते (एतत्) (सलक्ष्मा) समानलक्षणा।धर्मशीला (यत्) यतः (विषुरूपा) नानास्वभावा। चञ्चला। अधार्मिका (भवाति) भवेत् (महः) महतः (पुत्रासः) पुत्राः (असुरस्य) असुः प्रज्ञानाम-निघ० ३।९, रोमत्वर्थीयः। प्रज्ञावतः पुरुषस्य (वीराः) विक्रान्ताः (दिवः) व्यवहारस्य (धर्तारः) धारकाः (उर्विया) इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानम्। वा० पा० ७।१।३९।उर्वी-डियाच्। उर्व्यां भूमौ (परि ख्यन्) ख्या प्रकथने, प्रसिद्धौ-लुङ्, अडभावः।विख्याता अभूवन् ॥
०३ उशन्ति घा
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उ॒शन्ति॑ घा॒ तेअ॒मृता॑स ए॒तदेक॑स्य चित्त्य॒जसं॒ मर्त्य॑स्य।
नि ते॒ मनो॒ मन॑सि धाय्य॒स्मेजन्युः॒ पति॑स्त॒न्व१॒॑मा वि॑विष्याः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उ॒शन्ति॑ घा॒ तेअ॒मृता॑स ए॒तदेक॑स्य चित्त्य॒जसं॒ मर्त्य॑स्य।
नि ते॒ मनो॒ मन॑सि धाय्य॒स्मेजन्युः॒ पति॑स्त॒न्व१॒॑मा वि॑विष्याः ॥
०३ उशन्ति घा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Truly those immortals want that—posterity (? tyajás) of the one
mortal; may thy mind be set in our mind; mayest thou enter [as]
husband a wife’s body.
Notes
The verse shows no variant from RV. x. 10. 3. Bs.E. read in d
tanvā̀m. The comm. explains tyajásam by tyāgam, garbhān nirgamanam,
utpattim. ⌊Cf. Weber, Sb., p. 824.⌋
Griffith
Yea, this the Immortals seek of thee with longing, a scion of the only man existing. Then let thy soul and mine be knit together. Embrace thy con- sort as her loving husband.
पदपाठः
उ॒शन्ति॑। घ॒। ते। अ॒मृता॑सः। ए॒तत्। एक॑स्य। चि॒त्। त्य॒जस॑म्। मर्त्य॑स्य। नि। ते॒। मनः॑। मन॑सि। धा॒यि॒। अ॒स्मे इति॑। जन्युः॑। पतिः॑। त॒न्व᳡म्। आ। वि॒वि॒श्याः॒। १.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ते) वे (अमृतासः) अमर [यशस्वी] लोग (घ) अवश्य (एतत्) इस प्रकार से (एकस्य) एक [अद्वितीय, अति श्रेष्ठ] (मर्त्यस्य) मनुष्य के (चित्) ही (त्यजसम्) सन्तान की (उशन्ति) कामना करते हैं। (ते मनः) तेरा मन (अस्मे) हमारे (मनसि) मन में (नि धायि) जमाया जावे, और (जन्युः)उत्पन्न करनेवाला (पतिः) पति [होकर] (तन्वम्) [मेरे] शरीर में (आ विविश्याः)प्रवेश कर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्री का वचन है।महात्मा लोग मानते हैं कि अद्वितीय वीर पुरुष का सन्तान अद्वितीय वीर होता है, इसलिये तू श्रेष्ठ होकर मेरे साथ विवाह करके श्रेष्ठ सन्तान उत्पन्न कर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(उशन्ति) कामयन्ते (घ) प्रसिद्धौ (ते) प्रसिद्धाः (अमृतासः) अमराः। यशस्विनः (एतत्) अनेन प्रकारेण (एकस्य (अद्वितीयस्य। अतिश्रेष्ठस्य (चित्) एव (त्यजसम्)त्यज हानौ दाने च-असुन्। सन्तानम् (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (नि) निश्चयेन। नियमेन (ते) तव (मनः) चित्तम् (मनसि) चित्ते (धायि) धीयताम् (अस्मे) अस्माकम् (जन्युः)भुजिमृङ्भ्यां युक्त्युकौ। उ० ३।२१। जन जनने-युक्। जनयिता (पतिः) त्वं पतिः सन् (तन्वम्) मम तनूं शरीरम् (आ विविश्याः) विश प्रवेशने-लिङ्, शपः श्लुः। प्रविश ॥
०४ न यत्पुराचकृमा
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न य॑त्पु॒राच॑कृ॒मा कद्ध॑ नू॒नमृ॒तं वद॑न्तो॒ अनृ॑तं॒ रपे॑म।
ग॑न्ध॒र्वो अ॒प्स्वप्या॑ च॒योषा॒ सा नौ॒ नाभिः॑ पर॒मं जा॒मि तन्नौ॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न य॑त्पु॒राच॑कृ॒मा कद्ध॑ नू॒नमृ॒तं वद॑न्तो॒ अनृ॑तं॒ रपे॑म।
ग॑न्ध॒र्वो अ॒प्स्वप्या॑ च॒योषा॒ सा नौ॒ नाभिः॑ पर॒मं जा॒मि तन्नौ॑ ॥
०४ न यत्पुराचकृमा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What we (pl.) did not do formerly, why [do that] now? speaking
righteousness, should we prate unrighteousness? The Gandharva in the
waters and the watery woman (yóṣā)—that is our (du.) union (nā́bhi),
that our ⌊du.⌋ highest relation (jāmí).
Notes
RV. x. 10. 4 reads ṛtā́ in b, and sā́ no n- in d, but nāu at
the end. ⌊The inconcinnity of number as between no and nāu tempts
one to think that here at least the text of the AV. has scored a point
against that of the RV. Ánṛta seems to be used here, as hardly
elsewhere, in the directly opposed sense to ṛtá. The comm. explains
rapema by spaṣṭam brūmaḥ. ⌊Cf. Weber, Sb., p. 825.⌋
Griffith
Shall we do now what we ne’er did aforetime? we who spoke righteously now talk impurely? Gandharva in the floods, the Dame of Waters–such is our bond, such our most lofty kinship.
पदपाठः
न। यत्। पु॒रा। च॒कृ॒म। कत्। ह॒। नू॒नम्। ऋ॒तम्। वद॑न्तः। अनृ॑तम्। र॒पे॒म॒। ग॒न्ध॒र्वः। अ॒प्ऽसु। अप्या॑। च॒। योषा॑। सा। नौ॒। नाभिः॑। प॒र॒मम्। जा॒मि। तत्। नौ॒। १.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो [कर्म] (पुरा) पहिले (न चकृम) हम ने नहीं किया, (कत्) कैसे (ह) निश्चय करके (नूनम्) अब (ऋतम्) सत्य (वदन्तः) बोलते हुए हम (अनृतम्) असत्य (रपेम) बोलें। [जैसे] (अप्सु) सत्कर्मों में (गन्धर्वः) दृष्टि रखनेवाला पुरुष (च) और (अप्या)सत्कर्मों में प्रसिद्ध (योषा) सेवा करनेवाली स्त्री [होवे], (सा) वही (नौ) हमदोनों की (नाभिः) बन्धुता, और (तत्) वह (नौ) हम दोनों का (परमम्) सबसे बड़ा (जामि) सम्बन्ध [होवे] ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पुरुष का वचन है। तूकहती है−श्रेष्ठ पुरुष का सन्तान श्रेष्ठ होता है, परन्तु मैं मर्यादा तोड़करअसत्य कभी नहीं बोलूँगा। स्त्री-पुरुष सदा सत्कर्म करें, यही दोनों में परस्परबड़े स्नेह का कारण है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(न) निषेधे (यत्) यस्मात् कारणात् (पुरा) पूर्वकाले (चकृम्) वयं कृतवन्तः (कत्) कथम् (ह) निश्चयेन (नूनम्) इदानीम् (ऋतम्) सत्यम् (वदन्तः) कथयन्तः (अनृतम्) असत्यम् (रपेम) कथयेम (गन्धर्वः) गां दृष्टिं धरतीतियः सः (अप्सु) सत्कर्मसु (अप्या) अप्यः, अप्सु सत्कर्मसु भवः-दयानन्दभाष्ये, ऋग्० ६।६७।९। सत्कर्मसु प्रसिद्धा (च) (योषा) युष भजने-अच्, टाप्। सेवाशीलास्त्री (सा) (नौ) आवयोः (नाभिः) बन्धुता (परमम्) निरतिशयम् (जामि) वसिवपियजि०।उ० ४।१२५। जमु अदने-इञ्। सम्बन्धः (तत्) (नौ) आवयोः ॥
०५ गर्भे नु
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गर्भे॒ नु नौ॑जनि॒ता दम्प॑ती कर्दे॒वस्त्वष्टा॑ सवि॒ता वि॒श्वरू॑पः।
नकि॑रस्य॒ प्र मि॑नन्तिव्र॒तानि॒ वेद॑ नाव॒स्य पृ॑थि॒वी उ॒त द्यौः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
गर्भे॒ नु नौ॑जनि॒ता दम्प॑ती कर्दे॒वस्त्वष्टा॑ सवि॒ता वि॒श्वरू॑पः।
नकि॑रस्य॒ प्र मि॑नन्तिव्र॒तानि॒ वेद॑ नाव॒स्य पृ॑थि॒वी उ॒त द्यौः ॥
०५ गर्भे नु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Verily, the generator made us (du.) in the womb man and spouse—god
Tvashṭar, Savitar of all forms; none overthrow (pra-mī) his ordinances
(vratá); earth knows us ⌊two⌋ as such, also heaven.
Notes
RV. x. 10. 5 has no variants. The treatment oi pṛthivī́ in d as
pragṛhya is noticed in Prāt. iii. 34 c. ⌊Presumably, W’s literal
version of d would be ’earth is cognizant of that [fact] of us
two, also heaven.’⌋
Griffith
Even in the womb God Tvashtar, vivifier, shaping all forms, Creator, made us consorts. Ne’er are his holy statutes violated: that we are his the heaven and earth acknowledge.
पदपाठः
गर्भे॑। नु। नौ॒। ज॒नि॒ता। दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती। क्व॒। दे॒वः। त्वष्टा॑। स॒वि॒ता। वि॒श्वऽरू॑पः। नकिः॑। अ॒स्य॒। प्र। मि॒न॒न्ति॒। व्र॒तानि॑। वेद॑। नौ॒। अ॒स्य। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः। १.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (जनिता) उत्पन्नकरनेवाले, (देवः) प्रकाशमान, (त्वष्टा) बनानेवाले, (सविता) प्रेरक, (विश्वरूपः)सबके रूप देनेवाले परमेश्वर ने (गर्भे) गर्भ में (नु) ही (नौ) हम दोनों को (दम्पती) पति-पत्नी (कः) बनाया है। (अस्य) इस [परमेश्वर] के (व्रतानि) नियमों को (नकिः प्र मिनन्ति) कोई भी नहीं तोड़ सकते, (नौ) हम दोनों के लिये (अस्य) इस [बात] को (पृथिवी) पृथिवी (उत) और भी (द्यौः) सूर्य (वेद) जानता है ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्री का वचन।परमात्मा ने अपने अटल नियम से माता के गर्भ में ही हम दोनों को एक साथ जोड़ियाउत्पन्न करके पति-पत्नी बनाया है, जैसे यह प्रत्यक्ष है कि सृष्टि की आदि सेसूर्य और पृथिवी में पति-पत्नी भाव है, क्योंकि सूर्य वृष्टि करता है, पृथिवी उसेग्रहण करके अन्न आदि उत्पन्न करती है ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(गर्भे) गर्भाशये (नि) निश्चयेन (नौ)आवाम् (जनिता) उत्पादकः (दम्पती) जायापती। पतिपत्न्यौ (कः) करोतेर्लुङ्। अकः।कृतवान् (देवः) प्रकाशमानः (सविता) प्रेरकः (विश्वरूपः) सर्वस्य रूपकर्ता (नकिः)न केऽपि (अस्य) परमेश्वरस्य (प्र) (मिनन्ति) मीञ् हिंसायाम्। ह्रस्वःप्वादित्वात्। हिंसन्ति। अतिक्रामन्ति (व्रतानि) कर्माणि (वेद) जानाति (नौ)आवाभ्याम् (अस्य) इदं वचनम् (पृथिवी) (उत) अपि च (द्यौः) सूर्यः ॥
०६ को अद्ययुङ्क्ते
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को अ॒द्ययु॑ङ्क्ते धु॒रि गा ऋ॒तस्य॒ शिमी॑वतो भा॒मिनो॑ दुर्हृणा॒यून्।
आ॒सन्नि॑षून्हृ॒त्स्वसो॑ मयो॒भून्य ए॑षां भृ॒त्यामृ॒णध॒त्स जी॑वात् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
को अ॒द्ययु॑ङ्क्ते धु॒रि गा ऋ॒तस्य॒ शिमी॑वतो भा॒मिनो॑ दुर्हृणा॒यून्।
आ॒सन्नि॑षून्हृ॒त्स्वसो॑ मयो॒भून्य ए॑षां भृ॒त्यामृ॒णध॒त्स जी॑वात् ॥
०६ को अद्ययुङ्क्ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Who yokes to the pole today the kine of righteousness, the diligent,
the bright, the slow to wrath (? durhṛṇāyú), that have arrows in the
mouth, that shoot at the heart, amiable ones? whoso shall prosper their
burden, he shall live.
Notes
This strangely intruded verse ⌊cf. Weber, Sb. 1895, p. 819 n.⌋ is RV.
i. 84. 16 (also found in TS. iv. 2. 11³; MS. iii. 16. 4), without
variant ⌊save that TS. accents dúrhṛṇāyūn. SV. has it at i. 341 (next
after our verse 1), with the bad variants āsánn eṣām apsuvā́haḥ in
c. ⌊Cf. Aufrecht’s Rigveda², vol. i., preface, p. xliv.⌋ The comm.
understands bhṛtyā́m ṛṇádhat in d as here translated; also
durhṛṇāyū́n ⌊alternatively⌋ in b.
Griffith
Who yokes to-day unto the pole of Order the strong and passio- nate steers of checkless spirit, With shaft-armed mouths, heart-piercing, joy-bestowing? Long shall he live who duly pays them service.
पदपाठः
कः। अ॒द्य। युङ्क्ते॒। धु॒रि। गाः। ऋ॒तस्य॑। शिमी॑ऽवतः। भा॒मिनः॑। दुः॒ऽहृ॒णा॒यून्। आ॒सन्ऽइ॑षून्। हृ॒त्सु॒ऽअसः॑। म॒यः॒ऽभून्। यः। ए॒षा॒म्। भृ॒त्याम्। ऋ॒णध॑त्। सः। जी॒वा॒त्। १.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कर्ता [प्रजापति]परमेश्वर (अद्य) आज (ऋतस्य) सत्य के (गाः) गानेवाले, (शिमीवतः) उत्तम कर्मवाले, (भामिनः) तेजस्वी (दुर्हृणायून्) [शत्रुओं पर] भारी क्रोधवाले, (आसन्निषून्) ठीकस्थान पर बाण पहुँचानेवाले, (हृत्स्वसः) [शत्रुओं के] हृदयों में शस्त्र मारनेवालेऔर (मयोभून्) [धर्मात्माओं को] सुख देनेवाले वीरों को (धुरि) धुरी [भारी बोझ]में (युङ्क्ते) जोड़ता है, (यः) जो पुरुष (एषाम्) इन [वीरों] की (भृत्याम्) पोषणरीति को (ऋणधत्) बढ़ावेगा, (सः) वह (जीवात्) जीवेगा ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पुरुष का वचन है।परमात्मा धुरन्धर धर्मात्मा वीरों पर संसार की रक्षा का भार रखता है, और वे उसनियम का यथावत् पालन करते हैं। जो मनुष्य ऐसे मर्यादा पुरुषों की नीति पर चलताहै, वह संसार में यशस्वी होकर अमर होता है ॥६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है, १।८४।६।महर्षि दयानन्द ने सेनापति के योग्य कर्म में इसकी व्याख्या की है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(कः)करोतेर्डप्रत्ययः। कर्ता। प्रजापतिः परमेश्वरः (अद्य) अस्मिन् दिने (युङ्क्ते)योजयति (धुरि) भारे (गाः) गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। गायकान् (शिमीवतः) शिमीकर्मनाम-निघ० २।१। उत्तमकर्मयुक्तान् (भामिनः) भाम-इनि। तेजस्विनः (दुर्हृणायून्) हृणीयतेः क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। हृणीङ् रोषणे लज्जायांच-उण्, कण्ड्वादित्वाद् यक्, अतो लोपे सति ईकारस्य आकारः। शत्रुषुमहाक्रोधयुक्तान् (आसन्निषून्) पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। आसनशब्दस्य आसन्आदेशः। आसने लक्ष्ये प्राप्तबाणान् (हृत्स्वसः) अस्यतेः-क्विप्। शत्रुहृदयेषुप्रक्षिप्तशस्त्रान् (मयोभून्) सुखं भावुकान् वीरान् (यः) पुरुषः (एषाम्)वीराणाम् (भृत्याम्) पोषणरीतिम् (ऋणधत्) ऋधु वृद्धौ-लेटि अडागमः। वर्धयेत् (सः) (जीवात्) लेटि आडागमः। चिरं जीवेत्। यशस्वी भवेत् ॥
०७ को अस्य
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को अ॒स्य वे॑दप्रथ॒मस्याह्नः॒ क ईं॑ ददर्श॒ क इ॒ह प्र वो॑चत्।
बृ॒हन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒धाम॒ कदु॑ ब्रव आहनो॒ वीच्या॒ नॄन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
को अ॒स्य वे॑दप्रथ॒मस्याह्नः॒ क ईं॑ ददर्श॒ क इ॒ह प्र वो॑चत्।
बृ॒हन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒धाम॒ कदु॑ ब्रव आहनो॒ वीच्या॒ नॄन् ॥
०७ को अस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Who knows of that first day? who saw it? who shall proclaim it here?
Great is the ordinance (dhā́man) of Mitra, of Varuṇa; why, O lustful
one, wilt thou speak to men with deceit (? vī́ci)?
Notes
RV. x. 10. 6 has no variants. The comm. blunderingly attributes the
verse to Yamī; he also takes vī́cyā ⌊p. vī́cyā⌋ as for vī́cyās, an
adj. meaning vividham añcanto gacchantaḥ saṁcarantaḥ, and qualifying
nṛ́n, which is used as nominative, = narās! ⌊See Geldner,
Gurupūjākaumudī, p. 21-22.⌋
Griffith
Who knows that earliest day whereof thou speakest, Who hath beheld it? Who can here declare it? Great is the law of Varuna and Mitra. What, wanton, wilt thou say to men to tempt them?
पदपाठः
कः। अ॒स्य। वे॒द॒। प्र॒थ॒मस्य॑। अह्नः॑। कः। ई॒म्। द॒द॒र्श॒। कः। इ॒ह। प्र। वो॒च॒त्। बृ॒हत्। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। धाम॑। कत्। ऊं॒ इति॑। ब्र॒वः॒। आ॒ह॒नः॒। वीच्या॑। नॄन्। १.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कौन [पुरुष] (अस्य) इस [जगत्] के (प्रथमस्य) पहिले (अह्नः) दिन को (वेद) जानता है (कः) किसने (ईम्) इस [दिन] को (ददर्श) देखा है, (कः) कौन (इह) इस [विषय] में (प्र वोचत्)बोले। (मित्रस्य) सर्वप्रेरक (वरुणस्य) श्रेष्ठ परमेश्वर का (बृहत्) बड़ा (धाम)धाम [धारणसामर्थ्य वा नियम] है, (आहनः) हे चोट लगानेवाली ! (कत् उ) कैसे (वीच्या) छल के साथ (नॄन्) नरों [नेताओं] से (ब्रवः) तू बोल सके ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह भी पुरुष का वचनहै। तू कहती है कि सूर्य और पृथिवी प्राकृतिक पदार्थों में भी पति-पत्नी भाव है, यह ठीक नहीं। परमेश्वर के नियम मनुष्य नहीं समझ सकता, जैसे सूर्य और पृथिवी मेंआकर्षण धारण आदि गुण हैं, जिनके कारण उनके बीच बारंबार आपस में वृष्टि देने औरलेने का सामर्थ्य है। तू हमें मत ठग ॥७॥मन्त्र ७-१२ कुछ अभेद वा भेद से ऋग्वेदमें हैं−१०।१०।६-११ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(कः) प्रश्ने। कः पुरुषः (अस्य) जगतः (वेद) जानाति (प्रथमस्य) प्रथमम् (अह्नः) अहः। दिनम् (कः) (ईम्) इदं दिनम् (ददर्श) दृष्टवान् (कः) (इह) अस्मिन् विषये (प्र वोचत्) प्रकथयेत् (बृहत्) महत् (मित्रस्य) डुमिञ्प्रक्षेपणे−क्त्र। सर्वप्रेरकस्य (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य परमेश्वरस्य (धाम)धारणसामर्थ्यम्। प्रभावः (कत्) कथम् (उ) पादपूरणः (ब्रवः) ब्रूयाः। ब्रवीषि (आहनः) आङ्+हन हिंसागत्योः-असुन्। हे आहननशीले। क्लेशकारिणि (वीच्या) व्यचव्याजीकरणे-कि प्रत्ययः। छान्दसो दीर्घः। छलेन (नॄन्) नयतेर्डिच्च। उ० २।१००।णीञ् प्रापणे-ऋ, स च डित्। नेतॄन् पुरुषान् ॥
०८ यमस्य मायम्यम्
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य॒मस्य॑ माय॒म्यं१॒॑ काम॒ आग॑न्त्समा॒ने योनौ॑ सह॒शेय्या॑य।
जा॒येव॒ पत्ये॑ त॒न्वं᳡रिरिच्यां॒ वि चि॑द्वृहेव॒ रथ्ये॑व च॒क्रा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
य॒मस्य॑ माय॒म्यं१॒॑ काम॒ आग॑न्त्समा॒ने योनौ॑ सह॒शेय्या॑य।
जा॒येव॒ पत्ये॑ त॒न्वं᳡रिरिच्यां॒ वि चि॑द्वृहेव॒ रथ्ये॑व च॒क्रा ॥
०८ यमस्य मायम्यम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Desire of Yama hath come unto me Yamī, in order to lying together in
the same lair (yóni); I would fain yield (ric) my body, as wife to
husband; may we whirl off, like two chariot wheels.
Notes
That is, probably, like the wheels of two chariots interlocked with each
other in battle. RV. x. 10. 7 has no variants from our text. The comm.
makes ví vṛheva mean saṁśleṣaṁ karavāva, adding itaretarayoḥ
saṁśleṣo vivarhā; and his first explanation of rathyā is as =
rathyayā ‘on the carriage road’! Our P.M.I. accent vṛhéva. The
metrical definition of the Anukr. as pan̄kti is very strange, though
the verse can be reduced to 40 syllables by refusing to make ordinary
resolutions.
Griffith
Yami am possessed by love of Yama, that I may rest on the same couch beside him. I as a wife would yield me to my husband. Like car-wheels let us speed to meet each other.
पदपाठः
य॒मस्य॑। मा॒। य॒म्य᳡म्। कामः॑। आ। अ॒ग॒न्। स॒मा॒ने। योनौ॑। स॒ह॒ऽशेय्या॑य। जा॒याऽइ॑व। पत्ये॑। त॒न्व᳡म्। रि॒रि॒च्या॒म्। वि। चि॒त्। वृ॒हे॒व॒। रथ्या॑ऽइव। च॒क्रा। १.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आर्षी पङ्क्ति
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यमस्य) यम [जोड़ियाभाई] की (कामः) कामना (मा) मुझ (यम्यम्) यमी [जोड़िया बहिन] को, (समाने योनौ) एकघर में (सहशेय्याय) साथ-साथ सोने के लिये, (आ अगन्) आकर प्राप्त हुयी है। (जायाइव) पत्नी के समान (पत्ये) पति के लिये (तन्वम्) [अपना] शरीर (रिरिच्याम्) मैंफैलाऊँ, (चित्) और (रथ्या) रथ ले चलनेवाले (चक्रा इव) दो पहियों के समान (विविरहेव) हम दोनों मिलें ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्री का वचन है। तूऔर मैं दोनों एक माता से एक साथ जोड़िया उत्पन्न हुए हैं, सो हम दोनों में अतिप्रीति है। हम दोनों ही आपस में विवाह करके पति-पत्नी बनें और मिलकर गृहस्थआश्रम चलावें, जैसे रथ के दो पहिये धुरा के साथ आपस में मिलकर रथ चलाते हैं ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(यमस्य) यम परिवेषणे-अच्। एकगर्भजायमानस्य यमजस्य भ्रातुः (मा) माम् (यम्यम्)यम ङीष् गौरादित्वात्, यणादेशः। यमीम्। एकगर्भजायमानां यमजां भगिनीम् (कामः)कामना (आ अगन्) आगमत् (समाने) एकस्मिन्नेव (योनौ) गृहे (सहशेय्याय) अचो यत्। पा०३।१।९७। शीङ् शयने-यत्। शेयं शयनं स्वार्थेयत्। सहशयनाय (जाया) पत्नी (इव) यथा (पत्ये) स्वभर्त्रे (तन्वम्) तनूम्। स्वशरीरम् (रिरिच्याम्) रिचिर् विरेचने।विस्तारयेयम् (चित्) अपि च (वि वृहेव) परस्परसंश्लेषो विवर्हा। आवां संश्लेषंकरवाव (रथ्या) तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्। पा० ४।४।७६। इति यत्। विभक्तेः।पूर्वसवर्णदीर्घः। रथ्ये। रथवाहके (इव) यथा (चक्रा) चक्रद्वे ॥
०९ न तिष्ठन्ति
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न ति॑ष्ठन्ति॒ ननि मि॑षन्त्ये॒ते दे॒वानां॒ स्पश॑ इ॒ह ये च॑रन्ति।
अ॒न्येन॒ मदा॑हनो याहि॒तूयं॒ तेन॒ वि वृ॑ह॒ रथ्ये॑व च॒क्रा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न ति॑ष्ठन्ति॒ ननि मि॑षन्त्ये॒ते दे॒वानां॒ स्पश॑ इ॒ह ये च॑रन्ति।
अ॒न्येन॒ मदा॑हनो याहि॒तूयं॒ तेन॒ वि वृ॑ह॒ रथ्ये॑व च॒क्रा ॥
०९ न तिष्ठन्ति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- They stand not, they wink not, those spies of the gods who go about
here; with another than me, O lustful one, go quickly; with him whirl
off like two chariot wheels.
Notes
The verse is RV. x. 10. 8, without variant. The comm. reads eke at end
of a; he explains tū́yam in c by tūrṇam, and supplies
ramasva: ‘hasten to enjoy thyself.’
Griffith
They stand not still, they never close their eyelids, those senti- nels of Gods who wander round us. Not me–go quickly, wanton, with another, and hasten like a chariot-wheel to meet him.
पदपाठः
न। ति॒ष्ठ॒न्ति॒। न। नि। मि॒ष॒न्ति॒। ए॒ते। दे॒वाना॑म्। स्पशः॑। इ॒ह। ये। चर॑न्ति। अ॒न्येन॑। आ॒ह॒नः॒। या॒हि॒। तूय॑म्। तेन॑। वि। वृ॒ह॒। रथ्या॑ऽइव। च॒क्रा। १.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देवानाम्) विद्वानोंके (एते) यह (स्पशः) नियम (न) न (तिष्ठन्ति) ठहरते हैं और (न) न (नि मिषन्ति)मुँदते हैं, (ये) जो (इह) यहाँ पर (चरन्ति) चलते हैं। (आहनः) हे चोट लगानेवाली !तू (मत्) मुझ से (अन्येन) दूसरे के साथ (तूयम्) शीघ्र (याहि) जा और (तेन) उसकेसाथ (रथ्या) रथ ले चलनेवाले (चक्रा इव) दो पहियों के समान (वि वृह) संयोग कर ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पुरुष का वचन है। बड़ेलोगों की अटल मर्यादाएँ सबको मानने योग्य हैं, मैं बहिन के साथ विवाह नहीं करसकता, तू दूसरे से विवाह करके गृहस्थिनी हो ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(न) निषेधे (तिष्ठन्ति) गत्यानिवर्तन्ते (न) (नि मिषन्ति) निमेषं चक्षुर्मुद्रणं कुर्वन्ति (एते) (देवानाम्)विदुषाम् (स्पशः) स्पश ग्रन्थे बाधने च-क्विप्। प्रबन्धाः। नियमाः (इह) संसारे (ये) (चरन्ति) प्रवर्तन्ते (अन्येन) इतरेण सह (मत्) मत्तः) (आहनः) म० ७। हेआहननशीले (याहि) गच्छ (तूयम्) क्षिप्रनाम-निघ० २।१५। शीघ्रम् (तेन) पुरुषेण सह (वि वृह) संश्लेषं कुरु (रथ्या) म० ८। रथवाहके (इव) (चक्रा) चक्रद्वे ॥
१० रात्रीभिरस्माअहभिर्दशस्येत्सूर्यस्य
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रात्री॑भिरस्मा॒अह॑भिर्दशस्ये॒त्सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒र्मुहु॒रुन्मि॑मीयात्।
दि॒वा पृ॑थि॒व्यामि॑थु॒ना सब॑न्धू य॒मीर्य॒मस्य॑ विवृहा॒दजा॑मि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
रात्री॑भिरस्मा॒अह॑भिर्दशस्ये॒त्सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒र्मुहु॒रुन्मि॑मीयात्।
दि॒वा पृ॑थि॒व्यामि॑थु॒ना सब॑न्धू य॒मीर्य॒मस्य॑ विवृहा॒दजा॑मि ॥
१० रात्रीभिरस्माअहभिर्दशस्येत्सूर्यस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- By nights, by days one may pay reverence (daśasy) to him; the
sun’s eye may open (? ún mimīyāt) for a moment; with heaven, with
earth paired, of near connection;—Yamī must bear the unbrotherly
(ájāmi) [conduct] of Yama.
Notes
RV. x. 10. 9 differs from our text only by reading in d bibhṛyāt;
and this reading the translation implies, vivṛhāt seeming
unexplainable save as a corruption, suggested by the forms of vi-vṛh
in the two preceding verses. The connection of the verse is very loose,
and the sense of b especially doubtful. One is tempted to emend to
mimīlyāt; but ā́ mimīyāt is found in TB. iii. 6. 13 ⌊2d prāiṣa⌋,
explained by its commentary as meaning āgatya praviśeyuḥ. Our comm.
explains? ún m- as úrdhvaṁ gacchet (the RV. comm. as ud etu). Our
comm. further reads at the end ajāmis, and understands it of Yamī. The
adjectives in c are dual; the comm. supplies “earth with heaven and
heaven with earth.” ⌊Cf. Weber, Sb., p. 823.⌋
Griffith
May Surya’s eye with days and nights endow him, and ever may his light spread out before him. In heaven and earth the kindred pair commingle. On Yami be the unbrotherly act of Yama.
पदपाठः
रात्री॑भिः। अ॒स्मै॒। अह॑ऽभिः। द॒श॒स्ये॒त्। सूर्य॑स्य। चक्षुः॑। मुहुः॑। उत्। मि॒मी॒या॒त्। दि॒वा। पृ॒थि॒व्या। मि॒थु॒ना। सब॑न्धू॒ इति॒ सऽब॑न्धू। य॒मीः। य॒मस्य॑। वि॒वृ॒हा॒त्। अजा॑मि। १.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रात्रीभिः) रात्रियोंके साथ और (अहभिः) दिनों के साथ (अस्मै) इस [भाई] को (सूर्यस्य) सूर्य की (चक्षुः) ज्योति (दशस्येत्) [सुमति] देवे और (मुहुः) बारम्बार (उत् मिमीयात्)फैली रहे। (दिवा) सूर्य के साथ और (पृथिव्या) पृथिवी के साथ (मिथुना) जोड़ा-जोड़ा (सम्बन्धू) भाई के साथवाले हैं, [फिर] (यमीः) जोड़िया बहिन (यमस्य)जोड़िया भाई के (अजामि) बिना सम्बन्ध से (विवृहात्) उद्यम करे ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्री का वचन है। हेभाई ! सूर्य के प्रकाश में आँख खोल कर देख कि राति और दिन बहिन-भाई होकर पति-पत्नी भाव से रहते हैं और सूर्य और पृथिवी के बीच सब पदार्थों में भी यहीसम्बन्ध है, फिर मैं भी बहिन होकर अपने भाई से ही विवाह करूँ ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(रात्रीभिः) (अस्मै) यमाय (अहभिः) अहोभिः। दिनैः (दशस्येत्) दद्यात् सुमतिम् (सूर्यस्य) (चक्षुः) प्रकाशकं तेजः (मुहुः) बारम्बारम् (उन्मिमीयात्) माङ् माने, परस्मैपदंछान्दसम्। ऊर्ध्वं मानं गमनं कुर्यात् (दिवा) सूर्येण सह (पृथिव्या) भूम्या सह (मिथुना) स्त्रीपुरुषयोर्युग्मे। द्वन्द्वे (सबन्धू) बन्धुना भ्रात्रा सहिते (यमीः) विसर्गश्छान्दसः-म० ८। यमी। एकगर्भजायमाना यमजा भगिनी (यमस्य) म० ८।एकगर्भजायमानस्य यमजस्य। भ्रातुः (वि वृहात्) वृहू उद्यमने। विविधं यत्नंकुर्यात् (अजामि) अजामित्वेन। सम्बन्धराहित्येन ॥
११ आ घा
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आ घा॒ ताग॑च्छा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॒ यत्र॑ जा॒मयः॑ कृ॒णव॒न्नजा॑मि।
उप॑ बर्बृहि वृष॒भाय॑बा॒हुम॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ घा॒ ताग॑च्छा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॒ यत्र॑ जा॒मयः॑ कृ॒णव॒न्नजा॑मि।
उप॑ बर्बृहि वृष॒भाय॑बा॒हुम॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥
११ आ घा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Verily there shall come those later ages (yugá) in which next of
kin (jāmí) shall do what is unkinly ⌊ájāmi⌋. Put thine arm
underneath a hero (vṛṣabhá); seek, O fortunate one, another husband
than me.
Notes
The verse is, without variant, RV. x. 10. 10. Upa barbṛhi in c
means ‘make an upabárhaṇa (cushion, pillow) of.’ Our comm. regards the
anomalous barbṛhi ⌊Gram. § 1011 a⌋ as barbṛ + hi, -bṛ- being
for -bṛh- by Vedic license.
Griffith
Sure there will come succeeding times when brothers and sisters will do acts unmeet for kinsfolk. Not me, O fair one–seek another husband, and make thine arm a pillow for thy consort.
पदपाठः
आ। घ॒। ता। ग॒च्छा॒न्। उत्ऽत॑रा। यु॒गानि॑। यत्र॑। जा॒मयः॑। कृ॒णव॑न्। अजा॑मि। उप॑। ब॒र्बृ॒ही॒। वृ॒ष॒भाय॑। बा॒हुम्। अ॒न्यम्। इ॒च्छ॒स्व॒। सु॒ऽभ॒गे॒। पति॑म्। मत्। १.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ता) वे (उत्तरा) अगले (युगानि) युग [समय] (घ) निःसन्देह (आ गच्छान्) आवें, (यत्र) जिन में (जामयः) कुलस्त्रियाँ [वा बहिनें] (अजामि) कुलस्त्रियों [वा बहिनों] के अयोग्य काम को (कृणवन्) करने लगें। (वृषभाय) श्रेष्ठ वर के लिये (बाहुम्) [अपनी] भुजा (उपबर्बृहि) आगे बढ़ा, (सुभगे) हे सुभगे ! [बड़े ऐश्वर्य] वाली (मत्) मुझ से (अन्यम्) दूसरे (पतिम्) पति को (इच्छस्व) ढूँढ़ ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पुरुष का वचन है। चाहेकुलस्त्रियाँ धर्म छोड़ कर अधर्म करने लगें, मैं अधर्म न करूँगा, तू अपने लियेदूसरा पति वर के गृहस्थ आश्रम कर ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११−(आ गच्छान्) आगच्छेयुः (घ) निश्चयेन (ता) तानि (उत्तरा) आगामीनि (युगानि) समयविशेषाः (यत्र) येषु युगेषु (जामयः)कुलस्त्रियः। भगिन्यः (कृणवन्) कृवि हिंसाकरणयोः। कुर्युः (अजामि) कुलस्त्रीणांभगिनीनां वा अयोग्यं कर्म (उप) समीपे (बर्बृहि) बृह वृद्धौ यङ्लुकि लोट्। भृशंवर्धय (वृषभाय) श्रेष्ठाय वराय (बाहुम्) स्वभुजम् (अन्यम्) भिन्नपुरुषम् (इच्छस्व) कामयस्व (सुभगे) हे बह्वैश्वर्यवति (पतिम्) भर्तारम् (मत्) मत्तः ॥
१२ किम्भ्रातासद्यदनाथं भवाति
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किंभ्राता॑स॒द्यद॑ना॒थं भवा॑ति॒ किमु॒ स्वसा॒ यन्निरृ॑तिर्नि॒गच्छा॑त्।
काम॑मूताब॒ह्वे॒३॒॑तद्र॑पामि त॒न्वा॑ मे त॒न्वं१॒॑ सं पि॑पृग्धि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
किंभ्राता॑स॒द्यद॑ना॒थं भवा॑ति॒ किमु॒ स्वसा॒ यन्निरृ॑तिर्नि॒गच्छा॑त्।
काम॑मूताब॒ह्वे॒३॒॑तद्र॑पामि त॒न्वा॑ मे त॒न्वं१॒॑ सं पि॑पृग्धि ॥
१२ किम्भ्रातासद्यदनाथं भवाति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What should brother be when there is no protector? or what sister,
when destruction impends (ni-gam)? Impelled by desire, I prate thus
much; mingle thou thy body with my body.
Notes
The first half-verse apparently means that the matter of near kindred is
overborne in importance by the consideration of her loneliness and of
the necessity for continuing their race. The verse agrees throughout
with RV. x. 10. 11. The comm. renders -mūtā in c by mūrchitā.
Griffith
Is he a brother when no help is left her? Is she a sister when Destruction cometh? Forced by my love these many words I utter. Come near, and hold me in thy close embraces,
पदपाठः
किम्। भ्राता॑। अ॒स॒त्। यत्। अ॒ना॒थम्। भवा॑ति। किम्। ऊं॒ इति॑। स्वसा॑। यत्। निःऽऋ॑तिः। नि॒ऽगच्छा॑त्। काम॑ऽमूता। ब॒हू। ए॒तत्। र॒पा॒मि॒। त॒न्वा᳡। मे॒। त॒न्व᳡म्। सम्। पि॒पृ॒ग्धि॒। १.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (भ्राता) भाई (किम्)क्या (असत्) होवे, (यत्) जब [बहिन को] (अनाथम्) बिन सहारा (भवाति) होवे, (उ) और (स्वसा) बहिन (किम्) क्या है (यत्) जब [भाई पर] (निर्ऋतिः) महाविपत्ति (निगच्छात्) आपड़े। (काममूता) काम से बँधी हुई मैं (बहु) बहुत कुछ (एतत्) यह (रपामि) कहती हूँ, (तन्वा) [अपने] शरीर से (मे) मेरे (तन्वम्) शरीर को (संपिपृग्धि) मिलकर छू ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्री का वचन है। वहभाई नहीं है जो बहिन की विपत्ति में सहाय न करे और न वह बहिन है जो भाई के कष्टको न मिटावे। मैं काम से पीड़ित होकर तेरे साथ विवाह के लिये कहती हूँ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १२−(किम्) किमर्थम्। निष्फलम् (भ्राता) सहोदरः (असत्) भवेत् (यत्) यदि (अनाथम्) अनाथत्वम्। अनाश्रयत्वम् (भवाति) भवेत्, भगिन्याम् (किम्) निष्फलम् (उ)समुच्चये (स्वसा) भगिनी (यत्) यदि (निर्ऋतिः) कृच्छ्रापत्तिः (निगच्छात्)निपतेत् भ्रातरि (काममूता) मूङ् बन्धने-क्त। कामेन बद्धा पीडिता (बहु)नानाप्रकारेण (एतत्) इदं वचनम् (रपामि) कथयामि (तन्वा) स्वशरीरेण (मे) मम (सम्)संगत्य (पिपृग्धि) पृची सम्पर्के। छान्दसःश्लुः, अभ्यासस्य इत्वम्। संपर्चय ॥
१३ न ते
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न ते॑ ना॒थंय॒म्यत्रा॒हम॑स्मि॒ न ते॑ त॒नूं त॒न्वा॒३॒॑ सम्प॑पृच्याम्।
अ॒न्येन॒ मत्प्र॒मुदः॑कल्पयस्व॒ न ते॒ भ्राता॑ सुभगे वष्ट्ये॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न ते॑ ना॒थंय॒म्यत्रा॒हम॑स्मि॒ न ते॑ त॒नूं त॒न्वा॒३॒॑ सम्प॑पृच्याम्।
अ॒न्येन॒ मत्प्र॒मुदः॑कल्पयस्व॒ न ते॒ भ्राता॑ सुभगे वष्ट्ये॒तत् ॥
१३ न ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I am not thy protector here, O Yamī; I may not mingle my body with
thy body; with another than me do thou prepare enjoyments; thy brother
wants not that, O fortunate one.
Notes
All our mss. save Op.K. accent yámi in a; SPP. reports only one of
his as doing so. RV. x. 10. 12 is in our text expanded into two verses,
its second half being our c, d, without variant. The comm. reads
nūnam for tanūm in b; he explains nāthám in a by
abhimatārthasampādakas.
Griffith
I am no help for thee, no refuge, Yami, I will not clasp and press thee to my bosom. This is abhorrent to my mind and spirit–a brother on the couch beside a sister.
पदपाठः
न। ते॒। ना॒थम्। य॒मि॒। अत्र॑। अ॒हम्। अ॒स्मि॒। न। ते॒। त॒नूम्। त॒न्वा᳡। सम्। प॒पृ॒च्या॒म्। अ॒न्येन॑। मत्। प्र॒ऽमुदः॑। क॒ल्प॒य॒स्व॒। न। ते॒। भ्राता॑। सु॒ऽभ॒गे॒। व॒ष्टि॒। ए॒तत्। १.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यमि) हे यमी ! [जोड़िया बहिन] (अहम्) मैं (अत्र) इस [विषय] में (ते) तेरा (नाथम्) आश्रय (न)नहीं (अस्मि) हूँ, (ते) तेरे (तनूम्) शरीर को (तन्वा) [अपने] शरीर से (न) नहीं (सम्) मिलकर (पपृच्याम्) छूऊँगा। (मत्) मुझ से (अन्येन) दूसरे [वर] के साथ (प्रमदः) आनन्दों को (कल्पयस्व) मना, (सुभगे) हे सुभगे ! [बड़े ऐश्वर्यवाली] (तेभ्राता) तेरा भाई (एतत्) यह (न) नहीं (वष्टि) चाहता है ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पुरुष का वचन है। यहठीक है कि हम दोनों भाई-बहिन होकर विपत्ति में परस्पर सहाय करें, परन्तु धर्मछोड़कर बहिन से विवाह न करूँगा। मैं तुझ से कहता हूँ कि तू दूसरे योग्य वर सेविवाह कर ले ॥१३॥इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध ऋग्वेद में है−१०।१०।१२ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३−(न)निषेधे (ते) तव (नाथम्) आश्रयः (यमि) म० ८। हे यमजे भगिनि (अत्र) अस्मिन् विषये (अहम्) भ्राता (अस्मि) भवामि (न) नहि (ते) तव (तनूम्) शरीरम् (तन्वा) स्वशरीरेण (सम्) संगत्य (पपृच्याम्) संपर्चयाम् (अन्येन) भिन्नेन वरेण (मत्) मत्तः (प्रमुदः) प्रहर्षान् (कल्पयस्व) समर्थय। साधय (न) निषेधे (ते) तव (भ्राता)सहोदरः (सुभगे) हे बह्वैश्वर्यवति (वष्टि) इच्छति (एतत्) इदं कर्म ॥
१४ न वा
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न वा उ॑ ते त॒नूंत॒न्वा॒३॒॑ सं पि॑पृच्यां पा॒पमा॑हु॒र्यः स्वसा॑रं नि॒गच्छा॑त्।
असं॑यदे॒तन्मन॑सोहृ॒दो मे॒ भ्राता॒ स्वसुः॒ शय॑ने॒ यच्छयी॑य ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न वा उ॑ ते त॒नूंत॒न्वा॒३॒॑ सं पि॑पृच्यां पा॒पमा॑हु॒र्यः स्वसा॑रं नि॒गच्छा॑त्।
असं॑यदे॒तन्मन॑सोहृ॒दो मे॒ भ्राता॒ स्वसुः॒ शय॑ने॒ यच्छयी॑य ॥
१४ न वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Verily, I may not mingle my body with thy body; they call him wicked
(pāpá) who should approach his sister. That is not consonant (?
asaṁyát) with my mind [and] heart, that I, a brother, should lie in
a sister’s bed (śáyana).
Notes
The first half-verse ⌊cf. vs. 13⌋ is RV. x. 10. 12 a, b, which
latter, however, reads in a te tanvā̀ tanvàṁ sám. All the mss.
leave śayīya at the end unaccented, and both editions read
accordingly; we ought in ours to have made the necessary emendation to
śáyīya. The mss. vary in c between ásaṁyat, asaṁyát, ásaṁyát,
and asaṁyat; SPP. gives in his text ásaṁyat, which is better than
our asaṁyát; the pada-text divides asam॰yat. The comm. reads
instead asuṁ yat, and supplies a verb, apaharet, to govern asum.
Griffith
I will not fold mine arms about thy body: they call it sin when one comes near a sister. Not me–prepare thy pleasure with another. Thy brother seeks not this from thee, O fair one.
पदपाठः
न। वै। ऊं॒ इति॑। ते॒। त॒नूम्। त॒न्वा᳡। सम्। प॒पृ॒च्या॒म्। पा॒पम्। आ॒हुः॒। यः। स्वसा॑रम्। नि॒ऽगच्छा॑त्। अस॑म्ऽयत्। ए॒तत्। मन॑सः। हृ॒दः। मे॒। भ्राता॑। स्वसुः॑। शय॑ने। यत्। श॒यी॒य॒। १.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भुरिक् त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वै उ) कभी भी (तेतनूम्) तेरे शरीर को (तन्वा) [अपने] शरीर से (न) नहीं (सम्) मिलकर (पपृच्याम्)छूऊँगा, [उस मनुष्य को] (पापम्) पापी (आहुः) वे [शिष्ट लोग] कहते हैं, (यः) जो (स्वसारम्) बहिन को (निगच्छात्) नीचपन से प्राप्त करे। (एतत्) यह [बात] (मे)मेरे (मनसः) मन [संकल्प] के और (हृदः) हृदय [निश्चय] के (असंयत्) असंगत है−(यत्)कि (भ्राता) मैं भाई (स्वसुः) बहिन की (शयने) सेज पर (शयीय) सोऊँ ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह भी पुरुष का वचनहै। मैं कभी भी तेरे साथ विवाह न करूँगा। बड़े लोग भाई के साथ बहिन का विवाह पापमानते हैं और मैं भी अन्तःकरण से इसे पाप समझता हूँ ॥१४॥इस मन्त्र कापूर्वार्द्ध ऋग्वेद में है−१०।१०।१२ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४−(न) निषेधे (वै उ) कदापि (ते) तव (तनूम्) शरीरम् (तन्वा) स्वशरीरेण (सम्) संगत्य (पपृच्याम्) संपर्चयाम् (पापम्)पापिनं तं पुरुषम् (आहुः) कथयन्ति शिष्टाः (यः) भ्राता (स्वसारम्) भगिनीम् (निगच्छात्) नीचं प्राप्नुयात् (असंयत्) यमु उपरमे-क्विप्। असंगतम् (एतत्) इदंकर्म (मनसः) चित्तस्य। संकल्पस्य (हृदः) हृदयस्य। निश्चयस्य (मे) मम (भ्राता) (स्वसुः) भगिन्याः (शयने) शय्यायाम् (यत्) अर्थबोधने (शयीय) अहं शयनं कुर्याम् ॥
१५ बतो बतासि
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ब॒तो ब॑तासि यम॒नैव ते॒ मनो॒ हृद॑यं चाविदा॒म।
अ॒न्या किल॒ त्वां क॒क्ष्ये᳡व यु॒क्तं परि॑ष्वजातौ॒ लिबु॑जेव वृ॒क्षम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ब॒तो ब॑तासि यम॒नैव ते॒ मनो॒ हृद॑यं चाविदा॒म।
अ॒न्या किल॒ त्वां क॒क्ष्ये᳡व यु॒क्तं परि॑ष्वजातौ॒ लिबु॑जेव वृ॒क्षम् ॥
१५ बतो बतासि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- A weakling (? batá), alas, art thou, O Yama; we have not found
mind and heart thine; verily, another woman shall embrace thee, as a
girth a harnessed [horse], as a twining plant (líbujā) a tree.
Notes
RV. x. 10. 13 varies from this only by reading (as also our Bp.) in
d ṣvajāte. The translation given of kakṣyè ’va yuktám agrees
with the comm. (also the comm. to RV.), which renders yuktam by
svasambaddham aśvam. Pāda b evidently alludes to 14 c, where
Yama talks of his mind and heart. If batás is a genuine word (the
metrical disarray intimates corruption), it looks like being the noun of
which the common exclamation bata is by origin the vocative. The RV.
Anukr. takes no notice of the defective meter; ours requires the verse
to be read as only 40 syllables, which is possible (10 + 9: 10 + 11 =
40); ⌊c and d are good triṣṭubh pādas and b has a
triṣṭubh cadence⌋.
Griffith
Alas; thou art indeed a weakling Yama. We find in thee no trace o f heart or spirit. As round a tree the woodbine clings, another will cling about thee girt as with a girdle.
पदपाठः
ब॒तः। ब॒त॒। अ॒सि॒। य॒म॒। न। ए॒व। ते॒। मनः॑। हृद॑यम्। च॒। अ॒वि॒दा॒म॒। अ॒न्या। किल॑। त्वाम्। क॒क्ष्या᳡ऽइव। यु॒क्तम्। परि॑। स्व॒जा॒तै॒। लिबु॑जाऽइव। वृ॒क्षम्। १.१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आर्षी पङ्क्ति
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (बत) हा ! (यम) हे यम ! [जोड़िया भाई] तू (बतः) बड़ा निर्बल (असि) है, (ते) तेरे (मनः) मन [संकल्प] को (च) और (हृदयम्) हृदय [निश्चय] को (एव) निःसन्देह (न अविदाम) हम ने नहीं पाया। (अन्या) दूसरी स्त्री (किल) अवश्य (त्वाम्) तुझ से (परि ष्वजातै) आलिङ्गन करेगी, (कक्ष्या इव) जैसे घोड़े की पेटी (युक्तम्) कसे हुए [घोड़े] से और (लिबुजा इव)जैसे बेल [लता] (वृक्षम्) वृक्ष से [लिपट जाती है] ॥१५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्री का वचन है। भाई ! मैंने तुझे इतना समझाया पर तूने मेरी बात न मानी, अवश्य मुझ से दूसरी स्त्रीतेरे साथ विवाह कर के सुख भोगेगी ॥१५॥मन्त्र १५ और १६ कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१०।१३, १४ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १५−(बतः) वन उपकारे उपतापे च-क्त। बतो बलादतीतो भवतिदुर्बलः-निरु० ६।२८। अतिनिर्बलः (बत) शोके। हा (असि) (यम) म० ८। हे यमजभ्रातः (न) निषेधे (एव) निश्चयेन (ते) तव (मनः) चित्तम् संकल्पम् (हृदयम्) अन्तःकरणम्।निश्चयम् (च) (अविदाम) विद् लाभे-लुङ्। वयं प्राप्तवत्यः (अन्या) मद्भिन्नास्त्री (किल) प्रसिद्धौ (त्वाम्) (कक्ष्या) अश्वस्य कक्षप्रदेशस्था रज्जुः (इव)यथा (युक्तम्) गमनाय योजितमश्वम् (परिष्वजातै) आलिङ्गेत् (लिबुजा) अ० ६।८।१। लता (वृक्षम्) तरुम् ॥
१६ अन्यमू षुयम्यन्य
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अ॒न्यमू॒ षुय॑म्य॒न्य उ॒ त्वां परि॑ ष्वजातै॒ लिबु॑जेव वृ॒क्षम्।
तस्य॑ वा॒ त्वं मन॑ इच्छा॒स वा॒ तवाधा॑ कृणुष्व संविदं॒ सुभ॑द्राम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒न्यमू॒ षुय॑म्य॒न्य उ॒ त्वां परि॑ ष्वजातै॒ लिबु॑जेव वृ॒क्षम्।
तस्य॑ वा॒ त्वं मन॑ इच्छा॒स वा॒ तवाधा॑ कृणुष्व संविदं॒ सुभ॑द्राम् ॥
१६ अन्यमू षुयम्यन्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Another man, truly, O Yamī, another man shall embrace thee, as a
twining plant a tree; either do thou seek his mind or he thine; then
make for thyself very excellent concord (samvíd).
Notes
RV. x. 10. 14 has for a the much better version anyám ū ṣú tváṁ
yamy anyá u tvā́m, and in b again ṣvajāte. Our D., and a single
ms. of SPP’s (with the comm.), also have anyam ⌊at the beginning⌋, and
SPP. accordingly admits anyám into his text, in spite of the absence
of tvám. But the comment on the Prāt. three times (under ii. 97; iii.
4; iv. 98) reads anya ū ṣu, and it cannot well be questioned that this
is the true text of our AV. Our P.M.E. accent again yámi. The Anukr.
takes no notice of the lacking syllable in a; ⌊perhaps it balances
c against a⌋.
Griffith
Embrace another, Yami. Let some other, even as the woodbine rings a tree, enfold thee. Win thou his heart and let him win thy fancy; so make with him a bond of blest alliance.
पदपाठः
अ॒न्यम्। ऊं॒ इति॑। सु। य॒मि॒। अ॒न्यः। ऊं॒ इति॑। त्वाम्। परि॑। स्व॒जा॒तै॒। लिबु॑जाऽइव। वृ॒क्षम्। तस्य॑। वा॒। त्वम्। मनः॑। इ॒च्छ। सः। वा॒। तव॑। अध॑। कृ॒णु॒ष्व॒। स॒म्ऽविद॑म्। सुऽभ॑द्राम्। १.१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यमि) हे यमी ! [जोड़िया बहिन] तू (अन्यम्) दूसरे पुरुष से (सु उ) अच्छे प्रकार [मिल], (उ) और (अन्यः) दूसरा पुरुष (त्वाम्) तुझ से (परि ष्वजातै) मिले, (लिबुजा इव) जैसे बेल [लता] (वृक्षम्) वृक्ष से। (वा) और (त्वम्) तू (तस्य) उसके (मनः) मन को (इच्छ)चाह, (वा) और (सः) वह (तव) तेरे [मन को चाहे], (अध) फिर तू (सुभद्राम्) बड़ेमङ्गलयुक्त (संविदम्) संगति (कृणुष्व) कर ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पुरुष का अन्तिम वचनहै। हे बहिन ! तू प्रसन्न होकर दूसरे योग्य वर से विवाह कर ले। तुम दोनों परस्परप्रीति बढ़ाकर आनन्द भोगो ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १६−(अन्यम्) भिन्नपुरुषम्-परिष्वजेति शेषः (उ) एव (सु) सुष्ठु (यमि) म० ८। हे यमजे भगिनि (अन्यः) इतरः पुरुषः (उ) (त्वाम्) (परिष्वजातै) आलिङ्गेत् (लिबुजा) अ० ६।८।१। लता (इव) यथा) (वृक्षम्) (तस्य)वरस्य (वा) समुच्चये। च (त्वम्) (मनः) चित्तम् (इच्छ) कामयस्व (सः) वरः (वा) च (तव) (अध) अथ। अनन्तरम् (कृणुष्व) कुरु (संविदम्) संगतिम् (सुभद्राम्)अत्यन्तमङ्गलप्रदाम् ॥
१७ त्रीणिछन्दांसि कवयो
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त्रीणि॒छन्दां॑सि क॒वयो॒ वि ये॑तिरे पुरु॒रूपं॑ दर्श॒तं वि॒श्वच॑क्षणम्।
आपो॒ वाता॒ओष॑धय॒स्तान्येक॑स्मि॒न्भुव॑न॒ आर्पि॑तानि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्रीणि॒छन्दां॑सि क॒वयो॒ वि ये॑तिरे पुरु॒रूपं॑ दर्श॒तं वि॒श्वच॑क्षणम्।
आपो॒ वाता॒ओष॑धय॒स्तान्येक॑स्मि॒न्भुव॑न॒ आर्पि॑तानि ॥
१७ त्रीणिछन्दांसि कवयो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Three meters the poets extended (? vi-yat)—the many-formed one,
the admirable, the all-beholding; waters, winds, herbs—these are set
(ā́rpita) in one being (bhúvana).
Notes
The verse is extremely obscure, in meaning and in connection. The mss.
vary much as regards the accent of pururūpam; two of ours (O.D.) and
several of SPP’s accent -rū́p-, which, as it is found in other texts,
the latter has very properly admitted in his edition. The comm. renders
ví yetire by yatnaṁ kṛtavantaḥ. The Anukr. takes no notice of the
irregularity of the meter. ⌊Concerning this prakṣipta-verse,
“glossenartige Parallelstelle,” see Weber, Sb. 1895, p. 819 note, and
p. 828.⌋
Griffith
Three hymns the Sages have disposed in order, the many-formed, the fair, the all-beholding. These in one single world are placed and settled–the growing plants, the breezes, and the waters.
पदपाठः
त्रीणि॑। छन्दां॑सि। क॒वयः॑। वि। ये॒ति॒रे॒। पु॒रु॒ऽरूप॑म्। द॒र्श॒तम्। वि॒श्वऽच॑क्षणम्। आपः॑। वाताः॑। ओष॑धयः। तानि॑। एक॑स्मिन्। भुव॑ने। आर्पि॑तानि। १.१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कवयः) बुद्धिमानों ने (पुरुरूपम्) अनेक प्रकार निरूपण करने योग्य, (दर्शतम्) अद्भुत गुणवाले (विश्वचक्षणम्) सबके देखने योग्य, (त्रीणि) तीन (छन्दांसि) आनन्द देनेवालेपदार्थों को (वि) विविध प्रकार (येतिरे) यत्न में किया है। वे (आपः) जल, (वाताः)पवनें और (ओषधयः) ओषधें [सोमलता, जौ, चावल आदि] हैं, (तानि) वे सब (एकस्मिन्) एक (भुवने) भुवन [सबके आधार परमात्मा] में (आर्पितानि) ठहरे हैं ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग अनेकप्रकार उपकारी जल, वायु, और ओषधियों आदि के गुणों को विद्वानों में उपदेश करकेलाभ उठावें और उनके कर्ता परमात्मा की महिमा जानकर उन्नति करें ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १७−(त्रीणि)त्रिसंख्याकानि (छन्दांसि) अ० ४।३४।१। चन्देरादेश्च छः। उ० ४।२१९। चदिआह्लादने-असुन्, चस्य छः। आनन्दप्रदपदार्थान् (कवयः) मेधाविनः (वि) विविधम् (येतिरे) यती प्रयत्ने-लिट्। यत्ने कृतवन्तः (पुरुरूपम्) बहुविधनिरूपणीयम् (दर्शतम्) दृशिर्-अतच्। दर्शनीयम्। अद्भुतगुणयुक्तम् (विश्वचक्षणम्)सर्वैर्दर्शनीयम् (आपः) जलानि (वाताः) वायवः (ओषधयः) सोमलताव्रीहियवादयः (तानि)वस्तूनि (एकस्मिन्) (भुवने) सर्वाधारे परमेश्वरे (आर्पितानि) समन्ताद्निवेशितानि ॥
१८ वृषा वृष्णेदुदुहे
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वृषा॒ वृष्णे॑दुदुहे॒ दोह॑सा दि॒वः पयां॑सि य॒ह्वो अदि॑ते॒रदा॑भ्यः।
विश्वं॒ स वे॑द॒ वरु॑णो॒यथा॑ धि॒या स य॒ज्ञियो॑ यजति य॒ज्ञियाँ॑ ऋ॒तून् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वृषा॒ वृष्णे॑दुदुहे॒ दोह॑सा दि॒वः पयां॑सि य॒ह्वो अदि॑ते॒रदा॑भ्यः।
विश्वं॒ स वे॑द॒ वरु॑णो॒यथा॑ धि॒या स य॒ज्ञियो॑ यजति य॒ज्ञियाँ॑ ऋ॒तून् ॥
१८ वृषा वृष्णेदुदुहे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The bull yieldeth (duh) milks for the bull with the milking of the
sky (dív), he the unharmable son (? yahvá) of Aditi; everything
knoweth he, like Varuṇa, by thought (dhī́); he, sharing the sacrifice
(yajñíya), sacrificeth to the seasons that share the sacrifice.
Notes
The verse is RV. x. 11. 1, whose only variant is yajatu for -ti in
d. The comm. explains vṛ́ṣā as Agni, and vṛ́ṣṇe as the sacrificer,
dóhasā as = dohanasādhanena yajñādinā, yahvás as mahān and
qualifying vṛ́ṣā together with ádābhyas, while ádites means
“indivisible” and qualifies divás, which is ablative: the general
sense being that the god procures rain for his worshiper. His
understanding of c agrees with the translation given above. Compare
Pischel’s version of the verse and general explanation of the RV. hymn
in Ved. Stud. i. 183 ff.; his exposition is excessively ingenious and
extremely unsatisfactory.
Griffith
The Bull hath yielded for the Bull the milk of heaven: inviolable is the Son of Aditi. According to his wisdom Varuna knoweth all: he halloweth, the holy, times for sacrifice.
पदपाठः
वृषा॑। वृष्णे॑। दु॒दु॒हे॒। दोह॑सा। दि॒वः। पयां॑सि। य॒ह्वः। अदि॑ते। अदा॑भ्यः। विश्व॑म्। सः। वे॒द॒। वरु॑णः। यथा॑। धि॒या। सः। य॒ज्ञियः॑। य॒ज॒ति॒। य॒ज्ञिया॑न्। ऋ॒तून्। १.१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जगती
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यह्वः) महान्, (अदाभ्यः) न दबनेवाले (वृषा) बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा ने (वृष्णे) पराक्रमीमनुष्य के लिये (दिवः) आनन्द देनेवाली (अदितेः) अखण्ड वेदवाणी की (दोहसा) पूरणतासे (पयांसि) अनेक रसों को (दुदुहे) भरपूर किया है। (वरुणः यथा) श्रेष्ठ पुरुष केसमान (सः) वह [मनुष्य] (विश्वम्) संसार को (धिया) [अपनी] बुद्धि से (वेद) जानताहै और (सः) वह (यज्ञियः) पूजनीय होकर (यज्ञियान्) पूजनीय (ऋतून्) ऋतुओं [उचितकालों] को (यजति) पूजता है ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने वेदद्वारापुरुषार्थी के लिये संसार में अनेक ऐश्वर्य का उपदेश किया है। वही ज्ञानी पुरुषश्रेष्ठों के समान आचरण करके उचित समय को न खोकर संसार का उपकार करता है॥१८॥मन्त्र १८-२४ कुछ भेद वा अभेद से ऋग्वेद में हैं−१०।११।१-७ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १८−(वृषा) वृषुप्रजनने, परमशक्तौ पराक्रमे च-कनिन्। परमशक्तिमान् परमेश्वरः। इन्द्रः (वृष्णे)पराक्रमिणे पुरुषाय (दुदुहे) प्रपूरितवान् (दोहसा) दुह प्रपूरणे-असुन्।प्रपूर्त्या (दिवः) दिवु मोदे-डिवि। आनन्दप्रदायाः (पयांसि) रसान् (यह्वः)महान्-निघ० ३।३। (अदितेः) अदितिर्वाङ्नाम-निघ० १।११। अखण्डिताया वेदवाण्याः (अदाभ्यः) अहिंस्यः (विश्वम्) संसारम् (सः) पराक्रमी (वेद) वेत्ति (वरुणः)श्रेष्ठपुरुषः (यथा) सादृश्ये (धिया) प्रज्ञया (सः) (यज्ञियः) पूजार्हः (यजति)पूजयति (यज्ञियान्) पूजनीयान् (ऋतून्) अर्त्तेश्चतुः। उ० १।७२। ऋ गतौ-तु कित्।गमनशीलान् योग्यकालान् ॥
१९ रपद्गन्धर्वीरप्या च
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रप॑द्गन्ध॒र्वीरप्या॑ च॒ योष॑णा न॒दस्य॑ ना॒दे परि॑ पातु नो॒ मनः॑।
इ॒ष्टस्य॒मध्ये॒ अदि॑ति॒र्नि धा॑तु नो॒ भ्राता॑ नो ज्ये॒ष्ठः प्र॑थ॒मो वि वो॑चति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
रप॑द्गन्ध॒र्वीरप्या॑ च॒ योष॑णा न॒दस्य॑ ना॒दे परि॑ पातु नो॒ मनः॑।
इ॒ष्टस्य॒मध्ये॒ अदि॑ति॒र्नि धा॑तु नो॒ भ्राता॑ नो ज्ये॒ष्ठः प्र॑थ॒मो वि वो॑चति ॥
१९ रपद्गन्धर्वीरप्या च ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Prateth the Gandharvī and watery woman; in the noise of the noisy
one (nadá) let [her] protect our mind; let Aditi set us in the midst
of what is desired (? iṣṭá); our oldest brother shall first speak out.
Notes
RV. x. 11. 2 has for sole variant me for nas in b. The comm. to
the first half-verse appears to be defective; but it certainly
understands the goddesses Bhāratī and Sarasvatī to be intended in a;
iṣṭasya is either phalasya or yāgasya; the “brother” is Agni.
⌊Pischel discusses the RV. verse at Ved. Stud. i. 183.⌋
Griffith
Gandharvi spake. May she, the Lady of the Flood amid the river’s roaring leave my heart untouched. May Aditi accomplish all that we desire, and may our eldest Brother tell us this as chief.
पदपाठः
रप॑त्। ग॒न्ध॒र्वीः। अप्या॑। च॒। योष॑णा। न॒दस्य॑। ना॒दे। परि॑। पा॒तु॒। नः॒। मनः॑। इ॒ष्टस्य॑। मध्ये॑। अदि॑तिः। नि। धा॒तु॒। नः॒। भ्राता॑। नः॒। ज्ये॒ष्ठः। प्र॒थ॒मः। वि। वो॒च॒ति॒। १.१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जगती
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गन्धर्वीः) विद्वानोंको धारण करनेवाली, (अप्या) सत्कर्मों में प्रसिद्ध (च) और (योषणा) सेवने योग्य [वेदवाणी] (रपत्) स्पष्ट कहती है−कि वह [वेदवाणी] (नदस्य) स्तोता [गुणज्ञ] पुरुषके (नादे) सत्कार में (नः) हमारे (मनः) मन [वा विज्ञान] की (परि) सब ओर से (पातु) रक्षा करे। (अदितिः) अखण्ड वेदवाणी (इष्टस्य) अभीष्ट सुख के (मध्ये) बीचमें (नः) हमें (नि) नित्य (धातु) रक्खे, (भ्राता) भाई [के समान हितकारी] (ज्येष्ठः) अतिश्रेष्ठ, (प्रथमः) मुख्य पुरुष (नः) हम को (वि) अनेक प्रकार (वोचति) उपदेश करे ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वेदवाणी हमें उपदेशकरती है कि मनुष्य गुणों के जानने से अपनी रक्षा करता और अभीष्ट सुख पाता है, श्रेष्ठ विद्वान् परस्पर यही उपदेश करे ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १९−(रपत्) रपति। उपदिशति (गन्धर्वीः)गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। स्तोतॄणां धारयित्री (अप्या) म० ४। सत्कर्मसु भवा (च) (योषणा) युष भजने-ल्यु, टाप्। सेवनीया (नदस्य) नदः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६।स्तोतुः। गुणज्ञस्य (नादे) नदतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। अर्चने। सत्कारे (परि)सर्वतः (पातु) रक्षतु (नः) अस्माकम् (मनः) विज्ञानम्। अन्तःकरणम् (इष्टस्य)अभीष्टसुखस्य (मध्ये) (अदितिः) अखण्डिता वेदवाणी (नि) नित्यम् (धातु) दधातु (नः)अस्मान् (भ्राता) भ्रातेव हितकारी (नः) अस्माकम् (ज्येष्ठः) प्रशस्यतमः (प्रथमः)मुख्यः पुरुषः (वि) विविधम् (वोचति) वक्तु। उपदिशतु ॥
२० सो चिन्नुभद्रा
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सो चि॒न्नुभ॒द्रा क्षु॒मती॒ यश॑स्वत्यु॒षा उ॑वास॒ मन॑वे॒ स्व᳡र्वती।
यदी॑मु॒शन्त॑मुश॒तामनु॒ क्रतु॑म॒ग्निं होता॑रं वि॒दथा॑य॒ जीज॑नन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सो चि॒न्नुभ॒द्रा क्षु॒मती॒ यश॑स्वत्यु॒षा उ॑वास॒ मन॑वे॒ स्व᳡र्वती।
यदी॑मु॒शन्त॑मुश॒तामनु॒ क्रतु॑म॒ग्निं होता॑रं वि॒दथा॑य॒ जीज॑नन् ॥
२० सो चिन्नुभद्रा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- She now, the excellent, rich in food, full of glory—the dawn hath
shone for man (mánu), full of light (svàr-); since they have
generated for the council [as] hótṛ Agni, the eager one, after the
will (krátu) of the eager ones.
Notes
This is RV. x. 11. 3, without variant. The comm. renders kṣumátī a by
mantrarūpaśabdavatī, and vidáthāya (of course) by yajñāya, and
understands ánu krátum as “for each several ceremony.”
Griffith
Yea, even this blessed Morning, rich in store of food, splendid, with heavenly lustre, hath shone out for man, Since they as was the wish of yearning Gods, brought forth that yearning Agni for the assembly as the Priest.
पदपाठः
सो इति॑। चि॒त्। नु। भ॒द्रा। क्षु॒ऽमती॑। यश॑स्वती। उ॒षाः। उ॒वा॒स॒। मन॑वे। स्वः᳡ऽवती। यत्। ई॒म्। उ॒शन्त॑म्। उ॒श॒तम्। अनु॑। ऋतु॑म्। अ॒ग्निम्। होता॑रम्। वि॒दथा॑य। जीज॑नन्। १.२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जगती
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सो) वही (चित्)निश्चय करके (नु) अब (भद्रा) कल्याणी, (क्षुमती) अन्नवाली, (यशस्वती) यशवाली, (स्वर्वती) बड़े सुखवाली [वेदवाणी], (उषाः) उषा [प्रभातवेला के समान], (मनवे)मनुष्य के लिये (उवास) प्रकाशमान हुई है। (यत्) क्योंकि (ईम्) इस [वेदवाणी] को (उशन्तम्) चाहनेवाले, (होतारम्) दानी (अग्निम्) विद्वान् पुरुष को (उशताम्)अभिलाषी पुरुषों की (क्रतुम् अनु) बुद्धि के साथ (विदथाय) ज्ञान समाज के लिये (जीजनन्) उन्होंने [विद्वानों ने] उत्पन्न किया है ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने मनुष्य केकल्याण के लिये वेदवाणी को सूर्य के प्रकाश के समान संसार में प्रकट किया है। जोमनुष्य वेदज्ञाता महाविद्वान् होवे, विद्वान् लोग उसको मुखिया बनाकर समाज का सुखबढ़ावें ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २०−(सो) सा-उ। सैव वेदवाणी (चित्) एव (नु) सम्प्रति (भद्रा) कल्याणी (क्षुमती) अन्नवती-निघ० २।७। (यशस्वती) कार्त्तिमती (उषाः) प्रभातवेलारूपावेदवाणी (उवास) वस-लिट्। प्रकाशं कृतवती (मनवे) मनुष्याय (स्वर्वती) सुखवती (यत्) यतः (ईम्) इमां वेदवाणीम् (उशन्तम्) कामयमानम् (उशताम्) कामयमानानाम्।अभिलाषिणाम् (अनु) अनुसृत्य (क्रतुम्) प्रज्ञाम्-निघ० ३।६। (अग्निम्) विद्वांसम् (होतारम्) दातारम् (विदथाय) ज्ञानसमाजाय (जीजनन्) अजीजनन्। उदपादयन् तेविद्वांसः ॥
२१ अध त्यन्द्रप्सम्
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अध॒ त्यंद्र॒प्सं वि॒भ्वं᳡ विचक्ष॒णं विराभ॑रदिषि॒रः श्ये॒नो अ॑ध्व॒रे।
यदी॒ विशो॑वृ॒णते॑ द॒स्ममार्या॑ अ॒ग्निं होता॑र॒मध॒ धीर॑जायत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अध॒ त्यंद्र॒प्सं वि॒भ्वं᳡ विचक्ष॒णं विराभ॑रदिषि॒रः श्ये॒नो अ॑ध्व॒रे।
यदी॒ विशो॑वृ॒णते॑ द॒स्ममार्या॑ अ॒ग्निं होता॑र॒मध॒ धीर॑जायत ॥
२१ अध त्यन्द्रप्सम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Then that mighty (vibhū́) conspicuous drop did the bird, the lively
falcon, bring at the sacrifice; if the Aryan tribes (víś) choose the
wondrous one, Agni, [as] hótṛ, then prayer (dhī́) was born.
Notes
RV. x. 11. 4 differs only by reading iṣitás in b. The comm. makes
a couple of references, to TB. iii. 2. 1¹ and TS. vi. 1. 6¹, where the
legends of the bringing of soma from heaven by the falcon are given.
Prāt. iii. 25 notes the short final of ádha in a and d.
Griffith
And the fleet Falcon brought for sacrifice from afar this flowing. drop most excellent and passing wise, Then when the Aryan tribes chose as invoking Priest Agni the wonder-worker, and the hymn rose up.
पदपाठः
अध॑। त्यम्। द्र॒प्सम्। वि॒ऽभ्व᳡म्। वि॒ऽच॒क्ष॒णम्। विः। आ। अ॒भ॒र॒त्। इ॒षि॒रः। श्ये॒नः। अ॒ध्व॒रे। यदि॑। विशः॑। वृ॒णते॑। द॒स्मम्। आर्याः॑। अ॒ग्निम्। होता॑रम्। अध॑। धीः। अ॒जा॒य॒त॒। १.२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जगती
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अध) और (त्यम्) उस (द्रप्सम्) हर्ष देनेवाले, (विभ्वम्) बली (विचक्षणम्) चतुर [विद्वान्] पुरुष को (श्येनः) श्येन [वाज] (विः) पक्षी [के समान] (इषिरः) फुरतीला [आचार्य आदि] (अध्वरे) यज्ञ में (आ अभरत्) लाया है। (यदि) यदि (आर्याः) आर्य [श्रेष्ठ] (विशः)मनुष्य (दस्मम्) दर्शनीय, (होतारम्) दानी (अग्निम्) विद्वान् पुरुष को (वृणते)चुने, (अध) तब (धीः) वह कर्म (अजायत) हो जावे ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस विद्वान् दूरदर्शीजन को उत्तम गुणों के कारण विद्वान् आचार्य आदि प्रसिद्ध करें, उसको श्रेष्ठ लोगप्रधान बनाकर कार्य सिद्ध करें ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २१−(अध) अथ (त्यम्) तम् (द्रप्सम्)वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। दृप हर्षमोहनयोः-स प्रत्ययः। हर्षकारिणम् (विभ्वम्)विभुम्। प्रभुम्। (विचक्षणम्) दूरदर्शिनम्। चतुरम् (विः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४।वा गतिगन्धनयोः-इण्, डित्। पक्षी (आ अभरत्) हस्य भः। आहरत्। आहृतवान् (इषिरः)इषिमदिमुदि०। उ० १।५१। इष गतौ-किरच्। शीघ्रगामी (श्येनः) श्येन इव (अध्वरे)यज्ञे (यदि) (विशः) मनुष्याः-निघ० २।३। (वृणते) वरणं कुर्वन्ति। पुरस्कुर्वन्ति (दस्मम्) दर्शनीयम् (आर्याः) ऋ गतिप्रापणयोः-ण्यत्। श्रेष्ठाः (अग्निम्)विद्वांसम् (होतारम्) दातारम् (अध) अनन्तरम् (धीः) कर्म-निघ० २।१। (अजायत) जायते॥
२२ सदासि रण्वोयवसेव
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सदा॑सि र॒ण्वोयव॑सेव॒ पुष्य॑ते॒ होत्रा॑भिरग्ने॒ मनु॑षः स्वध्व॒रः।
विप्र॑स्य वा॒ यच्छ॑शमा॒नउ॒क्थ्यो॒३॒॑ वाजं॑ सस॒वाँ उ॑प॒यासि॒ भूरि॑भिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सदा॑सि र॒ण्वोयव॑सेव॒ पुष्य॑ते॒ होत्रा॑भिरग्ने॒ मनु॑षः स्वध्व॒रः।
विप्र॑स्य वा॒ यच्छ॑शमा॒नउ॒क्थ्यो॒३॒॑ वाजं॑ सस॒वाँ उ॑प॒यासि॒ भूरि॑भिः ॥
२२ सदासि रण्वोयवसेव ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Ever art thou pleasant (raṇvá), as pastures to him that enjoys
(puṣ) them, being, O Agni, well sacrificed to with the offerings of
man (mánus); or when, active, praiseworthy, having won the strength
(vā́ja) of the inspired one (vípra), thou approachest with very many.
Notes
RV. x. 11. 5 differs only by reading ukthyàm at end of c. The
construction and meaning of the second half-verse are difficult and
obscure. The comm. explains śaśamānas by śaṅsan yajamānam praśaṅsan
(similarly the comm. to RV.); and bhūribhis as “accompanied by many
desires or else by many gods” (RV. comm. only the latter).
Griffith
Still art thou kind to him who feeds thee as with grass, and. skilled in sacrifice offers thee holy gifts. When thou having received the sage’s strengthening food with lauds, after long toil comest with many more.
पदपाठः
सदा॑। अ॒सि॒। र॒ण्वः। यव॑साऽइव। पुष्य॑ते। होत्रा॑भिः। अ॒ग्ने॒। मनु॑षः। सु॒ऽअ॒ध्व॒रः। विप्र॑स्य। वा॒। यत्। श॒श॒मा॒नः। उ॒क्थ्यः᳡। वाज॑म्। स॒स॒ऽवान्। उ॒प॒ऽयासि॑। भूरि॑ऽभिः। १.२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जगती
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे विद्वान् ! (स्वध्वरः) सुन्दर यज्ञवाला होकर (मनुषः) ज्ञान की (होत्राभिः) वाणियों से (पुष्यते) पुष्ट करनेवाले [मनुष्य] के लिये (यवसा इव) जैसे घास [गौ आदि के लिये] (सदा) सदा तू (रण्वः) रमणीय [सुखदायक] (असि) होता है। (वा) और (यत्) क्योंकि (विप्रस्य) विद्वान् [आचार्य आदि] के (वाजम्) विज्ञान को (ससवान्) सेवन कर चुकाहुआ, (शशमानः) फुरतीला, (भूरिभिः) बहुत [उत्तम पुरुषों] से (उक्थ्यः)स्तुतियोग्य तू (उपयासि) आता है ॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् को योग्य हैकि ज्ञानदाता आचार्य आदि को अपने सत्कर्मों से सदा प्रसन्न रक्खे, क्योंकिउन्हीं महात्माओं की कृपा से वह विज्ञान प्राप्त करके संसार में विख्यात हुआ है॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २२−(सदा) सर्वदा (असि) भवसि (रण्वः) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ १।१५५। रमुक्रीडायाम्-व, मस्य णः। रमणीयः। सुखप्रदः यद्वा, रण शब्दे गतौ च-व प्रत्ययः।स्तुत्यः। प्राप्तव्यः (यवसा) विभक्तेराकारः। यवसम्। घासः। तृणम् (इव) यथा (पुष्यते) पुष पुष्टौ-शतृ। पोषणं कुर्वते पुरुषाय (होत्राभिः) वाग्भिः-निघ० १।११ (अग्ने) हे विद्वन् (मनुषः) जनेरुसिः उ० २।११५। मन ज्ञाने-उसि। ज्ञानस्य (स्वध्वरः) शोभनयागः (विप्रस्य) मेधाविनः (वा) च (यत्) यतः (शशमानः) अ० २।३४।२।शश प्लुतगतौ−चानश्। उत्प्लुत्य गमनशीलः। शीघ्रगामी (उक्थ्यः) स्तुत्यः (वाजम्)विज्ञानम् (ससवान्) षण संभक्तौ-क्वसु। संभजमानः। सेवमानः (उपयासि) आगच्छसि (भूरिभिः)बहुपुरुषैः ॥
२३ उदीरय पितराजार
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उदी॑रय पि॒तरा॑जा॒र आ भग॒मिय॑क्षति हर्य॒तो हृ॒त्त इ॑ष्यति।
विव॑क्ति॒ वह्निः॑ स्वप॒स्यते॑म॒खस्त॑वि॒ष्यते॒ असु॑रो॒ वेप॑ते म॒ती ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उदी॑रय पि॒तरा॑जा॒र आ भग॒मिय॑क्षति हर्य॒तो हृ॒त्त इ॑ष्यति।
विव॑क्ति॒ वह्निः॑ स्वप॒स्यते॑म॒खस्त॑वि॒ष्यते॒ असु॑रो॒ वेप॑ते म॒ती ॥
२३ उदीरय पितराजार ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Send thou up the (two) fathers, [as] a lover, unto enjoyment
(bhága). The welcome one (haryatá) desires to sacrifice; he sends
from the heart; the bearer (váhni) speaks out; the merry one (?
makhá) does a good work; the Asura shows might (taviṣy); he trembles
with purpose (? matī́).
Notes
The verse is RV. x. 11. 6, without variant. It is extremely obscure, and
the general sense, as well as the meaning of several words, is in a high
degree doubtful; the translation given is no more than mechanical. ⌊Cf.
Weber, p. 829.⌋ The ’two fathers’ (parents) are declared by the comm.,
probably rightly, to be heaven and earth; jāras is explained as
ādityas, and ā as = iva. Or, alternatively, jāras is “praiser,”
coming from jarā “praise,” and to a is to be supplied hvayati.
The iṣyati is made = icchati; vahni is Agni; makhas is
makhasādhano maṅhanīyo vā; taviṣyate is vardhiṣyate. All this is
of interest only as showing that no help is to be obtained from the
native exegetes.
Griffith
Urge thou thy Parents, as a lover, to delight: the lovely One desires and craves it from his heart. As Priest he calls aloud, as Warrior shows his skill, as Asura tries his strength, and with the hymn is stirred.
पदपाठः
उत्। ई॒र॒य॒। पि॒तरा॑। जाRरः। आ। भग॑म्। इय॑क्षति। ह॒र्य॒तः। हृ॒त्तः। इ॒ष्य॒ति॒। विव॑क्ति। वह्निः॑। सु॒ऽअ॒प॒स्यते॑। म॒खः। त॒वि॒ष्यते॑। असु॑रः। वेप॑ते। म॒ती। १.२३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जगती
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (जारःआ) स्तोता [गुणज्ञ पुरुष] के समान (पितरा) माता-पिता को (भगम्) ऐश्वर्य की ओर (उत् ईरय) ऊँचा पहुँचा, [क्योंकि] (हर्यतः) [शुभगुणों का] चाहनेवाला (हृत्तः)हृदय से (इयक्षति) [उन्हें] पूजना चाहता है और (इष्यति) चलता है। (वह्निः) भारउठानेवाला (विवक्ति) बोलता है, (मखः) उद्यागी (स्वपस्यते) सत्कर्म करना चाहता हैऔर (असुरः) प्राणवान् [बलवान्] (तविष्यते) महान् होना चाहता है, और (मती) बुद्धिके साथ (वेपते) चेष्टा करता है ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् कृतज्ञ पुरुषधन आदि से माता-पिता की सेवा करे, क्योंकि वृद्धों की सेवा से मनुष्य पुरुषार्थीहोकर जगत् में बड़ा होता है ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २३−(उदीरय) द्विकर्मकः। उद्गमय। उच्चैः प्रापय (पितरा) मातापितरौ (जारः) जरतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। जरिता स्तोतृनाम-निघ०३।१६। जॄ स्तुतौ-घञ्। स्तोता। गुणज्ञः (आ) सादृश्ये। इव (भगम्) ऐश्वर्यं प्रति (इयक्षति) यजेः सन्, अभ्यासस्य संप्रसाणं छान्दसम्। यष्टुं पूजयितुमिच्छति (हर्यतः) कमनीयः पुरुषः (हृत्तः) हृदयात् (इष्यति) इष गतौ। गच्छति (विवक्ति)कथयति (वह्निः) भारस्य वोढा (स्वपस्यते) अपः कर्मनाम-निघ० २।१। सुप आत्मनःक्यच्। पा० ३।१।८। सु+अपस्-क्यच्। सत्कर्म कर्त्तुमिच्छति (मखः) मख सर्पणे, गतौ-घ प्रत्ययः। उद्योगी पुरुषः (तविष्यते) तविषो महन्नाम-निघ० ३।३। तविष-क्यच्।अकारलोपश्छान्दसः। तविषयते। महान् भवितुमिच्छति (असुरः) प्राणवान्। बलवान् (वेपते) चेष्टते (मती) मत्या ॥
२४ यस्ते अग्नेसुमतिम्
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यस्ते॑ अग्नेसुम॒तिं मर्तो॒ अख्य॒त्सह॑सः सूनो॒ अति॒ स प्र शृ॑ण्वे।
इषं॒ दधा॑नो॒ वह॑मानो॒अश्वै॒रा स द्यु॒माँ अम॑वान्भूषति॒ द्यून् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यस्ते॑ अग्नेसुम॒तिं मर्तो॒ अख्य॒त्सह॑सः सूनो॒ अति॒ स प्र शृ॑ण्वे।
इषं॒ दधा॑नो॒ वह॑मानो॒अश्वै॒रा स द्यु॒माँ अम॑वान्भूषति॒ द्यून् ॥
२४ यस्ते अग्नेसुमतिम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Whatever mortal hath seen thy favor, O Agni, son of power, he is
renowned exceedingly; acquiring (dhā) food (íṣ), borne by horses,
he, lightful, vigorous, passes (? ā-bhūṣ) the days (dív).
Notes
RV. x. 11. 7 reads in a ákṣat, of which our ákhyat is doubtless
only a corruption. Our Bp. and one of SPP’s authorities have akṣat.
The comm. renders ā bhūṣati by ābhavati; ⌊he adds alternatively:
bhūṣati = bubhūṣati, dyumān…bhavitum icchati⌋. In b he reads
abhi instead of ati.
Griffith
Far famed is he, the mortal man, O Agni thou Son of strength, who hath obtained thy favour. He, gathering power, borne onward by his horses, makes his, days lovely in his might and splendour.
पदपाठः
यः। ते॒। अ॒ग्ने॒। सु॒ऽम॒तिम्। मर्तः॑। अख्य॑त्। सह॑सः। सू॒नो॒ इति॑। अति॑। सः। प्र। शृ॒ण्वे॒। इष॑म्। दधा॑नः। वह॑मानः। अश्वैः॑। आ। सः। द्यु॒ऽमान्। अम॑ऽवान्। भू॒ष॒ति॒। द्यून्। १.२४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे विद्वान् ! (यः मर्तः) जो मनुष्य (ते) तेरी (सुमतिम्) सुमति को (अख्यत्) बखानता है, (सहसःसूनो) हे बलवान् पुरुष के पुत्र ! (सः) वह (अति) अति (प्र) बड़ाई से (शृण्वे)सुना जाता है [यशस्वी होता है]। और (सः) वह (इषम्) अन्न (दधानः) रखता हुआ, (अश्वैः) घोड़ों से (वहमानः) ले जाता हुआ, (द्युमान्) प्रकाशमान और (अमवान्)पराक्रमी होकर (द्यून्) दिनों को (आ) सब प्रकार (भूषति) सुधारता है ॥२४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य कुलीन बलीविद्वानों की सुमति पर चलता है, वह यशस्वी, धनी और पराक्रमी होकर संसार का उपकारकरता है ॥२४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २४−(यः) (ते) तव (अग्ने) हे विद्वन् (सुमतिम्) उत्तमबुद्धिम् (मर्तः) मनुष्यः (अख्यत्) लडर्थे लुङ्। कथयति (सहसः) बलवतः पुरुषस्य (सूनो)पुत्र (अति) अत्यन्तम् (सः) (प्र) प्रकर्षेण (शृण्वे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा०७।१।४१। तलोपः, यणादेशः। शृणुते। श्रूयते। विश्रुतो भवति (इषम्) अन्नम् (दधानः)धारयन् (वहमानः) उह्यमानः (अश्वैः) तुरङ्गैः (आ) समन्तात् (सः) मर्तः (द्युमान्)दीप्तिमान् (अमवान्) बलवान् (भूषति) अलंकरोति (द्यून्) दिनानि-निघ० १।९ ॥
२५ श्रुधी नोअग्ने
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श्रु॒धी नो॑अग्ने॒ सद॑ने स॒धस्थे॑ यु॒क्ष्वा रथ॑म॒मृत॑स्य द्रवि॒त्नुम्।
आ नो॑ वह॒ रोद॑सीदे॒वपु॑त्रे॒ माकि॑र्दे॒वाना॒मप॑ भूरि॒ह स्याः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
श्रु॒धी नो॑अग्ने॒ सद॑ने स॒धस्थे॑ यु॒क्ष्वा रथ॑म॒मृत॑स्य द्रवि॒त्नुम्।
आ नो॑ वह॒ रोद॑सीदे॒वपु॑त्रे॒ माकि॑र्दे॒वाना॒मप॑ भूरि॒ह स्याः॑ ॥
२५ श्रुधी नोअग्ने ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Hear us, O Agni, in thy seat, thy station; harness the speedy
chariot of the immortal (amṛ́ta); bring to us the two firmaments
(ródasī), parents of the gods; be thou of the gods never (mā́kis)
away; mayest thou be here.
Notes
The verse is RV. x. 11. 9 (and 12. 9), without variant. The comm.
comfortably supplies saṁghe in d to govern the genitive devānām.
Then, as alternative explanation, he understands bhūs and syās as
third persons, and mā́kis as “no one.”
Griffith
Hear us, O Agni, in the great assembly: harness thy rapid car,. the car of Amrit. Bring Heaven and Earth, the Deities’ Parents, hither: stay with us here, nor from the Gods be absent.
पदपाठः
श्रु॒धि। नः॒। अ॒ग्ने॒। सद॑ने। स॒धऽस्थे॑। यु॒क्ष्व। रथ॑म्। अ॒मृत॑स्य। द्र॒वि॒त्नुम्। आ। नः॒। व॒ह॒। रोद॑सी॒ इति॑। दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑। दे॒वऽपु॑त्रे। माकिः॑। दे॒वाना॑म्। अप॑। भूः॒। इ॒ह। स्याः॒। १.२५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे विद्वान् ! (सधस्थे) मिलकर बैठने योग्य (सदने) बैठक [समाज] में (नः) हमारी [बात] (श्रुधि)सुन−(अमृतस्य) अमृत [अमरपन, पुरुषार्थ] के (द्रवित्नुम्) वेगवाले (रथम्) रथ को (युक्ष्व) जोड़। (नः) हमारेलिये (रोदसी) भूमि और सूर्य [के समान उपकारी] (देवपुत्रे) विद्वानों को पुत्र रखनेवाले [दो प्रजाएँ अर्थात् माता-पिता] को (आवह) ला, (देवानाम्) विद्वानों के बीच (माकिः) न कभी (अप भूः) तू दूर हो, (इह)यहाँ [हम में] (स्याः) रह ॥२५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग सभा केबीच अधिक विद्वान् पुरुष को प्रधान बनाकर व्यवस्था करें कि सब माता-पिता विज्ञानपूर्वक उत्तम सन्तान उत्पन्न करके संसार का उपकार करें और विद्वानों से आदरपूर्वक मिलते रहें ॥२५॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।११।९ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २५−(श्रुधि) शृणु (नः)अस्माकं वचः (अग्ने) हे विद्वन् (सदने) समाजे (सधस्थे) सहस्थितियोग्ये (रथम्) (अमृतस्य) अमरणस्य। (द्रवित्नुम्) स्तनिहृषिपुषिगदिमदिभ्यो णेरित्नुच्। उ० ३।२९।द्रु गतौ-इत्नुच्, अण्यन्तादपि। शीघ्रगामिनम् (आवह) आनय (नः) अस्मान् (रोदसी)भूमिसूर्यतुल्योपकारशीले (देवपुत्रे) देवा विद्वांसः पुत्रा ययोस्ते द्वेप्रजे।मातापितरौ (माकिः) न कदापि (देवानाम्) विदुषां मध्ये (अप भूः) अपगतो भव (इह)अस्मासु (स्याः) भवेः ॥
२६ यदग्न एषासमितिर्भवाति
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यद॑ग्न ए॒षासमि॑ति॒र्भवा॑ति दे॒वी दे॒वेषु॑ यज॒ता य॑जत्र।
रत्ना॑ च॒ यद्वि॒भजा॑सि स्वधावोभा॒गं नो॒ अत्र॒ वसु॑मन्तं वीतात् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद॑ग्न ए॒षासमि॑ति॒र्भवा॑ति दे॒वी दे॒वेषु॑ यज॒ता य॑जत्र।
रत्ना॑ च॒ यद्वि॒भजा॑सि स्वधावोभा॒गं नो॒ अत्र॒ वसु॑मन्तं वीतात् ॥
२६ यदग्न एषासमितिर्भवाति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- That, O Agni, this meeting may take place (bhū), divine, among the
gods, worshipful, thou reverend one, and that thou mayest share out
treasures, O self-ruling one, do thou enjoy here our portion filled with
good things.
Notes
The verse is, without variant, RV. x. 11. 8 (also found in MS. iv. 14.
15).
Griffith
When, holy Agni, the divine assembly, the holy synod mid the Gods, is gathered, And when thou, godlike One, dealest forth treasures vouchsafe us too our portion of the riches.
पदपाठः
यत्। अ॒ग्ने॒। ए॒षा। सम्ऽइ॑तिः। भवा॑ति। दे॒वी। दे॒वेषु॑। य॒ज॒ता। य॒ज॒त्र॒। रत्ना॑। च॒। यत्। वि॒ऽभजा॑सि। स्व॒धा॒ऽवः॒। भा॒गम्। नः॒। अव॑। अत्र॑। वसु॑ऽमन्तम्। वी॒ता॒त्। १.२६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यजत्र) हे संगतियोग्य ! (अग्ने) हे विद्वान् ! (यत्) जब (एषा) यह (समितिः) समिति [सभा] (देवेषु)विद्वानों के बीच (देवी) विज्ञानवती और (यजता) संगतियोग्य (भवाति) होवे। (च) और (यत्) जब, (स्वधावः) हे आत्मधारी ! तू (रत्ना) रत्नों को (विभजासि) बाँटे, (नः)हमारेलिये (अत्र) यहाँ [संसार में] (वसुमन्तम्) बहुत धन युक्त (भागम्) भाग (वीतात्) भेज ॥२६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य हैकि विद्वानों के सत्सङ्ग से सार्वभौम विद्यासभा बनाकर विज्ञान का प्रचार करेंजिससे लोग गुणी होकर धनी होवें ॥२६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।११।८ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २६−(यत्)यदा (एषा) (समितिः) सभा (भवाति) भूयात् (देवी) विज्ञानवती (देवेषु) विद्वत्सु (यजता) संगन्तव्या (यजत्र) हे संगन्तव्य (रत्ना) रत्नानि। बहुमूल्यधनानि (च) (यत्) यदा (विभजासि) विभागेन दद्याः (स्वधावः) मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि। पा०८।३।१। मत्वन्तस्य रुः। हे स्वधारणशक्तियुक्त (भागम्) अंशम् (नः) अस्माकम् (अत्र) संसारे (वसुमन्तम्) बहुधनयुक्तम् (वीतात्) वी असने क्षेपणे। प्रेरय ॥
२७ अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो
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अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः।
अनु॒ सूर्य॑ उ॒षसो॒अनु॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः।
अनु॒ सूर्य॑ उ॒षसो॒अनु॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥
२७ अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Agni hath looked after the apex of the dawns, after the days, [he]
first, Jātavedas; a sun, after the dawns, after the rays; after
heaven-and-earth he entered.
Notes
Griffith
Agni hath looked upon the van of Mornings, and on the days. the earliest Jatavedas. After the Dawns, after their rays of brightness, Surya hath enter- ed into earth and heaven.
पदपाठः
अनु॑। अ॒ग्निः। उ॒षसा॑म्। अग्र॑म्। अ॒ख्य॒त्। अनु॑। अहा॑नि। प्र॒थ॒मः। जा॒तऽवे॑दाः। अनु॑। सूर्यः॑। उ॒षसः॑। अनु॑। र॒श्मीन्। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। आ। वि॒वे॒श॒। १.२७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) सर्वव्यापकपरमेश्वर ने (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) विकाश को (अनु) निरन्तर, [उसी] (प्रथमः)सबसे पहिले वर्तमान (जातवेदाः) उत्पन्न वस्तुओं के ज्ञान करानेवाले परमेश्वर ने (अहानि) दिनों को (अनु) निरन्तर (अख्यत्) प्रसिद्ध किया है। (सूर्यः) [उसी]सूर्य [सब में व्यापक वा सबको चलानेवाले परमेश्वर] ने (उषसः) उषाओं में (अनु)लगातार, (रश्मीन्) व्यापक किरणों में (अनु) लगातार, (द्यावापृथिवी) सूर्य औरपृथिवी में (अनु) लगातार (आविवेश) प्रवेश किया है ॥२७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमेश्वर नेसूक्ष्म और स्थूल पदार्थों को रचकर सबको अपने वश में कर रक्खा है, वही सबमनुष्यों का उपास्य है ॥२७॥मन्त्र २७, २८ आ चुके हैं-अ० ७।८२।४, ५ ॥मन्त्र २७ काप्रथम पाद ऋग्वेद में है−४।१३।१ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २७−मन्त्रौ २७, २८ पूर्वत्र व्याख्यातौ-अ०७।८२।४, ५ ॥
२८ प्रत्यग्निरुषसामग्रमख्यत्प्रत्यहानि प्रथमो
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प्रत्य॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒त्प्रत्यहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः।
प्रति॒सूर्य॑स्य पुरु॒धा च॑ र॒श्मीन्प्रति॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तान ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्रत्य॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒त्प्रत्यहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः।
प्रति॒सूर्य॑स्य पुरु॒धा च॑ र॒श्मीन्प्रति॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तान ॥
२८ प्रत्यग्निरुषसामग्रमख्यत्प्रत्यहानि प्रथमो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Agni hath looked forth to meet the apex of the dawns, to meet the
days, [he] first, Jātavedas, and to meet the rays of the sun in many
places; to meet heaven-and-earth he stretched out.
Notes
These two verses we had above as vii. 82. 4, 5. They are here again
written out in full by two of our mss. (O.R.). ⌊Cf. my introduction,
above, p. 815.⌋
Griffith
Agni hath looked against the van of Mornings, against the days- the earliest Jatavedas; In many a place against the beams of Surya, against the heavens and earth hath he extended.
पदपाठः
प्रति॑। अ॒ग्निः। उ॒षसा॑म्। अग्र॑म्। अ॒ख्य॒त्। प्रति॑। अहा॑नि। प्र॒थ॒मः। जा॒तऽवे॑दाः। प्रति॑। सूर्य॑स्य। पु॒रु॒ऽधा। च॒। र॒श्मीन्। प्रति॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। आ। त॒ता॒न॒। १.२८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) सर्वव्यापकपरमेश्वर ने (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) विकाश को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से, [उसी] (प्रथमः) सबसे पहिले वर्तमान (जातवेदाः) उत्पन्न वस्तुओं के ज्ञानकरानेवाले परमेश्वर ने (अहानि) दिनों को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (अख्यत्)प्रसिद्ध किया है। (च) और (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मीन्) व्यापक किरणों को (पुरुधा) अनेक प्रकार (प्रति) प्रत्यक्षरूप से, और (द्यावापृथिवी) सूर्य औरपृथिवी लोकों को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (आ) सब ओर (ततान) फैलाया है ॥२८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब जगत् के उत्पादक औरसर्वनियन्ता ईश्वर की महिमा को विचार कर मनुष्य अपनी उन्नति करें ॥२८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २७−मन्त्रौ २७, २८ पूर्वत्र व्याख्यातौ-अ०७।८२।४, ५ ॥
२९ द्यावा हक्षामा
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द्यावा॑ ह॒क्षामा॑ प्रथ॒मे ऋ॒तेना॑भिश्रा॒वे भ॑वतः सत्य॒वाचा॑।
दे॒वो यन्मर्ता॑न्य॒जथा॑यकृ॒ण्वन्त्सीद॒द्धोता॑ प्र॒त्यङ् स्वमसुं॒ यन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
द्यावा॑ ह॒क्षामा॑ प्रथ॒मे ऋ॒तेना॑भिश्रा॒वे भ॑वतः सत्य॒वाचा॑।
दे॒वो यन्मर्ता॑न्य॒जथा॑यकृ॒ण्वन्त्सीद॒द्धोता॑ प्र॒त्यङ् स्वमसुं॒ यन् ॥
२९ द्यावा हक्षामा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Heaven and earth, first by right, truth-speaking, are within
hearing, when the god, making mortals to sacrifice, sits as hótṛ,
going to meet his own being (ásu).
Notes
The verse is RV. x. 12. 1, without variant. Some of our mss. (Bp.Bs.Op.)
read abhisrāvé in b. The comm. explains the word by stotuḥ
śravaṇayogye.
Griffith
Heaven and Earth, first by everlasting Order, speakers of truth, are near enough to hear us, When the God, urging men to worship, sitteth as Priest, assum- ing all his vital vigour.
पदपाठः
द्यावा॑। ह॒। क्षामा॑। प्र॒थ॒मे इति॑। ऋ॒तेन॑। अ॒भि॒ऽश्रा॒वे। भ॒व॒तः॒। स॒त्य॒ऽवाचा॑। दे॒वः। यत्। मर्ता॑न्। य॒जथा॑य। कृ॒ण्वन्। सीद॑त्। होता॑। प्र॒त्यङ्। स्वम्। असु॑म्। यन्। १.२९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (द्यावा क्षामा) सूर्यऔर पृथिवी [के समान उपकारी], (प्रथमे) मुख्य, (सत्यवाचा) सत्यवाणीवाली [दोप्रजाएँ स्त्री और पुरुष] (ह) निश्चय करके (ऋतेन) सत्य धर्म से (अभिश्रावे)पूरी कीर्ति के बीच (भवतः) होते हैं। (यत्) क्योंकि (होता) दानी, (देवः)प्रकाशमान [परमेश्वर] (मर्तान्) मनुष्यों को (यजथाय) परस्पर मिलने के लिये (कृण्वन्) बनाता हुआ और (स्वम्) अपनी (असुम्) बुद्धि को (यन्) प्राप्त होता हुआ (प्रत्यङ्) सामने (सीदत्) बैठता है ॥२९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब में मुख्यसर्वोपकारी स्त्री-पुरुष ही कीर्ति पाते हैं, क्योंकि सर्वव्यापक परमात्मामनुष्यों को परस्पर सहायक बनाकर कर्मों का फल देने के लिये अपने ज्ञान से सबकेसन्मुख रहता है ॥२९॥मन्त्र २९, ३० ऋग्वेद में हैं १०।१२।१, २ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २९−(द्यावा)द्यौः। सूर्यः (ह) प्रसिद्धौ (क्षामा) पृथिवी-निघ० १।१। (प्रथमे) मुख्ये (ऋतेन)सत्यधर्मेण (अभिश्रावे) श्रु श्रवणे-घञ्। सर्वयशसि (भवतः) वर्तेते (सत्यवाचा)सत्यवाचौ। सत्यवादिन्यौ स्त्रीपुरुषरूपे प्रजे (देवः) प्रकाशमानः परमेश्वरः (यत्) यतः (मर्तान्) मनुष्यान् (यजथाय) संगतिकरणाय (कृण्वन्) कुर्वन् (सीदत्)निषीदति (होता) दानी (प्रत्यङ्) अभिमुखः सन् (स्वम्) स्वकीयम् (असुम्)प्रज्ञाम्-निघ० ३।९। (यन्) गच्छन्। प्राप्नुवन् ॥
३० देवोदेवान्परिभूरृतेन वहा
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दे॒वोदे॒वान्प॑रि॒भूरृ॒तेन॒ वहा॑ नो ह॒व्यं प्र॑थ॒मश्चि॑कि॒त्वान्।
धू॒मके॑तुःस॒मिधा भाऋजीको म॒न्द्रो होता॒ नित्यो॑ वा॒चा यजी॑यान् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दे॒वोदे॒वान्प॑रि॒भूरृ॒तेन॒ वहा॑ नो ह॒व्यं प्र॑थ॒मश्चि॑कि॒त्वान्।
धू॒मके॑तुःस॒मिधा भाऋजीको म॒न्द्रो होता॒ नित्यो॑ वा॒चा यजी॑यान् ॥
३० देवोदेवान्परिभूरृतेन वहा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- A god, encompassing the gods with right, carry thou first our
offering, understanding [it]; smoke-bannered by the fuel,
light-beaming, a pleasant, constant hótṛ, skilled sacrificer with
speech.
Notes
The verse is RV. x. 12. 2, without variant. The majority of SPP’s mss.,
with one of ours (Op.), read bhā́rcīko in c. Neither our Anukr. nor
that of the RV. notes the deficiency of a syllable in a.
Griffith
As God comprising Gods by Law eternal, bear, as the chief who knoweth, our oblation, Smoke-bannered with the fuel, radiant, joyous, better to praise and worship, Priest for ever.
पदपाठः
दे॒वः। दे॒वान्। प॒रि॒ऽभूः। ऋ॒तेन॑। वह॑। नः॒। ह॒व्यम्। प्र॒थ॒मः। चि॒कि॒त्वान्। धू॒मऽके॑तुः। स॒म्ऽइधा॑। भाःऽऋ॑जीकः। म॒न्द्रः। होता॑। नित्यः॑। वा॒चा। यजी॑यान्। १.३०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (देवः) प्रकाशमान, (ऋतेन) सत्य धर्म से (देवान्) गतिमान् लोकों में (परिभूः)व्यापता हुआ, (प्रथमः) पहिले से वर्तमान (चिकित्वान्) [सब] जानता हुआ तू (नः)हमारेलिये (हव्यम्) ग्राह्य पदार्थ (वह) पहुँचा। (समिधा) समिधा [काष्ठ आदि] से (धूमकेतुः) धुएँ के झण्डेवाले [अग्निरूप] तू (भाऋजीकः) बड़े प्रकाशवाला, (मन्द्रः) आनन्ददाता, (होता) दानकर्ता (नित्यः) सदा वर्तमान और (वाचा) वाणीद्वारा (यजीयान्) अति संयोग करनेवाला है ॥३०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अनादि अनन्तसर्वस्रष्टा परमात्मा को सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता और सर्वज्ञ जानकर पुरुषार्थके साथ ग्राह्य पदार्थों का उपार्जन करें ॥३०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३०−(देवः) प्रकाशमानः परमेश्वरः (देवान्) गतिमतो लोकान् (परिभूः) परिभवन्। सर्वतो व्याप्नुवन् (ऋतेन) सत्यधर्मेण (वह) आनय (नः) अस्मान् (हव्यम्) ग्राह्यं पदार्थम् (प्रथमः) आदिमः (चिकित्वान्)सर्वं जानन् (धूमकेतुः) धूमेन जायमानः। धूमध्वजोऽग्निः (समिधा) समिन्धनेन।सन्दीपनसाधनेन काष्ठादिना (भाऋजीकः) ऋजेश्च। उ० ४।२२। भास्+ऋजगतिस्थानार्जनोपार्जनेषु-ईकन्, कित्। भाऋजीकः प्रसिद्धभाः-निरु० ६।४।बहुप्रकाशयुक्तः (मन्द्रः) मोदयिता। आनन्दयिता (होता) दाता (नित्यः) सदावर्तमानः (वाचा) वाण्या (यजीयान्) यष्टृ-ईयसुन्। तुरिष्ठेमेयःसु। पा० ६।४।१५४।तृचो लोपः। अत्यन्तं संयोजकः ॥
३१ अर्चामि वांवर्धायापो
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अर्चा॑मि वां॒वर्धा॒यापो॑ घृतस्नू॒ द्यावा॑भूमी शृणु॒तं रो॑दसी मे।
अहा॒ यद्दे॒वाअसु॑नीति॒माय॒न्मध्वा॑ नो॒ अत्र॑ पि॒तरा॑ शिशीताम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अर्चा॑मि वां॒वर्धा॒यापो॑ घृतस्नू॒ द्यावा॑भूमी शृणु॒तं रो॑दसी मे।
अहा॒ यद्दे॒वाअसु॑नीति॒माय॒न्मध्वा॑ नो॒ अत्र॑ पि॒तरा॑ शिशीताम् ॥
३१ अर्चामि वांवर्धायापो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I praise (arc) your (du.) work unto increase, ye ghee-surfaced
ones; O heaven-and-earth, hear me, ye two firmaments (ródasī); when
days, O gods, went to the other life (ásunīti), let the two parents
(pitárā) sharpen us here with honey.
Notes
The rendering is only mechanical, the obscurity of the verse being
unresolved. It is RV. x. 12. 4, which, however, reads for c áhā yád
dyā́vó ‘sunītim áyan. Our mss. and the authorities of SPP. vary in c
between devā́s, dévās, and devās; SPP. reads devā́s, with ⌊at
least⌋ two of his; our dévās is not defensible; the translation
implies devās. The comm. makes the word the subject of ā́yan, taking
áhā (p. áhā) as for ahaḥsu; he explains devās by stotāras or
ṛtvijas. Our Bp. is the only pada-ms. that reads (with the RV.
pada) ápaḥ in a; the others have ā́paḥ; but, as the comm. gives
the former, SPP. adopts it in his text. A majority of SPP’s mss. accent
ghṛtásnū, but only one of ours (O.) does so.
Griffith
I praise your work .that ye may make me prosper: hear, Heaven and Earth, twain worlds that drop with fatness! While days and Gods go to the world of spirits, have let the Parents with sweet mead refresh us.
पदपाठः
अर्चा॑मि। वा॒म्। वर्धा॑य। अपः॑। घृ॒त॒स्नू॒ इति॑ घृतऽस्नू। द्यावा॑भूमी॒ इति॑। शृ॒णु॒तम्। रो॒द॒सी॒ इति॑। मे॒। अहा॑। यत्। दे॒वाः। असु॑ऽनीतिम्। आय॑न्। मध्वा॑। नः॒। अत्र॑। पि॒तरा॑। शि॒शी॒ता॒म्। १.३१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (घृतस्नू) हे जलसमान [व्यवहार को] शुद्ध करनेवाले ! [दोनों माता-पिता] (वर्धाय) [अपने] बढ़ने के लिये (वाम्) तुम दोनों के (अपः) कर्म की (अर्चामि) मैं पूजा करता हूँ, (रोदसी) हेव्यवहार की रक्षक ! [दो प्रजाओ] तुम (द्यावाभूमी) सूर्य और भूमि [के समान उपकारीहोकर] (मे) मेरी (शृणुतम्) सुनो। (यत्) क्योंकि (अहा) दिन और (देवाः) गतिमान्लोक (असुनीतिम्) प्राणदाता [परमात्मा] को (आयन्) प्राप्त होते हैं, (अत्र) यहाँ [संसार में] (नः) हमें (पितरा) माता-पिता [आप दोनों] (मध्वा) ज्ञान से (शिशीताम्) तीक्ष्ण करें ॥३१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो माता-पिता आदिपूजनीय विद्वानों के कर्मो से और संसार के विविध पदार्थों से परमेश्वर का ज्ञानप्राप्त करते हैं, वे ही महाज्ञानी होते हैं ॥३१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेदमें है−१०।१२।४ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३१−(अर्चामि) पूजयामि। सत्करोमि (वाम्) युवयोः (वर्धाय)वृधेर्घञ्। वृद्धये (अपः) कर्म (घृतस्नू) ष्णा शौचे−डु। हे उदकमिवव्यवहारशोधयित्र्यौ (द्यावाभूमी) सूर्यभूलोकसमानोपकारिण्यौ (शृणुतम्) (रोदसी)रुधेरसुन्। धस्य दः, ङीप्, पूर्वसवर्णदीर्घः। रोदसी रोधसी द्यावापृथिव्यौविरोधनात्-निरु० ६।१। हे व्यवहारस्यावरोधयित्र्यौ रक्षित्र्यौ प्रजे (मे) मम वचः (अहा) दिनानि (यत्) यतः (देवाः) गतिमन्तो लोकाः (असुनीतिम्) प्राणप्रापकंपरमात्मानम् (आयन्) लडर्थे-लङ्। यन्ति। प्राप्नुवन्ति (मध्वा) मधुना। ज्ञानेन (नः) अस्मान् (अत्र) संसारे (पितरा) मातापितरौ (शिशीताम्) शो तनूकरणे लोटिछान्दसंरूपम्। तीक्ष्णीकुरुतां भवत्यौ ॥
३२ स्वावृग्देवस्यामृतं यदी
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्वावृ॑ग्दे॒वस्या॒मृतं॒ यदी॒ गोरतो॑ जा॒तासो॑ धारयन्त उ॒र्वी।
विश्वे॑ दे॒वाअनु॒ तत्ते॒ यजु॑र्गुर्दु॒हे यदेनी॑ दि॒व्यं घृ॒तं वाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्वावृ॑ग्दे॒वस्या॒मृतं॒ यदी॒ गोरतो॑ जा॒तासो॑ धारयन्त उ॒र्वी।
विश्वे॑ दे॒वाअनु॒ तत्ते॒ यजु॑र्गुर्दु॒हे यदेनी॑ दि॒व्यं घृ॒तं वाः ॥
३२ स्वावृग्देवस्यामृतं यदी ...{Loading}...
Whitney
Translation
- If the god’s immortality (amṛ́ta) is easy to appropriate for the
cow, thence those who are born maintain themselves on the broad
[earth]; all the gods go after that sacrificial formula of thine, when
the hind yields (duh) the ghee, heavenly liquor (vā́r).
Notes
The verse is RV. x. 12. 3, without variant. It is all extremely obscure,
especially the first pāda, which admits of being rendered in
half-a-dozen different ways; the translation given is purely tentative.
The comm. gives little help. The pada-text does not divide or
otherwise change svā́vṛk, which indicates that its makers did not see
in the word the formation su-ā-vṛj, which is plausibly seen in it by
western scholars and by our comm. The latter takes urvī́ (p. urvī́
íti) as dual, but in the Prāt. it is quoted by the comment (to i. 74)
as example of a locative in ī, which it doubtless is. Our comm.
derives yájus first from root yuj and makes it = karman; devās
is again, as above (vs. 31), stotāras, ṛtvijas. ⌊With the expression
divyáṁ vā́ḥ, applied to ghee, compare the expression at x. 4. 3, vā́r
ugrám, applied to snake-venom, which may well be called a ’terrible
fluid’: but see note to x. 4. 3.⌋
Griffith
When the Cow’s nectar wins the God completely, men here below are heaven’s and earth’s sustainers All the Gods come to this thy heavenly Yajus which from the motley Pair milked oil and water
पदपाठः
स्वावृ॑क्। दे॒वस्य॑। अ॒मृत॑म्। यदि॑। गोः। अतः॑। जा॒तासः॑। धा॒र॒य॒न्ते॒। उ॒र्वी इति॑। विश्वे॑। दे॒वाः। अनु॑। तत्। ते॒। यजुः॑। गुः॒। दु॒हे। यत्। एनी॑। दि॒व्यम्। घृ॒तम्। वाः। १.३२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) जब कि (देवस्य)प्रकाशमय परमेश्वर का (अमृतम्) अमृत [जीवन सामर्थ्य] (गोः) पृथिवी के लिये (स्वावृक्) सहज में पाने योग्य है, (अतः) इसी [जीवन सामर्थ्य] से (जातासः)उत्पन्न हुए प्राणी (उर्वी) पृथिवी पर (धारयन्ते) [अपने को] रखते हैं। हेपरमात्मन् ! (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (ते) तेरे (तत्) उस (यजुः अनु)पूजनीय कर्म के पीछे (गुः) चलते हैं, (यत्) क्योंकि (एनी) चलनेवाली भूमि (दिव्यम्) श्रेष्ठ (घृतम्) सारयुक्त (वाः) वरणीय उत्तम पदार्थ (दुहे) भरपूरकरती है ॥३२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने प्राणियोंके पालन के लिये पृथिवी पर प्रकाश, वायु, जल, अन्न आदि अनेक पदार्थ स्वयं पानेयोग्य बनाये हैं, सब विद्वान् लोग परमेश्वर के नियमों को समझ कर संसार में अनेकलाभ उठाते हैं ॥३२॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।१२।३ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३२−(स्वावृक्) सु+आङ्+वृजीवर्जने-क्विप्। सुष्ठु सहजेन आवर्जनीयमाहरणीयं ग्राह्यम् (देवस्य) प्रकाशमयस्यपरमेश्वरस्य (अमृतम्) अमरणम्। जीवनसामर्थ्यम् (यदि) यदा (गोः) चतुर्थ्यां षष्ठी।गवे। भूमये (अतः) अस्माद् अमृतात् (जातासः) उत्पन्नाः प्राणिनः (धारयन्ते)आत्मनं धारयन्ति (उर्वी) सप्तम्यां पूर्वसवर्णदीर्घः। ईदूतौ च सप्तम्यर्थे। पा०१।१।१९। इति प्रगृह्यम्। उर्व्याम्। पृथिव्याम् (विश्वे) सर्वे (देवाः)विद्वांसः (अनु) अनुसृत्य (तत्) (ते) तव (यजुः) अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७।यज पूजायाम्-उसि, नित्। पूजनीयं कर्म (गुः) गच्छन्ति (दुहे) तलोपः। दुग्धे।प्रपूरयति (यत्) यतः (एनी) वीज्याज्वरिभ्यो निः। उ० ४।४८। इण् गतौ-नि। एन्योनद्यः-निघ० १।१३। गमनशीला पृथिवी (दिव्यम्) श्रेष्ठम् (घृतम्) सारयुक्तम् (वाः)वारयतेः क्विप्। वरणीयं द्रव्यम् ॥
३३ किं स्विन्नोराजा
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किं स्वि॑न्नो॒राजा॑ जगृहे॒ कद॒स्याति॑ व्र॒तं च॑कृमा॒ को वि वे॑द।
मि॒त्रश्चि॒द्धि ष्मा॑जुहुरा॒णो दे॒वाञ्छ्लोको॒ न या॒तामपि॒ वाजो॒ अस्ति॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
किं स्वि॑न्नो॒राजा॑ जगृहे॒ कद॒स्याति॑ व्र॒तं च॑कृमा॒ को वि वे॑द।
मि॒त्रश्चि॒द्धि ष्मा॑जुहुरा॒णो दे॒वाञ्छ्लोको॒ न या॒तामपि॒ वाजो॒ अस्ति॑ ॥
३३ किं स्विन्नोराजा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Why forsooth hath the king seized (grah) us? what have we done in
transgression of (áti) his ordinance (vratá)? who discerns [it]?
for even Mitra, swerving the gods, like a song of praise (ślóka), is
the might also of them that go.
Notes
The verse is RV. x. 12. 5, without variant. The second half-verse,
especially the last pāda, is bafflingly obscure. The accent of ásti,
as well as the absence of other construction for mitrás, strongly
indicates that the whole of the second half-verse forms one sentence; in
which case vā́jas is perhaps most probably a corruption. The comm.
understands rā́jā in a as Yama, and jagṛhe as signifying his
“acceptance” of offerings—which is very ill guessed; doubtless it is
Varuṇa (so Ludwig; the RV. comm. makes it Agni). He then renders
juhurāṇás most absurdly by āhvayan, ⌊saying that “the root hvṛ
‘crook’ is here used in the sense of root hū ‘call’"⌋. He reads in
d (as do some of the mss., including our O.Op.R.) yātān, as accus.
of the pple yāta, qualifying devān understood, rendering devān
abhigacchato no ‘smān rakṣitum! and so on. The version of the line
given above is of course mechanical only.
Griffith
Hath the King seized us? How have we offended against his holy Ordinance? Who knoweth? For even Mitra mid the Gods is angry. There are both song and wealth for those who come not.
पदपाठः
किम्। स्वि॒त्। नः॒। राजा॑। ज॒गृ॒हे॒। कत्। अ॒स्य॒। अति॑। व्र॒तम्। च॒कृ॒म॒। कः। वि। वे॒द॒। मि॒त्रः। चि॒त्। हि। स्म॒। जु॒हु॒रा॒णः। दे॒वान्। श्लोकः॑। न। या॒ताम्। अपि॑। वाजः॑। अस्ति॑। १.३३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (किं स्वित्) क्यों [किस कर्मफल से] (नः) हमें (राजा) राजा [परमेश्वर] ने (जगृहे) ग्रहण किया है [सुख दिया है], (कत्) कब (अस्य) इस [परमात्मा] के (व्रतम्) नियम को (अति चकृम)हमने उल्लङ्घन किया है [जिस से क्लेश पाया है], (कः) प्रजापति परमेश्वर [इस को] (वि) विविध प्रकार (वेद) जानता है। (हि) क्योंकि (मित्रः) सबका मित्र [परमात्मा] (चित्) ही (स्म) अवश्य (देवान्) उन्मत्तो को (जुहुराणः) मरोड़ देनेवाला और (याताम्) गतिशीलों [पुरुषार्थियों] का (अपि) ही (श्लोकः न) स्तुति के समान (वाजः) बल (अस्ति) है ॥३३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पूर्वजन्म के फल कीव्यवस्था को, जो हमारे अकस्मात् सुख-दुःख का कारण है, परमेश्वर जानता है, परन्तुवह अपनी न्यायव्यवस्था से उन्मत्त आलसियों को कष्ट और उद्योगियों को सुख देताहै ॥३३॥मन्त्र ३३-३६ ऋग्वेद में हैं−१०।१२।५-३८ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३३−(किं स्वित्) कस्मात्कर्मफलात् (नः) अस्मान् (राजा) परमेश्वरः (जगृहे) जग्राह। गृहीतवान् (कत्) कदा (अस्य) परमेश्वरस्य (व्रतम्) नियमम् (अति चकृम) वयमतिक्रान्तवन्तः (कः)प्रजापतिः परमेश्वरः (वि) विविधम् (वेद) वेत्ति (मित्रः) सर्वसुहृत् (चित्) एव (हि) यस्मात् कारणात् (स्म) अवश्यम् (जुहुराणः) ह्वृ कौटिल्ये-कानच्।कुटिलीकुर्वाणः (देवान्) दिवु मदे-पचाद्यच्। उन्मत्तान्। अलसान् (श्लोकः)स्तुतिः (न) यथा (याताम्) या गतौ-शतृ। गच्छताम् (अपि) एव (वाजः) बलम् (अस्ति)भवति ॥
३४ दुर्मन्त्वत्रामृतस्य नाम
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दु॒र्मन्त्वत्रा॒मृत॑स्य॒ नाम॒ सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भवा॑ति।
य॒मस्य॒ योम॒नव॑ते सु॒मन्त्व॑ग्ने॒ तमृ॑ष्व पा॒ह्यप्र॑युच्छन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दु॒र्मन्त्वत्रा॒मृत॑स्य॒ नाम॒ सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भवा॑ति।
य॒मस्य॒ योम॒नव॑ते सु॒मन्त्व॑ग्ने॒ तमृ॑ष्व पा॒ह्यप्र॑युच्छन् ॥
३४ दुर्मन्त्वत्रामृतस्य नाम ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Hard to reverence (? durmántu) here is the name of the immortal,
that she of like sign should become of diverse form; whoso shall
reverence Yama with proper reverence (? sumántu), him, O Agni, exalted
one, do thou protect, unremitting.
Notes
This verse is found also as RV. x. 12. 6, without variant, but the RV.
comm. passes it without notice, as if recognizing it as not genuine. It
is very strange to find repeated here as b vs. 2 b, above, as
the connection this time does not explain the feminine words in it. The
comm. first explains (like Grassmann) the pāda as quoted from the other
verse; but goes on to add other interpretations. He defines durmántu
by durmananaṁ durvacam.
Griffith
‘Tis hard to understand the Immortal’s nature, where she who is akin becomes a stranger. Guard ceaselessly, great Agni, him who ponders Yama’s name easy to be comprehended.
पदपाठः
दुः॒ऽमन्तु॑। अत्र॑। अ॒मृत॑स्य। नाम॑। सऽल॑क्ष्मा। यत्। विषु॑ऽरूपा। भवा॑ति। य॒मस्य॑। यः। म॒नव॑ते। सु॒ऽमन्तु॑। अग्ने॑। तम्। ऋ॒ष्व॒। पा॒हि॒। अप्र॑ऽयुच्छन्। १.३४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अत्र) यहाँ [संसारमें] (अमृतस्य) अमर [अविनाशी परमात्मा] का (नाम) नाम (दुर्मन्तु) दुर्माननीय [सर्वथा अपूजनीय] [होवे], (यत्) यदि (सलक्ष्मा) एकसे लक्षणवाली [धर्मव्यवस्था] (विषुरूपा) नाना स्वभाववाली [चंचल, अधार्मिक] (भवाति) हो जावे। (यः) जो कोई [मनुष्य] (यमस्य) [तुझ] न्यायकारी परमेश्वर के [नाम को] (सुमन्तु) बड़ा माननीय (मनवते) मानता है, (अग्ने) हे ज्ञानमय ! (ऋष्व) हे महान् परमेश्वर ! (तम्) उसको (अप्रयुच्छन्) बिना चूके हुए (पाहि) पाल ॥३४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा अन्यायकरे तो सब संसार उलट-पलट हो जावे। जो कोई मनुष्य उसकी न्यायव्यवस्था पर चलते हैं, वे सुख पाते हैं ॥३४॥इस मन्त्र का दूसरा पाद मन्त्र २ में आया है॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३४−(दुर्मन्तु) कमिमनिजनि०। उ० १।७३। मन पूजायाम्-तु, दुर्माननीयम्। नकदापिसत्करणीयम् (अत्र) संसारे (अमृतस्य) अविनाशिनः परमेश्वरस्य (नाम) नामधेयम् (सलक्ष्मा) समानलक्षणा धर्मव्यवस्था (यत्) यदि (विषुरूपा) नानास्वभावा। चञ्चला।अधार्मिका (भवाति) भवेत् (यमस्य) न्यायकारिणः परमेश्वरस्य, नाम-इत्यस्यानुवृत्तिः (यः) कश्चित् पुरुषः (मनवते) मनुते। जानाति (सुमन्तु)सुमाननीयम् (अग्ने) हे ज्ञानमय परमेश्वर (तम्) पुरुषम् (ऋष्व)सर्वनिघृष्वरिष्व०। उ० १।१५३। महन्नाम-निघ० ३।३। हे महन् परमेश्वर (पाहि) पालय (अप्रयुच्छन्) अप्रमाद्यन् ॥
३५ यस्मिन्देवाविदथे मादयन्ते
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यस्मि॑न्दे॒वावि॒दथे॑ मा॒दय॑न्ते वि॒वस्व॑तः॒ सद॑ने धा॒रय॑न्ते।
सूर्ये॒ज्योति॒रद॑धुर्मा॒स्य१॒॑क्तून्परि॑ द्योत॒निं च॑रतो॒ अज॑स्रा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यस्मि॑न्दे॒वावि॒दथे॑ मा॒दय॑न्ते वि॒वस्व॑तः॒ सद॑ने धा॒रय॑न्ते।
सूर्ये॒ज्योति॒रद॑धुर्मा॒स्य१॒॑क्तून्परि॑ द्योत॒निं च॑रतो॒ अज॑स्रा ॥
३५ यस्मिन्देवाविदथे मादयन्ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- In whom the gods revel at the council, maintain themselves in
Vivasvant’s seat—they placed light in the sun, rays in the moon: the
two, unfailing, wait upon (pari-car) the brightness (dyotaní).
Notes
The verse is x. 12. 7, without variant. The comm. separates yásmin
from vidáthe, supplying agnāu for the former to qualify (the RV.
comm. does the same); perhaps rather manmani is to be inferred from
the following verse. ⌊W. suggests by a note to his ms. as an alternative
for a, ‘In what council the gods revel.’⌋ Our comm. also explains,
in d, dyotaním by dyotamānam agnim, and it reads ajasram,
understanding it adverbially; aktūn in c is either raśmīn or
rātrīs. ⌊This vs. and the next are discussed by Foy, KZ. xxxiv. 228.⌋
Griffith
They in the synod where the Gods rejoice them, where they are seated in Vivasvan’s dwelling, Have given the Moon his beams, the Sun his splendour: the two unweariedly maintain their brightness.
पदपाठः
यस्मि॑न्। दे॒वाः। वि॒दथे॑। मा॒दय॑न्ते। वि॒वस्व॑तः। सद॑ने। धा॒रय॑न्ते। सूर्ये॑। ज्योतिः॑। अद॑धुः। मा॒सि। अ॒क्तून्। प॑रि। द्यो॒त॒निम्। च॒र॒तः॒। अज॑स्रा। १.३५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस [परमात्मा] में (देवाः) दिव्य नियम (विदथे) विज्ञान के बीच (मादयन्ते) तृप्तरहते हैं और (विवस्वतः) प्रकाशमय [परमेश्वर] के (सदने) घर (ब्रह्माण्ड) में (धारयन्ते) [अपने को] ठहराते हैं। (सूर्ये) सूर्य में (ज्योतिः) ज्योति और (मासि) चन्द्रमा में (अक्तून्) [सूर्य की] किरणों को (अदधुः) उन [नियमों] नेरक्खा है, (अजस्रा) निरन्तर वे दोनों (द्योतनिम्) उस प्रकाशमान [परमात्मा] की (परि चरतः) सेवा करते हैं ॥३५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ऋषि-मुनि लोग ध्यानलगाकर जिस परमात्मा के ज्ञान का प्रचार संसार में फैलाते हैं, उसी परमेश्वर केनियम से सूर्य-चन्द्र आदि लोक उपकार करते हैं ॥३५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३५−(यस्मिन्) परमात्मनि (देवाः) दिव्यनियमाः (विदथे) विज्ञाने (मादयन्ते) तृप्ता भवन्ति (विवस्वतः)प्रकाशमयस्य परमेश्वरस्य (सदने) गृहे। ब्रह्माण्डे (धारयन्ते) आत्मानं धारयन्ति (सूर्ये) सूर्यलोके (ज्योतिः) तेजः (अदधुः) धारितवन्तस्ते दिव्यनियमाः (मासि)चन्द्रलोके (अक्तून्) अ० १७।१।९। व्यञ्जकान् सूर्यरश्मीन् (द्योतनिम्)अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। द्युत दीप्तौ-अनि। प्रकाशमानं तं परमेश्वरम् (परि चरतः)सेवेते (अजस्रा) निरन्तरौ तौ सूर्याचन्द्रौ ॥
३६ यस्मिन्देवामन्मनि सञ्चरन्त्यपीच्ये
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यस्मि॑न्दे॒वामन्म॑नि सं॒चर॑न्त्यपी॒च्ये३॒॑ न व॒यम॑स्य विद्म।
मि॒त्रो नो॒अत्रादि॑ति॒रना॑गान्त्सवि॒ता दे॒वो वरु॑णाय वोचत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यस्मि॑न्दे॒वामन्म॑नि सं॒चर॑न्त्यपी॒च्ये३॒॑ न व॒यम॑स्य विद्म।
मि॒त्रो नो॒अत्रादि॑ति॒रना॑गान्त्सवि॒ता दे॒वो वरु॑णाय वोचत् ॥
३६ यस्मिन्देवामन्मनि सञ्चरन्त्यपीच्ये ...{Loading}...
Whitney
Translation
- In what secret (apīcyà) devotion (mánman) the gods go about
(sam-car)—we know it not; may Mitra, may Aditi, may god Savitar
declare us here guiltless to Varuṇa.
Notes
The verse is RV. x. 12. 8, without variant. Our comm. explains mánmani
by mantavye sthāne varuṇākhye.
Griffith
The counsel which the Gods meet to consider, their secret plan, of that we have no knowledge. There let God Savitar, Aditi, and Mitra proclaim to Varuna that we are sinless.
पदपाठः
यस्मि॑न्। दे॒वाः। मन्म॑नि। स॒म्ऽचर॑न्ति। अ॒पी॒च्ये᳡। न। व॒यम्। अ॒स्य॒। वि॒द्म॒। मि॒त्रः। नः॒। अत्र॑। अदि॑तिः। अना॑गान्। स॒वि॒ता। दे॒वः। वरु॑णाय। वो॒च॒त्। १.३६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस [परमात्मा] में (देवाः) दिव्य नियम (अपीच्ये) गुप्त (मन्मनि) ज्ञान के बीच (संचरन्ति) चलते रहते हैं, (वयम्) हम लोग (अस्य) उसे (न) नहीं (विद्म) जानतेहैं। (मित्रः) सबका मित्र, (अदितिः) अखण्ड, (सविता) सबका उत्पन्न करने हारा, (देवः) प्रकाशमान परमात्मा (अनागान् नः) हम निरपराधियों [धार्मिक पुरुषार्थियों]को (अत्र) इस [विषय] में (वरुणाय) श्रेष्ठ गुण के लिये (वोचत्) उपदेश करे ॥३६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा के नियमसंसार में ऐसे गुप्त हैं कि जितना-जितना विद्वान् लोग उन्हें खोजते हैं, उतना हीअधिक जानते जाते हैं। मनुष्य निरालसी होकर परमेश्वर की शरण में रहकर सदापुरुषार्थ करें ॥३६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३६−(यस्मिन्) परमात्मनि (देवाः) दिव्यनियमाः (मन्मनि) ज्ञाने (संचरन्ति) विचरन्ति (अपीच्ये) ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। अपि+अञ्चतेः क्विन्।भवे छन्दसि च। पा० ४।४।११०। इति यत्। अपीच्यं निर्णीतान्तर्हितनाम-निघ० ३।२५।अन्तर्हिते। गुप्ते (न) निषेधे (वयम्) विद्वांसः (अस्य) इदम् (विद्म) जानीमः (मित्रः) सुहृत् (नः) अस्मान् (अत्र) अस्मिन् विषये (अदितिः) अखण्डः। अविनाशी (अनागान्) इण आगोऽपराधे च्। उ० ४।२१। इति श्रवणाद् इण् गतौ-ड, आगादेशः। अनागसः। निरपराधिनः (सविता) सर्वोत्पादकः (देवः) प्रकाशमयःपरमात्मा (वरुणाय) श्रेष्ठगुणाय (वोचत्) कथयेत्। उपदिशेत् ॥
३७ सखाय आशिषामहे
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सखा॑य॒ आशि॑षामहे ब्र॒ह्मेन्द्रा॑य व॒ज्रिणे॑।
स्तु॒ष ऊ॒ षु नृत॑माय धृ॒ष्णवे॑ ॥
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मूलम् (VS)
सखा॑य॒ आशि॑षामहे ब्र॒ह्मेन्द्रा॑य व॒ज्रिणे॑।
स्तु॒ष ऊ॒ षु नृत॑माय धृ॒ष्णवे॑ ॥
३७ सखाय आशिषामहे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O companions, we would supplicate (ā-śas) worship (bráhman) for
Indra, possessor of the thunderbolt, to praise, indeed, the most manly,
the daring.
Notes
The verse is RV. viii. 24. 1 (also SV. i. 390), which reads in a
śiṣāmahi (SV. -he), and inserts in c vas after ū ṣú, as
required by the meter. The comm’s text (but not his exposition) also has
the vas. Our Anukr. takes no notice of the lack of a syllable in the
pāda. The comm. explains ā́ śiṣāmahe by āśāsmahe, and supplies
kartum; he renders stuṣé by either stāumi or stotum. The
particles ū ṣú are included in the prescriptions of Prāt. ii. 97; iii.
4; iv. 98. ⌊Weber, Sb. 1895, p. 819 n., can assign no reason why vss.
37-38 should appear here.⌋
Griffith
Companions, let us learn a prayer to Indra whom the thunder arms, To glorify your bold and most heroic Friend.
पदपाठः
सखा॑यः। आ। शि॒षा॒म॒हे॒। ब्रह्म॑। इन्द्रा॑य। व॒ज्रिणे॑। स्तु॒षे। ऊं॒ इति॑। सु। सुऽत॑माय। धृ॒ष्णवे॑। १.३७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- परोष्णिक्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के चुनाव का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सखायः) हे मित्रो ! (वज्रिणे) वज्र [अस्त्र-शस्त्र] रखनेवाले, (नृतमाय) बहुत बड़े नेता, (धृष्णवे)साहसी (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] को (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञान (स्तुषे) स्तुति करने के लिये (उ) अवश्य (सु) भले प्रकार (आ शिषामहे) हम निवेदनकरें ॥३७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब विद्वान् लोगमहागुणी, नीतिज्ञ पुरुषार्थी मनुष्य को राजसिंहासन पर विराजने के लिये निवेदनकरें ॥३७॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−८।२४।१ और सामवेद में पू० ४।१०।१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३७−(सखायः) हे सुहृदः (आशिषामहे) आङःशासु इच्छायाम्, लेटि, आडागमः। शासइदङ्हलोः। पा० ६।४।३४। इति इत्वं छान्दसम्। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इतिषत्वम्। इच्छेम। निवेदयेम (ब्रह्म) बृहत् तत्त्वज्ञानम् (इन्द्राय)परमैश्वर्यवते जनाय (वज्रिणे) अस्त्रशस्त्रधारिणे (स्तुषे) तुमर्थेसेसेनसेसेन्क्से०। पा० ३।४।९। ष्टुञ् स्तुतौ−क्से। स्तोतुम् (उ) एव (सु) सुष्ठु (नृतमाय) नेतृतमाय (धृष्णवे) प्रगल्भाय। साहसिने ॥
३८ शवसा ह्यसिश्रुतो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
शव॑सा॒ ह्यसि॑श्रु॒तो वृ॑त्र॒हत्ये॑न वृत्र॒हा।
म॒घैर्म॒घोनो॒ अति॑ शूर दाशसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शव॑सा॒ ह्यसि॑श्रु॒तो वृ॑त्र॒हत्ये॑न वृत्र॒हा।
म॒घैर्म॒घोनो॒ अति॑ शूर दाशसि ॥
३८ शवसा ह्यसिश्रुतो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- For thou art famed for might (śávas), for Vritra-slaying, a
Vritra-slayer; thou out-bestowest the bounteous with thy bounties, O
hero.
Notes
The verse is RV. viii. 24. 2, and without variant, if, with SPP., we
read śrutás at end of a. Our text has śritás, with a part of the
mss.; they vary between śrutás (our O.Op.D.R., and half of SPP’s;
also the comm.), śritás (our P.M.T., and two of SPP’s), and śṛtás
(our Bp.Bs.E.I.K.Kp., and three or four of SPP’s authorities)—which last
is doubtless only a careless variant of śritás. The translation given
above implies śrutás. The comm. perhaps reads in b vṛtrahatye
’va.
Griffith
For thou by slaying Vritra art the Vritra-slayer, famed for might. Thou, Hero, in rich gifts surpassest wealthy chiefs.
पदपाठः
शव॑सा। हि। असि॑। श्रु॒तः। वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑न। वृ॒त्र॒ऽहा। म॒घैः। म॒घोनः॑। अति॑। शू॒र॒। दा॒श॒सि॒। १.३८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- परोष्णिक्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के चुनाव का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (हि) क्योंकि, (शूर)हे शूर ! तू (शवसा) बल से (श्रुतः) विख्यात और (वृत्रहत्येन) दुष्टों के मारनेसे (वृत्रहा) दुष्टनाशक (असि) है, और (मघैः) धनों के कारण (मघोनः अति) धनवालोंसे बढ़कर (दाशसि) तू दान करता है ॥३८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! आप महाबली, शत्रुनाशक और सुपात्रों के लिये बहुत दान देनेवाले हैं, इन गुणों से हम आपकोराजा बनाते हैं ॥३८॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−८।२४।२ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३८−(शवसा) बलेन (हि)यस्मात् कारणात् (असि) (श्रुतः) विख्यातः (वृत्रहत्येन) शत्रुहननेन (वृत्रहा)दुष्टानां हन्ता (मघैः) धनैः (मघोनः) मघवतः। धनवतः पुरुषान् (अति) अतीत्य (शूर)हे वीर (दाशसि) ददासि ॥
३९ स्तेगो नक्षामत्येषि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्ते॒गो नक्षामत्ये॑षि पृथि॒वीं म॒ही नो॒ वाता॑ इ॒ह वा॑न्तु॒ भूमौ॑।
मि॒त्रो नो॒ अत्र॒वरु॑णो यु॒ज्यमा॑नो अ॒ग्निर्वने॒ न व्य॑सृष्ट॒ शोक॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्ते॒गो नक्षामत्ये॑षि पृथि॒वीं म॒ही नो॒ वाता॑ इ॒ह वा॑न्तु॒ भूमौ॑।
मि॒त्रो नो॒ अत्र॒वरु॑णो यु॒ज्यमा॑नो अ॒ग्निर्वने॒ न व्य॑सृष्ट॒ शोक॑म् ॥
३९ स्तेगो नक्षामत्येषि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Thou goest over the earth as a stegá over the ground; let winds
blow here on the great earth (bhū́mi) for us; Mitra for us there
(átra), Varuṇa, being joined, hath let loose heat (śóka), as fire
does in the forest.
Notes
RV. x. 31. 9 corresponds, but has very considerable differences of
reading: in a, eti pṛthvī́m; for b, míhaṁ ná vā́to ví ha vāti
bhū́ma; in c, yátra (for no átra) and ajyámānas (for yuj-);
in d, ‘gnír v-. Part of the AV. mss. also have ‘gnír v- (our
O.R., and nearly half of SPP’s), which accordingly might well be adopted
in the text; but SPP., like our edition, reads agnír v-. One or two of
our mss. (Op.R.s.m.) read in d asṛṣṭa (vyàs-), and so do a
minority of SPP’s; and the latter gives in his saṁhitā-text
vyásṛṣṭa, but (apparently by an oversight) in his pada-text ví:
asṛṣṭa; one sees no reason at all for the accentuation of the verb ⌊the
AV. text, with its átra⌋.* Our text is plainly an unintelligent
corruption of an unintelligible verse. The RV. comm. guesses
raśmisaṁghāty ādityaḥ to be the meaning of the ⌊very rare⌋ stegá,
but only on the ground of a worthless etymology. Our comm. is defective
here, but the lacuna is filled up by the editor, who makes it signify “a
frog “! ⌊a meaning possibly suggested by the passage at TS. v. 7. 11
(which is parallel to VS. xxv. 1)⌋. Ludwig conjectures “a plowshare”
⌊and Weber follows him⌋. Our pada-text reads in b mahī́ íti, and
the case is quoted under Prāt. i. 74 as that of a locative in ī; our
comm. renders it ⌊alternatively⌋ by mahatīm; he also renders
vyásṛṣṭa by nāśayatu! The ṁ of pṛthivī́ṁ is ⌊almost or quite
illegible⌋ in our text. The Anukr. takes no notice of the metrical
irregularities of the verse (10 + 11: 12 + 11 = 44).
*⌊The RV. reads vy ásṛṣṭa, and has the difficult pada-reading ví:
ásṛṣṭa: here the RV’s accentuation of ásṛṣṭa is accounted for by the
RV’s yátra; and the accent of ví is to be put with the remarkable
cases (some thirty) mentioned by W., Gram. § 1084 a, whether we regard
it as a blunder helped by the wavering tradition as to átra, yátra, or
not. (Cf. what is said about “blend-readings” under xiv. 2. 18 and, just
below, under xviii. 1. 42.) Whitney’s Bp. follows the RV. in giving ví:
ásṛṣṭa and his Bs. has vyásṛṣṭa; cf. the ví: ádadhus of xix. 6. 5
a.⌋
Griffith
O’er the broad land thou goest like a Stega: here on vast earth let breezes blow upon us, Here hath our dear Friend Varuna, united, like Agni in the wood, shot forth his splendour.
पदपाठः
स्ते॒गः। न। क्षाम्। अति॑। ए॒षि॒। पृ॒थि॒वीम्। म॒ही इति॑। नः॒। वाताः॑। इ॒ह। वा॒न्तु॒। भूमौ॑। मि॒त्रः। नः॒। अत्र॑। वरु॑णः। यु॒ज्यमा॑नः। अ॒ग्निः। वने॑। न। वि। अ॒सृ॒ष्ट॒। शोक॑म्। १.३९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (स्तेगःन) संग्रहकर्ता पुरुष के समान (क्षाम्) निवास देनेवाली (पृथिवीम् अति) पृथिवीपर (एषि) तू चलता है, (वाताः) वायुओं [के समान वेगवाले पुरुष] (इह) यहाँ पर [राज्य में] (नः) हमारे लिये (मही) बड़ी (भूमौ) भूमि पर (वान्तु) चलें। (अत्र)यहाँ पर (नः) हमारे (युज्यमानः) मिलते हुए (वरुणः) श्रेष्ठ (मित्रः) मित्र [आप]ने (शोकम्) प्रताप को (वि) दूर-दूर (असृष्ट) फैलाया है, (अग्निः न) जैसे आग (वने) वन में [ताप फैलाता है] ॥३९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा को योग्य है किबहुत धन का संग्रह करके राज्य की रक्षा करे और प्रजागणों को उद्योगी बना करशत्रुओं को मारे ॥३९॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।३१।९। और वहाँ [विश्वेदेवाः] देवता हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३९−(स्तेगः) मुदिग्रोर्गग्गौ। उ० १।१२८। स्त्यैशब्दसंघातयोः-ग प्रत्ययः। पृषोदरादिरूपम्। संग्रहकर्ता पुरुषः (न) यथा (क्षाम्)अन्येष्वपिदृश्यते। पा० ३।२।१०१। क्षि निवासगत्योः-ड प्रत्ययः, टाप्।निवासयित्रीम् (अति) प्रति (एषि) गच्छसि (पृथिवीम्) पृथिवीराज्यम् (मही)सप्तम्याम् ईकारः। मह्याम्। महत्याम् (नः) अस्मभ्यम् (वाताः) वायव इवशीघ्रगामिनः पुरुषाः (इह) अत्र राज्ये (वान्तु) गच्छन्तु (भूमौ) (मित्रः)मित्रभूतो राजा (नः) अस्माकम् (अत्र) राज्ये (वरुणः) श्रेष्ठः (युज्यमानः)संगच्छमानः (अग्निः) पावकः (वने) वृक्षसमूहे (न) इव (वि) विविधम्। अतिदूरम्। (असृष्ट) सृज विसर्गे-लुङ्। विस्तारितवान् (शोकम्) प्रतापम् ॥
४० स्तुहि श्रुतङ्गर्तसदम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्तु॒हि श्रु॒तंग॑र्त॒सदं॒ जना॑नां॒ राजा॑नं भी॒ममु॑पह॒त्नुमु॒ग्रम्।
मृ॒डा ज॑रि॒त्रे रु॑द्र॒स्तवा॑नो अ॒न्यम॒स्मत्ते॒ नि व॑पन्तु॒ सेन्य॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्तु॒हि श्रु॒तंग॑र्त॒सदं॒ जना॑नां॒ राजा॑नं भी॒ममु॑पह॒त्नुमु॒ग्रम्।
मृ॒डा ज॑रि॒त्रे रु॑द्र॒स्तवा॑नो अ॒न्यम॒स्मत्ते॒ नि व॑पन्तु॒ सेन्य॑म् ॥
४० स्तुहि श्रुतङ्गर्तसदम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Praise thou the famed sitter on the hollow of men (jána), the
terrible king, formidable assailant (? upahatnú); being praised, O
Rudra, be gracious to the singer; let thine army (? sénya) lay low
(ni-vap) another than us.
Notes
The verse corresponds to RV. ii. 33. 11 (also found in TS. iv. 5. 10³,
without variant from RV.), which reads in a-b -sádaṁ yúvānam mṛgáṁ
ná bh-, and, for d, ‘nyáṁ te asmán ní vapantu sénāḥ. The
substitution in our text of sényam for sénās at the end throws into
confusion sense and construction. The comm. first takes it as = senās,
and then as accus. qualifying anyám and signifying tava senārham, in
the latter case supplying senās as subject of the verb. Gartasádam
he takes first in the Nirukta sense of śmaśānasaṁcaya, and then in its
“ordinary” (prasiddha) meaning, adding tasyā ’raṇye saṁcārād
gartasadanaṁ yujyate. The Kāuś. (85. 19) uses the verse in connection
with the digging of a hollow (garta) in the middle of the measured
space at the piṇḍapitṛyajña, and the scattering into it of a number of
heterogeneous substances. Our comm., by some rare and strange
oversight, makes no mention of this viniyoga, and so does not take it
into account in the explanation of the verse. Apparently it is only the
occurrence of gartasad in the verse that suggests the use; of real
applicability to the situation there is none.
Griffith
Sing praise to him the chariot-borne, the famous, Sovran of men, the dread and strong destroyer. O Rudra, praised be gracious to the singer; let thy darts spare us and smite down another.
पदपाठः
स्तु॒हि। श्रु॒तम्। ग॒र्त॒ऽसद॑म्। जना॑नाम्। राजा॑नम्। भी॒मम्। उ॒प॒ऽह॒त्नुम्। उ॒ग्रम्। मृ॒ड। ज॒रि॒त्रे। रु॒द्र॒। स्तवा॑नः। अ॒न्यम्। अ॒स्मत्। ते॒। नि। व॒प॒न्तु॒। सेन्य॑म्। १.४०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- रुद्र
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रुद्र) हे रुद्र ! [शत्रुनाशक राजन्] (श्रुतम्) विख्यात, (गर्तसदम्) रथ पर बैठनेवाले, (जनानाम्)मनुष्यों के बीच (राजानम्) शोभायमान, (भीमम्) भयङ्कर, (उपहत्नुम्) बड़ेमारनेवाले, (उग्रम्) प्रचण्ड [सेनापति] की (स्तुहि) बड़ाई कर। और (स्तवानः)बड़ाई किया गया तू (जरित्रे) बड़ाई करनेवाले के लिये (मृड) सुखी हो, (अस्मत्) हमसे (अन्यम्) दूसरे पुरुष [अर्थात् शत्रु] को (ते) तेरे (सेन्यम्) सेनादल (निवपन्तु) काट डालें ॥४०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा को योग्य है किबड़े-बड़े शूर सेनापतियों की बड़ाई करके आदर करे, और जो प्रजागण आदि राजा केश्रेष्ठ गुणों की स्तुति करें, वह उन्हें प्रसन्न करे और धर्मात्माओं की रक्षाकरके शत्रुओं का नाश करे ॥४०॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है २।३३।११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४०−(स्तुहि) प्रशंस (श्रुतम्) विख्यातम् (गर्तसदम्) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। गॄविज्ञापने स्तुतौ च-तन्। रथोऽपि गर्त उच्यते गृणातेः स्तुतिकर्मणः स्तुततमंयानम्-निरु० ३।५। रथे स्थितिशीलम् (जनानाम्) मनुष्याणां मध्ये (राजानम्)शोभायमानम् (भीमम्) भयङ्करम् (उपहत्नुम्) अतिहन्तारम् (उग्रम्) प्रचण्डंसेनापतिम् (मृड) सुखी भव (जरित्रे) स्तोत्र (रुद्र) हे शत्रुनाशक (स्तवानः)स्तूयमानः (अन्यम्) भिन्नम्। शत्रुम् (अस्मत्) अस्मत्तः (ते) तव (नि वपन्तु) डुवप बीजसन्ताने छेदने च। नितरां छिन्दन्तु (सेन्यम्) एकवचनं बहुवचने। सेनादलानि ॥
४१ सरस्वतीन्देवयन्तो हवन्ते
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सर॑स्वतींदेव॒यन्तो॑ हवन्ते॒ सर॑स्वतीमध्व॒रे ता॒यमा॑ने।
सर॑स्वतीं सु॒कृतो॑ हवन्ते॒सर॑स्वती दा॒शुषे॒ वार्यं॑ दात् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सर॑स्वतींदेव॒यन्तो॑ हवन्ते॒ सर॑स्वतीमध्व॒रे ता॒यमा॑ने।
सर॑स्वतीं सु॒कृतो॑ हवन्ते॒सर॑स्वती दा॒शुषे॒ वार्यं॑ दात् ॥
४१ सरस्वतीन्देवयन्तो हवन्ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- On Sarasvatī do the pious call; on Sarasvatī , while the sacrifice
is being extended; on Sarasvatī do the well-doers call: may Sarasvatī
give what is desirable to the worshiper (dāśvā́ṅs).
Notes
RV. x. 17. 7 is the same verse, but makes better meter by having
ahvayanta for havante in c; and the comm. agrees with it. Verses
41-43, with others to Sarasvatī (vii. 68. 1-2; also xviii. 3. 25), are
used by Kāuś. (81. 39) in the pitṛmedha ceremony, accompanying
offerings to Sarasvatī. ⌊And they recur below, as noted under vs. 43.⌋
The Anukr. takes no notice of the deficiency of a syllable in 41 c,
and 42 a, nor of the excess of two syllables in 43 a.
Griffith
The pious call Sarasvati, they worship Sarasvati while sacrifice proceedeth. The virtuous call Sarasvati to hear them. Sarasvati send bliss to him who giveth!
पदपाठः
सर॑स्वतीम्। दे॒व॒ऽयन्तः॑। ह॒व॒न्ते॒। सर॑स्वतीम्। अ॒घ्व॒रे। ता॒यमा॑ने। सर॑स्वतीम्। सु॒ऽकृतः॑। ह॒व॒न्ते॒। सर॑स्वती। दा॒शुषे॑। वार्य॑म्। दा॒त्। १.४१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- सरस्वती
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सरस्वती के आवाहन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वतीम्) सरस्वती [विज्ञानवती वेदविद्या] को, (सरस्वतीम्) उसी सरस्वती को (देवयन्तः) दिव्यगुणोंको चाहनेवाले पुरुष (तायमाने) विस्तृत होते हुए (अध्वरे) हिंसारहित व्यवहारमें (हवन्ते) बुलाते हैं। (सरस्वतीम्) सरस्वती को (सुकृतः) सुकृती लोग (हवन्ते)बुलाते हैं, (सरस्वती) सरस्वती (दाशुषे) अपने भक्त को (वार्यम्) श्रेष्ठ पदार्थ (दात्) देती है ॥४१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विज्ञानी लोग परिश्रमके साथ आदरपूर्वक वेदविद्या का अभ्यास करके पुण्य कर्म करते और मोक्ष आदि इष्टपदार्थ पाते हैं ॥४१॥ मन्त्र ४१-४३। कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं १०।१७।७-९ ॥ इससूक्त का मिलान करो-अ० ७।६८।१-३ ॥ यह तीनों मन्त्र आगे भी हैं अ० १८।४।४५-४७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४१−(सरस्वतीम्) विज्ञानवतीं वेदविद्याम् (देवयन्तः) देव-क्यच्। देवान्श्रेष्ठगुणान् आत्मन इच्छन्तः (हवन्ते) आह्वयन्ति (सरस्वतीम्) (अध्वरे)हिंसारहिते व्यवहारे (तायमाने) विस्तार्यमाणे (सरस्वतीम्) (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (हवन्ते) (सरस्वती) (दाशुषे) आत्मानं दत्तवते स्वभक्ताय (वार्यम्) वरणीयंस्वीकरणीयं मोक्षादिपदार्थम् (दात्) अदात्। ददाति ॥
४२ सरस्वतीम्पितरो हवन्ते
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सर॑स्वतींपि॒तरो॑ हवन्ते दक्षि॒ना य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः।
आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑मादयध्वमनमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सर॑स्वतींपि॒तरो॑ हवन्ते दक्षि॒ना य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः।
आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑मादयध्वमनमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे ॥
४२ सरस्वतीम्पितरो हवन्ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- On Sarasvatī do the Fathers call, arriving at the sacrifice on the
south; sitting on this barhís do ye revel; assign thou to us food
(íṣas) free from disease.
Notes
Here again the RV. version (x. 17. 9 a, b, 8 c, d) makes the
meter good by inserting ⌊or rather (cf. vs. 59), by not omitting⌋ yā́m
in a before pitáras (and hence accenting hávante*); it also
accents dakṣiṇā́ in b, as other texts do; two of our mss.
(O.s.m.Op.) do the same, with the majority of SPP’s, whence the latter
adopts dakṣiṇā́ in his edition; it is undoubtedly the correct reading
⌊as is explicitly stated also by the comm. to xix. 13. 9, page 325²¹⌋.
RV. also avoids the change of subject in the second line by reading
mādayasva in c. *⌊It is interesting to note that SPP’s C^(P)
accents hávante, as if the missing yā́m were not missing: cf. my note
about “blend-readings” under xiv. 2. 18, and the end of my note under
xviii. 1. 39; also note to 4. 57.⌋
Griffith
Sarasvati is called on by the Fathers who come right forward to our solemn worship. Seated upon this sacred grass rejoice you. Give thou us strengthening food that brings no sickness.
पदपाठः
सर॑स्वतीम्। पि॒तरः॑। ह॒व॒न्ते॒। द॒क्षि॒णा। य॒ज्ञम्। अ॒भि॒ऽनक्ष॑माणाः। आ॒ऽसद्य॑। अ॒स्मिन्। ब॒र्हिषि॑। मा॒द॒य॒ध्व॒म्। अ॒न॒मी॒वाः। इषः॑। आ। धे॒हि॒। अ॒स्मे इति॑। १.४२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- सरस्वती
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सरस्वती के आवाहन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वतीम्) सरस्वती [विज्ञानवती वेदविद्या] को (दक्षिणा) सरल मार्ग में (यज्ञम्) यज्ञ [संयोगव्यवहार] को (अभिनक्षमाणाः) प्राप्त करते हुए (पितरः) पितर [पालनकरनेवाले विज्ञानी] लोग (हवन्ते) बुलाते हैं। [हे विद्वानो !] (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) वृद्धि कर्म में (आसद्य) बैठकर (मादयध्वम्) [सबको] तृप्त करो, [हेसरस्वती !] (अस्मे) हम में (अनमीवाः) पीड़ा रहित (इषः) इच्छाएँ (आ धेहि)स्थापित कर ॥४२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोगनिर्विघ्न होकर सरल रीति में सबसे मिलकर वेदविद्या के प्रचार से विज्ञान कीवृद्धि और इष्ट पदार्थ की सिद्धि करते हैं ॥४२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४२−(सरस्वतीम्) विज्ञानवतींवेदविद्याम् (पितरः) पालनशीला विज्ञानिनः (हवन्ते) आह्वयन्ति (दक्षिणा)दक्षिण-आच्। दक्षिणतः। सरलमार्गे (यज्ञम्) संयोगव्यवहारम् (अभिनक्षमाणाः) अभितोगच्छन्तः (आसद्य) उपविश्य (अस्मिन्) (बर्हिषि) बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। बृहिवृद्धौ-इषि। वृद्धिकर्मणि (मादयध्वम्) तर्पयत सर्वान्, हे विद्वांसः (अनमीवाः)पीडारहिताः (इषः) इच्छाः (आ धेहि) स्थापय, हे सरस्वति (अस्मे) अस्मासु ॥
४३ सरस्वति यासरथम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सर॑स्वति॒ यास॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती।
स॑हस्रा॒र्घमि॒डोअत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सर॑स्वति॒ यास॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती।
स॑हस्रा॒र्घमि॒डोअत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि ॥
४३ सरस्वति यासरथम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O Sarasvatī, that wentest in company (sarátham) with the songs
(ukthá), with the svadhā́s, O goddess, reveling with the Fathers,
assign thou to the sacrificer here a portion of refreshment (íḍ) of
thousandfold value, abundance of wealth.
Notes
Here, once more, the AV. disturbs the meter by the intrusion into a
of ukthāís, which is wanting in the RV. version (x. 17. 8 a, b, 9
c, d). ⌊RV. reads yájamāneṣu in d.⌋ The three Sarasvatī verses
are repeated below as xviii. 4. 45-47. The comm. gives annasya as
equivalent of iḍás.
Griffith
Sarasvati, who comest with the Fathers, joying in hymns, O Goddess, and oblations, Give plenteous wealth to this the sacrificer, a portion, worth a thousand, of refreshment.
पदपाठः
सर॑स्वति। या। स॒ऽरथ॑म्। य॒याथ॑। उ॒क्थैः। स्व॒धाभिः॑। दे॒वि॒। पि॒तृऽभिः॑। मद॑न्ती। स॒ह॒स्र॒ऽअ॒र्घम्। इ॒डः। अत्र॑। भा॒गम्। रा॒यः। पोष॑म्। यज॑मानाय। धे॒हि॒। १.४३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- सरस्वती
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सरस्वती के आवाहन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वति) हे सरस्वती ! [विज्ञानवती वेदविद्या] (देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली] (या) जो तू (उक्थैः)वेदोक्त स्तोत्रों से (सरथम्) रमणीय गुणोंवाली होकर और (स्वधाभिः) आत्मधारणशक्तियों के सहित [विराजमान] (पितृभिः) पितरों [विज्ञानियों] के साथ (मदन्ती)तृप्त होती हुई (ययाथ) प्राप्त हुई है। सो तू (अत्र) यहाँ (इडः) विद्या के (सहस्रार्घम्) सहस्रों प्रकार पूजनीय (भागम्) भाग को और (रायः) धन की (पोषम्)वृद्धि को (यजमानाय) यजमान [विद्वानों के सत्कारी] के लिये (धेहि) दान कर ॥४३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - आत्मविश्वासी विज्ञानीलोग वेदविद्या प्राप्त करके आनन्द भोगते हैं। सब मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग सेवेदविद्या ग्रहण करके धन आदि की वृद्धि करें ॥४३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४३−(सरस्वति) हे विज्ञानवतिवेदविद्ये (या) या त्वम् (सरथम्) यथा भवति तथा। रमणीयगुणैः सह वर्तमाना सती (ययाथ) या प्रापणे-लिट्। प्राप्तासि (उक्थैः) वेदोक्तस्तोत्रैः (स्वधाभिः)आत्मधारणशक्तिभिः सह (देवि) हे उत्तमगुणवति (पितृभिः) पालनशीलैर्विज्ञानिभिः (मदन्ती) तृप्ता भवन्ती (सहस्रार्घम्) अर्ह पूजायाम्-घञ्, कुत्वम्। सहस्रप्रकारपूजनीयम् (इडः) इडायाः। विद्यायाः (अत्र) अस्मिन् संसारे (भागम्) अंशम् (रायः)धनस्य (पोषम्) वृद्धिम् (यजमानाय) संयोगकराय विदुषे (धेहि) धारय ॥
४४ उदीरतामवरउत्परास उन्मध्यमाः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उदी॑रता॒मव॑र॒उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑।
असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्तेनो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उदी॑रता॒मव॑र॒उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑।
असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्तेनो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥
४४ उदीरतामवरउत्परास उन्मध्यमाः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the lower, let the higher, let the midmost Fathers, the
soma-drinking (? somyá), go up; they who went to life (ásu),
unharmed (avṛká), right-knowing—let those Fathers aid us at our calls.
Notes
The verse is found, without variant, as RV. x. 15. 1, VS. xix. 49, and
in TS. ii. 6. 12³, MS. iv. 10. 6. It is used twice by Kāuś. in the
funeral book: once (80. 43) at the piling of the funeral pile, and once
(87. 14), in the piṇḍapitṛyajña, at the digging of a pit for receiving
certain offerings. Verses 44-46 appear together (87. 29) in the latter
ceremony with the bringing in of certain water-pots ⌊i.e. the pouring in
(of their contents)?⌋. In Vāit. (30. 14), vss. 44 and 45, with 51, and
3. 44, 45, are prescribed to be repeated after the pouring of surā
into a perforated vessel, in the sāutrāmaṇī ceremony; and again, vss.
44-46 accompany (37. 23) the binding of a victim to the sacrificial post
in the puruṣamedha.
Griffith
May they ascend, the lowest, highest, midmost, the Fathers, who deserve a share of Soma. May they who have attained to life, the Fathers, righteous and gentle, aid us when we call them.
पदपाठः
उत्। ई॒र॒ता॒म्। अव॑रे। उत्। परा॑सः। उत्। म॒ध्य॒माः। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। असु॑म्। ये। ई॒युः। अ॒वृ॒काः। ऋ॒त॒ऽज्ञाः। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। पि॒तरः॑। हवे॑षु। १.४४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- पितरगण
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अवरे) छोटे पदवाले (सोम्यासः) ऐश्वर्य के हितकारी, (पितरः) पितर [पालन करनेवाले विद्वान्] (उत्)उत्तमता से, (परासः) ऊँचे पदवाले (उत्) उत्तमता से और (मध्यमाः) मध्य पदवाले (उत्) उत्तमता से (ईरताम्) चलें। (ये) जिन (अवृकाः) भेड़िये वा चोर का स्वभाव नरखनेवाले, (ऋतज्ञाः) सत्य धर्म जाननेवाले [विद्वानों] ने (असुम्) प्राण [बल वाजीवन] (ईयुः) पाया है (ते) वे (पितरः) पितर [पालन करनेवाले] लोग (नः) हमें (हवेषु) संग्रामों में (अवन्तु) बचावें ॥४४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रधान पुरुष कोचाहिये कि विद्या, कर्म और स्वभाव की योग्यता के अनुसार विद्वानों का सत्कारकरे, जिससे वे लोग सबकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहें ॥४४॥मन्त्र ४४-४६ कुछभेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१५।१, ३, २ और यजुर्वेद में १९।४९, ५६, ६८ और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पितृयज्ञविषय में भी व्याख्यात हैं॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४४−(उत्) उत्तमतया (ईरताम्) गच्छन्तु (अवरे) नीचपदस्थाः (उत्) (परासः)उच्चपदस्थाः (उत्) (मध्यमाः) मध्यपदस्थाः (पितरः) पालनशीला विद्वांसः (सोम्यासः)सोमायैश्वर्याय हिताः (असुम्) प्राणम्। बलम्। जीवनम् (ईयुः) प्रापुः (अवृकाः)वृकस्य श्वापदस्य चौरस्य वा स्वभावरहिताः (ऋतज्ञाः) सत्यधर्मस्य ज्ञातारः (ते) (नः) अस्मान् (अवन्तु) रक्षन्तु (पितरः) (हवेषु) संग्रामेषु ॥
४५ आहम्पितॄन्त्सुविदत्राँ अवित्सि
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आहंपि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑।
ब॑र्हि॒षदो॒ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त॑ इ॒हाग॑मिष्ठाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आहंपि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑।
ब॑र्हि॒षदो॒ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त॑ इ॒हाग॑मिष्ठाः ॥
४५ आहम्पितॄन्त्सुविदत्राँ अवित्सि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I have won hither (ā-vid) the beneficent Fathers, both the
grandson and the wide-striding of Vishṇu; they who, sitting on the
barhís, partake of the pressed drink with svadhā́—they come
especially hither.
Notes
The verse is, without variant, RV. x. 15. 3, VS. xix. 56, and found in
TS. ii. 6. 12³ and MS. iv. 10. 6 (MS. puts yé after svadháyā in
c). Our comm. is uncertain from which root vid to make avitsi,
and casts no light on the obscure second pāda; he renders āgamiṣṭhās
either by āgamaya or āgacchantu. The abbreviated form barhiṣádas
(p. barhi॰sádaḥ) is one of those quoted by the Prāt. comment as aimed
at by rules ii. 59; iv. 100. For the use of the verse by Kāuś. and
Vāit., see under vs. 44.
Griffith
I have attained the gracious-minded Fathers, I have gained son and progeny from Vishnu. They who enjoy pressed juices with oblation, seated on sacred grass, come oftenest hither.
पदपाठः
आ। अ॒हम्। पि॒तॄन्। सु॒ऽवि॒दत्रा॑न्। अ॒वि॒त्सि॒। नपा॑तम्। च॒। वि॒ऽक्रम॑णम्। च॒। विष्णोः॑। ब॒र्हि॒ऽसदः॑। ये। स्व॒धया॑। सु॒तस्य॑। भज॑न्त। पि॒त्वः। ते। इ॒ह। आऽग॑मिष्ठाः। १.४५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- पितरगण
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैंने (विष्णोः) विष्णु [सर्वव्यापक परमात्मा] से (सुविदत्रान्) बड़े ज्ञानी वा बड़ेधनी (पितॄन्) पितरों [पालनेवाले विद्वानों] को (च च) और भी (नपातम्) न गिरनेवाली (विक्रमणम्) विविध प्रवृत्ति को (आ अवित्सि) पाया है। (ये) जिन आप (बर्हिषदः)उत्तम पद पर बैठनेवालों ने (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (सुतस्य) ऐश्वर्ययुक्त (पित्वः) रक्षासाधन अन्न का (भजन्त) सेवन किया है, (ते) वे तुम सब (इह) यहाँ (आगमिष्ठाः) आये हो ॥४५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रधान पुरुष परमात्माकी कृपा से धर्मात्माओं के साथ कार्यकुशलता को प्राप्त करे और जो बड़े पराक्रमीविद्वान् हों, उनका उचित सत्कार करके प्रजा की रक्षा करे ॥४५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४५−(आ) समन्तात् (अहम्) प्रधानजनः (पितॄन्) पालकान् विदुषः (सुविदत्रान्) अ० १।३१।४। सुविदेःकत्रन्। उ० ३।१०८।सु+विद ज्ञाने विद्लृ लाभे च-कत्रन्। उत्तमज्ञानान्। बहुधनान् (अवित्सि) विद्लृ लाभे-लुङ्। लब्धवानस्मि (नपातम्) पातरहितम्। अनश्वरम् (च) (विक्रमणम्) विविधप्रवृत्तिम् (च) अपि (विष्णोः) सर्वव्यापकात् परमेश्वरात् (बर्हिषदः) उत्तमपदस्थाः (ये) पितरः (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (सुतस्य)ऐश्वर्ययुक्तस्य (भजन्त) अभजन्त। सेवनं कृतवन्तः (पित्वः) कमिमनिजनि०। उ० १।७३।पा रक्षणे-तु, पिभावः। पितुरित्यन्ननाम पातेर्वा पिबतेर्वा प्यायतेर्वा-निरु०९।२४। रक्षासाधनस्यान्नस्य (ते) तादृशाः पितरः (इह) अत्र (आगमिष्ठाः) लुङिरूपम्। यूयम् आगताःस्थ ॥
४६ इदं पितृभ्योनमो
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इ॒दं पि॒तृभ्यो॒नमो॑ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा॑सो॒ ये अप॑रास ई॒युः।
ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्यानिष॑क्ता॒ ये वा॑ नू॒नं सु॑वृ॒जना॑सु दि॒क्षु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒दं पि॒तृभ्यो॒नमो॑ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा॑सो॒ ये अप॑रास ई॒युः।
ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्यानिष॑क्ता॒ ये वा॑ नू॒नं सु॑वृ॒जना॑सु दि॒क्षु ॥
४६ इदं पितृभ्योनमो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Be this homage today to the Fathers, who went first, who went after,
who are seated in the space (rájas) of earth, or who are now in
regions (díś) having good abodes (suvṛjána).
Notes
The verse is RV. x. 15. 2, which, however, reads in b úparāsas,
and in d vikṣú; and with it in both respects read the
corresponding verses in TS. ii. 6. 12⁴ and MS. iv. 10. 6; also VS. xix.
68 (but this, with our E., has námo ‘stu in a). Ppp. also gives
the verse in book ii., reading in b ye parāsaṣ pareyuḥ, and in
d suvṛjināsu vikṣu. Some of our mss. (P.M.I.R.T.), and one of
SPP’s, agree with RV. in reading úparāsas; the comm. divides u
parāsas; and our E. has vikṣú, while P.M. give divikṣú, and I.
prikṣú. For the use of the verse in Kāuś. and Vāit. with vss. 44-45,
see under 44; it also (or else, more probably, 4. 51: see under that
verse) is prescribed alone (80. 51) to accompany the scattering of
darbha-grass in preparing the funeral pile.
Griffith
Now be this homage offered to the Fathers, to those who passed of old and those who followed, Those who have rested in the earthly region and those who dwell among the happy races.
पदपाठः
इ॒दम्। पि॒तृऽभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। अ॒द्य। ये। पूर्वा॑सः। ये। अप॑रासः। ई॒युः। ये। पार्थि॑वे। रज॑सि। आ। निऽस॑क्ताः। ये। वा॒। नू॒नम्। सु॒ऽवृ॒जना॑सु। दि॒क्षु। १.४६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- पितरगण
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) यह (नमः) अन्न (पितृभ्यः) उन पितरों [पालन करनेवाले वीरों] के लिये (अद्य) आज (अस्तु) होवे, (ये) जो (पूर्वासः) पहिले [विद्वान्] होकर और (ये) जो (अपरासः) अर्वाचीन [नवीनविद्वान्] होकर (ईयुः) चले हैं। (ये) जो (पार्थिवे) भूमि विद्या [राजनीति आदि]सम्बन्धी (रजसि) समाज में (आ) आकर (निषत्ताः) बैठे हैं, (वा) और (ये) जो (नूनम्)निश्चय करके (सुवृजनासु) बड़े बल [गढ़ सेना आदि] वाली (दिक्षु) दिशाओं में हैं॥४६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा उन वृद्ध और युवाविद्वानों का यथोचित आदर करे, जो नीतिकुशल होकर भूमिसम्बन्धी अनेक विद्याओं काप्रचार करके राज्य की उन्नति करें ॥४६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४६−(इदम्) (पितृभ्यः) पालकेभ्योविद्वद्भ्यः (नमः) अन्नम् (अस्तु) (अद्य) इदानीम् (पूर्वासः) पूर्वे विद्वांसःसन्तः (ये) (अपरासः) अपरे। अर्वाचीनाः। नूतना विद्वांसः (ईयुः) जग्मुः। गताः (ये) (पार्थिवे) भूमिविद्यासम्बन्धिनि। राजनीतिसम्बन्धिनि (रजसि) लोके। समाजे (आ) आगत्य (निषत्ताः) निषण्णाः। उपविष्टाः (ये) (वा) चार्थे (नूनम्) निश्चयेन (सुवृजनासु) वृजनं बलनाम-निघ० २।९। शोभनं वृजनं बलं दुर्गसेनादिकं यासांतादृशीषु (दिक्षु) प्राच्यादिषु ॥
४७ मातलीकव्यैर्यमो
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मात॑लीक॒व्यैर्य॒मो अङ्गि॑रोभि॒र्बृह॒स्पति॒रृक्व॑भिर्वावृधा॒नः।
यांश्च॑ दे॒वावा॑वृ॒धुर्ये च॑ दे॒वांस्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मात॑लीक॒व्यैर्य॒मो अङ्गि॑रोभि॒र्बृह॒स्पति॒रृक्व॑भिर्वावृधा॒नः।
यांश्च॑ दे॒वावा॑वृ॒धुर्ये च॑ दे॒वांस्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥
४७ मातलीकव्यैर्यमो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Mātālī with the kavyás, Yama with the An̄girases, Brihaspati
increasing with the ṛ́kvans (‘praisers’); both they whom the gods
increased and who [increased] the gods—let those Fathers aid us at our
calls.
Notes
RV. x. 14. 3 has the first three pādas, but, instead of repeating our 44
d, reads for the fourth svā́hā ‘nyé svadháyā ‘nyé madanti; and TS.
(ii. 6. 12⁵) and MS. (iv. 14. 16) agree with it in so doing.
Griffith
Matali prospers there with Kavyas, Yama with Angiras’ sons, Brihaspati with singers. Exalters of the Gods, by Gods exalted, aid us those Fathers in our invocations?
पदपाठः
मात॑ली। क॒व्यै। य॒मः। अङ्गि॑रःऽभिः। बृह॒स्पतिः॑। ऋक्व॑ऽभिः। व॒वृ॒धा॒नः। यान्। च॒। दे॒वाः। व॒वृ॒धुः। ये। च॒। दे॒वान्। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। पि॒तरः॑। हवे॑षु। १.४७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मातली) ऐश्वर्य सिद्धकरनेवाला, (यमः) संयमी और (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं का रक्षक पुरुष] (कव्यैः) बुद्धिमानों के हितकारी (अङ्गिरोभिः) विज्ञानी महर्षियों द्वारा (ऋक्वभिः) बड़ाईवाले कामों से (वावृधानः) बढ़नेवाला होता है। (च) और (यान्) जिन [पितरों] को (देवाः) विद्वानों ने (वावृधुः) बढ़ाया है, (च) और (ये) जिन [पितरों]ने (देवान्) विद्वानों को [बढ़ाया है], (ते) वे (पितरः) पितर [पालन करनेवाले]लोग (नः) हमें (हवेषु) संग्रामों में (अवन्तु) बचावें ॥४७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ऐश्वर्य चाहनेवालाजितेन्द्रिय पुरुष बड़े-बड़े विद्वानों के उपदेश और वेदादि शास्त्रों के मनन सेउन्नति करके संसार की रक्षा करें ॥४७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१४।३। और ऋग्वेद पाठ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण मेंउद्धृत है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४७−(मातली) अ० ८।९।५। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। मा+तलप्रतिष्ठायाम्-इन्। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। मां लक्ष्मीं तालयतिस्थापयतीतीति मातलिः (कव्यैः) कविभ्यो हितैः (यमः) संयमी पुरुषः (अङ्गिरोभिः) अ०२।१२।४। अङ्गतेरसिरिरुडागमश्च। उ० ४।२३६। अगि गतौ-असि, इरुडागमश्च विज्ञानिभिः।महर्षिभिः (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालको जनः (ऋक्वभिः) ऋचस्तुतौ-क्विप्। छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। वा० पा० ५।२।१०२। मत्वर्थे वनिप्, छान्दसं कुत्वम्। स्तुतिमद्भिः कर्मभिः (ववृधानः) वर्धमानः (यान्) पितॄन् (च) (देवाः) विद्वांसः (ववृधुः) वर्धितवन्तः (ये) पितरः (च) (देवान्) विदुषःपुरुषान्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४४ ॥
४८ स्वादुष्किलायम्मधुमाँ उतायम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्वा॒दुष्किला॒यंमधु॑माँ उ॒तायं ती॒व्रः किला॒यं रस॑वाँ उ॒तायम्।
उ॒तो न्व१॒॑स्यप॑पि॒वांस॒मिन्द्रं॒ न कश्च॒न स॑हत आह॒वेषु॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्वा॒दुष्किला॒यंमधु॑माँ उ॒तायं ती॒व्रः किला॒यं रस॑वाँ उ॒तायम्।
उ॒तो न्व१॒॑स्यप॑पि॒वांस॒मिन्द्रं॒ न कश्च॒न स॑हत आह॒वेषु॑ ॥
४८ स्वादुष्किलायम्मधुमाँ उतायम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Sweet verily is this [sóma], and full of honey is this; strong
(tīvrá) verily is this, and full of sap is this; and no one soever
overpowers in conflicts (āhavá) Indra, having now drunk of it.
Notes
The verse is RV. vi. 47. 1, without real variant; its applicability in
the funeral book is not apparent, and neither Kāuś. nor Vāit. uses it.
Part of our mss. (O.R.K.), with nearly all SPP’s, combine at the
beginning svādúṣ k-, which RV. also has; and SPP., with good reason,
adopts this in his text.
Griffith
Yes, this is good to taste and full of sweetness, verily it is strong and rich in flavour. No one may conquer Indra in the battle when he hath drunken of the draught we offer.
पदपाठः
स्वा॒दुः। किल॑। अ॒यम्। मधु॑ऽमान्। उ॒त। अ॒यम्। ती॒व्रः। किल॑। अ॒यम्। रस॑ऽवान्। उ॒त। अ॒यम्। उ॒तो इति॑। नु। अ॒स्य॒। प॒पि॒ऽवांस॑म्। इन्द्र॑म्। न। कः। च॒न। स॒ह॒ते॒। आ॒ऽह॒वेषु॑। १.४८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
शूरवीर के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह [सोमअर्थात् विद्यारस वा सोमलता आदि रस] (किल) निश्चय करके (स्वादुः) बड़ा स्वादु, (अयम्) यह (मधुमान्) विज्ञानयुक्त [वा मधुरगुणयुक्त], (उत) और (अयम्) यह (किल) निश्चय करके (तीव्रः) तेजस्वी, (उत) और (अयम्) यह (रसवान्) उत्तम रसवाला [बड़ा वीर्यवान्] है। (उतो) और भी (नु) अब (अस्य) इस [रस] के (पपिवांसम्) पीचुकनेवाले (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले शूर पुरुष] को (कः चन) कोई भी (आहवेषु) संग्रामों में (न) नहीं (सहते) हराता है ॥४८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य जितेन्द्रियब्रह्मचारी होकर विद्यारस को तथा परीक्षित महौषधियों के रस को चखकर तेजस्वी होतेहैं, वे ही युद्धो में शत्रुओं को हराते हैं ॥४८॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−६।४७।१ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४८−(स्वादुः) आस्वादनीयः (किल) निश्चयेन (अयम्) सोमः। विद्यारसः।सोमलतादिमहौषधिरसः (मधुमान्) मधुविद्योपेतः। मधुरगुणः (उत) अपि (अयम्) (तीव्रः)तेजस्वी (किल) (अयम्) (रसवान्) बहुवीर्यवान् (उत) (अयम्) (उतो) अपि च (नु)क्षिप्रम् (अस्य) रसस्य (पपिवांसम्) पीतवन्तम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तंशूरपुरुषम् (न) निषेधे (कश्चन) कोऽपि (सहते) पराभवति (आहवेषु) संग्रामेषु ॥
४९ परेयिवांसम्प्रवतो महीरिति
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प॑रेयि॒वांसं॑प्र॒वतो॑ म॒हीरिति॑ ब॒हुभ्यः॒ पन्था॑मनुपस्पशा॒नम्।
वै॑वस्व॒तं सं॒गम॑नं॒जना॑नां य॒मं राजा॑नं ह॒विषा॑ सपर्यत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प॑रेयि॒वांसं॑प्र॒वतो॑ म॒हीरिति॑ ब॒हुभ्यः॒ पन्था॑मनुपस्पशा॒नम्।
वै॑वस्व॒तं सं॒गम॑नं॒जना॑नां य॒मं राजा॑नं ह॒विषा॑ सपर्यत ॥
४९ परेयिवांसम्प्रवतो महीरिति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Him that went away to the advances called great, spying out the road
for many, Vivasvant’s son, gatherer of people, king Yama, honor
(sapary) ye with oblation.
Notes
The verse is RV. x. 14. 1, which, however, reads ánu for íti at end
of a, and duvasya for saparyata in d. A verse in MS. iv. 14.
16 has the RV. version throughout. TA. (in vi. 1. 1) gives at the end
the genuine variant duvasyata, but also in a and b the
incredible blunders pare yuvā́ṅsam and anapaspaśānám; ⌊so even the
Poona ed., p. 405⌋. With the first half-verse is to be compared our vi.
28. 3 a, b. The íti of our version, at end of a, seems a
worthless corruption (SPP. thinks it certainly “a mistake for áti”;
but that is not very plausible, though our I., doubtless by an
accidental slip, has áti, and P.M. have ata); the comm. reads anu,
with the other texts. ⌊With this vs. and the next, cf. 3. 13 below: the
second half of 3. 13 is identical with the second half of this vs.⌋ In
Kāúś. (81. 34), recital of the verse accompanies offerings to Yama at
the lighting of the funeral pile. Metrically, it is svarāj (12 + 11:
11 + 12 = 46) rather than bhurij. ⌊Caland, Todtengebräuche, p. 65,
observes that “Kāuś. 81. 34-36 [meaning 34-37] form one single whole.”
They indicate the eleven verses (translated by C, p. 64) that are to be
used to accompany the eleven oblations to Yama (yāmān homān), offered
in the pitṛmedha, after the lighting of the fire. The vss. are: xviii.
- 49, 50, for the first two oblations; xviii. 1. 58, 59, 60, 61 (the
last vs. of the hymn) and xviii. 2. 1, 2, 3, for the next seven; and
xviii. 3. 13 and 2. 49, for the last two: in all, eleven, ity ekādaśa.
Whereupon follow the oblations to Sarasvatī.—It should be noted that the
group 1. 58 to 2. 3 (Kāuś.: iti saṁhitāḥ sapta) disregards the
existing division of the book into anuvāka-hymns.⌋
Griffith
Honour the King with your oblations, Yama, Vivasvan’s son, who gathers men together. Even him who travelled o’er the mighty rivers, who searches out and shows the path to many.
पदपाठः
प॒रे॒यि॒ऽवांस॑म्। प्र॒ऽवतः॑। म॒हीः। इति॑। ब॒हुऽभ्यः॑। पन्था॑म्। अ॒नु॒ऽप॒स्प॒शा॒नम्। वै॒व॒स्व॒तम्। स॒म्ऽगम॑नम्। जना॑नाम्। य॒मम्। राजा॑नम्। ह॒विषा॑। स॒प॒र्य॒त॒। १.४९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भुरिक् त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा की शक्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवतः) उत्तमगतिवाली (महीः) बड़ी भूमियों को (परेयिवांसम्) पराक्रम से पहुँच चुके हुए, (इति) इसी से, (बहुभ्यः) बहुत से [लोकों और जीवों] के लिये (पन्थाम्) मार्ग (अनुपस्पशानम्) गाँठनेवाले (वैवस्वतम्) सूर्यलोकों में विदित, (जनानाम्)मनुष्यों के (संगमनम्) मेल करानेवाले (यमम्) यम [न्यायकारी परमात्मा] (राजानम्)राजा [शासक] को (हविषा) भक्ति के साथ (सपर्यत) तुम पूजो ॥४९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा सब लोकोंमें व्यापक और सूर्य आदि का आकर्षक और मनुष्य आदि का नियामक है, सब लोग उसकीउपासना से उन्नति करें ॥४९॥मन्त्र ४९, ५० कुछ भेद से ऋग्वेद में−१०।१४।१, २। औरऋग्वेदपाठ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत हैं॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४९−(परेयिवांसम्) उपयिवाननाश्वाननूचानश्च। पा० ३।२।१०९। परा+इण् गतौ-क्वस्वन्तोनिपातितः। परा पराक्रमेण गतवन्तम् (प्रवतः) अ० ३।१।४। उपसर्गाच्छन्दसिधात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति उपसर्गात् साधने धात्वर्थे वर्तमानात् स्वार्थेवतिः प्रत्ययः। प्रकृष्टगतीः (महीः) भूमिलोकान् (इति) अस्मात् कारणात् (बहुभ्यः)सर्वलोकेभ्यः प्राणिभ्यश्च (पन्थाम्) मार्गम् (अनुपस्पशानम्) स्पशबाधनग्रन्थनग्रहणसंश्लेषणेषु कानच्। अनु निरन्तरं ग्रन्थन् प्रबध्नन् (वैवस्वतम्) तत्र विदित इति च। पा० ५।१।४३। इत्यण्, बाहुलकात्। विवस्वत्सुसूर्यलोकेषु विदितम् (संगमनम्) संगमयितारम् (जनानाम्) (यमम्) न्यायकारिणंपरमात्मानम् (राजानम्) शासकम्) (हविषा) भक्तिदानेन (सपर्यत) पूजयत ॥
५० यमो नो
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य॒मो नो॑ गा॒तुंप्र॑थ॒मो वि॑वेद॒ नैषा गव्यू॑ति॒रप॑भर्त॒वा उ॑।
यत्रा॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒परे॑ता ए॒ना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
य॒मो नो॑ गा॒तुंप्र॑थ॒मो वि॑वेद॒ नैषा गव्यू॑ति॒रप॑भर्त॒वा उ॑।
यत्रा॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒परे॑ता ए॒ना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वाः ॥
५० यमो नो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Yama first found for us a track (gātú); that is not a pasture to
be borne away; where our former Fathers went forth, there (enā́) [go]
those born [of them], along their own roads.
Notes
The corresponding RV. verse (x. 14. 2) reads pareyús at end of c,
and MS. (in iv. 14. 16) agrees with it. The comm. has yena instead of
enā in d. The verse (with vs. 51?) is used by Kāuś. (81. 35) next
after the preceding one, in the same ceremony.
Griffith
Yama first found for us the road to travel: this pasture never can be taken from us. Men born on earth tread their own paths that lead them whither our ancient Fathers have departed.
पदपाठः
य॒मः। नः॒। गा॒तुम्। प्र॒थ॒मः। वि॒वे॒द॒। न। ए॒षा। गव्यू॑तिः। अप॑ऽभ॒र्त॒वै। ऊं॒ इति॑। यत्र॑। नः॒। पूर्वे॑। पि॒तरः॑। परा॑ऽइताः। ए॒ना। ज॒ज्ञा॒नाः। प॒थ्याः᳡। अनु॑। स्वाः। १.५०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भुरिक् त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा की शक्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (प्रथमः) सबसे पहिलेवर्तमान (यमः) यम [न्यायकारी परमात्मा] ने (नः) हमारे लिये (गातुम्) मार्ग (विवेद) जाना, (एषा) यह (गव्यूतिः) मार्ग (उ) कभी (अपभर्तवै) हटा धरने योग्य (न)नहीं है। (यत्र) जिस [मार्ग] में (नः) हमारे (पूर्वे) पहिले (पितरः) पितर [पालनकरनेवाले बड़े लोग] (परेताः) पराक्रम से चले हैं, (एना) उसी से (जज्ञानाः)उत्पन्न हुए [प्राणी] (स्वाः) अपनी-अपनी (पथ्याः अनु) सड़कों पर [चलें] ॥५०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने पहिले सेपहिले सबके लिये वेदमार्ग खोल दिया है, जिस प्रकार हमारे पूर्वजों ने उस मार्गपर चलकर यश पाया है, उसी वेदमार्ग पर चलकर सब मनुष्य उन्नति करें ॥५०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५०−(यमः)न्यायकारी परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (गातुम्) मार्गम् (प्रथमः) सर्वादिमः (विवेद) विद ज्ञाने-लिट्। ज्ञातवान् (न) निषेधे (एषा) पूर्वस्थापिता (गव्यूतिः)पद्धतिः (अपभर्तवै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। इति तवै। अपभर्त्तुंदूरीकर्तुम् (उ) निश्चयेन (यत्र) यस्मिन् मार्गे (नः) अस्माकम् (पूर्वे)पूर्वजाः (पितरः) पालका महापुरुषाः (परेताः) पराक्रमेण गताः (एना) अनेन (जज्ञानाः) जाताः प्राणिनः (पथ्याः) पथे राजमार्गाय हितान् महामार्गान् (अनु)प्रति (स्वाः) स्वीयाः ॥
५१ बर्हिषदः पितरऊत्यर्वागिमा
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बर्हि॑षदः पितरऊ॒त्य१॒॑र्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म्।
त आ ग॒ताव॑सा॒ शन्त॑मे॒नाधा॑ नः॒शं योर॑र॒पो द॑धात ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
बर्हि॑षदः पितरऊ॒त्य१॒॑र्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म्।
त आ ग॒ताव॑सा॒ शन्त॑मे॒नाधा॑ नः॒शं योर॑र॒पो द॑धात ॥
५१ बर्हिषदः पितरऊत्यर्वागिमा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Ye barhís-seated Fathers, hitherward with aid! these offerings
have we made for you; enjoy [them]! do ye come with most wealful aid;
then assign to us weal [and] profit, free from evil.
Notes
The corresponding RV. verse (x. 15. 4) has áthā at beginning of d.
VS. (xix. 55) agrees throughout with RV.; TS. (in ii. 6. 12²) spoils the
meter of d by changing nas to asmábhyam; MS. (in iv. 10. 6) has
at the end dadhātana; ⌊so has W’s Op.⌋. The comm. also reads atha.
The verse is used by Kāuś. (87. 27), along with 3. 44-46 and 4. 68, to
accompany the untying and strewing of the barhis in the
piṇḍapitṛyajña. In Vāit. 30. 14, it appears with 1. 44, 45 etc. (see
under 1. 44); and again (9. 8), in the cāturmāsya sacrifice,
accompanying (with 3. 44, 45 and 4. 71) a libation to Soma and the
Fathers.
Griffith
Fathers who sit on sacred grass, come, help us: these offsprings have we made for you; accept them. So come to us with most auspicious favour: bestow on us unfailing health and plenty.
पदपाठः
बर्हि॑ऽसदः। पि॒त॒रः॒। ऊ॒ती। अ॒र्वाक्। इ॒मा। वः॒। ह॒व्या। च॒कृ॒म॒। जु॒षध्व॑म्। ते। आ। ग॒त॒। अव॑सा। शम्ऽत॑मेन। अध॑। नः॒। शम्। योः। अ॒र॒प। द॒धा॒त॒। १.५१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- पितरगण
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (बर्हिषदः) हे उत्तमपद पर बैठने हारे (पितरः) पितरो [पालनेवाले वीरो] (ऊती) रक्षा के साथ (अर्वाक्)सामने [होकर] (इमा) इन (हव्या) ग्राह्य भोजन आदि को (जुषध्वम्) सेवन करो [जिनको] (वः) तुम्हारे लिये (चकृम) हम ने बनाया है। (ते) वे तुम (शन्तमेन) अत्यन्तसुखदायक (अवसा) रक्षा के साथ (आ गत) आओ, (अध) फिर (नः) हमारे लिये (शम्) सुख, (योः) अभय और (अरपः) निर्दोष आचरण (दधात) धारण करते रहो ॥५१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य वयोवृद्ध औरविद्यावृद्ध पितरों का भली-भाँति सत्कार करें और उनसे शारीरिक, आत्मिक औरसामाजिक उन्नति की शिक्षा पावें ॥५१॥मन्त्र ५१, ५२ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं१०।१५।४, ६ और यजुर्वेद में भी−१९।५५, ६२ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५१−(बर्हिषदः) उत्तमपदे सदनशीलाः (पितरः) हे पालकाः शूरवीराः (ऊती) ऊत्या। रक्षया (अर्वाक्) अभिमुखं भूत्वा (इमा)पुरोगतानि (वः) युष्मभ्यम् (हव्या) ग्राह्याणि भोजनादिवस्तूनि (चकृम) वयंसंस्कृतवन्तः (ते) तादृशा) यूयम् (आगत) आगच्छत (अवसा) रक्षणेन (शन्तमेन)अतिशयसुखदायकेन (अध) पुनः (नः) अस्मभ्यम् (शम् योः) शमनं च रोगाणां यावनं चभयानाम्-निरु० ४।२१। सुखं च अभयं च (अरपः) निर्दोषाचरणम् (दधात) धारयेत ॥
५२ आच्या जानुदक्षिणतो
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आच्या॒ जानु॑दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒दं नो॑ ह॒विर॒भि गृ॑णन्तु॒ विश्वे॑।
मा हिं॑सिष्ट पितरः॒केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ आगः॑ पुरु॒षता॒ करा॑म ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आच्या॒ जानु॑दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒दं नो॑ ह॒विर॒भि गृ॑णन्तु॒ विश्वे॑।
मा हिं॑सिष्ट पितरः॒केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ आगः॑ पुरु॒षता॒ करा॑म ॥
५२ आच्या जानुदक्षिणतो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Bending the knee, sitting down on the right, let all assent to
(abhi-gṛ) this libation of ours; injure us not, O Fathers, by reason
of any offense (ā́gas) which we may do to you through humanity.
Notes
That is, through human frailty. The corresponding RV. verse (x. 15. 6)
reads for b imáṁ yajñám abhí gṛṇīta víśve; and VS. (xix. 62)
agrees with RV.; the comm., too, so far as to have gṛṇīta. In Kāuś.
(83. 28), the verse accompanies the arranging of the bone relics of the
deceased at their place of burial (repeated, with two other verses, in
the piṇḍapitṛyajña, 87. 28). The Anukr. takes no notice of the
redundant syllable in b.
Griffith
Bowing their bended knees and seated southward let all accept this sacrifice with favour. Punish us not for any sin, O fathers which we through human frailty have committed.
पदपाठः
आ॒ऽअच्य॑। जानु॑। द॒क्षि॒ण॒तः। नि॒ऽसद्य॑। इ॒दम्। नः॒। ह॒विः। अ॒भि। गृ॒ण॒न्तु॒। विश्वे॑। मा। हिं॒सि॒ष्ट॒। पि॒त॒रः॒। केन॑। चि॒त्। नः॒। यत्। वः॒। आगः॑। पु॒रु॒षता॑। करा॑म। १.५२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- पितरगण
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पितरः) हे पितरो ! [रक्षक विद्वानो] (विश्वे) आप सब (जानु) घुटना (आच्य) टेक कर और (दक्षिणतः)दाहिनी ओर (निषद्य) बैठकर (नः) हमारे (इदम्) इस (हविः) ग्राह्य अन्न को (अभिगृणन्तु) बड़ाई योग्य करें। (वः) तुम्हारा (यत्) जो कुछ (आगः) अपराध (कराम) हमकरें, (केन चित्) उस किसी [अपराध] के कारण (नः) हमें (पुरुषता) अपने पुरुषपन से (मा हासिष्ट) मत दुःख दो ॥५२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अपने पितापितामह आदि पितरों को सत्कारपूर्वक बैठाकर भोजन आदि से सेवा किया करें और अपनीभूल-चूक के लिये क्षमा माँगते रहें ॥५२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५२−(आच्य) अधो निपात्य (जानु)जानुप्रदेशम् (दक्षिणतः) अवामपार्श्वतः (निषद्य) उपविश्य (इदम्) (नः) अस्माकम् (हविः) ग्राह्यभोजनम् (अभि गृणन्तु) स्तुत्यं कुर्वन्तु। सुखेन स्वीकुर्वन्तु (विश्वे) सर्वे भवन्तः (मा हिंसिष्ट) दुःखिनो मा कुरुत (पितरः) हे रक्षकाविद्वांसः (केन चित्) केनापि दोषेण (नः) अस्मान् (यत्) (वः) युष्माकम् (आगः)दोषम् (पुरुषता) स्वपुरुषतया। मनुष्यत्वेन (कराम) लेटि रूपम्। कुर्याम ॥
५३ त्वष्टादुहित्रे वहतुम्
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त्वष्टा॑दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं कृ॑णोति॒ तेने॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे॑ति।
य॒मस्य॑ मा॒ताप॑र्यु॒ह्यमा॑ना म॒हो जा॒या विव॑स्वतो ननाश ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वष्टा॑दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं कृ॑णोति॒ तेने॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे॑ति।
य॒मस्य॑ मा॒ताप॑र्यु॒ह्यमा॑ना म॒हो जा॒या विव॑स्वतो ननाश ॥
५३ त्वष्टादुहित्रे वहतुम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Tvashṭar makes a wedding-car for his daughter; by reason of this,
all this creation comes together; the mother of Yama, wife of great
Vivasvant, being drawn about, disappeared.
Notes
The corresponding RV. verse (x. 17. 1) has íti for téna at beginning
of b; and the comm. also reads iti. With the first half-verse
compare iii. 31. 5 a, b, which is a sort of travesty of it. The
second verse of the curious and obscure and much discussed (see
Bloomfield in JAOS. xv. 172 ff.) bit of legend is found below, as 2. 33,
as much out of all connection with its surroundings as this one here.
Neither of the two is used by Kāuś. or Vāit. The comm. quotes a passage
of eight verses from the Bṛhaddevatā in explanation of the legend.
Griffith
Tvashtar prepares the bridal for his daughter: therefore the whole of this our world assembles. But Yama’s mother, spouse of great Vivasvan, vanished as she was carried to her dwelling.
पदपाठः
त्वष्टा॑। दु॒हि॒त्रे। व॒ह॒तुम्। कृ॒णो॒ति॒। तेन॑। इ॒दम्। विश्व॑म्। भुव॑नम्। सम्। ए॒ति॒। य॒मस्य॑। मा॒ता। प॒रि॒ऽउ॒ह्यमा॑ना। म॒हः। जा॒या। विव॑स्वतः। न॒ना॒श॒। १.५३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अज्ञान के नाश का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (त्वष्टा) त्वष्टा [प्रकाशमान सूर्य] (दुहित्रे) दुहिता [पूर्ति करनेवाली उषा] का (वहतुम्) चलाना (कृणोति) करता है, (तेन) उस [चलने] के साथ (इदम्) यह (विश्वम्) सब (भुवनम्) जगत् (सम्) ठीक-ठीक (एति) चलता है। (यमस्य) यम [दिन] की (माता) माता [बनानेवाली], (महः) बड़े (विवस्वतः) प्रकाशमान सूर्य की (जाया) पत्नी रूप [रात्रि] (पर्युह्यमाना) सब ओर हटायी गयी (ननाश) छिप जाती है ॥५३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य उषाअर्थात् प्रभातकिरणों को फैलाता जाता है, सब जगत् अपने-अपने कामों में चेष्टाकरता है, और जैसे-जैसे दिन चढ़ता जाता है, रात्रि का अन्धकार हटता जाता है, इसीप्रकार ज्ञानी पितर लोग अज्ञान हटाकर ज्ञान के प्रकाश से संसार को सुख पहुँचावें॥५३॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१७।१ ॥भगवान् यास्क मुनि ने निरुक्त१२।११ में व्याख्या की है−“त्वष्टा दुहिता का वहन [चलाना] करता है, यह सब भुवनठीक-ठीक चलता है और यह सब प्राणी सब ओर से आकर मिलते हैं, यम की माता सब ओर कोले जायी गयी छिप गयी। रात्रि सूर्य की [पत्नी] सूर्य के उदय होने पर छिप जातीहै ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५३−(त्वष्टा) प्रकाशमानः सूर्यः (दुहित्रे) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। दुहितुः।प्रपूरयित्र्या उषसः (वहतुम्) वहनम्। चालनम्। (कृणोति) करोति (तेन) पूर्वोक्तेनकर्मणा गमनेन (इदम्) विश्वम् सर्वम् (भुवनम्) जगत् (सम्) सम्यक् (एति) गच्छति।चेष्टते (यमस्य) दिनस्य (माता) निर्मात्री। रात्रिः (पर्युह्यमाना) प्रकाशेनपर्य्युत्सार्यमाणा (महः) महतः (जाया) पत्नीरूपा रात्रिः (विवस्वतः)प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (ननाश) लडर्थे-लिट्। नश्यति। अदृष्टा भवति ॥
५४ प्रेहि प्रेहिपथिभिः
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प्रेहि॒ प्रेहि॑प॒थिभिः॑ पू॒र्याणै॒र्येना॑ ते॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒ परे॑ताः।
उ॒भा राजा॑नौस्व॒धया॒ मद॑न्तौ य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्रेहि॒ प्रेहि॑प॒थिभिः॑ पू॒र्याणै॒र्येना॑ ते॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒ परे॑ताः।
उ॒भा राजा॑नौस्व॒धया॒ मद॑न्तौ य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वम् ॥
५४ प्रेहि प्रेहिपथिभिः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Go thou forth, go forth by roads that go to the stronghold
(pūryā́ṇa), as (yénā) thy Fathers of old went forth; both kings,
reveling with svadhā́, shalt thou see, Yama and god Varuṇa.
Notes
Or svadháyā may be ‘at their pleasure’ or ‘according to their wont.’
The corresponding RV. verse (x. 14. 7) has in a-b pathíbhiḥ
pūrvyébhir yátrā naḥ pū́rve pitáraḥ pareyúḥ, and, in c, rā́jānā and
mádantā; and MS. (in iv. 14. 16) agrees with it except in reading,
with our text, páretās ⌊in b, and in having pūrvébhis in a⌋.
Our comm. reads rājānā in c. Prāt. iii. 83 prescribes the ṇ in
pūryā́ṇāis (p. pūḥ॰yā́nāiḥ); the comm. absurdly explains the word as =
pumāṅso yena…yanti! for the pūr, compare x. 2. 28 ff.; xix. 17 and
19. The Anukr. takes no notice of the metrical irregularity in the
verse. ⌊It is due to the displacement of pūrviébhis by pūryā́ṇāis:
the secondary character of the latter (occurring elsewhere only at 4. 63
below) is palpable in more ways than one.⌋ Kāuś. does not quote the
verse; but our comm. declares it to accompany the laying of the dead
body on the cart (for transportation to the funeral pile).
Griffith
Go forth, go forth upon the homeward pathways whither our sires of old have gone before us. Then shalt thou look on both the Kings enjoying their sacred food, God Varuna and Yama.
पदपाठः
प्र। इ॒हि॒। प्र। इ॒हि॒। प॒थिऽभिः॑। पूः॒ऽयानैः॑। येन॑। ते॒। पूर्वे॑। पि॒तरः॑। परा॑ऽइताः। उ॒भा। राजा॑नौ। स्व॒धया॑। मद॑न्तौ। य॒मम्। प॒श्या॒सि॒। वरु॑णम्। च॒। दे॒वम्। १.५४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य की उन्नति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] तू (प्रइहि) आगे बढ़, (पूर्याणैः) नगरों को जानेवाले (पथिभिः) मार्गों से (प्र इहि) आगेबढ़, (येन) जिस [कर्म] से (ते) तेरे (पूर्वे) पहिले (पितरः) पितर [रक्षक पिताआदि महापुरुष] (परेताः) पराक्रम से गये हैं। और (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (मन्दन्तौ) तृप्त होते हुए (उभा) दोनों (राजानौ) शोभायमान, [अर्थात्] (देवम्)प्रकाशमान (यमम्) यम [न्यायकारी परमात्मा] को (च) और (वरुणम्) वरुण [श्रेष्ठजीवात्मा] को (पश्यासि) तू देखता रह ॥५४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य को योग्य है किपूर्व महात्माओं के वेदोक्त मार्ग पर चल कर देश-देशान्तरों में जाकर उन्नति करेऔर सदा परमात्मा की उपासना से जीवात्मा की दशा का चिन्तन करता रहे ॥५४॥मन्त्र५४, ५५ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१४।७, ९ और दोनों का ऋग्वेदपाठ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५४−(प्रोह)प्रकर्षेण गच्छ (प्रेहि) (पथिभिः) मार्गैः (पूर्याणैः) पुरो नगरान् (येन) कर्मणा (ते) तव (पूर्वे) पूर्वजा (पितरः) पालका महापुरुषाः (परेताः) पराक्रमेण गताः (उभा) उभौ (राजानौ) शोभायमानौ (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (मदन्तौ) तृप्यन्तौ (यमम्) न्यायकारिणं परमात्मानम् (पश्यासि) पश्येः (वरुणम्) श्रेष्ठं जीवात्मानम् (च) (देवम्) प्रकाशमानम् ॥
५५ अपेत वीत
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अपे॑त॒ वी᳡त॒ विच॑ सर्प॒तातो॒ऽस्मा ए॒तं पि॒तरो॑ लो॒कम॑क्रन्।
अहो॑भिर॒द्भिर॒क्तुभि॒र्व्य᳡क्तं य॒मो द॑दात्यव॒सान॑मस्मै ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अपे॑त॒ वी᳡त॒ विच॑ सर्प॒तातो॒ऽस्मा ए॒तं पि॒तरो॑ लो॒कम॑क्रन्।
अहो॑भिर॒द्भिर॒क्तुभि॒र्व्य᳡क्तं य॒मो द॑दात्यव॒सान॑मस्मै ॥
५५ अपेत वीत ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Go ye away, go asunder, and creep apart from here; for this man the
Fathers have made this world; adorned with days, with waters, with rays
(aktú), a rest (avasā́na) Yama gives to him.
Notes
The verse is RV. x. 14. 9, without variant; and TA. (in i. 27. 5; vi. 6.
- has the first, third, and fourth pādas; while VS. (xii. 45) and TS.
(in iv. 2. 4¹), TB. (i. 2. 1¹⁶), and MS. (ii. 7. 11), have only the
first (agreeing with TA. in the second). TA., however, reads dadātv
av- in d, and that is found also in our P.M.I. The comm. has for
b the pāda of the other texts: ye ‘tra stha purāṇā ye ca nūtanāḥ.
⌊My discussion of the verse in Skt. Reader, p. 378, may be consulted.⌋
The verse, with 2. 37, accompanies in Kāuś. (So. 42) the sprinkling of
the place of cremation with holy water; in V^ait. (28. 24), the sweeping
of the site for the householder’s fire, in the agnicayana ceremony.
⌊Weber, Sb. 1895, p. 839, takes the verse as a call, addressed to all
creatures (whether animals or demons) that may infest the resting-place
of the dead man, to quit the same (averruncatio).⌋
⌊Böhtlingk, in his paper Ueber esha lokaḥ, discusses this verse at
Ber. der sächsischen Gesell. for 1893, xlv. 131.—He would read vī́ta,
not vī̀ta, referring to Whitney’s Grammar² § 128, and suggesting that
divī̀va is perhaps the only example for the circumflex; but I have
noted vī̀ndra, RV. x. 32. 2, vī̀va, vii. 55. 2, nī̀ta, AV. iii. 11.
2, and bhindhī̀dám, vii. 18. 1, and suspect that Whitney has collected
all the prāśliṣṭa svaritas from AV. (nearly a score) in his note to
the Prāt. iii. 56.⌋
Griffith
Go hence, depart ye, fly in all directions. This world for him the Fathers have provided. Yama bestow upon this man a dwelling adorned with days and beams of light and waters.
पदपाठः
अप॑। इ॒त॒। वि। इ॒त॒। तवि। च॒। स॒र्प॒त॒। अतः॑। अ॒स्मै। ए॒तम्। पि॒तरः॑। लो॒कम्। अ॒क्र॒न्। अहः॑ऽभिः। अ॒त्ऽभिः। अ॒क्तुऽभिः॑। विऽअ॑क्तम्। य॒मः। द॒दा॒ति॒। अ॒व॒ऽसान॑म्। अ॒स्मै॒। १.५५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य की उन्नति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (अतः)यहाँ से [इस घर वा विद्यालय आदि से] (अप इत) बाहिर चलो, (वि इत) विविध प्रकारचलो, (च) और (वि सर्पत) फैल जाओ, (अस्मै) इस [जीव के हित] के लिये (एतम्) यह (लोकम्) लोक [समाज] (पितरः) पितरों [रक्षक महात्माओं] ने (अकरन्) बनाया है। (यमः) यम [न्यायकारी परमात्मा] (अस्मै) इस [समाज] को (अहोभिः) दिनों से, (अक्तुभिः) रातों से और (अद्भिः) जल [अन्न जल आदि] से (व्यक्तम्) स्पष्ट (अवसानम्) विराम [स्थिर पद] (ददाति) देता है ॥५५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी लोगमहापुरुषों के बनाये विद्यालय आदि से विद्या समाप्त करके विविध उद्योग करें औरपरमात्मा के उपकारों को विचारते हुए अपने समय और आहार-विहार आदि का सुप्रयोगकरके समाज को स्थिर सुख पहुँचावें ॥५५॥यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में भी है−१२।४५ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५५−(अप इत) दूरे गच्छत (वि इत) विविधं गच्छत (च) (वि सर्पत) विस्तृता भवत (अतः) अस्मात् स्थानात् (अस्मै) जीवाय (एतम्) (पितरः) पालकाः पुरुषाः (लोकम्)दर्शनीयं समाजम् (अकरन्) कृतवन्तः (अहोभिः) दिवसैः (अद्भिः) जलेन। अन्नजलादिना (अक्तुभिः) रात्रिभिः (व्यक्तम्) विशदम् (यमः) न्यायकारी परमात्मा (ददाति) (अवसानम्) विरामम्। स्थिरपदम् (अस्मै) समाजाय ॥
५६ उशन्तस्त्वेधीमह्युशन्तः समिधीमहि
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उ॒शन्त॑स्त्वेधीमह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि।
उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒अत्त॑वे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उ॒शन्त॑स्त्वेधीमह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि।
उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒अत्त॑वे ॥
५६ उशन्तस्त्वेधीमह्युशन्तः समिधीमहि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Eager (uśánt) would we light thee, eager would we kindle; do thou,
eager, bring the eager Fathers to eat the oblation.
Notes
The corresponding verse in RV. (x. 16. 12; also VS. xix. 70) has ní
dhīmahi for idh- in a; TS. (in ii. 6. 12¹) and MS. (in i. 10. 18)
read instead havāmahe, and with these our comm. agrees. Used in Kāuś.
(87. 19: the comm. says, with vs. 57 also) to accompany, in the
piṇḍapitṛyajña, the lighting of two pieces of wood. ⌊The next vs. is a
variation of this.⌋
Griffith
We set thee down with yearning, and with yearning we enkindle thee, Yearning, bring yearning Fathers nigh to eat the food of sacrifice.
पदपाठः
उ॒शन्तः॑। त्वा॒। इ॒धी॒म॒हि॒। उ॒शन्तः॑। सम्। इ॒धी॒म॒हि॒। उ॒शन्। उ॒श॒तः। आ। व॒ह॒। पि॒तॄन्। ह॒विषे॑। अत्त॑वे। १.५६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे ब्रह्मचारी !] (उशन्तः) कामना करते हुए हम (त्वा) तुझे (इधीमहि) प्रकाशित करें, (उशन्तः)अभिलाषा करते हुए हम (सम्) मिलकर (इधीमहि) तेजस्वी करें। (उशन्) कामना करता हुआतू (उशतः) कामना करते हुए (पितॄन्) पितरों [रक्षक जनों] को (हविषे) ग्रहण करनेयोग्य भोजन (अत्तवे) खाने के लिये (आ वह) ले आ ॥५६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् माता-पिता आदि बड़े लोग जितेन्द्रिय विद्वान् सभ्य सन्तान की कामना करें, वैसे हीसन्तान भी उन पितृजनों की सेवा करके गुण प्राप्त करें ॥५६॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−१०।१६।१२ और यजुर्वेद में ९।७०। और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पितृयज्ञविषय में भी व्याख्यात हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५६−(उशन्तः) कामयमानाः (त्वा)त्वां ब्रह्मचारिणम् (इधीमहि) पियेम। तेजस्विनं कुर्याम (उशन्तः) (सम्) एकीभावे (इधीमहि)(उशन्) कामयमानः (उशतः) कामयमानान् (आ वह) आनय (पितॄन्) पालकान्।जनकादीन् (हविषे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। हविः। ग्राह्यं भोजनम् (अत्तवे) अत्तुंभोक्तम् ॥
५७ द्युमन्तस्त्वेधीमहि द्युमन्तः
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द्यु॒मन्त॑स्त्वेधीमहि द्यु॒मन्तः॒ समि॑धीमहि।
द्यु॒मान्द्यु॑म॒त आ व॑हपि॒तॄन्ह॒विषे॒ अत्त॑वे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
द्यु॒मन्त॑स्त्वेधीमहि द्यु॒मन्तः॒ समि॑धीमहि।
द्यु॒मान्द्यु॑म॒त आ व॑हपि॒तॄन्ह॒विषे॒ अत्त॑वे ॥
५७ द्युमन्तस्त्वेधीमहि द्युमन्तः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Lightful (dyumánt) would we light thee, lightful would we kindle;
do thou, lightful, bring the lightful Fathers to eat the oblation.
Notes
More than half the mss. (including all ours except O.Op.T.K. ⌊which have
dyumatá, p. dyu॰matáḥ⌋) read dyumantás in c, which we
accordingly adopted in our text, though the form is of course
ungrammatical; SPP. reads correctly dyumatás. ⌊Cf. my
Noun-Inflection, p. 521.⌋ ⌊This vs. is a mere variation of the
preceding, with dyumánt-forms in place of uśánt-forms. Perhaps in
this connection the fact is noteworthy that W’s codex I. does not accent
the vs. Here again the comm. reads havāmahe for idhimahi.⌋
Griffith
We, splendid men, deposit thee, we, splendid men, enkindle thee. Splendid, bring splendid Fathers nigh to eat the sacrificial food.
पदपाठः
द्यु॒ऽमन्तः॑। त्वा॒। इ॒धी॒म॒हि॒। द्यु॒ऽमन्तः॑। सम्। इ॒धी॒म॒हि॒। द्यु॒ऽमान्। द्यु॒ऽम॒त्। आ। व॒ह॒। पि॒तॄन्। ह॒विषे॑। अत्त॑वे। १.५७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे पुत्र !] (द्युमन्तः) बड़े गतिवाले हम (त्वा) तुझे (इधीमहि) प्रकाशित करें, (द्युमन्तः)व्यवहारकुशल हम (सम्) एक होकर (इधीमहि) तेजस्वी करें। (द्युमान्) व्यवहारकुशलतू (द्युमतः) व्यवहारकुशल (पितॄन्) पितरों [रक्षक विद्वानों] को (हविषे) ग्रहणकरने योग्य भोजन (अत्तवे) खाने के लिये (आ वह) ले आ ॥५७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र ५६ के समान है॥५७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५७−(द्युमन्तः) दिवु द्युतिगतिव्यवहारेषु-विच्। ततो मतुप्। दिव उत्। पा०६।१।१३१। इत्युत्त्वम्। दीप्तिमन्तः। गतिमन्तः (द्युमन्तः) व्यवहारकुशलाः (द्युमान्) व्यवहारकुशलः (द्युमतः) व्यवहारकुशलान्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५६ ॥
५८ अङ्गिरसो नःपितरो
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अङ्गि॑रसो नःपि॒तरो॒ नव॑ग्वा॒ अथ॑र्वाणो॒ भृग॑वः सो॒म्यासः॑।
तेषां॑ व॒यं सु॑म॒तौय॒ज्ञिया॑ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अङ्गि॑रसो नःपि॒तरो॒ नव॑ग्वा॒ अथ॑र्वाणो॒ भृग॑वः सो॒म्यासः॑।
तेषां॑ व॒यं सु॑म॒तौय॒ज्ञिया॑ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म ॥
५८ अङ्गिरसो नःपितरो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The An̄girases, our návagva Fathers, the Atharvans, the Bhṛigus,
soma-drinkers (somyá)—may we be in the favor of those worshipful ones,
likewise in their excellent well-willing.
Notes
The verse is RV. x. 14. 6, also VS. xix. 50, and in TS. ii. 6. 12⁶ all
without variant; the second half is met with further at AV. vi. 55. 3
⌊reading as here⌋; and in other verses of RV. and AV.: ⌊namely, RV. iii.
- 21; vi. 47. 13; x. 131. 7; AV. vii. 92. 1: but with tásya
yajñíyasya instead of our plural⌋. It is used by Kāuś. (81. 36) in the
cremation service ⌊with vss. 59-61 and 2. 1-3: see note to vs. 49⌋.
Griffith
Our Fathers are Angirases, Navagvas, Atharvans, Bhrigus, who deserve the Soma. May these, the holy, look on us with favour; may we enjoy their gracious loving-kindness.
पदपाठः
अङ्गि॑रसः। नः॒। पि॒तरः॑। नव॑ऽग्वाः। अथ॑र्वाणः। भृग॑वः। सो॒म्यासः॑। तेषा॑म्। व॒यम्। सु॒ऽम॒तौ। य॒ज्ञिया॑नाम्। अपि॑। भ॒द्रे। सौ॒म॒न॒से। स्या॒म॒। १.५८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नः) हमारे (अङ्गिरसः)महाविज्ञानी (पितरः) पितर [रक्षक पिता आदि बुद्धिमान् लोग] (नवग्वाः) स्तुतियोग्य चरित्रवाले [वा नवीन-नवीन विद्याएँ प्राप्त करने और कराने हारे], (अथर्वाणः) निश्चय स्वभाववाले, (भृगवः) परिपक्व ज्ञानयुक्त और (सोम्यासः)ऐश्वर्य पाने योग्य [होवें]। (तेषाम्) उन (यज्ञियानाम्) पूजनीय महापुरुषों की (अपि) ही (सुमतौ) सुमति में और (भद्रे) कल्याण करने हारी (सौमनसे) मन कीप्रसन्नता में (वयम्) हम (स्याम) होवें ॥५८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सन्तानों को योग्य हैकि बड़े-बड़े विज्ञानी माता-पिता आदि पूजनीय महात्माओं की उत्तम शिक्षा को सदाग्रहण करें ॥५८॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।१४।६ और यजुर्वेद में १९।५० ॥इसमन्त्र के उत्तरार्द्ध का मिलान करो-अथर्व० ६।५५।३ तथा ७।९५।१ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५८−(अङ्गिरसः)महाविज्ञानिनो महर्षयः (नः) अस्माकम् (पितरः) पालका ज्ञानिनः पुरुषाः (नवग्वाः)अ० १४।१।५६। णु स्तुतौ-अप्+गम्लृ गतौ−ड्व प्रत्ययः। नवगतयः। स्तोतव्यचरित्राः।नवीनविद्याः प्राप्ताः प्रापयितारश्च (अथर्वाणः) अ० ४।१।७।थर्वतिश्चरतिकर्मा-निरु० ११।२८। स्नामदिपद्यर्त्ति०। उ० ४।११३। अ+थर्व चरणे गतौ=वनिप्, वकारलोपो वा। निश्चलस्वभावाः (भृगवः) परिपक्वज्ञानयुक्ताः (सोम्यासः)सोममैश्वर्यमर्हन्ति ये (तेषाम्) (वयम्) (सुमतौ) कल्याणबुद्धौ (यज्ञियानाम्)पूजार्हाणाम् (अपि) (भद्रे) मङ्गलप्रदे (सौमनसे) सुमनसो भावे। प्रसादे (स्याम)भवेम ॥
५९ अङ्गिरोभिर्यज्ञियैरा गहीह
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अङ्गि॑रोभिर्य॒ज्ञियै॒रा ग॑ही॒ह यम॑ वैरू॒पैरि॒ह मा॑दयस्व।
विव॑स्वन्तं हुवे॒ यःपि॒ता ते॒ऽस्मिन्ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अङ्गि॑रोभिर्य॒ज्ञियै॒रा ग॑ही॒ह यम॑ वैरू॒पैरि॒ह मा॑दयस्व।
विव॑स्वन्तं हुवे॒ यःपि॒ता ते॒ऽस्मिन्ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॑ ॥
५९ अङ्गिरोभिर्यज्ञियैरा गहीह ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Come thou hither with the worshipful An̄girases; revel here, O Yama,
with the Vāirūpas—I call Vivasvant, who is thy father—sitting down upon
this barhís.
Notes
The verse is found as RV. x. 14. 5, and in TS. ii. 6. 12⁶ and MS. iv.
14. 16. All these rectify the meter by inserting ⌊or rather (cf. vs.
42), by not omitting⌋ yajñé after asmín in d, and they have in a
the equivalent reading an̄girobhir ā́ gahi yajñíyebhiḥ. The AV. version
is bṛhatī ⌊possibly because one can count its d as 9 syllables:
purābṛhatī does not seem to occur elsewhere and perhaps it is wrong⌋.
Griffith
Come, Yama, with Angirases, the holy; rejoice thee here with children of Virupa. Seated on sacred grass at this oblation: I call Vivasvan too, thy father, hither.
पदपाठः
अङ्गि॑रःऽभिः। य॒ज्ञियैः॑। आ। ग॒हि॒। इ॒ह। यम॑। वै॒रू॒पैः। इ॒ह। मा॒द॒य॒स्व॒। विव॑स्वन्तम्। हु॒वे॒। यः। पि॒ता। ते॒। अ॒स्मिन्। ब॒र्हिषि॑। आ। नि॒ऽसद्य॑। १.५९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पुरोबृहती
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यम) हे संयमी जन ! (अङ्गिरोभिः) महाविज्ञानी, (यज्ञियैः) पूजायोग्य पुरुषों के साथ (इह) यहाँ [समाज में] (आ गहि) तू आ, और (वैरूपैः) विविध पदार्थों के निरूपण करनेवाले वेदज्ञानों से (इह) यहाँ (मादयस्व) [हमें] तृप्त कर। (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) उत्तमपद पर (आ) भले प्रकार (निषद्य) बैठकर (विवस्वन्तम्) प्रकाशमय परमात्मा को (हुवे)मैं बुलाता हूँ, (यः) जो (ते) तेरा (पिता) पालक है ॥५९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जितेन्द्रिय विद्वान्पुरुष विविध विद्वानों के सत्सङ्ग से अनेक विद्याएँ प्राप्त करके वेदाभ्यासद्वारा परमात्मा का विचार करें ॥५९॥मन्त्र ५९, ६० कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१४।५, ४ और दोनों मन्त्र महर्षिदयानन्दकृतसंस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरणमें उद्धृत हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५९−(अङ्गिरोभिः) महाविज्ञानिभिः (यज्ञियैः) पूजार्हैः (आ गहि)आगच्छ (इह) अस्मिन् समाजे (यम) हे संयमिन् पुरुष (वैरूपैः) अ० १५।२।१६।विरूप-अण्। विविधपदार्थानां रूपं निरूपणं येभ्यः सकाशात् तैर्वेदज्ञानैः (इह) (मादयस्व) अस्मान् तर्पयस्व (विवस्वन्तम्) प्रकाशमयं परमात्मानम् (हुवे)आह्वयामि (यः) (पिता) पालकः (ते) तव (अस्मिन्) (बर्हिषि) उत्तमे पदे (आ)समन्तात् (निषद्य) उपविश्य ॥
६० इमं यमप्रस्तरमा
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इ॒मं य॑मप्रस्त॒रमा हि रोहाङ्गि॑रोभिः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः।
आ त्वा॒ मन्त्राः॑कविश॒स्ता व॑हन्त्वे॒ना रा॑जन्ह॒विषो॑ मादयस्व ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒मं य॑मप्रस्त॒रमा हि रोहाङ्गि॑रोभिः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः।
आ त्वा॒ मन्त्राः॑कविश॒स्ता व॑हन्त्वे॒ना रा॑जन्ह॒विषो॑ मादयस्व ॥
६० इमं यमप्रस्तरमा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Ascend thou, O Yama, this cushion (prastará), in concord with the
An̄giras Fathers; let the sacred utterances (mántra) made in praise by
the poets bring thee; then (enā́), O king, revel thou in the oblation.
Notes
This verse also is found as RV. x. 14. 4, and in TS. ii. 6. 12⁶ and MS.
iv. 14. 16, all of which have sī́da for róha in a, and havíṣā
for -ṣas in d. The comm., too, reads sīda. The only one of our
mss. that accents róha is Op., and our reading the word with an accent
was an emendation; SPP. gives the same, on the authority of most of his
mss. ⌊The comm. calls hí an expletive.⌋ Kāuś. 84. 2 uses the verse
with an offering to Yama in the ceremony of interment of the bones; and
the comment appears to quote the same rule under 45. 14, in the
vaśāśamana rite.
Griffith
Come, seat thee on this bed of grass. O Yama, accordant with Angirases and Fathers. Let texts recited by the sages bring thee. O. King, let this oblation make thee joyful.
पदपाठः
इ॒मम्। य॒म॒। प्र॒ऽस्त॒रम्। आ। हि। रोह॑। अङ्गि॑रःऽभिः। पि॒तृऽभिः॑। स॒म्ऽवि॒दा॒नः। आ। त्वा॒। मन्त्राः॑। क॒वि॒ऽश॒स्ताः। व॒ह॒न्तु॒। ए॒ना। रा॒ज॒न्। ह॒विषः॑। मा॒द॒य॒स्व॒। १.६०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यम) हे संयमी पुरुष ! (अङ्गिरोभिः) महाविज्ञानी (पितृभिः) पितरों [रक्षक लोगों] से (हि) ही (संविदानः) मिला हुआ तू (इमम्) इस (प्रस्तरम्) विस्तीर्ण आसन पर (आ रोह) ऊँचाहो। (त्वा) तुझे (मन्त्राः) मन्त्रकुशल [बड़े विचारशील] (कविशस्ताः) विद्वानामें श्रेष्ठ पुरुष (आ वहन्तु) बुलावें (राजन्) हे ऐश्वर्यवान् पुरुष ! (एना) इस (हविषः=हविषा) भक्तिदान से (मादयस्व) [हमें] प्रसन्न कर ॥६०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जितेन्द्रियब्रह्मचारी पुरुष विद्वानों के मेल से उच्च पद प्राप्त करें और अपने शुभ गुण औरपराक्रम से सब प्रजा को सदा प्रसन्न रक्खें ॥६०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६०−(इमम्) (यम) हे संयमिन् पुरुष (प्रस्तरम्) विस्तीर्णमासनम् (हि) निश्चयेन (आ रोह) आरूढो भव (अङ्गिरोभिः)महाविज्ञानिभिः (पितृभिः) पालकैः (संविदानः) संगच्छमानः (त्वा) शूरम् (मन्त्राः)मन्त्र-अर्शआद्यच्। मन्त्रकुशलाः। महाविचारशीलाः (कविशस्ताः) मेधाविनः प्रशस्ताः (आ वहन्तु) आनयन्तु (एना) एनेन। अनेन (राजन्) ऐश्वर्यवन् (हविषः) तृतीयार्थेषष्ठी। हविषा। भक्तिदानेन (मादयस्व) अस्मान् प्रसादय ॥
६१ इत एतउदारुहन्दिवस्पृष्ठान्यारुहन्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒त ए॒तउ॒दारु॑हन्दि॒वस्पृ॒ष्ठान्यारु॑हन्।
प्र भू॒र्जयो॒ यथा॑ प॒था द्यामङ्गि॑रसोय॒युः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒त ए॒तउ॒दारु॑हन्दि॒वस्पृ॒ष्ठान्यारु॑हन्।
प्र भू॒र्जयो॒ यथा॑ प॒था द्यामङ्गि॑रसोय॒युः ॥
६१ इत एतउदारुहन्दिवस्पृष्ठान्यारुहन् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- These ascended up from here; they ascended the backs of the sky
(dív); the An̄girases have gone forth to heaven (dív), like
bhūrjís, by the road.
Notes
The verse is found in SV. (i. 92), which combines in b diváḥ pṛ-,
accents bhūrjáyas in c and inserts úd before dyā́m and leaves
yayus unaccented in d. It also accents udā́ruhan in a, as
does our edition; but the mss. decidedly favor úd ā́ ’ruhan (p. út: ā́:
aruhan), and SPP. rightly adopts this reading. The comm. reads etad
instead of ete in a; it makes bhūrjáyas (p. bhūḥ॰jáyaḥ; SV. p.
bhūḥ: jáyah, this pada-text dividing compound words without any
hyphen or its equivalent between the parts) an epithet of the An̄girases,
rendering it by bharaṇavanto bhuvaṁ jitavanto vā, and justifies the
accent of yayús by treating yáthā as = yādṛśena “by what road the
bhūrjis went” etc. SPP. accents bhūrjáyas on the authority of a
single one of his mss.; all ours leave it without accent (in our text
the accent-mark under its final syllable has become lost in printing);
both Pet. Lexx. ignore the word entirely; its real meaning is wholly
obscure, as it seems to have been to the makers of the pada-text; for
their suggested etymology is plainly valueless. The verse is used by
Kāuś. (80. 35), with 2. 48, 53; 3. 8, 9; 4. 44, in preparing for taking
the body of the deceased person to the funeral pile; the six verses are
called hariṇīs, and are repeatedly employed in other parts of the
funeral and ancestral rites (82. 31; 83. 20, 23; 84. 13); also by Vāit.
(37. 24), in a like connection. ⌊Here ends the first anuvāka, with 1
hymn and 61 verses. The quoted Anukr. says ekaṣaṣṭiś ca.⌋
Griffith
He hath gone hence and risen on high mounting heaven’s ridges by that path Whereon the sons of Angiras, the conquerors of earth, went up.
पदपाठः
इ॒तः। ए॒ते। उत्। आ। अ॒रु॒ह॒न्। दि॒वः। पृ॒ष्ठानि॑। आ। अ॒रु॒ह॒न्। प्र। भूः॒ऽजयः॑। यथा॑। पथा॑। द्याम्। अङ्गि॑रसः। य॒युः। १.६१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- यम, मन्त्रोक्त
- अथर्वा
- पितृमेध सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (एते) यह [पितर लोग] (इतः) इस [सामान्य दशा] से (उत्) उत्तमता के साथ (आ अरुहन्) ऊँचे चढ़े हैं, और (दिवः) व्यवहार के (पृष्ठानि) पूछने योग्य स्थानों पर (आ अरुहन्) ऊँचे चढ़े हैं। (भूर्जयः यथा) भूमि जीतनेवालों के समान (पथा) सन्मार्ग से (अङ्गिरसः) विज्ञानीमहर्षि लोग (द्याम्) प्रकाश को (प्र) अच्छे प्रकार (ययुः) प्राप्त हुए हैं ॥६१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - बड़े-बड़े महात्माब्रह्मचर्य आदि तप के साथ विद्या ग्रहण करके सामान्य अवस्था से ऊँचे हुए हैं, इसी प्रकार सब मनुष्य परिश्रम और उद्योग करके सदा उन्नति करें ॥६१॥यह मन्त्र कुछभेद से सामवेद में है−पू० १।१०।२ ॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६१−(इतः) (अस्मात्)स्थानात्। सामान्यदशासकाशात् (एते) पितरः (उत्) उत्तमतया (आ अरुहन्) आरूढा अभवन् (दिवः) व्यवहारस्य (पृष्ठानि) प्रष्टव्यानि स्थानानि (आ अरुहन्) (प्र) प्रकर्षेण (भूर्जयः) भू सत्तायाम्-रुक्। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। जि जये-विच्।भूर्भुवो भूमेर्जेतारः (यथा) सादृश्ये (पथा) सन्मार्गेण (द्याम्) विद्याप्रकाशम् (अङ्गिरसः) महाविज्ञानिनः (ययुः) प्रापुः ॥