०१५ ...{Loading}...
Whitney subject
- Paryāya the fifteenth.
VH anukramaṇī
११-९ अथर्वा। अध्यात्मं, व्रात्यः। १ दैवी पङ्क्तिः, २ आसुरी बृहती, ३, ४, ७-८ प्राजापत्याऽनुष्टुप्
(४,७-८ भुरिक्), ५-६ द्विपदा साम्नी बृहती, ९ विराड् गायत्री।
Whitney anukramaṇī
[navaka. 1. dāivi pan̄kti; 3. āsurī bṛhatī; 3, 4, 7, 8. prājāpatyā ’nuṣṭubh (4, 7, 8. bhurij)*; 5, 6. 2-p. sāmnī bṛhatī; 9. virāḍ gāyatrī.]
Whitney
Comment
*⌊The Anukr. counts ‘sya as asya in vss. 3, 4, 7, and 8, and thus makes them count as 16, 17, 17, and 17 syllables respectively. The text says simply tisro bhurijas; but vss. 4, 7, and 8 must be meant.⌋
Translations
Translated: Aufrecht, Ind. Stud. i. 137; Griffith, ii. 197.
Griffith
Vratya
०१ तस्यव्रात्यस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तस्य॒व्रात्य॑स्य ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒व्रात्य॑स्य ॥
०१ तस्यव्रात्यस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Of that Vrātya—
Notes
Bp. combines this verse and the following into one, reckoning only eight
verses in the hymn. And one ms. (R.) regards every verse* in hymns 15,
16, 17 as beginning with tásya vrā́tyasya ⌊followed by an
avasāna-mark, as, in fact, SPP. prints them: see my statement at page
771, end⌋; this, which is opposed to the Anukr., seems also quite
uncalled for and wrong. ⌊But, for our vss. 3 and 4 at least, SPP. notes
that his procedure is in accord with all his authorities.⌋ *⌊Except 15.
2, which, however, ought properly to form one verse with 15. 1, as it
does in fact in Bp.⌋
Griffith
Of that Vratya.
पदपाठः
तस्य॑। व्रात्य॑स्य। १५.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- दैवी पङ्क्ति
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] के ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने प्राणियोंके शरीर में मस्तक के भीतर दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख सात छिद्र बनायेहैं, इन को ही [सप्त ऋषयः, सप्त सिन्धवः, सप्त प्राणाः आदि] कहते हैं। विद्वान्योगी अतिथि इनकी विविध वृत्तियों को वश में करने से तत्त्वज्ञानी होकर सर्वोपकारीहोता है। इन ही सात शीर्षण्य छिद्रों के सम्बन्ध से इस सूक्त तथा १६ और १७ मेंअतिथि के सात प्राण, सात अपान और सात व्यान का वर्णन है ॥१, २॥अथर्ववेवद १०।२।६का वचन है−(कः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्। येषांपुरुत्रा विजयस्य मह्मनि चतुष्पादो द्विपदो यन्ति यामम्) कर्ता प्रजापति ने [प्राणी के] मस्तक में सात गोलक खोदे, यह दोनों कान, दो नथने, दोनों आँखें और एकमुख। जिनके विजय की महिमा में चौपाये और दोपाये जीव अनेक प्रकार से सन्मार्ग परचलते हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(तस्य) तादृशस्य (व्रात्यस्य) सत्यव्रतधारिणोऽतिथेः ॥
०२ सप्त प्राणाःसप्तापानाः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स॒प्त प्रा॒णाःस॒प्तापा॒नाः स॒प्त व्या॒नाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स॒प्त प्रा॒णाःस॒प्तापा॒नाः स॒प्त व्या॒नाः ॥
०२ सप्त प्राणाःसप्तापानाः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- [There are] seven breaths, seven expirations (apāná), seven
outbreathings (vyāná).
Notes
Griffith
There are seven vital airs, seven downward breaths, seven diff- used breaths.
पदपाठः
स॒प्त। प्रा॒णाः। स॒प्त। अ॒पा॒नाः। स॒प्त। वि॒ऽआनाः। १५.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आसुरी बृहती
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सप्त) सात (प्राणाः)प्राण [शरीर में भीतर जानेवाले जीवनवर्धक श्वास], (सप्त) सात (अपानाः) अपान[शरीर से बाहिर निकलनेवाले दोषनाशक प्रश्वास] और (सप्त) सात (व्यानाः) व्यान [सबशरीर में फैले हुए वायु] हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने प्राणियोंके शरीर में मस्तक के भीतर दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख सात छिद्र बनायेहैं, इन को ही [सप्त ऋषयः, सप्त सिन्धवः, सप्त प्राणाः आदि] कहते हैं। विद्वान्योगी अतिथि इनकी विविध वृत्तियों को वश में करने से तत्त्वज्ञानी होकर सर्वोपकारीहोता है। इन ही सात शीर्षण्य छिद्रों के सम्बन्ध से इस सूक्त तथा १६ और १७ मेंअतिथि के सात प्राण, सात अपान और सात व्यान का वर्णन है ॥१, २॥अथर्ववेवद १०।२।६का वचन है−(कः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्। येषांपुरुत्रा विजयस्य मह्मनि चतुष्पादो द्विपदोयन्ति यामम्) कर्ता प्रजापति ने [प्राणी के] मस्तक में सात गोलक खोदे, यह दोनों कान, दो नथने, दोनों आँखें और एकमुख। जिनके विजय की महिमा में चौपाये और दोपाये जीव अनेक प्रकार से सन्मार्ग परचलते हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(सप्त) शीर्षण्यसप्तच्छिद्रसम्बन्धेन सप्तसंख्याकाः (प्राणाः)प्र+अन जीवने-घञ्। शरीरमध्यगामिनो जीवनवर्धका वायवः (सप्त) (अपानाः) अप+अनजीवने-घञ्। शरीरबहिर्गामिनो दोषनाशका वायवः (सप्त) (व्यानाः) वि+अन जीवने-घञ्।सर्वशरीरव्यापका वायवः ॥
०३ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य
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तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ प्रथ॒मः प्रा॒ण ऊ॒र्ध्वो नामा॒यं सो अ॒ग्निः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ प्रथ॒मः प्रा॒ण ऊ॒र्ध्वो नामा॒यं सो अ॒ग्निः ॥
०३ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- His breath that is first, upward by name, that is this fire.
Notes
Griffith
His first vital breath, called Upward, is this Agni.
पदपाठः
तस्य॑। व्रात्य॑स्य। यः। अ॒स्य॒। प्र॒थ॒मः। प्रा॒णः। ऊ॒र्ध्वः। नाम॑। अ॒यम्। सः। अ॒ग्निः। १५.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्राजापत्या अनुष्टुप्
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (प्रथमः) पहिला (प्राणः) प्राण [श्वास] (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्व [ऊँचा] (नाम) नाम है, (सः) सो (अयम् अग्निः) यह अग्नि है [अर्थात् वह शारीरिक, पार्थिव, समुद्रीय, गुप्त प्रकट बिजुली आदि अग्निविद्याओं का प्रकाशक होता है] ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र ९ पर देखो॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(प्रथमः) आद्यः (ऊर्ध्वः) उन्नतः (अग्निः) अग्निविद्याप्रकाशः। अन्यत्पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
०४ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ द्वि॒तीयः॑ प्रा॒णः प्रौढो॒ नामा॒सौ स आ॑दि॒त्यः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ द्वि॒तीयः॑ प्रा॒णः प्रौढो॒ नामा॒सौ स आ॑दि॒त्यः ॥
०४ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- His breath that is second, preferred (? prāúḍha) by name, that is
yon sun (ādityá).
Notes
The pada-mss. accent, doubtless falsely, pra॰ū́ḍhaḥ (instead of
prá॰ūḍhaḥ); Bs. and O.p.m. read próḍh-: see Prāt. iii. 45, note.
Griffith
His second vital breath, called Mature, is that Aditya.
पदपाठः
तस्य॑। व्रात्य॑स्य। यः। अ॒स्य॒। द्वि॒तीयः॑। प्रा॒णः। प्र॒ऽऊ॒ढः। नाम॑। अ॒सौ। सः। आ॒दि॒त्यः। १५.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (द्वितीयः) दूसरा (प्राणः) प्राण (प्रौढः) प्रौढ (ऊर्ध्वः) [प्रवृद्ध] (नाम) नामहै, (सः) सो (असौ) यह (आदित्यः) चमकनेवाला सूर्य है [अर्थात् वह सूर्यविद्या काप्रकाशक होता है−कि सूर्य का पृथिवी आदि लोकों और उनके पदार्थों से और उन सबकासूर्यलोक से क्या सम्बन्ध है, यह विचारता है] ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र ९ पर देखो॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(प्रौढः) प्रादूहोढोढ्येषैष्येषु। वा० पा० ६।१।८९। प्र+ऊढः, वृद्धिः।प्रवृद्धः (आदित्यः) आदीप्यमानसूर्यविद्याप्रकाशः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
०५ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ तृ॒तीयः॑ प्रा॒णो॒३॒॑ऽभ्यू॑ढो॒ नामा॒सौ स च॒न्द्रमाः॑॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ तृ॒तीयः॑ प्रा॒णो॒३॒॑ऽभ्यू॑ढो॒ नामा॒सौ स च॒न्द्रमाः॑॥
०५ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- His breath that is third, inferred (? abhyū̀ḍha) by name, that is yon
moon.
Notes
Some mss. ⌊of W’s and of SPP’s also⌋ accent ‘bhyū́ḍho, and Bp. has
accordingly abhi॰ū́ḍhaḥ (but D. abhí॰ū-); our text makes the
necessary correction to abhyù-; ⌊and so SPP.⌋.
Griffith
His third vital breath, called Approached, is that Moon.
पदपाठः
तस्य॑। व्रात्य॑स्य। यः। अ॒स्य॒। तृ॒तीयः॑। प्रा॒णः। अ॒भिऽऊ॑ढः। नाम॑। अ॒सौ। सः। च॒न्द्रमाः॑। १५.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- द्विपदा साम्नी बृहती
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (तृतीयः) तीसरा (प्राणः) प्राण [श्वास] (अभ्यूढः) अभ्यूढ [सामने से प्राप्त] (नाम) नाम है, (सः) सो (असौ चन्द्रमाः) यह चन्द्रमा है [अर्थात् वह बताता है किउपग्रह चन्द्रमा, अपने ग्रह पृथिवी से किस सम्बन्ध से क्या प्रभाव करता है औरइसी प्रकार अन्य चन्द्रमाओं का अन्य ग्रहों से क्या सम्बन्ध है] ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र ९ पर देखो॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(अभ्यूढः) आभिमुख्येन प्राप्तः (चन्द्रमाः) चन्द्रविद्याप्रचारः। अन्यत्पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
०६ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ चतु॒र्थः प्रा॒णो वि॒भूर्नामा॒यं स पव॑मानः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ चतु॒र्थः प्रा॒णो वि॒भूर्नामा॒यं स पव॑मानः ॥
०६ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- His breath that is fourth, mighty (vibhū́) by name, that is this
cleansing one (pávamāna).
Notes
That is, doubtless, the wind, and not soma.
Griffith
His fourth vital breath, called Pervading is this Pavamana.
पदपाठः
तस्य॑। व्रात्य॑स्य। यः। अ॒स्य॒। च॒तु॒र्थः। प्रा॒णः। वि॒ऽभूः। नाम॑। अ॒यम्। सः। पव॑मानः। १५.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (चतुर्थः) चौथा (प्राणः) प्राण [श्वास] (विभूः) विभू [व्यापक] (नाम) नाम है, (सः) सो (अयं पवमानः) यह पवमान [शोधक वायु] है [अर्थात् वह बताता है कि वायुक्या है और उस का प्रभाव सब जीवों, सब पृथिवी, सूर्य आदि लोकों पर क्या होता है]॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र ९ पर देखो॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(विभूः) व्यापकः (पवमानः) शोधकवायुविद्या। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
०७ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य
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तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ पञ्च॒मः प्रा॒णो योनि॒र्नाम॒ ता इ॒मा आपः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ पञ्च॒मः प्रा॒णो योनि॒र्नाम॒ ता इ॒मा आपः॑ ॥
०७ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- His breath that is fifth, womb (? yóni) by name, that is these
waters.
Notes
Griffith
His fifth vital breath, called Source, are these Waters.
पदपाठः
तस्य॑। व्रात्य॑स्य। यः। अ॒स्य॒। प॒ञ्च॒मः। प्रा॒णः। योनिः॑। नाम॑। ताः। इ॒माः। आपः॑। १५.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (पञ्चमः) पाँचवाँ (प्राणः) प्राण [श्वास] (योनिः) योनि [कारण] (नाम) नाम है, (ताः) सो (इमाः आपः) ये जल हैं [अर्थात् वह सिखाता है कि जल क्या है और भूमण्डल, मेघमण्डल, सूर्यमण्डल आदि लोकों से क्या सम्बन्ध रखता है] ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र ९ पर देखो॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(योनिः) यु मिश्रणामिश्रणयोः-नि। कारणम् (आपः) जलविद्या। अन्यत् पूर्ववत्स्पष्टं च ॥
०८ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ ष॒ष्ठः प्रा॒णः प्रि॒यो नाम॒ त इ॒मे प॒शवः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ ष॒ष्ठः प्रा॒णः प्रि॒यो नाम॒ त इ॒मे प॒शवः॑ ॥
०८ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- His breath that is sixth, dear by name, that is these cattle.
Notes
Griffith
His sixth vital breath, called Dear, are these domestic animals.
पदपाठः
तस्य॑। व्रात्य॑स्य। यः। अ॒स्य॒। ष॒ष्ठः। प्रा॒णः। प्रि॒यः। नाम॑। ते। इ॒मे। प॒शवः॑। १५.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (षष्ठः) छठा (प्राणः) प्राण [श्वास] (प्रियः) [प्रीतिकारक] (नाम) नाम है, (ते)सो (इमे पशवः) ये पशु हैं [अर्थात् वह जताता है कि गौ अश्व आदि जीव पृथिवीलोकऔर दूसरे लोकों में कैसे उपकारी होते हैं] ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र ९ पर देखो॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(प्रियः) प्रीतिकरः (पशवः) गवाश्वादयः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
०९ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य
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तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ सप्त॒मः प्रा॒णोऽप॑रिमितो॒ नाम॒ ता इ॒माः प्र॒जाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒व्रात्य॑स्य।
यो᳡ऽस्य॑ सप्त॒मः प्रा॒णोऽप॑रिमितो॒ नाम॒ ता इ॒माः प्र॒जाः ॥
०९ तस्यव्रात्यस्य योऽस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- His breath that is seventh, unlimited by name, that is these
creatures (prajā́).
Notes
Griffith
His seventh vital breath, called Unlimited, are these creatures.
पदपाठः
तस्य॑। व्रात्य॑स्य। यः। अ॒स्य॒। स॒प्त॒मः। प्रा॒णः। अप॑रिऽमितः। नाम॑। ताः। इ॒माः। प्र॒ऽजाः। १५.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- विराट् गायत्री
- अध्यात्म अथवा व्रात्य
- अथर्वा
- अध्यात्म प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) उस [व्रात्य] का (सप्तमः) सातवाँ (प्राणः) प्राण [श्वास] (अपरिमितः) अपरिमित [असीम] (नाम) नामहै, (ताः) सो (इमाः प्रजाः) यह प्रजाएँ हैं [अर्थात् वह समझाता है कि परमात्माकी सृष्टि में भूलोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि के मनुष्य, जीव-जन्तुओं कासम्बन्ध आपस में और दूसरे लोकवालों से क्या रहता है] ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् मस्तक के सातछिद्रों द्वारा [मन्त्र १, २ देखो] प्रथम श्वास में विद्या, दूसरे मेंसूर्यविद्या, तीसरे में चन्द्रविद्या, चौथे में वायुविद्या, पाँचवें मेंजलविद्या, छठे में पशुविद्या, और सातवें में प्रजाओं के परस्पर संघटन की विद्याका प्रकाश करता है, अर्थात् वह बहुत शीघ्र मन की वृत्तियों को वश में करकेप्रत्येक इन्द्रिय से प्रत्येक श्वास में संसार का उपकार करता है॥३-९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(अपरिमितः) अगणितः (प्रजाः) सङ्घटनविद्याः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥