००२ विवाह-प्रकरणम्

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Whitney subject
  1. Marriage ceremonies (continued).
VH anukramaṇī

विवाह-प्रकरणम्।
१-७५ सूर्या सावित्री। आत्मा, १० यक्षमनाशी, ११ दम्पत्यो परिपन्थिनाशनी, ३६ देवाः। अनुष्टुप्,
५-६, १२, ३१, ३७, ३९-४० जगती (३७,३९ भुरिक् त्रिष्टुप्), ९ त्र्यवसाना षट्-पदा विराडत्यष्टिः,
१३-१४, १७-१९, ३४, ३६, ३८, ४१-४२, ४९, ६१, ७०,७४-७५ त्रिष्टुप्, १५, ५१ भुरिक्, २०पुरस्ताद्बृहती,
१३, २४-२५, ३२-३३ पुरोबृहती (२६ त्रिपदाविराण्नाम गायत्री), ३३ विराडास्तारपङ्क्तिः,
३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप्, ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पङ्क्तिः ४४ प्रस्तारपङ्क्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पङ्क्तिः,
५० उपरिष्टाद्बृहती निचृत्, ५२ विराट् पुर उष्णिक्, ५९-६०, ६२ पथ्यापङ्क्तिः, ६८ पुर उष्णिक्,
६९ त्र्यवसाना षट् पदाऽतिशक्वरी,७१ बृहती।

Whitney anukramaṇī

[Sāvitrī Sūryā.—ātmadāivatam (10. yakṣmanāśanī; 11. dampatyoḥ paripanthināśanī; 36 ⌊?⌋ devān astāut). ⌊As to the foregoing statements, see above, page 739, ¶’s 8, 4, 5.⌋ ānuṣṭubham: 5, 6, 12, 31, 37, 39, 40. jagatī (37, 39 bhurik triṣṭubh); 9. 3-av. 6-p. virāḍ atyaṣṭi; 13, 14, 17-19, [34, 36, 38] 41, 42, 49, 61, 70, 74, 75. triṣṭubh; 15, 51. bhurij; 20. purastādbṛhatī; 13 ⌊!⌋, 24, 25, 32, 33 ⌊!⌋ purobṛhatī; [26. 3-p. virāṇ nāma gāyatrī;] 33. virāḍ āstārapan̄kti; 35. purobṛhatī triṣṭubh; 43. triṣṭubgarbhā pan̄kti; 44. prastārapan̄kti; [47. pathyābṛhatī; ] 48. sataḥpan̄kti ⌊see under the verse⌋; ⌊50. upariṣṭādbṛtatī nicṛt;] 52. virāṭ paroṣṇih; 59, 60, 62. pathyāpan̄kti; [68. pura-uṣṇih;] 69. 3-av. 6-p. atiśakvarī; 71. bṛhatī.]

Whitney

Comment

The Anukramaṇī, as we have it, omits the description of several of the verses (26, 34, 36, 38, 47, 50, 68); ⌊and, on the other hand, it defines verses 13 and 33 each twice, each once right and once wrong;⌋ and it mixes the order of others ⌊compare Whitney’s remarks, above, page 739, If ¶3, and mine, page 740, top⌋.

The verses (except 50, 58) of this anuvāka or hymn are found also in Pāipp. xviii. (for slight differences of order, see under the verses). ⌊About a dozen verses of this anuvāka or hymn also occur in the RV. wedding-hymn, x. 85.⌋ Only one verse (47) is used by Vāit., but nearly all by Kāuś.

Translations

Translated: parts, of course, by the RV. translators; and the parts peculiar to our text by Ludwig, p. 472; and, as AV. hymn, by Weber (as above), Ind. Stud. v. 204-217. For vss. 59-62, see Bloomfield, AJP. xi. 336-341, or JAOS. xv., p. xliv, = PAOS. for Oct. 1890.

Griffith

On the Bridal of Surya, marriage ceremonies in general, continued

०१ तुभ्यमग्रेपर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना

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तुभ्य॒मग्रे॒पर्य॑वहन्त्सू॒र्यां व॑ह॒तुना॑ स॒ह। स नः॒ पति॑भ्यो जा॒यां दा अ॑ग्ने प्र॒जया॑स॒ह ॥

०१ तुभ्यमग्रेपर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. For thee in the beginning they carried about Sūryā, together with the
    bridal-car; mayest thou, O Agni, give to us husbands the wife, together
    with progeny.
Notes

The verse is RV. x. 85. 38, RV. reading púnaḥ for sá naḥ in c.
All our mss. accent in d ágne, but it has been emended to agne
in our edition. Ppp. agrees with RV. in having in c punaṣ pat-.
⌊Cf. PGS. i. 7. 3; MP. i. 5. 3; MGS. i. 11. 12 b, and p. 150.⌋ Kāuś.
78. 10 quotes this verse with 45 below, both preceded by vi. 78. 1, and
followed by a long prose-passage, when the pair approach the priest to
receive a sort of baptism.

Griffith

For thee with bridal train they first escorted Surya to her home, Give to the husband in return, Agni, the wife with future sons.

पदपाठः

तुभ्य॑म्। अग्रे॑। परि॑। अ॒व॒ह॒न्। सू॒र्याम्। व॒ह॒तुना॑। स॒ह। सः। नः॒। पति॑ऽभ्यः। जा॒याम्। दाः। अग्ने॑। प्र॒ऽजया॑। स॒ह। २.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वज्ञपरमात्मन् ! (अग्रे) पहिले से वर्तमान (तुभ्यम्) तेरे लिये [तेरी आज्ञा पालन केलिये] (सूर्याम्) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या को (वहतुना सह) दाय [यौतुक, अर्थात् विवाह में दिये हुए पदार्थ] के साथ (परि) सबप्रकार से (अवहन्) वे [विद्वान् लोग] लाये हैं, (सः) सो तू [हे परमेश्वर !] (नःपतिभ्यः) हम पतिकुलवालों के हित के लिये (जायाम्) इस पत्नी को (प्रजया सह) प्रजा [सन्तान सेवक आदि] के साथ (दाः) दे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - अनादि परमात्मा कीउपासना करके विद्वान् लोग गुणवती कन्या को यौतुक आदि के साथ पतिकुल में आनन्दसे रहने के लिये आशीर्वाद देवें ॥१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३८, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू-वर केयज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणा करने में उद्धृत है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(तुभ्यम्) तवाज्ञापालनाय (अग्रे)आदौ वर्तमानाय (परि) सर्वतः (अवहन्) प्रापितवन्त विद्वांसः (सूर्याम्)प्रेरयित्रीम्। सूर्यदीप्तिवत्तेजस्विनीं कन्याम् (वहतुना) विवाहकालेदेयपदार्थेन (सह) (सः) स त्वं परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (पतिभ्यः) पतिकुलस्थानांहिताय (जायाम्) पत्नीम् (दाः) देहि (अग्ने) अगि गतौ-नि, नलोपः। हे सर्वज्ञपरमात्मन् (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (सह) ॥

०२ पुनःपत्नीमग्निरदादायुषा सह

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पुनः॒पत्नी॑म॒ग्निर॑दा॒दायु॑षा स॒ह वर्च॑सा। दी॒र्घायु॑रस्या॒ यः पति॒र्जीवा॑तिश॒रदः॑ श॒तम् ॥

०४ पुनः पत्नीमग्निरदादायुषा ...{Loading}...
३९ पुनः पत्नीमग्निरदादायुषा ...{Loading}...

पुनः॒ पत्नी॑म् अ॒ग्निर् अ॑दा॒द्
आयु॑षा स॒ह वर्च॑सा ।
दी॒र्घा॒युर् अ॑स्या॒ यः पति॒स्
स ए॑तु श॒रद॑श् श॒तम् ॥+++(र५)+++

०२ पुनःपत्नीमग्निरदादायुषा सह ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Agni hath given back the spouse, together with life-time, with
    splendor; of long life-time, may he who is the husband of her live a
    hundred autumns.
Notes

Is RV. x. 85. 39, without variant. ⌊Cf. MP. i. 5. 4; MGS. i. 11. 12 c,
and p. 152.⌋ The combination yáḥ pátiḥ in c is assured by Prāt.
ii. 70.

Griffith

Agni hath given the bride again with splendour and a lengthened. life. Long-lived be he who is her lord: a hundred autumns let him live.

पदपाठः

पुनः॑। पत्नी॑म्। अ॒ग्निः। अ॒दा॒त्। आयु॑षा। स॒ह। वर्च॑सा। दी॒र्घऽआ॑युः। अ॒स्याः॒। यः। पतिः॑। जीवा॑ति। श॒रदः॑। श॒तम्। २.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) सर्वव्यापकपरमेश्वर ने (आयुषा) आयु और (वर्चसा सह) तेज के साथ (पत्नीम्) पत्नी को (पुनः)निश्चय करके (अदात्) दिया है। (अस्याः) इस [पत्नी] का (यः) जो (पतिः) पति है, [वह] (दीर्घायुः) दीर्घ आयुवाला होकर (शतम् शरदः) सौ वर्षों तक (जीवाति) जीतारहे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमेश्वर केअनुग्रह से आयुष्मती पुण्यवती वधू प्राप्त हुई है, उस परमात्मा से बुद्धिमान्लोग प्रार्थना करें कि उसका पति भी यश और कीर्ति के साथ पूर्ण आयु भोगे ॥२॥यहमन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।३९ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(पुनः) निश्चयेन (पत्नीम्) (अग्निः)सर्वव्यापकः परमेश्वरः (अदात्) दत्तवान् (आयुषा) जीवनेन (सह) (वर्चसा) (दीर्घायुः) चिरंजीवी (अस्याः) पत्न्याः (यः) (पतिः) (जीवाति) जीवतु (शरदः)संवत्सरान् (शतम्) ॥

०३ सोमस्य जायाप्रथमम्

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सोम॑स्य जा॒याप्र॑थ॒मं ग॑न्ध॒र्वस्तेऽप॑रः॒ पतिः॑।
तृ॒तीयो॑ अ॒ग्निष्टे॒ पति॑स्तु॒रीय॑स्तेमनुष्य॒जाः ॥

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Whitney
Translation
  1. Soma’s wife first; the Gandharva thy next husband; Agni thy third
    husband; thy fourth, one of human birth.
Notes

The verse is RV. x. 85. 40, which, however, has for a, b sómaḥ
prathamó vivide gandharvó vivida úttaraḥ
. It is found also in PGS. (i.
4. 16) and HGS. (i. 20. 2); the former agrees entirely with RV.; the
latter deviates from it only in d, where it gives turīyo ‘ham
man-:
Ppp. combines in b aparaṣ p-. ⌊Cf. MP. i. 3. 1.⌋

Griffith

She was the wife of Soma first: next the Gandharva was thy lord. Agni was the third husband: now one born of woman is thy fourth.

पदपाठः

सोम॑स्य। जा॒या। प्र॒थ॒मम्। ग॒न्ध॒र्वः। ते॒। अप॑रः। पतिः॑। तृ॒तीयः॑। अ॒ग्निः। ते॒। पतिः॑। तु॒रीयः॑। ते॒। म॒नु॒ष्य॒ऽजाः। २.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - १−सामान्य अर्थ ॥[हेवधू !] (सोमस्य) सोम [शान्ति आदि शुभ गुण] की (जाया) उत्पत्तिस्थान (प्रथमम्)पहिले [पहिली अवस्था में] [तू है], (गन्धर्वः) गन्धर्व [वेदवाणी का धारणकरनेवाला गुण] (ते) तेरा (अपरः) दूसरा (पतिः) पति [रक्षक] है। (अग्निः) अग्नि, [अर्थात् विद्या और शरीर का तेज] (ते) तेरा (तृतीयः) तीसरा (पतिः) पति [रक्षक]है, और (मनुष्यजाः) मनुष्य [अर्थात् मननशीलों में उत्पन्न विद्वान् युवा पुरुष] (ते) तेरा (तुरीयः) चौथा [पति] है ॥३॥ २−नियोगविषयक अर्थ ॥ [हे स्त्री ! तू] (सोमस्य) सोम [अर्थात् ऐश्वर्यवान् विवाहितपुरुष] की (जाया) पत्नी (प्रथमम्) पहिली बार [होती है], (गन्धर्वः) गन्धर्व [अर्थात् वेदवाणी का धारण करनेवाला नियुक्त पुरुष] (ते) तेरा (अपरः) दूसरा (पतिः) पति अर्थात् रक्षक [होता है], (अग्निः) अग्नि [अर्थात् ज्ञानी नियुक्तपुरुष] (ते) तेरा (तृतीयः) तीसरा (पतिः) पति [होता है] और (मनुष्यजाः) मनुष्य [मननशीलों में उत्पन्न नियुक्त पुरुष] (ते) तेरा (तुरीयः) चौथा [पति होता है]॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब कन्या ब्रह्मचर्यसे पहिली, दूसरी और तीसरी अवस्था में क्रम से माता, पिता और आचार्य से सुशिक्षापाकर और शरीर से स्वस्थ युवती होकर तेजस्विनी हो, तब अपने सदृश मातृमान्पितृमान् और आचार्यवान् नीरोग ब्रह्मचारी पुरुष से विवाह करे ॥३॥इस मन्त्र काअर्थ श्रीमान् पण्डित कालीप्रसाद शर्मा आचार्य की सम्मति से किया गया है, जिन कोबहुत धन्यवाद देता हूँ ॥३॥ स्त्री को योग्य है कि विपत्तिकाल में अर्थात् विवाहित पति के रोगी होने वामर जाने पर अन्य तीन पतियों तक एक-दूसरे के पीछे नियोग करके सन्तान उत्पन्न करे, पहिले विवाहित पति का नाम सोम होता है और अन्य तीन जो नियोग के पति हैं, क्रम सेगन्धर्व, अग्नि और मनुष्य कहाते हैं। इसी प्रकार विवाहित स्त्री सोम्या, औरनियोग की तीनों स्त्रियाँ क्रम से गन्धर्वी, आग्नेयी और मानुषी कहाती हैं ॥३॥यहमन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।४०। और महर्षिदयानन्दकृतसत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास नियोगविषय और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नियोगविषयमें व्याख्यात है। इस मन्त्र का पाठ और शब्दार्थ इस प्रकार है−सोमः॑ प्रथ॒मो वि॑विदे गन्ध॒र्वो वि॑विद॒उत्त॑रः। तृतीयो॑ अ॒ग्निष्टे॒ पति॑स्तु॒रीय॑स्ते मनुष्य॒जाः ॥[हे स्त्री !] (सोमः) सोम [अर्थात् शान्दि आदि शुभ गुण, वा ऐश्वर्यवान् पुरुष] (प्रथमः) पहिला (ते) तेरा (पतिः) पति [रक्षक] (विविदे) [विद सत्तायाम्-लडर्थे लिट्] होता है, (उत्तरः) दूसरा (गन्धर्वः) गन्धर्व [अर्थात् वेदवाणी का धारण करनेवाला गुण वापुरुष], (तृतीयः) तीसरा (अग्निः) अग्नि [अर्थात् विद्या और शरीर का तेज वाज्ञानी पुरुष], और (मनुष्यजाः) मनुष्य [मननशीलों में उत्पन्न हुआ पुरुष] (ते)तेरा (तुरीयः) चौथा [पति] (विविदे) होता है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(सोमस्य) शान्त्यादिगुणस्य ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (जाया) जायते यस्यां सा जाया। उत्पत्तिस्थानम्। पत्नी (प्रथमम्) प्रथमवारम् (गन्धर्वः) गोर्वेदवाण्या धारको गुणः पुरुषो वा (ते) तव (अपरः) द्वितीयः (पतिः)रक्षको भर्त्ता (तृतीयः) (अग्निः) विद्याप्राप्तिशरीरपुष्टिजन्यं तेजः।ज्ञानवान् पुरुषः (ते) तव (पतिः) (तुरीयः) चतुर्थः (ते) (मनुष्यजाः) अ० १२।४।४३।मनुष्य+जनी प्रादुर्भावे-विट्, मनुष्येषु मननशीलेषूत्पन्नः ॥

०४ सोमोददद्गन्धर्वाय गन्धर्वो

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सोमो॑ददद्गन्ध॒र्वाय॑ गन्ध॒र्वो द॑दद॒ग्नये॑।
र॒यिं च॑पु॒त्रांश्चा॑दाद॒ग्निर्मह्य॒मथो॑ इ॒माम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Soma gave to the Gandharva; the Gandharva gave to Agni; both wealth
    and sons hath Agni given to me, likewise this woman.
Notes

Is RV. x. 85. 41, without variant. Found also in MB. (i. 1. 7) and HGS.
(i. 20. 2): in the latter, with very different readings: soma ‘dadād
gajidharvāya gandharva ‘gnaye ‘dadāt: paśūṅś ca mahyam putrāṅś ca ’gnir
dadāty atho tvām
. ⌊Cf. MP. i. 3. 2; MGS. i. 10. 10 a, and p. 157; also
Wint., p. 48.⌋

Griffith

Soma to the Gandharva, and to Agni the Gandharva gave. Now, Agni hath bestowed on me riches and sons and this my bride.

पदपाठः

सोमः॑। द॒द॒त्। ग॒न्ध॒र्वाय॑। ग॒न्ध॒र्वः। द॒द॒त्। अ॒ग्नये॑। र॒यिम्। च॒। पु॒त्रान्। च॒। अ॒दा॒त्। अ॒ग्निः। मह्य॑म्। अथो॒ इति॑। इ॒माम्। २.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - १−सामान्य अर्थ ॥(सोमः) सोम [शान्ति आदि शुभ गुण] (गन्धर्वाय) गन्धर्व [वेदवाणी के धारण करनेवालेगुण] के लिये [कन्या को] (ददत्) देता है, (गन्धर्वः) गन्धर्व [वेदवाणी के धारणकरनेवाला गुण] (अग्नये) अग्नि [विद्या और शरीर के तेज] के लिये (ददत्) देता है। (अथो) फिर (अग्निः) अग्नि [विद्या और शरीर का तेज] (इमाम्) इस [स्त्री] को (च)और (रयिम्) धन को, (च) और (पुत्रान्) पुत्रों को (मह्यम्) मुझ [युवा ब्रह्मचारी]को (अदात्) देता है ॥४॥ २−नियोगविषयक अर्थ ॥ (सोमः) सोम [ऐश्वर्यवान् विवाहित पति] (गन्धर्वाय) गन्धर्व [वेदवाणी के धारण करनेवाले दूसरेनियुक्त पुरुष] के लिये [स्त्री को] (ददत्) छोड़ता है। (गन्धर्वः) गन्धर्व [वेदवाणी का धारण करनेवाला दूसरा नियुक्त पुरुष] (अग्नये) अग्नि [ज्ञानी तीसरेनियुक्त पुरुष] के लिये (ददत्) छोड़ता है। (अथो) फिर (अग्निः) अग्नि [ज्ञानीतीसरा नियुक्त पुरुष] (इमाम्) इस [स्त्री] को, (च) और (रयिम्) धन को (च) और (पुत्रान्) पुत्रों को (मह्यम्) मेरे लिये [अर्थात् चौथे नियुक्त पुरुष के लिये] (अदात्) छोड़ता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब कन्या माता-पिता औरआचार्या से यथाक्रम सुशिक्षित होकर युवती हो जावे, तब यथाक्रम माता-पिता औरआचार्य से शिक्षा पाया हुआ युवा ब्रह्मचारी वैसी गुणवती कन्या से विवाह करकेधनवान् और पुत्रवान् होवे ॥४॥ मनुष्य को योग्य है कि सदा एकस्त्रीव्रत रहे, चाहे वहविवाहित हो वा नियुक्त हो, और विवाहित स्त्री के मर जाने वा रोगी हो जाने पर आपत्काल में ही एक-दूसरे के पीछे अन्य तीन स्त्रियों तक नियोग करके धन और सन्तानप्राप्त करे। इसी प्रकार स्त्री भी एक विवाहित पति के मर जाने वा रोगी हो जाने परआपत्काल में ही अन्य तीन नियुक्त पतियों के साथ एक-दूसरे के पीछे रह कर धन औरसन्तान की रक्षा करे ॥४॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।४१ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(सोमः) शान्त्यादिगुणः। ऐश्वर्यवान्विवाहितपुरुषः (ददत्) दद दाने त्यागे च। ददाति। त्यजति कन्यां स्त्रियं वेतिशेषः (गन्धर्वाय) वेदवाणीधारकाय गुणाय नियुक्तपुरुषाय वा (गन्धर्वः) (ददत्) (अग्नये) विद्याप्राप्तिशरीरपुष्टिजन्यतेजसे। ज्ञानवते तृतीयनियुक्तपुरुषाय (रयिम्) धनम् (च) (पुत्रान्) (च) (अदात्) ददाति। त्यजति (अग्निः) ज्ञानवान्तृतीयनियुक्तपुरुषः (मह्यम्) यूने ब्रह्मचारिणे। चतुर्थनियुक्तपुरुषाय (अथो)पुनः (इमाम्) स्त्रियम् ॥

०५ आवामगन्त्सुमतिर्वाजिनीवसू न्यश्विना

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आवा॑मगन्त्सुम॒तिर्वा॑जिनीवसू॒ न्य᳡श्विना हृ॒त्सु कामा॑ अरंसत।
अभू॑तं गो॒पामि॑थु॒ना शु॑भस्पती प्रि॒या अ॑र्य॒म्णो दुर्याँ॑ अशीमहि ॥

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Whitney
Translation
  1. Your favor hath come, O ye (two) of abundant good things (?
    vājínīvasu); [our] desires have rested in [your] hearts, O Aśvins;
    ye have been twin keepers, O lords of beauty; may we, being dear, attain
    favorers (aryamán) of our homes (? dúrya).
Notes

The verse is RV. x. 40. 12, RV., however, reading ayaṅsata at end of
b. ⌊MP. i. 7. 11 follows the RV. text, but with kāmāṅ for kāmās:
cf. Wint., p. 70.⌋ More points than one in the translation are doubtful.

Griffith

Your favouring grace hath come, ye who are rich in spoil! Asvins, your longings are stored up within your hearts. Ye, Lords of Splendour have become our twofold guard: may we as dear friends reach the dwelling of the friend.

पदपाठः

आ। वा॒म्। अ॒ग॒न्। सु॒ऽम॒तिः। वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू। नि। अ॒श्वि॒ना॒। ह॒त्ऽसु। कामाः॑। अ॒रं॒स॒त॒। अभू॑तम्। गो॒पा। मि॒थु॒ना। शु॒भः॒। प॒ती॒ इति॑। प्रि॒याः। अ॒र्य॒म्णः दुर्या॑न्। अ॒शी॒म॒हि॒। २.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • जगती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वाजिनीवसू) हे बहुतवेगवाली वा अन्नवाली क्रियाओं में निवास करनेवाले दोनों [स्त्री-पुरुषो !] (वाम्) तुम दोनों को (सुमतिः) सुमति (आ) सब ओर से (अगन्) प्राप्त होवे, (अश्विना) हे विद्या को प्राप्त दोनों (हृत्सु) [तुम्हारे] हृदयों में (कामाः)शुभ कामनाएँ (नि) निरन्तर (अरंसत) रमण करें [रहें]। (शुभः पती) हे शुभ क्रियाके रक्षको ! (मिथुना) तुम दोनों (गोपा) रक्षक (अभूतम्) होओ, (प्रियाः) हम लोगप्रिय होकर (अर्यम्णः) श्रेष्ठों के मान करनेवाले पुरुष के (दुर्यान्) घरों को (अशीमहि) प्राप्त करें ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषों कोचाहिये कि फुरती से सुमतिपूर्वक अन्न आदि सामग्री प्राप्त करके शुभ कामनाएँ सिद्ध करते हुए सबके रक्षक बनें, जिस से विद्वान् लोग प्रीति करके उनका आश्रयलेवें ॥५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।४०।१२ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(आ) समन्तात् (वाम्)युवाभ्याम् (अगन्) प्राप्नुयात् (सुमतिः) सुबुद्धिः (वाजिनीवसू) वेगवतीषुअन्नवतीषु वा क्रियासु निवसतस्तौ (नि) निरन्तरम् (अश्विना) हे प्राप्तविद्यौस्त्रीपुरुषौ (हृत्सु) युवयोर्हृदयेषु (कामाः) शुभाभिलाषाः (अरंसत) रमन्ताम्।तिष्ठन्तु (अभूतम्) भवतम् (गोपा) गोपायितारौ। रक्षकौ (मिथुना) उभौ (शुभः)शुभक्रियायाः (पती) पालकौ (प्रियाः) हिता वयम् (अर्यम्णः) श्रेष्ठानां मानयितुःपुरुषस्य (दुर्यान्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। दुर्वी हिंसायाम्-यक्, वकारलोपेदीर्घाभावश्च। हिंसन्ति दुःखम्। गृहान्-निघ० ३।४। (अशीमहि) प्राप्नुयाम ॥

०६ सा मन्दसानामनसा

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सा म॑न्दसा॒नामन॑सा शि॒वेन॑ र॒यिं धे॑हि॒ सर्व॑वीरं वच॒स्य᳡म्।
सु॒गं ती॒र्थं सु॑प्रपा॒णंशु॑भस्पती स्था॒णुं प॑थि॒ष्ठामप॑ दुर्म॒तिं ह॑तम् ॥

०६ सा मन्दसानामनसा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Do thou (f.), rejoicing with propitious mind, assign wealth having
    all heroes, to be extolled; an easy crossing (tīrthá), well provided
    with drink, O lords (du.) of beauty; do ye smite away the pillar
    standing in the road, [namely] disfavor.
Notes

This verse is altered from RV. x. 40. 13 in a strange and senseless
manner. RV. reads for a, b tā́ mandasānā́ mánuṣo duroṇá ā́ dhattáṁ
rayíṁ sahávīraṁ vacasyáve
, thus making the verse concern the Aśvins
throughout; who is our ’thou’ (sā́) does not appear. In c the sense
is destroyed by altering the RV. verb kṛtám (as if it were
misunderstood for a participle) to sugám; and in d patheṣṭhā́m
(p. pathe॰sthā́m) is turned to páthiṣṭhām (p. páthi॰sthām) and
accented as if it were a superlative; ⌊cf. the confusion at vi. 28. 1⌋.
The verse is used also in the Āpast. sūtra (Wint., p. 68 ⌊MP. i. 6.
12⌋), with daśavīram in b as its only variant from RV. Ppp.
appears to read with our text. The verse lacks two syllables of being a
real jagatī. In Kāuś. 77. 8 the verse is directed to be used on
arriving at a ford or river-crossing on the bridal journey.

Griffith

Thou, Dame, rejoicing, take with kindly spirit wealth worthy to be famed, with all thy heroes. Give, Lords of Light a fair ford, good to drink at: remove the spiteful stump that blocks the pathway.

पदपाठः

सा। म॒न्द॒सा॒ना। मन॑सा। शि॒वेन॑। र॒यिम्। धे॒हि॒। सर्व॑ऽवीरम्। व॒च॒स्य᳡म्। सु॒ऽगम्। ती॒र्थम्। सु॒ऽप्र॒पा॒नम्। शु॒भः॒। प॒ती॒ इति॑। स्था॒णुम्। पथि॑ऽस्थाम्। अप॑। दुः॒ऽम॒तिम्। ह॒त॒म्। २.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • जगती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (सा) सो तू (मन्दसाना) आनन्द करती हुई, (शिवेन) कल्याणयुक्त (मनसा) मन के साथ (सर्ववीरम्)सब वीरोंवाले (वचस्यम्) स्तुतियोग्य (रयिम्) धन को (धेहि) धारण कर। (शुभः पती)हे शुभ क्रिया के रक्षक तुम दोनों ! (सुगम्) सुख से जाने योग्य, (सुप्रपाणम्)सुन्दर पानीवाले (तीर्थम्) तीर्थ [उतरने के घाट] को [धारण करो]और (पथिष्ठाम्)मार्ग में खड़े हुए (स्थाणुम्) ठूठ [झाड़ झंकड़ आदि समान] (दुर्मतिम्) दुर्मतिको (अप हतम्) नाश करो ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जहाँ पर गुणवती स्त्रीप्रसन्न होकर धन का प्रबन्ध करके सन्तानों को शूर, वीर, यशस्वी बनाती है, वहाँपर दोनों पति-पत्नी विघ्नों को हटाकर गृहाश्रम को ऐसा सुखदायी करते हैं, जैसेविद्वान् शिल्पी मार्ग के कण्टक आदि मेंटकर नदी का सुगम तीर्थ अर्थात् घाट बनाताहै, जिस पर होकर सब सुख से उतरते और जल से स्नान-पान करके आनन्द पाते हैं ॥६॥यहमन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।४०।१३ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(सा) सा त्वम् (मन्दसाना)ऋञ्जिवृधिमन्दिसहिभ्यः कित्। उ० २।८७। मदि आमोदस्तुतिदीप्त्यादिषु-असानच् कित्।आमोदयित्री (मनसा) चित्तेन (शिवेन) कल्याणयुक्तेन (रयिम्) धनम् (धेहि) धारय (सर्ववीरम्) सर्ववीरोपेतम् (वचस्यम्) प्रशंसनीयम् (सुगम्) सुखेन गन्तव्यम् (तीर्थम्) पातॄतुदिवचि०। उ० २।७। तॄ प्लवनतरणयोः-थक्। तरणस्थानम् (सुप्रपाणम्)स्वच्छप्रकृष्टपानयुक्तम् (शुभः पती) हे शुभक्रियायाः पालकौ (स्थाणुम्)शाखाशून्यवृक्षादिकम् (पथिष्ठाम्) मार्गस्थम् (दुर्मतिम्) कुबुद्धिम् (अप हतम्)दूरे नाशयतम् ॥

०७ या ओषधयो

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या ओष॑धयो॒ यान॒द्यो॒३॒॑ यानि॒ क्षेत्रा॑णि॒ या वना॑।
तास्त्वा॑ वधु प्र॒जाव॑तीं॒ पत्ये॑रक्षन्तु र॒क्षसः॑ ॥

०७ या ओषधयो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What herbs [there are], what streams, what fields, what forests—let
    these, O bride, defend from the demon thee, possessing progeny, for thy
    husband.
Notes

The Āpast. text (Wint., p. 70 ⌊MP. i. 7. 9⌋) has the same verse, but
with different readings: for b, yā́ni dhánvāni yé vánāḥ ⌊Oxford
text vánā⌋ in c, for tā́s; for d, prá tvé muñcantv
áṅhasaḥ
. Kāuś. 77. 11 uses it on the bridal journey ‘under the
circumstances mentioned in the verse.’

Griffith

May all the Rivers, all the Plants, may all the Forests, all the Fields, O Bride, protect thee from the fiend, guard his sons’ mother for her lord.

पदपाठः

याः। ओष॑धयः। याः। न॒द्यः᳡। यानि॑। क्षेत्रा॑णि। या। वना॑। ताः। त्वा॒। व॒धु॒। प्र॒जाऽव॑तीम्। पत्ये॑। र॒क्ष॒न्तु॒। र॒क्षसः॑। २.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (याः) जो (ओषधयः)ओषधियाँ [अन्न, सोमलता आदि], (याः) जो (नद्यः) नदियाँ, (यानि) जो (क्षेत्राणि)खेत और (या) जो (वना) वन [वृक्ष वाटिका आदि] हैं। (ताः) वे सब [ओषधि आदि], (वधु)हे वधू ! (त्वा प्रजावतीम्) तुझ श्रेष्ठ सन्तानवाली को (पत्ये) पति के लिये (रक्षसः) राक्षस [विघ्न] से (रक्षन्तु) बचावें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - गृहाश्रमी स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि अन्न, ओषधि, नदियों, वन, उपवन आदि आवश्यक पदार्थों कायथावत् उपयोग करके कष्टों से बचकर सुखी रहें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(याः) (ओषधयः) अन्नसोमलतादयः (याः) (नद्यः) (यानि) (क्षेत्राणि) अन्नोत्पत्तिस्थानानि (या) यानि (वना) वनानि।वनोपवनवाटिकादीनि (ताः) पूर्वोक्ता ओषध्यादयः (त्वा) (वधु) हे पत्नि (प्रजावतीम्) उत्तमसन्तानयुक्ताम् (पत्ये) स्वामिहिताय (रक्षन्तु) पालयन्तु (रक्षसः) रक्षणीयं यस्मात् तस्माद् राक्षसात् विघ्नात् ॥

०८ एमम्पन्थामरुक्षाम सुगम्

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एमंपन्था॑मरुक्षाम सु॒गं स्व॑स्ति॒वाह॑नम्।
यस्मि॑न्वी॒रो न रिष्य॑त्य॒न्येषां॑वि॒न्दते॒ वसु॑ ॥

०८ एमम्पन्थामरुक्षाम सुगम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. We have mounted this road, easy, bringing welfare, on which a hero
    takes no harm, [but] finds others’ goods.
Notes

The Āpast. text (Wint., p. 67 ⌊MP. i. 6. 11⌋) has the same verse, but
with sugám pánthānam ā́ ‘rukṣam áriṣṭaṁ svas- in a, b. Kāuś. uses
it in 77. 2, with 1. 64: see the note to 1. 64. ⌊For yásmin in c
Ppp. has the sense-equivalent yatra: cf. its oṣam for our kṣiprám
at xii. 1. 35; etc.⌋

Griffith

Our feet are on this pleasant path, easy to travel, bringing bliss, Whereon no hero suffers harm, which wins the wealth of other men.

पदपाठः

आ। इ॒मम्। पन्था॑म्। अ॒रु॒क्षा॒म॒। सु॒ऽगम्। स्व॒स्ति॒ऽवाह॑नम्। यस्मि॑न्। वी॒रः। न। रिष्य॑ति। अ॒न्येषा॑म्। वि॒न्दते॑। वसु॑। २.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इमम्) इस [वैदिक] (सुगम्) सुख से चलने योग्य, (स्वस्तिवाहनम्) आनन्द पहुँचानेवाले (पन्थाम्) मार्गपर (आ अरुक्षाम) हम चढ़ें। (यस्मिन्) जिस [मार्ग] में (वीरः) वीर पुरुष (नरिष्यति) कष्ट नहीं पाता है, और (अन्येषाम्) दूसरे [अधर्मियों] का (वसु) धन [दण्ड द्वारा] (विन्दते) लेता है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - गृहस्थियों को चाहियेकि धार्मिक वैदिक मार्ग पर चलकर वीरपन से अधर्मियों को दण्ड दें और धनवृद्धिकरें ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(इमम्) प्रसिद्धं वैदिकम् (पन्थाम्) मार्गम् (आ अरुक्षाम) आरुहेम (सुगम्) सुखेन गमनीयम् (स्वस्तिवाहनम्) आनन्दप्रापकम् (यस्मिन्) पथि (वीरः)पराक्रमी पुरुषः (न) निषेधे (रिष्यति) दुःखं प्राप्नोति (अन्येषाम्) अधर्मिणाम् (विन्दते) लभते (वसु) धनम् ॥

०९ इदं सु

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इ॒दं सु मे॑ नरःशृणुत॒ यया॒शिषा॒ दंप॑ती वा॒मम॑श्नु॒तः।
ये ग॑न्ध॒र्वा अ॑प्स॒रस॑श्च दे॒वीरे॒षुवा॑नस्प॒त्येषु॒ येऽधि॑ त॒स्थुः।
स्यो॒नास्ते॑ अ॒स्यै व॒ध्वै॑ भवन्तु॒ माहिं॑सिषुर्वह॒तुमु॒ह्यमा॑नम् ॥

०९ इदं सु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Pray hear ye now of me, O men, by what blessing (āśís) the two
    spouses attain what is agreeable (vāmá): what Gandharvas [there are]
    and heavenly Apsarases, who stand upon these forest trees
    (vānaspatyá), let them be pleasant unto this bride; let them not
    injure the bridal-car as it is driven.
Notes

The last four padas form a verse also in the Āpast. text (Wint., p. 70
⌊MP. i. 7. 8⌋), where for our d is read eṣú vṛkṣéṣu vānaspatyéṣv
ā́sate
, further śivā́s (for syonā́s) and vadhvāì in e, and
ūhyámānām in f. In TS. iii. 2. 8⁴ is found the phrase yám āśírā
dámpatī vāmám aśnutáḥ
, and āśīrdāyā́ dámpatī vāmám aśnutām. The verse
is to be used, according to Kāuś. 77. 9, when the bridal train passes
great trees. The Anukr. ⌊appears to scan as 9 + 12: 11 + 12: 11 + 11 =
66; but pāda a is essentially defective⌋. All our mss. ⌊and SPP’s
authorities⌋ read in e te, which our edition emends to té; ⌊but
SPP. reads te, construing a-d together, and e-f separately:
‘unto thee, the bride here’; which seems hard⌋. Ppp. combines in c
gandharvā ’ps-.

Griffith

Here these my words, ye men, the benediction through which the wedded pair have found high fortune. May the divine Apsarases, Gandharvas, all they who are these fruitful trees’ protectors, Regard this bride with their auspicious, favour, nor harm the nuptial pomp as it advances.

पदपाठः

इ॒दम्। सु। मे॒। न॒रः॒। शृ॒णु॒त॒। यया॑। आ॒ऽशिषा॑। दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती। वा॒मम्। अ॒श्नु॒तः। ये। ग॒न्ध॒र्वाः। अ॒प्स॒रसः॑। च॒। दे॒वीः। ए॒षु। वा॒न॒स्प॒त्येषु॑। ये। अधि॑। त॒स्थुः। स्यो॒नाः। ते॒। अ॒स्यै। व॒ध्वै। भ॒व॒न्तु॒। मा। हिं॒सि॒षुः॒। व॒ह॒तुम्। उ॒ह्यमा॑नम्। २.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्र्यवसाना षट्पदा विराट् अत्यष्टि
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नरः) हे नरो ! (इदम्)अब (मे) मेरी [बात] (सु) अच्छे प्रकार (शृणुत) सुनो, (यया आशिषा) जिस आशीर्वादसे (दम्पती) पति-पत्नी दोनों, (वामम्) श्रेष्ठ पदार्थ (अश्नुतः) पाते हैं। (ये)जो (गन्धर्वाः) गन्धर्व [वेदवाणी के धारण करनेवाले पुरुष] (च) और (अप्सरसः)कामों में व्यापक रहनेवाली (देवीः) देवियाँ [बड़ी गुणवती स्त्रियाँ] हैं, और (ये) जो पुरुष (एषु) इन (वानस्पत्येषु) सेवनीय शास्त्र के रक्षक जन सेसंबन्धवाले पुरुषों में (अधि) ऊँचे (तस्थुः) ठहरते हैं। वे सब [हे वधू !] (तेअस्यै वध्वै) तुझ इस वधू के लिये (स्योनाः) सुखदायक (भवन्तु) होवें, वे (उह्यमानम्) चलते हुए (वहतुम्) रथ [रथसमान गृहकार्य] को (मा हिंसिषुः) न हानिपहुँचावें ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब निपुण विद्वान्पुरुष और गृहकार्य में चतुर स्त्रियाँ मिलकर ऐसा प्रयत्न करें कि वे दोनोंस्त्री-पुरुष गृहाश्रम में यथावत् सिद्धि प्राप्त करें, और कभी उनके चलते हुएगृहकार्य में विघ्न न पड़ने पावे ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(इदम्) इदानीम् (सु) सुविचारेण (मे) ममवाणीम् (नरः) हे नेतारः (शृणुत) आकर्णयत (यया) (आशिषा) आशीर्वादेन (दम्पती)जायापती (वामम्) श्रेष्ठं पदार्थम् (अश्नुतः) प्राप्नुतः (ये) (गन्धर्वाः) गांवेदवाणीं धरन्ति ते विद्वांसः (अप्सरसः) अपः कर्मनाम-निघ० २।१।सर्तेरप्पूर्वादसिः। उ–० ४।२३७। अपः+सृ गतौ-असि। अपांसि कर्माणि सरन्तिप्राप्नुवन्ति यास्ताः। कर्मकुशलाः स्त्रियः (देवीः) उत्तमगुणवत्यः (एषु)प्रसिद्धेषु (वानस्पत्येषु) वन्यते सेव्यते स वनः, तस्य पतिर्वनस्पतिः। [वनस्पते] वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालक-दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२१। ततः।दित्यदित्यादित्य०। पा० ४।१।८५। ण्य। संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालकस्य जनस्यसम्बन्धिषु पुरुषेषु (ये) (अधि) उपरि (तस्थुः) तिष्ठन्ति (स्योनाः) सुखदायकाः (ते) तुभ्यम् (अस्यै) प्रसिद्धायै (वध्वै) पत्न्यै (भवन्तु) (मा हिंसिषुः) मानाशयन्तु (वहतुम्) वहनसाधनं रथतुल्यं गृहकार्यम् (उह्यमानम्) गम्यमानम् ॥

१० येवध्वश्चन्द्रं वहतुम्

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येव॒ध्व᳡श्च॒न्द्रं व॑ह॒तुं यक्ष्मा॑ यन्ति॒ जनाँ॒ अनु॑।
पुन॒स्तान्य॒ज्ञिया॑दे॒वा न॑यन्तु॒ यत॒ आग॑ताः ॥

१० येवध्वश्चन्द्रं वहतुम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What yákṣmas go to the bride’s brilliant (candrá) car among the
    people, let the worshipful gods conduct those back whence they came.
Notes

The verse is RV. x. 85. 31; RV. reads in b jánād ánu. The Āpast.
text (Wint., p. 67 ⌊MP. i. 6. 9⌋) has the same verse. ⌊The Anukr. calls
the vs. yakṣmanāśanī.⌋

Griffith

Consumptions, which, through various folk, attack the bride’s resplendent train, These let the holy Gods again bear to the place from which they sprang.

पदपाठः

ये। व॒ध्वः᳡। च॒न्द्रम्। व॒ह॒तुम्। यक्ष्माः॑। यन्ति॑। जना॑न्। अनु॑। पुनः॑। तान्। य॒ज्ञियाः॑। दे॒वाः। नय॑न्तु। यतः॑। आऽग॑ताः। १.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • यक्ष्मनाशनी
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (यक्ष्माः)क्षय रोग (जनान् अनु) मनुष्यों में वर्तमान (वध्वः) वधू के (चन्द्रम्) आनन्ददेनेवाले [वा सुनहले] (वहतुम्) रथ को (यन्ति) प्राप्त होवें। (तान्) उन [रोगों]को (यज्ञियाः) पूजा योग्य (देवाः) विद्वान् लोग (पुनः) अवश्य [वहाँ] (नयन्तु)पहुँचावे, (यतः) यहाँ से [जिस कारण से] (आगताः) वे [रोग] आये हैं ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब कभी मार्ग आदिस्थान में स्त्री वा पुरुष को रोग का उपद्रव आ पड़े, विद्वान् वैद्य लोग कारणजानकर उसका प्रतिकार करें ॥१०॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(ये) (वध्वः) वध्वाः। पत्न्याः (चन्द्रम्) आह्लादकम्। सुवर्णयुक्तम् (वहतुम्) वाहनं रथम् (यक्ष्माः) राजरोगाः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (जनान्)मनुष्यान् (अनु) प्रति (पुनः) अवधारणे (तान्) रोगान् (यज्ञियाः) पूजार्हाः (देवाः) सुखदातारो वैद्याः (नयन्तु) प्रेरयन्तु (यतः) यस्मात् कारणात् (आगताः)प्राप्ताः ॥

११ माविदन्परिपन्थिनो य

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मावि॑दन्परिप॒न्थिनो॒ य आ॒सीद॑न्ति॒ दम्प॑ती।
सु॒गेन॑ दु॒र्गमती॑ता॒मप॑द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥

११ माविदन्परिपन्थिनो य ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let not the waylayers who pursue (ā-sad) [them] find the two
    spouses; let them go over what is difficult by an easy [road]; let the
    niggards run away.
Notes

Is RV. x. 85. 32, whose only variant is sugébhis in c. We had
a as xii. 1. 32 d, and d as vi. 129. 1-3 d. MB. (i. 3.
12) and Āpast. (Wint., p. 67 ⌊MP. i. 6. 10⌋) have the RV. reading. The
verse is used (Kāuś. 77. 3), with 1. 34, when the bridal train starts.
⌊The Anukr. calls the vs. dampatyoḥ paripatithināśanī⌋.

Griffith

Let not the highway thieves who lie in ambush find the wedded pair. Let wicked men’s malignities go elsewhere by an easy path.

पदपाठः

मा। वि॒द॒न्। प॒रि॒ऽप॒न्थिनः॑। ये। आ॒ऽसीद॑न्ति। दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती। सु॒ऽगेन॑। दुः॒ऽगम्। अति॑। इ॒ता॒म्। अप॑। द्रा॒न्तु॒। अरा॑तयः। १.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • दम्पती परिपन्थनाशनी
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (परिपन्थिनः)बटमार लोग (दम्पती) पति-पत्नी के (आसीदन्ति) घात में आकर बैठते हैं, (मा विदन्)वे न मिलें। (सुगेन) सुगम [मार्ग] से (दुर्गम्) कठिन स्थान को (अति) पार करके (इताम्) दोनों चले जावें और (अरातयः) शत्रु लोग (अप द्रान्तु) भाग जावें ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मार्ग चलने में स्त्री-पुरुष सावधानी से प्रबन्ध करलें कि डाकू लुटेरे आदि के उपद्रवों से बचकर कुशल सेठिकाने पर पहुँचे ॥११॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३२, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में चोर आदि से भय वा भयङ्कर स्थान होने परबोलने के लिये उद्धृत है। इस मन्त्र का चौथा पाद ऊपर आ चुका है-अ० ६।१२९।१-३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(मा विदन्) मा प्राप्नुवन्तु (परिपन्थिनः) अ० १।२७।२। प्रतिकूलाचारिणः (आसीदन्ति) आगत्य घाते तिष्ठन्ति (दम्पती) पतिपत्न्यौ (सुगेन) सुगमनीयेन मार्गेण (दुर्गम्) दुर्गम्यस्थानम् (अति) अतीत्य (इताम्) गच्छताम् (अ द्रान्तु)पलायन्ताम् (अरातयः) शत्रवः ॥

१२ सं काशयामिवहतुम्

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सं का॑शयामिवह॒तुं ब्रह्म॑णा गृ॒हैरघो॑रेण॒ चक्षु॑षा मि॒त्रिये॑ण।
प॒र्याण॑द्धंवि॒श्वरू॑पं॒ यदस्ति॑ स्यो॒नं पति॑भ्यः सवि॒ता तत्कृ॑णोतु ॥

१२ सं काशयामिवहतुम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I cause the bridal-car to be viewed by the houses with worship
    (bráhman), with a friendly, not terrible eye; what of all forms is
    fastened on about, let Savitar make that pleasant for the husbands.
Notes

Ppp. reads at the end kṛṇotu tat. According to Kāuś. 77. 14, the verse
is uttered when the train comes in sight of the house. Āpast. vi. 6
(Wint., p. 70 ⌊MP. i. 7. 10⌋) has the same verse, with the variants
māítreṇa in b, asyā́m for ásti in c, and (like Ppp.)
kṛṇotu tát at the end. The comm. to Āpast. understands c of the
ornaments worn by the bride, as indicated by the reading asyā́m. The
verse (13 + 11: 11 + 12 = 47) is but a poor jagatī.

Griffith

I look upon the house and bride’s procession with prayer and with the gentle eye of friendship. All that is covered there in perfect beauty may Savitar make pleasant to the husband.

पदपाठः

सम्। का॒श॒या॒मि॒। व॒ह॒तुम्। ब्रह्म॑णा। गृ॒हैः। अघो॑रेण। चक्षु॑षा। मि॒त्र‍िये॑ण। प॒रि॒ऽआन॑ध्दम्। वि॒श्वऽरू॑पम। यत्। अस्ति॑। स्यो॒नम्। पति॑ऽभ्यः। स॒वि॒ता। तत्। कृ॒णो॒तु॒। २.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • जगती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रह्मणा) वेदज्ञानद्वारा (गृहैः) घरों के [पदार्थों] सहित [विराजमान] (वहतुम्) वधू को (अघोरेण)अक्रूर [कोमल], (मित्रियेण) मित्रतायुक्त (चक्षुषा) नेत्र से (सम् काशयामि) मैंयथावत् दिखाता हूँ। (यत्) जो कुछ पदार्थ (विश्वरूपम्) सब प्रकार का (पर्याणद्धम्) सब ओर बँधा हुआ (अस्ति) है, (सविता) सबका प्रेरक [परमात्मा] (तत्)उस को (पतिभ्यः) पतिकुलवालों के लिये (स्योनम्) सुखदायक (कृणोतु) करे ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् वर घर मेंआयी विदुषी वधू के साथ श्रेष्ठ व्यवहार करता रहे, जिससे सब कुटुम्बी लोग घर केपदार्थों में आनन्द पावें ॥१२॥ —

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १२−(सम्) सम्यक् (काशयामि) दीपयामि। दर्शयामि (वहतुम्) वधूम्। नवोढाम् (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (गृहैः) गृहपदार्थैः सहवर्तमानाम् (अघोरेण) अक्रूरेण (चक्षुषा) नेत्रेण (मित्रियेण) मित्रत्वोपेतेन (पर्याणद्धम्) सर्वतः प्रबन्धेन धृतम् (विश्वरूपम्) सर्वप्रकारम् (यत्)पदार्थजातम् (अस्ति) (स्योनम्) सुखदम् (पतिभ्यः) पतिकुलस्थेभ्यः (सविता)सर्वप्रेरकः परमात्मा (तत्) पदार्थजातम् (कृणोतु) करोतु ॥

१३ शिवानारीयमस्तमागन्निमं धाता

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शि॒वानारी॒यमस्त॒माग॑न्नि॒मं धा॒ता लो॒कम॒स्यै दि॑देश।
ताम॑र्य॒मा भगो॑ अ॒श्विनो॒भाप्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ वर्धयन्तु ॥

१३ शिवानारीयमस्तमागन्निमं धाता ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Propitious hath this woman come to the home; Dhātar appointed this
    world (sphere) to her; her let Aryaman, Bhaga, both Aśvins, Prajāpati,
    increase with progeny.
Notes

The Anukr. takes no notice of the irregularities of the meter (9 + 11:
10 + 11 = 41). ⌊It defines the verse twice, first as triṣṭubh, then as
purobṛhatī (cf. vi. 126. 3). Pādas b and d are good triṣṭubh
pādas; and a and c will pass if we resolve naārī iyam and
taām.⌋

Griffith

She hath come home this dame come home to bless us: this her appointed world hath Dhatar shown her. So may Prajapati, and both the Asvins, Aryaman, Bhaga gladden her with offspring.

पदपाठः

शि॒वा। नारी॑। इ॒यम्। अस्त॑म्। आ। अ॒ग॒न्। इ॒मम्। धा॒ता। लो॒कम्। अ॒स्यै। दि॒दे॒श॒। ताम्। अ॒र्य॒मा। भगः॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒ऽजया॑। व॒र्ध॒य॒न्तु॒। २.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इयम्) यह (शिवा)मङ्गलदायिनी (नारी) नारी [नर की पत्नी] (अस्तम्) घर में (आ अगन्) प्राप्त होवे, (धाता) सर्वपोषक [परमात्मा] ने (अस्यै) इस [वधू] को (इमम्) यह (लोकम्) लोक [समाज] (दिदेश) दिया है। (ताम्) उस [वधू] को (अर्यमा) श्रेष्ठों का मान करनेवाला [राजा], (भगः) ऐश्वर्यवान् [आचार्य], (उभा) दोनों (अश्विना) विद्या को प्राप्त [स्त्री-पुरुषों के समाज], और (प्रजापतिः) प्रजापालक [परमेश्वर] (प्रजया) उत्तमसन्तान से (वर्धयन्तु) बढ़ावें ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब परमात्मा की कृपासे उत्तम वधू उत्तम वर को प्राप्त हो, राजा की व्यवस्था, आचार्य की शिक्षा, विद्वान् स्त्री-पुरुषों की सत्सङ्गति और परमात्मा की भक्ति से वधू-वर दोनोंगुणवान् श्रेष्ठ सन्तान उत्पन्न करें ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(शिवा) मङ्गलदायिनी (नारी) नरस्यपत्नी (इयम्) गुणवती (अस्तम्) गृहम् (आ अगन्) आगच्छतु (इमम्) दृश्यमानम् (धाता)सर्वधारकः परमेश्वरः (लोकम्) समाजम् (अस्यै) वध्वै (दिदेश) दत्तवान् (ताम्)वधूम् (अर्यमा) श्रेष्ठानां मानयिता राजा (भगः) ऐश्वर्यवानाचार्यः (अश्विना)प्राप्तविद्यौ स्त्रीपुरुषसमूहौ (प्रजापतिः) प्रजापालको जगदीश्वरः (प्रजया)श्रेष्ठसन्तानेन (वर्धयन्तु) उन्नयन्तु ॥

१४ आत्मन्वत्युर्वरा नारीयमागन्तस्याम्

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आ॑त्म॒न्वत्यु॒र्वरा॒ नारी॒यमाग॒न्तस्यां॑ नरो वपत॒ बीज॑मस्याम्।
सा वः॑प्र॒जां ज॑नयद्व॒क्षणा॑भ्यो॒ बिभ्र॑ती दु॒ग्धमृ॑ष॒भस्य॒ रेतः॑ ॥

१४ आत्मन्वत्युर्वरा नारीयमागन्तस्याम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. [As] a soulful cultivated field hath this woman come; in her
    here, O men, scatter ye seed; she shall give birth to progeny for you
    from her belly (vakṣáṇās), bearing the exuded (dugdhá) sperm of the
    male (ṛṣabhá).
Notes

A couple of our mss. (⌊E.⌋D.) read asyā́m in c. The first pāda is
capable of being compressed into 11 syllables, but with violence. Ppp.
has for b yasyān naro vapanta bījam asyāḥ, and in c janayāt.

⌊The likening of the woman to the field is very familiar later: cf. Manu
ix. 33 f. Cf. also the

ματρὸς ἄρουραν Aeschylus (Septem, 753); Sophocles’ ἀρώσιμοι γὰρ χἁτέρων
εἰσὶν γύαι (Ant., 569); Eurip. Phoen. 18; etc. My colleague, Professor
George F. Moore, calls my attention to Koran ii. 22, “Your women are
your plow-land,” in Arabic, ḥarth.—Griffith’s (not very close) version
suggests a different interpretation: he takes dugdhám as ‘milk’ of the
maternal breast. Perhaps after all we should (with W.) join it with
rétas, and in the sense of ‘milked’; but with this difference, that it
refers to the rétas which is “milked” as a result of the action
implied in páso ní galgalīti dhā́rakā at VS. xxiii. 22. Mahīdhara says
vīryaṁ kṣarati (cf. kṣīram).—This interpretation is fortified by the
use of dhayati at RV. i. 179. 4, Lópāmudrā vṛ́ṣaṇaṁ (nadáṁ) dhayati
śvasántam
.⌋

Griffith

This dame hath come, an animated corn-field: there sow, thou man, the seed of future harvest. She from her teeming side shall bear thee children, and feed them from the fountain of her bosom.

पदपाठः

आ॒त्म॒न्ऽवती॑। उ॒र्वरा॑। नारी॑। इ॒यम्। आ। अ॒ग॒न्। तस्या॑म्। न॒रः॒। व॒प॒त॒। बीज॑म्। अ॒स्या॒म्। सा। वः॒। प्र॒ऽजाम्। ज॒न॒य॒त्। व॒क्षणा॑भ्यः। बिभ्र॑ती। दु॒ग्धम्। ऋ॒ष॒भस्य॑। रेतः॑। २.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (आत्मन्वती) आत्मा [भीतरी बल] वाली (उर्वरा) उपजाऊ धरती [के समान], (इयम्) यह (नारी) नारी [नर कीपत्नी] (आ अगन्) आयी है, (नरः) हे नर ! [वर] (तस्याम्) उस (अस्याम्) ऐसी [गुणवतीवधू] में (बीजम्) बीज (वपत) बो। (सा) वह [नारी] (ऋषभस्य) वीर्यवान् पुरुष के (दुग्धम्) दूध समान (रेतः) वीर्य को (बिभ्रती) धारण करती हुई (वक्षणाभ्यः) अपनेपेट की नाड़ियों से (वः) तेरे लिये (प्रजाम्) सन्तान (जनयत्) उत्पन्न करे ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे बलवती उपजाऊ भूमिमें विधिपूर्वक जोतकर उत्तम बीज बोने से उत्तम अन्न उत्पन्न होता है, वैसे हीपूर्ण ब्रह्मचारिणी बलवती स्त्री के साथ पूर्ण ब्रह्मचारी वीर्यवान् ऋतुगामीपुरुष का यथाविधि संयोग होने से उत्तम सन्तान उत्पन्न होते हैं॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १४−(आत्मन्वती) आभ्यन्तरशक्तियुक्ता (उर्वरा) शस्योत्पादनयोग्या भूमिर्यथा, (नारी) नरस्य पत्नी (इयम्) वधूः (आ अगन्) आगमत् (तस्याम्) नार्याम् (नरः) सुपांसुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। एकवचनस्य बहुवचनम्। हे नः। नायक (वपत) तिङां तिङोभवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। एकवचनस्य बहुवचनम्। वप। प्रक्षिप (बीजम्) (अस्याम्)ईदृश्यां गुणवत्याम् (सा) (वः) पूर्ववद्बहुवचनम्। तुभ्यम् (प्रजाम्) सन्तानम् (जनयत्) जनयेत् (वक्षणाभ्यः) वक्षःस्थलेभ्यः। उदरनाडीभ्यः (बिभ्रती) धारयन्ती (दुग्धम्) क्षीरतुल्यम् (ऋषभस्य) वीर्यवतः पुरुषस्य (रेतः) वीर्यम् ॥

१५ प्रति तिष्ठविराडसि

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प्रति॑ तिष्ठवि॒राड॑सि॒ विष्णु॑रिवे॒ह स॑रस्वति।
सिनी॑वालि॒ प्र जा॑यतां॒ भग॑स्यसुम॒ताव॑सत् ॥

१५ प्रति तिष्ठविराडसि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Stand firm; virā́j art thou; as it were, Vishṇu here, O Sarasvatī;
    O Sinīvālī, let her have progeny; may she be in the favor of Bhaga.
Notes

Kāuś. 76. 33 uses the verse to accompany the act of making the bride
stand firm after rising from the couch. The Anukr. forbids us to
abbreviate to ’va in b. In Ppp. a considerable part of the verse
is lost. The second half-verse appears again below as 21 c, d.

Griffith

Take thou thy stand, a Queen art thou, like Vishnu here, Sarasvati! O Sinivali, let her bear children, and live in Bhaga’s grace.

पदपाठः

प्रति॑। ति॒ष्ठ॒। व‍ि॒ऽराट्। अ॒सि॒। विष्णु॑ऽइव। इ॒ह। स॒र॒स्व॒ति॒। सिनी॑वालि। प्र। जा॒य॒ता॒म्। भग॑स्य। सु॒ऽम॒तौ। अ॒स॒त्। १.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • भुरिक् अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वति) हे सरस्वती ! [श्रेष्ठ विज्ञानवाली] (प्रति तिष्ठ) दृढ़ रह, (विष्णुः इव) व्यापक सूर्य केसमान तू (इह) यहाँ पर [गृहाश्रम में] (विराट्) विविध प्रकार ऐश्वर्यवाली (असि)है। (सिनीवालि) हे अन्नवाली पत्नी ! [तुझसे] (प्रजायताम्) उत्तम सन्तान उत्पन्नहोवे और वह [सन्तान] (भगस्य) भगवान् [ऐश्वर्यवान् परमात्मा] की (सुमतौ) सुमतिमें (असत्) रहे ॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - गर्भवती स्त्रीविज्ञानपूर्वक समर्थ होकर वेदादि शास्त्रों के स्वाध्याय और बड़े-बड़े पुरुषोंके चरित्रों के विचार से श्रेष्ठ धर्मात्मा ईश्वरभक्त सन्तान उत्पन्न करे॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १५−(प्रति तिष्ठ) दृढं वर्तस्व (विराट्) विविधैश्वर्यवती (असि) (विष्णुः)व्यापकः सूर्यः (इव) यथा (इह) अस्मिन् गृहाश्रमे (सरस्वति) हे श्रेष्ठविज्ञानवति (सिनीवालि) अ० २।२६।२। षिञ् बन्धने-नक्, ङीप्+बल संवरणे, यद्वा बल जीवने-दानेच-अण्, ङीप्। सिनीवाली सिनमन्नं भवति सिनाति भूतानि बालं पर्ववृणोतेस्तस्मिन्नन्नवती-निरु० ११।३१। हे अन्नवति पत्नि (प्र जायताम्)उत्तमसन्तान उत्पद्यताम् (भगस्य) ऐश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (सुमतौ) धार्मिकबुद्धौ (असत्) भवेत् ॥

१६ उद्व ऊर्मिःशम्या

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उद्व॑ ऊ॒र्मिःशम्या॑ ह॒न्त्वापो॒ योक्त्रा॑णि मुञ्चत।
मादु॑ष्कृतौ॒व्ये᳡नसाव॒घ्न्यावशु॑न॒मार॑ताम् ॥

१६ उद्व ऊर्मिःशम्या ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let your wave smite up the pegs; O waters, release the yoke-ropes
    (yóktra); let not the two inviolable [kine], not evil-doing, free
    from guilt, come upon what is unpropitious (? áśuna).
Notes

The verse is RV. iii. 33. 13, which, however, reads śū́nam for áśunam
in d, and vyènasā for -sāu in d; and Ppp. agrees with RV.
⌊W’s “[kine]” seems to overlook the gender of aghnyāú: see
Griffith’s note, p. 174.⌋ Kāuś. 77. 15 makes the verse accompany the
sprinkling of the car and unyoking of the oxen at the end of the bridal
journey.

Griffith

So let your wave bear up the pins, and ye, O Waters, spare the thongs; And never may the holy pair, sinless and innocent, suffer harm.

पदपाठः

उत्। वः॒। ऊ॒र्मिः। शम्याः॑। ह॒न्तु॒। आपः॑। योक्त्रा॑णि। मु॒ञ्च॒त॒। मा। अदुः॑ऽकृतौ। विऽए॑नसौ। अ॒घ्न्यौ। अशु॑नम्। आ। अ॒र॒ता॒म्। १.१६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे स्त्री-पुरुषो !] (वः) तुम्हारी (ऊर्मिः) उत्साहरूपी लहर (उत् हन्तु) ऊँची चले, (आपः) हे आप्तप्रजाओ ! (शम्याः) कर्मकुशल होकर तुम (योक्त्राणि) निन्दित कर्मों को (मुञ्चत)छोड़ो। (अदुष्कृतौ) दुष्ट आचरण न करनेवाले, (व्येनसौ) पापरहित, (अघ्न्यौ) नहींमारने योग्य [दोनों स्त्री-पुरुष] (अशुनम्) दुःख (मा आ अरताम्) कभी न पावें ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब कर्मकुशल स्त्री-पुरुष निन्दित कर्मों को छोड़कर शुभ कर्मों में अपना उत्साह बढ़ावें, जिन केअनुकरण से यह दम्पती पापों से मुक्त रहकर धर्मात्मा होते हुए उत्तम सन्तानों केसाथ सुख भोगें ॥१६॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−३।३३।१३ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १६−(उत्) उपरि (वः) युष्माकम् (ऊर्मिः) ऋ गतौ-मि प्रत्ययः। उत्साहरूपतरङ्गः (शम्याः) कर्मनामनिघ० २।१। शमी-यत्। शमीषु कर्मसु कुशलाः (हन्तु) गच्छतु (आपः) हे आप्तप्रजाः (योक्त्राणि) युज निन्दायाम्−ष्ट्रन्प्रत्ययः, नित्स्वरः। निन्दितकर्माणि (मुञ्चत) त्यजत (मा) निषेधे (अदुष्कृतौ) अदुष्टकर्माणौ (व्येनसौ) विगतपापौ (अघ्न्यौ) हन्तुमनर्हौ स्त्रीपुरुषौ (अशुनम्) शुन गतौ-क। शुनं सुखनाम-निघ० ३।६।सुखरहितं दुःखम् (आ) समन्तात् (अरताम्) ऋ गतौ-लुङ्। प्राप्नुताम् ॥

१७ अघोरचक्षुरपतिघ्नी स्योना

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अघो॑र-चक्षु॒र् अप॑तिघ्नी स्यो॒ना
श॒ग्मा सु॒शेवा॑ सु॒यमा॑ गृ॒हेभ्यः॑ ।
वी॒रसूर् दे॒वका॑मा॒ सं त्वयै॑धिषीमहि सुमन॒स्यमा॑ना ॥१७॥

१७ अघोरचक्षुरपतिघ्नी स्योना ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. With an eye not terrible, not husband-slaying, pleasant, helpful
    (śagmá), very propitious, of easy control (suyáma) for the houses,
    hero-bearing, loving brothers-in-law (?), with favoring mind—may we
    thrive together with thee.
Notes

The concluding word is here rendered as the text gives it, but there is
little question that it ought to be emended (with Ppp.) to -mānāḥ, as
qualifying ‘we.’ This verse and the next are a sort of duplication and
variation of RV. x. 85. 44; our a here is nearly the same with the
first pāda of that verse, which, however, reads edhi for our syonā.
Ppp. makes our 17 c, d and 18 c, d change places, reading for
the former vīrasūr devakāmā syonāṁ tvedhiṣīmahi sumanasyamānāḥ. Our
mss. are divided in c between devṛ́kāmā and devák-, the majority
(not Bp.Bs.p.m.E.O.D.) having, with RV. and Ppp., the latter, which is
therefore more probably the true reading. Ppp. has in a (like RV.)
edhi but with syonā after it ⌊a “blend-reading” such as the Vulgate
shows at vs. 18?⌋; and, in b, sūyamā gṛheṣu. ⌊Cf. MP. i. 1. 4;
MGS. i. 10. 6, and p. 146.⌋ The verse accompanies in Kāuś. 77. 22 the
leading of the bride thrice about the fire. PCS. i. 4. 16 and HGS. i.
20.2 have it in its RV. form, with slight variants in HGS. Our verse (11

  • 11: 7 + 13 = 42) is metrically much too irregular to be set down as
    simply a triṣṭubh.
Griffith

Not evil-eyed no slayer of thy husband, be strong, mild, kind, and gentle to thy household. Mother of heroes, love thy husband’s father: be happy, and through thee may we too prosper.

पदपाठः

अघो॑रऽचक्षुः। अप॑तिऽघ्नी। स्यो॒ना। श॒ग्मा। सु॒ऽशेवा॑। सु॒ऽयमा॑। गृ॒हेभ्यः॑। वी॒र॒ऽसूः। दे॒वृऽका॑मा। सम्। त्वया॑। ए॒धि॒षी॒म॒हि॒। सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना। २.१७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] तू (गृहेभ्यः) घरवालों के लिये (अघोरचक्षुः) प्रिय दृष्टिवाली, (अपतिघ्नी) पति को नसतानेवाली, (स्योना) सुखदायिनी (शग्मा) कार्यकुशला, (सुशेवा) सुन्दर सेवा योग्य, (सुयमा) अच्छे नियमोंवाली, (वीरसूः) वीरों की उत्पन्न करनेवाली, (देवृकामा)देवरों [पति के छोटे-बड़े भाइयों] से प्रीति रखनेवाली और (सुमनस्यमाना) प्रसन्नचित्तवाली [रह], (त्वया) तेरे साथ (सम् एधिषीमहि) हम मिलकर बढ़ते रहें ॥१७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - गृहपत्नी कर्मकुशलहोकर शुद्ध अन्तःकरण से सदा सबका हित करे, जिससे सब घर वृद्धि करता जावे ॥१७॥यहऔर आगे का मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।८५।४४, और यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू-वर के यज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणाकरने में और फिर वर के घर पहुँचकर उनके आज्याहुति देने में व्याख्यात है॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १७−(अघोरचक्षुः) अभयङ्करनेत्री (अपतिघ्नी) पत्युरहिंसित्री (स्योना) सुखप्रदा (शग्मा) युजिरुचितिजां कुश्च। उ० १।१४९। शक्लृ शक्तौ-मक्, कस्य गः, अर्शआद्यच्, टाप्। शक्म शग्म कर्मनाम-निघ० १।२। कर्मकुशला (सुशेवा) सुसेवनीया (सुयमा)सुनियमवती (गृहेभ्यः) गृहपुरुषेभ्यः (वीरसूः) वीराणां प्रसवित्री (देवृकामा)देवृषु पतिभ्रातृषु प्रीतियुक्ता (सम्) सम्यक् (एधिषीमहि) वर्धिषीमहि (सुमनस्यमाना) प्रसन्नचित्ता ॥

१८ अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि शिवा

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अदे॑वृ॒घ्न्यप॑तिघ्नी॒हैधि॑ शि॒वा प॒शुभ्यः॑ सु॒यमा॑ सु॒वर्चाः॑।
प्र॒जाव॑तीवीर॒सूर्दे॒वृका॑मा स्यो॒नेमम॒ग्निं गार्ह॑पत्यं सपर्य ॥

१८ अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि शिवा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Not brother-in-law-slaying, not husband-slaying be thou here,
    propitious to the cattle, of easy control, very splendid, having
    progeny, hero-bearing, loving brothers-in-law (?), pleasant, do thou
    worship (sapary) this householder’s fire.
Notes

Our mss. differ, as in the preceding verse, between devṛ́kāmā and
devák- in c. The first three pādas agree nearly with RV. x. 85. 44
a-c, but the latter begins a with ághoracakṣus (like our 17
a) ⌊and omits ihá⌋, reads sumánās instead of suyámā in b,
and in c omits prajā́vatī and gives devákāmā; its fourth pāda is
the commonplace phrase śáṁ no bhava dvipáde śáṁ cátuṣpade. Ppp. reads
for a, b: adevaraghni patiraghny edhi syonaṣ paśubhyas sumanas
suvīraḥ;
and, for c, d (given, as noted above, as second half of
the preceding verse): prajāvatī vīrasūr devṛkāme ’mam agn- etc.; it
thus gets rid of the syonā whose apparent intrusion spoils the
triṣṭubh-character of our c, d. ⌊The ms. reckons syonā́ to d
(by placing the mark of pāda-division before it); but the integrity of
imám etc. as a pāda (without syonā́) is palpable. Likely our text
represents a blend of two readings: vīrasū́ur devákāmā sionā́ (RV.), and
prajā́vatī vīrasū́r devṛ́kāmā (Ppp.): cf. under vs. 17.—Perhaps the
corruption at xviii. 1. 39 below is in part due to a confused blending
of two readings.⌋

Griffith

No slayer of thy husband or his father, gentle and bright, bring blessing on the cattle. Loving thy husband’s father, bring forth heroes. Tend well this household fire: be soft and pleasant.

पदपाठः

अदे॑वृऽघ्नी। अप॑तिऽघ्नी। इ॒ह। ए॒धि॒। शि॒वा। प॒शुऽभ्यः॑। सु॒ऽयमा॑। सु॒ऽवर्चाः॑। प्र॒जाऽव॑ती। वी॒र॒ऽसूः। दे॒वृऽका॑मा। स्यो॒ना। इ॒मम्। अ॒ग्निम्। गार्ह॑ऽपत्यम्। स॒प॒र्य॒। २.१८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (अपतिघ्नी) पति को न सतानेवाली, (अदेवृघ्नी) देवरों को न कष्टदनेवाली, (शिवा) मङ्गल करनेवाली, (पशुभ्यः) के लिये (सुयमा) सुन्दर नियमोंवाली (सुवर्चाः) बड़े तेजवाली (एधि) हो। (प्रजावती) श्रेष्ठ प्रजाओं [सेवक आदि]रखनेवाली, (वीरसूः) वीरों की उत्पन्न करनेवाली, (देवृकामा) देवरों से प्रीतिकरनेवाली, (स्योना) सुखयुक्त तू (गार्हपत्यम्) गृहस्थसम्बन्धी (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि को (सपर्य) सेवन कर ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - गृहिणी को चाहिये किअपने पति और सब कुटुम्बियों और पशुओं को प्रसन्न रखकर उत्तम सन्तान उत्पन्न करेऔर गृहकार्य की सिद्धि के लिये शिल्पकर्म, हवनकर्म और पाकक्रिया आदि में अग्निका यथावत् प्रयोग करती रहे ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १८−(अदेवृघ्नी) देवॄणामहिंसित्री (अपतिघ्नी) (इह)अस्मिन् गृहाश्रमे (एधि) भव (शिवा) हितकरी (पशुभ्यः) गवादिभ्यः (सुयमा)शोभननियमयुक्ता (सुवर्चाः) बहुतेजाः (प्रजावती) श्रेष्ठसेवकादिभिः युक्ता (देवृकामा) म० १७ (स्योना) (इमम्) प्रसिद्धम् (अग्निम्) भौतिकमग्निम् (गार्हपत्यम्) गृहपतिसम्बन्धिनम् (सपर्य) सपर्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।५। सेवस्व॥

१९ उत्तिष्ठेतःकिमिच्छन्तीदमागा अहम्

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उत्ति॑ष्ठे॒तःकिमि॒च्छन्ती॒दमागा॑ अ॒हं त्वे॑डे अभि॒भूः स्वाद्गृ॒हात्।
शू॑न्यै॒षी नि॑रृते॒याज॒गन्धोत्ति॑ष्ठाराते॒ प्र प॑त॒ मेह रं॑स्थाः ॥

१९ उत्तिष्ठेतःकिमिच्छन्तीदमागा अहम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Stand up from here; desiring what hast thou (f.) come hither? I
    [am] thine overcomer, O Iḍā, out of [my] own house; thou that hast
    come hither, O perdition, seeking the empty—stand up, O niggard; fly
    forth; rest not here.
Notes

This exorcism accompanies, according to Kāuś. 77. 16, a complete
sprinkling of her new home by the bride. All our mss. ⌊and all SPP’s
authorities⌋ have at end of c ājagándha; our edition ⌊not SPP’s⌋
makes the, as it seems, necessary emendation to -ntha, which Ppp. also
appears to have. ⌊See Roth, ZDMG. xlviii. 108.⌋ Ppp. further reads in
a -ṭhā ’daṣ kim, combines ā ’gā ’haṁ, and begins c with
aśūnyeṣī. In b the translation assumes the pada-reading
iḍe—not īḍe, as previous translators prefer to understand; it is
hard to tell which word is more out of place. The verse is once more a
very poor sort of triṣṭubh. ⌊It may be counted as 44 syllables. Pādas
a, b, c scan easily as 11 + 12: 11; but the good triṣṭubh cadence
of d casts suspicion on the integrity of its prior part.⌋

Griffith

Up and begone! What wish hath brought thee hither from thine own house? Thy mightier, I conjure thee. Vain is the hope, O Nirriti, that brought thee. Fly off, Malignity; stay here no longer.

पदपाठः

उत्। ति॒ष्ठ॒। इ॒तः। किम्। इ॒च्छन्ती॑। इ॒दम्। आ। अ॒गाः॒। अ॒हम्। त्वा॒। ई॒डे॒। अ॒भि॒ऽभूः। स्वात्। गृ॒हात्। शू॒न्य॒ऽए॒षी। निः॒ऽऋ॒ते॒। या। आ॒ऽज॒गन्ध॑। उत्। ति॒ष्ठ॒। अ॒रा॒ते॒। प्र। प॒त॒। मा। इह। रं॒स्थाः॒। १.१९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (निर्ऋते) हे अलक्ष्मी ! [दरिद्रता आदि] (इतः) यहाँ से [सुप्रबन्धयुक्त घर से] (उत् तिष्ठ) उठ, (किम्)क्या [बुरा] (इच्छन्ती) चाहती हुई (इदम्) इस [घर में] (आ अगः) तू आयी है, (अभिभूः) विजयी (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (स्वात् गृहात्) अपने घर से (ईडे=ईरे)निकालता हूँ। (शून्यैषी) शून्य [निर्जनपन] चाहनेवाली (या) जो तू (आजगन्ध) आयीहै, (अराते) हे कंजूसिन (उत् तिष्ठ) उठ, (प्र पत) चलती हो, (इह) यहाँ (मारंस्थाः) मत ठहर ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस घर में स्त्री-पुरुष विद्वान् चतुर कार्यकुशल होते हैं, वहाँ पर दरिद्रता, कंजूसी आदिदुर्विघ्न नहीं रहते, वह घर धन-धान्य से भरा-पूरा सदा मङ्गलमय रहता है॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १९−(उत्तिष्ठ) दूरे गच्छ (इतः) अस्मात् सुप्रबन्धयुक्तगृहात् (किम्) अहितम् (इच्छन्ती) (इदम्) गृहम् (आ अगाः) आगतवती (अहम्) पुरुषार्थी गृहस्थः (त्वा)त्वाम् (ईडे) रस्य डः। ईरे। प्रेरयामि (अभिभूः) अभिभविता। विजयी (स्वात्) (गृहात्) (शून्यैषी) शूनायै प्राणिहिंसायै हितम्, शूना-यत्+इष इच्छायाम्-अच्, ङीप्। निर्जनत्वमिच्छन्ती (निर्ऋते) अ० १।३१।२। हे कृच्छ्रापत्ते-निरु० २।७। हेअलक्ष्मि (या) या त्वम् (आजगन्ध) थस्य धः। आजगन्थ। आगतवती (उत्तिष्ठ) (अराते) हेअदानशीले (प्रपत) बहिर्गच्छ (इह) अस्मिन् गृहे (मा रंस्थाः) नैवोपरम ॥

२० यदागार्हपत्यमसपर्यैत्पूर्वमग्निं वधूरियम्

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य॒दागार्ह॑पत्य॒मस॑पर्यै॒त्पूर्व॑म॒ग्निं व॒धूरि॒यम्।
अधा॒ सर॑स्वत्यै नारिपि॒तृभ्य॑श्च॒ नम॑स्कुरु ॥

२० यदागार्हपत्यमसपर्यैत्पूर्वमग्निं वधूरियम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. When this bride hath worshiped the householder’s, the former
    (pū́rva) fire, then, O woman, do thou pay homage to Sarasvatī and to
    the Fathers.
Notes

Ppp. (which not rarely substitutes āi for ī) seems to agree with all
our mss. in reading asaparyāit ⌊see the note to vi. 32. 2⌋. Prāt. ii.
65 prescribes the combination námas k- in d. The first pāda (10
syll.) is both irregular and defective. By Kāuś. 77. 23, the ver.se,
with vs. 46 below, is to accompany the homage paid by the bride to the
deities mentioned.

Griffith

As first of all this woman hath adored the sacred household fire. So do thou, Dame, pay homage to the Fathers and Sarasvati.

पदपाठः

य॒दा। गार्ह॑ऽपत्यम्। अस॑पर्यैत्। पूर्व॑म्। अ॒ग्निम्। व॒धूः। इ॒यम्। अध॑। सर॑स्वत्यै। ना॒रि॒। पि॒तृऽभ्यः॑। च॒। नमः॑। कु॒रु॒। २.२०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • पुरस्ताद् बृहती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यदा) जब (इयम् वधू)इस वधू ने (गार्हपत्यम्) गृहस्थसम्बन्धी (अग्निम्) अग्नि को (पूर्वम्) पहिले से (असपर्यैत्) सेवन किया है। (अध) इसलिये (नारि) हे नारी ! (सरस्वत्यै) सरस्वती [विज्ञान के भण्डार परमेश्वर] को (च) और (पितृभ्यः) पितरों [पिता समान मान्यपुरुषों] को (नमः) नमस्कार (कुरु) कर ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमेश्वर की औरजिन महान् पुरुषों की कृपा से इस वधू ने हवन, शिल्प, अन्न, ओषधि आदि में अग्निकी विद्या को यथावत् जाना है, उस परमेश्वर और उन बड़े लोगों को वह कुलवधू सदाधन्यवाद देती रहे ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २०−(यदा) यस्मिन् काले (गार्हपत्यम्) गृहपतिसंबन्धिनम् (असपर्यैत्) असपर्यत्। सेवितवती (पूर्वम्) अग्रे (अग्निम्) अग्निविद्याम् (वधू) (इयम्) (अध) अथ (सरस्वत्यै) सरो विज्ञानं विद्यते यस्यां चितौ सा सरस्वती, तस्यै। सर्वविज्ञानवते परमेश्वराय (नारि) हे नरस्य पत्नि (पितृभ्यः)पितृतुल्यमान्येभ्यः (च) (नमः) नमस्कारम् (कुरु) ॥

२१ शर्म वर्मैतदाहरास्यै

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शर्म॒ वर्मै॒तदाह॑रा॒स्यै नार्या॑ उप॒स्तिरे॑।
सिनी॑वालि॒ प्र जा॑यतां॒ भग॑स्य सुम॒ताव॑सत्॥

२१ शर्म वर्मैतदाहरास्यै ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Take this protection, defense, to spread under this woman; O
    Sinīvālī, let her have progeny; may she be in the favor of Bhaga.
Notes

The second half-verse is the same with 15 c, d above. The rendering
implies ⌊after nā́ryāi in b⌋ an emendation to upastíre
(infinitive), which is the reading of Ppp. The Āpast. text (Wint., p. 71
⌊MP. i. 8. 1⌋) also has it; further, in a it has idám ā́ bhara,
and, in d, iyám inserted before bhágasya. In Kāuś. 78. 1, the
verse is directed to be uttered while he (the bridegroom?) brings the
hide of a red ox.

Griffith

Take thou this wrapper as a screen, to be a covering for the bride O Sinivali, let her bear children, and live in Bhaga’s grace.

पदपाठः

शर्म॑। वर्म॑। ए॒तत्। आ। ह॒र॒। अ॒स्यै। नार्यै॑। उ॒प॒ऽस्तरे॑। सिनी॑वालि। प्र। जा॒य॒ता॒म्। भग॑स्य। सु॒ऽम॒तौ। अ॒स॒त्। २.२१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (एतत्) यह [गृहकार्यरूप] (शर्म) सुखदायक (वर्म) कवच (अस्यै नार्यै) इस नारी को (उपस्तिरे) ओढ़ने के लिये (आ हर) ला। (सिनीवालि) हे अन्नवाली पत्नी ! [तुझ से] (प्र जायताम्) उत्तम सन्तान उत्पन्न होवे, और वह [सन्तान] (भगस्य) भगवान् [ऐश्वर्यवान् परमात्मा] की (सुमतौ) सुमति में (असत्) रहे ॥२१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पति आदि सब वधू को गृहकार्य में सदा सहाय देवें, जैसे योद्धा को कवच रणक्षेत्र में सहाय देता है, औरसब पुरुष उस वधू के वीर ईश्वरभक्त सन्तान से सुख प्राप्त करें ॥२१॥इस मन्त्र काउत्तरार्द्ध ऊपर मन्त्र १५ में आचुका है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २१−(शर्म) सुखप्रदम् (वर्म) कवचम् (एतत्) (आ हर) आनय (अस्यै) (नार्यै) (उपस्तिरे) अवचक्षे च। पा० ३।४।१५। स्तृञ्स्तॄञ् आच्छादने-एश् प्रत्ययो बाहुलकात् तुमर्थे। उपस्त्रे। उपस्तर्तुम्।आच्छादयितुम्। अन्यद् व्याख्यातम्-म० १५ ॥

२२ यं बल्बजन्न्यस्यथ

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यं बल्ब॑जं॒न्यस्य॑थ॒ चर्म॑ चोपस्तृणी॒थन॑।
तदा रो॑हतु सुप्र॒जा या क॒न्या᳡ वि॒न्दते॒पति॑म् ॥

२२ यं बल्बजन्न्यस्यथ ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What rushes (bálbaja) ye cast down, and [what] hide ye spread
    under, that let the girl (kanyā̀) of good progeny mount, who finds a
    husband.
Notes

Balbaja is the Eleusine indica, a coarse rush-like grass. In Ppp.,
the parts of vss. 22 and 23, and of 24 and 25, are more or less
exchanged. In Kāuś. 78, the second pāda is first quoted (in 2), after
our vs. 21; then follows (in 3) a, then (in 4) the first part of vs.
23, then (in 5) our c, then (in 6) the second half of vs. 23, all
accompanying the corresponding acts of preparing a seat for the bride,
that she may take a Brahman-boy into her lap, to encourage the
obtainment of male progeny. It may be that Ppp. follows with its changed
order the succession of the acts as given in Kāuś.

Griffith

Let her who shall be blest with sons, the maid who finds a. husband, step Upon the rough grass that ye spread and on the skin ye lay beneath.

पदपाठः

यम्। बल्ब॑जम्। नि॒ऽअस्य॑थ। चर्म॑। च॒। उ॒प॒ऽस्तृ॒णी॒थन॑। तत्। आ। रो॒ह॒तु॒। सु॒ऽप्र॒जाः। या। क॒न्या᳡। वि॒न्दते॑। पति॑म्। २.२२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (यम्)जिस (बल्बजम्) बल्बज [तृणविशेष के आसन] को (न्यस्यथ) तुम बिछाते हो (च) और (चर्म) [मृग सिंह आदि का चर्म, उस पर] (उपस्तृणीथन) तुम फैलाते हो। (सुप्रजाः)सुन्दर जन्मवाली (कन्या) वह कन्या [कमनीया वधू] (तत्) उस पर (आ रोहतु) ऊँचीबैठे, (या) जो (पतिम्) पति को (विन्दते) पाती है ॥२२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - घर के विद्वान् लोगयोग्य आसन आदि से पतिव्रता कुलवधू का आदर-सत्कार करते रहें ॥२२॥(बल्बज) एक तृणविशेष मूँज वा कुश का भेद है, जिससे मूँज न मिलने पर मेखला बनाने को मनु० २।४३। मेंलिखा है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २२−(यम्) (बल्बजम्) अशूप्रुषिलटि–०। उ० १।१५१। बल संवरणेवेष्टने-क्वन्+जन-ड। बलते भुवं वेष्टयतीति बल्बः पर्वतस्तत्र जायते।तृणविशेषासनम्। मुञ्जभेदम्-यथा मनु० २।४३। (न्यस्यथ) निक्षिपथ (चर्म)सिंहमृगादिचर्म (च) (उपस्तृणीथन) आच्छादयथ (तत्) आसनम् (आ रोहतु) आतिष्ठतु (सुप्रजाः) जनी प्रादुर्भावे-विट्। सुजन्मा (या) (कन्या) कमनीया वधू (विन्दते)लभते (पतिम्) भर्तारम् ॥

२३ उप स्तृणीहिबल्बजमधि

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उप॑ स्तृणीहि॒बल्ब॑ज॒मधि॒ चर्म॑णि॒ रोहि॑ते।
तत्रो॑प॒विश्य॑ सुप्र॒जा इ॒मम॒ग्निं स॑पर्यतु॥

२३ उप स्तृणीहिबल्बजमधि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Spread under the rushes upon the red hide; sitting down upon it, of
    good progeny, let her worship this fire.
Notes

Bp.E. ⌊and SPP’s C.⌋ read at the end saparyata. For the use in Kāuś.,
see the preceding note. The second half-verse is used again in 79. 5,
when the bride sits down on the nuptial bed.

Griffith

Over the ruddy-coloured skin strew thou the grass, the Balbuja. Let her, the mother of good sons, sit there and serve this Agni here.

पदपाठः

उप॑। स्तृ॒णी॒हि॒। बल्ब॑जम्। अधि॑। चर्म॑णि। रोहि॑ते। तत्र॑। उ॒प॒ऽविश्य॑। सु॒ऽप्र॒जाः। इ॒मम्। अ॒ग्निम्। स॒प॒र्य॒तु। २.२३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (रोहिते) रोहित [हरिणविशेष] के (चर्मणि अधि) चर्म पर (बल्बजम्) बल्बज [तृणविशेष का आसन] (उपस्तृणीहि) तू फैला। (तत्र) उस पर (सुप्रजाः) सुन्दर जन्मवाली वधू (उपविश्य)बैठकर (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि [व्यापक परमेश्वर वा भौतिक अग्नि] की (सपर्यतु)सेवा करे ॥२३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वानों के दिये आसनपर बैठकर कुलवधू परमेश्वर की उपासना और यज्ञ आदि में अग्नि का प्रयोग करे॥२३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २३−(उप स्तृणीहि) आच्छादय (बल्बजम्) म० २२। तृणविशेषासनम् (अधि) उपरि (चर्मणि) म० २२। (रोहिते) रोहित-अर्शआद्यच्। मृगविशेषसम्बन्धिनि।गोकर्णपृषतैणर्श्यरोहिताश्चमरो मृगाः। अमर० १५।१०। (तत्र) आसने (उपविश्य) (सुप्रजाः) सुजन्मा वधू (इमम्) प्रसिद्धम् (अग्निम्) व्यापकं परमेश्वरंभौतिकाग्निं वा (सपर्यतु) परिचरतु ॥

२४ आ रोह

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आ रो॑ह च॒र्मोप॑सीदा॒ग्निमे॒ष दे॒वो ह॑न्ति॒ रक्षां॑सि॒ सर्वा॑।
इ॒ह प्र॒जां ज॑नय॒ पत्ये॑अ॒स्मै सु॑ज्यै॒ष्ठ्यो भ॑वत्पु॒त्रस्त॑ ए॒षः ॥

२४ आ रोह ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Mount the hide; sit by the fire; this god slays all the demons; here
    give birth to progeny for this husband; may this son of thine be of good
    primogeniture.
Notes

The last pāda is used by Kāuś. 78. 8 as the boy is seated in the bride’s
lap, though unsuited to the purpose unless forced out of its natural
meaning. ⌊Cf. Wint., p. 75.⌋ There must be some error in the Anukr. text
relating to this verse and vs. 25 (which are triṣṭubh) and vs. 32 (see
below).

Griffith

Step on the skin and wait upon this Agni: he is the God who drives away all demons. Here bear thou children to this man thy husband: let this thy boy be happy in his birthnight.

पदपाठः

आ। रो॒ह॒। चर्म॑। उप॑। सी॒द॒। अ॒ग्निम्। ए॒षः। दे॒वः। ह॒न्ति॒। रक्षां॑सि। सर्वा॑। इ॒ह। प्र॒ऽजाम्। ज॒न॒य॒। पत्ये॑। अ॒स्मै। सु॒ऽज्यै॒ष्ठ्यः। भ॒व॒त्। पु॒त्रः। ते॒। ए॒षः। २.२४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (चर्म)चर्म [मृग सिंह आदि के चर्म] पर (आ रोह) ऊँची बैठ, (अग्निम्) अग्नि [व्यापकपरमात्मा वा भौतिक अग्नि] की (उप सीद) सेवा कर (एषः देवः) यह देवता (सर्वा) सब (रक्षांसि) राक्षसों [विघ्नों] को (हन्ति) नाश करता है। (इह) यहाँ [गृहाश्रममें] (अस्मै पत्ये) इस पति के लिये (प्रजाम्) सन्तान (जनय) उत्पन्न कर, (एषः) यह (ते पुत्रः) तेरा पुत्र (सुज्यैष्ठ्यः) बड़े ज्येष्ठपनवाला [आयु में वृद्ध और पदमें श्रेष्ठ] (भवत्) होवे ॥२४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वधू सावधान और प्रसन्नचित्त होकर परमेश्वर की उपासना और हवन आदि क्रिया करे और विद्वान् लोग चिरजीवीपुरुषार्थी सन्तान उत्पन्न करने के लिये वधू को हित शिक्षा और आशीर्वाद देवें॥२४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २४−(आ रोह) आतिष्ठ (चर्म) म० २२ (उप सीद) उपतिष्ठ (अग्निम्) व्यापकंपरमात्मानं भौतिकाग्निं वा (एषः) (देवः) (हन्ति) नाशयति (रक्षांसि) विघ्नान् (सर्वा) सर्वाणि (इह) गृहाश्रमे (प्रजाम्) सन्तानम् (जनय) उत्पादय (पत्ये)स्वामिने (अस्मै) (सुज्यैष्ठ्यः) ज्येष्ठ-भावे ष्यञ्। आयुषा सुवृद्धः पदेनसुश्रेष्ठो वा (भवत्) भवेत् (पुत्रः) (ते) तव (एषः) ॥

२५ वि तिष्ठन्ताम्मातुरस्या

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वि ति॑ष्ठन्तांमा॒तुर॒स्या उ॒पस्था॒न्नाना॑रूपाः प॒शवो॒ जाय॑मानाः।
सु॑मङ्ग॒ल्युप॑सीदे॒मम॒ग्निं संप॑त्नी॒ प्रति॑ भूषे॒ह दे॒वान् ॥

२५ वि तिष्ठन्ताम्मातुरस्या ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let there come forth (vi-sthā) from the lap of this mother animals
    (paśú) of various forms, being born; as one of excellent omen, sit
    thou by this fire; with thy husband (sámpatnī), be thou serviceable to
    the gods here.
Notes

In Kāuś. 78. 9 this verse accompanies the removal of the boy again from
the bride’s lap. The verse is a pure triṣṭubh. ⌊W. pencils the note
“cf. K. xxxix. 10."⌋

Griffith

Let many babes of varied form and nature spring in succession from this fruitful mother. Wait on this fire, thou bringer of good fortune. Here with thy husband serve the Gods with worship.

पदपाठः

वि। ति॒ष्ठ‌॒न्ता॒म्। मा॒तुः। अ॒स्याः। उ॒पऽस्था॑त्। नाना॑ऽरूपाः। प॒शवः॑। जाय॑मानाः। सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली। उप॑। सी॒द॒। इ॒मम्। अ॒ग्निम्। सम्ऽप॑त्नी। प्रति॑। भू॒ष॒। इ॒ह। दे॒वान्। २.२५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्याः मातुः) इसमाता की (उपस्थात्) गोद से (नानारूपाः) नाना स्वभाववाले, (जायमानाः) प्रसिद्धहोते हुए (पशवः) दृष्टिवाले विद्वान् लोग (वि) विविध प्रकार (तिष्ठन्ताम्)उपस्थित हों। (सुमङ्गली) बड़ी मङ्गलवाली तू (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि [व्यापकपरमेश्वर वा भौतिक अग्नि] की (उप सीद) सेवा कर, और (संपत्नी) पतिसहित तू (इह)यहाँ [गृहाश्रम में] (देवान् प्रति) विद्वानों के लिये (भूष) शोभायमान हो ॥२५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग उपायपूर्वक आशीर्वाद दें कि उस वधू की पूरी ध्यानक्रिया के कारण अनेक दूरदर्शी वीरकीर्तिमान् सन्तान उत्पन्न होवें, और वह सौभाग्यवती विद्वानों का मान करके शोभाप्राप्त करे ॥२५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २५−(वि) विविधम् (तिष्ठन्ताम्) वर्तन्ताम् (मातुः) जनन्याः (अस्याः) (उपस्थात्) क्रोडात् (नानारूपाः) बहुस्वभावाः (पशवः) बहुदर्शिनो देवाविद्वांसः (जायमानाः) प्रादुर्भवन्तः (सुमङ्गली) बहुमङ्गलवती (उप सीद) परिचर (इमम्) (अग्निम्) व्यापकं परमात्मानं भौतिकाग्निं वा (संपत्नी) पतिसहिता (प्रति) (भूष) शोभस्व (इह) गृहाश्रमे (देवान्) विदुषः पुरुषान् ॥

२६ सुमङ्गलीप्रतरणी गृहाणाम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

सु॑मङ्ग॒लीप्र॒तर॑णी गृ॒हाणां॑ सु॒शेवा॒ पत्ये॒ श्वशु॑राय शं॒भूः।
स्यो॒ना श्व॒श्र्वै प्रगृ॒हान्वि॑शे॒मान् ॥

२६ सुमङ्गलीप्रतरणी गृहाणाम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Of excellent omen, extender (pratáraṇa) of the houses, very
    propitious to thy husband, wealful to thy father-in-law, pleasant to thy
    mother-in-law, do thou enter these houses.
Notes

The comm. to Prāt. iii. 60 notes the accent of śvaśrvāí. The verse
seems to be overlooked altogether in the Anukr. as we have it; it should
be called a 3-p. virāṇ nāma gāyatrī (11 + 11: 11 = 33). It is used
in Kāuś. 77. 20 as the bride enters her new abode.

Griffith

Bliss-bringer, furthering thy household’s welfare, dear gladdening thy husband and his father, enter this home, mild to thy hus- band’s mother.

पदपाठः

सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली। प्र॒ऽतर॑णी। गृ॒हाणा॑म्। सु॒ऽशेवा॑। पत्ये॑। श्वशु॑राय। श॒म्ऽभूः। स्यो॒ना। श्व॒श्वै। प्र। गृ॒हान्। वि॒श॒। इ॒मान्। २.२६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिपदा विराण्नाम गायत्री
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (सुमङ्गली)बड़ी मङ्गलवाली, (गृहाणाम्) घरों [घरवालों] की (प्रतरणी) बढ़ानेवाली, (पत्ये)पति के लिये (सुशेवा) बड़ी सुख देनेवाली, (श्वशुराय) ससुर के लिये (शंभूः)शान्ति देनेवाली और (श्वश्र्वै) सासु के लिये (स्योना) आनन्द देनेवाली तू (इमान्गृहान्) इन घरों [अर्थात् गृहकार्य्यों] में (प्र विश) प्रवेश कर ॥२६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वधू को योग्य है कि सबप्रकार चतुर होकर घरवालों की उन्नति करती हुई पति, सासु, ससुर आदि को प्रसन्नरखकर घर के कामों में प्रवेश करे ॥२६॥मन्त्र २६ और २७ महर्षिदयानन्दकृतसंस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात् हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २६−(सुमङ्गली) बहुमङ्गलवती (प्रतरणी) वर्धयित्री (गृहाणाम्) गृहपुरुषाणाम् (सुशेवा) बहुसुखदात्री (पत्ये) (श्वशुराय) पतिजनकाय (शंभूः) शान्तिप्रदा (स्योना) सुखप्रदा (श्वश्र्वै)पतिजनन्यै (गृहान्) गृहकार्याणि (प्र विश) (इमान्) ॥

२७ स्योना भवश्वशुरेभ्यः

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स्यो॒ना भ॑व॒श्वशु॑रेभ्यः स्यो॒ना पत्ये॑ गृ॒हेभ्यः॑।
स्यो॒नास्यै॒ सर्व॑स्यै वि॒शे स्यो॒नापु॒ष्टायै॑षां भव ॥

२७ स्योना भवश्वशुरेभ्यः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Be thou pleasant to fathers-in-law, pleasant to husband, to houses,
    pleasant to all this clan; pleasant unto their prosperity (puṣṭá) be
    thou.
Notes

Ppp. puts this verse at the end of the book.

Griffith

Be pleasant to the husband’s sire, sweet to thy household and thy lord, To all this clan be gentle, and favour these men’s prosperity.

पदपाठः

स्यो॒ना। भ॒व॒। श्वशु॑रेभ्यः। स्यो॒ना। पत्ये॑। गृ॒हेभ्यः॑। स्यो॒ना। अ॒स्यै। सर्व॑स्यै। वि॒शे। स्यो॒ना। पु॒ष्टाय॑। ए॒षा॒म्। भ॒व॒। २.२७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] तू (श्वशुरेभ्यः) ससुर आदि के लिये (स्योना) सुख देनेवाली, (पत्ये) पति के लिये और (गृहेभ्यः) घरवालों के लिये (स्योना) सुख देनेवाली (भव) हो। (अस्यै) इस (सर्वस्यै विशे) सब प्रजा के लिये (स्योना) सुख देनेवाली और (एषाम्) इनके (पुष्टाय) पोषण के लिये (स्योना) सुख देनेवाली (भव) हो ॥२७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - उत्तम वधू पालन-पोषणकरके सब कुटुम्बियों को प्रसन्न रक्खे ॥२७॥मन्त्र २६ देखो ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २७−(स्योना) सुखप्रदा (भव) (श्वशुरेभ्यः) श्वशुरादिभ्यः (स्योना) (पत्ये) स्वामिने (गृहेभ्यः)गृहपुरुषेभ्यः (स्योना) (अस्यै) (सर्वस्यै) (विशे) प्रजायै (पुष्टाय) पोषणाय (एषाम्) पूर्वोक्तानाम् (भव) ॥

२८ सुमङ्गलीरियंवधूरिमां समेत

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सु॑मङ्ग॒लीर् इ॒यं व॒धूर्
इ॒मां स॒मेत॒ पश्य॑त।
सौभा॑ग्यम् अ॒स्यै द॒त्त्वा
दौर्भा॑ग्यैर् वि॒परे॑तन॥

३३ सुमङ्गलीरियं वधूरिमां ...{Loading}...

सु॒म॒ङ्ग॒लीर् इ॒यं व॒धूर्
इ॒माँ स॑मेत॒ पश्य॑त ।
सौभा॑ग्यम् अ॒स्यै द॒त्वाया+++(=दत्वा)+++-
ऽथाऽऽस्तं॒ +++(स्वस्वगृहाणि)+++ वि परे॑तन+++(=गच्छत)+++ ।+++(र४)+++

२८ सुमङ्गलीरियंवधूरिमां समेत ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Of excellent omen is this bride; come together, see her; having
    given unto her good-fortune, go asunder and away with ill-fortunes.
Notes

The verse is RV. x. 85. 33, which, however, has a different ending:
asyāi dattvā́yā ’thā́ ’staṁ ví páre ’tana; and this is read also by PGS.
(i. 8. 9) and MB. (i. 2. 14). ⌊Cf. MP. i. 9. 5; Wint., p. 74; MGS. i.
12. 1, and p. 157.⌋ According to Kāuś. 77. 10, it is to be addressed to
women who come to look at the bride on her journey. Ppp. reads in d
dāurbhāgyena par-. Our edition should read dattvā́.

Griffith

Signs of good fortune mark the bride. Come all of you and look at her. Wish her prosperity: take on you her evil lucks and go your way.

पदपाठः

सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली। इ॒यम्। व॒धूः। इ॒माम्। स॒म्ऽएत॑। पश्य॑त। सौभा॑ग्यम्। अ॒स्यै। द॒त्त्वा। दौःऽभा॑ग्यैः। वि॒ऽपरे॑तन। २.२८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (इयम्वधूः) यह वधू (सुमङ्गलीः) बड़े मङ्गलवाली है, (समेत) मिलकर आओ और (इमाम्) इसे (पश्यत) देखो। (अस्यै) इस [वधू] को (सौभाग्यम्) सुभागपन [पति की प्रीति] (दत्त्वा) देकर (दौर्भाग्यैः) दुर्भागपनों से [इस को] (विपरेतन) पृथक् रक्खो॥२८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब विद्वान् लोग मिलकरआशीर्वाद देवें कि वधू पति की प्राणप्रिया होकर सदा आनन्द से रहे और कभी कष्ट नउठावे ॥२८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३३, और महर्षिदयानन्दकृतसंस्कारविधि विवाहप्रकरण में आशीर्वाद देने के लिये विवाह में आये लोगों केबुलाने में विनियुक्त है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २८−(सुमङ्गलीः) छान्दसो विसर्गः। बहुमङ्गलवती (इयम्)दर्शनीया (वधूः) (इमाम्) (समेत) समेत्य आगच्छत (पश्यत) अवलोकयत (सौभाग्यम्)सुभगत्वम्। पतिप्रियत्वम्। बह्वैश्वर्यवत्वम् (अस्यै) (वध्वै) (दत्त्वा) (दौर्भाग्यैः)दुर्भगत्वैः। ऐश्वर्यराहित्यैः। पतिस्नेहशून्यकर्मभिः (विपरेतन)अन्तर्गतण्यर्थः। विपरागमयत। पृथक् कुरुत ताम् ॥

२९ या दुर्हार्दोयुवतयो

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या दु॒र्हार्दो॑युव॒तयो॒ याश्चे॒ह जर॑ती॒रपि॑।
वर्चो॒ न्व१॒॑स्यै सं द॒त्ताथास्तं॑ वि॒परे॑तन॥

२९ या दुर्हार्दोयुवतयो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What evil-hearted young women, and likewise what old ones, [are]
    here—do ye all ⌊sám⌋ now give splendor to her; then go asunder and
    away home.
Notes

The last pāda is nearly identical with RV. x. 85. 33 d: see the
preceding note. All our mss. ⌊and SPP’s⌋ read in b jaratīs, as if
vocative; our edition ⌊not SPP’s⌋ emends to jár-, as seems
unavoidable.

Griffith

Ye youthful maidens, ill-disposed, and all ye ancient woman here, Give all your brilliance to the bride, then to your several homes depart!

पदपाठः

याः। दुः॒ऽहार्दः॑। यु॒व॒तयः॑। याः। च॒। इ॒ह। ज॒र॒तीः॒। अपि॑। वर्चः॑। नु। अ॒स्यै। सम्। द॒त्त॒। अथ॑। अस्त॑म्। वि॒ऽपरे॑तन। २.२९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (याः) जो तुम (युवतयः)हे युवा स्त्रियो ! (च) और (याः) जो तुम (जरतीः) हे वृद्ध स्त्रियो ! (अपि) भी (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदयवाली (इह) यहाँ पर हो। वे तुम (अस्यै) इस [वधू] को (वर्चः) अपना तेज (नु) शीघ्र (सम् दत्त) दे डालो, (अथ) फिर (अस्तम्) अपने-अपनेघर (विपरेतन) चली जाओ ॥२९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो दुष्ट स्त्रियाँ घरमें आ जावें, वधू अपनी चतुरायी से उन्हें ऐसा परास्त करे कि वे अपना तेज गँवाकरचली जावें और फिर कभी न आवें ॥२९॥इस मन्त्र का चौथा पाद ऋग्वेद १०।८५।३३। मेंहै। यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण मेंव्याख्यात है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २९−(याः) स्त्रियः (दुर्हार्दः) अ० २।७।५। हार्दम् आनुकूल्यंकरोति हार्दयतीति, हार्दयतेः-क्विपि णिलोपे रूपम्। दुष्टहृदयाः। क्रूरचित्ताः (युवतयः) तरुणस्त्रियः (याः) (च) (इह) गृहे (जरतीः) हे वृद्धस्त्रियः (अपि) (वर्चः) स्वतेजः (नु) शीघ्रम् (अस्यै) वध्वै (सम्) सम्यक् (दत्त) प्रयच्छत (अथ)अपि च (अस्तम्) स्वगृहम् (विपरेतन) विपरां विविधं दूरे गच्छत ॥

३० रुक्मप्रस्तरणंवह्यं विश्वा

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रु॒क्मप्र॑स्तरणंव॒ह्यं विश्वा॑ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तम्।
आरो॑हत्सू॒र्या सा॑वि॒त्री बृ॑ह॒तेसौभ॑गाय॒ कम् ॥

३० रुक्मप्रस्तरणंवह्यं विश्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The gold-cushioned (? prastaraṇa) vehicle, bearing all forms, did
    Sūryā, Savitar’s daughter, mount, in order to great good-fortune.
Notes

⌊Nearly⌋ all our mss. ⌊and four of SPP’s⌋ accent rukmáprást- (p.
rukmá॰prást-) in a; our edition emends to rukmápra-. ⌊SPP., with
13 of his authorities, reads rukmaprá-. The verse is used with 1. 61
(Kāuś. 77. 1), when the bride mounts the car. ⌊Note bíbhratam joined
with vahyám, neuter! is the case like those of cakrám āśúm, rátnam
bṛhántam
, gotráṁ hariśríyam of RV.? cf. my Noun-inflection, p. 600,
s.v. Genders.⌋

Griffith

Surya the child of Savitar mounted for high felicity Her litter with its cloth of gold, wearing all forms of loveliness.

पदपाठः

रु॒क्म॒ऽप्रस्त॑रणम्। व॒ह्यम्। विश्वा॑। रू॒पाणि॑। बिभ्र॑तम्। आ। अ॒रो॒ह॒त्। सू॒र्या। सा॒वि॒त्री। बृ॒ह॒ते। सौभ॑गाय। कम्। २.३०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (रुक्मप्रस्तरणम्)सुवर्ण के बिछौनेवाले, (विश्वा) सब (रूपाणि) रूपों [उत्तम, मध्यम, नीच आकार वाबैठकों] को (बिभ्रतम्) धारण करनेवाले (वह्यम्) [गृहाश्रमरूप] गाड़ी पर (सावित्री) सविता [सर्वजनक परमात्मा] को अपना देवता माननेवाली (सूर्या) प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] वधू (बृहते) बड़े (सौभगाय) सौभाग्य [पति की प्रीति, बहुत ऐश्वर्य आदि सुख] पाने के लिये (कम्) सुख से (आ अरुहत्)चढ़ी है ॥३०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! यहब्रह्मवादिनी तेजस्विनी वधू गृहाश्रम में प्रविष्ट हुई है, हम ऐसा उपाय करें किवह पतिप्रिया और ऐश्वर्यवती होकर सदा सुख भोगे ॥३०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३०−(रुक्मप्रस्तरणम्) स्तृञ्आच्छादने-ल्युट्। सुवर्णच्छादनयुक्तम् (वह्यम्) गृहाश्रमरूपं यानं रथम् (विश्वा)सर्वाणि (रूपाणि) आकारान् (बिभ्रतम्) शतृरूपम्। धारयन्तम् (आरोहत्) प्रातिष्ठत् (सूर्या) प्रेरयित्री सूर्यदीप्तिवत्तेजस्विनी वा वधूः (सावित्री) सवितासर्वोत्पादकः परमात्मा देवता यस्याः सा (बृहते) महते (सौभगाय) सुभगत्वाय।पतिप्रियत्वाय। बह्वैश्वर्याय (कम्) सुखेन ॥

३१ आ रोह

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आ रो॑ह॒ तल्पं॑सुमन॒स्यमा॑ने॒ह प्र॒जां ज॑नय॒ पत्ये॑ अ॒स्मै।
इ॑न्द्रा॒णीव॑ सु॒बुधा॒बुध्य॑माना॒ ज्योति॑रग्रा उ॒षसः॒ प्रति॑ जागरासि ॥

३१ आ रोह ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Mount the couch with favoring mind; here give birth to progeny for
    this husband; like Indrāṇī, waking with good awakening, mayest thou
    watch to meet dawns tipped with light.
Notes

Ppp. reads in c suptā for subúdhā, of which the stem and sense
are questionable (it occurs elsewhere only in vs. 75, below); at the end
it has cākaraḥ (for jāgaraḥ). ⌊Cf. Wint, p. 92.⌋ The excess of
syllables in d is a very poor reason for calling the verse (11 + 11:
11 + 13 = 46) a jagatī. In Kāuś. 76. 25 the verse is used, with 1. 60,
when the bride mounts the couch; and again, 79. 4, when she ascends the
nuptial bed (vs. 23 immediately follows: see above).

Griffith

Rise, mount the bridal bed with cheerful spirit. Here bring forth children to this man thy husband. Watchful and understanding like Indrani wake thou before the earliest light of Morning.

पदपाठः

आ। रो॒ह॒। तल्प॑म्। सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना। इ॒ह॒। प्र॒ऽजाम्। ज॒न॒य॒। पत्ये॑। अ॒स्मै। इ॒न्द्रा॒णीऽइ॑व। सु॒ऽबुधा॑। बुध्य॑माना। ज्योतिः॑ऽअग्राः। उ॒षसः॑। प्रति॑। जा॒ग॒रा॒सि॒। २.३१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • जगती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] तू (सुमनस्यमाना) प्रसन्नचित्त होकर (तल्पम्) पर्यङ्क पर (आ रोह) चढ़, ओर (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (अस्मै पत्ये) इस पति के लिये (प्रजाम्) सन्तान (जनय) उत्पन्नकर। (इन्द्राणी इव) इन्द्राणी [बड़े ऐश्वर्यवान् मनुष्य की पत्नी वा सूर्य कीकान्ति] के समान, (सु बुधा) सुन्दर ज्ञानवाली (बुध्यमाना) सावधान तू (ज्योतिरग्राः) ज्योति को आगे रखनेवाली (उषसः प्रति) प्रभातवेलाओं में (जागरासि) जागती रहे ॥३१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वधू को योग्य है किप्रसन्नचित्त होकर पति के साथ उच्च पद पर विराजकर उत्तम सन्तान उत्पन्न करे औरसावधान रहकर सूर्योदय से पहिले उठकर शारीरिक और आत्मिक उन्नति करे ॥३१॥मन्त्र ३१और ३२ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३१−(आरोह) आतिष्ठ (तल्पम्) पर्यङ्कम्। उच्चपदम् (सुमनस्यमाना) प्रसन्नचित्ता सती (इह)गृहाश्रमे (प्रजाम्) सन्तानम् (जनय) उत्पादय (पत्ये) (अस्मै) (इन्द्राणी)इन्द्रस्य पत्नी। ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य भार्या। सूर्यकान्तिः (इव) यथा (सुबुधा)बहुज्ञानवती (बुध्यमाना) सावधाना (ज्योतिरग्राः) ज्योतिः प्रकाशोऽग्रे यासां ताः (उषसः) प्रभातवेलाः (प्रति) अनुलक्ष्य (जागरासि) जागृता भवेः ॥

३२ देवा अग्रेन्यपद्यन्त

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दे॒वा अ॑ग्रे॒न्य᳡पद्यन्त॒ पत्नीः॒ सम॑स्पृशन्त त॒न्व᳡स्त॒नूभिः॑।
सू॒र्येव॑ नारिवि॒श्वरू॑पा महि॒त्वा प्र॒जाव॑ती॒ पत्या॒ सं भ॑वे॒ह ॥

३२ देवा अग्रेन्यपद्यन्त ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The gods in the beginning lay with (ni-pad) their spouses; they
    embraced (sam-spṛś) bodies with bodies; like Sūryā, O woman,
    all-formed, with greatness, having progeny, unite (sam-bhū) here with
    thy husband.
Notes

Ppp. combines at the beginning devā ’gre. The verse (11 + 11: 12 + 11
= 45) is almost a good triṣṭubh, in spite of the Anukr. ⌊It would be a
perfect triṣṭubh in cadence and otherwise if we had the right to
excise nāri, the intrusive character of which is very likely.⌋ It is
used in Kāuś. 79. 6 when the bride enters the nuptial bed; and also, in
75. 11, vss. 32-36 are strangely made to accompany the strewing of
grasses by the wooers who have gone out to arrange for the bridal.

Griffith

The Gods at first lay down beside their consorts; body with body met in close embracement. O Dame, like Surya perfect in her grandeur, here rich in future children, meet thy husband.

पदपाठः

दे॒वाः। अग्रे॑। नि। अ॒प॒द्य॒न्त॒। पत्नीः॑। सम्। अ॒स्पृ॒श॒न्त॒। तन्वः᳡। त॒नूभिः॑। सू॒र्याऽइ॑व। ना॒रि॒। वि॒श्वऽरू॑पा। म॒हि॒ऽत्वा। प्र॒जाऽव॑ती। पत्या॑। सम्। भ॒व॒। इ॒ह। २.३२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) विद्वान् लोग (अग्रे) पहिले (पत्नीः) अपनी पत्नियों को (नि) निश्चय करके (अपद्यन्त) प्राप्तहुए हैं, और उन्होंने (तन्वः) शरीरों को (तनूभिः) शरीरों से (सम्) यथाविधि (अस्पृशन्त) स्पर्श किया है। [वैसे ही] (नारी) हे नारी ! तू (सूर्या इव) सूर्यकी कान्ति के समान (महित्वा) अपने महत्त्व से (विश्वरूपा) समस्त सुन्दरतावाली, (प्रजावती) उत्तम सन्तान को प्राप्त होनेहारी तू (पत्या) अपने पति से (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (सं भव) मिल ॥३२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पूर्वज महात्माओं केसमान पति-पत्नी आपस में प्रीति से प्रयत्न करके उत्तम सन्तान उत्पन्न करें औरगृहाश्रम के बीच सुख बढ़ावें ॥३२॥मन्त्र ३१ की टिप्पणी देखो ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३२−(देवाः)विद्वांसः (अग्रे) पूर्वकाले (नि) निश्चयेन (अपद्यन्त) प्राप्तवन्तः (पत्नीः) (सम्) सम्यक्। यथाविधि (अस्पृशन्त) स्पृष्टवन्तः (तन्वः) शरीराणि (तनूभिः)शरीरैः (सूर्या) सूर्यकान्तिः (इव) यथा (नारि) हे नरस्य पत्नि (विश्वरूपा)सर्वसौन्दर्योपेता (महित्वा) महत्त्वेन (प्रजावती) प्रशस्तसन्तानयुक्ता (पत्या) (सं भव) संगच्छस्व (इह) गृहाश्रमे ॥

३३ उत्तिष्ठेतोविश्वावसो नमसेडामहे

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उत्ति॑ष्ठे॒तोवि॑श्वावसो॒ नम॑सेडामहे त्वा।
जा॒मिमि॑च्छ पितृ॒षदं॒ न्य᳡क्तां॒ स ते॑ भा॒गोज॒नुषा॒ तस्य॑ विद्धि ॥

३३ उत्तिष्ठेतोविश्वावसो नमसेडामहे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Stand up from here, O Viśvāvasu; with homage do we praise thee; seek
    thou a sister (jāmí) sitting among the Fathers, inserted (?
    nyàktām); that is thy portion by right of birth; know thou that.
Notes

This verse corresponds to RV. x. 85. 22 a, b and 21 c, d; but
RV. reads at the beginning úd īrṣvā́ ’to viś-; and in c anyā́m for
jāmím, and vyàktām for nyàktām, which seems a mere ignorant
substitution for it. Our mss. are divided between nyàktam and -tām;
I.E.p.m.O.s.m.R.T.D.K. give -tām, which ending is doubtless to be
accepted as the true reading. Ppp. reads with RV. at the beginning, but
goes on independently: ud īrṣvā ’taṣ patī hy eṣāṁ viśvāvasuṁ namasā
gīrbhir īḍe
. The Āpast. text (Wint., p. 89 ⌊MP. i. 10. 1-2⌋) reads
vittām for vyaktām. Compare Hillebrandt also in ZDMG. xl. 711; he
renders vyàktām simply by ‘bride,’ one does not see why. ⌊Cf. also
Ved. Mythol. i. 435.⌋ ⌊For the metrical definitions of the Anukr., see
above.⌋

Griffith

Rise and go hence, Visvavasu: with reverence we worship thee. Steal to her sister dwelling with her father: this is the share– mark this–of old assigned thee.

पदपाठः

उत्। ति॒ष्ठ॒। इ॒तः। वि॒श्व॒व॒सो॒ इति॑ विश्वऽवसो। नम॑सा। ई॒डा॒म॒हे॒। त्वा॒। जा॒मिम्। इ॒च्छ॒। पि॒तृ॒ऽसद॑म्। निऽअ॑क्ताम्। सः। ते॒। भा॒गः। ज॒नुषा॑। तस्य॑। वि॒ध्दि॒। २.३३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विराट् आस्तार पङ्क्ति
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वावसो) हे समस्तधनवाले वर ! (इतः) [अपने] इस स्थान से (उत् तिष्ठ) उठ, (नमसा) आदर के साथ (त्वा)तुझ से (ईडामहे) हम यह चाहते हैं। (पितृपदम्) पितृकुल में रहती हुई, (न्यक्ताम्) नियम से तैल आदि लगाये हुए [विवाहसंस्कार किये हुए] (जामिम्)कुलवधू से (इच्छ) प्रीति कर, (जनुषा) जन्म [मनुष्यजन्म] के कारण (सः) यह (ते)तेरा (भागैः) सेवनीय पदार्थ है, (तस्य) इसका (विद्धि) तू ज्ञान कर ॥३३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पूर्व मन्त्र में वरके साथ मिलने के लिये वधू से कहा गया था, अब वर से कहा है कि अपनी विवाहितस्त्री से यथाशास्त्र मिलकर सन्तान उत्पन्न करके मनुष्यजन्म सुफल करे ॥३३॥यहमन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।२१, २२ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३३−(उत्तिष्ठ) उद्गच्छ (इतः)स्थानात् (विश्वावसो) हे सर्वधनोपेत, वर (नमसा) सत्कारेण (ईडामहे) याचामहे (जामिम्) कुलस्त्रियम्। अत्र मनुः ३।५७। शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशुतत्कुलम्। (इच्छ) प्रीणीहि (पितृपदम्) पितृकुलस्थिताम् (न्यक्ताम्) अञ्जिघृसिभ्यःक्तः। उ० ३।८९। अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणादिषु-क्त। नियमेन कृताभ्यञ्जनाम्। कृतविवाहसंस्काराम् (सः) पूर्वोक्तः (ते) तव (भागः) सेवनीयः पदार्थः (जनुषा)मनुष्यजन्मना (तस्य) पूर्वोक्तस्य (विद्धि) ज्ञानं कुरु ॥

३४ अप्सरसःसधमादं मदन्ति

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॑प्स॒रसः॑सधमादं मदन्ति हवि॒र्धान॑मन्त॒रा सूर्यं॑ च।
तास्ते॑ ज॒नित्र॑म॒भि ताः परे॑हि॒नम॑स्ते गन्धर्व॒र्तुना॑ कृणोमि ॥

३४ अप्सरसःसधमादं मदन्ति ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The Apsarases revel a joint reveling, between the oblation-holder
    and the sun; they are thy birthplace; go away to them; homage I pay thee
    with the Gandharva-season.
Notes

The first half-verse is identical with vii. 109. 3 a, b. The verse,
a fairly good triṣṭubh, appears, with vss. 36 and 38, to be passed
over by the ⌊London⌋ Anukr. ⌊The Berlin ms. gives the three pratīkas,
followed, without iti, by agastatakṣe (!).⌋ Ppp. begins the verse
with yā ’psarasas s- (for yā́ aps-), and in b puts antara (for
-rā) before havirdhānam .

Griffith

Apsarases rejoice and feast together between the sun and place of sacrificing. These are thy kith and kin: go thou and join them: I in due season worship thee Gandharva.

पदपाठः

अ॒प्स॒रसः॑। स॒ध॒ऽमाद॑म्। म॒द॒न्ति॒। ह॒विः॒ऽधान॑म्। अ॒न्त॒रा। सूर्य॑म्। च॒। ताः। ते॒। ज॒नित्र॑म्। अ॒भि। ताः। परा॑। इ॒हि॒। नमः॑। ते॒। ग॒न्ध॒र्व॒ऽऋ॒तुना॑। कृ॒णो॒‍मि॒। २.३४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्सरसः) अप्सराएँ [कामों में व्यापक स्त्रियाँ] (हविर्धानम्) ग्राह्य पदार्थों के आधार [वधू] (च)और (सूर्यम् अन्तरा) प्रेरणा करनेवाले [वर] के पास (सधमादम्) परस्पर आनन्द (मदन्ति) मनाती हैं। [हे वधू वा वर !] (ताः) वे [स्त्रियाँ] (ते) तेरे (जनित्रम्) जन्म का कारण हैं, (ताः अभि) उनके सामने होकर (परा) निकट (इहि) जा, (गन्धर्वर्तुना) विद्या धारण करनेवाले मनुष्य के ऋतु से [यथार्थ समय के विचारसे] (ते) तेरे लिये (नमः) आदर (कृणोमि) मैं करता हूँ ॥३४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - कुलस्त्रियाँ शान्तिकरण, स्वस्तिवाचन आदि गान से आनन्द मनावें, सादर प्रेरणा किये हुएवधू-वरउन को सविनय नमस्कार करें ॥३४॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आचुका है-अथर्व० ७।१०९।३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३४−(अप्सरसः) म० ९। अपःसु कर्मसु व्यापनशीलाः स्त्रियः (सधमादम्)परस्परानन्दोत्सवम् (मदन्ति) हर्षयन्ति (हविर्धानम्) ग्राह्यपदार्थाधारभूतांवधूम् (अन्तरा) निकटे (सूर्यम्) प्रेरकं वरम् (च) (ताः) स्त्रियः (ते) तव (जनित्रम्) जन्मकारणम् (अभि) अभीत्य (ताः) (परा) निकटे (इहि) प्राप्नुहि (नमः)सत्कारम् (ते) तुभ्यम् (गन्धर्वर्तुना) गन्धर्वस्य विद्याधारकस्य ऋतुनायथार्थकालविचारेण (कृणोमि) करोमि ॥

३५ नमोगन्धर्वस्य नमसे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

नमो॑गन्ध॒र्वस्य॒ नम॑से॒ नमो॒ भामा॑य॒ चक्षु॑षे च कृण्मः।
विश्वा॑वसो॒ ब्रह्म॑णाते॒ नमो॒ऽभि जा॒या अ॑प्स॒रसः॒ परे॑हि ॥

३५ नमोगन्धर्वस्य नमसे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Homage to the Gandharva’s mind (?), and homage to his terrible
    (bhā́ma) eye we pay; O Viśvāvasu, homage [be] to thee with worship
    (bráhman); go away unto thy wives, the Apsarases.
Notes

The translation implies the naturally suggested emendation in a of
námase to mánase, which Ppp. supports, reading manaso. Ppp. has
further bhāsāya for bhāmāya in b; and, for c, viśvāvaso
namo brahmaṇā te kṛṇomi
, and, in d, combines jāyā ’ps-. The
addition of ‘stu at the end of our c would rectify the meter of
the pāda and make the definition of the Anukr. exact.

Griffith

Homage we pay to the Gandharva’s favour, obeisance to his eye and fiery anger. Visvavasu, with prayer we pay thee homage. Go hence to those Apsarases thy consorts.

पदपाठः

नमः॑। ग॒न्ध॒र्वस्य॑। नम॑से। नमः॑। भामा॑य। चक्षु॑षे। च॒। कृ॒ण्मः॒। विश्व॑वसो॒ इति॒ विश्व॑ऽवसो। ब्रह्म॑णा। ते॒। नमः॑। अ॒भि। जा॒याः। अ॒प्स॒रसः॑। परा॑। इ॒हि॒। २.३५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • पुरोबृहती त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (गन्धर्वस्य) विद्याधारण करनेवाले पुरुष के (नमसे) अन्न [भोजन] के लिये (नमः) [यह] अन्न है, (च) और (भामाय) प्रकाशयुक्त (चक्षुषे) नेत्र [अर्थात् इन्द्रियों के हित] के लिये (नमः) अन्न (कृण्मः) हम बनाते हैं। (विश्वावसो) हे समस्त धनवाले वर ! (ते) तेरेलिये (ब्रह्मणा) जलसहित (नमः) अन्न है, (जायाः) जन्म के कारणों, (अप्सरसः अभि)अप्सराओं [कामों में व्यापक स्त्रियों] के सामने (परा इहि) निकट जा ॥३५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सुन्दर स्वच्छ रोचकखान-पान से वधू-वर को सन्तुष्ट करें और वे दोनों सब बड़े कार्यकुशल स्त्री-पुरुषों का उपकार मान कर उनका सत्कार करें ॥३५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३५−(नमः) अन्नम्-निघ० २।७। (गन्धर्वस्य) विद्याधारकपुरुषस्य (नमसे) अन्नाय। भोजनाय (नमः) (अन्नम्) (भामाय)अर्तिस्तुसुहुसृधृक्षिक्षुभाया०। उ० १।१४०। भा दीप्तौ-मन्। दीप्यमानाय (चक्षुषे)मेत्राय। सर्वेन्द्रियायेत्यर्थः (च) (कृण्मः) कुर्मः (विश्वावसो) हे सर्वधनिन्वर (ब्रह्मणा) उदकेन सह-निघ० १।१२। (ते) तुभ्यम् (नमः) अन्नम् (अभि) अभीत्य (जायाः) उत्पत्तिकारणानि (अप्सरसः) म० ९। कर्मसु व्यापनशीलाः स्त्रियः (परा)निकटे (इहि) गच्छ ॥

३६ राया वयंसुमनसः

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रा॒या व॒यंसु॒मन॑सः स्या॒मोदि॒तो ग॑न्ध॒र्वमावी॑वृताम्।
अग॒न्त्स दे॒वः प॑र॒मंस॒धस्थ॒मग॑न्म॒ यत्र॑ प्रति॒रन्त॒ आयुः॑ ॥

३६ राया वयंसुमनसः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. With wealth may we be well-willing; we have made the Gandharva go
    (vṛt) up from here; that god hath gone to the highest station
    (sadhástha); we have gone where they lengthen out [their] life-time.
Notes

The prefix ā́ in b seems out of place. The last pāda appears twice
in RV. (i. 113. 16 d; viii. 48. 11 d). The definition of the
verse (as noted under vs. 34) appears to be omitted in the Anukr. For
the application made in Kāuś. of this and the preceding verses, see
under vs. 32; it does not seem at all suitable. Ppp. has in d for
yatra the variant vayam ⌊implying, perhaps, that the Kashmir
Vāidikas understood pratiránta (p. pra॰tiránte) as pratirántas.
⌊With regard to an Anukr. statement that seems to concern this verse,
see above, p. 739, ¶’s 4, 5, 7.⌋

⌊Cf. xviii. 2. 29 n.⌋

Griffith

May we be happy with abundant riches. We from this place have banished the Gandharva. The God is gone to the remotest region, and we have come where men prolong existence.

पदपाठः

रा॒या। व॒यम्। सु॒ऽमन॑सः। स्या॒म॒। उत्। इ॒तः। ग॒न्ध॒र्वम्। आ। अ॒वी॒वृ॒ता॒म॒। अग॑न्। सः। दे॒वः। प॒र॒मम्। स॒धऽस्थ॑म्। अग॑न्म। यत्र॑। प्र॒ऽति॒रन्ते॑। आयुः॑। २.३६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
  • देवगण
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (राया) धन के साथ (वयम्) हम (सुमनसः) प्रसन्नचित्त (स्याम) होवें, (इतः) यहाँ से [अपने बीच से] (गन्धर्वम्) विद्याधारण करनेवाले पुरुष को (उत् आ अवीवृताम्) हम सब प्रकार ऊँचावर्तमान करें। (सः देवः) वह विद्वान् (परमम्) सबसे ऊँचे (सधस्थम्) सभास्थान को (अगन्) प्राप्त हो, (अगन्म) हम [उस पद पर] पहुँचें (यत्र) जहाँ [लोग] (आयुः)जीवन को (प्रतिरन्ते) अच्छे प्रकार पार करते हैं ॥३६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब विद्वान् लोग मिलकरआशीर्वाद देवें कि यह विद्वान् वर अपने उत्तम गुणों से बड़ा धनी और ऊँचे पदवालाहोकर महात्माओं के समान अपना उच्च जीवन बनावे ॥३६॥इस मन्त्र का चौथा पाद ऋग्वेदमें है−१।११३।१६ तथा ८।४८।११ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३६−(राया) धनेन (वयम्) (सुमनसः) प्रसन्नचेतसः (स्याम) (उत्) उत्कर्षेण (इतः) अस्मात् स्थानात् (गन्धर्वम्) विद्याधारकंपुरुषम् (आ) समन्तात् (अवीवृताम्) णिचि लुङि रूपम्। वर्तमानं कुर्याम् (अगन्)प्राप्नोतु (सः) (देवः) विद्वान् (परमम्) उत्कृष्टम् (सधस्थम्) सभास्थानम् (अगन्म) वयं गच्छेम (यत्र) यस्मिन् पदे (प्रतिरन्ते) प्रकर्षेण तरन्ति पारयन्ति (आयुः) जीवनम् ॥

३७ सम्पितरावृत्विये सृजेथाम्

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संपि॑तरा॒वृत्वि॑ये सृजेथां मा॒ता पि॒ता च॒ रेत॑सो भवाथः।
मर्य॑ इव॒ योषा॒मधि॑रोहयैनां प्र॒जां कृ॑ण्वाथामि॒ह पु॑ष्यतं र॒यिम् ॥

३७ सम्पितरावृत्विये सृजेथाम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unite (sam-sṛj), O ye (two) parents (pitṛ́), the (two) things
    that are seasonable; ye shall be mother and father of seed; as a male
    (márya) a female (yóṣā), do thou mount her; make ye (two) progeny;
    here enjoy (puṣ) wealth.
Notes

⌊For “mount her,” W. suggests in pencil “make her mount”; but I suspect
that the full expression would be ádhi rohaya śépa enām. In a,
ṛ́tviye is regarded by the pada-text as dual, and is translated
accordingly; it probably means the respective contributions of the two
to the embryo. Ppp. reads instead (-rā) vṛddhaye, a welcome
emendation. Further, in b, it puts pitā, before mātā and has
ja for ca and ends b with bhavātha; ⌊and it makes our 37
d and 39 c change place, but with puṣyatu no for our
puṣyatam⌋. ⌊Pronounce máryeva in c: the verse then scans easily
as 11 + 11: 11 + 12, if we accept the resolution ṛ́tuiye in a.⌋
According to Kāuś. 79. 8, it is used in the act of coition. ⌊Concerning
the matter as an essential element of the ritual, see Winternitz, p.
92.⌋ Ppp. arranges this and the following six verses in the order 37,
40, 38, 39, 42, 41. 43.

Griffith

In your due season, Parents! come together. Mother and sire be ye of future children. Embrace this woman like a happy lover. Raise ye up offspring here: increase your riches.

पदपाठः

सम्। पि॒त॒रौ॒ ‍। ऋत्वि॑ये॒ इति॑। सृ॒जे॒था॒म्। मा॒ता। पि॒ता। च॒। रेत॑सः। भ॒वा॒थः॒। मर्यः॑ऽइव। योषा॑म्। अधि॑। रो॒ह॒य॒। ए॒ना॒म् प्र॒ऽजाम्। कृ॒ण्वा॒था॒म्। इ॒ह। पु॒ष्य॒त॒म्। र॒यिम्। २.३७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • भुरिक् त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पितरौ) हे [होनेवाले]माता-पिता ! (ऋत्विये) ऋतुकाल [गर्भाधानयोग्य समय] को प्राप्त दो वस्तु [केसमान] (संसृजेथाम्) तुम दोनों मिलो, (च) और (रेतसः) वीर्य से [वीर्य और रज केमेल से] तुम दोनों (माता पिता) माता-पिता (भवाथः) होओ। (मर्यः इव) नर के समान [हे पति !] (एनाम्) इस (योषाम्) अपनी पत्नी के (अधि रोहय) ऊपर हो, और (प्रजाम्)सन्तान को (कृण्वाथाम्) तुम दोनों उत्पन्न करो, और (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (रयिम्) धन को (पुष्यतम्) बढ़ाओ ॥३७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे वृक्ष आदि के बीजके मिले हुए दो टुकड़े वर्षा ऋतु में पृथिवी के संयोग से अङ्कुर उत्पन्न करतेहैं, वैसे ही युवा पति-पत्नी गर्भाधानविधि के अनुसार रतिक्रिया करके वीर्य औररज के संयोग से सन्तान उत्पन्न करें और धनी होकर सुखी होवें ॥३७॥मन्त्र ३७ और ३८महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३७−(पितरौ) भाविनौ मातापितरौ (ऋत्विये) अ० १२।३।२९।छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। ऋतु-घस्। द्विवचनान्तः प्रयोगोऽयं नपुंसके। ऋतुंगर्भाधानयोग्यकालं प्राप्ते द्वे द्रव्ये यथा (संसृजेथाम्) युवां संयुक्तौ भवतम् (माता) (पिता) (च) (रेतसः) वीर्यात्। वीर्यरजःसंयोगात् (भवाथः) युवां भवतम् (मर्यः इव) नरो यथा (योषाम्) सेवनीयांपत्नीम् (अधि रोहय) उपरि गच्छ (एनाम्)गुणवतीम् (प्रजाम्) सन्तानम् (कृण्वाथाम्) जनयतम् (इह) गृहाश्रमे (पुष्यतम्)वर्धयतम् (रयिम्) धनम् ॥

३८ तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व

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तां पू॑षंछि॒वत॑मा॒मेर॑यस्व॒ यस्यां॒ बीजं॑ मनु॒ष्या॒३॒॑ वप॑न्ति।
या न॑ ऊ॒रू उ॑श॒तीवि॒श्रया॑ति॒ यस्या॑मु॒शन्तः॑ प्र॒हरे॑म॒ शेपः॑ ॥

३८ तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Send, O Pūshan, her, most propitious, in whom men scatter seed
    (bī́ja); who, eager, shall part our thighs; in whom we, eager, may
    insert the member.
Notes

The verse is RV. x. 85. 37, which, however, reads at end of c (with
Ppp.) -śrayāte ⌊‘who, eager, shall part her thighs, for us’⌋, and of
d -hárāma śépam. All our mss. accent pū́ṣan in a; Bp. begins
c with yā́ḥ: naḥ. The same verse is found in HGS. i. 20. 2, with
nas after tām in a, visrayātāi in c, and -harema śepam
in d. PGS. (i. 4. 16) has a corresponding, but quite different,
text: sā naḥ pūṣā śivatamām e ”raya sā na ūrū uśatī vi hara: yasyām
uśantaḥ praharāma śepaṁ yasyām u kāmā bahavo niviṣtyāi
. The Āpast. text
(Wint., p. 90 ⌊MP. i. 11. 6⌋) has the RV. version, except -śráyātāi at
end of c. ⌊Barring the bad cesura in a, the verse is a good
triṣṭubh; but the definition (as noted under vs. 34) is omitted by the
Anukr.⌋

Griffith

Send her most rich in every charm, O Pushan, her who shall be the sharer of my pleasures; Her who shall twine her eager arms about me, and welcome all my love and soft embraces.

पदपाठः

ताम्। पूष॑न्। शि॒वऽत॑माम्। आ। ई॒र॒य॒स्व॒। यस्या॑म्। बीज॑म्। म॒नु॒ष्याः᳡। वप॑न्ति। या। नः॒। ऊ॒रू इति॑। उ॒श॒ति। वि॒ऽश्रया॑ति। यस्या॑म्। उ॒शन्तः॑। प्र॒ऽहरे॑म। शेपः॑। २.३८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पूषन्) हे पोषक पति ! (ताम्) उस (शिवतमाम्) अतिशय कल्याण करनेहारी पत्नी को (आ ईरयस्व) प्रेरणा कर (यस्याम्) जिस [पत्नी] में (मनुष्याः) मनुष्यलोग [मैं पति] (बीजम्) वीर्य (वपन्ति) बोवें। (या) जो (नः) हमारी (उशती) कामना करती हुई (ऊरू) दोनों जङ्घाओंको (विश्रयाति) फैलावे, और (यस्याम्) जिस में (उशन्तः) [उसकी] कामना करते हुएहम लोग (शेपः) उपस्थेन्द्रिय का (प्रहरेम) प्रहरण करें ॥३८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र में बहुवचनविद्वत्ता, बलवत्ता और प्रीति के सूचनार्थ है। युवा पति पत्नी दोनों परस्परकामना करते हुए प्रसन्नवदन होकर गर्भाधान के लिये अपने अङ्गों को यथाविधि ठीककरें ॥३८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है १०।८५।३७। ऊपर मन्त्र ३७ भी देखो॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३८−(ताम्) युवतीम् (पूषन्) हे पोषक पते (शिवतमाम्) अतिशयेनानन्दकरीम् (एरयस्व)प्रेरय (यस्याम्) पत्न्याम् (बीजम्) वीर्यम् (मनुष्याः) नराः (वपन्ति)निक्षिपन्ति (या) पत्नी (नः) अस्मान् (ऊरू) जङ्घाप्रदेशौ (उशती) कामयमाना (विश्रयाति) विविधं श्रयेत्। विस्तारयेत् (यस्याम्) (उशन्तः) तां कामयमानाः (प्रहरेम) प्रहृतं कुर्याम (शेपः) उपस्थेन्द्रियम् ॥

३९ आ रोहोरुमुपधत्स्व

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आ रो॑हो॒रुमुप॑धत्स्व॒ हस्तं॒ परि॑ ष्वजस्व जा॒यांसु॑मन॒स्यमा॑नः।
प्र॒जां कृ॑ण्वाथामि॒हमोद॑मानौ दी॒र्घं वा॒मायुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥

३९ आ रोहोरुमुपधत्स्व ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Mount thou the thigh; apply the hand; embrace thy wife with
    well-willing mind; make ye (two) progeny here, enjoying; let Savitar
    make for you a long life-time.
Notes

The first half-verse is found also in the Āpast. text (Wint., p. 90 ⌊MP.
i. 11. 7⌋), with the variant (after ūrúm) úpa barhasva bāhúm. ⌊Ppp.,
as just noted, makes our 37 d change place with our 39 c,
reading, however, rodamānāu for mod-; and in its d it has tu
for vām, combining tv āyus sav-.⌋ The verse is ill defined as a
jagatī or bhurik triṣṭubh; it is properly a svarāṭ triṣṭubh.

Griffith

Up, happy bridegroom! with a joyous spirit caress thy wife and throw thine arm around her. Here take your pleasure, procreate your offspring. May Savitar bestow long life upon you.

पदपाठः

आ। रो॒ह॒। ऊ॒रुम्। उप॑। ध॒त्स्व॒। हस्त॑म्। परि॑। स्व॒ज॒स्व॒। जा॒याम्। सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑नः। प्र॒ऽजाम्। कृ॒ण्वा॒था॒म्। इ॒ह। मोद॑मानौ। दी॒र्घम्। वा॒म्। आयुः॑। स॒वि॒ता। कृ॒णो॒तु॒। २.३९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • भुरिक् त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे पति !] तू (ऊरुम्)जङ्घा के (आ रोह) ऊपर आ, (हस्तम्) हाथ का (उप धत्स्व) सहारा दे, और (सुमनस्यमानः)प्रसन्नचित्त होकर तू (जायाम्) पत्नी को (परि ष्वजस्व) चिपटा ले। [हे स्त्री-पुरुषो !] (इह) यहाँ [गर्भाधानक्रिया में] (मोदमानौ) हर्ष मनाते हुए तुम दोनों (प्रजाम्) सन्तान को (कृण्वाथाम्) उत्पन्न करो, (सविता) सबका उत्पन्न करनेवाला [परमेश्वर] (वाम्) तुम दोनों का (आयुः) आयु (दीर्घम्) दीर्घ (कृणोतु) करे ॥३९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पति-पत्नी दोनोंप्रसन्नवदन होकर मुख के सामने मुख, नासिका के सामने नासिका आदि अङ्गों को यथायोग्य सूधा रक्खें। पुरुष के प्रक्षिप्त वीर्य को खैंचकर स्त्री गर्भाशय मेंस्थिर करे, जिस से गर्भाधानक्रिया सफल होवे, और परमेश्वर के अनुग्रह से उत्तमसन्तान उत्पन्न करके वे दोनों अपने जीवन में प्रसन्न रहें ॥३९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३९−(आ रोह)आतिष्ठ (ऊरुम्) जङ्घाम् (उप धत्स्व) उपेत्य व्याप्य धारय (हस्तम्) (परि ष्वजस्व)आलिङ्ग (जायाम्) पत्नीम् (सुमनस्यमानः) प्रसन्नचित्तः (प्रजाम्) सन्तानम् (कृण्वाथाम्) जनयतम् (इह) गर्भाधानविधौ (मोदमानौ) हर्षन्तौ (दीर्घम्) (वाम्)युवयोः (आयुः) जीवनम् (सविता) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (कृणोतु) करोतु ॥

४० आ वाम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ वां॑ प्र॒जांज॑नयतु प्र॒जाप॑तिरहोरा॒त्राभ्यां॒ सम॑नक्त्वर्य॒मा।
अदु॑र्मङ्गली पतिलो॒कमावि॑शे॒मं शं नो॑ भव द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥

४० आ वाम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let Prajāpati generate progeny for you (two); let Aryaman unite
    (sam-añj) [you] with days-and-nights; not ill-omened, enter thou
    this world of thy husband; be weal to our bipeds, weal to [our]
    quadrupeds.
Notes

The verse is RV. x. 85. 43, which, however, begins a with ā́ naḥ
pr-
, b with ājarasā́ya, and c with ádurman̄galīḥ p-. Ppp.
also reads the latter (-līṣ p-); and, in d, astu for bhana.
RV. further omits imám in c. ⌊MB. at i. 2. 18 follows RV.⌋ The
Āpast. text (Wint., p. 90 ⌊MP. i. 11, 5⌋) has precisely the RV. version.
MS. (ii. 13. 23) has pāda a only. The verse is almost a good jagatī,
only a little damaged by the intrusion of imam in c; ⌊and a
perfect jagatī, if (with RV. MB. MP.) we omit imam⌋.

Griffith

So may the Lord of Life vouchsafe you children, Aryaman bind you, day and night, together. Enter thy husband’s house with happy omens, bring blessing to our quadrupeds and bipeds.

पदपाठः

आ। वा॒म्। प्र॒ऽजाम्। ज॒न॒य॒तु॒। प्र॒जाऽप॑तिः। अ॒हो॒रा॒त्राभ्या॑म्। सम्। अ॒न॒क्तु॒। अ॒र्य॒मा। अदुः॑ऽमङ्गली। प॒ति॒ऽलो॒कम्। आ। वि॒श॒। इ॒मम्। शम्। नः॒। भ॒व॒। द्वि॒ऽपदे॑। शम्। चतुः॑ऽपदे। २.४०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • जगती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू-वर !] (प्रजापतिः) प्रजापालक, (अर्यमा) श्रेष्ठों का मान करनेवाला, [परमात्मा] (वाम्)तुम दोनों को (प्रजाम्) सन्तान (आ जनयतु) उत्पन्न करे और (अहोरात्राभ्याम्) दिनऔर रात्रि के साथ [सबको] (सम् अनक्तु) संयुक्त करे। [हे वधू !] (अदुर्मङ्गली)दुष्टलक्षणरहित तू (इमम्) इस (पतिलोकम्) पति लोक [पतिकुल] में (आ विश) प्रवेशकर, और (नः) हमारे (द्विपदे) दोपायों के लिये (शम्) सुखदायक और (चतुष्पदे)चौपायों के लिये (शम्) सुखदायक (भव) हो ॥४०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जगत्पालक परमेश्वर कीउपासना करके युक्त आहार-विहार, ऋतुगमन आदि योग्य क्रिया के साथ पति-पत्नी चिरजीवीसन्तान उत्पन्न करें, जिससे पतिकुल में उस वधू के शुभागमन से सब मनुष्य और गौआदि पशु बढ़कर प्रसन्न रहें ॥४०॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।४७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४०−(वाम्) युवाभ्याम् (प्रजाम्) सन्तानम् (आ जनयतु) उत्पादयतु (प्रजापतिः)परमेश्वरः (अहोरात्राभ्याम्) रात्रिदिनाभ्याम्। सर्वदेत्यर्थः (समनक्तु)संयोजयतु (अर्यमा) श्रेष्ठानां मानकर्ता (अदुर्मङ्गली) दुष्टलक्षणरहिता (पतिलोकम्) पतिकुलम् (आ विश) प्रविश (इमम्) (शम्) सुखप्रदा (नः) अस्माकम् (भव) (द्विपदे) मनुष्यादिसमूहाय (शम्) (चतुष्पदे) गवादिपशुसमूहाय ॥

४१ देवैर्दत्तम्मनुना साकमेतद्वाधूयम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

दे॒वैर्द॒त्तंमनु॑ना सा॒कमे॒तद्वाधू॑यं॒ वासो॑ व॒ध्व᳡श्च॒ वस्त्र॑म्।
यो ब्र॒ह्मणे॑चिकि॒तुषे॒ ददा॑ति॒ स इद्रक्षां॑सि॒ तल्पा॑नि हन्ति ॥

४१ देवैर्दत्तम्मनुना साकमेतद्वाधूयम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This bridal garment and bride’s dress, given by the gods together
    with Manu, whoso gives to a knowing (cikitvā́ṅs) priest (brahmán), he
    verily slays the demons of the couch (?).
Notes

The translation implies at the end the emendation (suggested also by
Weber, p. 211) of tálpāni to tálpyāni, as required by both sense and
meter, and supported by the Ppp. reading tṛpyāni. For b, Ppp.
gives vādhūyaṁ baddho (vadhvo?) vāso ‘syāḥ, which, though metrically
awkward, is not redundant in expression. In Kāuś. 79. 21, the verse
accompanies the priest’s acceptance of the bridal garment, given him
with 1. 25. The verse is a good triṣṭubh, if emended as proposed in
d. ⌊Cf. vii. 37. 1 n.⌋

Griffith

Sent by the Gods associate with Manu, the vesture of the bride, the nuptial garment, He who bestows this on a thoughtful Brahman, drives from the marriage-bed all evil demons.

पदपाठः

दे॒वैः। द॒त्तम्। मनु॑ना। सा॒कम्। ए॒तत्। वाधू॑ऽयम्। वासः॑। व॒ध्वः᳡। च॒। वस्त्र॑म्। यः। ब्र॒ह्मणे॑। चि॒क‍ि॒तुषे॑। ददा॑ति। सः। इत्। रक्षां॑सि। तल्पा॑नि। ह॒न्ति॒। २.४१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [विद्वान्पिता आदि] (मनुना साकम्) मननशील राजा के साथ (देवैः) विद्वानों करके (दत्तम्)दिया हुआ (एतत्) यह (वाधूयम्) विवाह का (वासः) पहिरने योग्य (वस्त्रम्) वस्त्र [योग्यता का चिह्न] (चिकितुषे) ज्ञानवान् (ब्रह्मणे) ब्रह्मा [वेदवेत्ता वर] को (च) और (वध्वः=वध्वै) वधू को (ददाति) देता है, (सः इत्) वही (तल्पानि)प्रतिष्ठा [सम्मान, गौरव] में होनेवाले (रक्षांसि) दोषों को (हन्ति) नष्ट करताहै ॥४१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पिता आदि गुरुजनों कोयोग्य है कि राजव्यवस्था के अनुसार आचार्या और आचार्य से सुशिक्षित ब्रह्मचारी, विद्यासूचक वस्त्र आदि से सुभूषित वधू-वर का विवाह करें, जिससे संसार में उन सबकीनिर्विघ्न प्रतिष्ठा बढ़े ॥४१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४१−(देवैः) विद्वद्भिः (दत्तम्) (मनुना)मननशीलेन राज्ञा (साकम्) सह (एतत्) दृश्यमानम् (वाधूयम्) वैवाहिकम् (वासः)परिधानीयम् (वध्वः) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० २।३।६२। इति षष्ठी। वध्वै (च) (वस्त्रम्) योग्यतासूचकं वसनम् (यः) विद्वान् (ब्रह्मणे) वेदवेत्त्रेपुरुषाय (चिकितुषे) विद्यावते (ददाति) प्रयच्छति (सः) (इत्) एष (रक्षांसि)दोषान् (तल्पानि) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। तल प्रतिष्ठायां-प प्रत्ययः, ततःअर्शआद्यच्। तल्पे प्रतिष्ठायांसम्माने भवानि (हन्ति) नाशयति ॥

४२ यं मे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यं मे॑ द॒त्तोब्र॑ह्मभा॒गं व॑धू॒योर्वाधू॑यं॒ वासो॑ व॒ध्व᳡श्च॒ वस्त्र॑म्।
यु॒वं ब्र॒ह्मणे॑ऽनु॒मन्य॑मानौ॒ बृह॑स्पते सा॒कमिन्द्र॑श्च द॒त्तम् ॥

४२ यं मे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What priest’s portion they (dual) give to me the bride-seeker
    (vadhūyú), the bridal garment and bride’s dress, do ye, O Brihaspati
    and Indra, assenting, together give it to the priest (brahmán).
Notes

The anomalous accent dattám at the end is read by all our ⌊and SPP’s⌋
authorities. Ppp. varies considerably: yan no ‘diti brahmabhāgaṁ
vadhūyor vāso vadhvaś ca vastram;
and dhattām at the end.

Griffith

The priestly meed wherewith ye twain present me, the vesture of the bride, the nuptial garment, This do ye both, Brihaspati and Indra, bestow with loving-kind- ness on the Brahman.

पदपाठः

यम्। मे॒। द॒त्तः। ब्र॒ह्म॒ऽभा॒गम्। व॒धू॒ऽयोः। वाधू॑ऽयम्। वासः॑। व॒ध्वः᳡। च॒। वस्त्र॑म्। यु॒वम्। ब्र॒ह्मणे॑। अ॒नु॒ऽमन्य॑मानौ। बृह॑स्पते। सा॒कम्। इन्द्रः॑। च॒। द॒त्तम्। २.४२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) जो (ब्रह्मभागम्) ब्रह्मा [वेदवेत्ता] का भाग [अर्थात्] (वाधूयम्) विवाह का (वासः)पहिरने योग्य (वस्त्रम्) वस्त्र [योग्यता का चिह्न] (वधूयोः=वधूयवे) वधू केकामना करनेवाले (मे) मुझ (ब्रह्मणे) ब्रह्मा [वेदवेत्ता वर] को (च) और (वध्वः=वध्वै) वधू को (दत्तः) वे दोनों [वर और वधू के पक्षवाले] देते हैं। (बृहस्पते)हेबृहस्पति ! [बड़ी विद्या के रक्षक आचार्य] (च) और (इन्द्रः) हे बड़ेऐश्वर्यवाले राजन् ! (साकम्) साथ-साथ (अनुमन्यमानौ) अनुमति देते हुए (युवम्)तुम दोनों [वह वस्त्र] (दत्तम्) देओ ॥४२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब वधू-वर के पक्षवालेयुवा-युवती का विवाह निश्चित करें, तब वे राजव्यवस्था और गुरुकुल आदि की शिक्षाके अनुसार दोनों की आयु, विद्या, स्वस्थता, सुशीलता आदि योग्यता को अवश्य विचारलेवें ॥४२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४२−(यम्) (मे) मह्यम् (दत्तः) प्रयच्छतः, तौ वधूवरपक्षौ (ब्रह्मभागम्)ब्रह्मणा वेदज्ञेन सेवनीयं पदार्थम् (वधूयोः) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा०२।३।३२। इति षष्ठी। वधूयवे। वधूकामाय वराय (वासः) परिधानीयम् (वध्वः) म० ४१।वध्वै (च) (वस्त्रम्) योग्यतासूचकं वसनम् (युवम्) युवाम् (ब्रह्मणे) वेदवत्त्रेपुरुषाय (अनुमन्यमानौ) अनुमतिं ददमानौ (बृहस्पते) बृहत्या विद्यायाः पालक आचार्य (साकम्) (इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (दत्तम्) प्रयच्छतम् ॥

४३ स्योनाद्योनेरधि बुध्यमानौ

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

स्यो॒नाद्योने॒रधि॒ बुध्य॑मानौ हसामु॒दौ मह॑सा॒ मोद॑मानौ।
सु॒गू सु॑पु॒त्रौसु॑गृ॒हौ त॑राथो जी॒वावु॒षसो॑ विभा॒तीः ॥

४३ स्योनाद्योनेरधि बुध्यमानौ ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Awaking out of a pleasant lair (yóni), mightily enjoying
    yourselves, merry, having good kine, good sons, good houses, may ye,
    living, pass the outshining dawns.
Notes

Ppp. reads in c, d subhāu suputrāu sukṛtāu carātāu jīvā uṣ-; our
P.M.W. have carātho. To accent tárāthas, counting it to d
instead of c, would be an improvement. The verse (which scans 11 +
11: 8 + 11 or 11 + 8 = 41) is very ill described by the Anukr. According
to Kāuś. 79. 12, it accompanies the rising from the nuptial bed.

Griffith

On your soft couch awaking both together, revelling heartily with joy and laughter, Rich with brave sons, good cattle, goodly homestead, live long to look on many radiant mornings.

पदपाठः

स्यो॒नात्। योनेः॑। अधि॑। बुध्य॑मानौ। ह॒सा॒मु॒दौ। मह॑सा। मोद॑मानौ। सु॒गू इति॑ सु॒ऽगू। सु॒ऽपु॒त्रौ। सु॒ऽगृ॒हौ। त॒रा॒थः॒। जी॒वौ। उ॒षसः॑। वि॒ऽभा॒तीः। २.४३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुब्गर्भा पङ्क्ति
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे स्त्री-पुरुषो !] (स्योनात्) सुखदायक (योनेः) घर से (अधि) अच्छे प्रकार (बुध्यमानौ) जागते हुए, (हसामुदौ) हँसी और आनन्द करते हुए (महसा) बड़े प्रेम से (मोदमानौ) हर्ष मनातेहुए, (सुगू) सुन्दर चाल चलनेवाले [वा उत्तम गौओंवाले] (सुपुत्रौ) श्रेष्ठपुत्रोंवाले, (सुगृहौ) श्रेष्ठ गृह सामग्रीवाले, (जीवौ) प्राणों को धारण करतेहुए तुम दोनों (विभातीः) सुन्दर प्रकाशयुक्त (उषसः) बहुत प्रभातवेलाओं को (तराथः) पार करो ॥४३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषों कोउचित है कि अपने घरों को आवश्यक गृहसामग्रियों से भरपूर रक्खें और पुत्र-पौत्रआदि के साथ प्रसन्न रहकर चिरजीवी होकर यशस्वी होवें ॥४३॥यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४३−(स्योनात्)सुखप्रदात् (योनेः) गृहात्-निघ० ३।४ (अधि) यथाविधि (बुध्यमानौ) जागरूकौ।अप्रमत्तौ (हसामुदौ) हास्येनामोदं कुर्वन्तौ (महसा) महता प्रेम्णा (मोदमानौ)हर्षन्तौ (सुगू) सु+गच्छतेर्डु, यद्वा। गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य। पा० १।२।४८। इतिगोर्ह्रस्वः। शोभनचरित्रौ। उत्तमगोयुक्तौ (सुपुत्रौ) श्रेष्ठसन्तानौ (सुगृहौ)श्रेष्ठगृहसामग्रीयुक्तौ (तराथः) पारयतम् (जीवौ) प्राणान् धारयन्तौ (उषसः)बहुप्रभातवेलाः (विभातीः) विविधप्रकाशमानाः ॥

४४ नवं वसानःसुरभिः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

नवं॒ वसा॑नःसुर॒भिः सु॒वासा॑ उ॒दागां॑ जी॒व उ॒षसो॑ विभा॒तीः।
आ॒ण्डात्प॑त॒त्रीवा॑मुक्षि॒विश्व॑स्मा॒देन॑स॒स्परि॑ ॥

४४ नवं वसानःसुरभिः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Clothing myself anew, fragrant, well-dressed, I have risen alive
    unto the outshining dawns; as a bird from the egg, I have been released
    out of all sin.
Notes

Ppp. combines a-b suvāso ’dā-. According to Kāuś. 79. 27, the
verse is used when the priest comes back after washing the bridal
garment.

Griffith

Clad in new garments, fragrant, well-apparelled, to meet reful- gent Dawn have I arisen. I, like a bird that quits the egg, am freed from sin and purified.

पदपाठः

नव॑म्। वसा॑नः। सु॒र॒भिः। सु॒ऽवासाः॑। उ॒त्ऽआगा॑म्। जी॒वः। उ॒षसः॑। वि॒ऽभा॒तीः। आ॒ण्डात्। प॒त॒त्रीऽइ॑व। अ॒मु॒क्षि॒। विश्व॑स्मात्। एन॑सः। परि॑। २.४४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रस्तार पङ्क्ति
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नवम्) स्तुति को (वसानः) धारण करता हुआ, (सुरभिः) ऐश्वर्यवान् (सुवासाः) सुन्दर निवासवाला, (जीवः) जीव [जीवता हुआ] मैं (विभातीः) सुन्दर प्रकाशयुक्त (उषसः) प्रभातवेलाओंमें (उदागाम्) उदय होता रहूँ। (आण्डात्) अण्डे से (पतत्री इव) पक्षी से समान (विश्वस्मात्) सब (एनसः) कष्ट से (परि) सर्वथा (अमुक्षि) छूट जाऊँ ॥४४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य गृहाश्रम मेंप्रवेश करके प्रयत्न करे कि वह प्रभात के सूर्य के समान उदय होता हुआ तेजस्वी, प्रशंसित, बलवान्, धनवान्, चिरजीवी होकर सुख भोगता रहे ॥४४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४४−(नवम्) णुस्तुतौ-अप्। स्तवम्। स्तुतिम् (वसानः) धारयन् (सुरभिः) अ० १२।१।२३। षुरऐश्वर्यदीप्त्योः-अभिच्। ऐश्वर्यवान् (सुवासाः) सुनिवासयुक्तः (उदागाम्) उदयंप्राप्नुयाम् (जीवः) प्राणान् धारयन् (उषसः) प्रभातवेलाः (विभातीः)विविधप्रकाशयुक्ताः (आण्डात्) स्वार्थे-अण्। अण्डात् (पतत्री) पक्षी (इव) यथा (अमुक्षि) मुक्तो भवानि (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (एनसः) कष्टात् (परि) पृथग्भावे ॥

४५ शुम्भनीद्यावापृथिवी अन्तिसुम्ने

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शुम्भ॑नी॒द्यावा॑पृथि॒वी अन्ति॑सुम्ने॒ महि॑व्रते।
आपः॑ स॒प्त सु॑स्रुवुर्दे॒वीस्ता नो॑मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

४५ शुम्भनीद्यावापृथिवी अन्तिसुम्ने ...{Loading}...

Whitney
Translation

45 . Beautiful [are] heaven-and-earth, pleasant near by, of great
courses; seven divine waters have flowed; let them free us from
distress.

Notes

This verse is a repetition of vii. 112. 1. Ppp. reads in b
yantusumne, and, for c, āpas sapta sravantīs ( etc.). The
redundant syllable in c is not noticed by the Anukr. here, although
it was so at the other occurrence. The verse is used by Kāuś. 78. 10
with vs. 1 (see the note to that verse), and again in 78. 13 it
accompanies the pouring of water into the folded hands of the pair; and
yet again, in 79. 25, the pouring of water on the bridal garment; this
use is evidently the one which gives the verse its place here.

Griffith

Splendid are Heaven and Earth, still near to bless us, mighty in their power; The seven streams have flowed: may they, Goddesses, free us from distress

पदपाठः

शुम्भ॑नी॒ इति॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अन्ति॑सुम्ने॒ इत्यन्ति॑ऽसुम्ने। महि॑व्रते॒ इति॒ महि॑ऽव्रते। आपः॑। स॒प्त। सु॒स्रु॒वः॒। दे॒वीः। ताः। नः॒। मु॒ञ्च॒न्तु॒ अंह॑सः। २.४५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शुम्भनी) शोभायमान (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवीलोक (अन्तिसुम्ने) [अपनी] गतियों से सुखदेनेवाले और (महिव्रते) बड़े व्रत [नियम] वाले हैं। (देवीः) उत्तम गुणवाली (सप्त) सात (आपः) व्यापनशील इन्द्रियाँ [दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख] (सुस्रुवुः) [हमें] प्राप्त हुई हैं, (ताः) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥४५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य औरपृथिवीलोक ईश्वरनियम से अपनी-अपनी गति पर चलकर वृष्टि अन्न आदि से उपकार करतेहैं, वैसे ही मनुष्य इन्द्रियों को नियम में रखकर अपराधों से बचें ॥४५॥यह मन्त्रऊपर आ चुका है-अ० ७।११२।१ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४५−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ७।११२।१ ॥

४६ सूर्यायैदेवेभ्यो मित्राय

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सू॒र्यायै॑दे॒वेभ्यो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च।
ये भू॒तस्य॒ प्रचे॑तस॒स्तेभ्य॑ इ॒दम॑करं॒ नमः॑॥

४६ सूर्यायैदेवेभ्यो मित्राय ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unto Sūryā, unto the gods, unto Mitra and Varuṇa, unto them who are
    forethoughtful of that which exists, have I paid this homage.
Notes

The verse is RV. x. 85. 17, with a differently ordered d, idáṁ
tébhyo ‘karaṁ námaḥ
, by which is avoided the redundancy of a
syllable—which the Anukr. passes unheeded. ⌊Ppp. avoids it in yet
another way by reading tebhyo ‘ham akaraṁ namaḥ. Kāuś. uses it twice
in 77; once in 5, on the wedding-journey; and again in 23, on arrival at
the new home. ⌊As to the “deity.” of the verse, see above, p. 739, ¶’s
4, 5, 7.⌋

Griffith

To Surya and the Deities, to Mitra and to Varuna, Who know aright the thing that is, this adoration have I paid.

पदपाठः

सू॒र्यायै॑। दे॒वेभ्यः॑। मि॒त्राय॑। वरु॑णाय। च॒। ये। भू॒तस्य॑। प्रऽचे॑तसः। तेभ्यः॑। इ॒दम्। अ॒क॒र॒म्। नमः॑। २.४६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्यायै)बुद्धिमानों का हित करनेवाली विद्या के लिये, (देवेभ्यः) उत्तम गुणों के पाने केलिये (च) और (वरुणाय) श्रेष्ठ (मित्राय) मित्र की प्राप्ति के लिये (ये) जोपुरुष (भूतस्य) उचित कर्म के (प्रचेतसः) जाननेवाले हैं, (तेभ्यः) उनके लिये (इदम्) यह (नमः) नमस्कार (अकरम्) करता हूँ ॥४६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्याप्राप्त करके उत्तम गुणों और श्रेष्ठ मित्रों को प्राप्त करते हैं, वे संसार मेंप्रशंसनीय होते हैं ॥४६॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।१७ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४६−(सूर्यायै) सूराः सूरयो वा मेधाविनः, तेभ्यो हिता, सूर सूरि वा-यत्। सूर्यावाङ्नाम-निघ० १।११। विद्याप्राप्तये (देवेभ्यः) उत्तमगुणानां लाभाय (मित्राय)मित्रलाभाय (वरुणाय) वरणीयाय श्रेष्ठाय (च) (ये) विद्वांसः (भूतस्य) उचितकर्मणः (प्रचेतसः) प्रज्ञातारः (तेभ्यः) (इदम्) (अकरम्) करोमि (नमः) नमस्कारम् ॥

४७ य ऋतेचिदभिश्रिषः

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य ऋ॒तेचि॑दभि॒श्रिषः॑ पु॒रा ज॒त्रुभ्य॑ आ॒तृदः॑।
सन्धा॑ता स॒न्धिं म॒घवा॑पुरू॒वसु॒र्निष्क॑र्ता॒ विह्रु॑तं॒ पुनः॑ ॥

४७ य ऋतेचिदभिश्रिषः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. He who, without a clamp (? abhiśríṣ), before the piercing of the
    neck-ropes (? jatrú), combines (sam-dhā) a combination—he the
    bountiful, the one of much good—removes again what is spoiled
    (víhruta).
Notes

⌊Or ‘joins a joining’ and ‘mends again what is damaged,’ as W. suggests
in pencil.⌋ This obscure verse is RV. viii. 1 . 12, and is found also in
several other texts, as SV. (i. 244), MS. (iv. 9. 12), TA. (iv. 20. 1),
PB. (ix. 10. 1), KśS. xxv. 5. 30. The RV. text differs from ours only by
having in d íṣkartā for níṣk-; KśS. alone agrees with RV. in
this; SV. is throughout as AV.; PB. begins yakṣate cid, and has
vihṛtam d; TA. begins yád ṛté, has jartṛ́bhyas in b,
purovásus in c, ⌊and víhṛtam in d in the Calcutta ed.: the
Poona ed., p. 327, prints it víhrutam, with a virāma after the
h!⌋. MS. has a very corrupt text for a, b (jári cétī́d etc.), and
saṁdhís and puruv- in c; and the Āpast. text (Wint., p. 69 ⌊MP.
i. 7. 1⌋) agrees throughout with TA. Ppp. writes āṛdaḥ for ātṛdaḥ.
The needed description of the verse as a pathyābṛhatī is omitted by
our Anukr. Vāit. 12. 7 has the verse used as expiation when anything is
broken during the sacrifice; Kāuś. 77. 7, when anything on the bridal
car needs mending; and also, 57. 7, when a student’s staff is broken.

Griffith

He without ligature, before making incision in the neck. Closed up the wound again, most wealthy Bounteous Lord who healeth the dissevered parts.

पदपाठः

यः। ऋ॒ते। चि॒त्। अ॒भि॒ऽश्रिषः॑। पु॒रा। ज॒त्रुऽभ्यः॑। आ॒ऽतृदः॑। सम्ऽधा॑ता। स॒म्ऽधिम्। म॒ऽघ‍वा॑। पु॒रु॒ऽवसुः॑। निःऽक॑र्ता। विऽह्रु॑तम्। पुनः॑। २.४७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • पथ्याबृहती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [परमेश्वर] (पुरा) पहिले से [वर्तमान] (ऋते) सत्य नियम में (चित्) ही (अभिश्रिषः) चिपकानेके साधन [वीर्य के बिन्दु] से (जत्रुभ्यः) ग्रीवा आदि जोड़ों के [बनाने के] लिये (आतृदः) [रुधिर के] सब ओर टकराने [घूमने] से (सन्धिम्) हड्डी के जोड़ को (संधाता) जोड़ देनेवाला है, (मघवा) वह पूज्य (पुरूवसुः) बहुत श्रेष्ठ गुणोंवाला [परमात्मा] (विह्रुतम्) टेढ़े हुएअङ्ग को (पुनः) फिर (निष्कर्ता) ठीक करनेवालाहै ॥४७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर के अनादिसत्य नियम के अनुसारबीज चाहे सीधा पड़े चाहे टेढ़ा, वह पृथिवी की भीतरी गति सेऐसा ठीक हो जाता है कि उससे ऊपर को अङ्कुर और नीचे को जड़ उपजती है, इसी प्रकारवीर्य गर्भाशय में ठीक होकर नाभि से सम्बन्ध करता है, तब रुधिर के संचार से बालकके अङ्ग सीधे होकर पूरे और पुष्ट होते हैं ॥४७॥यह मन्त्र सामवेद में है−पू०३।६।२, तथा कुछ भेद से ऋग्वेद में है ८-१।१२ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४७−(यः) परमेश्वरः (ऋते) सत्यनियमे (चित्) एव (अभिश्रिषः) अभिश्लिषः। अभिश्लेषणात् सन्धानद्रव्यात्।वीर्यबिन्दुसकाशात् (पुरा) पूर्वकाले (जत्रुभ्यः) जत्र्वादयश्च। उ० ४।१०२। जनीप्रादुर्भावे-रु, नस्य तः। ग्रीवादिसन्धीनां रचनाय (आतृदः) उतृदिर्हिंसानादरयोः-क्विप्। आतर्दनात्। प्रताडनात्। रुधिरस्य संचारात् (सन्धाता)संयोजयिता भवति (सन्धिम्) अस्थिसंयोगम् (मघवा) अ० २।५।७।श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्०। उ० १।१५९। मह पूजायाम्-कनिन्, हस्य घः, अवुगागमश्च।पूजनीयः−(पुरुवसुः) सांहितिको दीर्घः। बहुश्रेष्ठगुणयुक्तः परमात्मा (निष्कर्ता) संस्कर्ता। सन्धाता भवति (विह्रुतम्) ह्वृ कौटिल्ये-क्त। कुटिलमङ्गम् (पुनः) ॥

४८ अपास्मत्तमउच्छतु नीलम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अपा॒स्मत्तम॑उच्छतु॒ नीलं॑ पि॒शङ्ग॑मु॒त लोहि॑तं॒ यत्।
नि॑र्दह॒नी या पृ॑षात॒क्य१॒॑स्मिन्तांस्था॒णावध्या स॑जामि ॥

४८ अपास्मत्तमउच्छतु नीलम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Away from us let the darkness shine (vas), that is deep blue,
    brown (piśán̄ga), also red; she who is consuming, spotted, her I fasten
    (ā-saj) on this pillar.
Notes

The latter half-verse is corrupt in Ppp. beyond intelligibility. ⌊The
definition sataḥpan¯kti (cf. my note to vi. 20. 3 and Ind. Stud.
viii. 45) presumably means 9 + 11: 9 + 11. If we could dispense with the
yā́ in c, the verse would be excellent so far as rhythm and cadence
go (8 + 11: 8 + 11).⌋ It is used in Kāuś. 79. 22 in connection with
taking away the bridal garment to cleanse it. The ‘she’ is perhaps the
female demon supposed to belong to the defiled article.

Griffith

Let him flash gloom away from us, the blue, the yellow and the red. I fasten to this pillar here the burning pest Prishataki.

पदपाठः

अप॑। अ॒स्मत्। तमः॑। उ॒च्छ॒तु॒। नील॑म्। पि॒शङ्ग॑म्। उ॒त। लोहि॑तम्। यत्। निः॒ऽद॒ह॒नी। या। पृ॒षा॒त॒की। अ॒स्मिन्। ताम्। स्था॒णौ। अधि॑। आ। स॒जा॒मि॒। २.४८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सतः पङ्क्ति
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मत्) हमसे (तमः)अन्धकार (अप उच्छतु) बाहिर जावे, (उत) और [वह भी], (यत्) जो कुछ (नीलम्) नीला, (पिशङ्गम्) पीला और (लोहितम्) रक्त वर्ण [अशुद्ध वस्तु] है। (निर्दहनी) जलादेनेवाली (या) जो (पृषातकी) वृद्धि बाँधनेवाली [पीड़ा] (अस्मिन्) इस (स्थाणौ)स्थिर चित्तवाले मनुष्य में है, (ताम्) उस [पीड़ा] को (अधि) अधिकारपूर्वक (आसजामि) मैं बाँधता [रोकता हूँ] ॥४८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य स्थिरचित्तहोकर अपने शारीरिक, मानसिक और सामाजिक अशुद्धि, रोग आदि विघ्नों को हटावें॥४८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४८−(अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (तमः) तम खेदे-असुन्। अन्धकारः (अप उच्छतु)उच्छी विवासे। दूरे गच्छतु (नीलम्) (पिशङ्गम्) पीतवर्णम् (उत) अपि च (लोहितम्)रक्तवर्णम्। रोगविशिष्टं वस्तु (यत्) वस्तु (निर्दहनी) नितरां दहनशीला (या)पीडा) (पृषातकी) पृषु सेचने-क+बहुलमन्यत्रापि। उ० २।३७। अत बन्धने-क्वुन्, गौरादित्वाद् ङीष्। सेचनस्य वर्धनस्य बन्धनशीला निवारणशीला (अस्मिन्) (ताम्)पीडाम् (स्थाणौ) स्थिरस्वभावे मनुष्ये (अधि) अधिकृत्य (आ सजामि) षञ्ज सङ्गे।प्रबध्नामि। रुणध्मि ॥

४९ यावतीः कृत्याउपवासने

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याव॑तीः कृ॒त्याउ॑प॒वास॑ने॒ याव॑न्तो॒ राज्ञो॒ वरु॑णस्य॒ पाशाः॑।
व्यृ᳡द्धयो॒ या अस॑मृद्धयो॒या अ॒स्मिन्ता स्था॒णावधि॑ सादयामि ॥

४९ यावतीः कृत्याउपवासने ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. How many witchcrafts in the outer garment (? upavā́sana), how many
    fetters of king Varuṇa, what failures, what non-successes—them I cause
    to sit upon this pillar.
Notes

Ppp. has paścācāne in a for upavāsane; and, for d, asmin tā
stāno muñcāmi sarvām
. Our P.M.W. read in d tā́ṁ sth-; the rest,
tā́ḥ sth-. In Kāuś. 79. 23 the verse is used immediately after the
preceding. The lack of a syllable in a is disregarded by the Anukr.

Griffith

All witcheries that hang about this garment, all royal Varuna’s entangling nooses. All failure of success and all misfortunes here I deposit fastened to the pillar.

पदपाठः

याव॑तीः। कृ॒त्याः। उ॒प॒ऽवास॑ने। याव॑न्तः। राज्ञः॑। वरु॑णस्य। पाशाः॑। विऽऋ॑ध्दयः। याः। अस॑म्ऽऋध्दयः। याः। अ॒स्मिन्। ताः। स्था॒णौ। अधि॑। सा॒द॒या॒मि॒। २.४९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उपवासने) निवासस्थान [ग्राम आदि] में (राज्ञः) ऐश्वर्यवान् पुरुष की (वरुणस्य) रोक की (यावतीः) जितनी (कृत्याः) पीड़ाएँ और (यावन्तः) जितने (पाशाः) फन्दे हैं। और (याः) जो (व्यृद्धयः) निर्धनताएँ और (याः) जो (असमृद्धयः) असिद्धियाँ (अस्मिन्) इस (स्थाणौ) स्थिर चित्तवाले मनुष्य में हैं, (ताः) उन [सब बाधाओं] को (अधि) अधिकारपूर्वक (सादयामि) मैं मिटाता हूँ ॥४९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ग्राम आदि देशों मेंजो विद्वानों की वृद्धि रोकनेवाले विघ्न उपस्थित होवें, उनका प्रतीकार शीघ्रकरना चाहिये ॥४९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४९−(यावतीः) यत्परिमाणाः (कृत्या) कृञ् हिंसायाम्-क्यप् तुक् च।हिंसाः। पीडाः (उपवासने) निवासस्थाने। उपवसथे। ग्रामे (यावन्तः) (राज्ञः)ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (वरुणस्य) आवरणस्य। रोधनस्य (पाशाः) बन्धाः (व्यृद्धयः)असम्पत्तयः (याः) (असमृद्धयः) असिद्धयः (याः) (अस्मिन्) (ताः) बाधाः (स्थाणौ)दृढस्वभावे पुरुषे (अधि) अधिकृत्य (सादयामि) षद्लृ अवसादने। नाशयामि ॥

५० या मेप्रियतमा

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या मे॑प्रि॒यत॑मा त॒नूः सा मे॑ बिभाय॒ वास॑सः।
तस्याग्रे॒ त्वं व॑नस्पते नी॒विंकृ॑णुष्व॒ मा व॒यं रि॑षाम ॥

५० या मेप्रियतमा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What is my dearest self (tanū́), that of me is afraid of the
    garment; of it do thou, O forest-lord, make first (ágre) for thyself
    an inner wrap (nīví); let us not suffer harm.
Notes

This verse is used in Kāuś. 79. 24 next after the two preceding, the
person who has the garment in charge wrapping a tree with it. The Anukr.
contains no definition of the meter (8 + 8: 8 + 11 = 35). The verse, as
noted above, is wanting in Ppp.

Griffith

My body that I hold most dear trembles in terror at this robe. Tree, make an apron at the top. Let no misfortune fall on us.

पदपाठः

या। मे॒। प्रि॒यऽत॑मा। त॒नूः। सा। मे॒। बि॒भा॒य॒। वास॑सः। तस्य॑। अग्ने॑। त्वम्। व॒न॒स्प॒ते॒। नी॒विम्। कृ॒णु॒ष्व॒। मा। व॒यम्। रि॒षा॒म॒। २.५०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • उपरिष्टात् निचृत बृहती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वीर !] (या) जो (मे) मेरा (प्रियतमा) अत्यन्त प्रिय (तनूः) शरीर है, (सा) वह (मे) मेरा शरीर (वाससः) हिंसा कर्म से (बिभाय) डरता है। (वनस्पते) हे सेवनीय व्यवहार के रक्षक ! (त्वम्) तू (अग्रे) पहिले से (तस्य) उस [हिंसा कर्म] का (नीविम्) बन्धन (कृणुष्व) कर, (वयम्) हम लोग (मा रिषाम) कभी न कष्ट पावें ॥५०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् गृहस्थों काकर्तव्य है कि दूसरों को सताकर अपनों को दूषित न करें और उस का पहिले से विचारकरके राजदण्ड आदि के पश्चात्ताप से बचकर सुखी रहें ॥५०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५०−(या) (मे) मम (प्रियतमा) अतिशयेन प्रिया (तनूः) शरीरम् (सा) तनूः (मे) मम (बिभाय) बिभेति (वाससः) वसेर्णित्। उ० ४।२१८। वस हिंसायाम्-असुन्, णित्। हिंसाकर्मणः सकाशात् (तस्य) हिंसाकर्मणः (अग्रे) आदौ (त्वम्) (वनस्पते) वननीयस्य सेवनीयव्यवहारस्यरक्षक (नीविम्) नौ व्यो यलोपः पूर्वस्य च दीर्घः। उ० ४।१३६। नि+व्येञ्संवरणे-इण् डित्, यलोपः, उपसर्गस्य दीर्घः। कटिबन्धनम्। प्रबन्धम् (कृणुष्व)कुरु (वयम्) (मा रिषाम) दुःखिता न भवेम ॥

५१ ये अन्तायावतीः

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ये अन्ता॒याव॑तीः॒ सिचो॒ य ओत॑वो॒ ये च॒ तन्त॑वः।
वासो॒ यत्पत्नी॑भिरु॒तं तन्नः॑स्यो॒नमुप॑ स्पृशात् ॥

५१ ये अन्तायावतीः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What ends [there are], how many edges (síc), what webs, and what
    lines; what garment woven by the spouses—may that touch us pleasantly.
Notes

More lit., ‘[as] a pleasant one.’ With this verse, according to Kāuś.
79. 26, the new possessor of the garment puts it on, then coming back
with vs. 44. The Anukr. notices this time the redundant syllable in
b (we are doubtless to contract to yāú ’tavo). Ppp. reads, for
c, d, vāso yat patnībhṛtaṁ tanvā syonam upa spṛśaḥ.

Griffith

May all the hems and borders all the threads that form the web and woof. The garment woven by the bride, be soft and pleasant to our touch.

पदपाठः

ये। अन्ताः॑। याव॑तीः। सिचः॑। ये। ओत॑वः। ये। च॒। तन्त॑वः। वासः॑। यत्। पत्नी॑भिः। उ॒तम्। तत्। नः॒। स्यो॒नम्। उप॑। स्पृ॒शा॒त्। २.५१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (अन्ताः)वस्त्र के आँचल, (यावतीः) जितनी (सिचः) कोरें, (ये) जो (ओतवः) बुनावटें, (च) और (ये) जो (तन्तवः) तन्तु [ताँते] हैं। (यत्) जो (वासः) वस्त्र (पत्नीभिः)पत्नियों करके (उतम्) बुना गया है, (तत्) वह (नः) हम से (स्योनम्) सुख के साथ (उप स्पृशात्) चिपटा रहे ॥५१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे विदुषी चतुरस्त्रियों के बुने और बनाये वस्त्र शरीर को सुख देते हैं, वैसे ही विद्वानों केविचारपूर्वक किये काम उपकारी होते हैं ॥५१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५१−(ये) (अन्ताः) वस्त्रान्ताः (यावतीः) यत्संख्याकाः (सिचः) षिच आर्द्रीकरणे-क्विप्। वस्त्रान्तविशेषाः (ये) (ओतवः) सितनिगमिमसिसच्यवि०। उ० १।६९। अव रक्षणादिषु-तुन्, ऊठ्च, यद्वा आङ्+वेञ्तन्तुसन्ताने-तुन् सम्प्रसारणं च। पटे दीर्घतन्तवः (ये) (च) (तन्तवः) तनुविस्तारे-तुन्। सूत्राणि (वासः) वस्त्रम् (यत्) (पत्नीभिः) (उतम्) वेञ् तन्तुसन्ताने-क्त। स्यूतम् (तत्) (नः) अस्मान् (स्योनम्) सुखेन (उप) उपेत्य (स्पृशात्) स्पशेत् ॥

५२ उशतीः कन्यलाइमाः

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उ॑श॒तीः क॒न्यला॑इ॒माः पि॑तृलो॒कात्पतिं॑ य॒तीः।
अव॑ दी॒क्षाम॑सृक्षत॒ स्वाहा॑ ॥

५२ उशतीः कन्यलाइमाः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Eager, these young girls, going to a husband from the father’s
    world, have let go the consecration: hail!
Notes

All our mss. ⌊and SPP’s authorities⌋ leave yatīḥ in b unaccented,
as if 1. 32 c, as if pátiṁ yatīḥ were a sort of compound word,
⌊although the pada-text treats them as separate words!⌋. ⌊Cf. MP. i.
4. 4, and Wint, p. 54, vs. 4, p. 55 n. 1.⌋ The Anukr. counts in svā́hā
at the end as a metrical part of the verse. According to Kāuś. 75. 24,
this verse is uttered as the bride lays fuel on the fire; then ⌊75.
25⌋, with seven verses, (apparently, this and the six that follow ⌊so
schol.⌋), the prepared water is heated, and with vs. 65 below, the bride
is bathed.

Griffith

These maids who from their father’s house have come with long- ing to their lord have let the preparation pass. All hail!

पदपाठः

उ॒श॒तीः। क॒न्यलाः॑। इ॒माः। पि॒तृ॒ऽलो॒कात्। पति॑म्। य॒तीः॒। अव॑। दी॒क्षाम्। अ॒सृ॒क्ष॒त॒। स्वाहा॑। २.५२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विराट् परोष्णिक्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इमाः) यह (उशतीः)कामना करती हुईं (कन्यलाः) शोभावती कन्याएँ (पितृलोकात्) पितृलोक [पितृकुल] से (पतिम्) अपने-अपने पति को (यतीः) जाती हुईं (स्वाहा) सुन्दर वाणी के साथ (दीक्षाम्) दीक्षा [नियम व्रत की शिक्षा] को (अव सृक्षत) दान करें ॥५२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - गुणवती विदुषीस्त्रियाँ विवाह करके घर के सुप्रबन्ध से सन्तान आदि को वेद द्वारा उत्तम नियमऔर कर्म सिखावें ॥५२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५२−(उशतीः) कामयमानाः (कन्यलाः) अ० ५।५।३। अघ्न्यादयश्च। उ०४।११२। कनी दीप्तिकान्तिगतिषु-यक्+ला आदाने-क, टाप्। शोभाग्रहीत्र्यः (इमाः)विदुष्यः (पितृलोकात्) पितृकुलात् (पतिम्) स्वस्वभर्तारम् (यतीः) गच्छन्त्यः (दीक्षाम्) दीक्ष मौण्ड्येज्योपनयननियमव्रतादेशेषु-अप्रत्ययः। नियमव्रतयोःशिक्षाम् (अव सृक्षत) अवसृजन्तु। ददतु (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाण्या। वेदवाचा ॥

५३ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे

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बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्।
वर्चो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टं॒यत्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥

५३ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Her, let go by Brihaspati, all the gods maintained; what splendor is
    entered into the kine, with that do we unite this woman.
Notes

⌊Cf. Böhtlingk, ZDMG. liv. 614.⌋ Besides the use of vss. 53-58 made by
Kāuś. 75. 25, as noticed in the preceding note, they are again applied
in 76. 31, when at the end of the wedding ceremony the bride is
sprinkled with fragrant powders. The connection of ávasṛṣṭām with ávā
’sṛkṣata
in vs. 52 c, suggests dīkṣam as the word to be supplied
in the first lines of these verses; and so Ludwig translates.

Griffith

Her whom Brihaspati hath loosed the Visve Devas keep secure. With all the splendour that is stored in cows do we enrich this. girl.

पदपाठः

बृह॒स्पति॑ना। अव॑ऽसृष्टाम्। विश्वे॑। दे॒वाः। अ॒धा॒र॒य॒न्। वर्चः॑। गोषु॑। प्रऽवि॑ष्टम्। यत्। तेन॑। इ॒माम्। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। २.५३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिना) बृहस्पति [बड़ी वेदवाणी के रक्षक आचार्य] करके (अवसृष्टाम्) दी हुई [दीक्षा, नियम व्रतकी शिक्षा-मन्त्र ५२] को (विश्वे देवाः) सब विद्वानों ने (अधारयन्) धारण कियाहै। (यत्) जो (वर्चः) प्रताप (गोषु) विद्वानों में (प्रविष्टम्) प्रविष्ट है, (तेन) उससे (इमाम्) इस [प्रजा, स्त्री सन्तान आदि] को (सं सृजामसि) हम संयुक्तकरते हैं ॥५३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस प्रकार आचार्य सेसुशिक्षा पाकर पूर्वज विद्वानों ने उत्तम पद पाये हैं, वैसे ही मनुष्य अपनेलोगों को सुशिक्षा देकर उन्नत करें ॥५३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५३−(बृहस्पतिना) बृहत्या वेदवाण्यारक्षकेण। आचार्येण (अवसृष्टाम्) दत्ताम्, दीक्षाम्-इति पदस्यपूर्वमन्त्रादनुवृत्तिः (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (अधारयन्) धारितवन्तः (वर्चः) प्रतापः (गोषु) गच्छति जानातीति गौः। गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६।विद्वत्सु (प्रविष्टम्) व्याप्तम् (यत्) (तेन) (इमाम्) दृश्यमानां प्रजाम् (संसृजामसि) वयं संयोजयामः ॥

५४ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्।
तेजो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टं॒यत्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥

५४ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Her, let go etc. etc.; what brilliancy (téjas) is entered etc.
    etc.
Notes
Griffith

Her whom Brihaspati hath loosed the Visve Devas keep secure. With all the vigour that is stored in cows do we enrich this girl.

पदपाठः

बृह॒स्पति॑ना। अव॑ऽसृष्टाम्। विश्वे॑। दे॒वाः। अ॒धा॒र॒य॒न्। तेजः॑। गोषु॑। प्रऽवि॑ष्टम्। यत्। तेन॑। इ॒माम्। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। २.५४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिना)बृहस्पति….। (यत्) जो (तेजः) तेज (गोषु) विद्वानों में (प्रविष्टम्) प्रविष्टहै, (तेन) उससे…. [मन्त्र ५३] ॥५४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५३ के समान है॥५४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५४−(तेजः) ज्योतिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५३ ॥

५५ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्।
भगो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टो॒यस्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥

५५ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Her, let go etc. etc.; what fortune (bhága) is entered etc. etc.
Notes
Griffith

Her whom Brihaspati, etc. With all good fortune, etc.

पदपाठः

बृह॒स्पति॑ना। अव॑ऽसृष्टाम्। विश्वे॑। दे॒वाः। अ॒धा॒र॒य॒न्। भगः॑। गोषु॑। प्रऽवि॑ष्टः। यः। तेन॑। इ॒माम्। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। २.५५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिना)बृहस्पति….। (यः) जो (भगः) सेवनीय प्रभाव [ऐश्वर्य] (गोषु) विद्वानों में (प्रविष्टः) प्रविष्ट है, (तेन) उससे…. [मन्त्र ५३] ॥५५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५३ के समान है॥५५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५५−(भगः) सेवनीयः प्रभावः। ऐश्वर्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

५६ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्।
यशो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टं॒यत्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥

५६ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Her, let go etc. etc.; what glory is entered etc. etc.
Notes
Griffith

Her whom Brihaspati, etc. With all the glory, etc.

पदपाठः

बृह॒स्पति॑ना। अव॑ऽसृष्टाम्। विश्वे॑। दे॒वाः। अ॒धा॒र॒य॒न्। यशः॑। गोषु॑। प्रऽवि॑ष्टम्। यत्। तेन॑। इ॒माम्। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। २.५६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिना)बृहस्पति….। (यत्) जो (यशः) यश [दान शूरता आदि से बड़ा नाम] (गोषु) विद्वानोंमें (प्रविष्टम्) प्रविष्ट है, (तेन) उससे…. [मन्त्र ५३] ॥५६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५३ के समान है॥५६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५६−(यशः) दानशूरतादिप्रभवं सुनाम। अन्यद् गतम् ॥

५७ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्।
पयो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टं॒यत्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥

५७ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Her, let go etc. etc.; what milk (páyas) is entered etc. etc.
Notes
Griffith

Her whom Brihaspati, etc. With all the milky store possessed by cows do we enrich this girl.

पदपाठः

बृह॒स्पति॑ना। अव॑ऽसृष्टाम्। विश्वे॑। दे॒वाः। अ॒धा॒र॒य॒न्। पयः॑। गोषु॑। प्रऽवि॑ष्टम्। यत्। तेन॑। इ॒माम्। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। २.५७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिना)बृहस्पति….। (यत्) जो (पयः) विज्ञान (गोषु) विद्वानों में (प्रविष्टम्)प्रविष्ट है, (तेन) उससे…. [मन्त्र ५३] ॥५७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५३ के समान है॥५७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५७−(पयः) पय गतौ-असुन्। विज्ञानम्। अन्यद् गतम् ॥

५८ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे

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बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्।
रसो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टो॒यस्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥

५८ बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Her, let go etc. etc.; what sap is entered etc. etc.
Notes

Of these six verses, differing from one another only in one word, Ppp.
omits one (58), and puts 55 after 56.

Griffith

Her whom Brihaspati hath freed the Visve Devas keep secure. With all the store of sap that cows contain do we enrich this. girl.

पदपाठः

बृह॒स्पति॑ना। अव॑ऽसृष्टाम्। विश्वे॑। दे॒वाः। अ॒धा॒र॒य॒न्। रसः॑। गोषु॑। प्रऽवि॑ष्टः। यः। तेन॑। इ॒माम्। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। इ॒माम्। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। २.५८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिना) बृहस्पति [बड़ी वेदवाणी के रक्षक आचार्य] करके (अवसृष्टाम्) दी हुई [दीक्षा, नियम व्रतकी शिक्षा-म० ५२] को (विश्वे देवाः) सब विद्वानों ने (अधारयन्) धारण किया है। (यः) जो (रसः) रस [वीर्य वा वीर रस] (गोषु) विद्वानों में (प्रविष्टः) प्रविष्टहै, (तेन) उससे (इमाम्) इस [प्रजा, स्त्री सन्तान आदि] को (सं सृजामसि) हमसंयुक्त करते हैं ॥५८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पूर्वजविद्वानों के समान अपने लोगों को सुशिक्षित करके वीर बनाते हैं, वे सुप्रतिष्ठितहो कर सुख भोगते हैं ॥५८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५८−(रसः) वीर्यम्। वीररसः। अन्यद् गतम् ॥

५९ यदीमे केशिनोजना

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यदी॒मे के॒शिनो॒जना॑ गृ॒हे ते॑ स॒मन॑र्तिषू॒ रोदे॑न कृ॒ण्वन्तो॒३॒॑घम्।
अ॒ग्निष्ट्वा॒तस्मा॒देन॑सः सवि॒ता च॒ प्र मु॑ञ्चताम् ॥

५९ यदीमे केशिनोजना ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. If these hairy people have danced together in thy house, doing evil
    with wailing—from that sin let Agni and Savitar release thee.
Notes

This and the three following verses are discussed by Bloomfield in AJP.
xi. 336 ff. ⌊or JAOS. xv., p. xliv. = PAOS. for Oct. 1890⌋. They
evidently have no connection originally with marriage ceremonies, but
rather with wailings for the dead, which are regarded as ill-omened and
requiring expiation.* ⌊Cf. the following verses.⌋ Kāuś. quotes only
this one (79. 30), and for no definite purpose, combining it with 1. 46
(see note to the latter). Ppp. reads in a yad amī for yadī ’me,
and in c kṛṇvatīs. The false accent kṛṇvantás (which our edition
has not corrected) is read by all our mss. save one (D.).

⌊The case is nearly the same with the authorities of SPP., who says,
“This reading [kṛṇvantó] appears ancient, traditional, and general.”
A note in my copy of AV. suggests that the blunder may have crept in
from vs. 61; and I find my surmise confirmed not only by SPP. (who,
however, attributes the wrong accent and kampa to vs. 60; see his
note), but also by the fact of similar occurrences elsewhere: cf., for
example, the curious avagraha of sám॰jñapayāmi at vi. 74. 2 (and my
note); the impossible ví॰bhāti at xiii. 3. 17, and note; etc.⌋

*⌊Cf. Francis James Child, The English and Scottish Popular Ballads,
part x., p. 498, under the heading “Tears destroy the peace of the
dead,” and the citation from MBh. xi. 1. 42-43 given on p. 294 of the
same part: “For they [the tears], like sparks, ’tis said, do burn
those men [for whom they’re shed]."⌋ ⌊See Lüders, ZDMG. lviii. 507.⌋

Griffith

If, wearing long loose hair, these men have danced together in thy house, committing sin with shout and cry, May Agni free thee from that guilt, may Savitar deliver thee,

पदपाठः

यदि॑। इ॒मे। के॒शिनः॑। जनाः॑। गृ॒हे। ते॒। स॒म्ऽअन॑र्तिषुः। रोदे॑न। कृ॒ण्व॒न्तः। अ॒घम्। अ॒ग्निः। त्वा॒। तस्मा॑त्। एन॑सः। स॒वि॒ता। च॒। प्र। मु॒ञ्च॒ता॒म्। २.५९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • पथ्यापङ्क्ति
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) यदि (इमे) यह (केशिनः) क्लेशयुक्त (जनाः) मनुष्य (ते गृहे) तेरे घर में (रोदेन) विलाप के साथ (अघम्) दुःख (कृण्वन्तः) करते हुए (समनर्तिषुः) मिलकर इधर-उधर फिरें। (अग्निः)तेजस्वी (च) और (सविता) प्रेरक मनुष्य (त्वा) तुझे (तस्मात् एनसः) उस कष्ट से (प्र) सर्वथा (मुञ्चताम्) छुड़ावे ॥५९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यदि घर के लोग रोग वादरिद्रता आदि के कारण से क्लेश उठावें, प्रधान पुरुष अपने मानसिक और शारीरिकउत्साह और परमेश्वर में विश्वास से तेजस्वी होकर उन का दुःख दूर करें॥५९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५९−(यदि) सम्भावनायाम् (इमे) समीपस्थाः (केशिनः) क्लिशेरन् लो लोपश्च। उ०५।३३। क्लिश उपतापे-अन्, लस्य लोपः। केश-इनि। क्लेशिनः। क्लेशयुक्ताः (जनाः)मनुष्याः (गृहे) (ते) तव (समनर्तिषुः) मिलित्वा नर्तनम् इतस्ततो गमनं कुर्युः (रोदेन) विलापेन (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (अघम्) दुःखम् (अग्निः) तेजस्वी (त्वा)त्वाम् (तस्मात्) (एनसः) कष्टात् (सविता) प्रेरकः पुरुषः (च) (प्र) प्रकर्षेण (मुञ्चताम्) एकवचनं लोट्। मोचयतु ॥

६० यदीयं दुहितातव

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यदी॒यं दु॑हि॒तातव॑ विके॒श्यरु॑दद्गृ॒हे रोदे॑न कृण्वत्य१॒॑घम्।
अ॒ग्निष्ट्वा॒ तस्मा॒देन॑सःसवि॒ता च॒ प्र मु॑ञ्चताम् ॥

६० यदीयं दुहितातव ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. If this daughter of thine has wailed with loosened hair (vikeśá)
    in thy house, doing evil with wailing—from that sin etc. etc.
Notes

Ppp. has a very different text: yad āsāu ⌊! yadā ’sāu?duhitā tava
vikreṣv arujat: bahu rodhena kṛṇvaty agham
.

Griffith

If in thy house thy daughter here have wept, with wild dishevel- led locks, committing sin with her lament. May Agni, etc.

पदपाठः

यदि॑। इ॒यम्। दु॒हि॒ता। तव॑। वि॒ऽके॒शी। अरु॑दत्। गृ॒हे। रोदे॑न। कृ॒ण्व॒ती। अ॒घम्। अ॒ग्निः। त्वा॒। तस्मा॑त्। एन॑सः। स॒वि॒ता। च॒। प्र। मु॒ञ्च॒ता॒म्। २.६०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • पथ्यापङ्क्ति
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे गृहस्थ !] (यदि)यदि (इयम्) यह (तव) तेरी (दुहिता) पुत्री (विकेशी) बाल बिखेरे हुए, (रोदेन)विलाप के साथ (अघम्) दुःख (कृण्वती) करती हुई (गृहे) घर में (अरुदत्) रोवे। (अग्निः) तेजस्वी (च) और… म० ५९ ॥६०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - [मन्त्र ५९] के समानहै ॥६०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६०−(इयम्) उपस्थिता (दुहिता) पुत्री (तव) (विकेशी) विकीर्णकेशा (अरुदत्)रुद्यात् (कृण्वती) कुर्वती। अन्यद्गतम्-म० ५९ ॥

६१ यज्जामयोयद्युवतयो गृहे

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यज्जा॒मयो॒यद्यु॑व॒तयो॑ गृ॒हे ते॑ स॒मन॑र्तिषू॒ रोदे॑न कृण्व॒तीर॒घम्।
अ॒ग्निष्ट्वा॒तस्मा॒देन॑सः सवि॒ता च॒ प्र मु॑ञ्चताम् ॥

६१ यज्जामयोयद्युवतयो गृहे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. If (yát) sisters (jāmí), if young women, have danced together
    in thy house, doing evil with wailing—from that sin etc. etc.
Notes

Because of the redundant syllable ⌊the second yád, intrusion?⌋ in
a, the Anukr. absurdly separates this verse from the others here,
and calls it a triṣṭubh.

Griffith

If the bride’s sisters, if young maids have danced together in thy house, committing sin with shout and cry. May Agni free thee from that guilt, may Savitar deliver thee.

पदपाठः

यत्। जा॒मयः॑। यत्। यु॒व॒तयः॑। गृ॒हे। ते॒। स॒म्ऽअन॑र्तिषु। रोदे॑न। कृ॒ण्व॒तीः। अ॒घम्। अ॒ग्निः। त्वा॒। तस्मा॑त्। एन॑सः। स॒वि॒ता। च॒। प्र। मु॒ञ्च॒ता॒म्। २.६१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (जामयः) कुलस्त्रियाँ और (यत्) जो (युवतयः) युवा स्त्रियाँ (ते गृहे) तेरे घर में (रोदेन)विलाप के साथ (अघम्) कष्ट (कृण्वतीः) करती हुईँ (समनर्तिषुः) मिलकर इधर-उधरफिरें। (अग्निः) तेजस्वी (च) और…. [म० ५९] ॥६१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५९ के समान है॥६१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६१−(यत्) यदि (जामयः) म० ३३। कुलस्त्रियः (यत्) (युवतयः) तरुण्यः (कृण्वतीः)कुर्वन्त्यः-अन्यद् गतम्-म० ५९ ॥

६२ यत्तेप्रजायां पशुषु

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यत्ते॑प्र॒जायां॑ प॒शुषु॒ यद्वा॑ गृ॒हेषु॒ निष्ठि॑तमघ॒कृद्भि॑र॒घं कृ॒तम्।
अ॒ग्निष्ट्वा॒ तस्मा॒देन॑सः सवि॒ता च॒ प्र मु॑ञ्चताम् ॥

६२ यत्तेप्रजायां पशुषु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. If in thy progeny, in thy cattle, or in thy houses is settled
    (ni-sthā) any evil done by the evil-doers—from that sin etc. etc.
Notes
Griffith

If any evil have been wrought by mischief-makers that affects thy cattle progeny or house, May Agni free thee from the woe, may Savitar deliver thee.

पदपाठः

यत्। ते॒। प्र॒ऽजाया॑म्। प॒शुषु॑। यत्। वा॒। गृ॒हेषु॑। निऽस्थि॑तम्। अ॒घ॒कृत्ऽभिः॑। अ॒घम्। कृ॒तम्। अ॒ग्निः। त्वा॒। तस्मा॑त्। एन॑सः। स॒वि॒ता। च॒। प्र। मु॒ञ्च॒ता॒म्। २.६२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • पथ्यापङ्क्ति
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे गृहस्थ !] (यत्)यदि (ते) तेरी (प्रजायाम्) प्रजा [जनपद के लोगों] में, (पशुषु) पशुओं में, (वा)अथवा (यत्) यदि (गृहेषु) घरों में (अघकृद्भिः) दुःख करनेवाले [रोगों वामनुष्यों] करके (कृतम्) किया गया (अघम्) दुःख (निष्ठितम्) स्थित कर दिया गया है। (अग्निः) तेजस्वी (च) और (सविता) प्रेरक पुरुष (त्वा) तुझे (तस्मात् एनसः) उसकष्ट से (प्र) सर्वथा (मुञ्चताम्) छुड़ावे ॥६२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यदि प्रजा के लोगों, पशुओं वा शिल्पशाला आदि घरों में रोगों से वा दुष्ट मनुष्यों से कष्ट उपस्थितहो, विद्वान् लोग विद्याबल से और परमेश्वर के सहाय से उस कष्ट को हटावें॥६२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६२−(यत्) यदि (ते) तव (प्रजायाम्) जनपदपुरुषेषु (पशुषु) गवादिषु (यत्) यदि (वा) अथवा (गृहेषु) शिल्पादिस्थानेषु (निष्ठितम्) स्थापितम् (अघवृद्भिः)दुःखकर्तृभिः (अघम्) दुःखम् (कृतम्) सम्पादितम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५९ ॥

६३ इयं नार्युपब्रूते

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इ॒यं नार्युप॑ब्रूते॒ पूल्या॑न्यावपन्ति॒का।
दी॒र्घायु॑रस्तु मे॒ पति॒र्जीवा॑ति श॒रदः॑ श॒तम्॥

६३ इयं नार्युपब्रूते ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This woman, scattering shrivelled grains (pū́lya) appeals: be my
    husband long-lived; may he live a hundred autumns.
Notes

Ppp. reads in b pūlpāni ⌊instead of our pū́lyani. For the
distinction between lpa and lya (note to vi. 127. 1), nāgarī mss.
are of course not to be trusted. All but one of SPP’s read pū́lpāni and
his two then living śrotriyas recited pū́lpāni. But in view of the
Prākrit pulla etc. he reads pū́lyāni.⌋ Instead of our d, Ppp.
reads edhantāṁ pitaro mama. The same verse is found in several Sūtras:
PGS. (i. 6. 2), HGS. (i. 20. 4), MB. (i. 2. 2), and the Āpast. text
(Wint., p. 56 ⌊MP. i. 5. 2⌋); but with sundry various readings in b
and d: for pūlyāni, the Āpast. text has gúlpāni ⌊Oxford ed.
kúlpāni⌋, and PGS. lājān, while HGS. and MB. give for the whole pāda
‘gnāu lājān āvapantī; in d the Āpast. text reads jī́vātu, and the
other three (nearly agreeing with Ppp.) for the whole pāda edhantāṁ
jñātayo mama;
MB., moreover, inserts between c and d śataṁ
varṣāṇi jīvatu
. ⌊PGS. has in c āyuṣmān for dīrghā́yus.⌋ ⌊Cf.
MGS. i. 11. 12 d, and p. 148.⌋ According to Kāuś. 76. 17, the verse is
repeated while the bride stands firm upon the stone and scatters the
grains. ⌊For āvapantikā́, cf. ii. 3. 1; iv. 37. 10; v. 13. 9 and
notes.⌋

Griffith

This woman utters wish and prayer, as down she casts the husks of corn: Long live my lord and master! yea, a hundred autumns let him live!

पदपाठः

इ॒यम्। नारी॑। उप॑। ब्रू॒ते॒। पूल्या॑नि। आ॒ऽव॒प॒न्ति॒का। दी॒र्घऽआ॑युः। अ॒स्तु॒। मे॒। पतिः॑। जीवा॑ति। श॒रदः॑। श॒तम्। २.६३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इयम्) यह (नारी) नारी [नर की पत्नी] (पूल्यानि) संगति के कर्मों को [बीजसमान] (आवपन्तिका) बोदेतीहुई (उप ब्रूते) बोलती है−“(मे) मेरा (पतिः) पति (दीर्घायुः) लम्बी आयुवाला (अस्तु) होवे, और (शतं शरदः) सौ वर्षों (जीवाति) जीता रहे ॥६३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पत्नी प्रयत्न करकेपरमात्मा की प्रार्थना करे कि उस का पति सुख से पूर्ण आयु भोगे और इसी प्रकारपति भी पत्नी की पूर्ण आयु के लिये पुरुषार्थ करे ॥६३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६३−(इयम्) (नारी) नरस्यपत्नी (उपब्रूते) कथयति (पूल्यानि) पूल संहतौ-क्यप्। संहतिकर्माणि। संगतिबीजानि (आवपन्तिका) टुवप बीजतन्तुसन्ताने-शतृ, स्वार्थे कन्, टाप् बीजवद् विस्तारयन्ती (दीर्घायुः) दीर्घजीवनः (अस्तु) (पतिः) (जीवाति) जीवेत् (शरदः) वर्षाणि (शतम्)बहूनि ॥

६४ इहेमाविन्द्रसं नुद

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इ॒हेमावि॑न्द्र॒सं नु॑द चक्रवा॒केव॒ दम्प॑ती।
प्र॒जयै॑नौ स्वस्त॒कौ विश्व॒मायु॒र्व्य᳡श्नुताम्॥

६४ इहेमाविन्द्रसं नुद ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Here, O Indra, do thou push together these two spouses like two
    cakravākás; let them, with [their] progeny, well-homed, live out all
    their life-time.
Notes

Ppp. has in c the better reading prajāvantāu sv-, and, in d,
dīrgham for viśvam. Some of our mss. (Bp.E.T.K.) ⌊and three of
SPP’s⌋ read at the end -nutam. The Kāúś. (79. 9), on account of the
verb sam-nud, has the verse used to accompany the act of coition.

Griffith

Join thou this couple, Indra! like the Chakravaka and his. mate: May they attain to full old age with children in their happy home.

पदपाठः

इ॒ह। इ॒मौ। च॒न्द्र॒। सम्। नु॒द॒। च॒क्र॒वा॒काऽइ॑व। दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती। प्र॒ऽजया॑। ए॒नौ॒। ॒सु॒ऽअ॒स्त॒कौ। विश्व॑म्। आयुः॑। वि। अ॒श्नु॒ता॒म्। २.६४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हेपरमैश्वर्ययुक्त राजन् ! (इह) यहाँ [संसार में] (इमौ) इन दोनों (चक्रवाका इव)चकवा-चकवी के समान (दम्पती) पति-पत्नी को (सं नुद) यथावत् प्रेरणा कर (प्रजया)प्रजा के साथ (एनौ) इन दोनों (स्वस्तकौ) उत्तम घरवालों को (विश्वम्) सम्पूर्ण (आयः) आयु (वि अश्नुताम्) प्राप्त होवे ॥६४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा व्यवस्था करे किपति-पत्नी चकवा-चकवी के समान बड़े प्रेम से मिलकर रहें और ब्रह्मचर्य के पालन औरधनादि के रक्षण से बलवान् और सुखी होकर पूर्ण आयु भोगें ॥६४॥यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६४−(इह) संसारे (इमौ)प्रसिद्धौ (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (सं नुद) सम्यक् प्रेरय (चक्रवाका-इव) स्वनामख्यातौ खगौ यथा (दम्पती) जायापती (प्रजया) सन्तानेन (एनौ)द्वितीयाटौस्वेनः। पा० २।४।३४। इति द्वितीयायाम् एनादेशः। पूर्वोक्तौ (स्वस्तकौ)अस्तं गृहनाम-निघ० ३।४। उत्तमगृहयुक्तौ (विश्वम्) सम्पूर्णम् (आयुः) जीवनम् (अश्नुताम्) प्राप्नोतु ॥

६५ यदासन्द्यामुपधाने यद्वोपवासने

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यदा॑स॒न्द्यामु॑प॒धाने॒ यद्वो॑प॒वास॑ने कृ॒तम्।
वि॑वा॒हे कृ॒त्यां यांच॒क्रुरा॒स्नाने॒ तां नि द॑ध्मसि ॥

६५ यदासन्द्यामुपधाने यद्वोपवासने ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What is done on the chair (āsandī́), on the cushion (upadhā́na),
    or what on the covering (upavā́sana); what witchcraft they have made at
    the wedding (vivāhá)—that do we deposit in the bath.
Notes

Ppp. reads in a āsandhyā up-. By Kāuś. 75. 26, the verse is used
at the bride’s bath, next after vss. 52-58, and before 1. 35, 43.
⌊Griffith would seem to take yád as virtually equivalent to yā́ṁ
kṛtyā́m
.]

⌊The āsandī́ appears to be now a throne (cf. AB. viii. 5, 6, 12), and
now something between a lounging chair and a bed, ‘a long reclining
chair’ such as Anglo-Indians use today with more comfort than elegance.
That it was usable also as a bier carried by four bearers appears from
Dīgha Nikāya, ii. 23, and Buddhaghosa’s scholion. Compare also the
description below, AV. xv. 3. 3 ff.—In Hāla’s Saptaśataka, āsandiā is
glossed by khaṭvā (no. 112, ed. 1870) or paryan̄kikā (no. 700, ed.
1881).⌋

Griffith

Whatever magic hath been wrought on cushion, chair, or canopy. Each spell to mar the wedding rites, all this we throw into the bath.

पदपाठः

यत्। आ॒ऽस॒न्द्योम्। उ॒प॒ऽधाने॑। यत्। वा॒। उ॒प॒ऽवास॑ने। कृ॒तम्। वि॒ऽवा॒हे। कृ॒त्याम। याम्। च॒क्रुः। आ॒ऽस्नाने॑। ताम्। नि। द॒ध्म॒सि॒। २.६५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जिस (कृतम्)हिंसित कर्म को (आसन्द्याम्) सिंहासन में, (उपधाने) गद्दी में, (वा) अथवा (यत्)जिस [हिंसित कर्म] को (उपवासने) छत्र में, ओर (याम्) जिस (कृत्याम्) दुष्टक्रियाको (आस्नाने) स्नानगृह में (विवाहे) विवाह के बीच (चक्रुः) [वे दुष्ट लोग] करें, (ताम्) उस [दुष्टक्रिया] को (नि दध्मसि) हम नीचे धरें ॥६५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यदि विवाहकर्म मेंकोई दुष्ट पुरुष विघ्न डालें, चतुर लोग उस का प्रतीकार करके विवाह को निर्विघ्नसमाप्त करें ॥६५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६५−(यत्) (आसन्द्याम्) आसम् आसनं ददातीति आसन्दी, आसउपवेशने-क्विप्+दा-ड, ङीप्। सिंहासने (उपधाने) उपवस्त्रे (यत्) (वा) (उपवासने)छत्रे (कृतम्) हिंसितं कर्म (विवाहे) विवाहोत्सवे (कृत्याम्) हिंसाक्रियाम् (याम्) (चक्रुः) कुर्युर्दुष्टपुरुषाः (आस्नाने) स्नानगृहे (ताम्) हिंसाम् (नि)नीचैः (दध्मसि) धारयामः ॥

६६ यद्दुष्कृतंयच्छमलं विवाहे

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यद्दु॑ष्कृ॒तंयच्छम॑लं विवा॒हे व॑ह॒तौ च॒ यत्।
तत्सं॑भ॒लस्य॑ कम्ब॒ले मृ॒ज्महे॑ दुरि॒तंव॒यम् ॥

६६ यद्दुष्कृतंयच्छमलं विवाहे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What ill deed, what pollution at the wedding, and what on the bridal
    car—that difficulty do we wipe off on the dress (kambalá) of the
    wooer.
Notes

Ppp. reads in c sambharasya. Kāuś. 76. 1 makes the verse accompany
the rubbing of the bride dry after the bath with a garment, which is
then carried to the woods and fastened to a tree.

Griffith

Whatever fault or error was in marriage or in bridal pomp. This woe we wipe away upon the cloak the interceder wears.

पदपाठः

यत्। दुः॒ऽकृ॒तम्। यत्। शम॑लम्। वि॒ऽवा॒हे। व॒ह॒तौ। च॒। यत्। तत्। स॒म्ऽभ॒लस्‍य॑। क॒म्ब॒ले। मृ॒ज्महे॑। दुः॒ऽइ॒तम्। व॒यम्। २.६६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (दुष्कृतम्)दुष्ट कर्म (च) और (यत्) जो (शमलम्) मलीनता (विवाहे) विवाह में [अथवा] (यत्) जो (वहतौ) विवाह में दिये पदार्थ में [होवे]। (तत्) उस (दुरितम्) खोट को (संभलस्य)आपस में समझा देनेवाले पुरुष के (कम्बले) कामनायोग्य कर्म पर (वयम्) हम (मृज्महे) शोध लेवें ॥६६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो कोई दोष विवाह कीप्रवृत्ति वा समाप्ति में आ पड़े, बुद्धिमान् लोग समझ-बूझकर उसका निबटारा कर लें॥६६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६६−(यत्) (दुष्कृतम्) दुष्टकर्म (यत्) (शमलम्) मालिन्यम् (विवाहे) (वहतौ)विवाहे दातव्यपदार्थे (च) (तत्) दुष्टकर्म (संभलस्य) भल निरूपणे-अच्। सम्यग्निरूपकस्य (कम्बले) कमेर्बुक्। उ० १।१०७ कमु कान्तौ-कल प्रत्यये बुक्। कमनीयेकर्मणि (मृज्महे) शोधयामः (दुरितम्) दुष्कर्म (वयम्) पुरुषार्थिनः ॥

६७ सम्भले मलंसादयित्वा

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सं॑भ॒ले मलं॑सादयि॒त्वा क॑म्ब॒ले दु॑रि॒तं व॒यम्।
अभू॑म य॒ज्ञियाः॑ शु॒द्धाः प्र ण॒ आयूं॑षितारिषत् ॥

६७ सम्भले मलंसादयित्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Having settled the defilement on the wooer, the difficulty on the
    dress, we have become worshipful, cleansed (śudh); may he extend our
    life-times.
Notes

Ppp. also has this time sambhale in a; in d, it combines
”yūnṣi
and reads tāriṣam. ⌊Here, as at iv. 10. 6 and ii. 4. 6: see
notes,⌋ part of our mss. (Bs.E.O.D.) read tārṣat. With the verse
compare xii. 2. 20 above. The Anukr. passes without notice the extra
syllable in a.

Griffith

We, having laid the stain and fault upon the interceder’s cloak, Are pure and meet for sacrifice. May he prolong our lives for us.

पदपाठः

स॒म्ऽभ॒ले। मल॑म्। सा॒द॒यि॒त्वा। क॒म्ब॒ले। दुः॒ऽइ॒तम्। व॒यम्। अभू॑म। य॒ज्ञियाः॑। शु॒ध्दाः। प्र। नः॒। आयूं॑षि। ता॒रि॒ष॒त्। २.६७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (संभले=संभलस्य) आपसमें समझा देनेवाले पुरुष के (कम्बले) कामनायोग्य कर्म पर (मलम्) मलिनता और (दुरितम्) खोट को (सादयित्वा) मिटा कर (वयम्) हम (यज्ञियाः) पूजायोग्य और (शुद्धाः) शुद्ध (अभूम) होवें, [और यह कर्म] (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों को (प्रतारिषत्) बढ़ावे ॥६७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - चतुर विद्वान् पुरुषके निर्णय पर परस्पर ग्लानि मिटाकर वधू-वर के पक्षवाले प्रसन्न होवें॥६७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६७−(संभले) म० ६६। षष्ठ्यर्थे सप्तमी। सम्यग् निरूपकस्य (मलम्) मालिन्यम् (सादयित्वा) नाशयित्वा (कम्बले) म० ६६। कमनीये कर्मणि (दुरितम्) दोषम् (वयम्)पुरुषाः (अभूम) भवेम (यज्ञियाः) पूजार्हाः (शुद्धाः) प्रसन्नाः (प्र तारिषत्)वर्धयेत् (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि ॥

६८ कृत्रिमःकण्टकः शतदन्य

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कृ॒त्रिमः॒कण्ट॑कः श॒तद॒न्य ए॒षः।
अपा॒स्याः केश्यं॒ मल॒मप॑ शीर्ष॒ण्यं᳡ लिखात् ॥

६८ कृत्रिमःकण्टकः शतदन्य ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The artificial hundred-toothed comb (?) that is here shall scratch
    away the defilement of the hair of her, away that of her head.
Notes

The majority of our mss. (all but Bs.s.m.P.R.) read káṇṭakas ’thorn’
in a. Ppp. has kan̄kadas. The Kāuś. text, 76. 5, with the
subsidiary texts (see note to that rule), gives kan̄kata, with our
edition. There is little to choose between the two readings. Ppp. reads
in b apā ’syāt k-. The verse, which is a purauṣṇih, is not
defined by the Anukr. Kāuś. 76. 5 makes it accompany the combing of the
bride’s hair after she has been bathed and (with 1. 45, 53) clothed in a
new garment.

Griffith

Now let this artificial comb, wrought with a hundred teeth, remove Aught of impurity that dims the hair upon this woman’s head.

पदपाठः

कृ॒त्रिमः॑। कण्ट॑कः। श॒तऽद॑न्। यः। ए॒षः। अप॑। अ॒स्याः। केश्य॑म्। मल॑म्। अप॑। शी॒र्ष॒ण्य᳡म्। लि॒खा॒त्। २.६८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विराट् पुरउष्णिक्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (कृत्रिमः) शिल्पी काबनाया हुआ, (शतदन्) सौ [बहुत] दाँतोंवाला (यः एषः) जो यह (कण्टकः) काँटोंवाला [कंघा आदि] है। वह (अस्याः) इस [प्रजा अर्थात् स्त्री-पुरुषों] के (केश्यम्) केशके और (शीर्षण्यम्) शिर के (मलम्) मल को (अप अप लिखात्) सर्वथा खरोंच डाले ॥६८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे शिल्पी के बनायेकंघा ककई से काढ़ने पर केश शुद्ध होते और शिर का क्लेश दूर होता है, वैसे हीअनेक प्रयत्नों से अज्ञान के मिटने पर आत्मा की शुद्धि होती है॥६८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६८−(कृत्रिमः) शिल्पिना कृतः (कण्टकः) कटि गतौ-ण्वुल् अर्शआद्यच्। कण्टकःकन्तपो वा कृन्ततेर्वा कण्टतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः निरु० ६।३२। कण्टकयुक्तः कृन्तकः (शतदन्)छन्दसि च। पा० ५।४।१४२। दतृ इत्ययमादेशः। बहुदन्तोपेतः (यः) (एषः) (अस्याः)प्रजायाः (केश्यम्) केशे भवम् (मलम्) मालिन्यम् (शीर्षण्यम्) शिरसि भवम् (अपअप लिखात्) भृशं विलिख्य दूरीकुर्यात् ॥

६९ अङ्गादङ्गाद्वयमस्या अप

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अङ्गा॑दङ्गाद्व॒यम॒स्या अप॒ यक्ष्मं॒ नि द॑ध्मसि।
तन्मा प्राप॑त्पृथि॒वीं मोतदे॒वान्दिवं॒ मा प्राप॑दु॒र्व१॒॑न्तरि॑क्षम्।
अ॒पो मा प्राप॒न्मल॑मे॒तद॑ग्नेय॒मं मा प्राप॑त्पि॒तॄंश्च॒ सर्वा॑न् ॥

६९ अङ्गादङ्गाद्वयमस्या अप ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Away from every limb of her do we deposit the yákṣma; let that not
    attain (pra-āp) the earth nor the gods; let it not attain the heaven,
    the wide atmosphere; let that defilement not attain the waters, O Agni;
    let it not attain Yama and all the Fathers.
Notes

Ppp. reads in a, b yo ‘yam asyām upa yakṣmaṁ ni dhatta naḥ. Kāuś.
76. 14 uses the verse to accompany the purifying of the bride. The
metrical structure (8 + 8: 11 + 11: 11 + 11 = 60) is described as well
as the Anukr. knows how.

Griffith

We take away consumption from each limb and member of the bride. Let not this reach Earth, nor the Gods in heaven, let it not reach the sky or air’s wide region. Let not this dust that sullies reach the Waters, nor Yama, Agni, nor the host of Fathers.

पदपाठः

अङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। व॒यम्। अ॒स्याः। अप॑। यक्ष्म॑म्। नि। द॒ध्म॒सि॒। तत्। मा। प्र। आ॒प॒त्। पृ॒थि॒वीम्। मो। उ॒त। दे॒वान। दिव॑म्। मा। प्र। आ॒प॒त्। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अ॒पः। मा। प्र। आ॒प॒त्। मल॑म्। ए॒तत्। अ॒ग्ने॒। य॒मम्। मा। प्र। आ॒प॒त्। पि॒तॄन्। च॒। सर्वा॑न्। २.६९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्र्यवसाना षट्पदा अतिशाक्वरी
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्याः) इस [प्रजाअर्थात् स्त्री-पुरुषों] के (अङ्गादङ्गात्) अङ्ग-अङ्ग से (वयम्) हम (यक्ष्मम्)क्षय रोग को (नि) निश्चय करके (अप दध्मसि) बाहिर डालते हैं। (तत्) वह (देवान्)नेत्र आदि इन्द्रियों में (मा प्र आपत्) न पहुँचे, (उत) और (मा) न (पृथिवीम्)भूमि में, (मा) न (दिवम्) धूप में और (उरु) चौड़े (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (प्र आपत्) पहुँचे। (अग्ने) हे विद्वान् ! (एतत्) यह (मलम्) मैल (अपः) जलों में (मा प्र आपत्) न पहुँचे, और (यमम्) वायु में (च) और (सर्वान्) सब (पितॄन्) ऋतुओंमें (मा प्र आपत्) न पहुँचे ॥६९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् राजा और सबलोग हवन और अन्नशोधन क्रियाओं से नगर-ग्राम आदि में से रोगजनक दुर्गन्ध आदिदोषों को हटाकर अपने प्रजाजनों को नीरोग स्वस्थ रक्खें ॥६९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६९−(अङ्गादङ्गात्)सर्वस्मादङ्गात् (वयम्) (अस्याः) प्रजायाः (अप) दूरीकरणे (यक्ष्मम्) राजरोगम् (नि) निश्चयेन (दध्मसि) धारयामः (तत्) मलम् (मा प्रापत्) मा प्राप्नुयात् (पृथिवीम्) (मा) निषेधे (उत) अपि च (देवान्) चक्षुरादीनीन्द्रियाणि, यथामहीधरस्य दयानन्दस्य च भाष्ये-यजुः० ४०।९। (दिवम्) प्रकाशम् (मा प्रापत्) (उरु)विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) (अपः) जलानि (मा प्रापत्) (मलम्) मालिन्यम् (एतत्) (अग्ने) हे विद्वन् (यमम्) वायुलोकम्। यमो यच्छतीति सतः-इति मध्यस्थानदेवतासुपाठः-निरु० १०।१९। यमः। मध्यस्थानो वायुः-इति देवराजयज्वा निघण्टुटीकायाम् (माप्रापत्) (पितॄन्) ऋतून्, यथा दयानन्दभाष्ये-यजुः–० ८।६०। (सर्वान्) समस्तान् ॥

७० सं त्वानह्यामि

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सं त्वा॑नह्यामि॒ पय॑सा पृथि॒व्याः सं त्वा॑ नह्यामि॒ पय॒सौष॑धीनाम्।
सं त्वा॑ नह्यामिप्र॒जया॒ धने॑न॒ सा संन॑द्धा सनुहि॒ वाज॒मेमम् ॥

७० सं त्वानह्यामि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I gird thee with the milk of the earth; I gird thee with the milk of
    the herbs; I gird thee with progeny, with riches; do thou, being girded,
    win (ā-san) this strength (? vā́ja).
Notes

TS. (iii. 5. 6¹) has a corresponding verse, of which this seems an
artificial variation: sáṁ tvā nahyāmi páyasā ghṛténa s. t. n. apá
óṣadhībhiḥ: s. t. n. prajáyā ’hám adyá sā́ dīkṣitā́ sanavo vā́jam asmé
.
⌊Cf. MGS. i. 11. 6 (with adbhís for apás), and p. 156.⌋ Kāuś. 76. 7
uses the verse (with 1. 42) at the girding of the bride.

Griffith

With all the milk that is in Earth I gird thee, with all the milk that Plants contain I dress thee. I gird thee round with children and with riches. Do thou, thus girt, receive the offered treasure.

पदपाठः

सम्। त्वा॒। न॒ह्या॒मि॒। पय॑स। पृ॒थि॒व्याः। सम्। त्वा॒। न॒ह्या॒मि॒। पय॑सा। ओष॑धीनाम। सम्। त्वा॒। न॒ह्या॒मि॒। प्र॒ऽजया॑। धने॑न। सा। सम्ऽन॑ध्दा। स॒नु॒हि॒। वाज॑म्। आ। इ॒मम्। २.७०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजा !] (त्वा)तुझे (पृथिव्याः) पृथिवी के (पयसा) ज्ञान से (सं नह्यामि) मैं कवचधारी करता हूँ, (त्वा) तुझे (ओषधीनाम्) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] के (पयसा) ज्ञान से (संनह्यामि) कवचधारी करता हूँ। (त्वा) तुझे (प्रजया) प्रजा [सन्तान सेवक आदि] से और (धनेन) धन से (सं नह्यामि) मैं कटिबद्ध करता हूँ, (सा) सो तू [हे प्रजा !] (सन्नद्धा) सन्नद्ध [कटिबद्ध] होकर (इमम्) यह (वाजम्) बल (आ) सब ओर से (सनुहि)दे ॥७०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा को योग्य है ऐसे-ऐसे विद्यालयों को बनावे, जिन में प्रजागण भूगर्भविद्या, भूतलविद्या, अन्नविद्या, ओषधिविद्या आदि प्राप्त करके सन्तान और धन से बढ़ती करें और राजा कोभी यथायोग्य सहायता देकर समर्थ बनावें ॥७०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७०−(त्वा) त्वां प्रजाम् (संनह्यामि) सन्नद्धां धृतकवचां कटिबद्धां करोमि (पयसा) पय गतौ-असुन्। ज्ञानेन (पृथिव्याः) (त्वा) (सं नह्यामि) (पयसा) (ओषधीनाम्) अन्नसोमलतादीनाम् (त्वा) (संनह्यामि) (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (धनेन) सम्पत्त्या (सा) सा त्वं प्रजे (सन्नद्धा) कटिबद्धा सती (सनुहि) षणु दाने। देहि (वाजम्) बलम्-निघ० २।९। (आ)समन्तात् (इमम्) प्रसिद्धम् ॥

७१ अमोऽहमस्मिसा त्वम्

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अमो॒ऽहम॑स्मि॒सा त्वं॒ सामा॒हम॒स्म्यृक्त्वं द्यौर॒हं पृ॑थि॒वी त्व॑म्।
तावि॒ह सं भ॑वावप्र॒जामा ज॑नयावहै ॥

७१ अमोऽहमस्मिसा त्वम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. He am I, she thou; chant am I, verse thou; heaven I, earth thou; let
    us (two) come together here; let us generate progeny.
Notes

The verse (8 + 8 + 8: 7 + 8 = 39) is strangely called a bṛhatī by the
Anukr. It is found, with more or less variation, in a host of other
texts: AB. (viii. 27. 4), TB. (iii. 7.1⁹), K. (xxxv. 18), śB. (xiv. 9.
4¹⁹), AGS. (i. 7. 6), PCS. (i. 6. 3), HGS. (i. 20. 2), Āp. (ix. 2. 3).
In the first pāda, TB. (with which HGS. and Āp. agree throughout) has
the unintelligent reading ámūhám; AB. has sa for , which seems
also a mere blunder. After this, AB.śB.AGS.PGS. add the same, inverted:
sā́ (AB. sa again) tvám asy ámo ‘hám (śB. PGS. ahám). As regards
our third pāda, there is no variant in reading, but AB.TB.AGS.HGS.Āp.
put it before our second. In our second pāda, the same texts omit the
asmi; the whole pāda is wanting in Ppp. For our d, AB. has tāv
eha saṁ vahāvahāi
, and ends there; TB. etc. give as ending to the verse
tā́v é ’hi sám bhavāva sahá réto dadhāvahāi puṁsé putrā́ya véttavāi;
śB. nearly the same, but with saṁrabhā́vahāi, dadhā́vahāi, and
víttaye; AGS. instead tāv e ’he vi vahāvahāi prajām pra janayāvahāi;
PGS. spins out the longest ending: tāv e ’hi vi vahāvahāi saha reto
dadhāvahāi prajām pra janayāvahāi putrān vindāvahāi bahūn te santu
jaradaṣṭayaḥ
. ⌊Cf. MP. i. 3. 14, and Wint., p. 52; also MGS. i. 10. 15
d, and p. 146, and i. 10. 15 e, and p. 150, s.v. tā; also GB. ii. 3.
20; JUB. i. 54.⌋ Kāuś. 79. 10 uses the verse, with i. 34. 1, after the
consummation of the union.

Griffith

I am this man, that dame art thou I am the psalm and thou the verse. I am the heaven and thou the earth. So will we dwell together here, parents of children yet to be.

पदपाठः

अमः॑। अ॒हम्। अ॒स्मि॒। सा। त्वम्। साम॑। अ॒हम्। अ॒स्मि॒। ऋक्। त्वम्। द्यौः। अ॒हम्। पृ॒थि॒वी। त्वम्। तौ। इ॒ह। सम्। भ॒वा॒व॒। प्र॒ऽजाम्। आ। ज॒न॒या॒व॒है॒। २.७१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहती
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (अहम्) मैं [वर] (अमः) ज्ञानवान् (अस्मि) हूँ, (सा) सो (त्वम्) तू [ज्ञानवती है], (अहम्)मैं (साम) सामवेद [मोक्षज्ञान के समान सुखदायक] (अस्मि) हूँ, (त्वम्) तू (ऋक्)ऋग्वेद की ऋचा [पदार्थों के गुणों की बड़ाई बतानेवाली विद्या के तुल्य आनन्ददेनेवाली] है, (अहम्) मैं (द्यौः) सूर्य [वृष्टि आदि करनेवाले रवि के समानउपकारी] हूँ, और (त्वम्) तू (पृथिवी) पृथिवी [अन्न आदि उत्पन्न करनेवाली भूमि केसमान उत्तम सन्तान उत्पन्न करनेवाली] है। (तौ) वे हम दोनों (इह) यहाँ [गृहाश्रममें] (सं भवाव) पराक्रमी होवें, और (प्रजाम्) प्रजा [उत्तम सन्तान] को (आजनयावहै) उत्पन्न करें ॥७१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वधू-वर राज्यप्रबन्धसे सन्तुष्ट होकर और अनेक प्रकार की विद्या और सम्पत्ति की प्राप्ति और सुसन्तानकी उत्पत्ति से सुखी होवें ॥७१॥यह मन्त्र कुछ भेद से महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू-वर के परस्पर प्रतिज्ञा करने में व्याख्यात है॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७१−(अमः) अम गतौ भोजने च-असुन्, मतुपो लोपः। ज्ञानवान् (अहम्) (अस्मि) (सा)तादृशी ज्ञानवती (त्वम्) (साम) सामवेदेन मोक्षज्ञानेन तुल्यः सुखदायकः (अहम्) (अस्मि) (ऋक्) ऋग्वेदस्य वाणी। पदार्थगुणप्रकाशिकाविद्यावत् सुखप्रदा (त्वम्) (द्यौः) सूर्यतुल्यवृष्ट्यादिनोपकारकः (अहम्) (पृथिवी) अन्नोत्पादयित्री भूमिरिवसुसन्तानोत्पादयित्री (त्वम्) (तौ) आवां वधूवरौ (इह) गृहाश्रमे (सं भवाव)पराक्रमिणौ भवाव (प्रजाम्) सन्तानम् (आ जनयावहै) उत्पादयावहै ॥

७२ जनियन्तिनावग्रवः पुत्रियन्ति

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ज॑नि॒यन्ति॑ना॒वग्र॑वः पुत्रि॒यन्ति॑ सु॒दान॑वः।
अरि॑ष्टासू सचेवहि बृह॒ते वाज॑सातये॥

७२ जनियन्तिनावग्रवः पुत्रियन्ति ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The unmarried of us seek a wife, the liberal seek a son; may we
    (two), with uninjured life-breath, be companions (sac), in order to
    what is great, to winning of strength (? vā́ja-).
Notes

‘Of us’ in a is dual (nāu) in the text, but requires, doubtless,
emendation to nas or to . The corresponding half-verse in RV.
(vii. 96. 4 a, b) has nú; it reads janīyárito nv ágravaḥ
putrīyántaḥ s-
. That our denominatives have a right to their short i
is further vouched for by their quotation as examples for it under Prāt.
iii. 18. Whether one should emend in d to bṛhatyāi, or translate
as is done above, may be made a question; it seems most likely to be a
mixed construction, meaning virtually ‘in order to the gaining of great
vāja.’ Vā́jasātaye is never joined with an adjective in RV. Ppp.
reads with our text throughout.

Griffith

Unmarried men desire to wed; bountiful givers wish for sons. Together may we dwell with strength unscathed for high pros- perity.

पदपाठः

ज॒नि॒ऽयन्ति॑। नौ॒। अग्र॑वः। पु॒त्रि॒ऽयन्ति॑। सु॒ऽदान॑वः। अरि॑ष्टासू॒ इत्यरि॑ष्टऽअसू। स॒चे॒व॒हि॒। बृ॒ह॒ते। वाज॑ऽसातये। २.७२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्रवः) उद्योगी, (सुदानवः) बड़े दानी लोग (नौ) हम दोनों के लिये (जनियन्ति) जनों [भक्तजनों] कोचाहते हैं और (पुत्रियन्ति) पुत्रों को चाहते हैं। (अरिष्टासू) बिना नाश कियेहुए प्राणोंवाले [सदा पुरुषार्थी] हम दोनों (बृहते) बड़े (वाजसातये) विज्ञान, बल और अन्न के दान के लिये (सचेवहि) सदा मिले रहें ॥७२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब इष्ट मित्र यथावत्पुरुषार्थ से धन का व्यय करके चाहते हैं कि उनके पुत्रों के उत्तम सन्तानउत्पन्न हों, इसलिये पुत्र और पतोहू प्रीतिपूर्वक उपाय करें कि उत्तम सन्तानहोने से उनको विज्ञान, बल और अन्न आदि धन बढ़ें ॥७२॥यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात है। इसका पूर्वार्द्ध कुछ भेद सेऋग्वेद में है−७।९६।४ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७२−(जनियन्ति) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। जन-क्यच्।अपुत्रादीनामिति वक्तव्यम्। वा० पा० ७।४।३५। इति प्राप्तस्य ईत्वस्य छान्दसोह्रस्वः। जनीयन्ति जनान् भक्तजनान् इच्छन्ति (नौ) आवाभ्याम् (अग्रवः)रुशातिभ्यां क्रुन्। उ० ४।१०३। अग गतौ−क्रुन्। गन्तारः। उद्योगिनः (पुत्रियन्ति) पुत्र-क्यचि, ईत्वस्य छान्दसो ह्रस्वः। पुत्रीयन्ति। पुत्रान्इच्छन्ति (सुदानवः) सुदानिनः (अरिष्टासू) रिष हिंसायाम्-क्त। अहिंसितप्राणौ।महापुरुषार्थिनौ (सचेवहि) षच समवाये विधिलिङ्। नित्यसम्बन्धिनौ भवेम (बृहते)महते (वाजसातये) वाजानां विज्ञानबलान्नानां दानाय ॥

७३ ये पितरोवधूदर्शा

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ये पि॒तरो॑वधूद॒र्शा इ॒मं व॑ह॒तुमाग॑मन्।
ते अ॒स्यै व॒ध्वै॒ संप॑त्न्यै प्र॒जाव॒च्छर्म॑यच्छन्तु ॥

७३ ये पितरोवधूदर्शा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What bride-beholding Fathers have come to this bridal-car, let them
    bestow on this bride, with her husband, protection accompanied with
    progeny.
Notes

The pada-text has the bad reading ā́: agaman, instead of ā॰ágaman.
Part of our mss. (Bp.P.M.W.O.) read in c sámpatyāi, but doubtless
only by the scribes’ oversight. According to Kāuś. 77. 12, the verse is
to be used when the bridal train passes by a burial-place.

Griffith

May they, the Fathers who, to view the bride, have joined this nuptial train, Grant to this lady and her lord children and peaceful happiness.

पदपाठः

ये। पि॒तरः॑। व॒धू॒ऽद॒र्शाः। इ॒मम्। व॒ह॒तुम्। आ। अग॑मन्। ते। अ॒स्यै। व॒ध्वै। सम्ऽप॑त्न्यै। प्र॒जाऽव॑त्। शर्म॑। य॒च्छ॒न्तु॒। २.७३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (वधूदर्शाः)वधू के देखनेवाले (पितरः) पिता आदि लोग (इमम्) इस (वहतुम्) विवाह उत्सव में (आअगमन्) आये हैं। (ते) वे सब (सम्पत्न्यै) पतिसहित वर्तमान (अस्यै वध्वै) इस वधूको (प्रजावत्) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि जनता] वाला (शर्म) शुख (यच्छन्तु) देवें॥७३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - हितैषी बड़े लोगों काकर्तव्य है कि विद्वान् बलवान् वधूवर से विद्वान्, शूर, वीर सन्तान उत्पन्नहोवें ॥७३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७३−(ये) (पितरः) पित्रादयः (वधूदर्शाः) दृशिर् दर्शने-अण्। वधूदर्शकाः (इमम्) दृश्यमानम् (वहतुम्) विवाहोत्सवम् (आ अगमन्) आगताः (ते) पूर्वोक्ताः (अस्यै) विदुष्यै (वध्वै) (सम्पत्न्यै) पत्या सह वर्तमानायै (प्रजावत्)सन्तानसेवकादियुक्तम् (यच्छन्तु) ददतु ॥

७४ येदम्पूर्वागन्रशनायमाना प्रजामस्यै

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येदंपूर्वाग॑न्रशना॒यमा॑ना प्र॒जाम॒स्यै द्रवि॑णं चे॒ह द॒त्त्वा।
तांव॑ह॒न्त्वग॑त॒स्यानु॒ पन्थां॑ वि॒राडि॒यं सु॑प्र॒जा अत्य॑जैषीत् ॥

७४ येदम्पूर्वागन्रशनायमाना प्रजामस्यै ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. She who hath come hither before, girdling herself (?), having given
    to this woman here progeny and property—her let them carry along the
    road of what is not gone; this one, a virā́j, having good progeny, hath
    conquered.
Notes

This obscure verse is not made clear by Kāuś. 77. 4; though the latter
perhaps means it to be used if another bridal procession goes athwart
the track at a cross-roads. The pada-text in a divides without any
reason raśanā॰yámānā. Perhaps, too, we ought to resolve pū́rvā́gan
into pū́rvā: ā॰ágan, instead of pū́rvā: ágan, as the p. does. The
third pāda is perhaps a mere ill-wish with contempt: ‘she may go to
grass.’ Ppp. reads in b dhattām, in c abhi for anu, and
combines in d suprajā ’ty-. ⌊For consistency, the Berlin text
should have dattvā́.⌋

Griffith

Her who first guided by a rein came hither, giving the bride, here offspring and possessions, Let them convey along the future’s pathway. Splendid, with noble children, she hath conquered.

पदपाठः

या। इ॒दम्। पूर्वा॑। अग॑न्। र॒श॒ना॒ऽयमा॑ना। प्र॒ऽजाम्। अ॒स्यै। द्रवि॑णम्। च॒। इ॒ह। द॒त्त्वा। ताम्। व॒ह॒न्तु॒। अग॑तस्य। अनु॑। पन्था॑म्। वि॒ऽराट्। इ॒यम्। सु॒ऽप्र॒जाः। अति॑। अ॒जै॒षी॒त्। २.७४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अनुष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (या) जो [वधू] (पूर्वा) पहिली [सबसे ऊपर] होकर (रशनायमाना) कटि बाँधे हुए (इदम्) इस [स्थान]में (अगन्) आवे, (अस्यै) इस [वधू] के हित के लिये (इह) यहाँ (प्रजाम्) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि जनता] (च) और (द्रविणम्) धन (दत्त्वा) देकर (ताम्) उस को (अगतस्य) बिना प्राप्त हुए [आगे आनेवाले काल] के (पन्थाम् अनु) मार्ग के पीछे-पीछे (वहन्तु) वे [पिता आदि] ले चलें, (विराट्) बड़े ऐश्वर्यवाली (इयम्) यह (सुप्रजाः) उत्तम जन्मवाली [वधू] (अति) अत्यन्त (अजैषीत्) जय पावे ॥७४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब बड़े लोग सेवक धनआदि से प्रयत्न करें कि महाविदुषी, पुरुषार्थिनी, स्त्रीरत्न कुलवधू उत्तमसन्तान उत्पन्न करके आगे को यश बढ़ावे ॥७४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७४−(या) वधूः (इदम्) स्थानम् (पूर्वा)प्रथमा। मुख्या (अगन्) आगच्छतु (रशनायमाना) रशनां कटिबन्धनं करोतीति रशनायते।तत्करोति तदाचष्टे। वा–० पा० ३।१।२६। रशना-णिच्, शानच्। कटिबन्धनं कुर्वाणा। सदापुरुषार्थयुक्ता (प्रजाम्) सन्तानसेवकादिजनताम् (अस्यै) वधूहिताय (द्रविणम्)धनम् (इह) गृहाश्रमे (दत्त्वा) (ताम्) वधूम् (वहन्तु) नयन्तु (अगतस्य)अप्राप्तस्य। अनागतस्य कालस्य (अनु) अनुसृत्य (पन्थाम्) पन्थानम् (विराट्)विविधैश्वर्यवती (इयम्) गुणवती (सुप्रजाः) जनी-विट्। सुजन्मा सती (अति)अत्यन्तम् (अजैषीत्) जयेत् ॥

७५ प्र बुध्यस्वसुबुधा

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प्र बु॑ध्यस्वसु॒बुधा॒ बुध्य॑माना दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय।
गृ॒हान्ग॑च्छ गृ॒हप॑त्नी॒यथासो॑ दी॒र्घं त॒ आयुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥

७५ प्र बुध्यस्वसुबुधा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Continue thou awake, waking with good awakening, unto length of life
    of a hundred autumns; go to the houses that thou mayest be
    house-mistress; let Savitar make for thee a long life-time.
Notes

Ppp. reads for c gṛhān pre ’hi sumanasyamānā, and combines in
d tā ”yus sav-. We had ⌊part of a, above, in 31 c⌋; c
above as 1. 20 c; and d as 1. 47 d ⌊nearly =⌋ 2. 39 d.
According to Kāuś. 77. 13, the verse is to be used if the bride falls
asleep on the road.

The Anukr. is not content with this length of hymn, but adds three more
pieces from other parts of the Veda to fill up the “wedding of Sūryā”:
sahṛdayam (iii. 30. 1) ity atharvā sāumyam ⌊sāmmanasyam?⌋
ānuṣṭubham ā no agna (ii. 36. 1) iti pativedanaḥ sāumyaṁ trāiṣṭubhaṁ
vi hī
(xx. 126. 1) ’ti tryadhikāi ”ndrotryadhikam āindro?
vṛṣākapir indrāṇi ’ndraś ca (mss. -drasya) samūdire pān̄ktam ity eṣa
sāutyavivāha iti
.

⌊Here ends the second anuvāka, with 1 hymn (but see pages 738-9) and
75 verses. The quoted Anukr. says pañcasaptatir uttaraḥ (see p. 738).⌋

⌊Some mss. sum up the book as of 2 hymns and 139 verses (see p. 739).⌋

⌊Here ends the twenty-ninth prapāṭhaka.⌋

Griffith

Wake to long life, watchful and understanding, yea, to a life shall last a hundred autumns Enter the house to be the household’s mistress. A long long life let Savitar vouchsafe thee.

पदपाठः

प्र। बु॒ध्य॒स्व॒। सु॒ऽबुधा॑। बुध्य॑माना। दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑। श॒तऽशा॑रदाय। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒। गृ॒हऽप॑त्नी। यथा॑। असः॑। दी॒र्घम्। ते॒। आयुः॑। स॒वि॒ता। कृ॒णो॒तु॒। २.७५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा
  • सवित्री, सूर्या
  • विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहआश्रम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे पत्नी !] तू (शतशारदाय) सौ वर्ष तक (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन पाने के लिये (सुबुधा) उत्तमबुद्धिवाली और (बुध्यमाना) सावधान रहकर (प्र बुध्यस्व) जागती रहे। (गृहान्) घरों [घर के पदार्थों] को (गच्छ) प्राप्त हो, (यथा) जिस से तू, (गृहपत्नी) गृहपत्नी (असः) होवे, (सविता) सब ऐश्वर्यवाला परमात्मा (ते) तेरे (आयुः) जीवन को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणोतु) करे ॥७५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पत्नी को योग्य है किपरमात्मा का सदा ध्यान करके गृहकार्यों में सावधान रहकर और चिरंजीविनी होकर कुलकी वृद्धि करे ॥७५॥यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण मेंव्याख्यात है ॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥इत्येकोनत्रिंशः प्रपाठकः ॥इति चतुर्दशं काण्डम् ॥ इतिश्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासपरीयाक्षाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये चतुर्दशं काण्डं समाप्तम् ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७५−(प्रबुध्यस्व) प्रकर्षेण जागृता वर्तस्व (सुबुधा) उत्तमबुद्धिमती (बुध्यमाना)सावधाना (दीर्घायुत्वाय) दीर्घजीवनप्राप्तये (शतशारदाय) शतवर्षयुक्ताय (गृहान्)गृहपदार्थान् (गच्छ) प्राप्नुहि (गृहपत्नी) गृहस्वामिनं (यथा) येन प्रकारेण (असः) त्वं भवेः (दीर्घम्) (ते) तव (आयुः) जीवनम् (सविता) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (कृणोतु) करोतु ॥