००१ विवाह- प्रकरणम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Marriage ceremonies.
VH anukramaṇī
विवाह- प्रकरणम्।
१-६४ सूर्या सावित्री। आत्मा; १-५ सोमः, ६ स्वविवाहः, २३ सोमार्कौ, २४ चन्द्रमाः, २५ नृणां विवाहमन्त्राशिषः;
२५,२७ वधूवासःसंस्पर्शमोचनम। अनुष्टुप्, १४ विराट् प्रस्तारपङ्क्तिः; १५ आस्तारपङ्क्तिः;
१९-२०, २३-२४, ३१-३३,३७, ३९-४०, ४५, ४७, ४९-५०, ५३, ५६-५७, ५८-५९,६१ त्रिष्टुप् (२३,३१,४५ बृहतीगर्भा),
२१, ४६, ५४,६४ जगती (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुप्) ; २९, ५५ पुरस्ताद्बृहती; ३४ प्रस्तारपङ्क्तिः;
३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्; (४८ पथ्यापङ्क्तिः) ६० पराऽनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Sāvitrī Sūryā.—ātmadāivatam (1-5. somam astāut; 6-⌊?⌋. svavivāham; 23. somārkāu; 24. candramasam;—25⌊?⌋-⌊?⌋. nṛṇāṁ vivāhamantrāśiṣah; 25, 27. vadhūvāsaḥsaṁsparśamocanyāu). ⌊As to the foregoing, see above, p. 739.⌋ ānuṣṭubham: 14. virāṭ prastārapan̄kti; 15. āstārapan̄kti; 19, 20, 23, 24, 31-33, 37, 39, 40, 45, 47, 49, 50, 53, 56, 57, [58, 59, 61]. triṣṭubh (23, 31, 45. bṛhatīgarbhā); 21, 46, 54, 64. jagati (54, 64. bhurik triṣṭubh); 29, 55. purastādbṛhatī; 34. prastārapan̄kti; 38. purobṛhatī 3-p. paroṣṇih; [48. pathyāpan̄kti;] 60. parānuṣṭubh.]
Whitney
Comment
The hymn (except vss. 4, 62, which are wanting altogether, and 41, 42, which occur in other books) is found also in Pāipp. xviii., with petty differences of order, noted under the verses. A large part of the anuvāka or hymn corresponds to the wedding hymn (x. 85) in the Rig-Veda. The Vāit. does not treat the marriage ceremony, and only four or five of the verses of the book are quoted by it; but a large part of them are used in the sections (75-79) of the Kāuś. which deal with the subject.
Translations
Translated: in so far as it corresponds to RV. verses, by the RV. translators; further, the parts that are peculiar to our text, by Ludwig, p. 470; and, as AV. hymn, all of it, by Weber, Ind. Stud. v. 195-204 (see 178 ff.); Griffith, ii. 159.—-A large part of the wedding-hymn is given in my Sanskrit Reader, pages 89-90: the notes thereon (at pages 389-390) may be consulted, and also the notes at pages 398-401.
Griffith
On the Bridal of Surya, marriage ceremonies in general
०१ सत्येनोत्तभिता भूमिः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
०१ सत्येनोत्तभिता भूमिः ...{Loading}...
स॒त्येनोत्त॑भिता॒ भूमि॒स्
सूर्ये॒णोत्त॑भिता॒ द्यौः ।
ऋ॒तेना॑ऽऽदि॒त्यास् तिष्ठ॑न्ति
दि॒वि सोमो॒ अधि॑ श्रि॒तः ।+++(५)+++
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स॒त्येनोत्त॑भिता॒ भूमिः॒ सूर्ये॒णोत्त॑भिता॒ द्यौः।
ऋ॒तेना॑दि॒त्यास्ति॑ष्ठन्ति दि॒वि सोमो॒ अधि॑ श्रि॒तः ॥
०१ सत्येनोत्तभिता भूमिः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- By truth is the earth established (ut-stabh); by the sun is the sky
established; by righteousness the Ādityas stand; Soma is set (śritá)
upon the sky.
Notes
The verse is RV. x. 85. 1, without variant. The pada-text also reads
úttabhitā, by Prāt. iv. 62, the s being omitted by ii. 18. Kāuś.
directs vss. 1 and 23 to be used in preparing the sacrificial fire, at
the beginning of the chapter on the marriage-rites (75. 6: according to
the comm., vss. 1-16 are meant, and 23-24); and again, near the end of
the chapter (79. 16), the whole book is directed to be so used. ⌊Ppp.
has satvena for satyena at the beginning.⌋ ⌊Cf. MP. i. 6. 1, and
Wint., p. 66.⌋
Griffith
Truth is the base that bears the earth; by Surya are the heavens upheld. By Law the Adityas stand secure, and Soma holds his place in heaven.
पदपाठः
स॒त्येन॑। उत्त॑भिता। भूमिः॑। सूर्ये॑ण। उत्त॑भिता। द्यौः। ऋ॒तेन॑। आ॒दि॒त्याः। ति॒ष्ठ॒न्ति॒। दि॒वि॒। सोमः॑। अधि॑। श्रि॒तः। १.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- सोम
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र १-५, प्रकाश करने योग्य और प्रकाशक के विषय काउपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सत्येन) सत्यस्वरूपपरमेश्वर करके (भूमिः) भूमि (उत्तभिता) [आकाश में] उत्तमता से थाँभी गयी है, और (सूर्येण) सूर्यलोक करके (द्यौः) प्रकाश (उत्तभिता) उत्तम रीति से थाँभा गयाहै। (ऋतेन) सत्य नियम द्वारा (आदित्याः) प्रकाशमान किरणें [वा अखण्ड सूक्ष्मपरमाणु] (तिष्ठन्ति) ठहरते हैं, और (दिवि) [सूर्य के] प्रकाश में (सोमः)चन्द्रमा (अधि) यथावत् (श्रितः) ठहरा हुआ है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - लोक दो प्रकार के हैं−एक प्रकाश करनेवाले जैसे सूर्य आदि और दूसरे अप्रकाशमान जैसे पृथिवी चन्द्र आदि।परमेश्वर के नियम से प्रकाशक सूर्य आदि लोक प्रकाश्य पृथिवी चन्द्र आदि लोकों कोअपने प्रकाश से प्रकाशित करते हैं ॥१॥१−मन्त्र १ तथा २ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, प्रकाश्यप्रकाशकविषय पृ० १४३, १४४ में व्याख्यात हैं।२−मन्त्र १-३ ऋग्वेद मेंहैं−१०।८५।१-३। मन्त्र ३ भेद से हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(सत्येन) नित्यस्वरूपेणब्रह्मणा (उत्तभिता) उत्तमतया धारिता (भूमिः) (सूर्येण) आदित्यमण्डलेन (उत्तभिता) (द्यौः)प्रकाशः (ऋतेन) सत्यनियमेन (आदित्याः) आदीप्यमानाः किरणाः। अखण्डाः सूक्ष्माःपरमाणवः (तिष्ठन्ति) वर्तन्ते (दिवि) सूर्यप्रकाशे (सोमः) चन्द्रमाः (अधि)यथाविधि (श्रितः) स्थितः ॥
०२ सोमेनादित्याबलिनः सोमेन
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सोमे॑नादि॒त्याब॒लिनः॒ सोमे॑न पृथि॒वी म॒ही।
अथो॒ नक्ष॑त्राणामे॒षामु॒पस्थे॒ सोम॒ आहि॑तः॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सोमे॑नादि॒त्याब॒लिनः॒ सोमे॑न पृथि॒वी म॒ही।
अथो॒ नक्ष॑त्राणामे॒षामु॒पस्थे॒ सोम॒ आहि॑तः॥
०२ सोमेनादित्याबलिनः सोमेन ...{Loading}...
Whitney
Translation
- By Soma are the Ādityas strong; by Soma is the earth great; likewise
in the lap of these asterisms is Soma placed (ā-dhā).
Notes
Is RV. X. 85. 2, without variant. ⌊Cf. MP. i. 9. 2; Wint., p. 74; MGS.
i. 14. 8 and p. 157.⌋
Griffith
By Soma are the Adityas strong, by Soma mighty is the earth: Thus Soma in the lap of all these constellations hath his home.
पदपाठः
सोमे॑न। आ॒दि॒त्याः। ब॒लिनः॑। सोमे॑न। पृ॒थि॒वी। म॒ही। अथो॒ इति॑। नक्ष॑त्राणाम्। ए॒षाम्। उ॒पऽस्थे॑। सोमः॑। आऽहि॑तः। १.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- सोम
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र १-५, प्रकाश करने योग्य और प्रकाशक के विषय काउपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सोमेन) चन्द्रमा केसाथ (आदित्याः) सूर्य की किरणें (बलिनः) बलवान् [होती हैं] और (सोमेन) चन्द्रमा [के प्रकाश] के साथ (पृथिवी) पृथिवी (मही) बलवती अर्थात् पुष्ट [होती है]। (अथो)और भी (एषाम्) इन (नक्षत्राणाम्) चलनेवाले तारागणों के (उपस्थे) समीप में (सोमः)चन्द्रमा (आहितः) ठहराया गया है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - चन्द्रमा शीतलस्वभावहै, सूर्य की किरणें उसके ऊपर गिर कर शीतल हो जाती हैं, और जब वे चन्द्रमा सेउलटकर वायु से मिलकर पृथिवी पर पड़ती हैं, तब शीतलता के कारण पृथिवी के अन्न आदिपदार्थों को पुष्ट करती हैं। इसी प्रकार सूर्य और चन्द्रमा का प्रभाव नक्षत्रोंपर होता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(सोमेन) चन्द्रेण सह संयुज्य (आदित्याः) आदीप्यमानाः किरणाः (बलिनः) बलं कर्तुंशीला भवन्ति (सोमेन) चन्द्रप्रकाशेन सह (पृथिवी) (मही) बलवती।पुष्टा (अथो) अपि च (नक्षत्राणाम्) गतिशीलानां तारागणानाम् (एषाम्)दृश्यमानानाम् (उपस्थे) समीपे (सोमः) चन्द्रमाः (आहितः) स्थापितः ॥
०३ सोमं मन्यतेपपिवान्यत्सम्पिंषन्त्योषधिम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सोमं॑ मन्यतेपपि॒वान्यत्सं॑पिं॒षन्त्योष॑धिम्।
सोमं॒ यं ब्र॒ह्माणो॑ वि॒दुर्न तस्या॑श्नाति॒पार्थि॑वः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सोमं॑ मन्यतेपपि॒वान्यत्सं॑पिं॒षन्त्योष॑धिम्।
सोमं॒ यं ब्र॒ह्माणो॑ वि॒दुर्न तस्या॑श्नाति॒पार्थि॑वः ॥
०३ सोमं मन्यतेपपिवान्यत्सम्पिंषन्त्योषधिम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- One thinks himself to have drunk Soma when they crush up an herb;
what Soma the priests (brahmán) know, of that no earthly man partakes.
Notes
RV. (x. 85. 3) reads at the end káś caná for pā́rthivas. In b,
Bs.P.M.W.T. read -piṣanti, D. -pīṣanti; Ppp. has -piśanti. The
pratīka is quoted in GB. i. 2.9 ⌊printed 8⌋.
Griffith
One thinks, when men have brayed the plant, that he hath drunk the Soma’s juice. Of him whom Brahmans truly know as Soma never mortal eats.
पदपाठः
सोम॑म्। म॒न्य॒ते॒। प॒पि॒ऽवान्। यत्। स॒म्ऽपि॒षन्ति॑। ओष॑धिम्। सोम॑म्। यम्। ब्र॒ह्माणः॑। वि॒दुः। न। तस्य॑। अ॒श्ना॒ति॒। पार्थि॑वः। १.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- सोम
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र १-५, प्रकाश करने योग्य और प्रकाशक के विषय काउपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सोमम्) चन्द्रमा [केअमृत] को (पपिवान्) मैंने पी लिया, [यह बात मनुष्य] (मन्यते) मानता है, (यत्) जब (ओषधिम्) ओषधि [अन्न, सोमलता आदि] को (संपिषन्ति) वे [मनुष्य] पीसते हैं। (यम्)जिस (सोमम्) जगत्स्रष्टा परमात्मा को (ब्रह्माणः) ब्रह्मज्ञानी लोग (विदुः)जानते हैं, (तस्य) उसका [अनुभव] (पार्थिवः) पृथिवी [के विषय] में आसक्त पुरुष (न) नहीं (अश्नाति) भोगता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - चन्द्रमा से पुष्टहुए अन्न सोमलता आदि के सेवन से मनुष्य शरीरपुष्टि करते हैं, परन्तु जो मनुष्यविद्वानों का सत्सङ्ग करके ईश्वरज्ञान से आत्मा को पुष्ट करते हैं, वे शरीरपोषकों की अपेक्षा अधिक आनन्द पाते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(सोमम्) चन्द्रामृतम् (मन्यते)जानाति (पपिवान्) पा पाने-क्वसु। अहं पीतवानस्मि (यत्) यदा (संपिंषन्ति) सम्यक्चूर्णीकुर्वन्ति (ओषधिम्) अन्नसोमलतादिकम् (सोमम्) जगत्स्रष्टारं परमात्मानम्, (यम्) (ब्रह्माणः) ब्रह्मज्ञानिनः पुरुषाः (विदुः) जानन्ति। साक्षात्कुर्वन्ति (न) निषेधे (तस्य) ब्रह्मणोऽनुभवम् (अश्नाति) भुनक्ति। अनुभवति (पार्थिवः)पृथिवीविषयाऽऽसक्तः पुरुषः ॥
०४ यत्त्वा सोमप्रपिबन्ति
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यत्त्वा॑ सोमप्र॒पिब॑न्ति॒ तत॒ आ प्या॑यसे॒ पुनः॑।
वा॒युः सोम॑स्य रक्षि॒ता समा॑नां॒ मास॒आकृ॑तिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यत्त्वा॑ सोमप्र॒पिब॑न्ति॒ तत॒ आ प्या॑यसे॒ पुनः॑।
वा॒युः सोम॑स्य रक्षि॒ता समा॑नां॒ मास॒आकृ॑तिः ॥
०४ यत्त्वा सोमप्रपिबन्ति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- When, O Soma, they drink thee ⌊up⌋, then thou fillest thyself up
again; Vāyu is Soma’s defender; the month is norm (ā́kṛti) of the years
(sámā).
Notes
RV. (x. 85. 5) reads deva for soma in a. The verse (as noted
above) is wanting in Ppp.
Griffith
When they begin to drink thee, then, O God, thou swellest out again. Vayu in Soma’s sentinel. The month is that which shapes the years.
पदपाठः
यत्। त्वा॒। सो॒म॒। प्र॒ऽपिब॑न्ति। ततः॑। आ। प्या॒य॒से॒। पुनः॑। वा॒युः। सोम॑स्य। र॒क्षि॒ता। समा॑नाम्। मासः॑। आऽकृ॑तिः। १.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- सोम
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र १-५, प्रकाश करने योग्य और प्रकाशक के विषय काउपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सोमः) हे चन्द्रमा ! (यत्) जब (त्वा) तुझको (प्रपिबन्ति) वे [किरणें] पी जाती हैं, (ततः) तब (पुनः)फिर (आ प्यायसे) तू परिपूर्ण हो जाता है। (वायुः) पवन (सोमस्य) चन्द्रमा का (रक्षिता) रक्षक है और (मासः) सबका परिमाण करनेवाला [परमेश्वर] (समानाम्) अनुकूलक्रियाओं का (आकृतिः) बनानेवाला है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब चन्द्रमा के रस कोसूर्य की किरणें खीच लेती हैं, वह रस पृथिवी पर किरणों द्वारा आता और पदार्थोंको पुष्ट करता है, फिर वह पार्थिव रस किरणों से वायु द्वारा खिंचकर चन्द्रमा कोपहुँचता है। इस प्रकार चन्द्रमा ईश्वरनियम से प्राणियों का सदा उपकारी होता है॥४॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।५ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(यत्) यदा (त्वा) (सोमः) हेचन्द्र (प्रपिबन्ति) आकर्षन्ति रश्मयः (ततः) अनन्तरम् (आ प्यायसे) प्रवर्द्धसे (पुनः) (वायुः) (सोमस्य) चन्द्रस्य (रक्षिता) रक्षकः (समानाम्) सम्-टाप्।अनुकूलानां क्रियाणाम् (मासः) मसी परिमाणे परिणामे च-घञ्। परिमाणकर्ता (आकृतिः)अकर्ता। रचयिता ॥
०५ आच्छद्विधानैर्गुपितो बार्हतैः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ॒च्छद्वि॑धानैर्गुपि॒तो बार्ह॑तैः सोमः रक्षि॒तः।
ग्राव्णा॒मिच्छृ॒ण्वन्ति॑ष्ठसि॒न ते॑ अश्नाति॒ पार्थि॑वः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ॒च्छद्वि॑धानैर्गुपि॒तो बार्ह॑तैः सोमः रक्षि॒तः।
ग्राव्णा॒मिच्छृ॒ण्वन्ति॑ष्ठसि॒न ते॑ अश्नाति॒ पार्थि॑वः ॥
०५ आच्छद्विधानैर्गुपितो बार्हतैः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Guarded by covering-arrangements, defended by watchmen (??
bárhata), O Soma, thou standest hearing the pressing-stones; no
earthly one partakes of thee.
Notes
Is RV. X. 85. 4, without variant. All this talk about the moon as
identical with Soma at the beginning of the Sūryā-hymn seems very
meaningless unless Sūryā is really the moon, who every month “goes to”
her spouse the sun.
Griffith
Soma, preserved by covering rules, guarded by hymns in Brihati, Thou standest listening to the stones; none tastes of thee who dwells on earth.
पदपाठः
आ॒ऽच्छत्ऽवि॑धानैः। गु॒पि॒तः। बार्ह॑तैः। सो॒म॒। र॒क्षि॒तः। ग्राव्णा॑म्। इत्। शृ॒ण्वन्। ति॒ष्ठ॒सि॒। न। ते॒। अ॒श्ना॒ति॒। पार्थि॑वः। १.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- सोम
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मन्त्र १-५, प्रकाश करने योग्य और प्रकाशक के विषय काउपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सोमः) हे सर्वोत्पादकपरमेश्वर (आच्छद्विधानैः) ढक लेनेवाले विधानों से (गुपितः) गुप्त [अन्तर्धान] कियागया और (बार्हतैः) वेदवाणियों द्वारा कहे गये नियमों से (रक्षितः) रक्षा कियागया, (ग्राव्णाम्) विद्वानों की [प्रार्थना] (इत्) अवश्य (शृण्वन्) सुनता हुआ तू (तिष्ठसि) ठहरता है, (पार्थिवः) पृथिवी [के विषयों] में आसक्त पुरुष (ते) तेरे [अनुभव को] (न) नहीं (अश्नाति) भोगता है ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सर्वव्यापक परमात्माअपने अनन्त सर्वश्रेष्ठ नियमों से सुरक्षित रह कर बड़े उपकार करता है, उस कोविद्वान् ही जानते हैं, सामान्य मनुष्य नहीं जान सकते। इसलिये सब मनुष्यविद्वान् होकर ईश्वरज्ञान से उन्नति करें ॥५॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(आच्छद्विधानैः) आच्छादनं कुर्वद्भिर्नियमैः (गुपितः) अन्तर्हितः (बार्हतैः)बृहती-अण्। बृहतीभिर्वेदवाग्भिर्विहितैर्विधानैः (सोमः) हे सर्वोत्पादक परमेश्वर (रक्षितः) (ग्राव्णाम्) अ० ३।१०।५। अन्येभ्योऽपिदृश्यन्ते। पा० २।३।७५। गॄविज्ञाने स्तुतौ च-क्वनिप्, पृषोदरादित्वात् साधुः। गृणातिः स्तुतिकर्मा-निरु०३।५। विदुषां [प्रार्थनाम्] (इत्) एव (शृण्वन्) आकर्णयन् (तिष्ठसि) वर्तसे (न)निषेधे (ते) तवानुभवम् (अश्नाति) भुनक्ति (पार्थिवः) पृथिवीविषयेष्वासक्तः ॥
०६ चित्तिराउपबर्हणं चक्षुरा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
चित्ति॑राउप॒बर्ह॑णं॒ चक्षु॑रा अ॒भ्यञ्ज॑नम्।
द्यौर्भूमिः॒ कोश॒ आसी॒द्यदया॑त्सू॒र्यापति॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
चित्ति॑राउप॒बर्ह॑णं॒ चक्षु॑रा अ॒भ्यञ्ज॑नम्।
द्यौर्भूमिः॒ कोश॒ आसी॒द्यदया॑त्सू॒र्यापति॑म् ॥
०६ चित्तिराउपबर्हणं चक्षुरा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Intention (cítti) was the pillow, sight was the ointment, heaven
[and] earth were the coffer (kóśa), when Sūryā went to her husband.
Notes
Is RV. x. 85. 7, without variant.
Griffith
Thought was her coverlet, the power of sight was unguent for her eyes: Her treasure-chest was earth and heaven, when Surya went unto her lord.
पदपाठः
चित्तिः॑। आः॒। उ॒प॒ऽबर्ह॑णम्। चक्षुः॑। आः॒। अ॒भि॒ऽअञ्ज॑नम्। द्यौः। भूमि॑। कोशः॑। आ॒सी॒त्। यत्। अया॑त्। सू॒र्या। पति॑म्। १.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- स्वविवाह
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (चित्तिः) चेतना [कन्या की] (उपबर्हणम्) छोटी ओढ़नी [समान] (आः) होवे, (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्य (अभ्यञ्जनम्) उबटन [शरीर मलने के द्रव्य के तुल्य] (आः) होवे। (द्यौः) आकाश और (भूमिः) भूमि (कोशः) निधिमञ्जूषा [पेटी पिटारी समान] (आसीत्) होवे, (यत्) जब (सूर्या) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या (पतिम्) पतिको (अयात्) प्राप्त होवे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब कन्या बाहिरीउपकरणों की उपेक्षा करके भीतरी विद्याबल से चेतन्य स्वभाव, और पदार्थों को दिव्यदृष्टि से देखनेवाली, और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने करानेवाली हो, तब सुयोग्य पति से ब्याह करे ॥६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।७ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(चित्तिः)चेतना। बुद्धिः (आः) बहुलं छन्दसि। पा० ७।३।९७। अस्तेर्लङि, ईडभावः, तलोपेसकारस्य रुत्वविसर्गौ। आसीत्। छन्दसि। लुङ्लङ्लिटः। पा० ३।४।६। इति लिङर्थेलङ्। स्यात्। एवमन्यत्रापि ज्ञातव्यम्। (उपबर्हणम्) उपवस्त्रं यथा (चक्षुः)दर्शनसामर्थ्यम्। (आः) स्यात् (अभ्यञ्जनम्) शरीरमर्दनद्रव्यं यथा (द्यौः) आकाशः (भूमिः) (कोशः) निधिमञ्जूषा यथा (आसीत्) स्यात् (यत्) यदा (अयात्) याप्रापणे-लङ्। यायात्। प्राप्नुयात् (सूर्या) अ० ९।४।१४। राजसूयसूर्य०। पा०३।१।११४। सृ गतौ यद्वा षू प्रेरणे निपातनात् क्यपि रूपसिद्धिः। सूर्याद् देवतायांचाब् वक्तव्यः। वा० पा० ४।१।४८। इति चाप्। सूर्या वाङ्नाम-निघ० १।११। पदनाम-निघ०५।६। सूर्या सूर्यस्य पत्नी-निरु० १२।७। पत्नी=विभूतिर्दीप्तिः। प्रेरिका।सूर्यदीप्तिवत्तेजस्विनी कन्या (पतिम्) भर्तारम् ॥
०७ रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
रैभ्या॑सीदनु॒देयी॑ नाराशं॒सी न्योच॑नी।
सू॒र्याया॑ भ॒द्रमिद्वासो॒ गाथ॑यति॒परि॑ष्कृता ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
रैभ्या॑सीदनु॒देयी॑ नाराशं॒सी न्योच॑नी।
सू॒र्याया॑ भ॒द्रमिद्वासो॒ गाथ॑यति॒परि॑ष्कृता ॥
०७ रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The rāíbhī was the parting [song] (?? anudéyī), the nārāśaṅsī́
was the welcoming one (? nyócanī); Sūryā’s garment verily was
excellent; she goes adorned with song (gā́thā).
Notes
Is RV. x. 85. 6, which reads at the end páriṣkṛtam (p. pári॰kṛtam)
for páriṣkṛtā (which our p. and s. both have). The translation given
ventures new conjectures for anudéyī (lit. ’to be given after’) and
nyócanī (lit. ‘making wonted or at home’); the Pet. Lexx. say ‘dowry’
⌊so BR. iii. 569, OB. i. 52: but cf. BR. i. 205 and v. 987⌋ and
‘ornament’; Ludwig ‘vom Hause mitgegeben’ and ‘[ins neue Haus]
einführend’; Weber, ’train’ and ‘hand-maid.’
Griffith
Raibhi was her dear bridal friend, and Narasatisi led her home. Lovely to see was Surya’s robe: by Gatha beautified she moves
पदपाठः
रैभी॑। आ॒सी॒त्। अ॒नु॒ऽदेयी॑। ना॒रा॒शं॒सी। नि॒ऽओच॑नी। सू॒र्यायाः॑। भ॒द्रम्। इत्। वासः॑। गाथ॑या। ए॒ति॒। परि॑ष्कृता। १.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रैभी) वेदवाणी (सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या की (अनुदेयी) साथिन [समान] और (नाराशंसी) मनुष्यों के गुणों की स्तुति (न्योचनी)नौची [छोटी सहेली समान] (आसीत्) हो। और (भद्रम्) शुभ कर्म (इत्) ही (वासः)वस्त्र [समान] हो [क्योंकि वह] (गाथया) गाने योग्य वेदविद्या से (परिष्कृता)सजी हुई (एति) चलती है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - कन्या वेदों औरइतिहासों को पढ़कर विचारकर शुभ कर्म करती हुई उत्तम विद्या से अपनी शोभा बढ़ावे॥७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।६ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(रैभी) रेभ-अण्, ङीप्। रेभःस्तोतृनाम-निघ० ३।१६। रेभस्य स्तोतुरियम्। वेदवाणी (आसीत्) स्यात् (अनुदेयी)अनुदीयमानावयस्या (नाराशंसी) नर+शंसु स्तुतौ-अण्। अन्येषामपि दृश्यते। पा०६।३।१३७। इति दीर्घः। ततः प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकोऽण्, नराशंस एव नाराशंसः।येन नराः प्रशस्यन्ते स नराशंसो मन्त्रः-निरु० ९।९। स्त्रियां ङीप्।मनुष्यगुणानां स्तुतिः (न्योचनी) नि+उच समवाये-ल्युट्, ङीप्। लघुसहचरी (सूर्यायाः) म० ६। प्रेरिकायाः सूर्य्यदीप्तिवत्तेजस्विन्याः कन्यायाः (भद्रम्)शुभकर्म (इत्) एव (वासः) वस्त्रम् (गाथया) उषिकुषिगार्तिभ्यस्थन्। उ० २।४। गैगानेथन्। गानयोग्यया वेदविद्यया (एति) गच्छति (परिष्कृता) अलङ्कृता ॥
०८ स्तोमाआसन्प्रतिधयः कुरीरम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्तोमा॑आसन्प्रति॒धयः॑ कु॒रीरं॒ छन्द॑ ओप॒शः।
सू॒र्याया॑ अ॒श्विना॑व॒राग्निरा॑सीत्पुरोग॒वः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्तोमा॑आसन्प्रति॒धयः॑ कु॒रीरं॒ छन्द॑ ओप॒शः।
सू॒र्याया॑ अ॒श्विना॑व॒राग्निरा॑सीत्पुरोग॒वः ॥
०८ स्तोमाआसन्प्रतिधयः कुरीरम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The laudations (stóma) were the cross-pieces (?? pratidhí); meter
was the kurī́ra, the opaśá; of Sūryā the Aśvins were the wooers, Agni
was the forerunner.
Notes
Is RV. x. 85. 8, without variant. For kurī́ra and opaśá, women’s
head-dresses or parts of such, compare vi. 138. In this connection the
commentators’ explanation of pratidhí “cross-pieces on the
chariot-pole” is extremely unlikely; it must rather be some article of a
woman’s dress. Ppp. reads and combines paridhayaṣ k-.
Griffith
Songs were the cross-bars of the pole, Kurira metre docked her head. Both Asvins were the paranymphs: Agni was leader of the train.
पदपाठः
स्तोमाः॑। आ॒स॒न्। प्र॒ति॒ऽधयः॑। कु॒रीर॑म्। छन्दः॑। ओ॒प॒शः। सू॒र्यायाः॑। अ॒श्विना॑। व॒रा। अ॒ग्निः। आ॒सी॒त्। पु॒रः॒ऽग॒वः। १.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (स्तोमाः) स्तुतियोग्य गुण (सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली]कन्या के (प्रतिधयः) वस्त्रों के अंचल [समान] (आसन्) हों, (कुरीरम्) कर्तव्यकर्म और (छन्दः) आनन्दप्रद वेद (ओपशः) मुकुट [समान हो] और (अग्निः) अग्नि [शारीरिक और बाहिरी अग्नि द्वारा स्वास्थ्य, शिल्प, यज्ञ आदि विधान] (पुरोगवः)अग्रगामी [पुरोहित समान] (आसीत्) हो, [जब कि] (अश्विना) विद्या को प्राप्त दोनों [वधू वर] (वरा) परस्पर चाहनेवाले [वा श्रेष्ठ गुणवाले] हों ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब कन्या ब्रह्मचर्यसे विद्या प्राप्त करके स्वास्थ्य आदि विधान में निपुण हो और जब वैसा ही वरब्रह्मचारी विद्वान् हो, तब दोनों परस्पर विवाह की कामना करें ॥८॥मन्त्र ८-१३कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।८५।८-१३ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(स्तोमाः) स्तुत्यगुणाः (आसन्) स्युः (प्रतिधयः) प्रतिधीयन्ते ये। वस्त्रान्ताः (कुरीरम्) कृञ उच्च। उ० ४।३३। डुकृञ्करणे-ईरन्। कर्तव्यं कर्म (छन्दः) आह्लादको वेदः (ओपशः) आङ्+उप+शीङ् शयने-ड।शिरोभूषणम्। मुकुटः (सूर्यायाः) म० ६। (अश्विना) अ० २।२९।६। अश्वी च अश्विनी चअश्विनौ। पुमान् स्त्रिया। पा० ३।२।६७। इत्येकशेषः। अश्विनौ… राजानौपुण्यकृतौ-निरु० १२।१। प्राप्तविद्यौ वधूवरौ (वरा) वृञ् वरणे-अप्। वरश्च च वरा चवरौ। परस्परेच्छुकौ। श्रेष्ठौ (अग्निः) शारीरिको बाह्यो वा अग्निः (आसीत्) स्यात् (पुरोगवः) गोरतद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। पुरस्+गो-टच्। अग्रगामी। पुरोहितः ॥
०९ सोमोवधूयुरभवदश्विनास्तामुभा वरा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सोमो॑वधू॒युर॑भवद॒श्विना॑स्तामु॒भा व॒रा।
सू॒र्यां यत्पत्ये॒ शंस॑न्तीं॒ मन॑सासवि॒ताद॑दात् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सोमो॑वधू॒युर॑भवद॒श्विना॑स्तामु॒भा व॒रा।
सू॒र्यां यत्पत्ये॒ शंस॑न्तीं॒ मन॑सासवि॒ताद॑दात् ॥
०९ सोमोवधूयुरभवदश्विनास्तामुभा वरा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Soma was the bride-seeker; both Aśvins were wooers, when Savitar gave
to her husband Sūryā, praising (śaṅs) with her mind.
Notes
Is RV. x. 85. 9, without variant, save that our pada-mss. falsely
leave adadāt unaccented. ‘Praising,’ apparently ‘assenting gladly.’
Ppp. reads at end ‘dadhāt.
Griffith
Soma was he who wooed the maid: the groomsmen were both. Asvins, when The Sun-God Savitar bestowed his willing Surya on her lord.
पदपाठः
सोमः॑। व॒धू॒ऽयुः। अ॒भ॒व॒त्। अ॒श्विना॑। आ॒स्ता॒म्। उ॒भा। व॒रा। सू॒र्याम्। यत्। पत्ये॑। शंस॑न्तीम्। मन॑सा। स॒वि॒ता। अ॒द॒दा॒त्। १.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सोमः) शुभगुणयुक्तब्रह्मचारी (वधूयुः) वधू की कामना करनेहारा (अभवत्) हो, (उभा) दोनों (अश्विना)विद्या को प्राप्त [वधू वर] (वरा) परस्पर चाहनेवाले [वा श्रेष्ठ गुणवाले] (आस्ताम्) हों, (यत्) जब (पत्ये) पति के लिये (मनसा) मनसे (संशन्तीम्) गुणकीर्तन करती हुई (सूर्याम्) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समानतेजवाली] कन्या को (सविता) जगत् का उत्पादक परमात्मा (अददात्) देवे ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी औरब्रह्मचारिणी पूर्ण विद्या प्राप्त करके परस्पर गुणों की परीक्षा करके कराकेगृहाश्रम में प्रवेश करें और परमेश्वर को धन्यवाद दें कि बड़े भाग्य से तुल्यगुण कर्म स्वभाववाले स्त्री-पुरुषों का जोड़ा मिलता है ॥९॥यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(सोमः)शुभगुणयुक्तो ब्रह्मचारी (वधूयुः) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। वधू-क्यच्।क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। उ प्रत्ययः। वधूकामः (अभवत्) भवेत् (अश्विना) म० ८।परस्परेच्छुकौ। श्रेष्ठौ (सूर्याम्) प्रेरयित्रीम्। तेजस्विनीं कन्याम् (यत्)यदा (पत्ये) स्वाम्यर्थम् (संशन्तीम्) गुणकीर्तनं कुर्वतीम् (मनसा) हृदयेन (सविता) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (अददात्) दद्यात् ॥
१० मनो अस्या
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मनो॑ अस्या॒ अन॑आसी॒द्द्यौरा॑सीदु॒त च्छ॒दिः।
शु॒क्राव॑न॒ड्वाहा॑वास्तां॒ यदया॑त्सू॒र्या पति॑म्॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मनो॑ अस्या॒ अन॑आसी॒द्द्यौरा॑सीदु॒त च्छ॒दिः।
शु॒क्राव॑न॒ड्वाहा॑वास्तां॒ यदया॑त्सू॒र्या पति॑म्॥
१० मनो अस्या ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Mind was her cart; heaven also was [its] canopy; the two
draft-oxen were white (śukrá), when Sūryā went to her husband.
Notes
RV. (x. 85. 10) has at end gṛhám instead of pátim.
Griffith
Her spirit was the bridal car, the canopy thereof was heaven: Two radiant oxen formed the team when Surya came unto her lord.
पदपाठः
मनः॑। अ॒स्याः॒। अनः॑। आ॒सी॒त्। द्यौः। आ॒सी॒त्। उ॒त। छ॒दिः। शु॒क्रौ। अ॒न॒ड्वाहौ॑। आ॒स्ता॒म्। यत्। अया॑त्। सू॒र्या। पति॑म्। १.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मनः) मन (अस्याः) इस [ब्रह्मचारिणी] का (अनः) रथ [समान] (आसीत्) होवे, (उत) और (द्यौः) सूर्य काप्रकाश (छदिः) छत्तर [समान] (आसीत्) होवे। (शुक्रौ) दोनों वीर्यवान् [वधूवर] (अनड्वाहौ) रथ चलानेवाले दो बैल [के समान] (आस्ताम्) होवें, (यत्) जब (सूर्या)प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या (पतिम्) पति को (अयात्) प्राप्त होवे ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब कन्या वेद आदिशास्त्र पढ़कर, मननशील, ताप आदि सहने योग्य हो और जब वैसा ही सुयोग्य पति हो, तबगृहाश्रम के चलाने में समर्थ होकर दोनों प्रीतिपूर्वक विवाह करें ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(मनः)मननम्। अन्तःकरणम् (अस्याः) कन्यायाः (अनः) रथः (आसीत्) स्यात् (द्यौः)सूर्यप्रकाशः (आसीत्) (उत) अपि (छदिः) छत्रम्। आतपत्रम् (शुक्रौ) शुक्र-अर्शआद्यच्। वीर्यवन्तौ दम्पती (अनड्वाहौ) रथवाहकौ वृषभौ यथा (आस्ताम्) स्याताम्।अन्यद्-गतम्-म० ६ ॥
११ ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ऋक्सा॒माभ्या॑म॒भिहि॑तौ॒ गावौ॑ ते साम॒नावै॑ताम्।
श्रोत्रे॑ ते च॒क्रे आ॑स्तांदि॒वि पन्था॑श्चराच॒रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ऋक्सा॒माभ्या॑म॒भिहि॑तौ॒ गावौ॑ ते साम॒नावै॑ताम्।
श्रोत्रे॑ ते च॒क्रे आ॑स्तांदि॒वि पन्था॑श्चराच॒रः ॥
११ ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Haltered with verse (ṛ́c) and chant (sā́man), thy two oxen went
peaceful (? sāmaná); ears were thy (two) wheels; in the sky the
wandering track.
Notes
Abhíhita seems to be the correlative to abhidhānī. Our ’ears’ (p.
śrótre íti) is a bad variant to RV. (x. 85. 11) śrótram, ‘hearing.’
RV. also has in b itas for āitām. We have to gain in c a
syllable by harsh resolution in order to make a full pāda. Ppp. reads in
a upahitāu.
Griffith
Steadily went the steers upheld by holy verse and song of praise, The chariot-wheels were listening ears: thy path was tremulous in the sky.
पदपाठः
ऋ॒क्ऽसा॒माभ्या॑म्। अ॒भिऽहि॑तौ। गावौ॑। ते॒। सा॒म॒नौ। ऐ॒ता॒म्। श्रोत्रे॒ इति॑। ते॒। च॒क्रे इति॑। आ॒स्ता॒म्। दि॒वि। पन्थाः॑। च॒रा॒च॒रः। १.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ऋक्सामाभ्याम्)पदार्थों की स्तुतिविद्या और मोक्षज्ञान द्वारा (अभिहितौ) कहे गये [दो प्रकारके बोध] (गावौ) दो बैल [रथ के दो बैलों के समान] (ते) तेरे (सामनौ=समानौ)अनुकूल (ऐताम्) चलें। (ते) तेरे (श्रोत्रे) दोनों कान (चक्रे) दो पहिये [समान] (आस्ताम्) होवें, (दिवि) प्रत्येक व्यवहार में (पन्थाः) मार्ग (चराचरः) चलाचल [रहे] ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - कन्या वेदविहितकर्मों में प्रवीण होकर श्रवण मनन द्वारा संसार के पदार्थों से गुण ग्रहण करकेगृहाश्रम के व्यवहार चलाने में समर्थ होवे ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११−(ऋक्सामाभ्याम्) पदार्थानांस्तुतिविद्यया मोक्षज्ञानेन च (अभिहितौ) विहितौ बोधौ (गावौ) रथस्य गमयितारौवृषभौ यथा (ते) तव (सामनौ) समानौ। अनुकूलौ (ऐताम्) गच्छताम् (श्रोत्रे)गुणग्राहकौ कर्णौ (ते) तव (चक्रे) रथाङ्गे यथा (आस्ताम्) स्याताम् (दिवि)प्रत्येकव्यवहारे (पन्थाः) मार्गः (चराचरः) चरिचलिपतिवदीनांद्वित्वमच्याक्चाभ्यासस्य। वा० पा० ६।१।१२। इति रूपसिद्धिः। चलाचलः। अत्यन्तगमनयोग्यः ॥
१२ शुची ते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
शुची॑ ते च॒क्रेया॒त्या व्या॒नो अ॑क्ष॒ आह॑तः।
अनो॑ मन॒स्मयं॑ सू॒र्यारो॑हत्प्रय॒ती पति॑म्॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शुची॑ ते च॒क्रेया॒त्या व्या॒नो अ॑क्ष॒ आह॑तः।
अनो॑ मन॒स्मयं॑ सू॒र्यारो॑हत्प्रय॒ती पति॑म्॥
१२ शुची ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Clean were the (two) wheels of thee as thou wentest; out-breathing
(vyāná) was the inserted axle; a cart made of mind did Sūryā ascend
when going forth to her husband.
Notes
Is RV. x. 85. 12, without variant. The pada-reading manasmayam in
c is by Prāt. iv. 24. ⌊Here Roth’s Collation says “śacī wie
Vulgata”!⌋
Griffith
Pure, as thou wentest, were thy wheels, breath was the axle pier- cing them. Surya advancing to her lord rode on the chariot of her heart.
पदपाठः
शुची॒ इति॑। ते॒। च॒क्रे इति॑। या॒त्याः। वि॒ऽआ॒नः। अक्षः॑। आऽह॑तः। अनः॑। म॒न॒स्मय॑म्। सू॒र्या। आ। अ॒रो॒ह॒त्। प्र॒ऽय॒ती। पति॑म्। १.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यात्याः ते) तुझ चलतीहुई के (शुची) दो शुद्ध [कान, मन्त्र ११] (चक्रे) दो पहिये [समान हों] और (व्यानः) व्यान [सर्वशरीरव्यापक वायु] (अक्षः) धुरा [समान] (आहतः) [पहियों में]लगा हो। (पतिम्) पति के पास को (प्रयती) चलती हुई (सूर्याः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या (मनस्मयम्) मनोमय [विचाररूप] (अनः) रथपर (आ अरोहत्) चढ़े ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब कन्या श्रवण मननद्वारा व्यान वायु अर्थात् इन्द्रियों को दमन कर सके, तब पति के समीप रहकरगृहाश्रम की गाड़ी को चलावे ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १२−(शुची) पवित्रे श्रोत्रे (ते) तव (चक्रे)रथाङ्गे यथा (यात्याः) यान्त्याः। गच्छन्त्याः (व्यानः) सर्वशरीरव्यापकोवायुर्यथा। इन्द्रियसमूह इत्यर्थः (अक्षः) चक्रधारणकाष्ठभेदः। धुरा (आहतः)संयोजितः (अनः) रथम् (मनस्मयम्) मनोमयम्। मननेन सिद्धम् (सूर्या) प्रेरयित्री।सूर्यवत् तेजस्विनी कन्या (आ अरोहत्) आरोहेत् (प्रयती) प्रयाणं कुर्वती (पतिम्)भर्तारम् ॥
१३ सूर्यायावहतुः प्रागात्सविता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सू॒र्याया॑वह॒तुः प्रागा॑त्सवि॒ता यम॒वासृ॑जत्।
म॒घासु॑ ह॒न्यन्ते॒ गावः॒ फल्गु॑नीषु॒व्यु᳡ह्यते ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सू॒र्याया॑वह॒तुः प्रागा॑त्सवि॒ता यम॒वासृ॑जत्।
म॒घासु॑ ह॒न्यन्ते॒ गावः॒ फल्गु॑नीषु॒व्यु᳡ह्यते ॥
१३ सूर्यायावहतुः प्रागात्सविता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The bridal (vahatú) of Sūryā, which Savitar sent off (ava-sṛj),
has gone forth; in the Maghās are slain the kine; in the Phalgunīs is
the wedding.
Notes
RV. (x. 85. 13) reads in c aghā́su* ⌊Ppp. has the same⌋, and
hanyante without the antithetical accent which all our mss. give, and
which our text ought to read, and, for d, árjunyoḥ páry uhyate.
The Maghā stars are what we call the Sickle, in the neck of Leo; the
Phalgunī stars are the rectangle β, θ, δ 93 Leonis; arjunī = phalgunī;
the moon is in the latter either one or two days after it is in the
former.† From such utterly indefinite data the attempt to extract a date
is wasted labor. ‘Is the wedding’: vy ùhyate is the verb corresponding
to vivāha ‘wedding,’ lit. ‘driving away’; Ppp. reads instead vi
havyate. The second half-verse is quoted in Kāuś. 75. 5, in the general
definition of the time for wedding. ⌊With reference to this
much-discussed verse, see: Weber, in Abh. der Berliner Ak. for 1861
(Nakṣatra-essay), p. 364, and in Sb. for 1894, p. 804; Jacobi,
Festgruss an Roth, p. 69; Wint., p. 32.⌋
*⌊Weber discusses the readings aghā́su and maghā́su, and deems the
RV. reading to be in this case the secondary one: Sb. 1894, p. 807.⌋
†⌊Concerning these asterisms (no’s 10, and 11, 12) see Whitney, JAOS.
vi. 332-4, or Oriental and Linguistic Studies, ii. 352-3. It is not
impertinent to note that the regents of the Phalgunīs are Bhaga and
Aryaman, and that those of the Maghās are the Manes. For the latter, cf.
TB. iii. 1. 4⁸: só ‘tra juhoti: pitṛ́bhyaḥ svā́hā, maghā́bhyaḥ svā́hā,
’naghā́bhyaḥ svā́hā, gadā́bhyaḥ svā́hā, ’rundhatī́bhyaḥ svā́he, ’ti; but
better TS. iv. 4. 10.⌋
Griffith
The bridal pomp of Surya, which Savitar started, moved along. In Magha days are oxen slain, in Phalgunis they wed the bride.
पदपाठः
सू॒र्यायाः॑। व॒ह॒तु। प्र। अ॒गा॒त्। स॒वि॒ता। यम्। अ॒व॒ऽअसृ॑जत्। म॒घासु॑। ह॒न्यन्ते॑। गावः॑। फल्गु॑नीषु। वि। उ॒ह्य॒ते॒। १.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्यायाः) प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या का (वहतुः) दाय [यौतुक, कन्याको दिया पदार्थ] (प्र अगात्) सन्मुख चले, (यम्) जिस [पदार्थ] को (सविता)जन्मदाता पिता (अव असृजत्) दान करे। (मघासु) सत्कार क्रियाओं में (गावः) वाचाएँ (हन्यन्ते) चलें, और वह [वधू] (फल्गुनीषु) सफल क्रियाओं के बीच (वि उह्यते) लेजाई जावे ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पिता को योग्य है किविवाह के समय कन्या को स्त्रीधन अर्थात् योग्य वस्त्र, अलंकार, धन दान करे और सबलोग आशीर्वाद बोल कर उस क्रिया को सफल करें ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३−(सूर्यायाः) प्रेरिकायाः।सूर्यदीप्तिवत्तेजोवत्याः कन्यायाः (वहतुः) एधिवह्योश्चतुः। उ० १।७७। वहप्रापणे−चतुः। विवाहकाले कन्यायै देयः पदार्थः। विवाहः। वहनकारणम् (प्र अगात्)प्रकर्षेण गच्छतु (सविता) जनकः। पिता (यम्) पदार्थम् (अव असृजत्) दत्तवान् (मघासु) मह पूजायाम्-अच् अर्शआद्यच्। मघं धननाम-निघ० २।१०। सत्कारवतीषुक्रियासु। धनवतीषु क्रियासु (हन्यन्ते) हन हिंसागत्योः। गम्यन्ते। प्राप्यन्ते (गावः) वाचः (फल्गुनीषु) फलेर्गुक् च। उ० ३।५६। फल निष्पत्तौ-उनन्, गुक् चङीप्। सफलक्रियासु (व्युह्यते) विविधं नीयते ॥
१४ यदश्विनापृच्छमानावयातं त्रिचक्रेण
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यद॑श्विनापृ॒च्छमा॑ना॒वया॑तं त्रिच॒क्रेण॑ वह॒तुं सू॒र्यायाः॑।
क्वैकं॑ च॒क्रंवा॑मासी॒त्क्व᳡ दे॒ष्ट्राय॑ तस्थथुः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद॑श्विनापृ॒च्छमा॑ना॒वया॑तं त्रिच॒क्रेण॑ वह॒तुं सू॒र्यायाः॑।
क्वैकं॑ च॒क्रंवा॑मासी॒त्क्व᳡ दे॒ष्ट्राय॑ तस्थथुः ॥
१४ यदश्विनापृच्छमानावयातं त्रिचक्रेण ...{Loading}...
Whitney
Translation
- When, O Aśvins, ye went asking, with your three-wheeled [chariot],
to Sūryā’s bridal, where was one wheel of yours? where stood ye for
pointing out?
Notes
The verse corresponds, without variant, to RV. x. 85. 14 a, b and 15
c, d. The sense of the questions is wholly obscure.
Griffith
When on your three-wheeled chariot, O ye Asvins, ye came as suitors unto Surya’s bridal, Where was one chariot-wheel of yours? Where stood ye for the sire’s command?
पदपाठः
यत्। अ॒श्वि॒ना॒। पृ॒च्छमा॑नौ। अया॑तम्। त्रि॒ऽच॒क्रेण॑। व॒ह॒तुम्। सू॒र्यायाः॑। क्व᳡। एक॑म्। च॒क्रम्। वा॒म्। आ॒सी॒त्। क्व᳡। दे॒ष्ट्राय॑। त॒स्थ॒थुः॒। १.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- विस्टार प्रस्तार पङ्क्ति
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे विद्याको प्राप्त [दोनों स्त्री पुरुष समूह !] (यत्) जब (सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या के (वहतुम्) विवाह को (पृच्छमानौ)पूँछते हुए [तुम दोनों] (त्रिचक्रेण) अपने तीन पहियेवाले [कर्म, उपासनाऔरज्ञानवाले रथ] से (अयातम्) पहुँचो। (क्व) कहाँ पर (वाम्) तुम दोनों का (एकम्) एक [आत्मबोधरूप] (चक्रम्) पहिया (आसीत्) रहे, (क), कहाँ पर (देष्ट्राय) उपदेश केलिये (तस्थथुः) आप दोनों ठहरें ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुष विवाहउत्सव पर एकत्र होकर परस्पर आत्मोन्नति और परस्पर उपकार में स्थिति का विचारकरें। आगे मन्त्र १६ देखो ॥१४॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।१४, १५ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४−(यत्)यदा (अश्विना) प्राप्तविद्यौ स्त्रीपुरुषसमाजौ (पृच्छमानौ) प्रश्नान् कुर्वन्तौ (अयातम्) या गतौ-लङ्। अगच्छतम् (त्रिचक्रेण) कर्मोपासनाज्ञानरूपेणचक्रत्रययुक्तेन रथेन (वहतुम्) म० १३। विवाहोत्सवम् (सूर्यायाः) प्रेरिकायाः।सूर्यदीप्तिवत्तेजस्विन्याः कन्यायाः (क्व) कुत्र (एकम्) (चक्रम्) आत्मबोधरूपम् (वाम्) युवयोः (आसीत्) अस्तु। भवतु (क्व) (देष्ट्राय) उपदेशाय (तस्थथुः)तिष्ठतम् ॥
१५ यदयातं शुभस्पतीवरेयम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यदया॑तं शुभस्पतीवरे॒यं सू॒र्यामुप॑।
विश्वे॑ दे॒वा अनु॒ तद्वा॑मजानन्पु॒त्रः पि॒तर॑मवृणीतपू॒षा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यदया॑तं शुभस्पतीवरे॒यं सू॒र्यामुप॑।
विश्वे॑ दे॒वा अनु॒ तद्वा॑मजानन्पु॒त्रः पि॒तर॑मवृणीतपू॒षा ॥
१५ यदयातं शुभस्पतीवरेयम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- When ye went, O lords of beauty, unto the wooing of Sūryā, all the
gods assented to that [deed] of yours; Pūshan as son chose a father.
Notes
This verse, again, corresponds to parts of two in the RV., namely x. 85.
15 a, b and 14 c, d; the only variant is that RV. reads
pitárāu for -ram in d, and Ppp. pitarā ’vṛ-, which doubtless
means the same. Metrically the verse is as much virāj as vs. 14.
Griffith
Twin Lords of Lustre, at the time when ye to Surya’s wooing came, Then all the Gods agreed to your proposal Pushan as son elected you as father.
पदपाठः
यत्। अया॑तम्। शु॒भः॒। प॒ती॒ इति॑। व॒रे॒ऽयम्। सू॒र्याम्। उप॑। विश्वे॑। दे॒वाः। अनु॑। तत्। वा॒म्। अ॒जा॒न॒न्। पु॒त्रः। पि॒तर॑म्। अ॒वृ॒णी॒त॒। पू॒षा। १.१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आस्तार पङ्क्ति
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शुभः पती) हे शुभक्रिया के पालन करनेवाले [स्त्री-पुरुष समूह !] तुम दोनों (यत्) जब (सूर्याम्=सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या के (वरेयम्) श्रेष्ठ कर्म में (उप) आदर से (अयातम्) पहुँचो। (विश्वे देवाः) सबविद्वान् लोग (वाम्) तुम दोनों के (तत्) उस [कर्म] में (अनु अजानन्) सम्मति दें [कि] (पूषा) पोषण करनेवाला (पुत्रः) पुत्र (पितरम्) पिता को (अवृणीत) स्वीकारकरे ॥१५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - शुभचिन्तक स्त्रीपुरुषविवाह में आकर प्रयत्न करें कि विद्वान् लोग प्रसन्न होकर आशीर्वाद दें कि उनवधू-वर का पुत्र पोषण करनेवाला विद्वान् पराक्रमी होवे ॥१५॥यह मन्त्र ऋग्वेद मेंहै−१०।८५।१४, १५ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १५−(यत्) यदा (अयातम्) अगच्छतम् (शुभस्पती) शुभक्रियायाःपालकौ (वरेयम्) णलोपः। वरेण्यम्। श्रेष्ठः कर्म (सूर्याम्) षष्ठ्यर्थेद्वितीया। सूर्यायाः। प्रेरिकायाः कन्यायाः (उप) आदरेण (विश्वे) सर्वे (देवाः)विद्वांसः (अनु अजानन्) अनुकूलं जानन्तु। स्वीकुर्वन्तु (तत्) वक्ष्यमाणं कर्म (वाम्) युवयोः (पुत्रः) सुतः (पितरम्) जनकम् (अवृणीत) स्वीकरोतु (पूषा) पोषकः ॥
१६ द्वे ते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
द्वे ते॑ च॒क्रेसूर्ये॑ ब्र॒ह्माण॑ ऋतु॒था वि॑दुः।
अथैकं॑ च॒क्रं यद्गुहा॒ तद॑द्धा॒तय॒इद्वि॒दुः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
द्वे ते॑ च॒क्रेसूर्ये॑ ब्र॒ह्माण॑ ऋतु॒था वि॑दुः।
अथैकं॑ च॒क्रं यद्गुहा॒ तद॑द्धा॒तय॒इद्वि॒दुः ॥
१६ द्वे ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The two wheels of thee, O Sūryā, the priests (brahmán) know
seasonably; further, the one wheel that is in secret—that, verily, the
enlightened (addhātí) know.
Notes
Is RV. x. 85. 16. All our mss. accent in a sū́rye and in d ⌊all
save D.⌋ vidúḥ; our edition corrects both words to accordance with RV.
Close correspondence with RV. x. 85 ceases with vs. 16, at the end of
the Sūryā-hymn proper. ⌊SPP. reads sū́rye with all his authorities, and
vidúḥ with nearly all. He adds: “the correction to viduḥ is not
inevitable.” But I do not see how the accented form is to be rendered.⌋
Griffith
Two wheels of thine the Brahmans know, Surya! according to their times. That which is hidden only those who know the highest truths have learned.
पदपाठः
द्वे इति॑। ते॒। च॒क्रे इति॑। सूर्ये॑। ब्र॒ह्माणः॑। ऋ॒तु॒ऽथा। वि॒दुः॒। अथ॑। एक॑म्। च॒क्रम्। यत्। गुहा॑। तत्। अ॒ध्दातयः॑। इत्। वि॒दुः। १.१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्ये) हे प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक समान तेजवाली] कन्या ! (ते) तेरे (द्वे) दो [कर्म औरउपासना रूप] (चक्रे) पहियों को (ब्रह्माणः) ब्रह्मज्ञानी लोग (ऋतुथा) सब ऋतुओंमें (विदुः) जानते हैं। (अथ) और (एकम्) एक [ज्ञानरूप] (चक्रम्) पहिया (यत्) जो (गुहा) हृदय में है, (तत्) उस को (अद्धातयः) सत्य ज्ञानवाले पुरुष (इत्) हि (विदुः) जानते हैं ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वेदवेत्री कन्या औरवेदवेत्ता वर के कर्म, उपासना, ज्ञान की योग्यता को विद्वान् लोग विचारें। पीछेमन्त्र १४ देखो ॥१६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।१६ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १६−(द्वे) (ते) तव (चक्रे) कर्मोपासनारूपे रथाङ्गे (सूर्ये) हे प्रेरिके कन्ये (ब्रह्माणः)ब्रह्मज्ञानिनः (ऋतुथा) ऋतुषु (विदुः) जानन्ति (अथ) अनन्तरम् (एकम्) ज्ञानरूपम् (चक्रम्) (यत्) (गुहा) गुहायाम्। हृदये (तत्) (अद्धातयः) अद्धा सत्यनाम निघ०३।११+अत सातत्यगमने-इन्। सत्यज्ञानिनः। मेधाविनः निघ० ३।१६। (इत्) एव (विदुः) ॥
१७ अर्यमणंयजामहे सुबन्धुम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑र्य॒मणं॑यजामहे सुब॒न्धुं प॑ति॒वेद॑नम्।
उ॑र्वारु॒कमि॑व॒ बन्ध॑ना॒त्प्रेतो मु॑ञ्चामि॒नामुतः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑र्य॒मणं॑यजामहे सुब॒न्धुं प॑ति॒वेद॑नम्।
उ॑र्वारु॒कमि॑व॒ बन्ध॑ना॒त्प्रेतो मु॑ञ्चामि॒नामुतः॑ ॥
१७ अर्यमणंयजामहे सुबन्धुम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- We make offering to Aryaman of good connections, husband-finder;
like a gourd from its bond, from here I release, not from yonder.
Notes
This verse is found as RV. vii. 59. 12, a late and ungenuine appendage
to that hymn, and having no pada-text; its reading is very different,
namely: tryàmbakaṁ yajāmahe sugándhim puṣṭivárdhanam: urvārukám iva
bándhanān mṛtyór mukṣīya mā́ ’mṛ́tāt; and with this agree TS. (i. 8. 6²)
and MS. (i. 10. 4), except that they accent sugandhím in b; VS.
(iii. 60) has tryàmbakam in a; for b, sugandhím pativédanam;
for d, itó mukṣīya mā́ ’mútaḥ. Ppp. has at end muñca mā ‘mutaḥ.
Vāit. 9. 19 quotes the RV. verse in the cāturmāsya ceremony, giving
the text in full; Kāuś. 75. 22 makes our verse accompany an oblation
offered when the wooer comes in. The Anukr. takes no notice of the
redundant syllable in c (read -kám ’va). ⌊For 17, 18, cf. MP. i.
5. 7, and Wint., p. 56.⌋
Griffith
Worship we pay to Aryaman, finder of husbands, kindly friend. As from its stalk a cucumber, from here I loose thee, not from there
पदपाठः
अ॒र्य॒मण॑म्। य॒जा॒म॒हे॒। सु॒ऽब॒न्धुम्। प॒ति॒ऽवेद॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कम्ऽइ॑व। बन्ध॑नात्। प्र। इ॒तः। मु॒ञ्चा॒मि॒। न। अ॒मुतः॑। १.१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सुबन्धुम्) सुन्दरबन्धु, (पतिवेदनम्) रक्षक पति के ज्ञान करानेहारे वा देनेहारे (अर्यमणम्)श्रेष्ठों के मान करनेहारे परमात्मा को (यजामहे) हम पूजते हैं। (उर्वारुकम् इव)ककड़ी को जैसे (बन्धनात्) लता बन्धन से, [वैसे दोनों वधू-वर को] (इतः) इस [वियोगपाश] से (प्र मुञ्चामि) मैं [विद्वान्] छुड़ाता हूँ, (अमुतः) उस [प्रेम पाश] से (न) नहीं [छुड़ाता] ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा की महती कृपाका ध्यान करके विद्वान् लोग वधू-वर को वियोग के कष्ट से छुड़ाकर परस्परप्रेमास्पद बनावें ॥१७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−७।५९।१२। औरयजुर्वेद में−३।६ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १७−(अर्यमणम्) श्रेष्ठमानकर्तारम् (यजामहे) पूजयामः (सुबन्धुम्) (पतिवेदनम्) पत्युः प्रज्ञापकं प्रापकं वा (उर्वारुकम् इव)उरु+आरु+कम्। कृवापाजिमि०। उ० १।१। ऋ गतौ-उण्। कर्कटीफलम् (इव) यथा (बन्धनात्)लतावृन्तात् (प्र) (इतः) अस्मात्। वियोगपाशात् (मुञ्चामि) मोचयामि (न) निषेधे (अमुतः) तस्मात्। प्रेमपाशात् ॥
१८ प्रेतोमुञ्चामि नामुतः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रेतोमु॑ञ्चामि॒ नामुतः॑ सुब॒द्धाम॒मुत॑स्करम्।
यथे॒यमि॑न्द्र मीढ्वः सुपु॒त्रासु॒भगास॑ति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्रेतोमु॑ञ्चामि॒ नामुतः॑ सुब॒द्धाम॒मुत॑स्करम्।
यथे॒यमि॑न्द्र मीढ्वः सुपु॒त्रासु॒भगास॑ति ॥
१८ प्रेतोमुञ्चामि नामुतः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I release [her] from here, not from yonder; I make her well-bound
yonder, that she, O gracious Indra, may be rich in sons, well-portioned.
Notes
Is RV. x. 85. 25, without variant ⌊save that our text does not give
muñcāmi the antithetical accent⌋. Prāt. ii. 65 teaches the combination
-tas karam. Ppp. begins pre ’to muñcata mā ’mutah. The mantrapāṭha
⌊MP. i. 4. 5⌋ of the Āpastamba Gṛhya-Sūtra (see Winternitz, Altind.
Hochzeitsrituell etc., p. 54) has a varying version, reading in a
muñcā́ti mā́ ⌊Oxford text ná⌋, and in b karat.
Griffith
Hence and not thence I send her free. I make her softly fettered there. That, bounteous Indra! she may live blest in her fortune and her sons.
पदपाठः
प्र। इ॒तः। मु॒ञ्चा॒मि॒। न। अ॒मुतः॑। सु॒ऽब॒ध्दाम्। अ॒मुतः॑। क॒र॒म्। यथा॑। इ॒यम्। इ॒न्द्र॒। मी॒ढ्वः॒। सु॒ऽपु॒त्राः। सु॒ऽभगा॑। अस॑ति। १.१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अनुष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इतः) इस [वियोगपाश]से [इस वधू को] (प्र मुञ्चामि) मैं [वर] अच्छे प्रकार छुड़ाताहूँ, (अमुतः) उस [प्रेमपाश] से (न) नहीं [छुड़ाता], (अमुतः) उस [प्रेमपाश] में [इस वधू] को (सुबद्धाम्) अच्छे बन्धनयुक्त (करम्) मैं करता हूँ। (यथा) जिस से (मीढ्वः) हेसुख की वर्षा करनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवाले परमात्मन् ! (इयम्) यह [वधू] (सुपुत्रा) सुन्दर पुत्रोंवाली और (सुभगा) बड़े ऐश्वर्यवाली (असति) होवे ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वधू-वर को चाहिये किआपस में बड़े प्रेम का बरताव करें, और परमात्मा की उपासना करके प्रयत्नपूर्वकघर में श्रेष्ठ सन्तान और ऐश्वर्य प्राप्त करके दोनों आनन्दित रहें ॥१८॥मन्त्र१८, १९ ऋग्वेद में कुछ भेद से हैं−१०।८५।२५, २४ और दोनों मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में उद्धृत हैं और विनियोग इस प्रकार है कि वर इनदोनों मन्त्रों को बोलकर वधू के बँधे हुए केशों को छोड़े ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १८−(प्र) प्रकर्षेण (इतः) अस्मात्। वियोगपाशात् (मुञ्चामि) मोचयामि (नः) निषेधे (अमुतः) तस्मात्।प्रेमपाशात् (सुबद्धाम्) सुष्ठु बन्धनयुक्ताम् (अमुतः) तस्मिन्। प्रेमपाशे (करम्) करोमि (यथा) येन प्रकारेण (इयम्) वधूः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन्परमात्मन् ! (मीढ्वः) मिह सेचने-क्वसु। हे सुखवर्षक (सुपुत्रा) शोभनपुत्रयुक्ता (सुभगा) सौभाग्यवती (असति) भवेत् ॥
१९ प्र त्वामुञ्चामि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र त्वा॑मुञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॒द्येन॒ त्वाब॑ध्नात्सवि॒ता सु॒शेवाः॑।
ऋ॒तस्य॒ योनौ॑सुकृ॒तस्य॑ लो॒के स्यो॒नं ते॑ अस्तु स॒हसं॑भलायै ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र त्वा॑मुञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॒द्येन॒ त्वाब॑ध्नात्सवि॒ता सु॒शेवाः॑।
ऋ॒तस्य॒ योनौ॑सुकृ॒तस्य॑ लो॒के स्यो॒नं ते॑ अस्तु स॒हसं॑भलायै ॥
१९ प्र त्वामुञ्चामि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I release thee from Varuṇa’s fetter, with which the very propitious
Savitar bound thee; in the lair (yóni) of righteousness, in the world
of the well-done, be it pleasant for thee accompanied by the wooer
(-sambhalá).
Notes
The first three pādas are the same with RV. x. 85. 24 a-c, the only
RV. variant being suśévaḥ at end of b; for d, RV. has áriṣṭāṁ
tvā sahá pátyā dadhāmi. TS. (i. 1. 10²; iii. 5. 6¹) has a nearly
corresponding verse: imáṁ ví ṣyāmi váruṇasya pā́śaṁ yám ábadhnīta savitā́
sukétaḥ: dhātúś ca yónāu sukṛtásya loké syonám me sahá pátyā karomi.
Our first half-verse is repeated below as 58 a, b; and the pratīka
quoted in Vāit. 4. 11 doubtless belongs to the latter, and not to this
verse as assigned by the editor. On the other hand, the pratīka quoted
in Kāuś. 75. 23, used in connection with loosing the scarf (veṣṭa)
tied about the bride, doubtless belongs here. The Āpastamba-text
(Winternitz, p. 63) gives two slightly differing versions of the verse
⌊MP. i. 5. 16⌋. Ppp. puts the verse next after our vs. 16; ⌊but further
it makes our 19 c, d change place with our 58 c, d, reading,
however, ‘stu sahapatnī vadhū for our astu sahásambhalāyai.
Griffith
Now from the noose of Varuna I free thee, where with the bless- ed Savitar hath bound thee. May bless be thine together with thy wooer in Order’s dwelling, in the world of virtue.
पदपाठः
प्र। त्वा॒। मु॒ञ्चा॒मि॒। वरु॑णस्य। पाशा॑त्। येन॑। त्वा॒। अब॑ध्नात्। स॒वि॒ता। सु॒ऽशेवाः॑। ऋ॒तस्य॑। योनौ॑। सु॒ऽकृ॒तस्य॑। लो॒के। स्यो॒नम्। ते॒। अ॒स्तु॒। स॒हऽसं॑भलायै। १.१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (त्वा)तुझे (वरुणस्य) रुकावट के (पाशात्) बन्धन से (प्र मुञ्चामि) मैं [वर] अच्छेप्रकार छुड़ाता हूँ, (येन) जिसके साथ (त्वा) तुझे (सुशेवाः) अत्यन्त सेवायोग्य (सविता) जन्मदाता पिता ने (अबध्नात्) बाँधा है। (ऋतस्य) सत्य नियम के (योनौ) घरमें और (सुकृतस्य) सुकृत [पुण्य कर्म] के (लोके) समाज में (सहसम्भलायै) सहेलियोंसहित वर्तमान (ते) तेरे लिये (स्योनम्) आनन्द (अस्तु) होवे ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस कन्या को पिता नेयोग्य पति मिलने तक रोका था, उस को पिता के घर से प्रसन्नता के साथ लेकर वरबड़े प्रेम से रक्खे और घर के सब धर्मात्मा विद्वान् स्त्री-पुरुष श्रेष्ठव्यवहार करके उसे सुख देते रहें ॥१९॥मन्त्र १८ की टिप्पणी देखो ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १९−(प्र)प्रकर्षेण (त्वा) वधूम् (मुञ्चामि) मोचयामि (वरुणस्य) वृञ् संवरणे-उनन्। आवरणस्यविघ्नस्य (पाशात्) बन्धात् (येन) (त्वा) (अबध्नात्) बन्धे कृतवान् (सविता)जन्मदाता पिता (सुशेवाः) अ० २।२।२। सु+शेवृ सेवने-असुन्। सुष्ठु सेवनीयः (ऋतस्य)सत्यनियमस्य (योनौ) गृहे (सुकृतस्य) पुण्यकर्मणः (लोके) समाजे (स्योनम्) सुखम् (ते) तुभ्यम् (अस्तु) (सहसम्भलायै) सह+सम्+भल परिभाषणहिंसादानेषु-अच्, टाप्।सम्भलाभिः सम्भाषिकाभिः सखिभिः सह वर्तमानायै ॥
२० भगस्त्वेतोनयतु हस्तगृह्याश्विना
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
भग॑स्त्वे॒तोन॑यतु हस्त॒गृह्या॒श्विना॑ त्वा॒ प्र व॑हतां॒ रथे॑न।
गृ॒हान्ग॑च्छ गृ॒हप॑त्नी॒यथासो॑ व॒शिनी॒ त्वं वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
भग॑स्त्वे॒तोन॑यतु हस्त॒गृह्या॒श्विना॑ त्वा॒ प्र व॑हतां॒ रथे॑न।
गृ॒हान्ग॑च्छ गृ॒हप॑त्नी॒यथासो॑ व॒शिनी॒ त्वं वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥
२० भगस्त्वेतोनयतु हस्तगृह्याश्विना ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let Bhaga lead thee hence, grasping thy hand; let the Aśvins carry
thee forth by a chariot; go to the houses, that thou mayest be
housewife; thou, having control, shalt speak unto the council.
Notes
RV. (x. 85. 26) begins with pūṣā́ instead of bhágas. In Kāuś. (76.
10) the verse accompanies the leading of the bride out of her house.
Griffith
Let Bhaga take thy hand and hence conduct thee: let the two Asvins on their car transport thee. Go to the house to be the household’s mistress, and speak as lady to thy gathered people.
पदपाठः
भगः॑। त्वा॒। इ॒तः। न॒य॒तु॒। ह॒स्त॒ऽगृह्य॑। अ॒श्विना॑। त्वा॒। प्र। व॒ह॒ता॒म्। रथे॑न। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒। गृ॒हऽप॑त्नी। यथा॑। असः॑। व॒शिनी॑। त्वम्। वि॒दथ॑म्। आ। व॒दा॒सि॒। १.२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (भगः)ऐश्वर्यवान् वर (त्वा) तुझे (इतः) यहाँ से (हस्तगृह्य) हाथ पकड़ कर (नयतु) लेचले, (अश्विना) विद्या को प्राप्त दोनों [स्त्री-पुरुष समूह] (त्वा) तुझे (रथेन)रथ द्वारा (प्र वहताम्) अच्छे प्रकार ले चलें। (गृहान्) घरों में (गच्छ) पहुँच, (यथा) जिससे (गृहपत्नी) गृहपत्नी [घर की स्वामिनी] (असः) तू होवे और (वशिनी) वशमें करनेवाली (त्वम्) तू (विदथम्) सभागृह में (आ वदासि) बातचीत करे ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रतापी वर गुणवती वधूको आदर से ले चले, विद्वान् स्त्री-पुरुष उसे रथ पर चढ़ावें। सभ्या वधू पतिगृहमें पहुँच कर अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों के कारण प्रिय वचन और बरताव से सबकोप्रसन्न करे ॥२०॥मन्त्र २०, २१ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।८५।२६, २७ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २०−(भगः)ऐश्वर्यवान् वरः (त्वा) वधूम् (इतः) अस्मात् स्थानात्। पितृगृहात् (नयतु) (हस्तगृह्य) अ० ५।१४।४। हस्तेन गृहीत्वा (अश्विना) प्राप्तविद्यौ स्त्री-पुरुषसमूहौ (त्वा) (प्र) प्रकर्षेण (वहताम्) नयताम् (रथेन) (गृहान्) पतिगृहान् (गच्छ)प्राप्नुहि (गृहपत्नी) गृहस्वामिनी (यथा) येन प्रकारेण (असः) भवेः (वशिनी) गृहगतानां वशं प्रापयित्री (त्वम्) (विदथम्) सभागृहम् (आ) आभिमुख्येन (वदासि)ब्रूयाः ॥
२१ इह प्रियम्प्रजायै
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒ह प्रि॒यंप्र॒जायै॑ ते॒ समृ॑ध्यताम॒स्मिन्गृ॒हे गार्ह॑पत्याय जागृहि।
ए॒ना पत्या॑त॒न्वं१॒॑ सं स्पृ॑श॒स्वाथ॒ जिर्वि॑र्वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒ह प्रि॒यंप्र॒जायै॑ ते॒ समृ॑ध्यताम॒स्मिन्गृ॒हे गार्ह॑पत्याय जागृहि।
ए॒ना पत्या॑त॒न्वं१॒॑ सं स्पृ॑श॒स्वाथ॒ जिर्वि॑र्वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥
२१ इह प्रियम्प्रजायै ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let what is dear succeed (sam-ṛdh) here for thy progeny; watch
thou over this house in order to housewife-ship; mingle thy self
(tanū́) with this husband; then shalt thou in advanced age speak to the
council.
Notes
RV. (x. 85. 27) reads in a prajáyā (as does also Ppp.), and in
c-d sṛjasvā́ ’dhā jívrī viddátham ā́ vadāthaḥ. Our d is the same
with viii. 1. 6 d above, and our mss. here also read jírvis
(except Bs.I., jívis), which ought to have been adopted in our text.
The Āpastamba text (Winternitz, p. 74 ⌊MP. i. 9. 4⌋) has jīvrī. The
verse, with several others, is quoted in Kāuś. 77. 20 in connection with
the bride^s entering her new abode. The verse lacks two syllables of
being a full jagatī. ⌊Vs. discussed by Bloomfield, JAOS. xix.² 14; cf.
Baunack, KZ. xxxv. 495, 499.⌋
Griffith
Happy be thou and prosper with thy children here: be vigilant to rule the household in this home. Closely unite thy body with this man thy lord. So shalt thou, full of years, address thy company.
पदपाठः
इ॒ह। प्रि॒यम्। प्र॒ऽजायै॑। ते॒। सम्। ऋ॒ध्य॒ता॒म्। अ॒स्मिन्। गृ॒हे। गार्ह॑ऽपत्याय। जा॒गृ॒हि॒। ए॒ना। पत्या॑। त॒न्व᳡म्। सम्। स्पृ॒श॒स्व॒। अथ॑। जिर्विः॑। वि॒दथ॑म्। आ। व॒दा॒सि॒। १.२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जगती
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (इह) इस [पतिकुल] में (ते) तेरा (प्रियम्) हित (प्रजायै) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि] केलिये (सम्) अच्छे प्रकार (ऋध्यताम्) बढ़े, (अस्मिन् गृहे) इस घर में (गार्हपत्याय) गृहपत्नी के कार्य के लिये (जागृहि) तू जागती रह [सावधान रह]। (एना पत्या) इस पति के साथ (तन्वम्) श्रद्धा को (सं स्पृशस्व) संयुक्त कर, (अथ)और (जिर्विः) स्तुतियोग्य तू (विदथम्) सभागृह में (आ वदासि) बातचीत कर ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वधू को योग्य है किपतिकुल में पहुँचकर प्रसन्नचित्त होकर सन्तान, सेवक आदि का यथावत् पालन करके घरके कामों में सावधान रहे, और पति से भक्ति करके संसार में कीर्ति बढ़ावे ॥२१॥यहमन्त्र कुछ भेद से महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में उद्धृतहै−घर पहुँचकर वधूको रथ से उतारना आदि कर्म करके वर इस मन्त्र को बोलकर वधू कोसभामण्डल में ले जावे ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २१−(इह) अत्र पतिकुले (प्रियम्) हितम् (प्रजायै)सन्तानसेवकादिपालनाय (ते) तव (सम्) सम्यक् (ऋध्यताम्) वर्धताम् (अस्मिन्) (गृहे) (गार्हपत्याय) गृहपत्नीकर्तव्यसिद्धये (जागृहि) बुध्यस्व। सावधाना भव (एना) अनेन (पत्या) स्वामिना सह (तन्वम्) तन उपकारे श्रद्धायां च-ऊ। श्रद्धां भक्तिम् (संस्पृशस्व) संयोजय (अथ) अनन्तरम् (जिर्विः) अ० ८।१।६। जॄ स्तुतौ-क्विन् ह्रस्वः, जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। जीर्विः। स्तुत्या। अन्यद् गतम्-म०२०॥
२२ इहैव स्तम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒हैव स्तं॒ मावि यौ॑ष्टं॒ विश्व॒मायु॒र्व्य᳡श्नुतम्।
क्रीड॑न्तौपु॒त्रैर्नप्तृ॑भि॒र्मोद॑मानौ स्वस्त॒कौ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒हैव स्तं॒ मावि यौ॑ष्टं॒ विश्व॒मायु॒र्व्य᳡श्नुतम्।
क्रीड॑न्तौपु॒त्रैर्नप्तृ॑भि॒र्मोद॑मानौ स्वस्त॒कौ ॥
२२ इहैव स्तम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Be ye (two) just here; be not separated; attain your whole lifetime,
sporting with sons [and] grandsons, rejoicing, well-homed.
Notes
RV. (x. 85. 42) reads své gṛhé instead of svastakāú, and Ppp. has
the same. Ppp. also has dīrgham for viśvam in b. ⌊Cf. MP. 1. 8.
8 and note.⌋
Griffith
Be not divided; dwell ye here; reach the full time of human life. With sons and grandsons sport and play, rejoicing in your happy home.
पदपाठः
इ॒ह। ए॒व। स्त॒म्। मा। वि। यौ॒ष्ट॒म्। विश्व॑म्। आयुः॑। वि। अ॒श्नु॒त॒म्। क्रीड॑न्तौ। पु॒त्रैः। नप्तृ॑ऽभिः। मोद॑मानौ। सु॒ऽअ॒स्त॒कौ। १.२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आत्मा
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू-वर !] (इव एव)यहाँ [गृहाश्रम के नियम में] ही (स्तम्) तुम दोनों रहो, (मा वि यौष्टम्) कभी अलगमत होओ, और (पुत्रैः) पुत्रों के साथ तथा (नप्तृभिः) नातियों के साथ (क्रीडन्तौ)क्रीड़ा करते हुए, (मोदमानौ) हर्ष मनाते हुए और (स्वस्तकौ) उत्तम घरवाले तुम दोनों (विश्वम् आयुः) सम्पूर्ण आयु को (वि अश्नुतम्) प्राप्त होओ ॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुष दोनोंदृढ़ प्रतिज्ञा करके प्रसन्नतापूर्वक पुत्र-पौत्र आदि के साथ धर्म से रहकरपूर्ण आयु भोगकर यशस्वी होवें ॥२२॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।४२, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण यथाऋग्वेदादिभाष्यभूमिका विवाहविषय पृष्ठ २०८ में व्याख्यात है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २२−(इह) अस्मिन्गृहाश्रमनियमे (एव) अवश्यम् (स्तम्) भवतम् (मा वि यौष्टम्) वियुक्तौ मा भवेताम् (विश्वम्) सम्पूर्णम् (आयुः) जीवनम् (वि) विविधम् (अश्नुतम्) प्राप्नुतम् (क्रीडन्तौ) धर्मेण खेलन्तौ (पुत्रैः) (नप्तृभिः) पौत्रैः (मोदमानौ) आनन्दंकुर्वन्तौ (स्वस्तकौ) शोभनगृहयुक्तौ ॥
२३ पूर्वापरञ्चरतो माययैतौ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पू॑र्वाप॒रंच॑रतो मा॒ययैतौ शिशू॒ क्रीड॑न्तौ॒ परि॑ यातोऽर्ण॒वम्।
विश्वा॒न्यो भुव॑नावि॒चष्ट॑ ऋ॒तूँर॒न्यो वि॒दध॑ज्जायसे॒ नवः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पू॑र्वाप॒रंच॑रतो मा॒ययैतौ शिशू॒ क्रीड॑न्तौ॒ परि॑ यातोऽर्ण॒वम्।
विश्वा॒न्यो भुव॑नावि॒चष्ट॑ ऋ॒तूँर॒न्यो वि॒दध॑ज्जायसे॒ नवः॑ ॥
२३ पूर्वापरञ्चरतो माययैतौ ...{Loading}...
Whitney
Translation
- These two move on one after the other by magic; two sporting young
ones go about the ocean; the one looks abroad upon all beings; thou, the
other, disposing the seasons art born new.
Notes
Griffith
Moving by magic power from east to westward, these children twain go sporting round the ocean. The one beholds all creatures: thou, the other, art born anew, duly arranging seasons.
पदपाठः
पू॒र्व॒ऽअ॒प॒रम्। च॒र॒तः॒। मा॒यया॑। ए॒तौ। शिशू॒ इति॑। क्रीड॑न्तौ। परि॑। या॒तः॒। अ॒र्ण॒वम्। विश्वा॑। अ॒न्यः। भुव॑ना। वि॒ऽचष्टे॑। ऋ॒तून्। अ॒न्यः। वि॒ऽदध॑त्। जा॒य॒से॒। नवः॑। १.२३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहती गर्भा त्रिष्टुप्
- सोमार्क
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (एतौ) यह दोनों [सूर्य, चन्द्रमा] (पूर्वापरम्) आगे-पीछे (मायया) बुद्धि से [ईश्वरनियम से] (चरतः) विचरते हैं, (क्रीडन्तौ) खेलते हुए (शिशू) दो बालक [जैसे] (अर्णवम्)अन्तरिक्ष में (परि) सब ओर (यातः) चलते हैं। (अन्यः) एक [सूर्य] (विश्वा) सब (भुवना) भुवनों को (विचष्टे) देखता है, (अन्यः) दूसरा तू [चन्द्रमा] (ऋतून्)ऋतुओं को [अपनी गति से] (विदधत्) बनाता हुआ [शुक्ल पक्ष में] (नवः) नवीन (जायसे)प्रकट होता है ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सूर्य और चन्द्रमाआकाश में घूमते हैं। चन्द्र आदि लोकों को सूर्य प्रकाश पहुँचाता है। चन्द्रमाशुक्लपक्ष में एक-एक कला बढ़ता और वसन्त आदि ऋतुओं को बनाता है। हे स्त्री-पुरुषो ! जैसे यह सूर्य-चन्द्रमा ईश्वरनियम पर चलकर संसार का उपकार करते हैं, वैसे ही तुम दोनों उपकार करो ॥२३॥मन्त्र २३, २४ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।८५।१८, १९ और ऊपर आ चुके हैं-अ० ७।८१।१, २, तथा मन्त्र २३ के तीन पद फिर आयेहैं-अ० १३।२।११ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २३−अयं मन्त्रोव्याख्यातः-अ० ७।८१।१ ॥
२४ नवोनवो भवसिजायमानोऽह्नाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
नवो॑नवो भवसि॒जाय॑मा॒नोऽह्नां॑ के॒तुरु॒षसा॑मे॒ष्यग्र॑म्।
भा॒गं दे॒वेभ्यो॒ विद॑धास्या॒यन्प्र च॑न्द्रमस्तिरसे दी॒र्घमायुः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नवो॑नवो भवसि॒जाय॑मा॒नोऽह्नां॑ के॒तुरु॒षसा॑मे॒ष्यग्र॑म्।
भा॒गं दे॒वेभ्यो॒ विद॑धास्या॒यन्प्र च॑न्द्रमस्तिरसे दी॒र्घमायुः॑ ॥
२४ नवोनवो भवसिजायमानोऽह्नाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Ever new art thou, being born; sign of the days, thou goest to the
apex of the dawns; thou disposest to the gods their share as thou
comest; thou extendest, O moon, a long life-time.
Notes
These two verses are repeated here from vii. 81. 1, 2; ⌊see the notes to
those verses: also the Anukr. extracts at p. 739, ¶4. which refer vs. 23
to sun and moon and vs. 24 to the moon⌋. Most of verse 23 we had also as
xiii. 2. 11. In order to make sure that the two right ones are
reproduced, all our mss. read here pūrvāparáṁ návonavaḥ (instead of,
as usual, pūrvāparám íti dvé). They are RV. x. 85. 18, 19, and are
found also in other texts, as to which and the various readings see the
notes to vii. 81. 1, 2. Ppp. has in 23 d (with RV.) jāyate punaḥ,
and in 24 (also with RV.) bhavati, eti, and dadhāti (but
apparently tirase). In Kāuś. 75. 6, vs. 23 (according to the comm.,
both 23 and 24) is used with vs. 1; in 79. 28, vs. 64 is allowed instead
of vs. 24, in case the latter is not known.
Griffith
Thou, born afresh, art new and new for ever; ensign of days, before the Dawns thou goest. Coming, thou orderest for Gods their portion. Thou lengthenest, Moon, the days of our existence.
पदपाठः
नव॑ऽनवः। भ॒व॒सि॒। जाय॑मानः। अह्ना॑म्। के॒तुः। । उ॒षसा॑म्। ए॒षि॒। अग्र॑म्। भा॒गम्। दे॒वेभ्यः॑। वि। द॒धा॒सि॒। आ॒ऽयन्। प्र। च॒न्द्र॒मः॒। ति॒र॒से॒। दी॒र्घम्। आयुः॑। १.२४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- चन्द्रमा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (चन्द्रमः) हेचन्द्रमा ! तू [शुक्ल पक्ष में] (नवोनवः) नया-नया (जायमानः) प्रकट होता हुआ (भवसि) रहता है, और (अह्नाम्) दिनों का (केतुः) जतानेवाला तू (उषसाम्) उषाओं [प्रभात वेलाओं] के (अग्रम्) आगे (एषि) चलता है और (आयन्) आता हुआ तू (देवेभ्यः)उत्तम पदार्थों को (भागम्) सेवनीय उत्तम गुण (वि दधासि) विविध प्रकार देता है और (दीर्घम्) लम्बे (आयुः) जीवनकाल को (प्र) अच्छे प्रकार (तिरसे) पार लगाता है॥२४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - चन्द्रमा शुक्लपक्षमें एक-एक कला बढ़कर नया-नया होता है, और दिनों अर्थात् प्रतिपदा आदि चान्द्रतिथियों को बनाता, और पृथिवी के पदार्थों में पुष्टि देकर प्राणियों का जीवनबढ़ाता है, इसी प्रकार स्त्री-पुरुष संसार में उपकार करके अपना जीवन सुफल करें॥२४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २४-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ७।८१।२ ॥
२५ परा देहिशामुल्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
परा॑ देहिशामु॒ल्यं᳡ ब्र॒ह्मभ्यो॒ वि भ॑जा॒ वसु॑।
कृ॒त्यैषा॑ प॒द्वती॑ भू॒त्वा जा॒यावि॑शते॒ पति॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
परा॑ देहिशामु॒ल्यं᳡ ब्र॒ह्मभ्यो॒ वि भ॑जा॒ वसु॑।
कृ॒त्यैषा॑ प॒द्वती॑ भू॒त्वा जा॒यावि॑शते॒ पति॑म् ॥
२५ परा देहिशामुल्यम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Give thou away the śāmulyà; share out goods to the priests
(brahmán); it, becoming a walking (padvánt) witchcraft, enters the
husband [as] a wife.
Notes
RV. (x. 85. 29) differs only by reading bhūtvī́ in c; our
pada-text has bhūtvā́: ā́: j-. According to Kāuś. 79. 20, the verse
accompanies the giving away of the bride’s undergarment, which is
regarded as extremely ill-omened if not so disposed of and expiated by
gifts to the Brahmans. ⌊Cf. the Anukr. extracts, p. 759, end.⌋ śāmulyà
is defined in the Pet. Lexx. as “a woolen shirt,” as identical with
śāmūla, which is so defined by the comm. to LśS. ix. 4. 7. The
Āpastamba text (Winternitz, p. 100 ⌊MP. i. 17. 7⌋) reads instead
śābalyà.
Griffith
Give thou the wollen robe away: deal treasure to the Brahman- priests. This Witchery hath got her feet: the wife attendeth on her lord.
पदपाठः
परा॑। दे॒हि॒। शा॒मु॒ल्य᳡म्। ब्र॒ह्मऽभ्यः॑। वि। भ॒ज॒। वसु॑। कृ॒त्या। ए॒षा। प॒त्ऽवती॑। भू॒त्वा। आ। जा॒या। वि॒श॒ते॒। पति॑म्। १.२५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- विवाह मन्त्र आशीष, वधुवास संस्पर्शमोचन
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वर !] (शामुल्यम्) [हृदय की] मलीनता (परा देहि) दूर कर दे, (ब्रह्मभ्यः) विद्वानों को (वसु) सुन्दरवस्तु (विभज) बाँट। (एषा) यह (कृत्या) कर्तव्यकुशल (जाया) पत्नी (पद्वती)ऐश्वर्यवती (भूत्वा) होकर (पतिम्) पति में (आ विशते) आकर प्रवेश करती है ॥२५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - गृहपति शुद्ध अन्तःकरणसे विदुषी स्त्रियों और विद्वानों का यथावत् आदर सत्कार करे, जिन के शिक्षा आदिप्रयत्न से स्त्रीरत्न उसको मिली है ॥२५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।२९ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २५−(परा देहि) दूरं कुरु (शामुल्यम्) सानसिवर्णसिपर्णसितण्डुला०। उ०४।१०७। शमु उपशमे-उलच्, शमुलं शमलम्, अशुद्धम्, तस्य भावः−ष्यञ्।चित्तमालिन्यम् (ब्रह्मभ्यः) वेदज्ञेभ्यः (वि भज) सांहितिको दीर्घः। प्रयच्छ (वसु) श्रेष्ठं वस्तु (कृत्या) विभाषा कृवृषोः। पा० ३।१।१२०। करोतेः-क्यप्।मत्वर्थे अर्शआद्यच्। टाप्। कृत्यायां क्रियायां कुशला (एषा) (पद्वती) पतऐश्वर्ये-क्विप्, मतुप्। ऐश्वर्यवती (भूत्वा) (जाया) पत्नी (आ विशेत्) प्रविशेत् (पतिम्) पतिहृदयम् ॥
२६ नीललोहितम्भवति कृत्यासक्तिर्व्यज्यते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
नी॑ललोहि॒तंभ॑वति कृ॒त्यास॒क्तिर्व्य᳡ज्यते।
एध॑न्ते अस्या ज्ञा॒तयः॒ पति॑र्ब॒न्धेषु॑बध्यते ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नी॑ललोहि॒तंभ॑वति कृ॒त्यास॒क्तिर्व्य᳡ज्यते।
एध॑न्ते अस्या ज्ञा॒तयः॒ पति॑र्ब॒न्धेषु॑बध्यते ॥
२६ नीललोहितम्भवति कृत्यासक्तिर्व्यज्यते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- It becomes blue-red; [as] witchcraft, infection, it is driven away
(?); her relations (jñātí) thrive; her husband is bound in bonds.
Notes
Is RV. X. 85. 28, without variant. Vy àjyate is translated as coming
from root aj instead of añj, ‘is smeared.’ Pāda a perhaps refers
to the bloody discoloration of the garment; d to its ill effects if
not duly expiated. The Āp.-text (Wint., p. 67 ⌊MP. i. 6. 8⌋) has for a
nīlalohité bhavataḥ, as if the garments were two. RV. and AV.
pada-texts have āsaktīḥ undivided.
Griffith
It turneth dusky-red: the witch who clingeth close is driven off. Well thrive the kinsmen of this bride: the husband is bound fast in bonds.
पदपाठः
नी॒ल॒ऽलो॒हि॒तम्। भ॒व॒ति॒। कृ॒त्या। आ॒स॒क्तिः। वि। अ॒ज्य॒ते॒। एध॑न्ते। अ॒स्याः॒। ज्ञा॒तयः॑। पतिः॑। ब॒न्धेषु॑। ब॒ध्य॒ते॒। १.२६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नीललोहितम्) निधियोंका प्रकाश (भवति) होता है, [जब कि] (कृत्या=कृत्यायाः) कर्तव्यकुशल [पत्नी] की (आसक्तिः) प्रीति (वि अज्यते) प्रसिद्ध होती है। (अस्याः) इस [वधू] के (ज्ञातयः)कुटुम्बी लोग (एधन्ते) बढ़ते हैं, और (पतिः) पति (बन्धेषु) [वधू के साथ प्रेम के]बन्धनों में (बध्यते) बँध जाता है ॥२६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस कुल में कर्मकुशलबुद्धिमती स्त्री धन का लाभ व्यय आदि विचारकर कर्तव्य करती है, वहाँ धन सम्पत्तिबढ़ती है। उसकी समृद्धि से माता-पिता आदि और सब कुटुम्बी वृद्धि करते हैं और पतिउससे हार्दिक प्रीति करता है ॥२६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।२८ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २६−(नीललोहितम्)नि+इल गतौ-क+रुहेश्च लो वा। उ० ३।९४। रु प्रादुर्भावे-इतन्, रस्य लः। नीलानांनिधीनां प्रादुर्भावः (भवति) (कृत्या) म० २५। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९।षष्ठीस्थाने प्रथमा। कृत्यायाः कर्तव्यकुशलायाः पत्न्याः (आसक्तिः) प्रीतिः (व्यज्यते) अञ्जू व्यक्तीकरणे। व्यक्तीक्रियते। प्रसिद्धिं गच्छति (एधन्ते)वर्धन्ते (अस्याः) वध्वाः (ज्ञातयः) सगोत्राः (पतिः) (बन्धेषु) प्रेमपाशेषु (बध्यते) बद्धो भवति ॥
२७ अश्लीलातनूर्भवति रुशती
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑श्ली॒लात॒नूर्भ॑वति॒ रुश॑ती पा॒पया॑मु॒या।
पति॒र्यद्व॒ध्वो॒३॒॑ वास॑सः॒स्वमङ्ग॑मभ्यूर्णु॒ते ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑श्ली॒लात॒नूर्भ॑वति॒ रुश॑ती पा॒पया॑मु॒या।
पति॒र्यद्व॒ध्वो॒३॒॑ वास॑सः॒स्वमङ्ग॑मभ्यूर्णु॒ते ॥
२७ अश्लीलातनूर्भवति रुशती ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Unlovely becomes [his] body, glistening in that evil way, when the
husband wraps his own member with the bride’s garment.
Notes
RV. (x. 85. 30) reads at the beginning aśrīrā́, and at the end
-dhítsate; Ppp. also has aśrīrā; ⌊and tanus for tanū́s⌋. Most of
our mss. (all save P.M.W.) give vā́sasas in c, and this is
accordingly more probably to be regarded as the AV. reading. ⌊So SPP.
with all his authorities.⌋ ⌊The Berlin ed. has vā́sasā, to accord with
the RV.⌋ An̄ga might mean ‘body’ (so the translators). ⌊For vss. 27,
28, 29, cf. respectively MP. i. 17. 8, 10, 9, and see Wint., p. 100.⌋
Griffith
Unlovely is his body when it glistens with that wicked fiend, What time the husband wraps about his limbs the garment of his wife.
पदपाठः
अ॒श्ली॒ला। त॒नूः। भ॒व॒ति॒। रुश॑ती। पा॒पया॑। अ॒मु॒या। पतिः॑। यत्। व॒ध्वः᳡। वास॑सः। स्वम्। अङ्ग॑म्। अ॒भि॒ऽऊ॒र्णु॒ते। १.२७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- वधूवास संस्पर्श मोचन
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रुशती) चमकता हुआ (तनूः) रूप (अमुया) उस (पापया) पाप क्रिया से (अश्लीला) अश्लील [हतश्री] (भवति)हो जाता है, (यत्) जब कि (पतिः) पति (वध्वः) वधू के (वाससः) वस्त्र से (स्वम्अङ्गम्) अपने अङ्ग को (अभ्यूर्णुते) ढक लेता है ॥२७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब पति पुरुषार्थछोड़कर कुकामी होकर बुरी स्त्रियों के समान कुचेष्टा करता है, तब उसदुर्बलेन्द्रिय का रूप बिगड़ जाता है और वह लज्जा को प्राप्त होता है ॥२७॥यहमन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३० ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २७−(अश्लीला) श्रीरहिता। कुरूपा (तनूः) रूपम् (भवति) (रुशती) रोचमाना (पापया) पापबुद्धया (अमुया) प्रसिद्धया (पतिः) (यत्) यदा (वध्वः) पत्न्याः (वाससः) वस्त्रात् (स्वम्) स्वकीयम् (अङ्गम्)(अभ्यूर्णुते) आच्छादयति ॥
२८ आशसनंविशसनमथो अधिविकर्तनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ॒शस॑नंवि॒शस॑न॒मथो॑ अधिवि॒कर्त॑नम्।
सू॒र्यायाः॑ पश्य रू॒पाणि॒ तानि॑ ब्र॒ह्मोतशु॑म्भति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ॒शस॑नंवि॒शस॑न॒मथो॑ अधिवि॒कर्त॑नम्।
सू॒र्यायाः॑ पश्य रू॒पाणि॒ तानि॑ ब्र॒ह्मोतशु॑म्भति ॥
२८ आशसनंविशसनमथो अधिविकर्तनम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Carving on, carving open, also cutting over apart; see the forms of
Sūryā; them also the priest (brahmán) cleans (śumbh).
Notes
RV. (x. 85. 35) reads at the end tú śundhati ⌊cf. BR. vii. 261, top⌋.
Weber ⌊p. 190⌋ sees in the verse a comparison of the blood on the
bride’s garment with that from the sacrificial victim when dismembered,
the priest having power to cleanse both stains away.
Griffith
The butchering, the cutting-up, the severing of limb and joint– Behold the forms which Surya wears: yet these the Brahman purifies,
पदपाठः
आ॒ऽशस॑नम्। वि॒ऽशस॑नम्। अथो॒ इति॑। अ॒धि॒ऽवि॒कर्त॑नम्। सू॒र्यायाः॑। प॒श्य॒। रू॒पाणि॑। तानि॑। ब्र॒ह्मा। उ॒त। शु॒म्भ॒ति॒। १.२८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्यायाः) प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या की (आशसनम्) आशंसा [अप्राप्तके पाने की इच्छा], (विशसनम्) विशंसा [प्राप्त का शुभ कर्मों में व्यय] (अथो) औरभी (अधिविकर्तनम्) अधिकारपूर्वक विघ्नों का छेदन, (रूपाणि) इन रूपों [सुन्दरलक्षणों] को (पश्य) तू देख, (तानि) उन [सुन्दर लक्षणों] को (ब्रह्मा) ब्रह्मा [वेदवेत्ता पति] (उत) ही (शुम्भति) शोभायमान करता है ॥२८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब वधू-वर परस्पर शुभगुणों और मर्यादाओं का मान करते हैं, तब उत्तम प्रबन्ध से उस गृहाश्रम की शोभाबढ़ती है ॥२८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३५ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २८−(आशसनम्) आङःशसि इच्छायाम्-ल्युट्, नकारलोपः। आशंसा। अप्राप्तस्य प्राप्तीच्छा (विशसनम्)वि+शसि इच्छायाम्-ल्युट्, नलोपः। प्राप्तस्य शुभकर्मसु व्ययः (अथो) अपि च (अधिविकर्तनम्) कृती छेदने वेष्टने च-ल्युट्। अधिकृत्य विघ्नानां छेदनम् (सूर्यायाः) प्रेरिकायाः कन्यायाः (पश्य) अवलोकय (रूपाणि) लक्षणानि (तानि)लक्षणानि (ब्रह्मा) वेदवेत्ता पतिः (उत) एव (शुम्भति) दीपयति। शोभयति ॥
२९ तृष्टमेतत्कटुकमपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे सूर्याम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तृ॒ष्टमे॒तत्कटु॑कमपा॒ष्ठव॑द्वि॒षव॒न्नैतदत्त॑वे।
सू॒र्यां यो ब्र॒ह्मा वेद॒ सइद्वाधू॑यमर्हति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तृ॒ष्टमे॒तत्कटु॑कमपा॒ष्ठव॑द्वि॒षव॒न्नैतदत्त॑वे।
सू॒र्यां यो ब्र॒ह्मा वेद॒ सइद्वाधू॑यमर्हति ॥
२९ तृष्टमेतत्कटुकमपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे सूर्याम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Harsh is that, sharp, barbed, poisoned; that is not to be eaten;
what priest (brahmán) knows Sūryā, he indeed deserves the bride’s
[garment].
Notes
RV. (x. 85. 34) inserts another etát after káṭukam, and reads
vidyā́t for véda in c. The omission of káṭukam (with, in RV.,
etát) would rectify the meter of a; as it stands, it is an
extremely poor “bṛhatī” pāda. Áttave ’to be eaten’ is very strange
here. Sūryā in c is generally understood to mean ’the Sūryā-hymn.’
The following four verses are found in no other text.
Griffith
Pungent is this, bitter is this, filled as it were with arrow barbs, empoisoned and not fit for use. The Brahman who knows Surya well deserves the garment of the bride.
पदपाठः
तृ॒ष्टम्। ए॒तत्। कटु॑कम्। अ॒पा॒ष्ठऽव॑त्। वि॒षऽव॑त्। न। ए॒तत्। अत्त॑वे। सू॒र्याम्। यः। ब्र॒ह्मा। वेद॑। सः। इत्। वाधू॑ऽयम्। अ॒र्ह॒ति॒। १.२९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पुरस्ताद् बृहती
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (एतत्) यह [पूर्वोक्तशुभ लक्षण वधू-वर के विरोध में] (तृष्टम्) दाहजनक, (कटुकम्) कडुवा [अप्रिय], (अपाष्ठवत्) अपस्थान [अपमान] युक्त और (विषवत्) विषसमान [होता है], (एतत्) यह [विरुद्धपन] (अत्तवे) प्रबन्ध करने के लिये (न) नहीं [होता]। (यः) जो (ब्रह्मा)ब्रह्मा [वेदवेत्ता पति] (सूर्याम्) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समानतेजवाली] कन्या को (वेद) जानता है, (सः इत्) वही (वाधूयम्) विवाह कर्म के (अर्हति) योग्य होता है ॥२९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जहाँ पर वधू-वर परस्परविरोधी निर्गुणी होते हैं, वहाँ गृहाश्रम में विपत्ति रहती है, और जब दोनोंपूर्ण विद्वान् और युवा होकर परस्पर गुण जानकर विवाह करते हैं, तब वे गृहाश्रममें आनन्द भोगते हैं ॥२९॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २९−(तृष्टम्) दाहजनकम् (एतत्) पूर्वोक्तम् (कटुकम्) अप्रियम् (अपाष्ठवत्)अपस्थानेनापमानेन युक्तम् (विषवत्) विषसमानम् (न) निषेधे (एतत्) विरुद्धं कर्म (अत्तवे) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। अत बन्धने-तवेन्। प्रबन्धं कर्तुम् (सूर्याम्) (यः) (ब्रह्मा) वेदज्ञः पतिः (वेद) जानाति (सः) (इत्) एव (वाधूयम्)वैवाहिकं विधानम् (अर्हति) कर्तुं योग्यो भवति। पूजयति ॥
३० स इत्तत्स्योनंहरति
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स इत्तत्स्यो॒नंह॑रति ब्र॒ह्मा वासः॑ सुम॒ङ्गल॑म्।
प्राय॑श्चित्तिं॒ यो अ॒ध्येति॒ येन॑ जा॒या नरिष्य॑ति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स इत्तत्स्यो॒नंह॑रति ब्र॒ह्मा वासः॑ सुम॒ङ्गल॑म्।
प्राय॑श्चित्तिं॒ यो अ॒ध्येति॒ येन॑ जा॒या नरिष्य॑ति ॥
३० स इत्तत्स्योनंहरति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- That priest verily takes this garment, pleasant, well-omened, who
goes over the expiation, by whom the wife takes no harm.
Notes
The pada-text reads prā́yaścittim, undivided; if we had -ttam,
yéna would apply to it, instead of to brahmā́. Ppp. reads, for a,
b: sa vāi taṁ syono harati brahma vāsas suman̄galan.
Griffith
The Brahman takes away the robe as a fair thing that brings good luck. He knows the expiating rite whereby the wife is kept unharmed.
पदपाठः
सः। इत्। तत्। स्यो॒नम्। ह॒र॒ति॒। ब्र॒ह्मा। वासः॑। सु॒ऽम॒ङ्गल॑म्। प्राय॑श्चित्तिम्। यः। अ॒धि॒ऽएति॑। येन॑। जा॒या। न। रिष्य॑ति। १.३०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सः) इत्) वही (ब्रह्मा) ब्रह्मा [वेदवेत्ता पति] (तत्) तब (स्योनम्) सुखदायक और (सुमङ्गलम्)बड़े मङ्गलमय (वासः) वस्त्र आदि [घर में] (हरति) लाता है, (यः) जो [पति] (प्रायश्चित्तिम्) प्रायश्चित क्रिया को (अध्येति) जानता है, (येन) जिस के कारण (जाया) पत्नी (न रिष्यति) कष्ट नहीं पाती ॥३०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य विद्वान्दूरदर्शी होकर गृहाश्रम में प्रवेश करता है, वही परिश्रम करके वस्त्र आदि आवश्यकपदार्थ लाकर घर में पत्नी सहित आनन्द पाता है ॥३०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३०−(सः) (इत्) एव (तत्) तदा (स्योनम्) सुखदम् (हरति) प्रापयति। प्राप्नोति (ब्रह्मा) वेदज्ञः पतिः (वासः)वस्त्रादिकम् (सुमङ्गलम्) महाहितकरम् (प्रायश्चित्तिम्) प्रायश्चित्तक्रियाम्।पापक्षयविधानम् (यः) (अध्येति) जानाति (येन) कारणेन (जाया) पत्नी (न) निषेधे (रिष्यति) दुःखं प्राप्नोति ॥
३१ युवं भगम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यु॒वं भगं॒ संभ॑रतं॒ समृ॑द्धमृ॒तं वद॑न्तावृ॒तोद्ये॑षु।
ब्रह्म॑णस्पते॒ पति॑म॒स्यै रो॑चय॒चारु॑ संभ॒लो व॑दतु॒ वाच॑मे॒ताम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यु॒वं भगं॒ संभ॑रतं॒ समृ॑द्धमृ॒तं वद॑न्तावृ॒तोद्ये॑षु।
ब्रह्म॑णस्पते॒ पति॑म॒स्यै रो॑चय॒चारु॑ संभ॒लो व॑दतु॒ वाच॑मे॒ताम् ॥
३१ युवं भगम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Do ye (two) bring together a successful (sámṛddha) portion,
speaking right in right-speakings; O Brahmaṇaspati, make the husband
shine (ruc) for her; let the wooer (sambhalá) speak this speech
agreeably (cā́ru).
Notes
According to Kāuś. 75. 8, 9, this verse is addressed to the wooer and
his companion, when they are sent out to win the bride; the second
half-verse to the priest (who is one of them?). ‘Make shine,’ doubtless
‘set in a favorable light’ The verse ⌊scanned by the Anukr. as 11 + 9:
12 + 12 = 44⌋ may best be read as 11 + 11: 12 + 12; ⌊but d has a bad
cadence⌋. Ppp. reads mṛtyodyena at end of b, and ṣumbhalo in
d.
Griffith
Prepare, ye twain, happy and prosperous fortune, speaking the truth in faithful utterances. Dear unto her, Brihaspati, make the husband, and pleasant be these words the wooer speaketh.
पदपाठः
यु॒वम्। भग॑म्। सम्। भ॒र॒त॒म्। सम्ऽऋ॑ध्दम्। ऋ॒तम्। वद॑न्तौ। ऋ॒त॒ऽउद्ये॑षु। ब्रह्म॑णः। प॒ते॒। पति॑म्। अ॒स्यै। रो॒च॒य॒। चारु॑। स॒म्ऽभ॒लः। व॒द॒तु॒। वाच॑म्। ए॒ताम्। १.३१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहती गर्भा त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू-वर !] (ऋतोद्येषु) सत्यवचनों के बीच (ऋतम्) सत्य (वदन्तौ) बोलते हुए (युवम्) तुमदोनों (समृद्धम्) अधिक सम्पत्तिवाले (भगम्) ऐश्वर्य को (सम्) मिलकर (भरतम्) धारणकरो। (ब्रह्मणः पते) हे वेद के रक्षक [परमेश्वर !] (अस्यै) इस [वधू] के लिये (पतिम्) पति को (रोचय) आनन्दित कर−(एताम् वाचम्) इस वचन को (संभलः) यथार्थवक्तापुरुष (चारु) मनोहर रीति से (वदतु) बोले ॥३१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग परमेश्वरसे प्रार्थना करके आशीर्वाद देवें कि यह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी प्रतिज्ञाओंमें दृढ़ रहकर सम्पत्ति और ऐश्वर्य प्राप्त करके सदा प्रसन्न रहें॥३१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३१−(युवम्) युवां वधूवरौ (भगम्) ऐश्वर्यम् (सम्) मिलित्वा (भरतम्) धारयतम् (समृद्धम्) बुहुवृद्धियुक्तम् (ऋतम्) सत्यम् (वदन्तौ) कथयन्तौ (ऋतोद्येषु)वद-क्यपि। सत्यकथनेषु (ब्रह्मणः) वेदस्य (पते) रक्षक परमेश्वर (पतिम्)भर्त्तारम् (अस्यै) वधूहिताय (रोचय) प्रसादय (चारु) यथा तथा, मनोहररीत्या (संभलः) सम्यग्वक्ता (वाचम्) वाणीम् (एताम्) ॥
३२ इहेदसाथ नपरो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒हेद॑साथ॒ नप॒रो ग॑माथे॒मं गा॑वः प्र॒जया॑ वर्धयाथ।
शुभं॑ यतीरु॒स्रियाः॒ सोम॑वर्चसो॒विश्वे॑ दे॒वाः क्र॑न्नि॒ह वो॒ मनां॑सि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒हेद॑साथ॒ नप॒रो ग॑माथे॒मं गा॑वः प्र॒जया॑ वर्धयाथ।
शुभं॑ यतीरु॒स्रियाः॒ सोम॑वर्चसो॒विश्वे॑ दे॒वाः क्र॑न्नि॒ह वो॒ मनां॑सि ॥
३२ इहेदसाथ नपरो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- May ye be just here; may ye not go away; may ye, O kine, increase
this man with progeny; going in beauty, ruddy, with soma-splendor—may
all the gods turn (kṛ) your minds hither.
Notes
In Kāuś. 79. 17 this verse (according to the commentators, this and the
next) seems to be directed to accompany the paying (in kine) the price
demanded for the bride; but surely that cannot have been its original
sense. The first pāda is identical with iii. 8. 4 a; c has a
redundant syllable. The pada-text writes śúbham: yatīḥ, but the
expression is, so far as accent is concerned, treated as if a compound:
compare 2. 52 below. No reason is discoverable for the accent of krán
in d.
Griffith
Remain ye even here and go no farther: strengthen this man, ye Cows, with plenteous offspring. May Dawns that come for glory, bright with Soma, here may all Gods fix and enchant your spirits.
पदपाठः
इ॒ह। इत्। अ॒सा॒थ॒। न। प॒रः। ग॒मा॒थ॒। इ॒मम्। गा॒वः॒। प्र॒ऽजया॑। व॒र्ध॒नया॒थ॒। शुभ॑म्। य॒तीः॒। उ॒स्रियाः॑। सोम॑ऽवर्चसः। विश्वे॑। दे॒वाः। क्रन्। इ॒ह। वः॒। मनां॑सि। १.३२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) हे गतिशील [पुरुषार्थी कुटुम्बी लोगो !] (इह इत्) यहाँ पर ही [हम में] (असाथ) तुम रहो, (परः) दूर (न गमाथ) मत जाओ, और (इमम्) इस [पुरुष] को (प्रजया) प्रजा [पुत्र, पौत्र, सेवक आदि] से (वर्धयाथ) बढ़ाओ। (शुभम्) शुभ रीति से (यतीः) चलती हुई (उस्रियाः) निवास करनेवाली स्त्रियाँ और (सोमवर्चसः) ऐश्वर्य के साथ प्रतापवाले (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग [अर्थात् घर के विद्वान् स्त्री-पुरुष] (वः)तुम्हारे (मनांसि) मनों को (इह) यहाँ [गृह कार्य में] (क्रन्) करें ॥३२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब कुटुम्बी लोगपुरुषार्थ करके मिलकर धैर्य से घर में रहें और सन्तान आदि को शिक्षा दान सेबढ़ावें और सम्पत्ति और ऐश्वर्य बढ़ाकर गृहाश्रम को शोभायमान करें ॥३२॥इस मन्त्रका प्रथम पाद आ चुका है-अ० ३।८।४ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३२−(इह) अत्र। अस्मासु (इत्) एव (असाथ) भवत (न) निषेधे (परः) परस्तात्। दूरम् (गमाथ) गच्छत (इमम्) पुरुषम् (गावः) गमेर्डोः।उ० २।६७। गच्छतेर्डोप्रत्ययः। गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। हे गतिशीलाःपुरुषार्थिनः कुटुम्बिनः (प्रजया) सन्तानसेवकादिरूपया (वर्धयाथ) वर्धयत (शुभम्)शुभरीत्या (यतीः) गच्छन्त्यः (उस्रियाः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। वसनिवासे-रक्, स्वार्थे घ प्रत्ययः। निवासशीलाः स्त्रियः (सोमवर्चसः) ऐश्वर्येणप्रतापिनः (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (क्रन्) कुर्वन्तु (इह) गृहाश्रमे (वः) युष्माकम् (मनांसि) चित्तानि ॥
३३ इमं गावःप्रजया
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒मं गा॑वःप्र॒जया॒ सं वि॑शाथा॒यं दे॒वानां॒ न मि॑नाति भा॒गम्।
अ॒स्मै वः॑ पू॒षाम॒रुत॑श्च॒ सर्वे॑ अ॒स्मै वो॑ धा॒ता स॑वि॒ता सु॑वाति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒मं गा॑वःप्र॒जया॒ सं वि॑शाथा॒यं दे॒वानां॒ न मि॑नाति भा॒गम्।
अ॒स्मै वः॑ पू॒षाम॒रुत॑श्च॒ सर्वे॑ अ॒स्मै वो॑ धा॒ता स॑वि॒ता सु॑वाति ॥
३३ इमं गावःप्रजया ...{Loading}...
Whitney
Translation
- May ye, O kine, enter this man together with progeny; this man
minisheth (mī) not the share of the gods; for this man shall Pūshan,
and all the Maruts, for this man shall Dhātar, Savitar quicken (sū)
you.
Notes
Ppp. reads viśadhvam at end of a. This verse indicates distinctly
that the preceding one is meant as a wish for prosperity in respect to
kine.
Griffith
Come, O ye Cows, with offspring dwell around him: he doth not stint the Gods’ alloted portion. To him, your friend, may Pushan, all the Maruts, to him may Dhatar, Savitar send vigour.
पदपाठः
इ॒मम्। गा॒वः॒। प्र॒ऽजया॑। सम्। वि॒शा॒थ॒। अ॒यम्। दे॒वाना॑म्। न। मि॒ना॒ति॒। भा॒गम्। अ॒स्मै। वः॒। पू॒षा। म॒रुतः॑। च॒। सर्वे॑। अ॒स्मै। वः॒। धा॒ता। स॒वि॒ता। सु॒वा॒ति॒। १.३३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) हे गतिशील [पुरुषार्थी कुटुम्बियो !] (इमम्) इस [पुरुष] में (प्रजया) प्रजा [सन्तान, सेवकआदि] के साथ (सम्) मिलकर (विशाथ) तुम प्रवेश करो, (अयम्) यह [पुरुष] (देवानाम्)विद्वानों के (भागम्) भाग को (न) नहीं (मिनाति) नाश करता है। (अस्मै) इस [पुरुष]के लिये (वः) तुम को (पूषा) पोषक वैद्य (च) और (सर्वे) सब (मरुतः) शूर पुरुष, और (अस्मै) इस [पुरुष] के लिये (वः) तुमको (धाता) धारण करनेवाला (सविता) प्रेरकआचार्य (सुवाति) आगे बढ़ावे ॥३३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - कुटुम्बियों को योग्यहै कि सब सन्तानों और उपयोगी पुरुषों सहित मिलकर विद्वान् प्रधान पुरुष का आदरमान करें ॥३३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३३−(इमम्) पुरुषम् (गावः) म० ३२। हे गतिशीलाः पुरुषार्थिनःकुटुम्बिनः (प्रजया) सन्तानसेवकादिना सह (सम्) मिलित्वा (विशाथ) प्रविशत (अयम्)जनः (देवानाम्) विदुषाम् (न) निषेधे (मिनाति) मीञ् वधे, ह्रस्वः। मीनाति नाशयति (भागम्) अंशम् (अस्मै) पुरुषाय (वः) युष्मान् (पूषा) पोषको वैद्यः (मरुतः)शत्रुमारकाः शूराः (च) (सर्वे) (अस्मै) (वः) युष्मान् (धाता) धारकः (सविता)प्रेरक आचार्यः (सुवाति) प्रेरयेत् ॥
३४ अनृक्षराऋजवः सन्तु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑नृक्ष॒राऋ॒जवः॑ सन्तु॒ पन्था॑नो॒ येभिः॒ सखा॑यो॒ यन्ति॑ नो वरे॒यम्।
सं भगे॑न॒सम॑र्य॒म्णा सं धा॒ता सृ॑जतु॒ वर्च॑सा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑नृक्ष॒राऋ॒जवः॑ सन्तु॒ पन्था॑नो॒ येभिः॒ सखा॑यो॒ यन्ति॑ नो वरे॒यम्।
सं भगे॑न॒सम॑र्य॒म्णा सं धा॒ता सृ॑जतु॒ वर्च॑सा ॥
३४ अनृक्षराऋजवः सन्तु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Free from thorns, straight, let the roads be by which [our]
comrades go a-wooing for us; together with Bhaga, together with
Aryaman—let Dhātar unite [us] with splendor.
Notes
The first half-verse is RV. x. 85. 23 a, b, which, however, reads
⌊with MP.⌋ pánthās for ⌊our metrically bad⌋ -thānas; the second half
goes on: sám aryamā́ sám bhágo no ninīyāt etc. ⌊cf. MP. i. 1. 2⌋; our
text is a foolish and inconsistent substitute. Kāuś. 77. 3 gives the
verse, with 2. 11, as to be used when the bridal train starts off home;
in 75. 12 it ⌊according to Daśa Kar., only the first half-verse⌋ is made
to accompany the sending out of a guard for the bride. ⌊Cf. Wint., p.
40.⌋
Griffith
Straight in direction be the paths, and thornless, whereby our fellows travel to the wooing. With Bhaga and with Aryaman Dhatar endue the pair with strength!
पदपाठः
अ॒नृ॒क्ष॒राः। ऋ॒जवः॑। स॒न्तु॒। पन्था॑नः। येभिः॑। सखा॑यः। यन्ति॑। नः॒। व॒रे॒ऽयम्। सम्। भगे॑न। सम्। अ॒र्य॒म्णा। सम्। धा॒ता। सृ॒ज॒तु॒। वर्च॑सा। १.३४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रस्तार पङ्क्ति
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अनृक्षराः) बिनाकाँटोंवाले (ऋजवः) सीधे (पन्थानः) मार्ग (सन्तु) होवें, (येभिः) जिन से (नः)हमारे (सखायः) मित्र लोग (वरेयम्=वरेण्यम्) सुन्दर विधान से (यन्ति) चलते हैं। (धाता) धारण करनेवाला [परमेश्वर] (भगेन सम्) ऐश्वर्य के साथ (अर्यम्णा सम्)श्रेष्ठों के मान करनेवाले व्यवहार के साथ और (वर्चसा सम्) प्रताप के साथ [हमको] (सृजतु) संयुक्त करे ॥३४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब घर के लोग परमेश्वरकी उपासना के साथ विद्वानों के समान विघ्नों का नाश करके श्रेष्ठों के सन्मान सेऐश्वर्यवान् और प्रतापी होवें ॥३४॥इस मन्त्र का पूर्वार्ध कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१०।८५।२३ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३४−(अनृक्षराः) अकण्टकाः (ऋजवः) सरलाः (सन्तु) (पन्थानः) मार्गाः (येभिः) यैः (सखायः) सुहृदः (यन्ति) गच्छन्ति (नः) अस्माकम् (वरेयम्) णलोपः। यथातथा, वरेण्यम्। वरणीयेन विधानेन (सम्) सह (भगेन) ऐश्वर्येण (सम्) (अर्यम्णा)श्रेष्ठानां मानकर्तृव्यवहारेण (सम्) (धाता) धारकः परमेश्वरः (सृजतु) योजयतु (वर्चसा) प्रतापेन ॥
३५ यच्च वर्चोअक्षेषु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यच्च॒ वर्चो॑अ॒क्षेषु॒ सुरा॑यां च॒ यदाहि॑तम्।
यद्गोष्व॑श्विना॒ वर्च॒स्तेने॒मांवर्च॑सावतम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यच्च॒ वर्चो॑अ॒क्षेषु॒ सुरा॑यां च॒ यदाहि॑तम्।
यद्गोष्व॑श्विना॒ वर्च॒स्तेने॒मांवर्च॑सावतम् ॥
३५ यच्च वर्चोअक्षेषु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Both what splendor is placed in dice, and what in strong drink—what
splendor, O Aśvins, is in kine, with that splendor favor (av) ye this
woman.
Notes
All our mss. accent aśvínā in c; our edition makes the necessary
correction to aśvinā. ⌊SPP. adopts and defends the reading aśvínā.⌋
Ppp. puts the verse after our vs. 36. The Anukr. does not heed that the
first pāda lacks a syllable. According to Kāuś. 75. 27, this verse, with
43 below, is used in connection with pouring of water on the bride; and
again, in 139. 15, this and the next, with several others from different
books, accompany a libation ⌊in the fire⌋ in the ceremony of initiation
into Vedic study; both also (35, 36) are reckoned as belonging to the
varcasya gaṇa (see note to Kāuś. 13. 1). ⌊Cf. ix. 1. 18; vi. 69. 1.⌋
Griffith
Whatever lustre is in dice, whatever lustre is in wine, Whatever lustre is in cows, Asvins, endue this dame therewith.
पदपाठः
यत्। च॒। वर्चः॑। अ॒क्षेषु॑। सुरा॑याम्। च॒। यत्। आऽहि॑तम्। यत्। गोषु॑। अ॒श्विना॑। वर्चः॑। तेन॑। इ॒माम्। वर्च॑सा। अ॒व॒त॒म्। १.३५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (वर्चः) तेज (अक्षेषु) व्यवहारकुशलों में (च च) और (यत्) जो [तेज] (सुरायाम्) ऐश्वर्य [वालक्ष्मी] में (आहितम्) रक्खा गया है। (यत्) जो (वर्चः) तेज (गोषु) गतिशील [पुरुषार्थी] लोगों में है, (अश्विना) हे विद्या को प्राप्त दोनों [स्त्री-पुरुष समूहो !] (तेन वर्चसा) उस तेज से (इमाम्) इस [वधू] को (अवतम्) शोभायमान करो॥३५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष प्रयत्न करके शिक्षा देवें कि वे विद्वान् पति-पत्नी अपने कर्तव्यों को सकुशलसिद्ध करके तेजस्वी होवें ॥३५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३५−(यत्) (च) (वर्चः) तेजः (अक्षेषु) अक्ष-अर्शआद्यच्। व्यवहारकुशलेषु (सुरायाम्) षुर दीप्तो ऐश्वर्ये च-क, टाप्। ऐश्वर्ये।लक्ष्म्याम् (च) (यत्) (आहितम्) स्थापितम् (यत्) (गोषु) म० ३२। गतिशीलेषुपुरुषार्थिषु (अश्विना) हे प्राप्तविद्यौ स्त्रीपुरुषसमूहौ (वर्चः) (तेन) (इमाम्) वधूम् (वर्चसा) तेजसा (अवतम्) अव रक्षणशोभादिषु। शोभयतम् ॥
३६ येन महानघ्न्याजघनमश्विना
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
येन॑ महान॒घ्न्याज॒घन॒मश्वि॑ना॒ येन॑ वा॒ सुरा॑।
येना॒क्षा अ॒भ्यषि॑च्यन्त॒ तेने॒मांवर्च॑सावतम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
येन॑ महान॒घ्न्याज॒घन॒मश्वि॑ना॒ येन॑ वा॒ सुरा॑।
येना॒क्षा अ॒भ्यषि॑च्यन्त॒ तेने॒मांवर्च॑सावतम् ॥
३६ येन महानघ्न्याजघनमश्विना ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With what [splendor] the backsides of the courtezan (mahānagnī́),
O Aśvins, or with what the strong drink, with what the dice were flooded
(abhi-sic), with that splendor favor ye this woman.
Notes
That is, apparently, give her all the attractions which these various
seductive things are known to possess. ‘Courtezan,’ lit. ‘great naked
woman,’ emending to -nagnyā́s: ⌊but all authorities, both SPP’s and
W’s, have -naghnyā́s⌋. The verse has a distant likeness to one in PGS.
ii. 6. 12. The ṣ of aṣicyanta is by Prāt. ii. 92, where this example
is quoted in the commentary. The redundant syllable in the first pāda
passes unheeded by the Anukr. For the use of the verse in Kāuś. see the
note to the preceding verse. Ppp. puts the verse before our 35 as noted
above, and the ms. reads for a: yan mā nagnā jaghnam.
Griffith
With all the sheen that balmeth wine, or thigh of female para- mour, With all the sheen that balmeth dice, even with this adorn the dame.
पदपाठः
येन॑। म॒हा॒ऽन॒घ्न्याः। ज॒घन॑म्। अश्वि॑ना। येन॑। वा॒। सुरा॑। येन॑। अ॒क्षाः। अ॒भि॒ऽअसि॑च्यन्त। तेन॑। इ॒माम्। वर्च॑सा। अ॒व॒त॒म्। १.३६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस [तेज] केकारण (महानघ्न्याः) अत्यन्त निर्दोष स्त्री के (जघनम्) पौरुष, (येन) जिस के कारण (सुरा) ऐश्वर्य [लक्ष्मी], (वा) और (येन) जिस करके (अक्षाः) सब व्यवहार (अभ्यषिच्यन्त) सींचे जाते हैं [बढ़ाये जाते हैं], (अश्विना) हे विद्या कोप्राप्त दोनों [स्त्री-पुरुष समूहो !] (तेन वर्चसा) उस तेज से (इमाम्) इस [वधू]को (अवतम्) शोभायमान करो ॥३६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष मिकरउपाय करें कि वधू बड़ी-बड़ी स्त्रियों के समान पौरुष, ऐश्वर्य और व्यवहार बढ़ाकरतेजस्विनी होवे ॥३६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३६−(येन) वर्चसा (महानघ्न्याः) कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्यउपसङ्ख्यानम्। वा० पा० ३।२।५। महा+न+हन हिंसागत्योः-क, ङीप्। न हन्तव्या नदण्डनीया सा नघ्नी तस्याः। अतिशयेन निर्दोषायाः स्त्रियाः (जघनम्) हन्तेःशरीरावयवे च। उ० ५।३२। हन हिंसागत्योः-अच्, द्वित्वं च धातोः। गमनम्। पौरुषम् (अश्विनौ) हे प्राप्तविद्यौ स्त्रीपुरुषसमूहौ (येन) (वा) समुच्चये (सुरा) म० ३५।ऐश्वर्यम्। लक्ष्मीः (येन) (अक्षाः) व्यवहाराः (अभ्यषिच्यन्त) अभिषिक्ता भवन्ति।वृद्धिं गम्यन्ते ॥
३७ यो अनिध्मोदीदयदप्स्वन्तर्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यो अ॑नि॒ध्मोदी॒दय॑द॒प्स्व१॒॑न्तर्यं विप्रा॑स॒ ईड॑ते अध्व॒रेषु॑।
अपां॑ नपा॒न्मधु॑मतीर॒पोदा॒ याभि॒रिन्द्रो॑ वावृ॒धे वी॒र्या᳡वान् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यो अ॑नि॒ध्मोदी॒दय॑द॒प्स्व१॒॑न्तर्यं विप्रा॑स॒ ईड॑ते अध्व॒रेषु॑।
अपां॑ नपा॒न्मधु॑मतीर॒पोदा॒ याभि॒रिन्द्रो॑ वावृ॒धे वी॒र्या᳡वान् ॥
३७ यो अनिध्मोदीदयदप्स्वन्तर्यम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- He who shines (dī) without fuel within the waters, whom the devout
(vípra) praise at the sacrifices (adhvará)—O child of the waters,
mayest thou give waters rich in honey, with which Indra increased, full
of heroism.
Notes
The verse is RV. x. 30. 4, which accents dī́dayat, and reads at the end
vīryā̀ya. Ppp. combines in a yo ‘nidhmo. Kāuś. 75. 14 makes the
verse accompany the piercing (pra-vyadh) of a stick of wood (loga)
in the water.
Griffith
He who in water shines unfed with fuel, whom sages worship in their sacrifices. May he, the Waters’ Child, send us sweet waters those that en- hanced the power of mighty Indra.
पदपाठः
यः। अ॒नि॒ध्मः। दी॒दय॑त्। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। यम्। विप्रा॑सः। ईड॑ते। अ॒ध्व॒रेषु॑। अपा॑म्। न॒पा॒त्। मधु॑ऽमतीः। अ॒पः। दाः॒। याभिः॑। इन्द्रः॑। व॒वृ॒धे। वी॒र्य᳡वान्। १.३७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [परमेश्वर] (अनिध्मः) बिना चमकता हुआ [अन्तर्यामी] रहकर (अप्सु अन्तः) प्रजाओं के भीतर (दीदयत्) चमकता है, (यम्) जिस [परमेश्वर] की, (विप्रासः) बुद्धिमान् लोग (अध्वरेषु) सन्मार्ग बतानेवाले व्यवहारों में, (ईडते) बड़ाई करते हैं, [सो तू] (अपाम्) प्रजाओं के मध्य (नपात्) नाशरहित [परमेश्वर !] (मधुमतीः) मधु विद्या सेयुक्त [पूर्ण विज्ञानवती] (अपः) प्रजाएँ (दाः) दे, (याभिः) जिन [प्रजाओं] से (इन्द्रः) बड़ा ऐश्वर्यवान् मनुष्य (वीर्यवान्) वीर्यवान् [धीर, वीर, शरीर, इन्द्रिय, और मन की अतिशय शक्तिवाला] होकर (वावृधे) बढ़ता है ॥३७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वधू-वर को उचित है किविद्वानों के समान सर्वान्तर्यामी सर्वनियन्ता परमात्मा की उपासना करकेब्रह्मचर्यादि से विद्वान् सन्तान, सेवक आदि प्राप्त करें और वेदविद्या द्वाराबढ़ाकर सदा उन्नति करते रहें ॥३७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।३०।४, और निरुक्त १०।१९ में भी व्याख्यात है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३७−(यः) परमेश्वरः (अनिध्मः) अप्रकाशः।अन्तर्यामी सन् (दीदयत्) दीप्यते (अप्सु) आपः=आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। प्रजासु (अन्तः) मध्ये (यम्) परमेश्वरम् (विप्रासः) मेधाविनः (ईडते)स्तुवन्ति (अध्वरेषु) अध्वन्+रा दाने-क। सन्मार्गदातृषु व्यवहारेषु (अपाम्)प्रजानां मध्ये (नपात्) अपतनशील। अविनाशिन् (मधुमतीः) मधुविद्यया पूर्णविज्ञानेनयुक्ताः (अपः) प्रजाः (दाः) देहि (याभिः) प्रजाभिः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्मनुष्यः (वावृधे) वर्धते (वीर्यवान्) वीरकर्मयुक्तः सन् ॥
३८ इदमहं रुशन्तङ्ग्राभम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒दम॒हं रुश॑न्तंग्रा॒भं त॑नू॒दूषि॒मपो॑हामि।
यो भ॒द्रो रो॑च॒नस्तमुद॑चामि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒दम॒हं रुश॑न्तंग्रा॒भं त॑नू॒दूषि॒मपो॑हामि।
यो भ॒द्रो रो॑च॒नस्तमुद॑चामि ॥
३८ इदमहं रुशन्तङ्ग्राभम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Now do I remove (apa-ūh) the glistening seizer (grābhá),
body-spoiling; what sheen is excellent, that I draw up (ud-ac).
Notes
Ppp. reads in the first half-verse tanūdūṣim athi nudāmi. For its
second half it has yaś śivo bhadro rocanas tena tvām api nudāmi,
making a fair half-anuṣṭubh. According to Kāuś. 75. 15, 16, the thing
(the pierced piece of wood) is removed with the first two pādas; and
with the third water is drawn up (anvīpam ‘in the direction of the
current’) and is then presented with vs. 39. The verse (9 + 8: 11 = 28)
is described by the Anukr. with mechanical correctness.
Griffith
I cast away a handful here, hurtful, injurious to health. I lift another handful up, sparkling and bringing happiness.
पदपाठः
इ॒दम्। अ॒हम्। रुश॑न्तम्। ग्रा॒भम्। त॒नू॒ऽदूषि॑म्। अप॑। ऊ॒हा॒मि॒। यः। भ॒द्रः। रो॒च॒नः। तम्। उत्। अ॒चा॒मि॒। १.३८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) अब [गृहस्थहोने पर] (अहम्) मैं [स्त्री वा पुरुष] (रुशन्तम्) सतानेवाले, (तनूदूषिम्) शरीरको दोष लगानेवाले (ग्राभम्) ग्राही [मलबन्धक रोग वा दुष्ट व्यवहार] को (अपऊहामि) हटा देता हूँ। (यः) जो (भद्रः) मङ्गलमय, (रोचनः) रोचक व्यवहार है, (तम्)उसको (उत्) उत्तमता से (अचामि) प्राप्त होता हूँ ॥३८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वधू-वर पीडाप्रद, रोगकारक कर्म और स्वभाव छोड़कर स्वास्थ्यवर्धक व्यवहार करके गृहाश्रम में आनन्दबढ़ावें ॥३८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३८−(इदम्) इदानीम्। गृहाश्रमग्रहणसमये (रुशन्तम्) रुश हिंसायां शतृ।हिंसन्तम् (ग्राभम्) मलबन्धकग्राहिरोगं दुष्टव्यवहारं वा (तनूदूषिम्) शरीरदूषकम् (अपोहामि) अपगमयामि (यः) (भद्रः) मङ्गलमयः (रोचनः) रुचिरो व्यवहारः (तम्)व्यवहारम् (उत्) उत्तमतया (अचामि) अचु गतौ याचने च। प्राप्नोमि। याचे ॥
३९ आस्यैब्राह्मणाः स्नपनीर्हरन्त्ववीरघ्नीरुदजन्त्वापः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आस्यै॑ब्राह्म॒णाः स्नप॑नीर्हर॒न्त्ववी॑रघ्नी॒रुद॑ज॒न्त्वापः॑।
अ॑र्य॒म्णो अ॒ग्निंपर्ये॑तु पूष॒न्प्रती॑क्षन्ते॒ श्वशु॑रो दे॒वर॑श्च ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आस्यै॑ब्राह्म॒णाः स्नप॑नीर्हर॒न्त्ववी॑रघ्नी॒रुद॑ज॒न्त्वापः॑।
अ॑र्य॒म्णो अ॒ग्निंपर्ये॑तु पूष॒न्प्रती॑क्षन्ते॒ श्वशु॑रो दे॒वर॑श्च ॥
३९ आस्यैब्राह्मणाः स्नपनीर्हरन्त्ववीरघ्नीरुदजन्त्वापः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the Brahmans take for her [water] for bathing; let them draw
up (?) waters that slay not a hero; let her go about the fire of
Aryaman, O Pūshan; father-in-law and brother-in-law are looking on
(prati-īkṣ).
Notes
The translation implies the obvious emendation of ajantu to acantu
in b. ⌊Cf. the MP. reading acantu, and also xi. 1. 2, where vacant
answers to the RV. reading vā́cam. There is also something wrong about
d, where a plural verb is made to agree with two singular subjects.
The Āpast. mantra-text (Wint., p. 43 ⌊MP. i. 1. 7-8⌋) has in both
pādas (as well as in other respects) better readings: ā́ ’syāí brāhmaṇā́ḥ
snápanaṁ harantu: ávīraghnīr úd acantv ā́paḥ*: aryamṇó agním pári yantu
kṣiprám prátī ”kṣantāṁ śvaśrúvo devárāś ca. Ppp. reads in a-b ā
’smāi harantu snapanaṁ brahmaṇā ’vīr-; and in c, ‘gniṁ pary eti
kṣipraṁ. ⌊The kṣipram of Ppp. and MP. suggests that⌋ our pūṣan in
c may be a corruption for oṣám; ⌊cf. also vii. 73. 6 a⌋. The
use of the verse by Kāuś. 75. 17 was noticed in the preceding note; in
76. 20, the second half-verse accompanies the leading of the bride
thrice about the fire (in Āpast. the laying of a ring of darbha-grass
upon her head). The Anukr. does not heed the lack of a syllable in
b. *⌊Oxford text āpaḥ: misprint?⌋
Griffith
Hither let Brahmans bring her bathing water; let them draw such as guards the lives of heroes. Aryaman’s fire let her encircle, Pushan! Fathers-in-law stand, with their sons, expectant.
पदपाठः
आ। अ॒स्यै॒। ब्रा॒ह्म॒णा। स्नप॑नीः। ह॒र॒न्तु॒। अवी॑रऽघ्नीः। उत्। अ॒ज॒न्तु॒। आपः॑। अ॒र्य॒म्णः। अ॒ग्निम्। परि॑। ए॒तु॒। पू॒ष॒न्। प्रति॑। ई॒क्ष॒न्ते॒। श्वशु॑रः। दे॒वरः॑। च॒। १.३९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्यै) इस [वधू] केलिये (ब्राह्मणाः) ब्राह्मण [विद्वान् लोग] (स्नपनीः) शुद्धिकारक सामग्रियों को (आ हरन्तु) लावें, (अवीरघ्नीः) वीरों को हितकारी (आपः) प्रजाएँ (उत्) उत्तमतासे (अजन्तु) प्राप्त होवें। (पूषन्) हे पुष्टिकारक [विद्वान् !] (अर्यम्णः)श्रेष्ठों के मान करनेवाले [पति] की (अग्निम्) अग्नि की [प्रत्येक पति-पत्नी] (परि एतु) परिक्रमा करे, (श्वशुरः) ससुर [पति का पिता] (च) और (देवरः) देवर लोग [पति के छोटे-बड़े भ्राता] (प्रति ईक्षन्ते) बाट देखते हैं ॥३९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वर के घर पहुँचकरवधू-वर विद्वानों की आज्ञानुसार शुद्ध जल आदि से स्नान करके अग्निहोत्रादि करकेयज्ञकुण्ड की परिक्रमा करें और सब कुटुम्बी लोग सन्मान से स्वागत करें ॥३९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३९−(अस्यै) वध्वै (ब्राह्मणाः) विद्वांसः (स्नपनीः) शोधयित्रीः सामग्रीः (आहरन्तु) प्रापयन्तु (अवीरघ्नीः) वीराणां हितकरीः (उत्) उत्तमतया (अजन्तु)गच्छन्तु प्राप्नुवन्तु (आपः) म० ३७। प्रजाः (अर्यम्णः) श्रेष्ठमानकरस्य पत्युः (अग्निम्) होमाग्निम् (पर्येतु) प्रत्येकं वधूश्च वरश्च गच्छतु (पूषन्) हे पोषकविद्वन् (प्रतीक्षन्ते) प्रतीक्षया पश्यन्ति (श्वशुरः) शावशेराप्तौ। उ० १।४४।शु+अशू आप्तौ व्याप्तौ-उरन्। शु आशु अश्यते प्राप्यते यः। दम्पत्योः पिता (देवरः) दिवेर्ऋ। उ० २।९९। दिवु क्रीडादिषु-ऋ प्रत्ययः। पत्युःकनिष्ठज्येष्ठभ्रातरः (च) ॥
४० शं ते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
शं ते॒ हिर॑ण्यं॒शमु॑ स॒न्त्वापः॒ शं मे॒थिर्भ॑वतु॒ शं यु॒गस्य॒ तर्द्म॑।
शं त॒ आपः॑श॒तप॑वित्रा भवन्तु॒ शमु॒ पत्या॑ त॒न्वं१॒॑ सं स्पृ॑शस्व ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शं ते॒ हिर॑ण्यं॒शमु॑ स॒न्त्वापः॒ शं मे॒थिर्भ॑वतु॒ शं यु॒गस्य॒ तर्द्म॑।
शं त॒ आपः॑श॒तप॑वित्रा भवन्तु॒ शमु॒ पत्या॑ त॒न्वं१॒॑ सं स्पृ॑शस्व ॥
४० शं ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Weal be to thee gold, and weal be waters; weal be the post
(methí), weal the perforation (tárdman) of the yoke; weal be for
thee the waters having a hundred cleansers (-pavítra); for weal, too,
mingle thyself with thy husband.
Notes
Ppp. is much corrupted in this verse, but can be seen to read metis
for methis in b; in c it combines tā ”paḥ, and in d it
omits u. In Kāuś. 76. 12, the verse is muttered (according to the
paddhati, it and the following verse) while the bride is bound to the
right yoke-pole and the left yoke-hole, and a piece of gold is fastened
to her forehead. Purification by the yoke-hole (apparently growing out
of the occurrence of the next verse in RV.) plays a part in various
versions of the marriage-rites; ⌊cf. note to vs. 41⌋. Āpast. (Wint., p.
44 ⌊MP. i. 1. 10⌋) has this same verse with unimportant variations
(medhī in b, etc). ⌊Cf. Wint., p. 46.⌋ The verse (11 + 12: 11 + 11
= 45) is slightly irregular ⌊but has triṣṭubh-cndences throughout⌋.
Griffith
Blest be the gold to thee, and blest the water, blest the yoke’s opening, and blest the pillar. Blest he the waters with their hundred cleansings: blest be thy body’s union with thy husband.
पदपाठः
शम्। ते॒। हिर॑ण्यम्। शम्। ऊं॒ इति॑। स॒न्तु॒। आपः॑। शम्। मे॒थिः। भ॒व॒तु॒। शम्। यु॒गस्य॑। तर्द्म॑। शम्। ते॒। आपः॑। श॒तऽप॑वित्राः। भ॒व॒न्तु॒। शम्। ऊं॒ इति॑। पत्या॑। त॒न्व᳡म्। सम्। स्पृ॒श॒स्व॒। १.४०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (ते) तेरेलिये (हिरण्यम्) सोना [द्रव्य, आभूषण आदि] (शम्) सुखदायक [हो], (उ) और (आपः)प्रजाएँ [सन्तान, सेवक आदि] (शम्) शान्तिदायक (सन्तु) होवें, (मेथिः) पशुबाँधने का काष्ठदण्ड (शम्) आनन्दप्रद और (युगस्य) जूए का (तर्द्म) छिद्र (शम्)शान्तिदायक (भवतु) होवे। (ते) तेरे लिये (शतपवित्राः) सैकड़ों प्रकार शुद्धकरनेवाले (आपः) जल (शम्) शान्तिदायक (भवन्तु) होवें, (शम्) शान्ति के लिये (उ)ही (पत्या) पति के साथ (तन्वम्) अपनी श्रद्धा को (सं स्पृशस्व) संयुक्त कर ॥४०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सासु-ससुर आदि स्वागतकरके सुवर्ण आभूषण आदि जो कुछ पदार्थ देवें, वधू उन्हें प्रसन्न होकर स्वीकारकरे और घर के सन्तान, सेवक पशुओं, अन्न, जल आदि के प्रबन्ध में प्रवृत्त होकरआनन्द पावे और पति में सदा पूर्ण प्रीति रक्खे ॥४०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४०−(शम्) शान्तिदायम्।सुखकरम्। शान्तये (ते) तुभ्यम् (हिरण्यम्) सुवर्णम्। सुवर्णाभूषणम् (सम्) (उत)समुच्चये। अवधारणे (सन्तु) (आपः) म० ३७। प्रजाः (शम्) (मेथिः) मेथृ सङ्गे-इन्।पशुबन्धनकाष्ठदण्डः (भवतु) (शम्) (युगस्य) रथहलादेरङ्गभेदस्य (तर्द्म) तर्दहिंसायाम्-मनिन्। छिद्रम् (शम्) (ते) तुभ्यम् (आपः) जलानि (शतपवित्राः)बहुप्रकारेण शोधनशीलाः (शम्) (उ) (पत्या) स्वामिना सह (तन्वम्) तनु विस्तारे, तनश्रद्धायामुपकारे च-ऊ प्रत्ययः। श्रद्धाम् (सं स्पृशस्व) संयोजय ॥
४१ खे रथस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
खे रथ॑स्य॒ खेऽन॑सः॒ खे यु॒गस्य॑ शतक्रतो।
अ॑पा॒लामि॑न्द्र॒ त्रिष्पू॒त्वाकृ॑णोः॒सूर्य॑त्वचम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
खे रथ॑स्य॒ खेऽन॑सः॒ खे यु॒गस्य॑ शतक्रतो।
अ॑पा॒लामि॑न्द्र॒ त्रिष्पू॒त्वाकृ॑णोः॒सूर्य॑त्वचम् ॥
४१ खे रथस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- In the hole of the chariot, in the hole of the cart, in the hole of
the yoke, O thou of a hundred activities, having thrice purified Apālā,
O Indra, thou didst make her sun-skinned.
Notes
The verse is RV. viii. 80 (91). 7, which has for sole variant pūtvī́ in
c. Prāt. ii. 64 prescribes the combination triṣ p-, but part of
our mss. (O.R.K.) read triḥ. The Āpast. version (Wint., p. 43 ⌊MP. i.
- 9⌋) is quite corrupt. ⌊Cf. MGS. i. 8. 11 and p. 149.⌋ In Ppp. the
verse is not found among the marriage verses, but in book iv., ⌊and
without variant⌋. ⌊For a careful treatment of the Apālā story, see H.
Oertel, in JAOS. xviii.¹ 26.⌋ ⌊The MP. version of this verse furnishes
Böhtlingk occasion for some interesting general critical remarks,
Berichte der sächsischen Gesellschaft, Feb. 5, 1898, p. 4.⌋
Griffith
Cleansing Apala, Indra! thrice, thou gavest sunbright skin to her Drawn, Satakratu! through the hole of car, of wagon, and of yoke.
पदपाठः
खे। रथ॑स्य। खे। अन॑सः। खे। यु॒गस्य॑। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो। अ॒पा॒लाम्। इ॒न्द्र॒। त्रिः। पू॒त्वा। अकृ॑णोः। सूर्य॑ऽत्ववचम्। १.४१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शतक्रतो) हे सैकड़ोंप्रकार की बुद्धियों वा कर्मोंवाले ! (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले [पति !] (रथस्य) रथ [रथरूप शरीर] के (खे) गमन [चेष्टा] में, (अनसः) जीवन के (खे) गमन [उपाय] मेंऔर (युगस्य) योग [ध्यान] के (खे) गमन [चलने] में (अपालाम्=अपाराम्)अपार गुणवाली [ब्रह्मवादिनी पत्नी] को (त्रिः) तीन बार [कर्म, उपासना और ज्ञानसे] (पूत्वा) शोधकर (सूर्यत्वचम्) सूर्य के समान तेजवाली (अकृणोः) तू कर ॥४१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् विद्वान्पति प्रयत्न करे कि विदुषी पत्नी वेदज्ञान से शुद्ध होकर शरीर को उचित चेष्टामें, जीवन को सुन्दर उपाय में, और मन को ईश्वरभक्ति में लगाकर संसार में कीर्तिपावे ॥४१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-सायणभाष्य ८१।८०।७ और अजमेरवैदिकयन्त्रालय पुस्तक ८।९१।७ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४१−(खे) खर्व गतौ-ड। गमने। चेष्टने। उपाये (रथस्य) रथरूपस्य शरीरस्य (खे) उपाये (अनसः) अन जीवने-असुन्। जीवनस्य (खे) गतौ (युगस्य) योगस्य। ध्यानस्य (शतक्रतो) हे बहुप्रज्ञ। बहुकर्मन् (अपालाम्) रस्यलः। अपाराम्। अपारगुणवतीं ब्रह्मवादिनीं पत्नीम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पते (त्रिः) त्रिवारं कर्मोपासनाज्ञानैः (पूत्वा) शोधयित्वा (अकृणोः) त्वं कुर्याः (सूर्यत्वचम्) त्वच संवरणे-असुन्। सूर्यवत्तेजस्विनीम् ॥
४२ आशासमानासौमनसं प्रजाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ॒शास॑मानासौमन॒सं प्र॒जां सौभा॑ग्यं र॒यिम्।
पत्यु॒रनु॑व्रता भू॒त्वा संन॑ह्यस्वा॒मृता॑य॒ कम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ॒शास॑मानासौमन॒सं प्र॒जां सौभा॑ग्यं र॒यिम्।
पत्यु॒रनु॑व्रता भू॒त्वा संन॑ह्यस्वा॒मृता॑य॒ कम् ॥
४२ आशासमानासौमनसं प्रजाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Hoping for well-willing, offspring, good-fortune, wealth, becoming
obedient (ánuvrata) to thy husband, gird thyself in order to
immortality.
Notes
This verse also is found in Ppp. away from the rest, in book xx., and
with much difference of text: thus, b-d, praco bahur atho balam:
indrāṇy anuvratā san nahye amṛtāya kam. In Kāuś. 76. 7, the verse is
used, with 2. 70, when the bride is girded with a bond, a yoke-rope
(yoktra). The Āpast. version (Wint., p. 45 ⌊MP. i. 2. 7⌋) has tanū́m
for rayím in b, agnér for pátyur in c, and, for d,
sáṁ nahye sukṛtā́ya kám. Vāit. 2. 6, again, makes it accompany the
girding of the sacrificer’s wife at the sacrifice. ⌊In the Berlin ed.,
correct kam to kám.⌋
Griffith
Saying thy prayer for cheerfulness, children, prosperity, and wealth, Devoted to thy husband, gird thyself for immortality.
पदपाठः
आ॒ऽशासा॑ना। सौ॒म॒न॒सम्। प्र॒ऽजाम्। सौभा॑ग्यम्। र॒यिम्। पत्युः॑। अनु॑ऽव्रता। भू॒त्वा। सम्। न॒ह्य॒स्व॒। अ॒मृता॑य। कम्। १.४२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (सौमनसम्)मन की प्रसन्नता, (प्रजाम्) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि], (सौभाग्यम्) बड़ीभाग्यवाली और (रयिम्) धन को (आशासमाना) चाहती हुई तू (पत्युः) पति के (अनुव्रता)अनुकूल कर्मवाली (भूत्वा) होकर (अमृताय) अमरपन [पुरुषार्थ और कीर्ति] के लिये (कम्) सुख से (सं नह्यस्व) सन्नद्ध होजा [युद्ध के लिये कवच धारण कर] ॥४२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब कुटुम्बी लोग वधूको शिक्षा दें कि वह विदुषी वधू योग्यता के साथ पति से प्रीति करकेप्रसन्नतापूर्वक गृहकार्यों को सिद्ध करे ॥४२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४२−(आशासमाना) कामयमाना (सौमनसम्)मनःप्रसादम् (प्रजाम्) सन्तानसेवकादिरूपाम् (सौभाग्यम्) सुभगत्वम् (रयिम्) धनम् (पत्युः) स्वामिनः (अनुव्रता) व्रतं कर्मनाम-निघ० २।१। अनुकूलकर्मा (भूत्वा) (संनह्यस्व) सन्नद्धा भव। सन्नाहं युद्धाय कवचं धारय (अमृताय) अमरणाय।पुरुषार्थाय कीर्त्तये च (कम्) सुखेन ॥
४३ यथासिन्धुर्नदीनां साम्राज्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यथा॒सिन्धु॑र्न॒दीनां॒ साम्रा॑ज्यं सुषु॒वे वृषा॑।
ए॒वा त्वं॑ स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒पत्यु॒रस्तं॑ प॒रेत्य॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यथा॒सिन्धु॑र्न॒दीनां॒ साम्रा॑ज्यं सुषु॒वे वृषा॑।
ए॒वा त्वं॑ स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒पत्यु॒रस्तं॑ प॒रेत्य॑ ॥
४३ यथासिन्धुर्नदीनां साम्राज्यम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- As the ⌊mighty (? vṛ́ṣā)⌋ river (síndhu) won (? sū) the
supremacy of the streams (nadī́), so be thou supreme (samrā́jñī),
having gone away to thy husband’s home.
Notes
Perhaps síndhu should be rendered ‘Indus’ (so Zimmer, p. 317; Weber,
p. 199). Suṣuve, lit. ‘impelled for one’s self,’ is employed here in
an unusual sen.se; the word is quoted as example under Prāt. ii. 91; iv.
82. Ppp. reads sūṣuve vṛkāt. By Kāuś. 75. 27, the verse accompanies
the emergence of the bride from the bath (with vs. 35, above).
Griffith
As vigorous Sindhu won himself imperial lordship of the streams, So be imperial queen when thou hast come within thy husband’s home.
पदपाठः
यथा॑। सिन्धुः॑। न॒दीना॑म्। साम्ऽरा॑ज्यम्। सु॒सु॒वे। वृषा॑। ए॒व। त्वम्। स॒म्ऽराज्ञी॑। ए॒धि॒। पत्युः॑। अस्त॑म्। प॒रा॒ऽइत्य॑। १.४३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जैसे (वृषा)बलवान् (सिन्धुः) समुद्र ने (नदीनाम्) नदियों का (साम्राज्यम्) साम्राज्य [चक्रवर्ती राज्य, अपने लिये] (सुषुवे) उत्पन्न किया है। [हे वधू !] (एव) वैसेही (त्वम्) तू (पत्युः) पति के (अस्तम्) घर (परेत्य) पहुँचकर (सम्राज्ञी)राजराजेश्वरी [चक्रवर्ती रानी] (एधि) हो ॥४३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - बड़े लोगों की शिक्षाऔर आशीर्वाद से वधू सावधानी के साथ घर के सबकामों को अपने हाथ में लेकर महारानीबनकर रहे ॥४३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४३−(यथा) येन प्रकारेण (सिन्धुः) समुद्रः (नदीनाम्) सरिताम् (साम्राज्यम्) सार्वभौमत्वम्। चक्रवर्तिराज्यम् (सुषुवे) उत्पादयमास (वृषा)बलवान् (एव) तथा (त्वम्) (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) भव (पत्युः) (अस्तम्)गृहम् (परेत्य) प्राप्य ॥
४४ सम्राज्ञ्येधिश्वशुरेषु सम्राज्ञ्युत
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒श्वशु॑रेषु स॒म्राज्ञ्यु॒त दे॒वृषु॑।
नना॑न्दुः स॒म्राज्ञ्ये॑धि स॒म्राज्ञ्यु॒तश्व॒श्र्वाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒श्वशु॑रेषु स॒म्राज्ञ्यु॒त दे॒वृषु॑।
नना॑न्दुः स॒म्राज्ञ्ये॑धि स॒म्राज्ञ्यु॒तश्व॒श्र्वाः ॥
४४ सम्राज्ञ्येधिश्वशुरेषु सम्राज्ञ्युत ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Be thou supreme among fathers-in-law, supreme also among
brothers-in-law; be thou supreme over sister-in-law, supreme also over
mother-in-law.
Notes
The verse is RV. x. 85. 46, which, however, reads for a, s. śváśure
bhava; for b, s. śvaśrvā́m bhava; for c, nánāndari s. bhava;
for d, s. ádhi devṛ́ṣu; and MB. (i. 2. 20) agrees throughout with
RV. (śvaśryām in b must be a blunder). ⌊MP. i. 6. 6 follows RV.,
but with śvaśruvā́m in b: cf. Wint, p. 66.⌋
Griffith
Over thy husband’s fathers and his brothers be imperial queen. Over thy husband’s sister and, his mother bear supreme control.
पदपाठः
स॒म्ऽराज्ञी॑। ए॒धि॒। श्वशु॑रेषु। स॒म्ऽराज्ञी॑। उ॒त। दे॒वृषु॑। नना॑न्दृः। स॒म्ऽराज्ञी॑। ए॒धि॒। स॒म्ऽराज्ञी॑। उ॒त। श्व॒श्वाः। १.४४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] तू (श्वशुरेषु) अपने ससुर आदि [मेरे पिता आदि गुरु जनों] के बीच (सम्राज्ञी)राजराजेश्वरी, (उत) और (देवृषु) अपने देवरों [मेरे बड़े और छोटे भाइयों] के बीच (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो। (ननान्दुः) अपनी ननद [मेरी बहिन] की (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी, (उत) और (श्वश्र्वाः) अपनी सासु [मेरी माता] की (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो ॥४४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वधू विद्या और बुद्धिके बल से अपने कर्तव्यों में ऐसी चतुर हो कि ससुर, सासु, देवर, ननद आदि सब बड़े-छोटे जन उसकी बड़ी प्रतिष्ठा करें ॥४४॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।४६। और महर्षिदयानन्दकृत संस्काविधि विवाहप्रकरण में पति के घर पहुँचकरवधू-वर के हवन करने में व्याख्यात है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४४−(सम्राज्ञी) सम्यक् प्रकाशमाना।राजराजेश्वरी (एधि) भव (श्वशुरेषु) श्वशुरादिषु मान्येषु (सम्राज्ञी) (उत) अपि (देवृषु) म० ३९। पत्यः कनिष्ठज्येष्ठभ्रातृषु (ननान्दुः) नञि च नन्देः। उ० २।९८।नञ्+टुनदि सन्तोषे-ऋन् वृद्धिश्च। भर्तृभगिन्याः (सम्राज्ञी) (एधि) (उत) (श्वश्र्वाः) श्वशुरस्योकाराकारलोपश्च वक्तव्यः। वा० पा० ४।१।६८। श्वशुर-ऊङ्उकारस्य अकारस्य च लोपः। श्वशुरस्य भार्यायाः ॥
४५ याअकृन्तन्नवयन्याश्च तत्निरे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
याअकृ॑न्त॒न्नव॑य॒न्याश्च॑ तत्नि॒रे या दे॒वीरन्ताँ॑ अ॒भितोऽद॑दन्त।
तास्त्वा॑ज॒रसे॒ सं व्य॑य॒न्त्वायु॑ष्मती॒दं परि॑ धत्स्व॒ वासः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
याअकृ॑न्त॒न्नव॑य॒न्याश्च॑ तत्नि॒रे या दे॒वीरन्ताँ॑ अ॒भितोऽद॑दन्त।
तास्त्वा॑ज॒रसे॒ सं व्य॑य॒न्त्वायु॑ष्मती॒दं परि॑ धत्स्व॒ वासः॑ ॥
४५ याअकृन्तन्नवयन्याश्च तत्निरे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- They (f.) who spun, wove, and who stretched [the web], what
divine ones (f.) gave the ends about, let them wrap thee in order to old
age; [as] one long-lived put about thee this garment.
Notes
Ppp. combines in a yā ’kṛntan. The verse is found also in PCS. (i.
4. 13), HGS. (i. 4. 2), MB. (i. 1. 5). All end a with yā atanvata;
in b, all insert ca after yās; and PGS. reads tantūn abhito*
tatantha, and MB. devyo antān abhito tatantha; for c, they have
tās tvā devīr (MB. devyo) jarasā (PGS. -se) saṁvyayantv (PGS.
-yasva); in d, only HGS. has āyuṣmān. ⌊Cf. MP. ii. 2. 5, and
Wint., p. 47, and MGS. i. 10. 8 and p. 154.⌋ The verse has an extra
syllable in a which the Anukr. does not notice. In Kāuś. 76. 4, this
and vs. 53 accompany the putting of a hitherto unused garment upon the
bride. ⌊The same two vss. are referred to by the name paridhāpanīye at
79. 13: so the schol.⌋ *⌊This sandhi is of course not to be laid at the
door of the accurate Stenzler: it is doubtless the true reading of PGS.,
and occurs (not only in MB., but also) in Bhavadeva’s Paddhati, as
Stenzler observes in his Transl., p. 12.⌋
⌊The corruption of abhito ‘dadanta (so AV.) to abhito tatantha (PGS.
MB. Bhavadeva) is of peculiar text-critical interest, not merely because
it is a senseless and unintelligent perversion, but because it is
revealed as a corruption by the ignorant failure of the persons
responsible for it to change their sandhi in such a way (abhitas
tatantha) as to fit their blunder.—This interest is heightened by the
fact that we can see the probable occasion of the perversion, to wit,
the occurrence in the preceding pāda of the words for ‘spun,’ ‘wove,’
‘stretched web’ (root tan). These technical terms of clothmaking lend
a semblance of appropriateness to the introduction of tantūn tan
‘stretch the warp’ in pāda b.—Roth had already booked tatantha
among the cases of exchange between sonants and surds at ZDMG. xlviii.
108.⌋
Griffith
They who have spun, and woven, and extended Goddesses who have drawn the ends together, May they invest thee for full long existence. Heiress of lengthen- ed life, endue this garment,
पदपाठः
याः। अकृ॑न्तन्। अव॑यन्। याः। च॒। त॒त्नि॒रे। याः। दे॒वीः। अन्ता॑न्। अ॒भितः॑। अद॑दन्त। ताः। त्वा॒। ज॒रसे॒। सम्। व्य॒य॒न्तु॒। आयु॑ष्मती। इ॒दम्। परि॑। ध॒त्स्व॒। वासः॑। १.४५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहती गर्भा त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (याः) जिन [स्त्रियों]ने (अकृन्तन्) काता है, (च) और (याः) जिन्होंने (तत्निरे) तन्तुओं को फैलाया है, और (अवयन्) बुना है, और (याः देवीः) जिन देवियों ने (अन्तान्) [वस्त्र के] आँचल (अभितः) सब प्रकार से (अददन्त) दिये हैं। [हे वधू !] (ताः) वे सब स्त्रियाँ (त्वा)तुझे (जरसे) बड़ाई के लिये (सं व्ययन्तु) वस्त्र पहिनावें, (आयुष्मती) बड़ीआयुवाली तू (इदं वासः) इस वस्त्र को (परि धत्स्व) धारण कर ॥४५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - बड़ी-बड़ी गुणवतीस्त्रियाँ आदर करके सुन्दर-सुन्दर वस्त्र वधू को देकर पहिनावें और आशीर्वाददेवें कि वह प्रसन्न रहकर बड़ा यश प्राप्त करे ॥४५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४५−(याः) स्त्रियः (अकृन्तन्) कृती वेष्टने, छेदने च। वेष्टितवत्यः (अवयन्) वेञ् तन्तुसन्ताने।ओतवत्यः (याः) (च) (तत्निरे) तन्तून् विस्तारितवत्यः (याः) (देवीः) देव्यः।दिव्यगुणाः स्त्रियः (अन्तान्) वस्त्रान्तान् (अभितः) सर्वतः (अददन्त) दद दाने।दत्तवत्यः (ताः) (त्वा) त्वां वधूम् (जरसे) स्तुतिलाभाय (सं व्ययन्तु) व्येञ्स्यूतौ, वरणे च। आच्छादयन्तु (आयुष्मती) पूर्णजीवनवती त्वम् (इदम्) (परि धत्स्व)परिधारय (वासः) वस्त्रम् ॥
४६ जीवं रुदन्तिवि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
जी॒वं रु॑दन्ति॒वि न॑यन्त्यध्व॒रं दी॒र्घामनु॒ प्रसि॑तिं दीध्यु॒र्नरः॑।
वा॒मं पि॒तृभ्यो॒ यइ॒दं स॑मीरि॒रे मयः॒ पति॑भ्यो ज॒नये॑ परि॒ष्वजे॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
जी॒वं रु॑दन्ति॒वि न॑यन्त्यध्व॒रं दी॒र्घामनु॒ प्रसि॑तिं दीध्यु॒र्नरः॑।
वा॒मं पि॒तृभ्यो॒ यइ॒दं स॑मीरि॒रे मयः॒ पति॑भ्यो ज॒नये॑ परि॒ष्वजे॑ ॥
४६ जीवं रुदन्तिवि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- They bewail the living one (m.); they lead away the sacrifice
(adhvará); the men sent their thoughts after ⌊root dhī…ánu⌋ a long
reach (prásiti); what is lovely (vāmá) for the Fathers who came
together here; joy to the husbands for embracing the wife.
Notes
This is a literal version of this extremely obscure verse. RV. (x. 40.
10) reads in a ví mayante adhvaré; in b, the equivalent
dīdhiyus ⌊so also Ppp.⌋; in c, the equivalent sameriré; in
d, jánayas (for our janáye, which might better have been emended
in the edition to jánaye); ⌊Ppp. reads and combines janayaṣ⌋. The
Āpast. text (Wint., p. 42 ⌊MP. i. 1. 6⌋) reads at the beginning jīvām.
The verse is used, with 2. 59, in Kāuś. 79. 30, simply to accompany a
libation, at the very close of the marriage rites. In two Sūtras (AGS.
⌊i. 8. 4⌋ and śGS. ⌊i. 15. 2⌋) it is directed to be used when the bride,
on the journey to her new home, wails or cries; this is plainly only on
account of the word ‘bewail’ (rudanti) at the beginning. ⌊Cf. Lanman’s
Skt. Reader, p. 387; Winternitz, p. 42; and Bloomfield, who devotes 9
pages to the stanza in AJP. xxi. 411-9.⌋
Griffith
They mourn the living, they arrange the sacred rite: the men have set their thoughts upon a distant cast: They who have brought the Fathers this delightful gift, when wives allowed their lords the joy of their embrace.
पदपाठः
जी॒वम्। रु॒द॒न्ति॒। वि। न॒य॒न्ति॒। अ॒ध्व॒रम्। दी॒र्घाम्। अनु॑। प्रऽसि॑तिम्। दी॒ध्युः॒। नरः॑। वा॒मम्। पि॒तृऽभ्यः। ये। इ॒दम्। स॒म्ऽई॒रि॒रे। मयः॑। पतिः॑ऽभ्यः। ज॒नये॑। प॒रि॒ऽस्वजे॑। १.४६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जगती
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नरः) नर [नेता लोग] (जीवम्) [संसार के] जीवन के लिये [प्रेम से] (रुदन्ति) आँसू बहाते हैं, (अध्वरम्) हिंसारहित व्यवहार को (वि) विविध प्रकार (नयन्ति) ले चलते हैं, और (दीर्घाम्) लम्बी (प्रसितिम् अनु) प्रबन्ध क्रिया के साथ (दीध्युः) प्रकाशमानहोते हैं। (ये) जिन [पुरुषार्थियों] ने (पितृभ्यः) पिता आदि मान्य लोगों के लिये (इदम्) यह (वामम्) श्रेष्ठ पदार्थ (समीरिरे) पहुँचाया है, (पतिभ्यः) उन रक्षकपुरुषों के लिये [पति से] (जनये परिष्वजे) पत्नी का मिलना (मयः) सुखदायक है ॥४६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - करुणाशील, शूरवीरपुरुष गृहाश्रम में हिंसा त्यागकर दृढ़ प्रबन्ध करके यश पाते हैं। जो मनुष्य इसश्रेष्ठ सिद्धान्त को विद्वानों में फैलाते हैं, वे विद्वान् गृहाश्रमी स्त्री-पुरुषों से विद्यावृद्धि में सुख पाते हैं ॥४६॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१०।४०।१०, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू को पितृ-गृह छोड़ते समय आँख में आँसू भर लाने पर वर के बोलने में लिखा है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४६−(जीवम्)संसारस्य जीवनार्थम् (रुदन्ति) अश्रून् विमोचयन्ति (वि) विविधम् (नयन्ति)प्रापयन्ति। गमयन्ति (अध्वरम्) हिंसारहितं व्यवहारम् (दीर्घाम्) (अनु) अनुसृत्य (प्रसितिम्) प्रबन्धक्रियाम् (दीध्युः) दीधीङ् दीप्तौ। प्रकाशन्ते (नरः)नयतेर्डिच्च। उ० २।१०। णीञ् प्रापणे-ऋ, डित्। नेतारः पुरुषाः (वामम्) श्रेष्ठंपदार्थम् (पितृभ्यः) पितृतुल्यमाननीयेभ्यः (ये) पुरुषाः (इदम्) (समीरिरे)प्रेरितवन्तः (मयः) सुखप्रद कर्म (पतिभ्यः) तेभ्यः पालकेभ्यः (जनये) भार्यायै (परिष्वजे) क्विबन्तः प्रयोगः। संगमाय। संगन्तुम् ॥
४७ स्योनं ध्रुवम्प्रजायै
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्यो॒नं ध्रु॒वंप्र॒जायै॑ धारयामि॒ तेऽश्मा॑नं दे॒व्याः पृ॑थि॒व्या उ॒पस्थे॑।
तमाति॑ष्ठानु॒माद्या॑ सु॒वर्चा॑ दी॒र्घं त॒ आयुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्यो॒नं ध्रु॒वंप्र॒जायै॑ धारयामि॒ तेऽश्मा॑नं दे॒व्याः पृ॑थि॒व्या उ॒पस्थे॑।
तमाति॑ष्ठानु॒माद्या॑ सु॒वर्चा॑ दी॒र्घं त॒ आयुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥
४७ स्योनं ध्रुवम्प्रजायै ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I maintain for thee, in order to progeny, a pleasant, firm
(dhruvá) stone in the lap of the divine earth; stand thou on that, one
to be exulted after, of excellent glory; let Savitar make for thee a
long life-time.
Notes
Ppp. puts syonam after dhruvam in a, reads pṛthivyām in b,
and tam ā rohā ’numadyā suvīrā for c, and tvā for te in d
⌊i.e., it has tvāyus for ta āyus⌋. In Kāuś. 76. 15, the first
half-verse accompanies the setting of a stone in a lump of dung, and in
76. 16 the second accompanies the stepping of the bride upon it: this
at the bride’s home; and the same is repeated (Kāuś. 77. 17, 19) in the
new home of the pair after their arrival there. Pāda a has 12
syllables, unnoticed by the Anukr.
Griffith
I place upon the lap of Earth the Goddess, a firm auspicious stone to bring thee children. Stand on it, thou, greeted with joy, resplendent: a long long life may Savitar vouchsafe thee.
पदपाठः
स्यो॒नम्। ध्रु॒वम्। प्र॒ऽजायै॑। धा॒र॒या॒मि॒। ते॒। अश्मा॑नम्। दे॒व्याः। पृ॒थि॒व्याः॒। उ॒पऽस्थे॑। तम्। आ। ति॒ष्ठ॒। अ॒नु॒ऽमाद्या॑। सु॒ऽवर्चाः॑। दी॒र्घम्। ते॒। आयुः॑। स॒वि॒ता। कृ॒णो॒तु॒। १.४७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (स्योनम्) सुखदायक, (ध्रुवम्) दृढ़ (अश्मानम्) पत्थर को (देव्याः) दिव्य गुणवाली (पृथिव्याः) पृथिवीकी (उपस्थे) गोद में (प्रजायै) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि] के निमित्त (ते) तेरेलिये (धारयामि) मैं [पति] रखता हूँ। (अनुमाद्या) निरन्तर हर्ष मनाती हुई और (सुवर्चाः) बड़ी प्रतापवाली तू (तम्) उस [पत्थर] पर (आ तिष्ठ) खड़ी हो, (सविता)सबका उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (ते) तेरी (आयुः) आयु को (दीर्घम्) लम्बी (कृणोतु) करे ॥४७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार पृथिवी परपत्थर पहाड़ दृढ़ होकर रहते हैं, इसी प्रकार वधू-वर दृढ़ प्रतिज्ञा के साथगृहाश्रम को सिद्ध करके आनन्द पावें ॥४७॥इस मन्त्र से वधू को वर शिला पर खड़ाकरावे। महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू के लिये शिला परचढ़ाना अन्य मन्त्र से लिखा है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४७−(स्योनम्) सुखदायकम् (ध्रुवम्) दृढम् (प्रजायै) सन्तानसेवकादिनिमित्ताय (धारयामि) स्थापयामि (ते) तुभ्यम् (अश्मानम्)शिलाखण्डम् (देव्याः) दिव्यगुणवत्याः (पृथिव्याः) (उपस्थे) अङ्के (तम्) अश्मानम् (आ तिष्ठ) आरोह (अनुमाद्या) निरन्तरहर्षयुक्ता (सुवर्चाः) महातेजस्विनी (दीर्घम्) चिरम् (ते) तव (आयुः) जीवनम् (सविता) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (कृणोतु)करोतु ॥
४८ येनाग्निरस्याभूम्या हस्तम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
येना॒ग्निर॒स्याभूम्या॑ हस्तं ज॒ग्राह॒ दक्षि॑णम्।
तेन॑ गृह्णामि ते॒ हस्तं॒ मा व्य॑थिष्ठा॒मया॑ स॒ह प्र॒जया॑ च॒ धने॑न च ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
येना॒ग्निर॒स्याभूम्या॑ हस्तं ज॒ग्राह॒ दक्षि॑णम्।
तेन॑ गृह्णामि ते॒ हस्तं॒ मा व्य॑थिष्ठा॒मया॑ स॒ह प्र॒जया॑ च॒ धने॑न च ॥
४८ येनाग्निरस्याभूम्या हस्तम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Wherewith Agni grasped the right hand of this earth, therewith grasp
I thy hand; do not stagger in company with me, with both progeny and
riches.
Notes
The last pāda ⌊prajayā etc.⌋ is wanting in Ppp., ⌊which puts the vs.
after 50⌋. The verse accompanies in Kāuś. 76. 19 the seizing of the
bride’s hand to lead her about the fire. The Anukr. seems to overlook
the vs.; though, if the last pāda were omitted, it would fall under the
general definition of the hymn, as an anuṣṭubh. ⌊As to vss. 48-51, cf.
Wint., p. 48 f. For the pāṇigrahaṇa, he cites Rāmāyaṇa, i. 75
(Gorresio: or i. 73 Schlegel).⌋
Griffith
As Agni in the olden time took the right hand of this our Earth. Even so I take and hold thy hand: be not disquieted, with me, with children and with store of wealth.
पदपाठः
येन॑। अ॒ग्निः। अ॒स्याः। भूम्याः॑। हस्त॑म्। ज॒ग्राह॑। दक्षि॑णम्। तेन॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। ते॒। हस्त॑म्। मा। व्य॒थि॒ष्ठाः॒। मया॑। स॒ह। प्र॒ऽजया॑। च॒। धने॑न। च॒। १.४८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पथ्यापङ्क्ति
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस [सामर्थ्य]से (अग्निः) तेजस्वी पुरुष ने (अस्याः भूम्याः) इस भूमि [प्रत्यक्ष भूमि के समानधैर्यवती अपनी पत्नी] का (दक्षिणम्) बड़े बलवाले वा गतिवाले [अथवा दाहिने] (हस्तम्) हाथ को (जग्राह) पकड़ा है। (तेन) उसी [सामर्थ्य] से (ते हस्तम्) तेरेहाथ को (गृह्णामि) मैं [पति] पकड़ता हूँ, (मया सह) मेरे साथ रहकर (प्रजया) प्रजा [सन्तान सेवक आदि] के साथ (च च) और (धनेन) धन के साथ (मा व्यथिष्ठाः) व्यथा कोमत प्राप्त हो ॥४८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार पूर्वज लोगपाणिग्रहण करके उपकार करते आये हैं, इसी प्रकार वधू-वर पाणिग्रहण करके प्रीति केसाथ परस्पर हित करते हुए सन्तान आदि का पालन और धन की वृद्धि करें ॥४८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४८−(येन)सामर्थ्येन (अग्निः) तेजस्वी पुरुषः (अस्याः) प्रत्यक्षायाः (भूम्याः) भूमिसमानधैर्यवत्याःस्वपत्न्याः (हस्तम्) करम् (जग्राह) गृहीतवान् (दक्षिणम्) द्रुदक्षिभ्यामिनन्।उ० २।५०। दक्ष गतिवृद्ध्योः-इनन्। बलवन्तम्। गतिमन्तम्। दक्षिणभागस्थम् (तेन)सामर्थ्येन (गृह्णामि) (ते) तव (हस्तम्) (मा व्यथिष्ठाः) व्यथां मा प्राप्नुहि (मया) (सह) (प्रजया) (च) (धनेन) च ॥
४९ देवस्ते सविताहस्तम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दे॒वस्ते॑ सवि॒ताहस्तं॑ गृह्णातु॒ सोमो॒ राजा॑ सुप्र॒जसं॑ कृणोतु।
अ॒ग्निः सु॒भगां॑ ज॒तवे॑दाः॒पत्ये॒ पत्नीं॑ ज॒रद॑ष्टिं कृणोतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दे॒वस्ते॑ सवि॒ताहस्तं॑ गृह्णातु॒ सोमो॒ राजा॑ सुप्र॒जसं॑ कृणोतु।
अ॒ग्निः सु॒भगां॑ ज॒तवे॑दाः॒पत्ये॒ पत्नीं॑ ज॒रद॑ष्टिं कृणोतु ॥
४९ देवस्ते सविताहस्तम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let god Savitar grasp thy hand; let king Soma make thee to have good
offspring; let Agni, Jātavedas, make the spouse well-portioned,
long-lived, for her husband.
Notes
Ppp. has this verse next after our vs. 47, by removing ⌊as noted⌋ 48 to
after 50. The Anukr. takes no notice of the deficiency of two syllables
in c.
Griffith
God Savitar shall take thy hand, and Soma the King shall make thee rich in goodly offspring, Let Agni, Lord Omniscient, make thee happy, till old old age a wife unto thy husband.
पदपाठः
दे॒वः। ते॒। स॒वि॒ता। हस्त॑म्। गृ॒ह्णा॒तु॒। सोमः॑। राजा॑। सु॒ऽप्र॒जस॑म्। कृ॒णो॒तु॒। अ॒ग्निः। सु॒ऽभगा॑म्। जा॒तऽवे॑दाः। पत्ये॑। पत्नी॑म्। ज॒रत्ऽअ॑ष्टिम्। कृ॒णो॒तु॒। १.४९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देवः) व्यवहार मेंचतुर, (सविता) सर्वप्रेरक [परमेश्वर] (ते हस्तम्) तेरे हाथ को (गृह्णातु) पकड़े [सहाय करे], (राजा) ऐश्वर्यवान् (सोमः) सर्वोत्पादक [परमात्मा] (सुप्रजसम्)सुन्दर सन्तानवाली (कृणोतु) करे। (जातवेदाः) धनों का प्राप्त करानेवाला (अग्निः)सर्वव्यापक [जगदीश्वर] (पत्ये) पति के लिये (पत्नीम्) पत्नी को (सुभगाम्) बड़ेऐश्वर्यवाली और (जरदष्टिम्) स्तुति के साथ प्रवृत्तिवाली वा भोजनवाली (कृणोतु)करे ॥४९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वधू-वर सदा परमेश्वरकी उपासना करके परस्पर सहाय करने, सन्तान को सुशिक्षित बलवान् बनाने, और धनों केसङ्ग्रह करने में तत्पर रहकर संसार में कीर्तिमान् होवें ॥४९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४९−(देवः)व्यवहारकुशलः (ते) तव (सविता) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (हस्तम्) (गृह्णातु) (सोमः)सर्वोत्पादकः (राजा) ऐश्वर्यवान् (सुप्रजसम्) सुसन्तानयुक्ताम् (कृणोतु) करोतु (अग्निः) सर्वव्यापको जगदीश्वरः (सुभगाम्) बह्वैश्वर्यवतीम् (जातवेदाः) जातानिप्राप्तानि वेदांसि धनानि यस्मात् सः (पत्ये) स्वामिने (पत्नीम्) (जरदष्टिम्) अ०२।२८।५। जरतेः स्तुतिकर्मणः [निरु० १०।८]-अतृन्+अशू व्याप्तौ, अश भोजनेवा-क्तिन्। जरता स्तुत्या सह अष्टिः कार्यव्याप्तिर्भोजनं वा यस्यास्तथाभूताम् (कृणोतु) ॥
५० गृह्णामि तेसौभगत्वाय
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
गृ॒ह्णामि॑ तेसौभग॒त्वाय॒ हस्तं॒ मया॒ पत्या॑ ज॒रद॑ष्टि॒र्यथासः॑।
भगो॑ अर्य॒मा स॑वि॒तापुर॑न्धि॒र्मह्यं॑ त्वादु॒र्गार्ह॑पत्याय दे॒वाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
गृ॒ह्णामि॑ तेसौभग॒त्वाय॒ हस्तं॒ मया॒ पत्या॑ ज॒रद॑ष्टि॒र्यथासः॑।
भगो॑ अर्य॒मा स॑वि॒तापुर॑न्धि॒र्मह्यं॑ त्वादु॒र्गार्ह॑पत्याय दे॒वाः ॥
५० गृह्णामि तेसौभगत्वाय ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I grasp thy hand in order to good-fortune, that with me as husband
thou mayest be long-lived; Bhaga, Aryaman, Savitar, Purandhi
⌊púraṁdhi⌋—the gods have given thee to me in order to housewifeship.
Notes
The verse is RV. x. 85. 36, which varies only by reading at the
beginning gṛbhṇā́mi. MB. (i. 2. 16) has precisely the RV. form of the
verse; HGS. (i. 20. 1) and Āpast. (Wint., p. 49 ⌊MP. i. 3. 3⌋) read in
a suprajāstvāya, and HGS. has also gṛhnāmi and (at end of b)
asat. ⌊Cf. MGS. i. 10. 15 a, and p. 150.⌋ ⌊As to puraṁdhi, cf. WZKM.
iii. 268; and Pischel, Ved. Stud. i. 202-216.⌋
Griffith
I take thy hand in mine for happy fortune that thou mayst reach old age with me thy consort, Gods, Aryaman, Bhaga, Savitar, Purandhi, have given thee to be my household’s mistress.
पदपाठः
गृ॒ह्णामि॑। ते॒। सौ॒भ॒ग॒ऽत्वाय॑। हस्त॑म्। मया॑। पत्या॑। ज॒रतऽअ॑ष्टिः। यथा॑। असः॑। भगः॑। अ॒र्य॒मा। स॒वि॒ता। पुर॑म्ऽधिः। मह्म॑म्। त्वा॒। अ॒दुः॒। गार्ह॑ऽपत्याय। दे॒वाः। १.५०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (सौभगत्वाय) सौभाग्य [अर्थात् गृहाश्रम में सुख] के लिये (ते हस्तम्) तेरे हाथको (गृह्णामि) मैं [पति] पकड़ता हूँ, (यथा) जिससे (मया पत्या) मुझ पति के साथ (जरदष्टिः) स्तुति के साथ प्रवृत्तिवाली वा भोजनवाली (असः) तू रह। (भगः) सकलऐश्वर्यवाले, (अर्यमा) श्रेष्ठों का मान करनेवाले, (सविता) सबको प्रेरणाकरनेवाले, (पुरन्धिः) सब जगत् को धारण करनेवाले [परमेश्वर] और (देवाः) सबविद्वानों ने (मह्यम्) मुझको (त्वा) तुझे (गार्हपत्याय) गृहकार्य के लिये (अदुः)दिया है ॥५०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वधू-वर परमेश्वर औरविद्वानों को साक्षी करके परस्पर हाथ पकड़ कर दृढ़ प्रतिज्ञा करें कि हम दोनोंनिष्कपट परस्पर सहायक होकर परमेश्वर और विद्वानों की मर्यादा पर चलकर गृहाश्रमका कर्तव्य सिद्ध करेंगे ॥५०॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३६, औरमहर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका विवाहविषय पृष्ठ २०८ में व्याख्यात है॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५०−(गृह्णामि) (ते) तव (सौभगत्वाय) सुभगत्वाय। गृहाश्रमे सुखप्राप्तये (हस्तम्)पाणिम् (मया) (पत्या) स्वामिना सह (जरदष्टिः) म० ४९। स्तुत्या सहप्रवृत्तियुक्ता भोजनयुक्ता वा (यथा) येन प्रकारेण (असः) त्वं भवेः (भगः)सकलैश्वर्यसम्पन्नः (अर्यमा) श्रेष्ठानां मानकर्ता (सविता) सर्वप्रेरकः (पुरन्धिः) सर्वजगद्धारकः परमेश्वरः (मह्यम्) मदर्थम् (त्वा) त्वां वधूम् (अदुः)दत्तवन्तः (गार्हपत्याय) गृहकार्यसिद्धये (देवाः) विद्वांसः ॥
५१ भगस्तेहस्तमग्रहीत्सविता हस्तमग्रहीत्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
भग॑स्ते॒हस्त॑मग्रहीत्सवि॒ता हस्त॑मग्रहीत्।
पत्नी॒ त्वम॑सि॒ धर्म॑णा॒हं गृ॒हप॑ति॒स्तव॑॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
भग॑स्ते॒हस्त॑मग्रहीत्सवि॒ता हस्त॑मग्रहीत्।
पत्नी॒ त्वम॑सि॒ धर्म॑णा॒हं गृ॒हप॑ति॒स्तव॑॥
५१ भगस्तेहस्तमग्रहीत्सविता हस्तमग्रहीत् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Bhaga hath grasped thy hand; Savitar hath grasped thy hand; thou art
[my] spouse by ordinance (dhárman), I thy house-lord.
Notes
Ppp. reads dhātā for bhagas in a, inserts te before hastam
in b, and adds after b two pādas: bhagas te h. a. and aryamā
te h. a., ⌊then finishing with our c, d⌋. One of the subsidiary
treatises (see note to Kāuś. 76. 10) substitutes the verse for vs. 20
above (see note there).
Griffith
Bhaga and Savitar the God have clasped that hand of thine in theirs, By rule and law thou art my wife: the master of thy house am I.
पदपाठः
भगः॑। ते॒। हस्त॑म्। अ॒ग्र॒ही॒त्। स॒वि॒ता। हस्त॑म्। अ॒ग्र॒ही॒त्। पत्नी॑। त्वम्। अ॒सि॒। धर्म॑णा। अ॒हम्। गृ॒हऽप॑तिः। तव॑। १.५१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (भगः) ऐश्वर्यवान् [परमात्मा] ने (ते) तेरा (हस्तम्) हाथ (अग्रहीत्) पकड़ा है [सहाय किया है], (सविता) सर्वोत्पादक जगदीश्वर ने (हस्तम्) हाथ (अग्रहीत्) पकड़ा है। (धर्मणा)धर्म से, (त्वम्) तू (पत्नी) [मेरी] पत्नी [पालन करनेवाली] (असि) है, (अहम्) मैं (तव) तेरा (गृहपतिः) गृहपति [घर का पालन करनेवाला हूँ] ॥५१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पति-पत्नी दृढ़प्रतिज्ञा करें कि परमेश्वर के अनुग्रह से हम दोनों मिले हैं, हम दोनों मिलकरगृहाश्रम में धर्ममार्ग पर चलेंगे और परस्पर सहाय करेंगे ॥५१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५१−(भगः)ऐश्वर्यवान् परमात्मा (ते) तव (हस्तम्) (अग्रहीत्) गृहीतवान् (सविता)सर्वोत्पादको जगदीश्वरः (हस्तम्) (अग्रहीत्) (पत्नी) पालयित्री (त्वम्) (असि) (धर्मणा) शास्त्रविहितकर्मणा (अहम्) (गृहपतिः) गृहस्वामी (तव) ॥
५२ ममेयमस्तुपोष्या मह्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ममे॒यम॑स्तु॒पोष्या॒ मह्यं॑ त्वादा॒द्बृह॒स्पतिः॑।
मया॒ पत्या॑ प्रजावति॒ सं जी॑व श॒रदः॑श॒तम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ममे॒यम॑स्तु॒पोष्या॒ मह्यं॑ त्वादा॒द्बृह॒स्पतिः॑।
मया॒ पत्या॑ प्रजावति॒ सं जी॑व श॒रदः॑श॒तम् ॥
५२ ममेयमस्तुपोष्या मह्यम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Be this woman mine, bringing prosperity (pósya); Brihaspati hath
given thee to me; in company with me ⌊as husband⌋ do thou live, rich in
offspring, a hundred autumns.
Notes
Bp. and Bs.p.m. give in c (as does Ppp.) prajā́vatī, and I.K.
prajā́vati; prajā́vatī is evidently the preferable reading; ⌊and is
implied in the translation⌋. ⌊Of SPP’s authorities, 4 have prajā́vatī
against 6 with prajāvati (which latter he adopts): but not less than 7
have (like W’s I.K.) the impossible prajā́vati, which supports both
readings or neither!⌋ The verse is found also in PGS. i. 8. 19, and in a
khila to RV. x. 85 (Aufrecht², p. 682); both have prajāvatī; in
a, both have dhruvāi ’dhi poṣye (RV. -ṣyā) mayi. ⌊See also MP.
i. 8. 9: that also has prajā́vatī.⌋
Griffith
Be it my care to cherish her: Brihaspati hath made thee mine. A hundred autumns live with me thy husband, mother of my sons!
पदपाठः
मम॑। इ॒यम्। अ॒स्तु। पोष्या॑। मह्य॑म्। त्वा॒। अ॒दा॒त्। बृ॒ह॒स्पतिः॑। मया॑। पत्या॑। प्र॒जा॒ऽव॒ति॒। सम्। जी॒व॒। श॒रदः॑। श॒तम्। १.५२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इयम्) यह [पत्नी] (मम) मेरे (पोष्या) पोषणयोग्य (अस्तु) होवे, (मह्यम्) मुझको (त्वा) तुझे (बृहस्पतिः) बड़े लोकों के स्वामी [परमात्मा] ने (अदात्) दिया है। (प्रजावति) हेश्रेष्ठ प्रजावाली ! तू (मया पत्या) मुझ पति के साथ (सम्) मिलकर (शतम्) सौ (शरदः) वर्षों तक (जीव) जीती रहे ॥५२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पति को योग्य है किवस्त्र, अलंकार आदि पदार्थों से पत्नी का सन्मान करता रहे, जिससे दम्पती प्रसन्नरहकर सन्तान आदि का पालन-पोषण करते हुए पूर्ण आयु भोगें ॥५२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५२−(मम) (इयम्)पत्नी (अस्तु) (पोष्या) पोषणीया (मह्यम्) पत्ये (त्वा) त्वां पत्नीम् (अदात्)दत्तवान् (बृहस्पतिः) बृहतां लोकानां पालकः परमात्मा (मया) (पत्या) भर्त्रा (प्रजावति) हे सन्तानसेवकादियुक्ते (सम्) मिलित्वा (जीव) प्राणान् धारय (शरदः)वर्षाणि (शतम्) ॥
५३ त्वष्टा वासोव्यदधाच्छुभे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वष्टा॒ वासो॒व्य᳡दधाच्छु॒भे कं बृह॒स्पतेः॑ प्र॒शिषा॑ कवी॒नाम्।
तेने॒मां नारीं॑ सवि॒ताभग॑श्च सू॒र्यामि॑व॒ परि॑ धत्तां प्र॒जया॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वष्टा॒ वासो॒व्य᳡दधाच्छु॒भे कं बृह॒स्पतेः॑ प्र॒शिषा॑ कवी॒नाम्।
तेने॒मां नारीं॑ सवि॒ताभग॑श्च सू॒र्यामि॑व॒ परि॑ धत्तां प्र॒जया॑ ॥
५३ त्वष्टा वासोव्यदधाच्छुभे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Tvashṭar disposed (vi-dhā) the garment for beauty, by direction
of Brihaspati, of the poets; therewith let Savitar and Bhaga envelop
this woman, like Sūryā, with progeny.
Notes
In Kāuś. 76. 4, this verse is used with vs. 45, above ⌊which see⌋, with
dressing the bride in a new garment ⌊cf. Wint., p. 47⌋; and the same is
repeated in Kāuś. 79. 13 at another point in the ceremonies. The full
number of syllables is to be obtained in b only by a harsh
resolution. Ppp. has in c nāryaṁ ⌊cf. note to vs. 59⌋, and at the
end the decidedly better reading prajāyāi.
Griffith
Tvashtar, by order of the holy sages, hath laid on her Brihas- pati’s robe for glory, By means of this let Savitar and Bhaga surround this dame, like Surya, with her children.
पदपाठः
त्वष्टा॑। वासः॑। वि। अ॒द॒धा॒त्। शु॒भे। कम्। बृह॒स्पतेः॑। प्र॒ऽशिषा॑। क॒वी॒नाम्। तेन॑। इ॒माम्। नारी॑म्। स॒वि॒ता। भगः॑। च॒। सू॒र्याम्ऽइ॑व। परि॑। ध॒त्ता॒म्। प्र॒ऽजया॑। १.५३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (त्वष्टा)सूक्ष्मदर्शी [आचार्य] (बृहस्पतेः) बड़ी वेदवाणियों की रक्षिका [बृहस्पतिपदवीवाली स्त्री] के (शुभे) शुभ [आनन्द] के लिये (कवीनाम्) बुद्धिमानों की (प्रशिषा) अनुमति से (कम्) आनन्द के साथ (वासः) वस्त्र [वेष] (वि) विशेष करके (अदधात्) दिया है। (तेन) इस कारण से (सूर्याम् इव) सूर्य की चमक के समान [शोभायमान] (इमाम् नारीम्) इस नारी [नर की पत्नी] को (सविता) प्रेरक विद्वानोंका समूह (च) और (भगः) ऐश्वर्यवान् पति, दोनों (प्रजया) प्रजा [सन्तान सेवक आदि]के साथ (परि) सब ओर से (धत्ताम्) धारण करें ॥५३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस विदुषी स्त्री नेविद्या प्राप्त करके विद्वानों के समाज में बृहस्पति, स्नातक आदि पदवी लेकरविद्यासूचक वस्त्र अर्थात् वेष प्राप्त किया हो, विद्वान् लोग और पति उसकी सदाप्रतिष्ठा करें, जिससे वह उत्तम प्रजावाली होवे ॥५३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५३−(त्वष्टा)सूक्ष्मदर्श्याचार्यः (वासः) वस्त्रम्। वेषम् (वि) विशेषेण (अदधात्) दत्तवान् (शुभे) शुभाय। सुखाय (कम्) (बृहस्पतेः) बृहतीनां वेदवाणीनां रक्षिकायाः।बृहस्पतिपदवीयुक्तायाः स्त्रियाः (प्रशिषा) अनुमत्या (कवीनाम्) मेधाविनाम् (तेन)कारणेन (इमाम्) प्रसिद्धाम् (नारीम्) नरपत्नीम् (सविता) प्रेरको विद्वत्समूहः (भगः) ऐश्वर्यवान् पतिः (च) (सूर्याम् इव) सूर्यदीप्तिमिव शोभायमानाम् (परि)सर्वतः (धत्ताम्) धारयताम् (प्रजया) सन्तानसेवकादिना सह ॥
५४ इन्द्राग्नीद्यावापृथिवी मातरिश्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॑न्द्रा॒ग्नीद्यावा॑पृथि॒वी मा॑त॒रिश्वा॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ भगो॑ अ॒श्विनो॒भा।
बृह॒स्पति॑र्म॒रुतो॒ ब्रह्म॒ सोम॑ इ॒मां नारीं॑ प्र॒जया॑ वर्धयन्तु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॑न्द्रा॒ग्नीद्यावा॑पृथि॒वी मा॑त॒रिश्वा॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ भगो॑ अ॒श्विनो॒भा।
बृह॒स्पति॑र्म॒रुतो॒ ब्रह्म॒ सोम॑ इ॒मां नारीं॑ प्र॒जया॑ वर्धयन्तु ॥
५४ इन्द्राग्नीद्यावापृथिवी मातरिश्वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let Indra-and-Agni, heaven-and-earth, Mātariśvan, Mitra-and-Varuṇa,
Bhaga, both Aśvins, Brihaspati, the Maruts, the bráhman. Soma,
increase this woman with progeny.
Notes
Ppp. has again nāryaṁ in d. Only a is a real jagatī pāda,
even by number of syllables (and doubtless we are to read -pṛthvī́);
the second definition of it in the Anukr. notices this.
Griffith
May Indra-Agni, Heaven-Earth, Matarisvan, may Mitra-Varuna, Bhaga, both the Asvins, Brihaspati, the host of Maruts, Brahma, and Soma magnify this dame with offspring.
पदपाठः
इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। मा॒त॒रिश्वा॑। मि॒त्रावरु॑णा। भगः॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। बृह॒स्पतिः॑। म॒रुतः॑। ब्रह्म॑। सोमः॑। इ॒माम्। नारी॑म्। प्र॒ऽजया॑। व॒र्ध॒य॒न्तु॒। १.५४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भुरिक् त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राग्नी) बिजुलीऔर भौतिक अग्नि, (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि, (मित्रावरुणा) प्राण और अपान, (उभा) दोनों (अश्विना) दिन और रात्रि, (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाला [सूत्रात्मा वायु], (बृहस्पतिः) बड़े लोकों का रक्षक [आकाश], (सोमः) चन्द्रमा, (भगः) सेवनीय यश (ब्रह्म) अन्न, और (मरुतः) विद्वान् लोग (इमाम् नारीम्) इस नारीको (प्रजया) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि] से (वर्धयन्तु) बढ़ावें ॥५४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विदुषी स्त्री औरविद्वान् पुरुष को योग्य है कि संसार के सब पदार्थों को उपयोगी बनाकर सन्तान आदिको वृद्धियुक्त करें ॥५४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५४−(इन्द्राग्नी) विद्युत्पावकौ (द्यावापृथिवी)सूर्यभूमिलोकौ (मातरिश्वा) आकाशे गमनशीलः सूत्रात्मा वायुः (मित्रावरुणा)प्राणापानौ (भगः) सेवनीयं यशः (अश्विना) अहोरात्रौ (उभा) द्वौ (बृहस्पतिः) बृहतांलोकानां पालक आकाशः (मरुतः) विद्वांसः (ब्रह्म) अन्नम् (सोमः) चन्द्रः (इमाम्)विदुषाम् (नारीम्) नरपत्नीम् (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (वर्धयन्तु) उन्नयन्तु ॥
५५ बृहस्पतिःप्रथमः सूर्यायाः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
बृह॒स्पतिः॑प्रथ॒मः सू॒र्यायाः॑ शी॒र्षे केशाँ॑ अकल्पयत्।
तेने॒माम॑श्विना॒ नारीं॒ पत्ये॒सं शो॑भयामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
बृह॒स्पतिः॑प्रथ॒मः सू॒र्यायाः॑ शी॒र्षे केशाँ॑ अकल्पयत्।
तेने॒माम॑श्विना॒ नारीं॒ पत्ये॒सं शो॑भयामसि ॥
५५ बृहस्पतिःप्रथमः सूर्यायाः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Brihaspati first prepared (kḷp) the hairs on the head of Sūryā;
with this, O Aśvins, do we thoroughly adorn (śubh) this woman for her
husband.
Notes
It looks as if prathamás were an intrusion in a. ⌊in c, Ppp.
has for a third time nāryaṁ.⌋ In Kāuś. 79. 14 the verse is made to
accompany the parting of the bride’s hair with a blade of
darbha-grass; according to the paddhati, this verse and the next are
used together for the purpose.
Griffith
It was Brihaspati who first arranged the hair on Surya’s head, And therefore, O ye Asvins, we adorn this woman for her lord.
पदपाठः
बृह॒स्पतिः॑। प्र॒थ॒मः। सू॒र्यायाः॑। शी॒र्षे। केशा॑न्। अ॒क॒ल्प॒य॒त्। तेन॑। इ॒माम्। अ॒श्वि॒ना॒। नारी॑म्। पत्ये॑। सम्। शो॒भ॒या॒म॒सि॒। १.५५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पुरस्ताद् बृहती
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (प्रथमः) पहिले से हीवर्तमान (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े लोकों के स्वामी [परमेश्वर] ने (सूर्यायाः)प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या के (शीर्षे) मस्तक पर (केशान्) केशों को (अकल्पयत्) बनाया है। (तेन) इस [कारण] से (अश्विना) हे विद्याको प्राप्त दोनों [स्त्री-पुरुषों के समाज !] (इमाम् नारीम्) इस नारी को (पत्ये)पति के लिये (सम्) ठीक-ठीक (शोभयामसि) हम शोभायमान करते हैं ॥५५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने शिर केकेशों और वैसे ही शरीर के अङ्गों को अपने-अपने प्रयोजन के लिये सुडौल बनाया है।गुरुजनों को योग्य है कि वधू-वर को संसार के हित के लिये विद्या सुशीलता आदि सेसुशिक्षित करें कि वे अपने शरीर के अङ्गों को सुडौल और हृष्ट-पुष्ट रक्खें ॥५५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५५−(बृहस्पतिः) महतां लोकानां पालकः परमेश्वरः (प्रथमः) अग्रे वर्तमानः (सूर्यायाः) प्रेरिकायाः सूर्यवत्तेजस्विन्याः कन्यायाः (शीर्षे) मस्तके (केशान्) (अकल्पयत्) रचितवान् (तेन) कारणेन (इमाम्) विदुषीम् (अश्विनौ) हेप्राप्तविद्यौ स्त्रीपुरुषसमूहौ (नारीम्) नरपत्नीम् (पत्ये) स्वामिने (सम्)सम्यक् (शोभयामसि) शोभयामः। भूषयामः ॥
५६ इदं तद्रूपंयदवस्त
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒दं तद्रू॒पंयदव॑स्त॒ योषा॑ जा॒यां जि॑ज्ञासे॒ मन॑सा॒ चर॑न्तीम्।
तामन्व॑र्तिष्ये॒सखि॑भि॒र्नव॑ग्वैः॒ क इ॒मान्वि॒द्वान्वि च॑चर्त॒ पाशा॑न् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒दं तद्रू॒पंयदव॑स्त॒ योषा॑ जा॒यां जि॑ज्ञासे॒ मन॑सा॒ चर॑न्तीम्।
तामन्व॑र्तिष्ये॒सखि॑भि॒र्नव॑ग्वैः॒ क इ॒मान्वि॒द्वान्वि च॑चर्त॒ पाशा॑न् ॥
५६ इदं तद्रूपंयदवस्त ...{Loading}...
Whitney
Translation
- This [is] that form in which the young woman (yóṣā) dressed
herself; I desire to know with [my] mind the wife (jāyá) moving
about; I will go after her with nine-fold (? návagva) comrades: who,
knowing, unloosened (vi-cṛt) these fetters?
Notes
This obscure verse gets no light from Ppp., the other texts, or the
sūtras. The pada-text reads in c ánu: artiṣye; doubtless it is
only a contraction for ánu vartiṣye.
Griffith
This lovely form the maiden wears in spirit I long to look on as my wife approaching, Her will I follow with my nine companions. Who is the sage that loosed the bonds that held her?
पदपाठः
इ॒दम्। तत्। रू॒पम्। यत्। अव॑स्त। योषा॑। जा॒याम्। जि॒ज्ञा॒से॒। मन॑सा। चर॑न्तीम्। ताम्। अनु॑। अ॒र्ति॒ष्ये॒। सखि॑ऽभिः। नव॑ऽग्वैः। कः। इ॒मान्। वि॒द्वान्। वि। च॒च॒र्त॒। पाशा॑न्। १.५६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) यह (तत्) वह (रूपम्) रूप [सुन्दरता व स्वभाव] है, (यत्) जिसको (योषा) सेवनीय (वधू) ने (अवस्त) धारण किया है, (मनसा) विज्ञान के साथ (चरन्तीम्) चलती हुई (जायाम्)पत्नी को (जिज्ञासे) मैं जानना चाहता हूँ। (नवग्वैः) स्तुतियोग्य चरित्रवालेअथवा नवीन-नवीन विद्या को प्राप्त करने और करानेहारे (सखिभिः) मित्रों के सहित (ताम् अनु) उस [पत्नी] के साथ-साथ (अर्तिष्ये) मैं चलूँगा, (विद्वान्) विद्वान् (कः) प्रजापति [परमेश्वर] ने (इमान् पाशान्) इन [अविद्या के] फन्दों को (विचचर्त) खोल दिया है ॥५६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्या सुशीलता आदिगुणों से सुभूषित पति-पत्नी सुयोग्य इष्ट मित्रों सहित शुभ गुणों का आदर करकेपरस्पर हित करें और परमेश्वर को धन्यवाद दें कि जिसके अनुग्रह से ऐसा शुभ अवसरमिला है ॥५६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५६−(इदम्) इदानीं वर्तमानम् (तत्) दृश्यमानम् (रूपम्) सौन्दर्यम्स्वभावः (यत्) (अवस्त) आच्छादितवती। अधारयत् (योषा) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। युमिश्रणामिश्रणयोः-स प्रत्ययः। यद्वा युष सेवने-अच्, टाप्। मिश्रणयोग्या। सेवनीयापत्नी (जायाम्) पुत्रोत्पादिकां पत्नीम् (जिज्ञासे) ज्ञातुमिच्छामि (मनसा)मननेन। विज्ञानेन सह (चरन्तीम्) चलन्तीम् (ताम्) पत्नीम् (अनु) अनुसृत्य (अर्तिष्ये) ऋत गतौ। गमिष्यामि (सखिभिः) मित्रैः (नवग्वैः) णु स्तुतौ-अप्+गम्लृगतौ−ड्व प्रत्ययः। नवग्वाः=नवगतयो नवनीतगतयो वा-निरु० ११।१९। स्तोतव्यचरित्रैः।नवशिक्षाविद्याप्राप्तैः प्रापयितृभिश्च (कः) सर्वकर्ता प्रजापतिः (इमान्)विद्यमानान् (विचचर्त) चृती हिंसाग्रन्थनयोः-लिट्। विमोचितवान् (पाशान्)अविद्याबन्धान् ॥
५७ अहं विष्यामिमयि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒हं विष्या॑मि॒मयि॑ रू॒पम॑स्या॒ वेद॒दित्प॑श्य॒न्मन॑सः कु॒लाय॑म्।
न स्तेय॑मद्मि॒मन॒सोद॑मुच्ये स्व॒यं श्र॑थ्ना॒नो वरु॑णस्य॒ पाशा॑न् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒हं विष्या॑मि॒मयि॑ रू॒पम॑स्या॒ वेद॒दित्प॑श्य॒न्मन॑सः कु॒लाय॑म्।
न स्तेय॑मद्मि॒मन॒सोद॑मुच्ये स्व॒यं श्र॑थ्ना॒नो वरु॑णस्य॒ पाशा॑न् ॥
५७ अहं विष्यामिमयि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I loosen (vi-sā) in me the form of her; he verily shall know,
seeing the nest of mind; I eat not stolenly; I was freed (ud-muc) by
mind, myself untying (śrath) the fetters of Varuṇa.
Notes
Ppp. reads at the end pāśam. This verse and doubtless the next (its
pratīka, which is pra tvā muñcāmi, would also designate vs. 19
above) are used, with vii. 78. 1, by Vāit. 4. 11, to accompany the
ungirding of the sacrificer’s wife. Both are used also by Kāuś. 76. 28
with the ungirding of the bride.
Griffith
I free her: he who sees, within my bosom, my heart’s nest knows how her fair form hath struck me. I taste no stolen food: myself untying Varuna’s nooses I am freed in spirit.
पदपाठः
अ॒हम्। वि। स्या॒मि॒। मयि॑। रू॒पम्। अ॒स्याः॒। वेद॑त्। इत्। पश्य॑न्। मन॑सः। कु॒लाय॑म्। न। स्तेय॑म्। अ॒द्मि॒। मन॑सा। उत्। अ॒मु॒च्ये॒। स्व॒यम्। अ॒श्ना॒नः। वरु॑णस्य। पाशा॑न्। १.५७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्याः) इस [पत्नी]के (रूपम्) रूप [स्वभाव वा सौन्दर्य] को (मनसः) अपने मन का (कुलायम्) आधार (वेदत्) जानता हुआ और (पश्यन्) देखता हुआ (इत्) ही (अहम्) मैं [वर] (मयि) अपनेमें (वि ष्यामि) निश्चय करके धारण करता हूँ। (स्तेयम्) चोरी के पदार्थ को (न)नहीं (अद्मि) खाता हूँ, (मनसा) विज्ञान के साथ (वरुणस्य) रुकावट [अर्थात् विघ्न]के (पाशान्) फन्दों को (स्वयम्) अपने आप [अर्थात् पुरुषार्थ से] (श्रथ्नानः)ढीला करता हुआ (उत् अमुच्ये) मैं छूट गया हूँ ॥५७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् पति-पत्नीपरस्पर उत्तम गुण स्वभाव को हृदय में धारण करके विचारपूर्वक विघ्नों को हटाकरनिष्कपट होकर उन्नति करें ॥५७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५७−(अहम्) वरः (वि ष्यामि) व्यवसायेन निश्चयेनधारयामि (मयि) आत्मनि (रूपम्) स्वभावम्। सौन्दर्यम् (अस्याः) पत्न्याः (वेदत्)विदन्। जानन् (इत्) एव (पश्यन्) अवलोकयन् (मनसः) अन्तःकरणस्य (कुलायम्) आधारम् (न) निषेधे (स्तेयम्) स्तेन-यत्, नलोपः। चौर्यपदार्थम् (अद्मि) भक्षयामि (मनसा)विज्ञानेन (उत्) उत्कर्षेण (अमुच्ये) मुक्तोऽस्मि (स्वयम्) आत्मना। पुरुषार्थेन (श्रथ्नानः) शिथिलीकुर्वन् (वरुणस्य) आवरणस्य। विघ्नस्य (पाशान्) बन्धान् ॥
५८ प्र त्वामुञ्चामि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र त्वा॑मुञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॒द्येन॒ त्वाब॑ध्नात्सवि॒ता सु॒शेवाः॑।
उ॒रुं लो॒कंसु॒गमत्र॒ पन्थां॑ कृणोमि॒ तुभ्यं॑ स॒हप॑त्न्यै वधु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र त्वा॑मुञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॒द्येन॒ त्वाब॑ध्नात्सवि॒ता सु॒शेवाः॑।
उ॒रुं लो॒कंसु॒गमत्र॒ पन्थां॑ कृणोमि॒ तुभ्यं॑ स॒हप॑त्न्यै वधु ॥
५८ प्र त्वामुञ्चामि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I release thee from Varuṇa’s fetter, with which the very propitious
Savitar bound thee; wide space (loká), an easy road here, do I make
for thee, O bride (vadhū́), with thy husband.
Notes
The first half-verse is identical with vs. 19 a, b, and corresponds
with RV. x. 85. 24 a, b (which reads at end suśévaḥ). Ppp. reads
for a-b imāṁ vi ṣyāmi varuṇasya pāśaṁ tena tvā etc.; ⌊cf. the TS.
version of our 19 a⌋. ⌊As noted under vs. 19, Ppp. makes our 58 c,
d change place with our 19 c, d, reading, however, sūgam itra
for our sugám átra and sahapatnī vadhūḥ for our sahápatnyāi
vadhu.⌋ Vss. 58, 59, 61 appear to be overlooked by the Anukr.,
probably by a loss of something out of the text: this (11 + 11: 10 + 12
= 44) is an irregular triṣṭubh; ⌊the longer form pánthānam would
relieve the difficulty: cf. vs. 34, where, as between the longer and
shorter equivalent forms, our text is most clearly at fault⌋.
Griffith
Now from the bond of Varuna I loose thee, wherein the blessed Savitar hath bound thee. O bride, I give thee here beside thy husband fair space and room and pleasant paths to travel.
पदपाठः
प्र। त्वा॒ ॒। मु॒ञ्चा॒मि॒। वरु॑णस्य। पाशा॑त्। येन॑। त्वा॒। अब॑ध्नात्। स॒वि॒ता॒। सु॒ऽशेवाः॑। उ॒रुम्। लो॒कम्। सु॒गऽगम्। अत्र॑। पन्था॑म्। कृ॒णोमि॑। तुभ्य॑म्। स॒हऽप॑त्न्यै। व॒धु॒। १.५८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वधू !] (त्वा)तुझे (वरुणस्य) रुकावट [विघ्न] के (पाशात्) बन्धन से (प्र मुञ्चामि) मैं [वर]अच्छे प्रकार छुड़ाता हूँ, (येन) जिसके साथ (त्वा) तुझे (सुशेवाः) अत्यन्त सेवायोग्य (सविता) जन्मदाता पिता ने (अबध्नात्) बाँधा है। (वधु) हे वधू ! (सहपत्न्यै) पति के साथ वर्तमान (तुभ्यम्) तेरे लिये (अत्र) यहाँ[गृहाश्रम में] (उरुम्) चौड़ा (लोकम्) घर और (सुगम्) सुगम (पन्थाम्) मार्ग (कृणोमि) मैं [पति]बनाता हूँ ॥५८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस कन्या को पिता नेयोग्य पति के मिलने तक रोका था, वह कन्या योग्य पति के साथ सुखपूर्वक सुप्रबन्धकरके गृहाश्रम का कर्तव्य करे और उसी प्रकार पति भी पुरुषार्थ करके पत्नी के साथप्रीति से रहे ॥५८॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध ऊपर मन्त्र १९ में आ चुका है॥५८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५८−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः-म० १९ (उरुम्) विस्तृतम् (लोकम्) गृहम् (सुगम्)सुखेन गन्तव्यम् (अत्र) अस्मिन् गृहाश्रमे (पन्थाम्) पन्थानम् (कृणोमि) करोमि (तुभ्यम्) (सहपत्न्यै) पत्या सह वर्तमानायै (वधु) हे पत्नि ॥
५९ उद्यच्छध्वमपरक्षो हनाथेमाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उद्य॑च्छध्व॒मप॒रक्षो॑ हनाथे॒मां नारीं॑ सुकृ॒ते द॑धात।
धा॒ता वि॑प॒श्चित्पति॑मस्यै विवेद॒ भगो॒राजा॑ पु॒र ए॑तु प्रजा॒नन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उद्य॑च्छध्व॒मप॒रक्षो॑ हनाथे॒मां नारीं॑ सुकृ॒ते द॑धात।
धा॒ता वि॑प॒श्चित्पति॑मस्यै विवेद॒ भगो॒राजा॑ पु॒र ए॑तु प्रजा॒नन् ॥
५९ उद्यच्छध्वमपरक्षो हनाथेमाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Raise ye [your weapons]; may ye smite away the demon; set this
woman in what is well done; inspired Dhātar found for her a husband; let
king Bhaga go in front, foreknowing.
Notes
⌊Ppp. combines a-b thus: hanāthe imāṁ; and that is followed by⌋
nāryaṁ ⌊for nārīm, as in 53, 54, 55*⌋ in b. Kāuś. 76. 32 uses
vss. 59, 60, 62 at the setting out of the bride for her new home. This
verse also is an irregular triṣṭubh (11 + 10: 12 + 11 = 44). *⌊Cf.
the Ppp. variant bhūmyaṁ for bhū́mim, xiii. 2. 40, 41.⌋
Griffith
Lift up your weapons. Drive away the demons. Transport this woman to the world of virtue. Dilator, most wise, hath found for her a husband. Let him who knows, King Bhaga, go before her.
पदपाठः
उत्। य॒च्छ॒ध्व॒म्। अप॑। रक्षः॑। ह॒ना॒थ॒। इ॒माम्। नारी॑म्। सु॒ऽकृ॒ते। द॒धा॒त॒। धा॒ता। वि॒पः॒ऽचित्। पति॑म्। अ॒स्यै। वि॒वे॒द॒। भगः॑। राजा॑। पु॒रः। ए॒तु॒। प्र॒ऽजा॒नन्। १.५९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे वीरो ! शस्त्रोंको] (उत् यच्छध्वम्) उठाओ, (रक्षः) राक्षस को (अप हनाथ) मार हटाओ, (इमां नारीम्)इस नारी [नर की पत्नी] को (सुकृते) सुकृत [पुण्य कर्म] में (दधात) धारण करो। (विपश्चित्) बुद्धिमान् (धाता) धारण करनेवाले [परमेश्वर] ने (अस्यै) इस [वधू] केलिये (पतिम्) पति (विवेद) प्राप्त कराया है, (प्रजानन्) पहिले से जाननेवाला (राजा) प्रकाशमान (भगः) ऐश्वर्यवान् [परमात्मा] (पुरः) आगे (एतु) प्राप्त होवे॥५९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - धर्मात्मा वीर लोगप्रयत्न के साथ विघ्नों से पृथक् करके वधू-वर को धर्म में प्रवृत्त रक्खें, औरपरमात्मा का सदा ध्यान करें कि जिस ने कृपा करके विद्वान् पति-पत्नी को मिलायाहै, वही उनका सदा सहाय करे ॥५९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५९−(उत् यच्छध्वम्) शस्त्राणि उन्नयत (रक्षः)राक्षसम्। विघ्नम् (अप हनाथ) लेटि रूपम्। दूरं हत। मारयत (इमाम्) विदुषीम् (नारीम्) नरस्य पत्नीम् (सुकृते) पुण्यकर्मणि (दधात) धारयत (धाता) धारकःपरमेश्वरः (विपश्चित्) मेधावी (पतिम्) भर्तारम् (अस्यै) वध्वै (विवेद)प्रापितवान् (भगः) ऐश्वर्यवान् जगदीश्वरः (राजा) दीप्यमानः (पुरः) पुरस्तात्।अग्रे (एतु) गच्छतु (प्रजानन्) अग्रे विदन् ॥
६० भगस्ततक्षचतुरः पादान्भगस्ततक्ष
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
भग॑स्ततक्षच॒तुरः॒ पादा॒न्भग॑स्ततक्ष च॒त्वार्युष्प॑लानि।
त्वष्टा॑ पिपेश मध्य॒तोऽनु॒वर्ध्रा॒न्त्सा नो॑ अस्तु सुमङ्ग॒ली ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
भग॑स्ततक्षच॒तुरः॒ पादा॒न्भग॑स्ततक्ष च॒त्वार्युष्प॑लानि।
त्वष्टा॑ पिपेश मध्य॒तोऽनु॒वर्ध्रा॒न्त्सा नो॑ अस्तु सुमङ्ग॒ली ॥
६० भगस्ततक्षचतुरः पादान्भगस्ततक्ष ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Bhaga fashioned the four feet; Bhaga fashioned the four frame-pieces
(? úṣyala); Tvashṭar adorned (piś) the straps (? várdhra) along in
the middle; let her be to us of excellent omen.
Notes
Kāuś. uses the verse not only as stated in the preceding note, but also
(76. 25), more properly, with 2. 31, when the bride mounts the couch
(talpa). Ppp. reads in a padas; in b, catvāry aṣpadāni; in
c, madhyato varadhrāṁ. ⌊For úṣyala, cf. note to vi. 139. 3.⌋
⌊For the addition to the Anukr. at this point, see above, p. 740, ¶2,
and especially the note to XV. 5. 7.⌋
Griffith
Bhaga hath formed the four legs of the litter, wrought the four pieces that compose the frame-work. Tvashtar hath decked the straps that go across it, May it be blest, and bring us happy fortune.
पदपाठः
भगः॑। त॒त॒क्ष॒। च॒तुरः॑। पादा॑न्। भगः॑। त॒त॒क्ष॒। च॒त्वारि॑। उष्प॑लानि। त्वष्टा॑। पि॒पे॒श॒। म॒ध्य॒तः। अनु॑। वर्ध्रा॑न्। सा। नः॒। अ॒स्तु॒। सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली। १.६०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (भगः) भगवान् [ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] ने (चतुरः) चार [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप] (पादान्)प्राप्तियोग्य पदार्थ (ततक्ष) रचे हैं, (भगः) भगवान् ने (चत्वारि) चार [ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम रूप] (उष्पलानि) हिंसा सेबचानेवाले कर्म (ततक्ष) बनाये हैं। (त्वष्टा) विश्वकर्मा [परमेश्वर] ने (मध्यतः)बीच में [स्त्री-पुरुषों के भीतर] (वर्ध्रान्) वृद्धिव्यवहारों की (अनु) अनुकूल (पिपेश) व्यवस्था की है, (सा) वह [वधू] (नः) हमारेलिये (सुमङ्गली) सुमङ्गली [बड़ी आनन्द देनेवाली] (अस्तु) होवे ॥६०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने वेदोंद्वारा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और उनके साधन ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों का उपदेश करके संसार के उपकार के लिये स्त्री-पुरुषों को ज्ञान और बुद्धि रूप वृद्धि कासामर्थ्य दिया है ॥६०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६०−(भगः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (ततक्ष) रचितवान् (चतुरः)चतुःसंख्याकान् धर्मार्थकाममोक्षान् (पादान्) प्राप्तव्यान् पदार्थान् (भगः) (ततक्ष) (चत्वारि) चतुःसंख्याकानि ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्रमरूपाणि (उष्पलानि) उष दाहे हिंसायां च-क्विप्+पल रक्षणे-अच्। उषो हिंसनाद् रक्षककर्माणि (त्वष्टा) विश्वकर्मा परमेश्वरः (पिपेश) पिश अवयवे व्यवस्थायां च।व्यवस्थापितवान् (मध्यतः) स्त्रीपुरुषयोर्मनसि (अनु) अनुकूलम् (वर्द्ध्रान्)वृधिवपिभ्यां रन्। उ० २।२७। वृधु वृद्धौ-रन्। वृद्धिव्यवहारान् (सा) वधूः (नः)अस्मभ्यम् (अस्तु) (सुमङ्गली) अत्यन्तसुखदायिनी ॥
६१ सुकिंशुकंवहतुं विश्वरूपम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सु॑किंशु॒कंव॑ह॒तुं वि॒श्वरू॑पं॒ हिर॑ण्यवर्णं सु॒वृतं॑ सुच॒क्रम्।
आ रो॑ह सूर्येअ॒मृत॑स्य लो॒कं स्यो॒नं पति॑भ्यो वह॒तुं कृ॑णु॒ त्वम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सु॑किंशु॒कंव॑ह॒तुं वि॒श्वरू॑पं॒ हिर॑ण्यवर्णं सु॒वृतं॑ सुच॒क्रम्।
आ रो॑ह सूर्येअ॒मृत॑स्य लो॒कं स्यो॒नं पति॑भ्यो वह॒तुं कृ॑णु॒ त्वम् ॥
६१ सुकिंशुकंवहतुं विश्वरूपम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The well-flowered (sukiṅśuká), all-formed bridal-car (vahatú),
golden-colored, well-rolling, well-wheeled, do thou mount, O Sūryā, to
the world of the immortal; make thou a bridal -car pleasant to husbands.
Notes
The verse is RV. x. 85. 20, which reads śalmalím in a for
vahatúm, and in d pátye for pátibhyas, and kṛṇuṣva for kṛṇu
tvám. MB. (i. 3. 11) also has śalmalim, patye, and kṛṇuṣva, but
further in b suvarṇavarṇaṁ sukṛtam, and in c nābhim for
lokam. ⌊Cf. MP. i. 6. 4; MGS. i. 13. 6 and p. 157.⌋ Kāuś. 77. 1
combines it with 2. 30, as used when the bride is made to mount the
vehicle that takes her to her new home. Ppp. has in c sukṛtasya
loke. The verse is a good triṣṭubh.
Griffith
Mount this, all-hued. gold tinted, strong wheeled, fashioned of Kinsuka, this chariot lightly rolling, Bound for the world of life immortal, Surya! Made for thy lord a happy bride’s procession.
पदपाठः
सु॒ऽकिं॒शु॒कम्। व॒ह॒तुम्। वि॒श्वऽरू॑पम्। हिर॑ण्यऽवर्णम्। सु॒ऽवृत॑म्। सु॒ऽच॒क्रम्। आ। रो॒ह॒। सू॒र्ये॒॑। अ॒मृत॑स्य। लो॒कम्। स्यो॒नम्। पति॑ऽभ्यः। व॒ह॒तुम्। कृ॒णु॒। त्वम्। १.६१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- त्रिष्टुप्
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्ये) हे प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] वधू ! (सुकिंशुकम्) अच्छे चमकनेवाले [अग्नि वा बिजुलीवाले] वा बहुत प्रशंसनीय चालवाले, (विश्वरूपम्) नाना रूपोंवाले [शुक्ल, नील, पीत, रक्त आदि वर्णवाले, अथवा ऊँचे-नीचे मध्यम स्थानवाले], (हिरण्यवर्णम्) सुवर्ण के लिये चाहने योग्य, (सुवृतम्) अच्छे घूमनेवाले [सब ओरमुड़ जानेवाले] (सुचक्रम्) सुन्दर [दृढ़, शीघ्रगामी] पहियोंवाले (वहतुम्) रथ पर [गृहाश्रमरूप गाड़ी पर] (त्वम्) तू (आ रोह) चढ़, और (पतिभ्यः) पतिकुलवालों केलिये (वहतुम्) [अपने] पहुँचने को (अमृतस्य) अमरपन [पुरुषार्थ] का (स्योनम्)सुखदायक (लोकम्) लोक [संसार का स्थान] (कृणु) बना ॥६१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे चतुर महारथी धन-धान्य से परिपूर्ण सुदृढ़ रथ पर अपने साथियों सहित चढ़ कर इच्छानुसार विचर करकार्य सिद्धि करता है, वैसे ही समझदार स्त्री तथा पुरुष गृहाश्रम में प्रवेश करके सुप्रबन्ध से अपने कुटुम्बियों सहित सुख भोगें ॥६१॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−१०।८५।२०, तथा महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण मेंरथ पर वधू को वर के चढ़ा ले जाने में विनियुक्त है, और निरुक्त १२।८ मेंव्याख्यात है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६१−(सुकिंशुकम्) सुकिंशुकम्=सुकाशनम्, किंशुकं कंशतेःप्रकाशयतिकर्मणः-निरु० १२।८। यद्वा, कायतेर्डिमिः। उ० ४।१५८। सु+कैशब्दे-डिमि+शुक गतौ-क। अतिशयेन प्रकाशमानमग्निविद्युत्प्रयोगेण। अतिशयेनप्रशंसनीयगतिमन्तम् (वहतुम्) वहनसाधनं रथम् (विश्वरूपम्)शुक्लनीलपीतरक्तादिवर्णयुक्तम्, अथवा, उच्चनीचमध्याकारयुक्तम् (हिरण्यवर्णम्)हिरण्याय सुवर्णाय वरणीयं स्वीकरणीयम् (सुवृतम्) सर्वतो वर्तनशीलम् (सुचक्रम्)दृढशीघ्रगामिचक्रयुक्तम् (आरोह) आतिष्ठ (सूर्ये) हे प्रेरणशीले !सूर्यदीप्तिवत्तेजोयुक्ते (अमृतस्य) अमरणस्य। पुरुषार्थस्य (लोकम्) संसारम्।स्थानम् (स्योनम्) सुखप्रदम् (पतिभ्यः) पतिपक्षेभ्यः (वहतुम्) वहनम्−स्वप्रापणम् (कृणु) कुरु (त्वम्) ॥
६२ अभ्रातृघ्नींवरुणापशुघ्नीं बृहस्पते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अभ्रा॑तृघ्नींवरु॒णाप॑शुघ्नीं बृहस्पते।
इ॒न्द्राप॑तिघ्नीं पु॒त्रिणी॒मास्मभ्यं॑ सवितर्वह॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अभ्रा॑तृघ्नींवरु॒णाप॑शुघ्नीं बृहस्पते।
इ॒न्द्राप॑तिघ्नीं पु॒त्रिणी॒मास्मभ्यं॑ सवितर्वह॥
६२ अभ्रातृघ्नींवरुणापशुघ्नीं बृहस्पते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Her, not brother-slaying, O Varuṇa; not cattle-slaying, O
Brihaspati; not husband-slaying, possessing sons, O Indra—bring [her]
for us, O Savitar.
Notes
The Āpast text (Wint., p. 41 ⌊MP. i. 1. 3⌋) has a corresponding but
quite different verse: reading ápatighnīm in b, and, for c, d,
indrā́ ‘putraghnīṁ lakṣmyàṁ tā́m asyāi savitaḥ suva. The Anukr. does not
heed the deficiency of a syllable in a. For the use of the verse in
Kāuś. (76. 32), see the note to vs. 59. It is wanting (as above noticed)
in Ppp.
Griffith
To us, O Varuna, bring her, kind to brothers; bring her, Brihas- pati, gentle to the cattle. Bring her, O Indra, gentle to her husband: bring her to us, O Savitar, blest with children.
पदपाठः
अभ्रा॑तृऽघ्नीम्। व॒रु॒ण॒। अप॑शुऽघ्नीम्। बृ॒ह॒स्प॒ते॒। इन्द्र॑। अप॑तिऽघ्नीम्। पु॒त्रिणी॑म्। आ। अ॒स्मभ्य॑म्। स॒वि॒तः॒। व॒ह॒। १.६२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) हे श्रेष्ठ ! (बृहस्पते) हे वेदवाणी के रक्षक ! (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले ! (सवितः) हेप्रेरणा करनेवाले [वर !] (अभ्रातृघ्नीम्) भाइयों को न सतानेवाली, (अपशुघ्नीम्)पशुओं को न मारनेवाली, (अपतिघ्नीम्) पति को न दुःख देनेवाली और (पुत्रिणीम्)श्रेष्ठ पुत्रों को उत्पन्न करनेवाली [वधू] को (अस्मभ्यम्) हमारे हित के लिये (आवह) तू ले चल ॥६२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब विद्वान् लोगआशीर्वाद देवें कि विद्वान् समर्थ वर विदुषी व्यवहारकुशल वधू को गृहाश्रम कीसिद्धि के लिये आदरपूर्वक ग्रहण करे ॥६२॥इस मन्त्र का मिलान करो-ऋग्वेद१०।८५।४४ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६२−(अभ्रातृघ्नीम्) हन्तेः कः, मूलविभुजादित्वात्। भ्रातॄणामहन्त्रींसुखप्रदाम् (वरुण) हे श्रेष्ठ (अपशुघ्नीम्) पशूनां सुखयित्रीम् (बृहस्पते)बृहत्या वेदवाण्या रक्षक (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् (अपतिघ्नीम्)पत्युर्मोदयित्रीम् (पुत्रिणीम्) श्रेष्ठपुत्राणां जनयित्रीम् (अस्मभ्यम्)अस्माकं पितृपक्षाणां हिताय (सवितः) हे प्रेरक वर (आ वह) आनय ॥
६३ मा हिंसिष्टङ्कुमार्यं
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मा हिं॑सिष्टंकुमा॒र्यं१॒॑ स्थूणे॑ दे॒वकृ॑ते प॒थि।
शाला॑या दे॒व्या द्वारं॑ स्यो॒नं कृ॑ण्मोवधूप॒थम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मा हिं॑सिष्टंकुमा॒र्यं१॒॑ स्थूणे॑ दे॒वकृ॑ते प॒थि।
शाला॑या दे॒व्या द्वारं॑ स्यो॒नं कृ॑ण्मोवधूप॒थम् ॥
६३ मा हिंसिष्टङ्कुमार्यं ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Injure ye not the maiden (kumārī́), ye (two) pillars, on the
god-made road; the door of the divine house we make pleasant, a road for
the bride.
Notes
Or, ‘we make a pleasant road’ etc. In Kāuś. 77. 20, the verses 2. 26; 1.
21, 63, 64, in this order, are used to accompany the bride’s stepping
forward into the house. ⌊Cf. Wint., p. 72, top.⌋
Griffith
Hurt not the girl, ye Pillars twain upon the path which Gods have made. The portal of the heavenly home we make the bride’s auspicious road.
पदपाठः
मा। हिं॒सि॒ष्ट॒म्। कु॒मा॒र्य᳡म्। स्थूणे॒ इति॑। दे॒वऽकृ॑ते। प॒थि। शाला॑याः। दे॒व्याः। द्वार॑म्। स्यो॒नम्। कृ॒ण्मः॒। व॒धू॒ऽप॒थम्। १.६३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (स्थूणे) हे दोनोंस्थिर स्वभाववाली [स्त्री-पुरुषों की पङ्क्ति !] (कुमार्यम्) कुमारी [कन्याअर्थात् वधू] को (देवकृते) विद्वानों के बनाये (पथि) मार्ग में (मा हिंसिष्टम्)मत कष्ट पाने दो। (देव्याः) व्यवहारयोग्य (शालायाः) शाला के (स्योनम्) सुखदायक (द्वारम्) द्वार को (वधूपथम्) वधू का मार्ग (कृण्मः) हम बनाते हैं ॥६३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष प्रयत्न करें कि पितृकुल से पृथक् होकर वधू प्रसन्न रहे और जैसे सुन्दर स्वच्छशाला के सुन्दर स्वच्छ द्वार में होकर जाने-आने में सुख होता है, वैसे हीसुप्रबन्धवाले गृहाश्रम में वधू को सुख मिले ॥६३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६३−(मा हिंसिष्टम्) दुःखं माप्रापयतम् (कुमार्यम्) कुमारीम्। वधूम् (स्थूणे) रास्नासास्नास्थूणावीणाः। उ०३।१५। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-न प्रत्ययः, टाप्, आकारस्य ऊत्वं नस्य णत्वं च। हेस्थिरस्वभावे स्त्रीपुरुषपङ्क्ती (देवकृते) विदुषां रचिते (पथि) मार्गे (शालायाः) (देव्याः) व्यवहारयोग्यायाः (स्योनम्) सुखप्रदम् (कृण्मः) कुर्मः (वधूपथम्) वधूगमनमार्गम् ॥
६४ ब्रह्मापरंयुज्यतां ब्रह्म
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ब्रह्माप॑रंयु॒ज्यतां॒ ब्रह्म॒ पूर्वं॒ ब्रह्मा॑न्त॒तो म॑ध्य॒तो ब्रह्म॑ स॒र्वतः॑।
अ॑नाव्या॒धां दे॑वपु॒रां प्र॒पद्य॑ शि॒वा स्यो॒ना प॑तिलो॒के वि रा॑ज ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ब्रह्माप॑रंयु॒ज्यतां॒ ब्रह्म॒ पूर्वं॒ ब्रह्मा॑न्त॒तो म॑ध्य॒तो ब्रह्म॑ स॒र्वतः॑।
अ॑नाव्या॒धां दे॑वपु॒रां प्र॒पद्य॑ शि॒वा स्यो॒ना प॑तिलो॒के वि रा॑ज ॥
६४ ब्रह्मापरंयुज्यतां ब्रह्म ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the bráhman be yoked after, the bráhman before, the
bráhman at the end, in the middle, the bráhman everywhere; going
forward to an impenetrable stronghold of the gods, do thou (f.),
propitious, pleasant, bear rule in thy husband’s world.
Notes
Besides the use of the verse in Kāuś. 77. 20, as noticed just above, it
is quoted, with 2. 8, in 77. 2, when the bride sets out, with a Brahman
in front. In 79. 28, it is allowed to be substituted for vs. 23; and in
that case (? 79. 32) the ceremony is called brāhmya instead of
sāurya.
⌊Here ends the first anuvāka, with 1hymn (but see page 739, top) and
64 verses. The quoted Anukr. says ādyaḥ sāuryaś catuḥṣaṣṭiḥ (see p.
738).⌋
Griffith
Let prayer he offered up before and after, prayer in the middle, lastly, all around her. Reaching the Gods’ inviolable castle shine in thy lord’s world gentle and auspicious.
पदपाठः
ब्रह्म॑। अप॑रम्। यु॒ज्यता॑म्। ब्रह्म॑। पूर्व॑म्। ब्रह्म॑। अ॒न्त॒तः। म॒ध्य॒तः। ब्रह्म॑। स॒र्वतः॑। अ॒ना॒व्या॒धाम्। दे॒व॒ऽपु॒राम्। प्र॒ऽपद्ये॑। शि॒वा। स्यो॒ना। प॒ति॒ऽलो॒के। वि। रा॒ज॒। १.६४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोम
- आत्मा
- सवित्री, सूर्या
- विवाह प्रकरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रह्म) ब्रह्म [परब्रह्म परमात्मा] (पूर्वम्) पहिले, (ब्रह्म) ब्रह्म (अपरम्) पीछे, (ब्रह्म)ब्रह्म (अन्ततः) अन्त में और (मध्यतः) मध्य में, और (ब्रह्म) ब्रह्म (सर्वतः)सर्वत्र (युज्यताम्) ध्यान किया जावे। [हे वधू !] (अनाव्याधाम्) छेदनरहित [अटूट, दृढ़] (देवपुराम्) देवताओं [विद्वानों] के गढ़ में (प्रपद्य) पहुँचकर (शिवा) कल्याणकारिणी और (स्योना) सुखदायिनी तू (पतिलोके) पतिलोक [पति के समाज]में (वि राज) विराजमान हो ॥६४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वधू तथा वर को योग्यहै कि परमात्मा को सब स्थानों और सबकालों में प्रत्यक्ष जानकर वीरता औरनिर्विघ्नता से गृहाश्रम में अपने कर्तव्यों को प्रसन्न होकर पूरा करें ॥६४॥ इतिप्रथमोऽनुवाकः ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६४−(ब्रह्म) परमेश्वरः (अपरम्) पश्चात् (युज्यताम्) समाधीयताम् (ब्रह्म) (पूर्वम्) अग्रे (ब्रह्म) (अन्ततः) अन्ते (मध्यतः) मध्ये (ब्रह्म) (सर्वतः) सर्वत्र (अनाव्याधाम्) व्यध ताडने-घञ्। छेदनरहिताम्। सुदृढाम् (देवपुराम्) विदुषां दुर्गम् (प्रपद्य) प्राप्य (शिवा) कल्याणकारिणी (स्योना)सुखदायिनी (पतिलोके) पतिसमाजे (वि राज) विराजमाना भव ॥