००९ अध्यात्मम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Extolling the sun.
VH anukramaṇī
अध्यात्मम्।
५२-५३ प्राजापत्याऽनुष्टुप्, ५४ द्विपदार्षी गायत्री।
Whitney anukramaṇī
[Paryāya VI.—pañca. 52, 53. prājāpatyā ’nuṣṭubh; 54. 2-p. ārṣī gāyatrī.]
०१ उरुः पृथुः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ॒रुः पृ॒थुः सु॒भूर्भुव॒ इति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उ॒रुः पृ॒थुः सु॒भूर्भुव॒ इति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
०१ उरुः पृथुः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- As called wide, broad, happy (subhū́), earths (? bhúvas), do we
worship thee.
Notes
Bhúvas is here rendered literally, in the only sense which the word
has elsewhere in AV. If it is a first appearance of the vyāhṛti common
later, its meaning is wholly obscure in this connection. ⌊Aufrecht, KZ.
xxxiv. 458, makes some observations about the relations of the
noun-forms and adjective-forms in vss. 52-53.⌋
Griffith
उ॒रुः पृ॒थुः सु॒भूर्भुव॒ इति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् । नम॑स्ते॰ । अ॒न्नाद्ये॑न॒॰ ॥५२॥
पदपाठः
उ॒रुः। पृ॒थुः। सु॒ऽभूः। भुवः॑। इति॑। त्वा॒। उप॑। आ॒स्म॒हे॒। व॒यम्। ९.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- प्राजापत्यानुष्टुप्
- अध्यात्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर] तू (उरुः) विशाल (पृथुः) विस्तृत, (सूभूः) अच्छे प्रकार वर्तमान [ईश्वर] और (भुवः) व्यापक वा शुद्ध ब्रह्म है, (इति) इस प्रकार से (वयम्) हम (त्वा उप आस्महे) तेरी उपासना करते हैं ॥५२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा सब में विशाल सर्वशक्तिमान् आदि गुण युक्त है, ऐसा जान कर मनुष्य उसकी उपासना करें और संसार में कीर्ति बढ़ावें ॥५२॥मन्त्र ५२ और ५३ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासनाविषय पृष्ठ १६१, १६२ में व्याख्यात हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५२−(उरुः) विशालः (पृथुः) विस्तृतः (सुभूः) सुष्ठु वर्तमानः (भुवः) भूरञ्जिभ्यां कित्। उ० ४।२१७। भू सत्तायां शुद्धौ च-असुन्, कित्, महाव्याहृतिरियम्। व्यापकं शुद्धं वा ब्रह्म। अन्यत् पूर्ववत् ॥
०२ प्रथो वरो
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प्रथो॒ वरो॒ व्यचो॑ लो॒क इति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्रथो॒ वरो॒ व्यचो॑ लो॒क इति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
०२ प्रथो वरो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- As called breadth, width, expanse, world, do we worship thee.
Notes
Griffith
प्रथो॒ वरो॒ व्यचो॑ लो॒क इति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम्। नम॑स्ते॰ । अ॒न्नाद्ये॑न॒॰ ॥५३॥
पदपाठः
प्रथः॑। वरः॑। व्यचः॑। लो॒कः। इति॑। त्वा॒। उप॑। आ॒स्म॒हे॒। व॒यम्। ९.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- प्राजापत्यानुष्टुप्
- अध्यात्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] तू (प्रथः) प्रसिद्ध, (वरः) श्रेष्ठ, (व्यचः) यथावत् मिला हुआ [ब्रह्म] और (लोकः) देखने योग्य [ईश्वर] है, (इति) इस प्रकार से (वयम्) हम (त्वा उप आस्महे) तेरी उपासना करते हैं ॥५३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य सुप्रसिद्ध आदि जगदीश्वर की उपासना से अपने को सुप्रसिद्ध, श्रेष्ठ, सर्वसम्बन्धी और दर्शनीय बनावें ॥५३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५३−(प्रथः) प्रख्यातम् (वरः) वृञ् वरणे-असुन्। श्रेष्ठम् (व्यचः) अ० ४।१९।६। व्यच छले सम्बन्धे च-असुन्। सर्वसम्बद्धम् (लोकः) दर्शनीयः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
०३ भवद्वसुरिदद्वसुः संयद्वसुरायद्वसुरिति
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भव॑द्वसुरि॒दद्व॑सुः सं॒यद्व॑सुरा॒यद्व॑सु॒रिति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
भव॑द्वसुरि॒दद्व॑सुः सं॒यद्व॑सुरा॒यद्व॑सु॒रिति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
०३ भवद्वसुरिदद्वसुः संयद्वसुरायद्वसुरिति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- As called one of arising good, of increasing (??) good, of
gathering good, of coming good, do we worship thee.
Notes
The translation implies the heroic substitution of vṛdhádvasu for the
wholly senseless idádvasu. The Pet. Lexx., to be sure, conjecture for
the latter the meaning ‘rich in this and that’ (which Henry follows);
but, besides the fact that idát = idám is not less heroic than
idát = vṛdhát, the signification given does not belong rightly to
the compound, nor has it any application here. Our rendering has at
least concinnity—unless, indeed, in a text of this character, that be an
argument against its acceptance. All the compounds are evidently
possessive.
Griffith
भव॑द्वसुरि॒दद्व॑सुः सं॒यद्व॑सुरा॒यद्व॑सु॒रिति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम्॥५४॥
पदपाठः
भव॑त्ऽवसुः। इ॒दत्ऽव॑सुः। सं॒यत्ऽव॑सुः। आ॒यत्ऽव॑सुः। इति॑। त्वा॒। उप॑। आ॒स्म॒हे॒। व॒यम्। ९.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- द्विपदार्षी गायत्री
- अध्यात्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] तू (भवद्वसुः) धन प्राप्त करानेवाला, (इदद्वसुः) श्रेष्ठ पुरुषों को ऐश्वर्यवान् करनेवाला, (संयद्वसुः) पृथिवी आदि लोकों को नियम में रखनेवाला और (आयद्वसुः) निवास साधनों का फैलानेवाला है, (इति) इस प्रकार से (वयम्) हम (त्वा उप आस्महे) तेरी उपासना करते हैं ॥५४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! परमेश्वर की उपासना से परस्पर सुधार करो, उसने तुम्हारे लिये सुवर्ण आदि धन, श्रेष्ठ पुरुष पृथिवी आदि लोक और अनेक सुख के साधन उत्पन्न किये हैं ॥५४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५४−(भवद्वसुः) भू सत्तायां प्राप्तौ च-शतृ। भवन्ति प्राप्नुवन्ति वसूनि धनानि यस्मात् सः (इदद्वसुः) इदि परमैश्वर्ये-शतृ, नकारलोपश्छान्दसः। इन्दन्ति परमैश्वर्यवन्तो भवन्ति वसवः श्रेष्ठा यस्मात् सः (संयद्वसुः) यम-नियमे-क्विप्। संयमयति वसून् पृथिव्यादिलोकान् यः सः (आयद्वसुः) आङ्+यमु उपरमे-क्विप्। आयच्छते विस्तारयति वसूनि निवाससाधनानि यः सः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
०४ नमस्ते अस्तु
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नम॑स्ते अस्तु पश्यत॒ पश्य॑ मा पश्यत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नम॑स्ते अस्तु पश्यत॒ पश्य॑ मा पश्यत ॥
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Whitney
Translation
- Homage be to thee, O conspicuous one; see me, O conspicuous one.
Notes
Griffith
नम॑स्ते अस्तु पश्यत॒ पश्य॑ मा पश्यत ॥५५॥
पदपाठः
नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। प॒श्य॒त॒। पश्य॑। मा॒। प॒श्य॒त॒। ९.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- साम्न्युष्णिक्
- अध्यात्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पश्यत) हे देखनेवाले [जगदीश्वर !] (ते) तेरे लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, (पश्यत) हे देखनेवाले ! (मा) मुझको (अन्नाद्येन) भोजनयोग्य अन्न आदि के साथ, (यशसा) यश [शूरता आदि से पाये हुए नाम] के साथ, (तेजसा) तेज [निर्भयता, प्रताप] के साथ और (ब्राह्मणवर्चसा) वेदज्ञान के साथ (पश्य) देख ॥५५, ५६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य सर्वद्रष्टा परमात्मा की उपासना से पुरुषार्थ और विवेकपूर्वक सब आवश्यक पदार्थ पाकर आनन्द भोगें ॥५५, ५६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५५, ५६−सर्वं पूर्ववत्-म० ४८, ४९ ॥
०५ अन्नाद्येन यशसा
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अ॒न्नाद्ये॑न॒ यश॑सा॒ तेज॑सा ब्राह्मणवर्च॒सेन॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒न्नाद्ये॑न॒ यश॑सा॒ तेज॑सा ब्राह्मणवर्च॒सेन॑ ॥
०५ अन्नाद्येन यशसा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With food-eating, with glory, with brilliancy, with
Brahman-splendor.
Notes
These two verses are identical with vss. 48, 49, above ⌊and are
therefore not defined by the Anukr.⌋.
⌊The quotations from the Old Anukr., given piecemeal for this
paryāya-sūkta at the end of each paryāya, may here be given
together: I. trayodaśa; II. aṣṭāu ca; III. tataḥ paraḥ sapta; IV.
saptadaśa; V. ṣaṭ ca bodhyāḥ; VI. ṣaṣṭaḥ pañcaka ucyate.—They are
given by SPP. in his “Critical Notice,” vol. i., p. 21, with the
introductory words, caturthasyā ’vasānāni vakṣyamāṇāni tāni śṛṇu.⌋
⌊In paryāya V., vss. 47, 50, and 51 have the refrain; and in VI., vss.
52, 53, and 54 have it: these verses are styled gaṇāvasānarcaḥ, and
the rest avasānarcaḥ (as was already noted above, p. 472). But since
none of the former is divided in two by an avasāna-mark, the
distinction does not affect the sums of the “ṛcaḥ of both kinds,”
which are (as just stated) 3 + 3 for V. and 3 + 2 for VI.⌋
⌊Here ends the fourth anuvāka, consisting of 1 paryāya-sūkta with 6
paryāyas and 56 verses.⌋
⌊Some mss. reckon up the hymns as 20 (that is 14 of the decad-divisions
of our hymns 1-3, plus 6 paryāyas of our hymn 4) and the verses as
188.⌋
⌊Here ends the twenty-eighth prapāṭhaka.⌋
Griffith
अ॒न्नाद्ये॑न॒ यश॑सा॒ तेज॑सा ब्राह्मणवर्च॒सेन॑ ॥५६॥
पदपाठः
अ॒न्न॒ऽअद्ये॑न। यश॑सा। तेज॑सा। ब्रा॒ह्म॒ण॒ऽव॒र्च॒सेन॑। ९.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- निचृत्साम्नी बृहती
- अध्यात्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पश्यत) हे देखनेवाले [जगदीश्वर !] (ते) तेरे लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, (पश्यत) हे देखनेवाले ! (मा) मुझको (अन्नाद्येन) भोजनयोग्य अन्न आदि के साथ, (यशसा) यश [शूरता आदि से पाये हुए नाम] के साथ, (तेजसा) तेज [निर्भयता, प्रताप] के साथ और (ब्राह्मणवर्चसा) वेदज्ञान के साथ (पश्य) देख ॥५५, ५६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य सर्वद्रष्टा परमात्मा की उपासना से पुरुषार्थ और विवेकपूर्वक सब आवश्यक पदार्थ पाकर आनन्द भोगें ॥५५, ५६॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥इत्यष्टाविंशः प्रपाठकः ॥ इति त्रयोदशं काण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासपरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये त्रयोदशं काण्डं समाप्तम् ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५५, ५६−सर्वं पूर्ववत्-म० ४८, ४९ ॥