००३ स्वर्गैदनः

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Whitney subject
  1. Cremation as a sacrifice.
VH anukramaṇī

स्वर्गैदनः।
१-६० यमः। स्वर्गः, ओदनः, अग्निः। त्रिष्टुप्, १, ४२-४३, ४७ भुरिक्, ८, १२, २१-२२, २४ जगती, १३, १७ स्वराडार्षी पङ्क्तिः, ३४ विराड् गर्भा, ३९ अनुष्टुब्गर्भा, ४४ परा बृहती, ५५-६० त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधा-र्त्यगर्भातिधृतिः (५५, ५७-६० कृतिः),।

Whitney anukramaṇī

[Yama.—ṣaṣṭiḥ. mantroktasvargāudanāgnidevatyam. trāiṣṭubham: 1, 42, 43, 47. bhurij; 8, 12, 21, 22, 24. jagatī; 13.?; 17. svarāḍ ārṣī pan̄kti; 34. virāḍgarbhā; 39. anuṣṭubgarbhā; 44. parābṛhatī; 55-60. 3-av. 7-p. śan̄kumaty atijāgataśākvarātiśākvaradhārtyagarbhā ’tidhṛti (55, 57-60. kṛti; 56. virāṭ kṛti).]

Whitney

Comment

Ppp. combines puṅso adhi and omits ihi in a. Kāuś. 60. 31 has the verse used when the sacrificer is made to stand upon the ox-hide which is to be his station during the ceremony. The various antecedents have been prepared to the accompaniment of the first verses of xi. 1.

Griffith

An accompaniment to the preparation and presentation of sacrificial offerings by a householder and his wife, with prayer for prosperity and happiness on earth and in heaven

०१ पुमान्पुंसोऽधि तिष्ठ

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पुमा॑न्पुं॒सोऽधि॑ तिष्ठ॒ चर्मे॑हि॒ तत्र॑ ह्वयस्व यत॒मा प्रि॒या ते॑।
याव॑न्ता॒वग्रे॑ प्रथ॒मं स॑मे॒यथु॒स्तद्वां॒ वयो॑ यम॒राज्ये॑ समा॒नम् ॥

०१ पुमान्पुंसोऽधि तिष्ठ ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Stand, a man (púmāṅs), upon men; go to the hide; call thither her
    who is dear to thee; of what age (? yā́vant) ye two first came together
    in the beginning, let that be your same age in Yama’s realm.
Notes

Ppp. combines puṅso adhi and omits ihi in a. Kāuś. 60. 31 has
the verse used when the sacrificer is made to stand upon the ox-hide
which is to be his station during the ceremony. The various antecedents
have been prepared to the accompaniment of the first verses of xi. 1.

Griffith

Mount, male from male, the skin. Go thither: summon those whom thou lovest, one and all, to meet thee, Strong as ye were when first ye met each other, still be your strength the same in Yama’s kingdom.

पदपाठः

पुमा॑न्। पुं॒सः। अधि॑। ति॒ष्ठ॒। चर्म॑। इ॒हि॒। तत्र॑। ह्व॒य॒स्व॒। य॒त॒मा। प्रि॒या। ते॒। याव॑न्तौ। अग्रे॑। प्र॒थ॒मम्। स॒म्ऽएयथुः॑। तत्। वा॒म्। वयः॑। य॒म॒ऽराज्ये॑। स॒मा॒नम्। ३.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्राणी !] तू (पुमान्) रक्षक [पुरुष होकर] (पुंसः) रक्षक [पुरुषों] पर (अधि तिष्ठ) अधिष्ठाता हो, (चर्म) ज्ञान (इहि) प्राप्त कर, (तत्र) वहाँ [ज्ञान के भीतर] [उस शक्ति को] (ह्वयस्व) बुला, (यतमा) जौन सी [शक्ति अर्थात् परमेश्वर] (ते) तेरे लिये (प्रिया) प्रिय करनेवाली है। (यावन्तौ) जितने [पराक्रमी] तुम दोनों ने (अग्रे) पहिली अवस्था में (प्रथमम्) प्रधान कर्म (समेयथुः) मिलकर पाया है, (तत्) उतना ही (वाम्) तुम दोनों का (वयः) जीवन (यमराज्ये) न्यायाधीश [परमेश्वर] के राज्य में (समानम्) समान है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि प्रथम अवस्था में ब्रह्मचर्यसेवन से मनुष्यों में उत्तम ज्ञान प्राप्त करके अपने-अपने पुरुषार्थ के अनुसार जीवन भर सुखी रहें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(पुमान्) अ० १।८।१। पातीति पुमान्। रक्षको जीवः (पुंसः) रक्षकान् (अधि) अधिकृत्य (तिष्ठ) वर्तस्व (चर्म) चर गतिभक्षणयोः−मनिन्। ज्ञानम् (इहि) प्राप्नुहि (तत्र) ज्ञाने (ह्वयस्व) आह्वय (यतमा) बह्वीषु या शक्तिस्तामिति शेषः (प्रिया) हिता (ते) तुभ्यम् (यावन्तौ) यत्परिमाणौ पराक्रमिणौ (अग्रे) पूर्वे वयसि (प्रथमम्) प्रधानं कर्म (समेयथुः) सम्+आङ्+ईयथुः। युवां मिलित्वा प्राप्तवन्तौ (तत्) तावत् (वाम्) युवयोः (वयः) जीवनम् (यमराज्ये) न्यायाधीशस्य परमेश्वरस्य न्यायव्यवहारे (समानम्) तुल्यम् ॥

०२ तावद्वां चक्षुस्तति

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ताव॑द्वां॒ चक्षु॒स्तति॑ वी॒र्या᳡णि॒ ताव॒त्तेज॑स्तति॒धा वाजि॑नानि।
अ॒ग्निः शरी॑रं सचते य॒दैधो॑ऽधा प॒क्वान्मि॑थुना॒ सं भ॑वाथः ॥

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Whitney
Translation
  1. So much [be] your sight, so many your powers (vīryà), so great
    your brilliancy (téjas), so many-fold your energies (vā́jina); Agni
    fastens on (sac) the body when [it is his] fuel (?); then, O paired
    ones (mithuná), shall ye come into being from what is cooked
    (pakvá).
Notes

The pada-text has yadā́: édhaḥ in c, as translated. Ppp. reads
before it agniṁ śarīraṁ sajate, and after it atha; and in a, b
it makes cakṣus and tejas change places. ⌊In OB. V. 258, pakvá is
defined as ’the charred remains and ashes of a corpse.’ Pāda d
recurs in vs. 9.⌋ ⌊W. makes a query on the margin: “the husband and wife
burnt together?? and born anew and alike out of the cremation?"⌋

Griffith

So strong your sight, so many be your powers, so great your force, your energies so many, When fire attends the body as its fuel, then may, ye gain full chargers, O ye couple.

पदपाठः

ताव॑त्। वा॒म्। चक्षुः॑। तति॑। वी॒र्या᳡णि। ताव॑त्। तेजः॑। त॒ति॒ऽधा। वाजि॑नानि। अ॒ग्निः। शरी॑रम्। स॒च॒ते॒। य॒दा। एधः॑। अध॑। प॒क्वात्। मि॒थु॒ना॒। सम्। भ॒वा॒थः॒। ३.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वाम्) तुम दोनों की (तावत्) उतनी [पूर्व कर्म अनुसार] (चक्षुः) दृष्टि है, (तति) उतने (वीर्याणि) वीर कर्म हैं, (तावत्) उतना (तेजः) तेज और (ततिधा) उतने प्रकार से (वाजिनानि) पराक्रम हैं, (यदा) जिस समय में वह [जीव] (शरीरम्) शरीर को (सचते) मिलता है, [जैसे] (अग्निः) अग्नि (एधः) इन्धन को [मिलता है], (अध) सो, (मिथुना) हे तुम दोनों बुद्धिमानों ! (पक्वात्) परिपक्व [ज्ञान] से (सम् भवाथः) शक्तिमान् हो जाओ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष जन्मसमय पर अपने-अपने पूर्वकृत कर्म के अनुसार उत्तम-उत्तम साधन पाते हैं, जैसे अग्नि इन्धन पाकर प्रज्वलित होता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(तावत्) तत्परिमाणम् (वाम्) युवयोः स्त्रीपुरुषयोः (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्यम् (तति) तावन्ति (वीर्याणि) वीरकर्माणि (तावत्) (तेजः) प्रतापः (ततिधा) तावत्प्रकारेण (वाजिनानि) पराक्रमाः (अग्निः) पावको यथा (शरीरम्) देहम् (सचते) संगच्छते प्राणी (यदा) यस्मिन् काले (एधः) इन्धनं यथा (अध) अथ। तदनन्तरम् (पक्वात्) दृढाज् ज्ञानात् (मिथुना) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। मिथ वधे मेधायां च−उनन्। हे मेधाविनौ (सं भवाथः) लेटि रूपम्। युवां शक्तौ भवतम् ॥

०३ समस्मिंल्लोके समु

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सम॑स्मिंल्लो॒के समु॑ देव॒याने॒ सं स्मा॑ स॒मेतं॑ यम॒राज्ये॑षु।
पू॒तौ प॒वित्रै॒रुप॒ तद्ध्व॑येथां॒ यद्य॒द्रेतो॒ अधि॑ वां संब॒भूव॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. Together in this world, together on the [road] the gods travel,
    together also unite ye (du.) in the realms of Yama; purified by
    purifiers, call ye to yourselves whatever seed (rétas) came into being
    from you.
Notes

All the mss. agree in the unaccented asmin in a. The verse appears
to be quoted (as ’third verse’) in Kāuś. 60. 33, to accompany a calling
upon their offspring (apatya).

Griffith

Together in this world, in God-ward pathway, together be ye in the realms of Yama. Invite, made pure with means of purifying, whatever seed of yours hath been developed.

पदपाठः

सम्। अ॒स्मि॒न्। लो॒के। सम्। ऊं॒ इति॑। दे॒व॒ऽयाने॑। सम्। स्म॒। स॒म्ऽएत॑म्। य॒म॒ऽराज्ये॑। पू॒तौ। प॒वित्रैः॑। उप॑। तत्। ह्व॒ये॒था॒म्। यत्ऽय॑त्। रेतः॑। अधि॑। वा॒म्। स॒म्ऽब॒भूव॑। ३.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मिन् लोके) इस लोक [संसार वा जन्म] में (सम्) मिलकर, (देवयाने) विद्वानों के मार्ग में (उ) ही (सम्) मिलकर और (यमराज्येषु) न्यायाधीश [परमात्मा] के राज्यों [राज्यनियमों] में (सम् स्म) अवश्य मिलकर (समेतम्) तुम दोनों साथ-साथ चलो। (पवित्रैः) पवित्र कर्मों से (पूतौ) पवित्र तुम दोनों (तत्) उस [बल] को (उप ह्वयेथाम्) आदर से बुलाओ, (यद्यत्) जो-जो (रेतः) वीर्य [बल] (वाम् अधि) तुम दोनों में अधिकारपूर्वक (संबभूव) उत्पन्न हुआ है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि संसार के बीच विद्वानों के मार्ग से परमात्मा के नियमों पर चल कर धार्मिक व्यवहार से दोनों मिलकर उस सामर्थ्य का प्रकाश करें, जिस को उन्होंने ब्रह्मचर्य आदि से पाया है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(सम्) संगत्य (अस्मिन्) वर्तमाने (लोके) संसारे जन्मनि वा (सम्) (उ) एव (देवयाने) विदुषां मार्गे (सम्) (स्म) अवश्यम् (समेतम्) सम्+आङ्+इतम्। युवां संगतौ भवतम् (यमराज्येषु) न्यायाधीशस्य परमेश्वरस्य राज्यनियमेषु (पूतौ) शुद्धौ (पवित्रैः) शुद्धकर्मभिः (तत्) रेतः (उप ह्वयेथाम्) आह्वयतम् (यद्यत्) (रेतः) वीर्यं सामर्थ्यम् (अधि) अधिकृत्य (वाम्) युवाम् (संबभूव) उत्पन्नो बभूव ॥

०४ आपस्पुत्रासो अभि

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आप॑स्पुत्रासो अ॒भि सं वि॑शध्वमि॒मं जी॒वं जी॑वधन्याः स॒मेत्य॑।
तासां॑ भजध्वम॒मृतं॒ यमा॒हुर्यमो॑द॒नं पच॑ति वां॒ जनि॑त्री ॥

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Whitney
Translation
  1. Enter together, ye sons, into the waters, coming together, ye rich in
    life, unto this living one (m.); of them (f.) share ye the one which
    (m.) they call immortal, the rice-dish which your (du.) generatrix
    cooks.
Notes

The meaning and connection are very obscure. ‘Of them’ seems to refer to
the waters (f.). Ppp. removes one difficulty by reading vas instead of
vām in d; it has in b-dhanyātsametā ⌊cf. vs. 25⌋. In
Kāuś. 60. 35 the verse is used when the pair lie down together,
accompanied by their offspring, after a vessel of water has been set on
the hide.

Griffith

Do ye, O sons, unite you with the waters, meeting this living man, ye life-sustainers, Allot to them the Odana your mother is making ready, which they call immortal.

पदपाठः

आपः॑। पु॒त्रा॒सः॒। अ॒भि। सम्। वि॒श॒ध्व॒म्। इ॒मम्। जी॒वम्। जी॒व॒ऽध॒न्याः॒ स॒म्ऽएत्य॑। तासा॑म्। भ॒ज॒ध्व॒म्। अ॒मृत॑म्। यम्। आ॒हुः। यम्। ओ॒द॒नम्। पच॑ति। वा॒म्। जनि॑त्री। ३.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पुत्रासः) हे पुत्रो ! [नरक से बचानेवालो !] (जीवधन्याः) जीवों में धन्य [बड़ाई योग्य] तुम सब ! (इमम् जीवम्) इस जीवते [जीवात्मा] से (समेत्य) समागम करके, (आपः=अपः) आप्त प्रजाओं में (अभि) सब ओर (सम्) मिलते हुए (विशध्वम्) प्रवेश करो। (तासाम्) उन [प्रजाओं] के बीच (अमृतम्) उस अमर [परमात्मा] को (भजध्वम्) तुम सब सेवो, (यम्) जिस को (ओदनम्) ओदन [सुख बरसानेवाला वा मेघरूप परमेश्वर] (आहुः) वे [विद्वान्] कहते हैं, (यम्) जिस को (वाम्) तुम दोनों की (जनित्रीः) उत्पन्न करनेवाली [जन्मव्यवस्था] (पचति) परिपक्व [दृढ़] करती है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम अपने जीवित पुरुषार्थी आत्मा को पहिचानकर प्रजाओं को कष्टों से छुड़ाओ, और अविनाशी परमात्मा का सदा ध्यान रक्खो, उसने अपनी न्यायव्यवस्था से तुम को उत्तम स्त्री और पुरुष बनाया है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(आपः) द्वितीयार्थे जस्। अपः। आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। (पुत्रासः) अ० १।११।५। पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः। तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः पितॄन् यः पाति सर्वतः। रामायणे, २।१०७।१२। हे पुत्राः। नरकाद् रक्षकाः (अभि) सर्वतः (सम्) संगत्य (विशध्वम्) प्रविशत (इमम्) अन्तर्हितम् (जीवम्) जीवन्तं पुरुषार्थिनं प्राणिनम् (जीवधन्याः) हे जीवेषु श्लाघ्याः (समेत्य) समागत्य (तासाम्) अपाम्। प्रजानां मध्ये (अमृतम्) मरणरहितम्। अविनाशिनम् (यम्) (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (यम्) (ओदनम्) अ० ११।१।१७। सुखस्य वर्षकं मेघरूपं वा परमात्मानम्। ओदनो मेघः−निघ० १।१०। (पचति) दृढं करोति (वाम्) युवयोः (जनित्री) जनयित्री। जन्मव्यवस्था ॥

०५ यं वाम्

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यं वां॑ पि॒ता पच॑ति॒ यं च॑ मा॒ता रि॒प्रान्निर्मु॑क्त्यै॒ शम॑लाच्च वा॒चः।
स ओ॑द॒नः श॒तधा॑रः स्व॒र्ग उ॒भे व्या᳡प॒ नभ॑सी महि॒त्वा ॥

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Whitney
Translation
  1. What one your (du.) father cooks, and what one [your] mother, in
    order to release from evil (riprá) and from pollution of speech—that
    hundred-streamed, heaven-going rice-dish hath permeated (vi-āp) with
    greatness both firmaments (nábhas).
Notes

Ppp. reads at the beginning yaṁ vaṣ pitā.

Griffith

That which your mother and your sire, to banish sin and un- cleanness from their lips, are cooking. That Odana with hundred streams, sky-reaching, hath in its might prevaded earth and heaven.

पदपाठः

यम्। वा॒म्। पि॒ता। पच॑ति। यम्। च॒। मा॒त। रि॒प्रात्। निःऽमु॑क्त्यै। शम॑लात्। च॒। वा॒चः। सः। ओ॒द॒नः। श॒तऽधा॑रः। स्वः॒ऽगः। उ॒भे इति॑। वि। आ॒प॒। नभ॑सी॒ इति॑। म॒हि॒ऽत्वा। ३.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) जिस [परमेश्वर] को (वाम्) तुम दोनों का (पिता) पिता (च) और (यम्) जिस को (माता) तुम्हारी माता (रिप्रात्) पाप से (च) और (शमलात्) भ्रष्ट व्यवहार से (निर्मुक्त्यै) छूटने के लिये (वाचः) अपनी वाणियों द्वारा (पचति) पक्का [दृढ़] करती है। (सः) वह (शतधारः) सैकड़ों धारण शक्तियोंवाला, (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला (ओदनः) ओदन [सुख बरसानेवाला परमेश्वर] (महित्वा) अपने महत्त्व से (उभे) दोनों (नभसी) सूर्य और पृथिवी [प्रकाशमान और अप्रकाशमान] लोकों में (वि आप) व्यापक हुआ है ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - हे स्त्री-पुरुषो ! जिस परमात्मा को तुम्हारे विद्वान् माता-पिता ने पाप से छूटने के लिये साक्षात् किया है, वैसा ही तुम जानो ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(यम्) ओदनं परमेश्वरम् (वाम्) युवयोः (पिता) जनकः (पचति) अयं द्विकर्मकः। पक्वं करोति (यम्) (च) (माता) (रिप्रात्) पापात् (निर्मुक्त्यै) वियोजनाय (शमलात्) अ० १२।२।४०। भ्रष्टव्यवहारात् (च) (वाचः) अकथितं च। पा० १।४।५१। तृतीयार्थे द्वितीया। वाग्भिः (सः) (ओदनः) सुखवर्षकः परमेश्वरः (शतधारः) बहुधारणसामर्थ्योपेतः (स्वर्गः) सुखप्रापकः (उभे) (व्याप) व्याप्तवान् (नभसी) द्यावापृथिव्यौ। प्रकाशमानाप्रकाशमानौ लोकौ (महित्वा) महत्त्वेन ॥

०६ उभे नभसी

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उ॒भे नभ॑सी उ॒भयां॑श्च लो॒कान्ये यज्व॑नाम॒भिजि॑ताः स्व॒र्गाः।
तेषां॒ ज्योति॑ष्मा॒न्मधु॑मा॒न्यो अग्रे॒ तस्मि॑न्पु॒त्रैर्ज॒रसि॒ सं श्र॑येथाम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Both firmaments, and worlds of both kinds, what heaven-going ones are
    conquered of the sacrificers—which one of them is chiefly (? ágre)
    full of light, full of honey, in that combine ye (du.) with your sons in
    old age.
Notes

Ppp. combines in c yo ‘gre, and part of our mss. (P.M.W.T.) read
the same.

Griffith

Live with your sons, when life on earth is ended, live in the sphere most rich in light and sweetness. In skies that have been won by sacrificers make both the worlds, earth, heaven, your habitation.

पदपाठः

उ॒भे इति॑। नभ॑सी॒ इति॑। उ॒भया॑न्। च॒। लो॒कान्। ये। यज्व॑नाम्। अ॒भिऽजि॑ताः। स्वः॒ऽगाः। तेषा॑म्। ज्योति॑ष्मान्। मधु॑ऽमान्। यः। अग्रे॑। तस्मि॑न्। पु॒त्रैः। ज॒रसि॑। सम्। श्र॒ये॒था॒म्। ३.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो [लोक] (यज्वनाम्) यज्ञ [श्रेष्ठ व्यवहार] करनेवालों के (अभिजिताः) सब ओर से जीते हुए और (स्वर्गाः) सुख पहुँचानेवाले हैं, (तेषाम्) उन [लोकों] के मध्य (यः) जो [परमेश्वर] (अग्रे) पहिले से (ज्योतिष्मान्) प्रकाशमय और (मधुमान्) ज्ञानमय है, (तस्मिन्) उस [परमेश्वर] में (वर्तमान) (उभे) दोनों (नभसी) सूर्य और पृथिवी [प्रकाशमान और अप्रकाशमान] लोकों को (च) और (उभयान्) दोनों [स्त्री-पुरुष] समूहवाले (लोकान्) लोकों [समाजों वा घरों] को (पुत्रैः) अपने पुत्रों [दुःख से बचानेवालों] के साथ (जरसि) स्तुति में रहकर (सं श्रयेथाम्) तुम दोनों [स्त्री-पुरुष] मिलकर सेवो ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि विद्वानों के समान परमात्मा के रचे पदार्थों से यथावत् उपकार लेकर अपने विद्वान् धीर सन्तानों के साथ कीर्तिमान् होकर आनन्द पावें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(उभे) द्वे (नभसी) द्यावापृथिव्यौ (उभयान्) स्त्रीपुरुषसमूहद्वययुक्तान् (च) (लोकान्) समाजान् गृहाणि वा (ये) लोकाः (यज्वनाम्) अ० ४।२१।२। यज−ङ्वनिप्। वेदविधानेन कृतधर्मणाम् (अभिजिताः) अभिप्राप्ताः (स्वर्गाः) सुखप्रापकाः (तेषाम्) लोकानां मध्ये (ज्योतिष्मान्) तेजोमयः (मधुमान्) विज्ञानमयः (यः) परमेश्वरः (अग्रे) आदौ (तस्मिन्) परमेश्वरे (पुत्रैः) म० ४। नरकात् त्रायकैः सह (जरसि) अ० १।३०।२। जॄ स्तुतौ−असुन्। स्तुतौ (संश्रयेथाम्) युवां परस्परं सेवेथाम् ॥

०७ प्राचीम्प्राचीं प्रदिशमा

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प्राचीं॑प्राचीं प्र॒दिश॒मा र॑भेथामे॒तं लो॒कं श्र॒द्दधा॑नाः सचन्ते।
यद्वां॑ प॒क्वं परि॑विष्टम॒ग्नौ तस्य॒ गुप्त॑ये दंपती॒ सं श्र॑येथाम् ॥

०७ प्राचीम्प्राचीं प्रदिशमा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Take ye (du.) hold upon each forward direction; to this world they
    that have faith attach themselves (sac); what of you that is cooked is
    served up in the fire, combine ye, O husband-and-wife, in order to its
    guarding.
Notes

The verse is nearly accordant with vi. 122. 3. ‘Forward’ (prañc) is
also ’eastern.’ ⌊Note here again the sequence of the cardinal points
(pradakṣiṇa), and cf. end of introd. to iii. 26.⌋ The Anukr. passes
the irregularity of the second half-verse (11 + 11: 10 + 12 = 44)
without notice. Kāuś. 61. 1 quotes this verse alone; and 61. 2 quotes
7-10 as used while they follow around the vessel of water. Ppp. reads,
for c, d, as follows: mimāthāṁ pātṛ tad vāṁ pūrṇam astu śivāṁ
pakvaṣ pitryāyaṇ ‘ty
(‘bhy?) āmayat.

Griffith

Approach the eastern, yea: the eastern region, this is the sphere to which the faithful turn them, Your cooked oblation that in fire was offered, together, wife and husband, meet to guard it.

पदपाठः

प्राची॑म्ऽप्राचीम्। प्र॒ऽदिश॑म्। आ। र॒भे॒था॒म्। ए॒तम्। लो॒कम्। अ॒त्ऽदधा॑नाः। स॒च॒न्ते॒। यत्। वा॒म्। प॒क्वम्। परि॑ऽविष्टम्। अ॒ग्नौ। तस्य॑। गुप्त॑ये। दं॒प॒ती॒ इति॑ दम्ऽपती। सम्। श्र॒ये॒था॒म्। ३.७। ‍

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राचींप्राचीम्) प्रत्येक आगेवाली (प्रदिशम्) बड़ी दिशा को (आ रभेथाम्) तुम दोनों आरम्भ करो, (एतम्) इस [आगे बढ़ानेवाले] (लोकम्) दर्शनीय पद को (श्रद्दधानाः) श्रद्धा रखनेवाले लोग (सचन्ते) सेवते हैं। (यत्) जो कुछ (वाम्) तुम दोनों का (पक्वम्) परिपक्व [दृढ़ ज्ञान] (अग्नौ) प्रकाशस्वरूप [परमात्मा] में (परिविष्टम्) प्रविष्ट है, (तस्य) उस [ज्ञान] की (गुप्तये) रक्षा के लिये, (दम्पती) हे पति-पत्नी ! (सं श्रयेथाम्) तुम दोनों मिलकर आश्रय लो ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस प्रकार परमात्मा में श्रद्धावाले पुरुष शुभ कामों में बढ़ते जाते हैं, उसी प्रकार विद्वान् पति-पत्नी उस जगदीश्वर में पूर्ण विश्वास करके परस्पर प्रीति से ज्ञान की रक्षा और वृद्धि करें ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है−अ० ६।१२२।३ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(प्राचींप्राचीम्) अ० ३।२७।१। प्रत्येकाभिमुखीभूताम् (प्रदिशम्) प्रकृष्टां दिशाम् (आ रभेथाम्) आरम्भं कुरुतम् (एतम्) (लोकम्) दर्शनीयं पदम् (श्रद्दधानाः) श्रद्धावन्तः (सचन्ते) सेवन्ते (यत्) ज्ञानम् (वाम्) युवयोः (पक्वम्) दृढं ज्ञानम् (परिविष्टम्) प्रविष्टम् (अग्नौ) ज्ञानस्वरूपे परमात्मनि (तस्य) ज्ञानस्य (गुप्तये) रक्षायै (दम्पती) हे भार्यापती (सम्) परस्परम् (श्रयेथाम्) सेवेथाम् ॥

०८ दक्षिणां दिशमभि

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दक्षि॑णां॒ दिश॑म॒भि नक्ष॑माणौ प॒र्याव॑र्तेथाम॒भि पात्र॑मे॒तत्।
तस्मि॑न्वां य॒मः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः प॒क्वाय॒ शर्म॑ बहु॒लं नि य॑च्छात् ॥

०८ दक्षिणां दिशमभि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Attaining unto the southern quarter, turn ye (du.) about unto this
    vessel; in it shall Yama, in concord with the Fathers, assure abundant
    protection unto your cooked [offering].
Notes

‘In it’: i.e., as the gender shows, in the vessel. Some of our mss. make
very bad work with vām in c, reading vāyám (P.M.W.), vayám
(Bs.s.m.), varā́m (R.), vāṁ yam (T.). It is absurd of the Anukr. to
reckon the verse (11 + 11: 12 + 11 = 45) a jagatī.

Griffith

Now, as your steps approach the southern quarter, move in. your circling course about this vessel. Herein, accordant with the Fathers, Yama shall mightily protect your cooked oblation.

पदपाठः

दक्षि॑णाम्। दिश॑म्। अ॒भि। नक्ष॑माणौ। प॒रि॒ऽआव॑र्तेथाम्। अ॒भि। पात्र॑म्। ए॒तत्। तस्मि॑न्। वा॒म्। य॒मः। पि॒तृऽभिः॑। स॒म्ऽवि॒दा॒नः। प॒क्वाय॑। शर्म॑। ब॒हु॒लम्। नि। य॒च्छा॒त्। ३.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • जगती
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (दक्षिणाम्) दाहिनी (दिशम् अभि) दिशा की ओर (नक्षमाणौ) चलते हुए तुम दोनों (एतत्) इस (पात्रम् अभि) रक्षासाधन [ब्रह्म] की ओर (पर्यावर्तेथाम्) घूमते हुए वर्तमान हो। (तस्मिन्) उस [ब्रह्म] में (वाम्) तुम दोनों का (यमः) नियम (पितृभिः) रक्षक [विद्वानों] के साथ (संविदानः) मिला हुआ (पक्वाय) परिपक्व [दृढ़ ज्ञान] के लिये (बहुलम्) बहुत (शर्म) आनन्द (नि) निरन्तर (यच्छात्) देवे ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - दाहिनी दिशा को भी चलते हुए स्त्री-पुरुष परमात्मा को साक्षात् करके विद्वानों के सत्सङ्ग से ब्रह्मचर्य आदि नियम पालते हुए ज्ञान के साथ आनन्द प्राप्त करें ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(दक्षिणाम्) दक्षिणहस्तगताम् (दिशम्) (अभि) प्रति (नक्षमाणौ) गच्छन्तौ−निघ० २।१४। (पर्यावर्तेथाम्) परित आगत्य वर्तेथाम् (अभि) प्रति (पात्रम्) रक्षासाधनं ब्रह्म (एतत्) प्रत्यक्षम् (तस्मिन्) ब्रह्मणि (वाम्) युवयोः (यमः) नियमः (पितृभिः) रक्षकैर्विद्वद्भिः (संविदानः) संगच्छमानः (पक्वाय) दृढज्ञानाय (शर्म) सुखम् (बहुलम्) (नि) नित्यम् (यच्छात्) दद्यात् ॥

०९ प्रतीची दिशामियमिद्वरम्

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प्र॒तीची॑ दि॒शामि॒यमिद्वरं॒ यस्यां॒ सोमो॑ अधि॒पा मृ॑डि॒ता च॑।
तस्यां॑ श्रयेथां सु॒कृतः॑ सचेथा॒मधा॑ प॒क्वान्मि॑थुना॒ सं भ॑वाथः ॥

०९ प्रतीची दिशामियमिद्वरम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This western of the quarters verily is a thing to be preferred, in
    which Soma is over-ruler and favorer; to it resort (śri) ye (du.);
    attach yourselves to the well-doers; then, O paired ones, shall ye come
    into being from what is cooked.
Notes

The last pāda is identical with 2 d above. But Ppp. reads instead
adhā pakvena saha saṁ bhavema, which is nearly identical with vi. 119.
2 d and the concluding pāda of SS-60 below. The Anukr. takes no
notice of the deficiency of the first pāda.

Griffith

Best of the regions is indeed this western wherein the King and gracious Lord is Soma. Thither resort for rest, follow the pious. Then gain the laden chargers, O ye couple.

पदपाठः

प्र॒तीची॑। दि॒शाम्। इ॒यम्। इत्। वर॑म्। यस्या॑म्। सोमः॑। अ॒धि॒ऽपाः। मृ॒डि॒ता। च॒। तस्या॑म्। श्र॒ये॒था॒म्। सु॒ऽकृतः॑। स॒चे॒था॒म्। अध॑। प॒क्वात्। मि॒थु॒ना॒। सम्। भ॒वा॒थः॒। ३.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (दिशाम्) दिशाओं के मध्य (इयम्) यह (प्रतीची) पीछेवाली [दिशा] (इत्) भी (वरम्) श्रेष्ठ है, (यस्याम्) जिस [दिशा] में (सोमः) जगत् का उत्पन्न करनेवाला [परमेश्वर] (अधिपाः) अधिष्ठाता (च) और (मृडिता) सुखदाता है। (तस्याम्) उस [दिशा] में (सुकृतः) सुकर्मी लोगों का (श्रयेथाम्) तुम दोनों आश्रय लो और (सचेथाम्) संसर्ग करो, (अध) सो, (मिथुना) हे तुम दोनों विद्वानों ! (पक्वात्) परिपक्व [ज्ञान] से (सं भवाथः) शक्तिमान् हो जाओ ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - अन्य दिशाओं के समान पीछे की दिशा में भी परमेश्वर को साक्षी जानकर विद्वानों से मिलकर स्त्री-पुरुष ज्ञानपूर्वक आनन्दित होवें ॥९॥ इस मन्त्र का अन्तिम पाद ऊपर मन्त्र २ में आ चुका है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(प्रतीची) अ० ३।२७।३। पश्चाद्भागस्था दिक् (दिशाम्) दिशानां मध्ये (इयम्) दृश्यमानां (इत्) अपि (वरम्) यथा तथा वरणीया (यस्याम्) दिशि (सोमः) जगदुत्पादकः परमेश्वरः (अधिपाः) अधिपतिः (मृडिता) मृडयिता। सुखयिता (च) (तस्याम्) (श्रयेथाम्) सेवेथाम् (सुकृतः) पुण्यकर्मणः पुरुषान् (सचेथाम्) संगच्छेथाम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० २ ॥

१० उत्तरं राष्ट्रम्

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उत्त॑रं रा॒ष्ट्रं प्र॒जयो॑त्त॒राव॑द्दि॒शामुदी॑ची कृणवन्नो॒ अग्र॑म्।
पाङ्क्तं॒ छन्दः॒ पुरु॑षो बभूव॒ विश्वै॑र्विश्वा॒ङ्गैः स॒ह सं भ॑वेम ॥

१० उत्तरं राष्ट्रम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. A superior realm, having superiority by progeny, may the northern of
    the quarters make our (pl.) apex (? ágra); a five-fold (pā́n̄ta) meter
    hath the man become; may we come into being together with all, having
    all their limbs.
Notes

Ppp. reads pan̄ktiś chandaṣ at the beginning of c. We have to
resolve pa-ān- in order to make a full pāda.

Griffith

Ever victorious is the northern region: may the east quarter set us first and foremost. The Man became the five-divisioned metre. May we abide wit . all our members perfect.

पदपाठः

उत्त॑रम्। रा॒ष्ट्रम्। प्र॒ऽजया॑। उ॒त्त॒रऽव॑त्। दि॒शाम्। उदी॑ची। कृ॒ण॒व॒त्। नः॒। अग्र॑म्। पाङ्क्त॑म्। छन्दः॑। पुरु॑षः। ब॒भू॒व॒। विश्वै॑। वि॒श्व॒ऽअ॒ङ्गैः। स॒ह। सम्। भ॒वे॒म॒। ३.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (दिशाम्) दिशाओं के बीच (उदीची) बायीं [दिशा] (नः) हमारे (उत्तरम्) अधिक उत्तम (राष्ट्रम्) राज्य को (प्रजया) प्रजा के साथ (उत्तरावत्) अधिक उत्तम व्यवहारवाला और (अग्रम्) अगुआ (कृणवत्) करे। (पुरुषः) पुरुष ने (पाङ्क्तिम्) विस्तार वा गौरव से युक्त (छन्दः) स्वतन्त्रता को (बभूव) पाया है, (विश्वाङ्गैः) सब उपायोंवाले (विश्वैः सह) सब [विद्वानों] के साथ (सं भवेम) हम शक्तिमान् होवें ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष अन्य दिशाओं के समान बायीं दिशा में धर्म से राज्य बढ़ाकर कीर्ति और स्वतन्त्रता के साथ विद्वानों के समागम से कीर्तिमान् होवें ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(उत्तरम्) उत्तमतरम् (राष्ट्रम्) राज्यम् (प्रजया) प्रजासमूहेन सह (उत्तरावत्) मतौ बह्वचोऽनजिरादीनाम्। पा० ६।–३।११९। इति दीर्घः। अधिकोत्तमव्यवहारयुक्तम् (दिशाम्) दिशानां मध्ये (उदीची) अ० ३।२७।४। वामभागवर्तमाना दिशा (कृणवत्) कुर्यात् (नः) अस्माकम् (अग्रम्) प्रधानम् (पाङ्क्तम्) पचि विस्तारे व्यक्तीकरणे च−क्तिन्। पङ्क्ति−अण्। पङ्क्त्या विस्तारेण गौरवेण वा युक्तम् (छन्दः) छदि आवरणे−असुन्। स्वातन्त्र्यम् (पुरुषः) मनुष्यः (बभूव) भू प्राप्तौ। प्राप (विश्वैः) सर्वैर्विद्वद्भिः (विश्वाङ्गैः) सर्वोपाययुक्तैः (सह) (संभवेम) शक्ता भवेम ॥

११ ध्रुवेयं विराण्नमो

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ध्रु॒वेयं वि॒राण्नमो॑ अस्त्व॒स्यै शि॒वा पु॒त्रेभ्य॑ उ॒त मह्य॑मस्तु।
सा नो॑ देव्यदिते विश्ववार॒ इर्य॑ इव गो॒पा अ॒भि र॑क्ष प॒क्वम् ॥

११ ध्रुवेयं विराण्नमो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This fixed [quarter] is virā́j; homage be to it; let it be
    propitious to [my] sons and to me; do thou, O goddess Aditi, having
    all choice things, like an active herdsman defend our cooked
    [offering].
Notes

The verse is quoted in Kāuś. 61. 3, next after the four preceding ones.

Griffith

This stedfast realm is Queen. To her be homage! To me and to my sons may she be gracious. Guard thou, O Goddess Aditi, all-bounteous, our cooked oblation as an active warder.

पदपाठः

ध्रु॒वा। इ॒यम्। वि॒ऽराट्। नमः॑। अ॒स्तु॒। अ॒स्यै। शि॒वा। पु॒त्रेभ्यः॑। उ॒त। मह्य॑म्। अ॒स्तु॒। सा। नः। दे॒वि॒। अ॒दि॒ते॒। वि॒श्व॒ऽवा॒रे॒। इर्यः॑ऽइव। गो॒पाः। अ॒भि। र॒क्ष॒। प॒क्वम्। ३.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ध्रुवा=ध्रुवायाम्) नीचेवाली [दिशा] में (इयम्) यह (विराट्) विराट् [विविध ऐश्वर्यवाली शक्ति परमेश्वर] है, (अस्यै) उस [शक्ति परमेश्वर] को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, वह (पुत्रेभ्यः) पुत्रों [नरक से बचानेवालों] को (उत) और (मह्यम्) मुझ को (शिवा) मङ्गलकारी (अस्तु) होवे। (सा) सो तू, (देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली], (अदिते) हे अखण्ड व्रतवाली ! (विश्ववारे) हे सब श्रेष्ठ गुणोंवाली ! [शक्ति परमेश्वर] (इर्यः) फुरतीले (गोपाः इव) गोप [ज्वाला] के समान (पक्वम् अभि) परिपक्व [दृढ़ ज्ञान] में (नः) हमारी (रक्ष) रक्षा कर ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य अन्य दिशाओं के समान नीची तथा उपलक्षण से ऊँची दिशा में परमेश्वर को व्यापक जान कर ज्ञानसहित सब की रक्षा करें ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(ध्रुवा) सप्तम्यां सुः। ध्रुवायामधःस्थायां दिशि (इयम्) सर्वत्र वर्तमाना (विराट्) विविधेश्वरी शक्तिः परमेश्वरः (नमः) सत्कारः (अस्तु) (अस्यै) विराजे (शिवा) कल्याणी (पुत्रेभ्यः) म० ४। नरकात् त्रायकेभ्यः (उत) अपि (मह्यम्) उपासकाय (अस्तु) (सा) सा त्वम् (नः) अस्मान् (देवि) हे दिव्यगुणे (अदिते) हे अखण्डव्रते (विश्ववारे) अ० ७।२०।४। हे सर्ववरणीयगुणयुक्ते (इर्यः) ईर गतौ−क्यप्, छान्दसो ह्रस्वः। गमनशीलः। वेगवान् (इव) यथा (गोपाः) गोरक्षकः (अभि) प्रति (रक्ष) (पक्वम्) दृढं ज्ञानम् ॥

१२ पितेव पुत्रानभि

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पि॒तेव॑ पु॒त्रान॒भि सं स्व॑जस्व नः शि॒वा नो॒ वाता॑ इ॒ह वा॑न्तु॒ भूमौ॑।
यमो॑द॒नं पच॑तो दे॒वते॑ इ॒ह तं न॒स्तप॑ उ॒त स॒त्यं च॑ वेत्तु ॥

१२ पितेव पुत्रानभि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Do thou embrace us, as a father his sons; let propitious winds blow
    here for us on the earth; what rice-dish the two deities cook here, let
    that know our penance and also truth.
Notes

Ppp. reads śagdā for bhūmāu in b, and vittam for vettu at
the end. ‘That’ (tát) in d is neuter, and so not correlative to
‘what’ (yám m.) in c. P.M.W. read svaja naḥ at end of a. The
verse lacks two syllables of being a good jagatī. ⌊The verse is quoted
at Kāuś. 61. 4.⌋

Griffith

Embrace us as a father clasps his children. Here on the Earth let kindly breezes fan us. Let the rice-mess these two cook here, O Goddess, know this our truthfulness and zealous fervour.

पदपाठः

पि॒ताऽइ॑व। पु॒त्रान्। अ॒भि। सम्। स्व॒ज॒स्व॒। नः॒। शि॒वाः। नः॒। वाताः॑। इ॒ह। वा॒न्तु॒। भूमौ॑। यम्। ओ॒द॒नम.। पच॑तः। दे॒वते॒ इति॑। इ॒ह। तम्। नः॒। तपः॑। उ॒त। स॒त्यम्। च॒। वे॒त्तु॒। ३.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • जगती
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विराट् परमेश्वर !] (नः) हमें (अभि सं स्वजस्व) भले प्रकार गले लगा, (पिता इव) जैसे पिता (पुत्रान्) पुत्रों [नरक से बचानेवालों] को, (नः) हमारे लिये (शिवाः) मङ्गलकारी (वाताः) पवनें (इह) यहाँ (भूमौ) भूमि पर (वान्तु) चलें। (यम्) जिस (ओदनम्) ओदन [सुख बरसानेवाले परमेश्वर] को (देवते) दो देवता [स्त्री-पुरुष] (इह) यहाँ [हम सब में] (पचतः) परिपक्व [दृढ़] करते हैं, (तम्) उस [परमेश्वर] को (नः) हमारा (तपः) तप [ब्रह्मचर्य आदि व्रत] (उत) और (सत्यम्) सत्य [निष्कपट व्यवहार] (च) निश्चय करके (वेत्तु) जाने ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर को पिता के समान हितकारी जानकर अपने सब व्यवहारों को स्वस्थ रक्खें और ब्रह्मचर्य आदि तप और सत्य व्यवहार से ईश्वरज्ञान में तत्पर रहें ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १२−(पिता) (इव) (पुत्रान्) म० ४। (अभि) सर्वतः (सम्) सम्यक् (स्वजस्व) आलिङ्ग (नः) अस्मान् (शिवाः) मङ्गलकराः (नः) अस्मभ्यम् (वाताः) पवनाः (इह) अत्र (वान्तु) गच्छन्तु (भूमौ) (यम्) (ओदनम्) सुखवर्षकं परमेश्वरम् (पचतः) दृढीकुरुतः (देवते) विद्वांसौ स्त्रीपुरुषौ (इह) (तम्) परमेश्वरम् (तपः) ब्रह्मचर्यादिव्रतम् (उत) अपि (सत्यम्) यथार्थव्यवहारः (च) अवधारणे (वेत्तु) जानातु ॥

१३ यद्यत्कृष्णः शकुन

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यद्य॑त्कृ॒ष्णः श॑कु॒न एह ग॒त्वा त्सर॒न्विष॑क्तं॒ बिल॑ आस॒साद॑।
यद्वा॑ दा॒स्या॒३॒॑र्द्रह॑स्ता सम॒ङ्क्त उ॒लूख॑लं॒ मुस॑लं शुम्भतापः ॥

१३ यद्यत्कृष्णः शकुन ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Whenever the black bird, coming hither, hath sat upon the orifice,
    surprising (tsar) what is resolved (vi-sañj), or when the barbarian
    woman (dāsī́) with wet hands smears over—cleanse, ye waters, the mortar
    [and] pestle.
Notes

Ppp. combines in a śakune ’ha, and reads in c dāsī vā yad,
and in d ⌊cf. vss. 21 and 26 and note to vi. 115. 3⌋ śundhatā
”paḥ
. Kāuś. quotes the verse in 8. 14, and the coram, also under 2. 6,
but they cast no light on the obscure first half-verse. The verse is a
good triṣṭubh, yet the Anukr. attempts to give it some special
description, of which the text is corrupt and unintelligible (yad-yat
kṛṣṇa ity āthā
).

Griffith

If the dark bird hath come to us and, stealing the hanging. . morsel, settled in his dwelling, Or if the slave-girl hath, wet-handed, smearing the pestle and the mortar, cleansed the waters,

पदपाठः

यत्ऽय॑त्। कृ॒ष्णः। श॒कु॒नः। आ। इ॒ह। ग॒त्वा। त्सर॑न्। विऽस॑क्तम्। बिले॑। आ॒ऽस॒साद॑। यत्। वा॒। दा॒सी। आ॒र्द्रऽह॑स्ता। स॒म्ऽअ॒ङ्क्ते। उ॒लूख॑लम्। मुस॑लम्। शु॒म्भ॒त॒। आ॒पः॒। ३.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • स्वराडार्षी पङ्क्तिः
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यद्यत्) जब कभी (कृष्णः) कुदेरनेवाला (शकुनः) चिल्ल आदि पक्षी [समान दुष्ट पुरुष] (इह) यहाँ (आ गत्वा) आकर (विषक्तम्) विरुद्ध मेल से (त्सरन्) टेढ़ा चलता हुआ (बिले) बिल [हमारे घर आदि] में (आससाद) आया है। (वा) अथवा (यत्) यदि (आर्द्रहस्ता) भीगे हाथवाली (दासी) हिंसक स्त्री (उलूखलम्) ओखली और (मुसलम्) मूसल को (समङ्क्ते) लिथेड़ देती है, (आपः) हे आप्त प्रजाओ ! [उस दोष को] (शुम्भत) नाश करो ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यदि कोई कपटी दुष्ट पुरुष हमारे व्यवहारों में अथवा कोई कुटिला स्त्री हमारे घर के वस्त्र वासन आदि में बखेड़ा डाले, विद्वान् स्त्री-पुरुष उस दोष का प्रतीकार करें ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(यद्यत्) यस्मिन्नेव काले (कृष्णः) कृष विलेखने−नक्। विलेखकः (शकुनः) अ० ११।२।२४। चिल्लपक्षिसमानदुष्टः पुरुषः (इह) (आ गत्वा) आगत्य (त्सरन्) कपटेन गच्छन् (विषक्तम्) यथा तथा विरुद्धमेलनेन (बिले) छिद्रे। गृहे (आससाद) आजगाम (यत्) यदि (वा) अथवा (दासी) अ० ५।१३।८। दास हिंसायाम्−घञ्। ङीप्। हिंस्रा स्त्री (आर्द्रहस्ता) क्लिन्नहस्ता। मलिनकरा (समङ्क्ते) लिम्पते (उलूखलम्) (मुसलम्) (शुम्भत) शुम्भ हिंसायाम् नाशयत् दोषम् (आपः) हे आप्ताः प्रजाः ॥

१४ अयं ग्रावा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒यं ग्रावा॑ पृ॒थुबु॑ध्नो वयो॒धाः पू॒तः प॒वित्रै॒रप॑ हन्तु॒ रक्षः॑।
आ रो॑ह॒ चर्म॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ॒ मा दंप॑ती॒ पौत्र॑म॒घं नि गा॑ताम् ॥

१४ अयं ग्रावा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let this pressing-stone, broad-based, vigor-bestowing, purified by
    purifiers, smite away the demon; mount thou the hide; yield great
    protection; let not the husband-and-wife fall into evil proceeding from
    sons (pāútra).
Notes

Ppp. has at the end gāthām, with which, of course, dampatī would
have to be understood as vocative, unaccented. Expressions like that in
d are found in several of the Sūtras: in AGS. i. 13. 7, mā ’ham
pāutram aghaṁ ni yām
(should be gām, probably); in PGS. i. 5. 11,
yathe ’yaṁ strī pāutram aghaṁ na rodāt; and the same in HGS. i. 19. 7,
with pāutram ānandam as antithesis to it. The verse is quoted in Kāuś.
61. 18 (in connection with xi. 1. 9), to accompany the setting of
mortar, pestle, and winnowing basket, after sprinkling, upon the hide.

Griffith

This pressing-stone, broad-based and strength-bestowing, made pure by cleansing means, shall chase the demon. Mount on the skin: afford us great protection, Let not the sons’ sin fall on wife and husband.

पदपाठः

अ॒यम्। ग्रावा॑। पृ॒थुऽबु॑ध्नः। व॒यः॒ऽधाः। पू॒तः। प॒वित्रैः॑। अप॑। ह॒न्तु॒। रक्षः॑। आ। रो॒ह॒। चर्म॑। महि॑। शर्म॑। य॒च्छ॒। मा। दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती। पौत्र॑म्। अ॒घम्। नि। गा॒ता॒म्। ३.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह (ग्रावा) शास्त्रों का उपदेशक (पृथुबुध्नः) विस्तृत ज्ञानवाला, (वयोधाः) जीवन धारण करनेवाला, (पवित्रैः) शुद्ध व्यवहारों से (पूतः) पवित्र किया हुआ [पुरुष] (रक्षः) राक्षस [विघ्न] को (अप हन्तु) नाश कर दे। [हे विद्वान् !] (चर्म) ज्ञान में (आ रोह) ऊँचा हो, (महि) बड़ा (शर्म) सुख (यच्छ) दे, (दम्पती) पति-पत्नी (पौत्रम्) पुत्रसम्बन्धी (अघम्) दुःख को (मा नि गाताम्) कभी न पावें ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जहाँ पर स्त्री-पुरुष विद्वानों से सुशिक्षित होकर अपना कर्तव्य करते हैं, वहाँ उनके सन्तान धार्मिक होकर माता-पिता को सुख देते हैं ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १४−(अयम्) (ग्रावा) अ० ३।१०।५। गॄ विज्ञापे स्तुतौ च−क्वनिप्। शास्त्रोपदेशकः पण्डितः (पृथुबुध्नः) इण्शिञ्जिदीङुष्यविभ्यो नक्। उ० ३।२। बुध ज्ञाने−नक्। विस्तृतबोधयुक्तः (वयोधाः) जीवनधारकः (पूतः) शोधितः (पवित्रैः) शुद्धव्यवहारैः (अप हन्तु) विनाशयतु (रक्षः) राक्षसम्। विघ्नम् (आ रोह) अधितिष्ठ (चर्म) ज्ञानम् (महि) महत् (शर्म) सुखम् (यच्छ) देहि (दम्पती) जायापती (पौत्रम्) पुत्रसम्बन्धि (अघम्) दुःखम् (मा नि गाताम्) इण् गतौ−लुङ्। नैव प्राप्नुताम् ॥

१५ वनस्पतिः सह

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वन॒स्पतिः॑ स॒ह दे॒वैर्न॒ आग॒न्रक्षः॑ पिशा॒चाँ अ॑प॒बाध॑मानः।
स उच्छ्र॑यातै॒ प्र व॑दाति॒ वाचं॒ तेन॑ लो॒काँ अ॒भि सर्वा॑ञ्जयेम ॥

१५ वनस्पतिः सह ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The forest tree hath come to us together with the gods, forcing off
    the demon, the piśācás; he shall rise up (ut-śri), shall speak forth
    his voice; with him may we conquer all worlds.
Notes

Ppp. reads and combines sāu ’cchrāyātāi in c, and reads api for
abhi in d. According to Kāuś. 61. 21, one sets up the pestle with
this verse; in 125. 3 the verse is used with reference to the
sacrificial post ⌊in case it puts forth fresh shoots⌋; and similarly in
Vāit. 10. 8 ⌊in the paśubandha⌋.

Griffith

Together with the Gods, banning Pis5chas and demons, hath Vanaspati come hither. He shall rise up and send his voice out loudly. May we win all the worlds with him to help us.

पदपाठः

वन॒स्पतिः॑। स॒ह। दे॒वैः। नः॒। आ। अ॒ग॒न्। रक्षः॑। पि॒शा॒चान्। अ॒प॒ऽबाध॑मानः। सः। उत्। श्र॒या॒तै॒। प्र। व॒दा॒ति॒। वाच॑म्। तेन॑। लो॒कान्। अ॒भि। सर्वा॑न्। ज॒ये॒म॒। ३.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वनस्पतिः) सेवनीय शास्त्र का रक्षक [विद्वान् पुरुष] (रक्षः) राक्षस [विघ्न] और (पिशाचान्) मांसभक्षक [मनुष्य रोग आदिकों] को (अपबाधमानः) हटाता हुआ (देवैः सह) अपने उत्तम गुणों के साथ (नः) हम में (आ अगन्) आया है। (सः) वह (उत् श्रयातैः) ऊँचा चढ़े और (वाचम्) वेदवाणी का (प्र वदाति) उपदेश करे, (तेन) उस [विद्वान्] के साथ (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (अभि) सब ओर से (जयेम) हम जीतें ॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब ब्रह्मचारी विद्वान् लोग अपने अज्ञान आदि दोषों को हटाकर विद्या से उच्च पद पाकर उपदेश करते हैं, तब लोग कष्टों से छूटकर सुखी होते हैं ॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १५−(वनस्पतिः) वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालको विद्वान्−यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२१। (सह) (देवैः) उत्तमगुणः (नः) अस्मान् (आ अगन्) अ० २।९।३। आ−अगमत्। प्राप्तवान् (रक्षः) राक्षसम्। विघ्नम् (पिशाचान्) मांसभक्षकान् मनुष्यरोगादीन् (अपबाधमानः) निवारयन् (सः) विद्वान् (उच्छ्रयातै) लेटि रूपम्। उच्छ्रित उन्नतो भूयात् (प्र वदाति) उपदिशेत् (वाचम्) वेदवाणीम् (तेन) विदुषा सह (लोकान्) अभि) अभितः (सर्वान्) (जयेम) जयेन प्राप्नुयाम ॥

१६ सप्त मेधान्पशवः

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स॒प्त मेधा॑न्प॒शवः॒ पर्य॑गृह्ण॒न्य ए॑षां॒ ज्योति॑ष्माँ उ॒त यश्च॒कर्श॑।
त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वता॒स्तान्स॑चन्ते॒ स नः॑ स्व॒र्गम॒भि ने॑ष लो॒कम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Seven sacrifices (médha) the cattle enclosed—which ⌊the relative
    pronoun
    ⌋ of them was full of light, and which was pining; to them
    thirty deities attach themselves; do thou (m.) conduct us (pl.) unto the
    heavenly (svargá) world.
Notes

Our Bp. reads tarn in c, and a few of the saṁhitā-mss. (P.M.W.E.)
agree with it; tā́m is certainly wrong, but tám would be an
acceptable improvement. Ppp. has medhasvān instead of jyotiṣmān (and
the latter must be taken as having the sense of the former); also
cakarṣa in b, and neṣi in d. ⌊For neṣa, see Gram. §
896.⌋ The verse is quoted in Kāuś. 61. 13, to accompany the handling or
stroking of something by the two spouses ⌊with their offspring⌋. Pāda
b has a redundant syllable, unnoticed by the Anukr., unless we
contract to yāi ’ṣām.

Griffith

Seven victims held the sacrificial essence, the bright one and the one that hath grown feeble. The three-and-thirty Deities attend them. As such, conduct us io the world of Svarga.

पदपाठः

स॒प्त। मेधा॑न्। प॒शवः॑। परि॑। अ॒गृ॒ह्ण॒न्। यः। ए॒षा॒म्। ज्योति॑ष्मान्। उ॒त। यः। च॒कर्श॑। त्रयः॑ऽत्रिंशत्। दे॒वताः॑। तान्। स॒च॒न्ते॒। सः। नः॒। स्व॒ऽगम्। अ॒भि। ने॒ष॒। लो॒कम्। ३.१६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पशवः) सब जीवों ने (सप्त) सात [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] (मेधान्) परस्पर मिले हुए [पदार्थों] को (परि अगृह्णन्) ग्रहण किया है, (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस [वसु आदि] (देवता) देवता (तान्) उन [जीवों] को (सचन्ते) सेवते हैं, (यः) जो [पुरुष] (एषाम्) इन [जीवों] में से (ज्योतिष्मान्) तेजस्वी है, (उत) और (यः) जिसने [विज्ञान को] (चकर्श) सूक्ष्म किया है, (सः) वह तू (नः) हमको (स्वर्गम्) सुख पहुँचानेवाले (लोकम् अभि) समाज में (नेष) पहुँचा ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों में त्वचा, नेत्र, कान आदि समान हैं और सब पर वसु आदि प्राकृत पदार्थों का समान प्रभाव है, परन्तु विज्ञानी पुरुष ही आप सुखी रहते और सब को सुखी रखते हैं ॥१६॥ सप्त मेघान् के विषय में (सप्तऋषयः) पद देखो−अ० ४।११।९। और तेंतीस देवता यह हैं−८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य वा महीने, १ इन्द्र वा बिजुली, १ प्रजापति वा यज्ञ−इन की विशेष व्याख्या अ० १०।७।१३। के भावार्थ में देखो ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १६−(सप्त) सप्तसंख्याकान् (मेधान्) मिधृ मेधृ संगमे हिंसामेधयोश्च−घञ्। परस्परसंगतान् त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिरूपान् पदार्थान्। यज्ञान्−निघ० ३।१७। (पशवः) जीवाः (पर्यगृह्णन्) स्वीकृतवन्तः (यः) विद्वान् (एषाम्) पशूनां मध्ये (ज्योतिष्मान्) तेजस्वी (उत) अपि (यः) (चकर्श) कृश तनूकरणे−लिट्। सूक्ष्मीकृतवान् विज्ञानम् (त्रयस्त्रिंशत्) वस्वादयः−अ० १०।७।१३। (देवताः) देवाः (तान्) जीवान् (सचन्ते) सेवन्ते (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (अभि) प्रति (नेष) अ० ७।९७।२। णीञ् प्रापणे−लेट्, सिप्। नय। प्रापय (लोकम्) समाजम् ॥

१७ स्वर्गं लोकमभि

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स्व॒र्गं लो॒कम॒भि नो॑ नयासि॒ सं जा॒यया॑ स॒ह पु॒त्रैः स्या॑म।
गृ॒ह्णामि॒ हस्त॒मनु॒ मैत्वत्र॒ मा न॑स्तारी॒न्निरृ॑ति॒र्मो अरा॑तिः ॥

१७ स्वर्गं लोकमभि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unto the heavenly world shalt thou conduct us (pl.); may we be
    united with wife, with sons; I grasp [her (?)] hand; let her (?) come
    here after me; let not destruction pass us, nor the niggard.
Notes

The last pāda is nearly the same with vi. 124. 3 d; cf. also ii. 7.
4 c, d. Ppp. ends d with no ‘rātiḥ. The verse is a good
triṣṭubh, and its description by the Anukr. is absurd. Kāuś. 61. 14
uses the latter half-verse, not in a way to cast light on its meaning.

Griffith

Unto the world of Svarga shalt thou lead us: there may we dwell beside our wife and children. I take thy hand Let not Destruction, let not Malignity come hither and subdue us.

पदपाठः

स्वः॒ऽगम्। लो॒कम्। अ॒भि। नः॒। न॒या॒सि॒। सम्। जा॒यया॑। स॒ह। पु॒त्रैः। स्या॒म॒। गृ॒ह्णामि॑। हस्त॑म्। अनु॑। मा॒। आ। ए॒तु॒। अत्र॑। मा। नः॒। ता॒री॒त्। निःऽऋ॑तिः। मो इति॑। अरा॑तिः। ३.१७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • स्वराडार्षी पङ्क्तिः
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (स्वर्गम्) सुख पहुँचानेवाले (लोकम् अभि) समाज में (नः) हमको (नयासि) तू पहुँचा, हम (जायया) पत्नी के साथ और (पुत्रैः सह) पुत्रों [दुःख से बचानेवालों] के साथ (सं स्याम) मिले रहें। मैं [प्रत्येक मनुष्य] (हस्तम्) [प्रत्येक का] हाथ (गृह्णामि) पकड़ता हूँ, वह (अत्र) यहाँ (मा अनु) मेरे साथ-साथ (आ एतु) आवे, (नः) हमको (मा) न तो (निर्ऋतिः) अलक्ष्मी [दरिद्रता] (मो) और न (अरातिः) कंजूसी (तारीत्) दबावे ॥१७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से उत्तम स्त्री और सन्तानों में रहकर अपना घर स्वर्गलोक बनावें और परस्पर सहाय करके धनी और दानी होवें ॥१७॥ इस मन्त्र का अन्तिम पाद भेद से आ चुका है−अथर्व० ६।१३४।३ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १७−(स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (लोकम्) जनसमाजम् (अभि) प्रति (नः) अस्मान् (नयासि) प्रापय (सम्) संगत्य (जायया) पत्न्या (सह) (पुत्रैः) म० ४। नरकात् त्रायकैः (स्याम) (गृह्णामि) आददे (हस्तम्) (अनु) अनुसृत्य (मा) माम् (ऐतु) आगच्छतु (अत्र) संसारे (नः) अस्मान् (मा तारीत्) अ० २।७।४। तॄ अभिभवे−लुङ्। माभिभवतु (निर्ऋतिः) अलक्ष्मीः (मो) मैवं (अरातिः) अदानता। कृपणता ॥

१८ ग्राहिं पाप्मानमति

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ग्राहिं॑ पा॒प्मान॒मति॒ ताँ अ॑याम॒ तमो॒ व्य᳡स्य॒ प्र व॑दासि व॒ल्गु।
वा॑नस्प॒त्य उद्य॑तो॒ मा जि॑हिंसी॒र्मा त॑ण्डु॒लं वि श॑रीर्देव॒यन्त॑म् ॥

१८ ग्राहिं पाप्मानमति ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The seizure (grā́hi), evil (pāpmán)—may we go beyond them (pl.);
    dissipate thou the darkness; mayest thou speak forth what is agreeable;
    made of forest tree, uplifted, do not injure; do not crush to pieces
    vi-śṛ⌋ the god-loving rice-grain.
Notes

Jihiṅsīr in c is a misprint fox jíhiṅsīr, which all the ⌊i.e.
W’s⌋ mss. read. ⌊So read 9 of SPP’s authorities: and 4 have jáhiṅsīs;
but SPP. prints jihiṅsīs, accentless, with 3 of his mss. Perhaps the
accent is to be regarded as antithetical.⌋ A part of our mss.
(O.T.K.D.R.p.m.) read śarīs in d; Ppp. has śarāis ⌊see the
references under vi. 32. 2⌋. The verse (with xi. 1. 9 b) accompanies
in Kāuś. 61. 22 the pounding with the pestle.

Griffith

We have subdued that sinful-hearted Grahi. Thou shalt speak sweetly having chased the darkness. Let not the wooden gear made ready fail us, nor harm the grain of rice that pays due worship.

पदपाठः

ग्राहि॑म्। पा॒प्मान॑म्। अति॑। तान्। अ॒या॒म॒। तमः॑। वि। अ॒स्य॒। प्र। व॒दा॒सि॒। व॒ल्गु। वा॒न॒स्प॒त्यः। उत्ऽय॑त्। मा। जि॒हिं॒सीः॒। मा। त॒ण्डु॒लम्। वि। श॒रीः॒। दे॒व॒ऽयन्त॑म्। ३.१८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ग्राहिम्) जकड़नेवाली [गठिया आदि शारीरिक पीड़ा] और (पाप्मानम्) पाप [मिथ्या कथन आदि मानसिक रोग] को (अति) लाँघ कर (तान्) उन [पुत्र आदि] को (अयाम) हम प्राप्त करें, [हे विद्वान् !] (तमः) अन्धकार को (वि) अलग (अस्य) फेंक दे और (वल्गु) सुन्दर (प्र वदासि) उपदेश कर। तू (वानस्पत्यः) सेवनीय शास्त्रों के पालनेवालों का हितकारी और (उद्यतः) उद्यमी होकर [हमें] (मा जिहिंसीः) मत दुःख दे और (देवयन्तम्) विद्वानों के स्नेही (तण्डुलम्) चावल [अन्न] की राशि को (मा वि शरीः) मत इतर-वितर कर ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य शारीरिक और मानसिक रोग मिटाकर हित का उपदेश करें और परस्पर सुख बढ़ाकर अन्न आदि पदार्थों का संग्रह करें ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १८−(ग्राहिम्) अ० २।९।१। ग्रहणशीलां शारीरिकपीडाम् (पाप्मानम्) पापं मानसिकदोषम् (अति) अतीत्य (तान्) पुत्रादीन् (अयाम) अय गतौ। प्राप्नुयाम (तमः) अन्धकारम् (वि) विविधम् (अस्य) क्षिप (प्र वदासि) उपदिश (वल्गु) वलेर्गुक् च। उ० १।१९। वल प्राणने−उ प्रत्ययोः गुक् च। शोभनम् (वानस्पत्यः) म० १५। वनस्पति−ण्य। वनस्पतिभ्यः सेवनीयशास्त्रपालकेभ्यो हितः (उद्यतः) उद्यमी (मा जिहिंसीः) मा वधीः (तण्डुलम्) धान्यराशिम् (वि) विविधम् (मा शरीः) शॄ हिंसायाम्−लुङ्। मा शारीः। मा क्षिप (देवयन्तम्) अ० ७।२७।१। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। देव−क्यच्, शतृ। नच्छन्दस्यपुत्रस्य। पा० ७।४।३५। ईत्वदीर्घयोर्निषेधः। देवान् श्रेष्ठपुरुषान् आत्मन इच्छन्तम् ॥

१९ विश्वव्यचा घृतपृष्ठो

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वि॒श्वव्य॑चा घृ॒तपृ॑ष्ठो भवि॒ष्यन्त्सयो॑निर्लो॒कमुप॑ याह्ये॒तम्।
व॒र्षवृ॑द्ध॒मुप॑ यच्छ॒ शूर्पं॒ तुषं॑ प॒लावा॒नप॒ तद्वि॑नक्तु ॥

१९ विश्वव्यचा घृतपृष्ठो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. About to become all-expanded, ghee-backed, go thou, of like origin
    (sáyoni), unto that world; hand thou (upa-yam) the rain-increased
    sieve; let that winnow away the husk, the chaff.
Notes

The first half-verse is identical with 53 c, d below. Some mss.
(I.O.D.K.: also half of the Kāuś. mss.) read palā́vām in d. Ppp.
has vidvān instead of etam in b. With c, according to Kāuś.
61. 23, the śūrpa is grasped; with a (or the whole verse?),
according to 24, it is raised; with d, according to 25, the sifting
is done. The third pāda lacks a syllable, unless we may resolve
śu-úrpam. ⌊For “sieve,” here and in vs. 20, read rather
“winnowing-basket”?⌋

Griffith

Soon to be, decked with butter, all-embracing, come to this world wherewith birth unites thee. Seize thou the winnowing-fan which rains have nourished, and let this separate the chaff and refuse.

पदपाठः

वि॒श्वऽव्य॑चाः। घृ॒तऽपृ॑ष्ठः। भ॒वि॒ष्यन्। सऽयो॑निः। लो॒कम्। उप॑। या॒हि॒। ए॒तम्। व॒र्षऽवृ॑ध्दम्। उप॑। य॒च्छ॒। शूर्प॑म्। तुष॑म्। प॒लावा॑न्। अप॑। तत्। वि॒न॒क्तु॒। ३.१९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (विश्वव्यचाः) सब व्यवहारों में फैला हुआ, (घृतपृष्ठः) प्रकाश से सींचता हुआ और (सयोनिः) समान घरवाला (भविष्यन्) भविष्यत् में होता हुआ तू (एतम्) इस (लोकम्) लोक [व्यवहार मण्डल] में (उप याहि) पहुँच। (वर्षवृद्धम्) वरणीय गुणों से बढ़े हुए (शूर्पम्) सूप को (उप यच्छ) ले, (तत्) तब [आप] (तुषम्) बुसी और (पलावान्) तिनके आदि को (अप विनक्तु) फटक डालें ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि जैसे-जैसे वे बढ़ते जावें, भली-भाँति देख-भालकर दोषों का त्याग और गुणों का ग्रहण करें, जिस प्रकार सूप से कूड़ा-करकट फटक कर अन्न आदि सार पदार्थ ले लेते हैं ॥१९॥ इस मन्त्र का पूर्व भाग आगे मन्त्र ५३ में है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १९−(विश्वव्यचाः) सर्वव्यवहारेषु विस्तारशीलः (घृतपृष्ठः) अ० २।१३।१। पृषु सेके−थक्। घृतेन प्रकाशेन सेचकः (भविष्यन्) भविष्यति भवन् (सयोनिः) योनिर्गृहनाम−निघ० ३।४। समानगृहः (लोकम्) समाजम् (उप याहि) प्राप्नुहि (एतम्) (वर्षवृद्धम्) अ० ६।३–०।३। वृञ्−वरणे स प्रत्ययः। वर्षैर्वरणीयगुणैः प्रवृद्धम् (उप यच्छ) यमु उपरमे। गृहाण (शूर्पम्) शूर्प माने−घञ्। धान्यस्फोटकम् (तुषम्) धान्यत्वचम् (पलावान्) पल गतौ रक्षणे च−अप्+अव रक्षणे गतौ च−अण्। पलान् शस्यशून्यधान्यनालान् अवन्ति प्राप्नुवन्ति ये ते पलावास्तान् तृणादीन् पदार्थान् (तत्) तदा (अपविनक्तु) विजिर् पृथग्भावे। वियोजयतु भवान् ॥

२० त्रयो लोकाः

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त्रयो॑ लो॒काः संमि॑ता॒ ब्राह्म॑णेन॒ द्यौरे॒वासौ पृ॑थि॒व्य१॒॑न्तरि॑क्षम्।
अं॒शून्गृ॑भी॒त्वान्वार॑भेथा॒मा प्या॑यन्तां॒ पुन॒रा य॑न्तु॒ शूर्प॑म् ॥

२० त्रयो लोकाः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The three worlds are commensurate with the brā́hmaṇa: yon heaven,
    namely, earth, atmosphere; having seized the [soma-] stalks, take ye
    (du.) hold after; let them swell up (ā-pyā); let them come again to
    the sieve.
Notes

All our mss. (except D.) read asāu, unaccented, in b; emendation
to asāú was plainly necessary. All the saṁhitā-mss. (except E.)
separate in c gṛbhītvā́ anv-, which, accordingly, might perhaps as
well have been left, though the Prāt. does not recognize the case of
irregular hiatus. Ppp. seems to combine the two words in the usual
fashion; but it has -rabhetām; also, in b, pṛthivyām ant-. The
verse is quoted in Kāuś. 61. 27 in connection with touching the winnowed
grains (?); and, in 28, the last words of d (punar etc.), with
scattering them, apparently, again on the sieve.

Griffith

Three worlds hath Power Divine marked out and measured, Fheaven yonder, and the earth, and airs mid-region. Grasp ye the stalks and in your hands retain them: let them be watered and again be winnowed.

पदपाठः

त्रयः॑। लो॒काः। सम्ऽमि॑ताः। ब्राह्म॑णेन। द्यौः। ए॒व। अ॒सौ। पृ॒थि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। अं॒शून्। गृ॒भी॒त्वा। अ॒नु॒ऽआर॑भेथाम्। आ। प्या॒य॒न्ता॒म्। पुनः॑। आ। य॒न्तु॒। शूर्प॑म्। ३.२०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्राह्मणेन) ब्राह्मण [ब्रह्मज्ञानी] करके (त्रयः लोकाः) तीनों लोक [उत्तम निकृष्ट और मध्यम अवस्थाएँ] (संमिताः) यथावत् नापे गये हैं, [जैसे] (असा) वह (एव) ही (द्यौः) सूर्यलोक, (पृथिवी) पृथिवीलोक और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [मध्यलोक] हैं। [हे स्त्री-पुरुषो !] (अंशून्) सूक्ष्म पदार्थों को (गृभीत्वा) ग्रहण करके [अपना कर्तव्य] (अन्वारभेथाम्) तुम दोनों आरम्भ करते रहो, वे [सूक्ष्म द्रव्य] (आ प्यायन्ताम्) फैलें और (पुनः) फिर-फिर (शूर्पम्) सूप में (आ यन्तु) आवें ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे ब्रह्मज्ञानी पुरुष ऊँचा, नीच, मध्य तीनों दशाओं को हस्तामलक कर लेता है, वैसे ही सब स्त्री-पुरुष परीक्षा करके सार पदार्थ ग्रहण करें, जैसे सूप में द्रव्य को बार-बार फैला कर और शुद्ध करके ग्रहण करते हैं ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २०−(त्रयः) उत्तमनिकृष्टमध्यमाः (लोकाः) अवस्थाभेदाः (संमिताः) सम्यक् परिमाणीकृताः (ब्राह्मणेन) ब्रह्मज्ञानिना (द्यौः) सूर्यलोकः (एव) (असौ) (पृथिवी) अन्तरिक्षम् (अंशून्) सूक्ष्मविभागान् (गृभीत्वा) गृहीत्वा। आदाय (अन्वारभेथाम्) निरन्तरमारम्भं कुरुतम् (आ) समन्तात् (प्यायन्ताम्) वर्धन्ताम्। विस्तीर्यन्ताम् (पुनः) वारंवारम् (आयन्तु) आगच्छन्तु (शूर्पम्) म० १९ ॥

२१ पृथग्रूपाणि बहुधा

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पृथ॑ग्रू॒पाणि॑ बहु॒धा प॑शू॒नामेक॑रूपो भवसि॒ सं समृ॑द्ध्या।
ए॒तां त्वचं॒ लोहि॑नीं॒ तां नु॑दस्व॒ ग्रावा॑ शुम्भाति मल॒ग इ॑व॒ वस्त्रा॑ ॥

२१ पृथग्रूपाणि बहुधा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Manifoldly separate [are] the forms of cattle; thou becomest
    one-formed together with success; that red skin—that thrust thou
    [away]; the pressing-stone shall cleanse like a fuller (? malagá)
    the garments.
Notes

Or b may be ’thou comest into being one-formed with success.’
Malagá occurs nowhere else; its use with iva makes it impossible to
tell whether the pada-text would divide mala॰gaḥ. Ppp. reads
bhavati in b and malagāi ’va in d. ⌊Again, as in vss. 13 and
26, it reads śundhāti for śumbhāti: cf. note to vi. 115. 3.⌋ The
quotation in Kāuś. 61. 26 casts no light on the meaning. Our text ought
to read sámṛddhyā at end of b. The verse is very ill named
jagatī by the Anukr.; the treatment of iva in d as only one
syllable makes a regular triṣṭubh of it.

Griffith

Manifold, various are the shapes of victims. Thou growest uni- form by great abundance. Push thou away this skin of ruddy colour: the stone will cleanse as one who cleanses raiment.

पदपाठः

पृथ॑क्। रू॒पाणि॑। ब॒हु॒ऽधा। प॒शू॒नाम्। एक॑ऽरूपः। भ॒व॒सि॒। सम्। सम्ऽऋ॑ध्द्या। ए॒ताम्। त्वच॑म्। लोहि॑नीम्। ताम्। नु॒द॒स्व॒। ग्रावा॑। शु॒म्भा॒ति॒। म॒ल॒गःऽइ॑व। वस्त्रा॑। ३.२१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • जगती
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पृथक्) अलग-अलग (रूपाणि) रूप [आकार आदि] (बहुधा) प्रायः (पशूनाम्) जीवों के होते हैं, [हे विद्वान्] (समृद्ध्या) समृद्धि [पूर्ण सिद्धि] के साथ (एकरूपः) एक स्वभाववाला [दृढ़चित्त] होकर तू (सं भवसि) शक्तिमान् होता है। (एताम्) इस और (ताम्) उस (लोहिनीम्) लोहिनी [लोहे की बनी जैसे कठिन] (त्वचम्) ढकनी [अविद्या] को (नुदस्व) हटा, (ग्रावा) शास्त्रों का उपदेशक [उसको] (शुम्भाति) शुद्ध करें, (मलग इव) जैसे धोबी (वस्त्रा) वस्त्रों को ॥२१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों में प्रायः पृथक्-पृथक् आकार होते हैं, परन्तु वेदज्ञान की पूर्णता से अविद्यारूप आवरण को हटाकर समान दृढ़चित्त होकर निर्दोष हो जाते हैं, जैसे चतुर धोबी के धोने से वस्त्र उजले होते हैं ॥२१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २१−(पृथक्) भिन्नभावेन (रूपाणि) आकाराः। स्वभावाः (बहुधा) प्रायः (पशूनाम्) जीवानाम् (एकरूपः) निश्चितस्वभावः (सं भवसि) शक्तो भवसि (समृद्ध्या) पूर्णसिद्ध्या (एताम्) समीपस्थाम् (त्वचम्) त्वच संवरणे−क्विप्। आवरणम् (लोहिनीम्) लोह−इनि। लोहमयीम्। अतिकठिनाम् (ताम्) दूरस्थाम् (नुदस्व) प्रेरय (ग्रावा) म० १४। शास्त्रोपदेशकः (शुम्भाति) शोधयेत् (मलगः) मृजेष्टिलोपश्च। उ० १।११०। मृजूष् शुद्धौ−कल, धातोष्टिलोपश्च+गल भक्षणे स्रावे क्षारणे च−उ। मलं शोधनीयं कलङ्कं गलयति क्षारयतीति यः। रजकः। धावकः (इव) यथा (वस्त्रा) वस्त्राणि ॥

२२ पृथिवीं त्वा

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पृ॑थि॒वीं त्वा॑ पृथि॒व्यामा वे॑शयामि त॒नूः स॑मा॒नी विकृ॑ता त ए॒षा।
यद्य॑द्द्यु॒त्तं लि॑खि॒तमर्प॑णेन॒ तेन॒ मा सु॑स्रो॒र्ब्रह्म॒णापि॒ तद्व॑पामि ॥

२२ पृथिवीं त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thee that art earth I make enter into earth; this like body of thee
    [is] separated; whatever of thee is burnt (? dyuttá), [or]
    scratched by driving (árpaṇa); with that do not leak; I cover that
    over by a spell (bráhman).
Notes

Ppp. reads, for a, bhūmyāṁ bhūmim adhi dhārayāmi; in c,
arpaṇaṁ ca; in d, śuśror apa tad, thus restoring the meter. The
verse (12 + 11: 11 + 13 = 47) is very ill defined simply as a jagatī.
In Kāuś. 61. 30, the verse accompanies the smearing of a vessel
(kumbhī); in Vāit. 28. 12, the fashioning of a kettle.

Griffith

Earth upon earth l set thee. This thy body is con-substantial,. but in form it differs. Whate’er hath been worn off or scratched in fixing, leak not thereat: I spread a charm to mend it.

पदपाठः

पृ॒थि॒वीम्। त्वा॒। पृ॒थि॒व्याम्। आ। वे॒श॒या॒मि॒। त॒नूः। स॒मा॒नी। विऽकृ॑ता। ते॒। ए॒षा। यत्ऽय॑त्। द्यु॒त्तम्। लि॒खि॒तम्। अर्प॑णेन। तेन॑। मा। सु॒स्रोः॒। ब्रह्म॑णा। अपि॑। तत्। व॒पा॒मि॒। ३.२२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • जगती
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजा ! स्त्री वा पुरुष] (पृथिवीम् त्वा) तुझ प्रख्यात को (पृथिव्याम्) प्रख्यात [विद्या] के भीतर (आ वेशयामि) मैं [परमेश्वर] प्रवेश करता हूँ, (एषा) यह (ते) तेरी (विकृता) भिन्न रूपवाली (तनूः) आकृति (समानी) समान [हो जावे]। (यद्यत्) जो-जो (अर्पणेन) कुव्यवहार से (द्युत्तम्) जल गया और (लिखितम्) खरोंचा गया है, (तेन) उस [कारण] से (मा सुस्रोः) तू मत बह जा, (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (अपि) ही (तत्) उस को (वपामि) मैं [बीज समान] फैलाता हूँ ॥२२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पुरुषों की आकृति एक दूसरे से भिन्न-भिन्न है, परन्तु परमेश्वर ने शक्ति दी है कि वे वेद द्वारा अपनी हानि को पूरा करके समान गुणवाले होवें, जैसे बीज के बोने से घटी पूरी हो जाती है ॥२२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २२−(पृथिवीम्) प्रथेः षिवन्षवन्ष्वनः संप्रसारणं च। उ० १।१५०। प्रथ प्रख्याने−षिवन्, ङीप्। प्रख्याताम् (त्वा) त्वां प्रजाम् (पृथिव्याम्) प्रख्यातायां विद्यायाम् (आवेशयामि) प्रविष्टां करोमि (तनूः) आकृतिः (समानी) तुल्यगुणः (विकृता) विकारं गता। भिन्नभावं प्राप्ता (ते) तव (एषा) दृश्यमाना (यद्यत्) यत् किंचित् (द्युत्तम्) अ० ४।१२।२। द्योतते=ज्वलतिकर्मा−निघ० १।१६। द्योतितम्। प्रज्वलितम् (लिखितम्) विलिखितम्। विदारितम् (अर्पणेन) ऋ हिंसायाम्−णिच् पुक्−ल्युट्। हिंसनेन। कुव्यवहारेण (तेन) कारणेन (मा सुस्रोः) स्रु गतौ−क्षरणे च−लङ्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७६। शपः श्लुः। मा स्रवः। मा क्षर (ब्रह्मणा) वेदेन (अपि) एव (तत्) (वपामि) डुवप बीजसन्ताने। रूपेण विकिरामि। विस्तारयामि ॥

२३ जनित्रीव प्रति

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जनि॑त्रीव॒ प्रति॑ हर्यासि सू॒नुं सं त्वा॑ दधामि पृथि॒वीं पृ॑थि॒व्या।
उ॒खा कु॒म्भी वेद्यां॒ मा व्य॑थिष्ठा यज्ञायु॒धैराज्ये॒नाति॑षक्ता ॥

२३ जनित्रीव प्रति ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Mayest thou welcome as a mother a son; I unite (sam-dhā) thee that
    art earth with the earth; a kettle, a vessel, do not stagger upon the
    sacrificial hearth, overhung by the implements of offering [and] by
    sacrificial butter.
Notes

The first pāda is apparently addressed to the earth, differently from
the others. Ppp. puts the verse before our vs. 22, and reads in c
kumbhīr vedyāṁ saṁ carantāṁ. One or two of our mss. (Bs.O.) read uṣā́
in c.

Griffith

Thou for thy son shalt yearn as yearns a mother. I lay thee down and with the earth unite thee. Conjoined with sacrificial gear and butter may pot and jar stand firmly on the altar.

पदपाठः

जनि॑त्रीऽइव। प्रति॑। ह॒र्या॒सि॒। सू॒नुम्। सम्। त्वा॒। द॒धा॒मि॒। पृ॒थि॒वीम्। पृ॒थि॒व्या। उ॒खा। कु॒म्भी। वेद्या॑म्। मा। व्य॒थि॒ष्ठाः॒। य॒ज्ञ॒ऽआ॒यु॒धैः। आज्ये॑न। अति॑ऽसक्ता। ३.२३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजा ! स्त्री वा पुरुष] (प्रति) निश्चय करके (हर्यासि) [परस्पर] प्यार कर, (जनित्री इव) जैसे माता (सूनुम्) पुत्र को, (पृथिवीम् त्वा) तुझ प्रख्यात को (पृथिव्या) प्रख्यात [विद्या] के साथ (सं दधामि) मैं [परमेश्वर] संयुक्त करता हूँ। (वेद्याम्) वेदी [अंगीठी आदि] के ऊपर (यज्ञायुधैः) यज्ञ के शस्त्रों से (आज्येन) घी के साथ (अतिवक्ता) दृढ़ जमाई हुई (उखा) हाँडी [वा] (कुम्भी) बटलोयी [के समान] (मा व्यथिष्ठाः) तू मत डगमगा ॥२३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष वेद द्वारा विद्या प्राप्त करके परस्पर प्रीतिपूर्वक रहें और कठिनाई पड़ने पर निरन्तर धर्म में जमे रहें, जैसे दृढ़ जमाई हुई कढ़ाही आदि भट्टे चूल्हे आदि पर निरन्तर ठहरी रहती है ॥२३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २३−(जनित्री) जनयित्री। जननी (इव) यथा (प्रति) निश्चयेन (हर्यासि) लेटि रूपम्। हर्य। परस्परं कामयस्व (सूनुम्) पुत्रम् (सम्) संयुज्य (दधामि) धरामि (पृथिवीम्) म० २२। प्रख्याताम् (पृथिव्या) प्रख्यातया विद्यया सह (उखा) पाकपात्रम् (कुम्भी) स्थाली (वेद्याम्) अग्न्याधारे (मा व्यथिष्ठाः) व्यथां मा प्राप्नुहि (यज्ञायुधैः) यज्ञोपकरणैः (आज्येन) घृतेन सह (अतिवक्ता) षञ्ज सङ्गे−क्त। अतिदृढीकृता ॥

२४ अग्निः पचन्रक्षतु

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अ॒ग्निः पच॑न्रक्षतु त्वा पु॒रस्ता॒दिन्द्रो॑ रक्षतु दक्षिण॒तो म॒रुत्वा॑न्।
वरु॑णस्त्वा दृंहाद्ध॒रुणे॑ प्र॒तीच्या॑ उत्त॒रात्त्वा॒ सोमः॒ सं द॑दातै ॥

२४ अग्निः पचन्रक्षतु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let Agni, cooking, defend thee on the east; let Indra, with the
    Maruts, defend on the south; may Varuṇa fix thee in the maintenance
    (dharúṇa) of the western [quarter]; on the north may Soma give thee
    together.
Notes

Ppp. corrects the meter of b by reading rakṣāt; and that of d
by having varuṇas instead of somas. The verse is irregular, but by
no means a jagatī. ⌊If we make varuṇas and somas exchange places,
as suggested by Ppp., and read rakṣāt with Ppp., the vs. becomes a
good triṣṭubh.⌋ In Kāuś. 61. 32 it is used when arranging the fire about
the kettle.

Griffith

Eastward may Agni as he cooks preserve thee. Southward may Indra, grit by Maruts, guard thee, Varuna strengthen and support thee westward, and Soma on the north hold thee together.

पदपाठः

अ॒ग्निः। पच॑न्। र॒क्ष॒तु॒। त्वा॒। पु॒रस्ता॑त्। इन्द्रः॑। र॒क्ष॒तु॒। द॒क्षि॒ण॒तः। म॒रुत्वा॑न्। वरु॑णः। त्वा॒। दृं॒हा॒त्। ध॒रुणे॑। प्र॒तीच्याः॑। उ॒त्त॒रात्। त्वा॒। सोमः॑। सम्। द॒दा॒तै॒। ३.२५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (त्वा) तुझ को (पचन्) परिपक्व [दृढ़] करता हुआ (पुरस्तात्) पूर्व वा सन्मुख से (रक्षतु) बचावे, (मरुत्वान्) प्रशस्त धनवाला (इन्द्रः) पूर्ण ऐश्वर्यवाला [परमेश्वर] (दक्षिणतः) दक्षिण वा दाहिने से (रक्षतु) बचावे। (वरुणः) सब में उत्तम परमेश्वर (त्वा) तुझको (धरुणे) धारण सामर्थ्य के बीच (प्रतीच्याः) पश्चिम वा पीछेवाली [दिशा] से (दृंहात्) दृढ़ करे, (सोमः) सब जगत् का उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (त्वा) तुझको (उत्तरात्) उत्तर वा बाएँ से (सं ददातै) सँभाले ॥२४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष परमात्मा को सर्वत्र व्यापक जानकर पापों से बचकर धर्म में प्रवृत्त रहें ॥२४॥ इस मन्त्र का मिलान करो−अथर्व० ३।२७।१-४ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २४−(अग्निः) ज्ञानस्वरूपः परमेश्वरः (पचन्) पक्वं दृढं कुर्वन् (रक्षतु) पालयतु (त्वा) त्वां पुरुषम् (पुरस्तात्) पूर्वदिक्सकाशात्। अग्रतः (इन्द्रः) परमेश्वर्ययुक्तः परमेश्वरः (दक्षिणतः) दक्षिणदिशायाः। दक्षिणदेशात् (मरुत्वान्) मरुत्, हिरण्यनाम−निघ० १।२। प्रशस्तधनवान्। रत्नधातमः (वरुणः) वृञ्−उनन्। सर्वोत्तमः परमेश्वरः (त्वा) (दृंहात्) वर्धयेत्। दृढीकुर्यात् (धरुणे) धृञ् धारणे−उनन्। धारणसामर्थ्ये (प्रतीच्याः) पश्चिमायाः पश्चाद्भागस्थिताया वा दिशः (उत्तरात्) उत्तरदेशाद् वामदेशात् वा (त्वा) (सोमः) सर्वजगदुत्पादकः (सं ददातै) लेटि रूपम्। स्वीकरोतु ॥

२५ पूताः पवित्रैः

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पू॒ताः प॒वित्रैः॑ पवन्ते अ॒भ्राद्दिवं॑ च॒ यन्ति॑ पृथि॒वीं च॑ लो॒कान्।
ता जी॑व॒ला जी॒वध॑न्याः प्रति॒ष्ठाः पात्र॒ आसि॑क्ताः॒ पर्य॒ग्निरि॑न्धाम् ॥

२५ पूताः पवित्रैः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Purified with purifiers, they purify themselves from the cloud; they
    go both to heaven and to earth [as their] worlds; them, lively, rich
    in life, firm-standing, poured into the vessel (pā́tra), let the fire
    kindle about.
Notes

Ppp. puts the verse after our vs. 26, and reads at end of b
dharmaṇā (cf. RV. x. 16. 3 b), and in c, d jīvadhānyāt
sametā
⌊cf. vs. 4⌋ pātrā ”siktāt. The verse is defective by a
syllable in a, but the Anukr. passes this without notice. Kāuś. 61.
34 quotes the verse to accompany putting into the strainer.

Griffith

Drops flow, made pure by filters, from the rain-cloud: to heaven and earth and to the worlds they travel, May Indra light them up, poured in the vessel, lively and sted- fast, quickening living creatures.

पदपाठः

पू॒ताः। प॒वित्रैः॑। प॒व॒न्ते॒। अ॒भ्रात्। दिव॑म्। च॒। यन्ति॑। पृ॒थि॒वीम्। च॒। लो॒कान्। ताः। जी॒व॒लाः। जी॒वऽध॑न्याः। प्र॒ति॒ऽस्थाः। पात्रे॑। आऽसि॑क्ताः। परि॑। अ॒ग्निः। इ॒न्धा॒म्। ३.२६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पवित्रैः) शुद्ध व्यवहारों से (पूताः) शुद्ध किये गये [प्रजाजन−मन्त्र २७] (अभ्रात्) उपाय से (पवन्ते) [दूसरों को] शुद्ध करते हैं, वे (दिवम्) जय की इच्छा को (च) और (पृथिवीम्) प्रख्यात विद्या को (च) और (लोकान्) दर्शनीय घरों को (यन्ति) प्राप्त होते हैं। (ताः) उन (जीवलाः) जीवते हुए, (जीवधन्याः) जीवों में धन्य, (प्रतिष्ठाः) दृढ़ जमे हुए, (पात्रे) रक्षासाधन [ब्रह्म] मे (आसिक्ताः) भली-भाँति सींचे हुए [प्रजा जनों] को (अग्निः) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर (परि) सब ओर से (इन्धाम्) प्रकाशमान करे ॥२५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो स्त्री-पुरुष अपने शुद्ध आचरणों से जय पाने के लिये उत्तम विद्याएँ और उत्तम गुण प्राप्त करते हैं, उन पुरुषार्थी प्रशंसनीय जनों को परमेश्वर अपने नियम से कीर्तिमान् करता है ॥२५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २५−(पूताः) शोधिताः−म० २७। (पवित्रैः) शुद्धाचारैः (पवन्ते) शोधयन्ति (अभ्रात्) अभ्र गतौ−अप्। ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।२८। अभ्रमुपायं संसाध्य (दिवम्) विजिगीषाम् (च) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (पृथिवीम्) प्रख्यातां विद्याम् (च) (लोकान्) दर्शनीयान् निवासान्, (ताः) प्रजाः−मा २७ (जीवलाः) अ० ६।५९।३। सिध्मादिभ्यश्च। पा० ५।२।९७। जीव्−लच् मत्वर्थे। जीवनयुक्ताः (जीवधन्याः) जीवेषु प्रशस्ताः (प्रतिष्ठाः) प्रतिष्ठां प्राप्ताः (पात्रे) रक्षासाधने ब्रह्मणि (आसिक्ताः) समन्तात् सेचनयुक्ताः (परि) सर्वतः (अग्निः) प्रकाशस्वरूपः परमेश्वरः (इन्धाम्) दीपयतु ॥

२६ आ यन्ति

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आ य॑न्ति दि॒वः पृ॑थि॒वीं स॑चन्ते॒ भूम्याः॑ सचन्ते॒ अध्य॒न्तरि॑क्षम्।
शु॒द्धाः स॒तीस्ता उ॑ शुम्भन्त ए॒व ता नः॑ स्व॒र्गम॒भि लो॒कं न॑यन्तु ॥

२६ आ यन्ति ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. They come from the sky, they fasten on (sac) the earth; from the
    earth they fasten upon the atmosphere; being cleansed, they just cleanse
    themselves; let them conduct us to the heavenly world.
Notes

The accent of śúmbhante in c is unmotived. Ppp. reads ⌊cf. vss. 13
and 21 and note to vi. 115. 3⌋ śundhanti, which (or śumbhanti) is
decidedly preferable. That the reading in a is diváḥ p- is noted
in the comm. to Prāt. ii. 68.

Griffith

From heaven they come, they visit earth, and rising from earth unite themselves with air’s mid-region, Purified, excellent, they with shine in beauty. Thus may they lead us to the world of Svarga.

पदपाठः

आ। य॒न्ति॒। दि॒वः। पृ॒थि॒वीम्। स॒च॒न्ते॒। भूम्याः॑। स॒च॒न्ते॒। अधि॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। शु॒ध्दाः। स॒तीः। ताः। ऊं॒ इति॑। शुम्भ॑न्ते। ए॒व। ताः। नः॒। स्वः॒ऽगम्। अ॒भि। लो॒कम्। न॒य॒न्तु॒। ३..२६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [वे प्रजाजन−मन्त्र २७] (दिवः) विजय की इच्छा से (पृथिवीम्) प्रख्यात [विद्या] को (आ यन्ति) प्राप्त होते हैं और (सचन्ते) सेवते हैं, (भूम्याः) [अन्तःकरण की] शुद्धि से (अधि) अधिकारपूर्वक (अन्तरिक्षम्) भीतर दीखते हुए [परब्रह्म] को (सचन्ते) सेवते हैं। (ताः) वे शुद्धाः) शुद्ध (सतीः) होकर, (उ) ही [दूसरों को] (एव) भी (शुम्भन्ते) शुद्ध करते हैं, (ताः) वे [प्रजाएँ] (नः) हमको (स्वर्गम्) सुख पहुँचानेवाले (लोकम् अभि) दर्शनीय समाज में (नयन्तु) पहुँचावें ॥२६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् स्त्री-पुरुष परमेश्वर को साक्षात् करके आत्मबल बढ़ाते हुए सब को धर्म में प्रवृत्त करके सुखी रक्खें ॥२६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २६−(आ यन्ति) आगच्छन्ति (दिवः) विजिगीषासकाशात् (पृथिवीम्) प्रख्यातां विद्याम् (सचन्ते) सेवन्ते (भूम्याः) भू शुद्धौ−मि। योगिनां चित्तावस्थाभेदात्। अन्तःकरणशुद्धेः (सचन्ते) (अधि) अधिकारपूर्वकम् (अन्तरिक्षम्) मध्ये दृश्यमानं परब्रह्म (शुद्धाः) पवित्राचाराः (सतीः) सत्यः (ताः) म० २७। प्रजाः (उ) एव (शुम्भन्ते) शोधयन्ति (एव) निश्चयेन (ताः) (नः) अस्मान् (स्वर्गम्) सुखप्रापकम्, (अभि) प्रति (लोकम्) दर्शनीयं समाजम् (नयन्तु) प्रापयन्तु ॥

२७ उतेव प्रभ्वीरुत

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उ॒तेव॑ प्र॒भ्वीरु॒त संमि॑तास उ॒त शु॒क्राः शुच॑यश्चा॒मृता॑सः।
ता ओ॑द॒नं दंप॑तिभ्यां॒ प्रशि॑ष्टा॒ आपः॒ शिक्ष॑न्तीः पचता सुनाथाः ॥

२७ उतेव प्रभ्वीरुत ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Both as it were prevailing (prabhú) and also commensurate, also
    bright and clean, immortal—as such do ye, O waters, directed, helping,
    cook the rich-dish for the two spouses, ye of good refuge.
Notes

The translation implies in d emendation of āpaḥ॰śíkṣantīḥ to ā́paḥ
śíkṣ-
, the former seeming wholly unacceptable. Ppp. combines and reads
praśiṣṭā ”pas sīkṣ-. Our text reads with the mss.

Griffith

Yea, and supreme, alike in conformation, and brilliant and refulgent and immortal, As such, enjoined, well-guarding, water-givers, dress ye the Odana for wife and husband.

पदपाठः

उ॒त्ऽइ॑व। प्र॒ऽभ्वीः। उ॒त। सम्ऽमि॑तासः। उ॒त। शु॒क्राः। शुच॑यः। च॒। अ॒मृता॑सः। ताः। ओ॒द॒नम्। दंप॑तिऽभ्याम्। प्रऽशि॑ष्टाः। आ॒पः॒। शिक्ष॑न्तीः। प॒च॒त॒। सु॒ऽना॒थाः॒। ३.२७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उत इव) और जैसी (प्रभ्वीः) प्रबल (उत) और (संमितासः) सन्मान की गयी, (च) और (शुक्राः) वीर्यवाली, (शुचयः) शुद्ध आचरणवाली, (च) और (अमृतासः) अमर [सदा पुरुषार्थयुक्त], (प्रशिष्टाः) बड़ी शिष्ट [वेदवाक्य में विश्वास करनेवाली वा सुबोध], (शिक्षन्तीः) उपकार करती हुई (ताः) वे तुम सब, (आपः) हे आप्त प्रजाओ ! (सुनाथाः) हे बड़ी ऐश्वर्यवालियो ! (दम्पतिभ्याम्) दोनों पति-पत्नी के लिये (ओदनम्) सुख बरसानेवाले [परमेश्वर] को (पचत) परिपक्व करो, [हृदय में दृढ़ करो] ॥२७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पति-पत्नी के हित के लिये अर्थात् गृहाश्रम की सिद्धि के लिये, तुम सब प्रकार से समर्थ और उपकारी होकर परमात्मा पर सदा विश्वास रक्खो ॥२७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २७−(उत) अपि (इव) यथा (प्रभ्वीः) प्रभ्व्यः। समर्थाः (उत) (संमितासः) असुगागमः। संमानिताः (उत) (शुक्राः) वीर्यवत्यः (शुचयः) शुद्धाचरणाः (च) (अमृतासः) मरणरहिताः। पुरुषार्थयुक्ताः (ताः) तथाविधाः (ओदनम्) सुखवर्षकं परमात्मानम् (दम्पतिभ्याम्) जायापतिभ्याम् (प्रशिष्टाः) शासु अनुशिष्टौ−क्त। प्रकर्षेण शिष्टाः। वेदवाक्ये विश्वासकारिण्यः। सुबोधाः (आपः) हे आप्ताः प्रजाः (शिक्षन्तीः) अ० ६।११४।२। शक्लृ शक्तौ−सन्। शतृ, ङीप्। शक्तुमुपकर्तुमिच्छन्त्यः (पचत) पक्वं दृढं कुरुत (सुनाथाः) नाथ ऐश्वर्ये−अच्, टाप्। हे बह्वैश्वर्यवत्यः ॥

२८ सङ्ख्याता स्तोकाः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

संख्या॑ता स्तो॒काः पृ॑थि॒वीं स॑चन्ते प्राणापा॒नैः संमि॑ता॒ ओष॑धीभिः।
असं॑ख्याता ओ॒प्यमा॑नाः सु॒वर्णाः॒ सर्वं॒ व्या᳡पुः॒ शुच॑यः शुचि॒त्वम् ॥

२८ सङ्ख्याता स्तोकाः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The numbered drops (stoká) fasten on the earth, being commensurate
    with breaths-and-expirations, with herbs; being scattered on,
    unnumbered, of good color, the clean ones have obtained all cleanness.
Notes

This verse, as noted above, is wanting in Ppp. It is quoted in Kāuś. 61.
36 to accompany the scattering in of the rice-grains after washing.

Griffith

Numbered, they visit earth, these drops of moisture, commensu- rate with plants and vital breathings, Unnumbered, scattered, beautiful in colour, the bright, ones have pervaded all refulgence.

पदपाठः

सम्ऽख्या॑ताः। स्तो॒काः। पृ॒थि॒वीम्। स॒च॒न्ते॒। प्रा॒णा॒पा॒नैः। सम्ऽमि॑ताः। ओष॑धीभिः। अस॑म्ऽख्याताः। आ॒ऽउ॒प्यमा॑नाः। सु॒ऽवर्णाः॑। सर्व॑म्‌। वि। आ॒पुः॒। शुच॑यः। शु॒चि॒ऽत्वम्। ३.२८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (संख्याताः) समान ख्यातिवाले, (स्तोकाः) प्रसन्न चित्तवाले, (प्राणापानैः) प्राण और अपान व्यवहारों से और (ओषधीभिः) ओषधियों [अन्न सोम लता आदि] से (संमिताः) सन्मान किये गये लोग (पृथिवीम्) प्रख्यात [भूमि अर्थात् राज्यश्री] को (सचन्ते) सेवते हैं। (असंख्याताः) निर्व्याकुलता [दृढ़ स्वभाव] से प्रसिद्ध, (ओप्यमानाः) यथाविधि [बीज समान] फैलते हुए, (सुवर्णाः) सुन्दर [ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य] वर्णवाले, (शुचयः) शुद्ध आचरवाले पुरुषों ने (सर्वम्) सब में (शुचित्वम्) पवित्रता को (वि आपुः) फैलाया है ॥२८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पुरुष प्रत्येक श्वास-प्रश्वास पर शुभ कर्म करके अन्न आदि प्राप्त करते हैं, वे सन्मानित और प्रसन्नचित्त लोग विद्या वा राजश्री को भोगते हैं, जैसे पूर्वज दृढ़ स्वभाववालों ने बाहिर-भीतर शुद्ध होकर संसार को शुद्ध बनाया है ॥२८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २८−(संख्याताः) समानख्याताः प्रसिद्धाः (स्तोकाः) अ० ४।३८।६। ष्टुच प्रसादे दीप्तौ च−घञ्। प्रसन्नचित्ताः पुरुषाः (पृथिवीम्) प्रख्यातां राज्यश्रियम् (सचन्ते) सेवन्ते (संमिताः) सम्मानिताः (ओषधीभिः) सोमलतान्नादिभिः (असंख्याताः) षम वैकल्ये अवैकल्ये च−क्विप्+ख्या प्रकथने−क्त। असमि निर्वैकल्ये शान्तौ प्रसिद्धाः (ओप्यमानाः) आङ्+डुवप बीजसन्ताने−कर्मणि शानच्। समन्ताद् बीजवत् प्रसार्यमाणाः (सुवर्णाः) ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशोभनवर्णाः (सर्वम्) निखिलं जगत् (व्यापुः) अन्तर्गतण्यर्थः। व्यापिनवन्तः। प्रसारयामासुः (शुचयः) शुद्धाचरणाः (शुचित्वम्) अन्तर्बाह्यपवित्रव्यवहारम् ॥

२९ उद्योधन्त्यभि वल्गन्ति

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उद्यो॑धन्त्य॒भि व॑ल्गन्ति त॒प्ताः फेन॑मस्यन्ति बहु॒लांश्च॑ बि॒न्दून्।
योषे॑व दृ॒ष्ट्वा पति॒मृत्वि॑यायै॒तैस्त॑ण्डु॒लैर्भ॑वता॒ समा॑पः ॥

२९ उद्योधन्त्यभि वल्गन्ति ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. They struggle up (ud-yudh), they dance on, being heated; they hurl
    foam and abundant drops (bindú); like a woman that is in her season,
    seeing her husband, unite yourselves, O waters, with these rice-grains.
Notes

The translation assumes the emendation, made in our edited text, of
ṛ́tviyā yā́, for the ṛ́tviyāya of all the mss. ⌊See SPP’s note on this
matter, p. 231. He says ṛtviya = māithuna. Ppp. reads ṛtviyāvāis
tāis taṇḍ-
. In Kāuś. 61. 37 the verse accompanies the making of the
water to boil.

Griffith

Heated, they rage and boil in agitation, they cast about their foam and countless bubbles Like a fond woman when she sees her husband–what time ye waters and these rice-grains mingle,

पदपाठः

उत्। यो॒ध॒न्ति॒। अ॒भि। व॒ल्ग॒न्ति॒। त॒प्ताः। फेन॑म्। अ॒स्य॒न्ति॒। ब॒हु॒लान्। च॒। बि॒न्दून्। योषा॑ऽइव। दृ॒ष्ट्वा। पति॑म्। ऋत्वि॑जाय। ए॒तैः। त॒ण्डु॒लैः। भ॒व॒त॒। सम्। आ॒पः॒। ३.२९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - वे [जल] (तप्ताः) तप्त होकर (उत् योधन्ति) भिड़ जाते हैं, (अभि) सब ओर को (वल्गन्ति) फुदकते हैं, (फेनम्) फेन को (च) और (बहुलान्) बहुत से (बिन्दून्) बिन्दुओं को (अस्यन्ति) फेंकते हैं। (आपः) हे आप्त प्रजाओ ! (एतैः) इन (तण्डुलैः) चावलों [अन्न आदि] के साथ (सं भवत) तुम शक्तिमान् बनो, (इव) जैसे (योषा) सेवायोग्य पत्नी (ऋत्वियाय) ऋतु [गर्भधारणयोग्य काल] पाने के लिये (पतिम्) पति को (दृष्ट्वा) देखकर [शक्तिवाली होती है] ॥२९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे जल अग्नि के संयोग से खौलने लगता है, अथवा जैसे पत्नी ऋतुकाल में पति को प्राप्त होकर अभीष्ट सन्तान उत्पन्न करती है, वैसे ही सब पुरुषों को पुरुषार्थ के साथ अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहिये ॥२९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २९−(उद्योधन्ति) उत्कर्षेण संप्रहरन्ति (अभि) सर्वतः (वल्गन्ति) उत्प्लुत्य गच्छन्ति (तप्ताः) अग्निसंयुताः सत्यः। आपः−इति शेषः (फेनम्) फेनमीनौ। उ० ३।३। स्फायी वृद्धौ−नक्। बुद्बुदाकारं पदार्थम् (अस्यन्ति) क्षिपन्ति (बहुलान्) बहून् (च) (बिन्दून्) (योषा) सेवनीया पत्नी (इव) यथा (दृष्ट्वा) निरीक्ष्य (पतिम्) भर्तारम् (ऋत्वियाय) अ० ३।२०।१। छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। ऋतु−घस्, इयादेशः। क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। ऋतुं गर्भाधानयोग्यकालं प्राप्तुम् (एतैः) (तण्डुलैः) (संभवत) शक्तिमत्यो भवत (आपः) हे आप्ताः प्रजाः ॥

३० उत्थापय सीदतो

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उत्था॑पय॒ सीद॑तो बु॒ध्न ए॑नान॒द्भिरा॒त्मान॑म॒भि सं स्पृ॑शन्ताम्।
अमा॑सि॒ पात्रै॑रुद॒कं यदे॒तन्मि॒तास्त॑ण्डु॒लाः प्र॒दिशो॒ यदी॒माः ॥

३० उत्थापय सीदतो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Make thou them stand up, as they sit on the bottom; let them touch
    themselves all over with the waters; I have measured with vessels
    (pā́tra) the water that is here; measured are the rice-grains that are
    these directions.
Notes

The last pāda is translated as if yádīmā́ḥ (p. yádi imā́ḥ) were meant
as equivalent to yád imā́ḥ, corresponding to the yád etát of c.
Ppp. has sṛjantām at end of b.

⌊Here, at the end of a decad-division, ends the twenty-sixth
prapāṭhaka.⌋

Griffith

Take up these rice-grains lying at the bottom: led them be blent and mingled with the waters. This water I have measured in the vessel, if as mid-points the rice-grains have been meted.

पदपाठः

उत्। स्था॒प॒य॒। सीद॑तः। बु॒ध्ने। ए॒ना॒न्। अ॒त्ऽभिः। आ॒त्मान॑म्। अ॒भि। सम्। स्पृ॒श॒न्ता॒म्। अमा॑सि। पात्रैः॑। उ॒द॒कम्। यत्। ए॒तत्। मि॒ताः। त॒ण्डु॒लाः। प्र॒ऽदिशः॑। यदि॑। इ॒माः। ३.३०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वीर !] (बुध्ने) तले पर (सीदतः) बैठे हुए (एनान्) इन [चावलों] को (उत् स्थापय) ऊँचा उठा, वे [चावल] (अद्भिः) जल के साथ (आत्मानम्) अपने को (अभि) सब प्रकार (सं स्पृशन्ताम्) मिला देवें। (पात्रैः) पात्रों [चमचे आदि] से, (यत्) जो कुछ (एतत्) यह (उदकम्) जल है, [उसे] (अमासि) मैंने नाप लिया है, (यदि) यदि (तण्डुलाः) चावल (इमाः प्रदिशः) इन दिशाओं में [बटलोही के भीतर] (मिताः) नापे गये हैं ॥३०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे रसोइया बटलोही के पेंदे में बैठे हुए चावलों को उठाकर जल से मिलाता है, और बार-बार जल और चावलों को नाप कर ठीक-ठीक पकाता है, वैसे ही मनुष्य यथावत् उपाय से दूसरों को उन्नत करके योग्य बनावें ॥३०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३०−(उत्थापय) ऊर्ध्वं धारय (सीदतः) उपविशतः (बुध्ने) मूले (एनान्) तण्डुलान् (अद्भिः) जलैः (आत्मानम्) (अभि) सर्वतः (संस्पृशन्ताम्) संयोजयन्तु (अमासि) माङ् माने−लुङ्। अहं परिमितवानस्मि (पात्रैः) चमसादिभिः (उदकम्) जलम् (यत्) (एतत्) (मिताः) परिमिताः (तण्डुलाः) (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः, प्रतीति शेषः (यदि) (इमाः) उखायां वर्तमानाः ॥

३१ प्र यच्छ

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प्र य॑च्छ॒ पर्शुं॑ त्व॒रया ह॑रौ॒षमहिं॑सन्त॒ ओष॑धीर्दान्तु॒ पर्व॑न्।
यासां॒ सोमः॒ परि॑ रा॒ज्यं᳡ ब॒भूवाम॑न्युता नो वी॒रुधो॑ भवन्तु ॥

३१ प्र यच्छ ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Reach thou forth the sickle (párśu), hasten, take [it] quickly;
    let them, not harming, cut () the herbs at the joint; they of whom
    Soma compassed the kingship—let the plants be without wrath toward us.
Notes

One or two of our mss. read in a páraśum (M.W.; O. párárśum);
and, as usual, some (O.D.R.) accent rā́jyam in c. Ppp. has
harantu for harāu ’ṣam in a; and, in c, soma yāsām.
Amanyutāḥ is undivided in the pada-text. In Kāuś. 61. 38 the first
pāda is used with handing over the sickle for gathering the
darbha-grass; the second pāda,* in 61. 39, with cutting it above the
joints; and in 1. 24, 25 both for a similar purpose; so also the first
pāda (or the verse) in 8. 11; and yet again both in the comm. to 137. 4.
*⌊Quoted as oṣadhīr dāntu parvan at i. 25 and 61. 39. According to
Daś. Kar. (note to 137. 4), the quotation pra yacha parśum covers a
pāda and a half, that is, it includes the ahiṅsantas which is omitted
in the quotation of b.⌋

Griffith

Present the sickle: quickly bring it hither. Let them out plants and joints with hands that harm not. So may the plants be free from wrath against us, they o’er whose realm Soma hath won dominion.

पदपाठः

प्र। य॒च्छ॒। पर्शु॑म्। त्व॒रय॑। आ। ह॒र॒। ओ॒षम्। अहिं॑सन्तः। ओष॑धीः। दा॒न्तु॒। पर्व॑न्। यासा॑म्। सोमः॑। परि॑। रा॒ज्य᳡म्। ब॒भूव॑। अम॑न्युताः। नः॒। वी॒रुधः॑। भ॒व॒न्तु॒। ३.३१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (पर्शुम्) हँसिया [दराँती] को (प्र यच्छ) ले, (त्वरय=०−या) वेग से (आ हर) ले आ, (ओषधीः) ओषधियों [अन्न आदि] को (अहिंसन्तः) हानि न करते हुए वे [लावा लोग] (पर्वन्) गाँठ पर (ओषम्) झटपट (दान्तु) काटें। (यासाम्) जिन [अन्न आदि] के (राज्यम्) राज्य को (सोमः) चन्द्रमा [वा जल] ने (परि बभूव) घेर लिया था, (अमन्युताः) क्रोध को न फैलाती हुई (वीरुधः) वे ओषधें [अन्न आदि] (नः) हमें (भवन्तु) प्राप्त होवें ॥३१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे जब खेती चन्द्रमा और जल के संयोग से पक जाती है, तब किसान चतुर कटवैयों से यथाविधि कटवा कर अन्न आदि पाता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष विद्वानों के संयोग से ईश्वरज्ञान प्राप्त करके सुखी होता है ॥३१॥ पदपाठ में (त्वरय) के स्थान पर [त्वरया] सुबन्त मान कर हम ने अर्थ किया है। यदि तिङन्त होता तो [तिङ्ङतिङः। पा० ८।१।२८।] इस सूत्र से वह सब अनुदात्त होता ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३१−(प्र यच्छ) नियमय। संगृहाण (पर्शुम्) आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। पर+शॄ हिंसायाम्−कु, अकारलोपः। शस्त्रभेदम्। कुठारादिकम् (त्वरय) त्वरया। वेगेन (आहर) आनय (ओषम्) क्षिप्रम्−निघ० २।१५। (अहिंसन्तः) अहानिं कुर्वन्तः (ओषधीः) अन्नादीन् (दान्तु) लुनन्तु (पर्वन्) पर्वणि। ग्रन्थौ (यासाम्) ओषधीनाम् (सोमः) चन्द्रः जलम् (परि) परितः (राज्यम्) राष्ट्रम् (बभूव) प्राप (अमन्युताः) अमन्यु+तनु विस्तारे−ड, टाप्। अमन्योरक्रोधस्य विस्तारिकाः (नः) अस्मान् (वीरुधः) ओषधयः (भवन्तु) प्राप्नुवन्तु ॥

३२ नवं बर्हिरोदनाय

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नवं॑ ब॒र्हिरो॑द॒नाय॑ स्तृणीत प्रि॒यं हृ॒दश्चक्षु॑षो व॒ल्ग्व᳡स्तु।
तस्मि॑न्दे॒वाः स॒ह दै॒वीर्वि॑शन्त्वि॒मं प्राश्न॑न्त्वृ॒तुभि॑र्नि॒षद्य॑ ॥

३२ नवं बर्हिरोदनाय ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Strew ye a new barhís for the rice-dish; be it dear to the heart,
    agreeable to the eye; on it let the gods [and] the divine ones (f.)
    settle (viś) together; sitting down (ni-sad), let them partake of
    this with the seasons.
Notes

The mss. read in b priyā́m, but our text makes the unavoidable
emendation to -yám. Some of the mss. also are bothered over the
unusual combination lgva in b: ⌊thus Bs. has vaglàv astu; R.
valgáv astu; T. valgvustu. And again, in d, Bs. reads -śnan
ṛ́t-
, and O.s.m.R. -śnanty ṛt-. The verse accompanies in Kāuś. 61. 40
the strewing of the barhis.

Griffith

Strew ye fresh grass for the boiled rice to rest on: fair let it be, sweet to the eye and spirit. Hither come Goddesses with Gods, and sitting here taste in proper season this oblation.

पदपाठः

नव॑म्। ब॒र्हिः। ओ॒द॒नाय॑। स्तृ॒णी॒त॒। प्रि॒यम्। हृ॒दः। चक्षु॑षः। व॒ल्गु। अ॒स्तु॒। तस्मि॑न्। दे॒वाः। स॒ह। दै॒वीः। वि॒श॒न्तु॒। इ॒मम्। प्र। अ॒श्न॒न्तु॒। ऋ॒तुऽभिः॑। नि॒ऽसद्य॑। ३.३२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (नवम्) नवीन (बर्हिः) आसन (ओदनाय) भात [रँधे चावल जीमने] के लिये (स्तृणीत) बिछाओ, वह [आसन] (हृदः) हृदय का (प्रियम्) प्रिय और (चक्षुषः) नेत्र का (वल्गु) रमणीय (अस्तु) होवे। (तस्मिन्) उस [आसन] पर (देवाः) देवता [विद्वान् लोग] और (देवीः) देवियाँ [विदुषी स्त्रियाँ] (सह) साथ-साथ (विशन्तु) बैठें और (ऋतुभिः) सब ऋतुओं के साथ (निषद्य) बैठकर (इमम्) इस [भात] को (प्र अश्नन्तु) स्वाद से जीमें ॥३२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य रुचिर भोजन को रमणीक स्थान में ऋतुओं के अनुसार जीमकर प्रसन्न होते हैं, वैसे ही योगी जन शुद्ध अन्तःकरण में परमात्मा के अनुभव से मोक्षसुख पाते हैं ॥३२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३२−(नवम्) नवीनम् (बर्हिः) आसनम् (ओदनाय) भक्तं जेमितुम् (स्तृणीत) आच्छादयत (प्रियम्) हितकरम् (हृदः) हृदयस्य (चक्षुषः) नेत्रस्य (वल्गु) रमणीयम् (अस्तु) (तस्मिन्) बर्हिषि (देवाः) विद्वांसः (सह) परस्परम् (देवीः) विदुष्यः (विशन्तु) निषीदन्तु (इमम्) ओदनम् (प्राश्नन्तु) स्वादु भक्षयन्तु (ऋतुभिः) समुचितकालैः (निषद्य) उपविश्य ॥

३३ वनस्पते स्तीर्णमा

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वन॑स्पते स्ती॒र्णमा सी॑द ब॒र्हिर॑ग्निष्टो॒मैः संमि॑तो दे॒वता॑भिः।
त्वष्ट्रे॑व रू॒पं सुकृ॑तं॒ स्वधि॑त्यै॒ना ए॒हाः परि॒ पात्रे॑ ददृश्राम् ॥

३३ वनस्पते स्तीर्णमा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. O forest tree, sit on the strewn barhís, being commensurate with
    the Agni-praises (agniṣṭomá), with the deities; like a form well made
    by an artisan (tváṣṭṛ) with a knife, so (enā́) let the eager ones be
    seen round about in the vessel (pā́tra).
Notes

Bp. and Bs.s.m. read svádhiyā at end of c. The anomalous hiatus
enā́ (p. enā́) ehā́ḥ is noted in Prāt. iii. 34. Ppp. reads
svadhityāināhyāṣ pari pātre dadṛśyām, which is welcome as ridding us
of the wholly unsupported form dadṛśrām; ⌊cf. Gram. §813⌋. In Kāuś.
61. 43, the verse accompanies the setting of a vessel (pātrī) upon the
barhis; in Vāit. 10. 7, the laying of the sacrificial post upon the
same (the editor of Kāuś. regards it as quoted also in 15. 11, but the
verse there intended must be rather vi. 125. 1).

Griffith

On the strewn grass. Vanaspati, be seated; commensurate with Gods and Agnishtomas. Let thy fair form, wrought as by Tvashtar’s hatchet, mark these that yearn for thee within the vessel.

पदपाठः

वन॑स्पते। स्ती॒र्णम्। आ। सी॒द॒। ब॒र्हिः। अ॒ग्नि॒ऽस्तो॒मैः। सम्ऽमि॑तः। दे॒वता॑भिः। त्वष्ट्रा॑ऽइव। रू॒पम्। सुऽकृ॑तम्। स्वऽधि॑त्या। ए॒ना। ए॒हाः। परि॑। पात्रे॑। द॒ह॒श्रा॒म्। ३.३३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वनस्पते) हे सेवनीय शास्त्र के रक्षक विद्वान् ! तू (स्तीर्णम्) फैले हुए (बर्हिः) आसन पर (आ सीद) बैठ जा, तू (अग्निष्टोमैः) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर की स्तुतियों से और (देवताभिः) व्यवहारकुशल पुरुषों से (संमितः) सन्मान किया गया है। (एना) इस [पुरुष] करके (एहाः) चेष्टाएँ (पात्रे) पात्र में [चित्त में] (परि) सब ओर से (ददृश्राम्) देखी जावें, (त्वष्ट्रा इव) जैसे शिल्पी करके (स्वधित्या) वसूले आदि से (सुकृतम्) सुन्दर बनाया गया (रूपम्) वस्तु [देखा जाता है] ॥३३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब मनुष्य ईश्वर के यथार्थ ज्ञान से और विद्वानों के सत्सङ्ग से संसार में मान्य और स्वस्थ होकर बैठता है, वह चित्त की वृत्तियों को ऐसा स्पष्ट देखता है, जैसे शिल्पी अपने बनाये पदार्थ को निरखता है ॥३३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३३−(वनस्पते) म० १५। हे सेवनीयस्य शास्त्रस्य रक्षक (स्तीर्णम्) विस्तीर्णम् (आसीद) उपविश (बर्हिः) आसनम् (अग्निष्टोमैः) ज्ञानस्वरूपस्य परमेश्वरस्य स्तुतिभिः (संमितः) सन्मानितः (देवताभिः) व्यवहारकुशलैः (त्वष्ट्रा) शिल्पिना (इव) यथा (रूपम्) द्रव्यम् (सुकृतम्) सुनिर्मितम् (स्वधित्या) कुठारविशेषेण (एना) एनेन पुरुषेण (एहाः) आङ्+ईह चेष्टायाम्−अङ्, टाप्। सम्यक् चेष्टाः (परि) सर्वतः (पात्रे) भाजने। चित्तं (ददृश्राम्) दृशिर् दर्शने−कर्मणि लोट्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७६। शपः श्लुः, द्वित्वम्। झस्य अत्, तलोपे पररूपे च कृते, एत्वे। आमेतः। पा० ३।४।९०। आम्। बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। रुट्। दृश्यन्ताम् ॥

३४ षष्ट्यां शरत्सु

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ष॒ष्ट्यां श॒रत्सु॑ निधि॒पा अ॒भी᳡च्छा॒त्स्वः᳡ प॒क्वेना॒भ्य᳡श्नवातै।
उपै॑नं जीवान्पि॒तर॑श्च पु॒त्रा ए॒तं स्व॒र्गं ग॑म॒यान्त॑म॒ग्नेः ॥

३४ षष्ट्यां शरत्सु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. In sixty autumns may he (?) seek unto the treasure-keepers; may he
    attain unto the sky with the cooked [offering]; may both fathers
    [and] sons live upon him; make thou this one to go unto the
    heaven-going end of the fire.
Notes

The last pāda admits of various other constructions. Both here and in
vs. 41 (where pāda a is repeated) Bp. reads at the beginning
śaṣṭhyā́m. In c, O.p.m.R. accent jīvā́n. Ppp. puts the verse after
our vs. 35, and reads, for a, ṣaṣṭyām śaradbhyaṣ paridadhma enam;
for c, upāi ’naṁ putrān pitaraś ca sīdām; in d, imam for
etam. There is no reason why the Anukr. should regard the verse as
anything but a regular triṣṭubh. In Kāuś. 62. 9 it accompanies the
setting down of the rice-dish westward from the fire.

Griffith

In sixty autumns may the Treasure-Guardian seek to gain heavenly light by cooked oblation. On this may sons and fathers live dependent. Send thou this mess to Fire that leads to heaven.

पदपाठः

ष॒ष्ट्याम्। श॒रत्ऽसु॑। नि॒धि॒ऽपाः। अ॒भि। इ॒च्छा॒त्। स्वः᳡। प॒क्वेन॑। अ॒भि। अ॒श्न॒वा॒तै॒। उप॑। ए॒न॒म्। जी॒वा॒न्। पि॒तरः॑। च॒। पु॒त्राः। ए॒तम्। स्वः॒ऽगम्। ग॒म॒य॒। अन्त॑म्। अ॒ग्नेः। ३.३४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • विराड्गर्भा त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (षष्ठ्याम्) साठ [बहुत] (शरत्सु) बरसों में (निधिपाः) निधियों का रक्षक [मनुष्य] (स्वः) सुख को (पक्वेन) परिपक्व [ज्ञान] के साथ (अभि इच्छात्) सब ओर खोजे और (अभि) सब प्रकार (अश्नवातै) प्राप्त करे। (पितरः) पितर [रक्षक ज्ञानी] (च) और (पुत्राः) पुत्र [कष्ट से बचानेवाले लोग] (एनम्) इस [वीर] के (उप जीवान्) आश्रय से जीवते रहें, [हे परमेश्वर !] (एतम्) इस [वीर] को (अग्नेः) ज्ञान के (अन्तम्) अन्त [सीमा], (स्वर्गम्) सुख समाज में (गमय) पहुँचा ॥३४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बड़े अभ्यास से परिपक्व ज्ञानी होकर मोक्षसुख पाता है, उस विद्वान् वीर पुरुष का सब विद्वान् लोग आश्रय लेते हैं, और वह परमेश्वर के अनुग्रह से सब का अग्रगामी होकर आनन्दित होता है ॥३४॥ इस मन्त्र का प्रथम पाद आगे मन्त्र ४१ में है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३४−(षष्ठ्याम्) षष्टिसंख्यायुक्तासु। अनेकासु इत्यर्थः (शरत्सु) संवत्सरेषु (निधिपाः) निधिपालकः (अभि इच्छात्) अन्विच्छेत् (स्वः) सुखम् (पक्वेन) दृढज्ञानेन (अभि) (अश्नवातै) प्राप्नुयात् (एनम्) विद्वांसम् (उप जीवान्) लेट्। उपेत्य जीवन्तु (पितरः) पालका विज्ञानिनः (च) (पुत्राः) पुतो नरकात् त्रायकाः पुरुषाः (एतम्) (विद्वांसम्) (स्वर्गम्) सुखप्रापकं लोकम् (गमय) प्रापय (अन्तम्) सीमाम् (अग्नेः) ज्ञानस्य ॥

३५ धर्ता ध्रियस्व

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ध॒र्ता ध्रि॑यस्व ध॒रुणे॑ पृथि॒व्या अच्यु॑तं॒ त्वा दे॒वता॑श्च्यावयन्तु।
तं त्वा॒ दंप॑ती॒ जीव॑न्तौ जी॒वपु॑त्रा॒वुद्वा॑सयातः॒ पर्य॑ग्नि॒धाना॑त् ॥

३५ धर्ता ध्रियस्व ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. A maintainer, maintain thyself in the maintenance of the earth; thee
    that art unmoved let the deities make to move (cyu); thee shall the
    two spouses, living, having living sons, cause to remove (ud-vas) out
    of the fire-holder.
Notes

Ppp. combines -vyā ’cyutam in a-b, omits the meter-disturbing (and
probably intrusive) tvā of c, reads in c -putrā, and in
d ud vāsayāthaṣ p-. The Anukr. takes no notice of the redundant
syllable in our c. In Kāuś. 61. 41, the verse accompanies the
removal of the vessel; in Vāit. 10. 9, the insertion of the end of the
sacrificial post in the ground.

Griffith

On the earth’s breast stand firmly as supporter: may Deities stir thee who ne’er hast shaken. So living man and wife with living children remove thee from the hearth of circling Agni.

पदपाठः

ध॒र्ता। ध्रि॒य॒स्व॒। ध॒रुणे॑। पृ॒थि॒व्याः। अच्यु॑तम्। त्वा॒। दे॒वताः॑। च्य॒व॒य॒न्तु॒। तम्। त्वा॒। दंप॑ती॒ इति॑ दम्ऽप॑ती। जीव॑न्तौ। जी॒वऽपु॑त्रौ। उत्। वा॒स॒या॒तः॒। परि॑। अ॒ग्नि॑ऽधाना॑त्। ३.३५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वीर !] तू (धर्ता) धर्ता [धारण करनेवाला] होकर (पृथिव्याः) पृथिवी के (धरुणे) धारण में (ध्रियस्व) दृढ़ रह, (अच्युतम् त्वा) तुझ निश्चल को (देवताः) देवता [विद्वान् लोग] (च्यवयन्तु) सहन करें। (तम् त्वा) उस तुझको (जीवन्तौ) जीवते हुए [पुरुषार्थी] (जीवपुत्रौ) जीवते [पुरुषार्थी] पुत्रोंवाले (दम्पती) दोनों पति-पत्नी (परि) सब ओर से (अग्निधानात्) ज्ञान के आधार [होने के कारण] से (उत्) उत्कर्षता से, (वासयातः) निवास करावें ॥३५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो विद्वान् पराक्रमी दृढ़स्वभाव पुरुष प्रजापालन में चतुर हो, विद्वान् लोग उसका आश्रय लेवें, और ऐसे पुत्र से माता-पिता पुत्रवान् होकर उसको उच्च बनावें ॥३५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३५−(धर्ता) धारकः सन् (ध्रियस्व) धृतः स्थिरो भव (धरुणे) धारणे (पृथिव्याः) भूमिराज्यस्य (अच्युतम्) च्युङ् गतौ−क्त। निश्चलम् (त्वा) वीरम् (देवताः) विद्वांसः (च्यवयन्तु) च्यु हसने सहने च। सहन्ताम् (तम्) (तादृशम्) (त्वा) (दम्पती) जायापती (जीवन्तौ) प्राणान् धरन्तौ पुरुषार्थं कुर्वन्तौ (जीवपुत्रौ) जीविता पुरुषार्थयुक्ताः पुत्रा ययोस्तौ (उत्) उत्कर्षेण (वासयातः) लेट्। निवासयताम् (परि) सर्वतः (अग्निधानात्) ज्ञानधारणकारणात् ॥

३६ सर्वान्त्समागा अभिजित्य

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सर्वा॑न्त्स॒मागा॑ अभि॒जित्य॑ लो॒कान्याव॑न्तः॒ कामाः॒ सम॑तीतृप॒स्तान्।
वि गा॑हेथामा॒यव॑नं च॒ दर्वि॒रेक॑स्मि॒न्पात्रे॒ अध्युद्ध॑रैनम् ॥

३६ सर्वान्त्समागा अभिजित्य ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thou hast come together unto all the worlds, having conquered;
    however many [be] the desires, thou hast made them wholly satisfied;
    plunge ye (du.) in—both the stirring-stick [and] the spoon; take thou
    him up upon one vessel.
Notes

This obscure verse wins no light from Kāuś. (62. 1), which says simply
iti mantroktam, connecting it with xi. 1. 24. Some of our mss.
(P.M.W.T.) read abhí for ádhi in d. We should expect in c
gāhetām, as the nouns are not vocative. Ppp. reads in a samāgān
abhicikya
, and in b kāmān samitāu purastāt.

⌊See p. lxxxviii.⌋

Griffith

All wishes that have blessed those with fulfilment, having won all the worlds have met together. Let them plunge in both stirring-spoon and ladle: raise this and set it in a single vessel.

पदपाठः

सर्वा॑न्। स॒म्ऽआगाः॑। अ॒भि॒ऽजित्य॑। लो॒कान्। याव॑न्तः। कामाः॑। सम्। अ॒ती॒तृ॒पः॒। तान्। वि। गा॒हे॒था॒म्। आ॒ऽयव॑नम्। च॒। दर्विः॑। एक॑स्मिन्। पात्रे॑। अधि॑। उत्। ह॒र॒। ए॒न॒म्। ३.३६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे वीर !] (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (अभिजित्य) भले प्रकार जीतकर (सभागाः) तू आकर मिला है, (यावन्तः) जितनी (कामाः) कामनाएँ हैं, (तान्) उन सबको (सम्) यथावत् (अतीतृपः) तूने तृप्त किया है। (आयवनम्) मन्थन दण्डी (च) और (दर्विः) चमचा [दोनों] (एकस्मिन् पात्रे) एक पात्र में (वि गाहेथाम्) डूबें [हे वीर !] (एनम्) इस [आत्मा] को (अधि) अधिकारपूर्वक (उत् हर) ऊँचा ले चल ॥३६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य को योग्य है कि सब विघ्नों को पार करके शुभ कामनाओं को पूरा करे और एक परमात्मा में वा जगत् की रक्षा में तत्पर होकर आत्मा की उन्नति करता रहे, जैसे एक बटलोही में शाक आदि को दण्डी से कूटकर सिद्ध करते और चमचे से निकालते हैं ॥३६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३६−(सर्वान्) (सभागाः) सम्+आङ्+इण् गतौ−लुङ्। संभागतोऽसि (अभिजित्य) (लोकान्) (यावन्तः) (कामाः) इष्टपदार्थाः (सम्) सम्यक् (अतीतृपः) तर्पितवानसि (तान्) कामान् (वि) विविधम् (गाहेथाम्) थस्य तकारश्छान्दसः। गाहेताम्। निमग्ने भवताम् (आयवनम्) आङ्+यु मिश्रणामिश्रणयोः−ल्युट्। विलोडनदण्डः (च) (दर्विः) चमसः (एकस्मिन्) (पात्रे) भाजने (अधि) अधिकारपूर्वकम् (उत् हर) उच्चं प्राप्नुहि (एनम्) आत्मानम् ॥

३७ उप स्तृणीहि

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उप॑ स्तृणीहि प्र॒थय॑ पु॒रस्ता॑द्घृ॒तेन॒ पात्र॑म॒भि घा॑रयै॒तत्।
वा॒श्रेवो॒स्रा तरु॑णं स्तन॒स्युमि॒मं दे॑वासो अभि॒हिङ्कृ॑णोत ॥

३७ उप स्तृणीहि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Strew thou on, spread forward, smear over with ghee this vessel; as
    a lowing cow (usrā́) [toward] a young [calf] desiring the teat, do
    ye, O gods, utter the sound hing toward this one.
Notes

‘Strew on’: i.e., specifically, make an upastaraṇa or covering of
butter. In Ppp. the second half-verse is wholly corrupt The verse is
quoted in Kāuś. 61. 45, as accompanying the operation described, and the
next verse is added in 61. 46 when the operation is completed.

Griffith

Pour out the covering butter, spread it eastward: sprinkle this vessel over with the fatness. Greet this, ye Deities, with gentle murmur, as lowing cows wel- come their tender suckling.

पदपाठः

उप॑। स्तृ॒णी॒हि॒। प्र॒थय॑। पु॒रस्ता॑त्। घृ॒तेन॑। पात्र॑म्। अ॒भि। धा॒र॒य॒। ए॒तत्‌। वा॒श्राऽइ॑व। उ॒स्रा। तरु॑णम्। स्त॒न॒स्युम्। इ॒मम्। दे॒वा॒सः॒। अ॒भि॒ऽहिङ्कृ॑णोत। ३.३७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (एतत्) इस (पात्रम्) पात्र [योग्य पुरुष] को (उप स्तृणीहि) फैला, (पुरस्तात्) आगे को (प्रथय) प्रसिद्ध कर, और (घृतेन) सार पदार्थ [तत्त्वज्ञान] से (अभि) भले प्रकार (धारय) प्रकाशमान कर। (देवासः) हे विद्वानो ! (इमम्) इस [आत्मा] को (अभिहिङ्कृणोत) बहुत वृद्धिवाला करो, (इव) जैसे (वाश्रा) रँभाती हुई (उस्रा) गाय (तरुणम्) नवीन (स्तनस्युम्) थन चाहनेवाले [बछड़े] को ॥३७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - आचार्य को उचित है कि सुयोग्य ब्रह्मचारियों को उत्तम विद्या देकर बढ़ावे, जैसे गौ नवोत्पन्न बच्चे को दूध से बढ़ाती है ॥३७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३७−(उपस्तृणीहि) स्तॄञ् आच्छादने। विस्तारय (प्रथय) प्रख्यातं कुरु (पुरस्तात्) अग्रतः (घृतेन) घृ दीप्तौ−क्त। सारपदार्थेन। तत्त्वज्ञानेन (पात्रम्) पा रक्षणे−ष्ट्रन्। विद्यादियुक्तं दानयोग्यं ब्राह्मणम् (धारय) धृ दीप्तौ−णिच्। प्रकाशय (एतत्) (वाश्रा) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। वाशृ शब्दे−रक्। शब्दायमाना (इव) यथा (उस्रा) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। वस निवासे−रक्, टाप्। गौः (तरुणम्) नूतनम् (स्तनस्युम्) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। स्तन−क्यच्। सर्वप्रातिपदिकानां क्यचि लालसायां सुगसुकौ। वा० पा० ७।१।५१। सुगागमः। क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। उ प्रत्ययः। स्तनमिच्छन्तं वत्सम् (इमम्) आत्मानम् (देवासः) हे विद्वांसः (अभिहिङ्कृणोत) अ० ७।७३।८। हि गतिवृद्ध्योः−डि। अभिगतवृद्धिं कुरुत ॥

३८ उपास्तरीरकरो लोकमेतमुरुः

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उपा॑स्तरी॒रक॑रो लो॒कमे॒तमु॒रुः प्र॑थता॒मस॑मः स्व॒र्गः।
तस्मि॑ञ्छ्रयातै महि॒षः सु॑प॒र्णो दे॒वा ए॑नं दे॒वता॑भ्यः॒ प्र य॑च्छान् ॥

३८ उपास्तरीरकरो लोकमेतमुरुः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thou hast strewn on, hast made that world; let the broad unequalled
    heavenly world (svargá) spread itself out; to it shall resort (śri)
    the mighty eagle; the gods shall reach him forth to the deities.
Notes

Ppp. begins with apāskārāir, and makes śrayātāi and suparṇas
change places in c.

Griffith

Thou hast poured oil and made the worlds: let heaven, unequal- led, be spread out in wide extension. Herein be cooked the buffalo, strong-pinioned: the Gods shall give the Deities this oblation.

पदपाठः

उप॑। अ॒स्त॒रीः॒। अक॑रः। लो॒कम्। ए॒तम्। उ॒रुः। प्र॒थ॒ता॒म्। अस॑मः। स्वः॒ऽगः। तस्मि॑न्। श्र॒या॒तै॒। म॒हि॒षः। सु॒ऽप॒र्णः। दे॒वाः। ए॒न॒म्। दे॒वता॑भ्यः। प्र। य॒च्छा॒न्। ३.३८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] तूने (एतम्) इस [पुरुष] को (उप अस्तरीः) बढ़ाया और (लोकम्) दर्शनीय (अकरः) बनाया है, (उरुः) विस्तृत (असमः) व्याकुलतारहित (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला व्यवहार (प्रथताम्) बढ़े। (तस्मिन्) उस [सुखव्यवहार] में (महिषः) महान् (सुपर्णः) बड़ी पूर्तिवाला [वह पुरुष] (श्रयातै) आश्रय लेवे, (देवाः) विद्वान् लोग (एनम्) इस [सुखव्यवहार] को (देवताभ्यः) आनन्दों के लिये (प्र यच्छान्) देवें ॥३८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वानों का कर्तव्य है कि संसार में सुख के साधनों को फैलाकर सब को सुखी करके आप भी सुखी होवें ॥३८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३८−(उप अस्तरीः) विस्तारितवानसि (अकरः) कृतवानसि (लोकम्) दर्शनीयम् (एतम्) पुरुषम् (उरुः) विस्तीर्णः (प्रथताम्) प्रख्यातो भवतु (असमः) षम वैकल्ये−अच्। वैकल्यरहितः (स्वर्गः) सुखप्रापको व्यवहारः (तस्मिन्) सुखव्यवहारे (श्रयातै) श्रिञ् सेवायाम्−लेट्। श्रयतु। सेवताम् (महिषः) अविमह्योष्टिषच्। उ० १।४५। मह पूजायाम्−टिषच्। महान्। पूजनीयः (सुपर्णः) पॄ पालनपूरणयोः−न। बहुपूर्तिमान् (देवाः) विद्वांसः (एनम्) सुखव्यवहारम् (देवताभ्यः) मोदानां प्राप्तये (प्र यच्छान्) लेटि रूपम्। प्र यच्छन्तु। ददतु ॥

३९ यद्यज्जाया पचति

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यद्य॑ज्जा॒या पच॑ति॒ त्वत्परः॑परः॒ पति॑र्वा जाये॒ त्वत्ति॒रः।
सं तत्सृ॑जेथां स॒ह वां॒ तद॑स्तु संपा॒दय॑न्तौ स॒ह लो॒कमेक॑म् ॥

३९ यद्यज्जाया पचति ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What in any case thy wife cooks beyond thee, or thy husband, O
    wife, in secret from thee, that do ye unite; that be yours together;
    agreeing (? sampāday-) together upon one world.
Notes

Kāuś. 62. 11 quotes the verse (iti mantroktam), but casts no light
upon it. ⌊Has a second pácati fallen out after jāye?

Griffith

Whate’er thy wife, away from thee, makes ready, or what, O wife, apart from thee, thy husband, Combine it all: let it be yours in common while ye produce one world with joint endeavour.

पदपाठः

यत्ऽय॑त्। जा॒या। पच॑ति। त्वत्। प॒रः॒ऽप॑रः। पतिः॑। वा॒। जा॒ये॒। त्वत्। ति॒रः। सम्। तत्। सृ॒जे॒था॒म्। स॒ह। वा॒म्। तत्। अ॒स्तु॒। स॒म्ऽपा॒दय॑न्तौ। स॒ह। लो॒कम्। एक॑म्। ३.३९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • अनुष्टुब्गर्भा त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे पति !] (यद्यत्) जो कुछ [वस्तु] (जाया) पत्नी (त्वत्) तुझ से (परः परः) अलग-अलग (पचति) पकाती है, (वा) अथवा, (जाये) हे पत्नी ! (पतिः) पति (त्वत्) तुझ से (तिरः) गुप्त-गुप्त [कुछ पकाता है]। (एकम्) एक (लोकम्) घर को (सह) मिलकर (सम्पादयन्तौ) बनाते हुए तुम दोनों (तत्) उस [गृहकर्म] को (सं सृजेथाम्) मिलाओ, (तत्) वह (गृहकर्म) (वाम्) तुम दोनों का (सह) मिलकर (अस्तु) होवे ॥३९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पति-पत्नी परस्पर विरोध न करें, सदा एकमत होकर ही प्रसन्नतापूर्वक गृहाश्रम पूरा करें ॥३९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३९−(यद्यत्) यत्किंचित् (जाया) पत्नी (पचति) पक्वं करोति (त्वत्) तव सकाशात् (परः परः) पॄ पालनपूरणयोः−असुन्। दूरं दूरम् (पतिः) (वा) (जाये) हे पत्नि (त्वत्) (तिरः) अन्तर्धाने (तत्) गृहस्थकर्म (संसृजेथाम्) संयोजयतम् (सह) साहित्ये (वाम्) युवयोः (तत्) (अस्तु) (संपादयन्तौ) संसाधयन्तौ (सह) (लोकम्) गृहम् (एकम्) ॥

४० यावन्तो अस्याः

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याव॑न्तो अ॒स्याः पृ॑थि॒वीं सच॑न्ते अ॒स्मत्पु॒त्राः परि॒ ये सं॑बभू॒वुः।
सर्वां॒स्ताँ उप॒ पात्रे॑ ह्वयेथां॒ नाभिं॑ जाना॒नाः शिश॑वः स॒माया॑न् ॥

४० यावन्तो अस्याः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. How many of her fasten on (sac) the earth, what sons came forth
    into being from us (pl.)—all those do ye (du.) call to you in the
    vessel;. knowing the navel, the young ones (śíśu) shall come together.
Notes

The mss. (excepting R.D.) leave sacante in a unaccented. Ppp.
reads after it ‘smat. The verse, especially the first pāda, is
obscure. ‘Navel’ = ‘central point, place of union.’ The Anukr. does not
heed the deficiency of a syllable in c; it means us, perhaps, to
resolve ta-ā́n.

Griffith

All these now dwelling on the earth, mine offspring, these whom, this woman here, my wife, hath borne me, Invite them all unto the vessel: knowing their kinship have the children met together.

पदपाठः

याव॑न्तः। अ॒स्याः। पृ॒थि॒वीम्। सच॑न्ते। अ॒स्मत्। पु॒त्राः। परि॑। ये। स॒म्ऽब॒भू॒वुः। सर्वा॒न्। तान्। उप॑। पात्रे॑। ह्व॒ये॒था॒म्। नाभि॑म्। जा॒ना॒नाः। शिश॑वः। स॒म्ऽआया॑न्। ३.४०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्याः) इस [पत्नी] के (यावन्तः) जितने (पुत्राः) पुत्र (पृथिवीम्) पृथिवी को (सचन्ते) सेवते हैं, और (ये) जो [पुत्र] (अस्मत् परि) हम से पृथक् (संबभुवुः) उत्पन्न हुए हैं। (तान् सर्वान्) उन सब को (पात्रे) रक्षणीय व्यवहार में (उप ह्वयेथाम्) तुम दोनों निकट बुलाओ, (नाभिम्) बन्धुधर्म (जानानाः) जानते हुए (शिशवः) वे बालक (समायान्) मिलकर चलें ॥४०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - चाहे कोई सन्तान विवाहविधि से वा नियोगविधि से उत्पन्न हों, वे सब दाय भाग में यथावत् भाग पावें ॥४०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४०−(यावन्तः) (अस्याः) जायायाः (पृथिवीम्) (सचन्ते) सेवन्ते (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (पुत्राः) (परि) पृथग् भूय (संबभूवुः) उत्पन्ना बभूवुः (सर्वान्) (तान्) (उप) समीपम् (पात्रे) रक्षणीये व्यवहारे (ह्वयेथाम्) आह्वयतं युवाम् (नाभिम्) बन्धुत्वम् (जानानाः) ज्ञा अवबोधने−चानश्। जानन्तः (शिशवः) बालकाः (समायान्) सम्+आङ्+या गतौ−लेट्। समागच्छन्ताम् ॥

४१ वसोर्या धारा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

वसो॒र्या धारा॒ मधु॑ना॒ प्रपी॑ना घृ॒तेन॑ मि॒श्रा अ॒मृत॑स्य॒ नाभ॑यः।
सर्वा॒स्ता अव॑ रुन्धे स्व॒र्गः ष॒ष्ट्यां श॒रत्सु॑ निधि॒पा अ॒भी᳡च्छा॑त् ॥

४१ वसोर्या धारा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What streams (dhā́rā) of good (vásu) [there are], fattened with
    honey, mixed with ghee, navels of immortality—all those doth the
    heaven-goer (? svargá) take possession of; in sixty autumns may he
    seek unto the treasure-keepers.
Notes

The last and obscurest pāda is identical with 34 a. The Anukr.
perhaps accepts the redundant syllable of b and the deficient of
c as balancing each other. The verse is used, with 44 below, in
Kāuś. 62. 18, to accompany the further pouring in of juices. Ppp. reads
samaktās for prapīnās in a, and dhāmayas at end of b, and
combines -pā ’bh- in d.

Griffith

Swollen with savoury meath, the stream of treasures, sources of immortality blent with fatness Soma retains all these; in sixty autumns the Guardian Lord of Treasures may desire them.

पदपाठः

वसोः॑। याः। धाराः॑। मधु॑ना। प्रऽपी॑नाः। घृ॒तेन॑। मि॒श्राः। अ॒मृत॑स्य। नाभ॑यः। सर्वाः॑। ताः। अव॑। रु॒न्धे॒। स्वः॒ऽगः। ष॒ष्ट्याम्। श॒रत्ऽसु॑। नि॒धि॒ऽपाः। अ॒भि। इ॒च्छा॒त्। ३.४१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वसोः) श्रेष्ठ गुण की (याः धाराः) जो धाराएँ (मधुना) विज्ञान [मधुविद्या] से (प्रपीनाः) बढ़ी हुई और (घृतेन) सार [तत्त्वज्ञान] से (मिश्राः) मिली हुई (अमृतस्य) अमृत [मोक्षसुख] की (नाभयः) नाभिएँ [मध्यभाग] हैं। (ताः सर्वाः) उन सब [धाराओं] को (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला [पुरुष] (अव रुन्धे) चौकसी से रख लेता है, और [उन को] (षष्ठ्याम्) साठ [अनेक] (शरत्सु) बरसों में (निधिपाः) निधियों का रक्षक [मनुष्य] (अभि इच्छात्) खोजे ॥४१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - श्रेष्ठ गुण संसार में ईश्वर के विज्ञान और सृष्टि के तत्त्वज्ञान से मनुष्य को बड़े प्रत्यक्ष और बड़े अभ्यास से प्राप्त होते हैं ॥४१॥ इस मन्त्र का चौथा पाद ऊपर मन्त्र ३४ में आ चुका है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४१−(वसोः) श्रेष्ठगुणस्य (याः) (धाराः) प्रवाहाः (मधुना) विज्ञानेन। मधुविद्यया (प्रपीनाः) प्रवृद्धाः (घृतेन) घृ सेके दीप्तौ−क्त। सारेण। तत्त्वज्ञानेन (मिश्राः) संयुक्ताः (अमृतस्य) मोक्षसुखस्य (नाभयः) मध्यभागाः (सर्वाः) (ताः) धाराः (अव रुन्धे) सावधानतया रक्षति (स्वर्गः) सुखप्रापकः पुरुषः। अन्यत् पूर्ववत्−म० ३४ ॥

४२ निधिं निधिपा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

नि॒धिं नि॑धि॒पा अ॒भ्ये᳡नमिच्छा॒दनी॑श्वरा अ॒भितः॑ सन्तु॒ ये॒३॒॑न्ये।
अ॒स्माभि॑र्द॒त्तो निहि॑तः स्व॒र्गस्त्रि॒भिः काण्डै॒स्त्रीन्त्स्व॒र्गान॑रुक्षत् ॥

४२ निधिं निधिपा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. He shall seek unto it, [as] treasure-keepers unto a treasure; let
    those who are others be not lords (ánīśvara) about; given by us,
    deposited, heaven-going, with three divisions it has ascended to three
    heavens (svargá).
Notes

Ppp. again combines in a -pā ’bhy. Kāuś. 62. 10 makes the verse
accompany the division of the rice-dish into three parts. There is no
reason for calling it bhurij, as the Anukr. does.

Griffith

The Lord of Treasures may desire this treasure: lordless on. every side be all the others. Our mess, presented seeking heaven, hath mounted in three divisions all three realms of Svarga.

पदपाठः

नि॒ऽधिम्। नि॒धि॒ऽपाः। अ॒भि। ए॒न॒म्। इ॒च्छा॒त्। अनी॑श्वराः। अ॒भितः॑। स॒न्तु॒। ये। अ॒न्ये। अ॒स्माभिः॑। द॒त्तः। निऽहि॑तः। स्वः॒ऽगः। त्रि॒ऽभिः। काण्डैः॑। त्रीन्। स्वः॒ऽगान्। अ॒रु॒क्ष॒त्। ३.४२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (निधिपाः) निधियों का रक्षक [पुरुष] (एनम्) इस (निधिम्) निधि [अर्थात् मोक्ष] को (अभि इच्छात्) खोजे, (ये) जो (अन्ये) दूसरे [वेदविरोधी] हैं, वे (अभितः) सब ओर से (अनीश्वराः) बिना ऐश्वर्य (सन्तु) होवें। (अस्माभिः) हम [धर्मात्माओं] से (दत्तः) रक्षित, (निहितः) स्थापित (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला [मनुष्य] (त्रिभिः) तीन [मानसिक, वाचिक और शारीरिक] (काण्डैः) कामनायोग्य कर्मों से (त्रीन्) तीन [आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक] (स्वर्गान्) स्वर्गों [सुख पहुँचानेवाले व्यवहारों] को (अरुक्षत्) ऊँचा चढ़ा है ॥४२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य ईश्वरनियमों पर चलकर ऐश्वर्य पाते हैं, अधर्मी लोग नहीं पाते, पहिले भी मनुष्यों ने मन, वाणी, और शरीर के उत्तम उपयोगों से आध्यात्मिक आदि सुख पाये हैं ॥४२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४२−(निधिम्) कोशम्। मोक्षमित्यर्थः (निधिपाः) कोशपालकः (एनम्) (अभि इच्छात्) अन्वेषणेन प्राप्नुयात् (अनीश्वराः) ईश ऐश्वर्ये−वरच्। अनैश्वर्यवन्तः (अभितः) सर्वतः (ये) (अन्ये) वेदविरोधिनः (अस्माभिः) विद्वद्भिः (दत्तः)−देङ् पालने−क्त। दाधा ध्वदाप्। पा० १।१।२०। इति घु संज्ञा। दो दद्घोः। पा० ७।४।४६। दद् इत्यादेशः। रक्षितः (निहितः) स्थापितः (स्वर्गः) सुखप्रापकः पुरुषः (त्रिभिः) मानसिकवाचिकशारीरिकैः (काण्डैः) क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। कमु कान्तौ−ड। यद्वा, कण शब्दे−ड। अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। पा० ६।४।१५। इति दीर्घः। कर्मनीयैः कर्मभिः (त्रीन्) आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकान् (स्वर्गान्) सुखप्रापकान् व्यवहारान् (अरुक्षत्) अध्यतिष्ठत् ॥

४३ अग्नी रक्षस्तपतु

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अ॒ग्नी रक्ष॑स्तपतु॒ यद्विदे॑वं क्र॒व्यात्पि॑शा॒च इ॒ह मा प्र पा॑स्त।
नु॒दाम॑ एन॒मप॑ रुध्मो अ॒स्मदा॑दि॒त्या ए॑न॒मङ्गि॑रसः सचन्ताम् ॥

४३ अग्नी रक्षस्तपतु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let Agni burn the demon that is godless; let the flesh-eating
    piśācá not have a draught here; we thrust him, we bar him away from
    us; let the Ādityas, the An̄girases, fasten on him.
Notes

Doubtless we should emend to rundhmas in c. Ppp. reads in d
ādityā no an̄g-, thus rectifying the meter. The Anukr. notices this
time the redundance of the pāda. Doubtless, as often elsewhere, we are
to contract to ādityāí ’nam. In Kāuś. 62. 14 the verse is made to
accompany the carrying of fire around the offering. ⌊BR. render the
force of pra by defining pra-pā as ‘sich an’s Trinken machen.’⌋

Griffith

May Agni burn the God-denying demon: let no carnivorous. Pis icha drink here. We drive him off, we keep him at a distance. Adityas and Angirases pursue him!

पदपाठः

अ॒ग्निः। रक्षः॑। त॒प॒तु॒। यत्। विऽदे॑वम्। क्र॒व्य॒ऽअत्। पि॒शा॒चः। इ॒ह। मा। प्र। पा॒स्त॒। नु॒दामः॑। ए॒न॒म्। अप॑। रु॒ध्मः॒। अ॒स्मत्। आ॒दि॒त्याः। ए॒न॒म्। अङ्गि॑रसः। स॒च॒न्ता॒म्। ३.४३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष] (रक्षः) उस राक्षस को (तपतु) जलावे (यत्) जो (विदेवम्) विरुद्धव्यवहारी (क्रव्यात्) मांस खानेवाला है, (पिशाचः) पिशाच [मांस खानेवाला पुरुष] (इह) यहाँ पर (मा प्र पास्त) [जलादि] पान न करे। (एनम्) इस [पिशाच] को (अस्मत्) अपने से (नुदासः) हम हटाते हैं और (अप रुध्मः) निकाले देते हैं, (आदित्याः) आदित्य [अखण्ड ब्रह्मचारी] (अङ्गिरसः) ऋषि लोग (एनम्) इस [तेजस्वी पुरुष] को (सचन्ताम्) मिलते रहें ॥४३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् तेजस्वी पुरुष कलहकारी दुराचारियों को निकालें और महात्मा लोग विद्वान् का सहाय करें ॥४३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४३−(अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी पुरुषः (रक्षः) राक्षसम् (तपतु) दहतु (यत्) (विदेवम्) दिवु व्यवहारे−अच्। विरुद्धव्यवहारिणम् (क्रव्यात्) मांसभक्षकम् (पिशाचः) अ० १।१६।३। मांसभक्षकः (इह) अत्र (मा प्र पास्त) पा पाने−लुङ्। आत्मनेपदं छान्दसम्। जलादिपानं मा कुर्यात् (नुदामः) प्रेरयामः (एनम्) पिशाचम् (अप रुध्मः) बहिष्कुर्मः (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (आदित्याः) अ० १।९।१। अदिति−ण्य। अखण्डब्रह्मचारिणः (एनम्) तेजस्विनं विद्वांसम् (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। ऋषयः (सचन्ताम्) षच समवाये। संगच्छन्तु ॥

४४ आदित्येभ्यो अङ्गिरोभ्यो

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आ॑दि॒त्येभ्यो॒ अङ्गि॑रोभ्यो॒ मध्वि॒दं घृ॒तेन॑ मि॒श्रं प्रति॑ वेदयामि।
शु॒द्धह॑स्तौ ब्राह्मण॒स्यानि॑हत्यै॒तं स्व॒र्गं सु॑कृता॒वपी॑तम् ॥

४४ आदित्येभ्यो अङ्गिरोभ्यो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. To the Ādityas, the An̄girases, I announce this honey mingled with
    ghee; with cleansed hands, not smiting down [anything of] the
    Brahman’s, go ye (du.), O well-doers, unto this heavenly world
    (svargá).
Notes

The description by the Anukr. is quite wrong. The use by Kāuś. 62. 18
was noted above, under vs. 41 . ⌊For the use of the genitive, W. has
noted a reference to Delbrück’s Altindische Syntax, p. 161.⌋

Griffith

This meath do I announce, mingled with butter, to the Angi- rases and the Adityas. With pure hands ne’er laid roughly on a Brahman go, pious. couple, to the world of Svarga.

पदपाठः

आ॒दि॒त्येभ्यः॑। अङ्गि॑रःऽभ्यः। मधु॑। इ॒दम्। घृ॒तेन॑। मि॒श्रम्। प्रति॑। वे॒द॒या॒मि॒। शु॒ध्दऽह॑स्तौ। ब्रा॒ह्म॒णस्य॑। अनि॑ऽहत्य। ए॒तम्। स्वः॒ऽगम्। सु॒ऽकृ॒तौ। अपि॑। इ॒त॒म्। ३.४४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • पराबृहती त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (आदित्येभ्यः) अखण्ड ब्रह्मचारी (अङ्गिरोभ्यः) ऋषियों के लिये (घृतेन) सार [तत्त्वज्ञान] से (मिश्रम्) मिले हुए (इदम्) इस (मधु) विज्ञान [मधुविद्या] को (प्रति वेदयामि) मैं [ईश्वर] जताये देता हूँ [हे पति-पत्नी !] तुम दोनों (शुद्धहस्तौ) शुद्ध हाथोंवाले और (सुकृतौ) सुकर्मी होकर (ब्राह्मणस्य) वेद वा ब्रह्माण्ड के स्वामी [परमेश्वर] के (एतम्) इस (स्वर्गम्) सुख पहुँचानेवाले व्यवहार को (अनिहत्य) नष्ट न करके [सदा मानकर] (अपि इतम्) चलते चलो ॥४४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर पूर्ण विदुषी स्त्रियों और पूर्ण विद्वान् पुरुषों को आज्ञा देता है कि वे सदा धर्मात्मा रहकर ईश्वर की आज्ञा मानें और उन्नति करते जावें ॥४४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४४−(आदित्येभ्यः) म० ४३। अखण्डब्रह्मचारिभ्यः (अङ्गिरोभ्यः) म० ४३। ऋषिभ्यः (मधु) विज्ञानम् (इदम्) (घृतेन) सारेण। तत्त्वज्ञानेन (मिश्रम्) संयुक्तम् (प्रति) प्रत्यक्षम् (वेदयामि) विज्ञापयामि (शुद्धहस्तौ) पवित्रहस्तकर्माणौ (ब्राह्मणस्य) ब्रह्म−अण्। ब्रह्मणो वेदस्य ब्रह्माण्डस्य वा स्वामिनः परमेश्वरस्य (अनिहत्य) अनाशयित्वा (एतम्) (स्वर्गम्) सुखप्रापकं व्यवहारम् (सुकृतौ) धर्मकर्माणौ (अपि) अवधारणे (इतम्) गच्छतम् ॥

४५ इदं प्रापमुत्तमम्

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इ॒दं प्राप॑मुत्त॒मं काण्ड॑मस्य॒ यस्मा॑ल्लो॒कात्प॑रमे॒ष्ठी स॒माप॑।
आ सि॑ञ्च स॒र्पिर्घृ॒तव॒त्सम॑ङ्ग्ध्ये॒ष भा॒गो अङ्गि॑रसो नो॒ अत्र॑ ॥

४५ इदं प्रापमुत्तमम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I have obtained this highest division of it, from which world the
    most exalted one obtained [it] completely; pour thou on the butter
    (sarpís); anoint with ghee; this is the portion of our An̄giras here.
Notes

Ppp. has in a a different order of words: idaṁ kāṇḍam uttamaṁ
prāpam asya
. The verse (with xi. 1. 31: the first half of each) is
quoted in Kāuś. 62. 15, and again (the second half of each) in 62. 17,
in connection with anointing the vessel with butter.

Griffith

Of this have I obtained the noblest portion from that same world whence Parmeshthin gained it. Pour forth, besprinkle butter rich in fatness: the share of Angiras is here before us.

पदपाठः

इ॒दम्। प्र। आ॒प॒म्। उ॒त्ऽत॒मम्। काण्ड॑म्। अ॒स्य॒। यस्मा॑त्। लो॒कात्। प॒र॒मे॒ऽस्थी। स॒म्ऽआप॑। आ। सि॒ञ्च॒। स॒र्पिः। घृ॒तऽव॑त्। सम्। अ॒ङ्ग्धि॒। ए॒षः। भा॒गः। अङ्गि॑रसः। नः॒। अत्र॑। ३.४५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) यह (उत्तमम्) उत्तम (काण्डम्) कामनायोग्य पद (अस्य) उस [समाज] का (प्र आपम्) मैं [ब्रह्मचारी] ने पाया है, (यस्मात्) जिस (लोकात्) समाज से (परमेष्ठी) बड़े ऊँचे पदवाले [ब्रह्मचारी] ने [उत्तम पद को] (समाप) पूरा-पूरा पाया था। [हे आचार्य !] तू (घृतवत्) प्रकाशयुक्त (सर्पिः) ज्ञान को (आ सिञ्च) सब ओर सींच और (सम्) ठीक-ठीक (अङ्ग्धि) प्रकट कर, (अङ्गिरसः) विद्वान् [आचार्य] का (एषः) यह (भागः) सेवनीय व्यवहार (नः) हमारे लिये (इह) यहाँ [संसार में] [होवे] ॥४५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारिणी और ब्रह्मचारी पूर्व विद्यार्थियों के समान नियमपूर्वक विद्या का अभ्यास करें और आचार्य से विद्या के लिये प्रार्थना किया करें ॥४५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४५−(इदम्) प्रत्यक्षम् (प्रापम्) प्राप्तवानस्मि (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (काण्डम्) म० ४२। कमनीयं पदम् (अस्य) तस्य। समाजस्य (यस्मात्) (लोकात्) समाजात् (परमेष्ठी) उत्कृष्टे पदे वर्तमानो ब्रह्मचारी (सम्) सम्यक् (आप) प्राप्तवान् (आ) समन्तात् (सिञ्च) (सर्पिः) अर्चिशुचिहुसृपि०। उ० २।१०८। सृप गतौ−इसि। ज्ञानम् (घृतवत्) प्रकाशयुक्तम् (सम्) सम्यक् (अङ्ग्धि) अञ्जू व्यक्तीकरणे। व्यक्तं प्रकटं कुरु (एषः) (भागः) सेवनीयो व्यवहारः (अङ्गिरसः) विदुषः पुरुषस्य। आचार्यस्य (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) संसारे ॥

४६ सत्याय च

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

स॒त्याय॑ च॒ तप॑से दे॒वता॑भ्यो नि॒धिं शे॑व॒धिं परि॑ दद्म ए॒तम्।
मा नो॑ द्यू॒तेऽव॑ गा॒न्मा समि॑त्यां॒ मा स्मा॒न्यस्मा॒ उत्सृ॑जता पु॒रा मत् ॥

४६ सत्याय च ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unto truth, unto penance, and unto the deities, we deliver this
    deposit (nidhí), [this] treasure (śevadhí); let it not be lost
    (ava-gā) in our play, nor in the meeting; do not ye release it to
    another in preference to (purā́) me.
Notes

One or two of our mss. (R.D.) accent at the end mát; and the word is
not found without accent unless here and at xi. 4. 26. ⌊SPP. reads mát
with 8 of his authorities, against 7 that have mat.⌋ Ppp. reads in
b dadhmas. This and the two following verses are quoted, with a
number of others, in Kāuś. 68. 27, at a later point in the rice-dish
ceremony. ⌊With c, cf. 52 a.⌋

Griffith

To Deities, to Truth, to holy Fervour this treasure we consign,. this rich deposit, At play, in meeting led it not desert us, never give out to anyone besides me.

पदपाठः

स॒त्याय॑। च॒। तप॑से। दे॒वता॑भ्यः। नि॒ऽधिम्। शे॒व॒ऽधिम्। परि॑। द॒द्मः॒। ए॒तम्। मा। नः॒। द्यू॒ते। अव॑। गा॒त्। मा। सम्ऽइ॑त्याम्। मा। स्म॒। अ॒न्यस्मै॑। उत्। सृ॒ज॒त॒। पु॒रा। मत्। ३.४६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सत्याय) सत्य [यथार्थ कर्म करने] के लिये (च) और (तपसे) तप [ऐश्वर्य बढ़ाने] के लिये (देवताभ्यः) विजय चाहनेवाले [ब्रह्मचारियों] को (एतम्) यह (शेवधिम्) सुखदायक (निधिम्) निधि [विद्याकोश] (परिदद्मः) हम [आचार्य लोग] सौपते हैं। (नः) हमारा वह [निधि] (द्यूते) जुए में (मा अव गात्) न चला जावे और (मा) न (समित्याम्) संग्राम में और (मा स्म) न कभी वह [निधि] (अन्यस्मै) अन्य [अधर्मी] पुरुष को (मत्) मुझ [धर्मात्मा] से (पुरा) आगे होकर (उत् सृजत) छूट जावे ॥४६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - आचार्य ब्रह्मचारियों को उपदेश करे कि इस विद्याकोश को धर्म की वृद्धि के लिये हम तुम्हें देते हैं, हमारे उपदेश से विरुद्ध इस विद्यारत्न को जुए आदि खोटे काम में मत बिगाड़ो ॥४६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४६−(सत्याय) यथार्थकर्मकरणाय (च) (तपसे) ऐश्वर्यवर्धनाय (देवताभ्यः) विजिगीषुभ्यो विद्यार्थिभ्यः (निधिम्) विद्याकोशम् (शेवधिम्) ……… निघ० ३।६। सुखप्रदम् (परिदद्मः) समर्पयामः (एतम्) ….. (अस्माकम्) (द्यूते) पाशादिक्रीडायाम्। कैतवे (मा अव गात्) मा नश्येत् (मा) निषेधे (समित्याम्) सङ्ग्रामे−निघ० २।१७। (मा स्म) नैव (अन्यस्मै) विरुद्धस्वभावाय। अधर्मिणे (उत् सृजत) सृज विसर्गे−लङ्, आत्मनेपदं छान्दसम्। स्मोत्तरे लङ् च। पा० ३।३।१७६। मास्मेत्युपपदे−लङ्। त्यज्यताम् (पुरा) अग्रतः (मत्) मत्सकाशात् ॥

४७ अहं पचाम्यहम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒हं प॑चाम्य॒हं द॑दामि॒ ममे॑दु॒ कर्म॑न्क॒रुणेऽधि॑ जा॒या।
कौमा॑रो लो॒को अ॑जनिष्ट पु॒त्रो३॒॑न्वार॑भेथां॒ वय॑ उत्त॒राव॑त् ॥

४७ अहं पचाम्यहम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I cook; I give; verily upon my action [and] deed (? karúṇa) the
    wife; a virgin (? kāúmāra) world hath been born, a son; take ye (du.)
    hold after vigor (váyas) that hath what is superior.
Notes

The translation here is purely mechanical. Ppp. puts the verse after our
vs. 48, and reads in a, for dadāmi, ud vadāmi ⌊thus suggesting
the probably correct restoration of the pāda (aham u dadādmi)⌋, and in
c putrās. The verse (10 + 11: 11 + 11 = 43) is very ill described
by the Anukr.

Griffith

I cook the offering, I present oblation: only my wife attends the holy service. A youthful world, a son hath been begotten. Begin a life that brings success and triumph.

पदपाठः

अ॒हम्। प॒चा॒मि॒। अ॒हम्। द॒दा॒मि॒। मम॑। इत्। ऊं॒ इति॑। कर्म॑न्। क॒रुणे॑। अधि॑। जा॒या॒। कौमा॑रः। लो॒कः। अ॒ज॒नि॒ष्टः॒। पु॒त्रः। अ॒नु॒ऽआर॑भेथाम्। वयः॑। उ॒त्त॒रऽव॑त्। ३.४७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैं [आचार्य] [विद्याकोश को मन्त्र ४६] (पचामि) पक्का [दृढ़] करता हूँ, और (अहम्) मैं (ददामि) देता हूँ, (मम) मेरी (जाया) पत्नी (इत्) भी (उ) निश्चय करके (करुणे) करुणायुक्त (कर्मन्) कर्म में (अधि) अधिकृत है। (कौमारः) उत्तम कुमारियोंवाला और (पुत्रः) उत्तम पुत्रोंवाला (लोकः) यह लोक (अजनिष्ट) हुआ है, [हे कुमारी कुमारो !] तुम दोनों (उत्तरावत्) अधिक उत्तम गुणवाला (वयः) जीवन (अन्वारभेथाम्) निरन्तर आरम्भ करो ॥४७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - आचार्य और आचार्याणी विद्या का उपदेश दृढ़ता से करें, जिससे कुमारी और कुमार संसार में धर्म के उदाहरण बनकर सदा श्रेष्ठ जीवन बितावें ॥४७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४७−(अहम्) आचार्यः (पचामि) पक्कं दृढं करोमि, निधिम्−म० ४६ (अहम्) (ददामि) (मम) (इत्) एव (उ) निश्चयेन (कर्मन्) विहितकर्मणि (करुणे) करुणा−अर्शआद्यच्। करुणावति। दयावति (अधि) अधिकृता (जाया) पत्नी (कौमारः) कुमारी−अण्। श्रेष्ठकुमारीयुक्तः (लोकः) समाजः (अजनिष्ट) प्रादुरभवत् (पुत्रः) पुत्र−अर्शआद्यच्। श्रेष्ठपुत्रयुक्तः (अन्वारभेथाम्) निरन्तरमारम्भं कुरुतम् (वयः) जीवनम् (उत्तरावत्) म० १०। अधिकोत्तमगुणयुक्तम् ॥

४८ न किल्बिषमत्र

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

न किल्बि॑ष॒मत्र॒ नाधा॒रो अस्ति॒ न यन्मि॒त्रैः स॒मम॑मान॒ एति॑।
अनू॑नं॒ पात्रं॒ निहि॑तं न ए॒तत्प॒क्तारं॑ प॒क्वः पुन॒रा वि॑शाति ॥

४८ न किल्बिषमत्र ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. No offense is here, nor support (? ādhārá), nor that one goes
    agreeing (sam-am) with friends; this vessel of ours is set down not
    empty; the cooked [dish] shall enter again him that cooked it.
Notes

This verse is little more intelligible than the preceding. Ppp. puts
c after d, and reads at the end of c astu instead of
etat. ⌊It is hardly worth while to discuss the accent of ásti.⌋

Griffith

There is no fault in this, no reservation, none when it goes with friends in close alliance. We have laid down this vessel in perfection: the cooked mess shall re-enter him who cooked it.

पदपाठः

न। किल्बि॑षम्। अत्र॑। न। आ॒ऽधा॒रः। अस्ति॑। न। यत्। मि॒त्रैः। स॒म्ऽअम॑मानः। एति॑। अनू॑नम्। पात्र॑म्। निऽहि॑तम्। नः॒। ए॒तत्। प॒क्तार॑म्। प॒क्वः। पुनः॑। आ। वि॒शा॒ति॒। ३.४८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अत्र) इस [हमारे समाज] में (न) न तो (किल्बिषम्) कोई दोष, (न) न (आधारः) गिर पड़ने का व्यवहार (अस्ति) है और (न) न [वह कर्म है] (यत्) जिससे (मित्रैः) मित्रों के साथ (समममानः) बहुत पीड़ा देनेवाला व्यवहार (एति) चलता है। (एतत्) यह (नः) हमारा (पात्रम्) पात्र [हृदय] (अनूनम्) बिना रीता [परिपूर्ण] (निहितम्) रक्खा हुआ है, (पक्वः) परिपक्व [दृढ़ बोध] (पक्तारम्) दृढ़ करनेवाले पुरुष में (पुनः) निश्चय करके (आ विशाति) प्रवेश करेगा ॥४८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अपने और अपने सम्बन्धियों के दोषों को हटाकर सब को उत्तम गुणी बनाता है, तब उनके हृदयों में परिपक्व ज्ञान प्रवेश करता है ॥४८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४८−(न) निषेधे (किल्विषम्) अ० ५।१९।५। किल पीडायाम्−टिषच् बुक् च। अपराधः (अत्र) समाजे (न) (आधारः) आङ्+धृङ् अवध्वंसने अवस्थाने च−घञ्। संपतनव्यवहारः (अस्ति) (न) (यत्) यस्मात् (मित्रैः) (समममानः) सम्+अम गतौ−पीडने च−चानश्। संपीडको व्यवहारः (एति) गच्छति। वर्तते (अनूनम्) परिपूर्णम् (पात्रम्) रक्षासाधनम्। हृदयम् (निहितम्) स्थापितम् (नः) अस्माकम् (एतत्) प्रत्यक्षम् (पक्तारम्) दृढीकर्तारम् (पक्वः) दृढो बोधः (पुनः) अवधारणे (आ विशाति) लेट्। प्रविशेत् ॥

४९ प्रियं प्रियाणाम्

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प्रि॒यं प्रि॒याणां॑ कृणवाम॒ तम॒स्ते य॑न्तु यत॒मे द्वि॒षन्ति॑।
धे॒नुर॑न॒ड्वान्वयो॑वय आ॒यदे॒व पौरु॑षेय॒मप॑ मृ॒त्युं नु॑दन्तु ॥

४९ प्रियं प्रियाणाम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. May we do what is dear to them that are dear; whosoever hate [us],
    let them go to darkness; milch-cow, draft-ox, each coming vigor
    (váyas)—let them thrust away the death that comes from men.
Notes

Or, ’that concerns, comes upon, men’ (pāúruṣeya). The Anukr. seems to
accept the two redundant syllables of c (evá an intrusion) as
compensating for the deficiency in a. According to Kāuś. 62. 19, the
verse is used of ’the milch-cow etc.’ north of the fire.

Griffith

To those we love may we do acts that please them. Away to darkness go all those who hate us! Cow, ox, and strength of every kind approach us! Thus let them banish death of human beings.

पदपाठः

प्रि॒यम्। प्रि॒याणा॑म्। कृ॒ण॒वा॒म॒। तमः॑। ते। य॒न्तु॒। य॒त॒मे। द्वि॒षन्ति॑। धे॒नुः। अ॒न॒ड्वान्। वयः॑ऽवयः। आ॒ऽयत्। ए॒व। पौरु॑षेयम्। अप॑। मृ॒त्युम्। नु॒द॒न्तु॒। ३.४९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियाणाम्) अपने प्यारों का हम (प्रियम्) प्रिय [कर्म] (कृणवाम) करें (ते) वे [दुष्ट] (तमः) अन्धकार [कारागार] में (यन्तु) जावें (यतमे) जो कोई (द्विषन्ति) [हम से] वैर करते हैं। (धेनुः) दुधैल गाय, (अनड्वान्) छकड़ा ले चलनेवाला बैल और (आयत्) आता हुआ (वयोवयः) प्रत्येक अन्न (एव) निश्चय करके (पौरुषेयम्) पुरुष की (मृत्युम्) मृत्यु को (अप नुदन्तु) ढकेल देवें ॥४९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - धर्मात्मा लोग धर्मात्मा हितकारियों से प्रिय व्यवहार करें और दुष्टों को कष्ट देते रहें, जिससे गौ, बैल, अन्न आदि आवश्यक पदार्थ बढ़कर संसार की वृद्धि करें ॥४९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४९−(प्रियम्) प्रीतिकरं कर्म (प्रियाणाम्) स्वहितकारकाणाम् (कृणवाम) कुर्याम (तमः) अन्धकारम्। कारागारम् (ते) दुष्टाः (यन्तु) गच्छन्तु (यतमे) ये केचित् (द्विषन्ति) वैरायन्ते (धेनुः) दोग्ध्री गौः (अनड्वान्) शकटवाहको बलीवर्दः (वयोवयः) प्रत्येकप्रकारमन्नम् (आयत्) इण् गतौ−शतृ। आगच्छत् (एव) निश्चयेन (पौरुषेयम्) पुरुष−ढञ्। मानुषम् (अप) दूरे (मृत्युम्) मरणम् (नुदन्तु) प्रेरयन्तु ॥

५० समग्नयः विदुरन्यो

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सम॒ग्नयः॑ विदुर॒न्यो अ॒न्यं य ओष॑धीः॒ सच॑ते॒ यश्च॒ सिन्धू॑न्।
याव॑न्तो दे॒वा दि॒व्या॒३॒॑तप॑न्ति॒ हिर॑ण्यं॒ ज्योतिः॒ पच॑तो बभूव ॥

५० समग्नयः विदुरन्यो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The fires ire in concord, one with another—he that fastens on the
    herbs, and he that [fastens on] the rivers; as many gods as send heat
    (ā-tap) in the sky—gold hath become the light of him that cooks.
Notes

Ppp. reads sindhum in b, and dadhatu* (for pacatas) in d.
In Kāuś. 62. 22, the verse (with xi. 1. 28) is made to accompany the
laying on of a piece of gold; it is also quoted in 68. 27, with vss.
46-48, etc.: see note to vs. 46. The Anukr. does not notice the lack of
a syllable in a. *⌊Intending dadhato?

Griffith

Perfectly do the Agnis know each other, one visitor of plants and one of rivers, And all the Gods who shine and glow in heaven. Gold is the light of him who cooks oblation.

पदपाठः

सम्। अ॒ग्नयः॑। वि॒दुः॒। अ॒न्यः। अ॒न्यम्। यः। ओष॑धीः। सच॑ते। यः। च॒। सिन्धू॑न्। याव॑न्तः। दे॒वाः। दि॒वि। आ॒ऽतप॑न्ति। हिर॑ण्यम्। ज्योतिः॑। ‍ पच॑तः। ब॒भू॒व॒। ३.५०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्नयः) सब आगे [के ताप] (अन्यो अन्यम्) परस्परं (सं विदुः) मिलते हैं, (यः) जो [ताप] (ओषधीः) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] को (च) और (यः) जो (सिन्धून्) [पृथिवी और अन्तरिक्ष के] समुद्रों को (सचते) सेवता है। (यावन्तः) जितने (देवाः) चमकते हुए लोक (दिवि) आकाश में (आतपन्ति) सब ओर तपते हैं, [वैसे ही] (पचतः) सब के परिपक्व करनेवाले वा विस्तारक [परमेश्वर] के (हिरण्यम्) कमनीय प्रकाश ने (ज्योतिः) [प्रत्येक] ज्योति में (बभूव) मेल किया है ॥५०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे भौतिक अग्नि, बिजुली आदि के रूप से सब पदार्थों और सब लोकों को सहारता और चमकाता है, वैसे ही जगत्स्रष्टा परमात्मा प्रत्येक अग्नि आदि को सहारता और चमकाता है ॥५०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५०−(अग्नयः) अग्नितापाः (संविदुः) सं गच्छन्ते (अन्यो अन्यम्) परस्परम् (यः) अग्निः (ओषधीः) अन्नसोमलतादीन् (सचते) सेवते (यः) (च) (सिन्धून्) पृथिव्यन्तरिक्षस्थान् समुद्रान् (यावन्तः) (देवाः) प्रकाशमाना लोकाः (दिवि) आकाशे (आतपन्ति) (हिरण्यम्) अ० १।९।२। हर्यतेः कन्यन् हिर च। उ० ५।४४। हर्य गतिकान्त्योः−कन्यन्, हिरादेशः। कमनीयः प्रकाशः (ज्योतिः) तेजः (पचतः) पच पाके व्यक्तीकरणे च−शतृ। पक्वं दृढं कुर्वतो व्यक्तीकुर्वतो वा परमेश्वरस्य (बभूव) भू मिश्रीकरणे−लिट्। मिश्रीकृतवान् ॥

५१ एषा त्वचाम्

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ए॒षा त्व॒चां पुरु॑षे॒ सं ब॑भू॒वान॑ग्नाः॒ सर्वे॑ प॒शवो॒ ये अ॒न्ये।
क्ष॒त्रेणा॒त्मानं॒ परि॑ धापयाथोऽमो॒तं वासो॒ मुख॑मोद॒नस्य॑ ॥

५१ एषा त्वचाम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This one of skins (tvác) hath come into being on man; not naked
    are all the animals (paśú) that are other; ye (du.) cause to wrap
    (paridhā) yourselves (ātmán) with authority (kṣatrá), a home-woven
    garment, the mouth of the rice-dish.
Notes

The translation is as literal as possible; but other constructions may
be made in the second half-verse. Ppp. leaves the hiatus between a
and b, babhūva an-; it combines -gnās sarve in b; and it
reads in c dhāpayeta, with a division-line after it. Kāuś. 62. 23
makes the verse accompany the depositing of such a garment, with gold.
⌊Has the vs. anything to do with the legend, cited under ii. 13. 3,
about the cow and her skin, which the gods took from man and gave to the
cow?⌋

Griffith

Man hath received this skin of his from nature: of other animals not one is naked. Ye make him clothe himself with might for raiment. Odana’s mouth is a home-woven vesture.

पदपाठः

ए॒षा। त्व॒चाम्। पुरु॑षे। सम्। ब॒भू॒व॒। अन॑ग्नाः। सर्वे॑। प॒शवः॑। ये। अ॒न्ये। क्ष॒त्रेण॑। आ॒त्मान॑म्। परि॑। ध॒प॒या॒थः॒। अ॒मा॒ऽउ॒तम्। वासः॑। मुख॑म्। ओ॒द॒नस्य॑। ३.५१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वचाम्) त्वचाओं [शरीर की खालों] में से (एषा) यह (पुरुषे) पुरुष [शरीर] पर (सम् बभूव) मिली है, और (वे) जो (अन्ये) दूसरे (पशवः) जीव हैं, (सर्वे) वे सब [भी] (अनग्नाः) बिना नंगे [खालवाले] हैं। [हे स्त्री-पुरुषो !] तुम दोनों (क्षत्रेण) हानि से बचानेवाले बल से (आत्मानम्) अपने को (परि धापयाथः) ढँपवाओ, [जैसे] (अमोतम्) ज्ञान से बुना हुआ (वासः) कपड़ा (ओदनस्य) अन्न आदि का (मुखम्) मुख्य [रक्षासाधन] है ॥५१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों में मनुष्य शरीर और अन्य जीवों में अन्य प्रकार के शरीर व्यक्तिसूचक हैं, किन्तु मनुष्य ही परमात्मा के ज्ञान से मनुष्यत्व पाकर उन्नति करते हैं, जैसे समझ-बूझकर बनाया हुआ वस्त्र पदार्थों के रखने में समर्थ होता है ॥५१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५१−(एषा) दृश्यमाना (त्वचाम्) शरीरचर्मणां मध्ये (पुरुषे) पुरुषशरीरे (संबभूव) उत्पन्ना बभूव (अनग्नाः) नञ् ओनजी व्रीडायाम्−क्त। सवस्त्राः। सचर्माणः (सर्वे) (पशवः) प्राणिनः (ये) (अन्ये) (क्षत्रेण) क्षतः क्षतात् त्रायकेण बलेन (आत्मानम्) (परि धापयाथः) आच्छादयतं युवाम् (अमोतम्) अ० ९।५।१४। अम गतौ−घ प्रत्ययः, टाप्+ वेञ् तन्तुसन्ताने−क्त। ज्ञानेन उतं स्यूतम् (वासः) वस्त्रम् (मुखम्) प्रधानं रक्षासाधनम् (ओदनस्य) अन्नस्य ॥

५२ यदक्षेषु वदा

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यद॒क्षेषु॒ वदा॒ यत्समि॑त्यां॒ यद्वा॒ वदा॒ अनृ॑तं वित्तका॒म्या।
स॑मा॒नं तन्तु॑म॒भि सं॒वसा॑नौ॒ तस्मि॒न्त्सर्वं॒ शम॑लं सादयाथः ॥

५२ यदक्षेषु वदा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What [untruth] thou shalt speak at the dice, what at the meeting,
    or what untruth thou shalt speak from desire of gain—clothing yourselves
    (du.) in the same web (tántu), ye shall settle in it all pollution.
Notes

Ppp. rectifies the meter of a by reading vadasi; in b it has
dhane instead of vadās; in c it gives saha for abhi. The
Anukr. does not notice the deficiency in a. The verse is quoted in
Kāuś. 63. 1 (next after vs. 51), with the explanation ’the two become
dressed in the same garment.’ ⌊With a, cf. 46 c.⌋

Griffith

Whatever thou may say at dice, in meeting, whatever falsehood through desire of riches, Ye two, about one common warp uniting, deposit all impurity within it.

पदपाठः

यत्। अ॒क्षेषु॑। वदाः॑। यत्। सम्ऽइ॑त्याम्। यत्। वा॒। वदाः॑। अनृ॑तम्। वि॒त्त॒ऽका॒म्या। स॒मा॒नम्। तन्तु॑म्। अ॒भि। स॒म्ऽवसा॑नौ। तस्मि॑न्। सर्व॑म्। शम॑लम्। सा॒द॒या॒थः॒। ३.५२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
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  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे स्त्री वा पुरुष !] (यत्) जो कुछ [झूठ] (अक्षेषु) अभियोगों [राजगृह के विवादों] में, [अथवा] (यत्) जो कुछ [झूठ] (समित्याम्) संग्राम में (वदाः) तू बोले, (वा) अथवा (यत्) जो कुछ (अनृतम्) झूठ (वित्तकाम्या) धन की कामना से (वदाः) तू बोले। (समानम्) एक ही (तन्तुम् अभि) तन्तु [वस्त्र] में (संवसानौ) ढके हुए तुम दोनों [स्त्री-पुरुषो] (तस्मिन्) उस [झूठ] में (सर्वम्) सब (शमलम्) भ्रष्ट कर्म को (सादयाथः) स्थापित करोगे ॥५२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि एक-दूसरे को अपने सदृश समझ कर कठिन से कठिन आपत्ति में भी असत्य न बोलें, असत्य ही सब पापों का मूल है ॥५२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५२−(यत्) असत्यम् (अक्षेषु) व्यवहारेषु। राजगृहविवादेषु (वदाः) लेट्। कथयेः (यत्) (समित्याम्) सङ्ग्रामे (यत्) (वा) अथवा (वदाः) (अनृतम्) असत्यम् (वित्तकाम्या) वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। कमु कान्तौ−इञ्। धनकामनया (समानम्) तुल्यम् (तन्तुम्) सूत्रम्। वस्त्रमित्यर्थः (अभि) प्रति (संवसानौ) सम्यग् आच्छादितौ (तस्मिन्) अनृते (सर्वम्) संपूर्णम् (शमलम्) भ्रष्टकर्म (सादयाथः) लेट्। स्थापयिष्यथः ॥

५३ वर्षं वनुष्वापि

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व॒र्षं व॑नु॒ष्वापि॑ गच्छ दे॒वांस्त्व॒चो धू॒मं पर्युत्पा॑तयासि।
वि॒श्वव्य॑चा घृ॒तपृ॑ष्ठो भवि॒ष्यन्त्सयो॑निर्लो॒कमुप॑ याह्ये॒तम् ॥

५३ वर्षं वनुष्वापि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Win thou rain; go unto the gods; thou shalt make smoke fly up out of
    the skin; about to become all-expanded, ghee-backed, go thou, of like
    origin, unto that world.
Notes

The second half-verse is identical with 19 a, b above. Ppp. begins
b with tatas instead of tvacas; and it has a different second
half: viśvavyacā viśvakarmā svargas sayoniṁ lokam upa yāhy ekam, which
seems less unintelligible. In Kāuś. 63. 5 the verse is quoted (together
with xi. 1. 28 b) with the direction ‘he draws off [the
garment?].’

Griffith

Win thou the rain: approach the Gods. Around thee thou from the skin shalt make the smoke rise upward. Soon to be, decked with butter, all-embracing, come to this world wherewith one birth unites thee.

पदपाठः

व॒र्षम्। व॒नु॒ष्व॒। अपि॑। ग॒च्छ॒। दे॒वान्। त्व॒चः। धू॒मम्। परि॑। उत्। पा॒त॒या॒सि॒। वि॒श्वऽव्य॑चाः। घृ॒तऽपृ॑ष्ठः। ‍ भ॒वि॒ष्यन्। सऽयो॑निः। लो॒कम्। उप॑। या॒हि॒। ए॒तम्। ३.५३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
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  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे पुरुष !] तू (वर्षम्) वरणीय [श्रेष्ठ] कर्म का (वनुष्व) सेवन कर, (देवान्) कामनायोग्य गुणों को (अपि) अवश्य (गच्छ) प्राप्त हो, (त्वचः) अपनी खाल [देह] से (धूमम्) धुएँ [मैल] को (परि) सब ओर (उत् पातयासि) उड़ा दे। (विश्वव्यचाः) सब व्यवहारों में फैला हुआ, (घृतपृष्ठः) प्रकाश से सींचता हुआ और (सयोनिः) समान घरवाला (भविष्यन्) भविष्यत् में होता हुआ तू (एतम्) इस (लोकम्) लोक [व्यवहार मण्डल] में (उप याहि) पहुँच ॥५३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्त्री-पुरुष शुभ कर्म और शुभ गुणों को प्राप्त होकर अज्ञान को दूर फेंकें, जैसे प्रकाश के बल से धुआँ इतर-वितर हो जाता है। और वे ज्ञानी पुरुष संसार के सब काम साधने में साधु होवें ॥५३॥ इस मन्त्र का दूसरा भाग ऊपर मन्त्र १९ में आ चुका है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५३−(वर्षम्) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। वृञ् वरणे−स प्रत्ययः। वरणीयं स्वीकरणीयं कर्म (वनुष्व) सेवस्व (अपि) अवश्यम् (गच्छ) प्राप्नुहि (देवान्) कामनीयान् गुणान् (त्वचः) चर्मणः। देहात् (परि) सर्वतः (उत्) ऊर्ध्वम् (पातयासि) लेट्। गमय। अन्यत् पूर्ववत्−म० १९ ॥

५४ तन्वं स्वर्गो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त॒न्वं᳡ स्व॒र्गो ब॑हु॒धा वि च॑क्रे॒ यथा॑ वि॒द आ॒त्मन्न॒न्यव॑र्णाम्।
अपा॑जैत्कृ॒ष्णां रुश॑तीं पुना॒नो या लोहि॑नी॒ तां ते॑ अ॒ग्नौ जु॑होमि ॥

५४ तन्वं स्वर्गो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The heaven-goer hath variously changed his body, as he finds (?
    vidé) in himself one of another color; he hath conquered off the black
    one, purifying a shining one (rúśat); the one that is red, that I
    offer (hu) to thee in the fire.
Notes

The adjectives here are all fem., relating to ‘body’ (tanū́). The
defective meter of b helps to make the isolated ⌊or rather,
unusual?⌋ vidé ⌊see Gram. §613⌋ suspicious; the Anukr. takes no
notice of the deficiency. The first half-verse is corrupt in Ppp., so
that the comparison gives us no help. In Kāuś. 63. 8 the verse
accompanies the scattering on of other husks (phalīkaraṇān). ⌊For the
form ajāit, see the references under vi. 32. 2.⌋

Griffith

In many a shape hath heaven transformed its body, as in itself is known, of varied eolour. Cleansing the bright, the dark form hath it banished: the red form in the fire to thee I offer.

पदपाठः

त॒न्व᳡म्। स्वः॒ऽगः। ब॒हु॒ऽधा। वि। च॒क्रे॒। यथा॑। वि॒दे। आ॒त्मन्। अ॒न्यऽव॑र्णाम्। अप॑। अ॒जै॒त्। कृ॒ष्णाम्। रुश॑तीम्। पु॒ना॒नः। या। लोहि॑नी। ताम्। ते॒। अ॒ग्नौ। जु॒हो॒मि॒। ३.५४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्रिष्टुप्
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाले [परमेश्वर] ने (तन्वम्) इस फैलावट [सृष्टि] को (बहुधा) बहुत प्रकार से (वि) विशेष करके (चक्रे) बनाया है, (यथा) जैसा (आत्मन्) परमात्मा के भीतर (अन्यवर्णाम्) भिन्नवर्ण [रूप]वाली [सृष्टि] को (विदे) मैं पाता हूँ। (कृष्णाम्) काली [अन्धकारयुक्त] (रुशतीम्) कष्ट देनेवाली [फैलावट] को (पुनानः) शुद्ध करनेवाले [परमेश्वर] ने (अप अजैत्) जीत लिया है, (या) जो (लोहिनी) लोहमयी [कठोर फैलावट] है, (ताम्) उस [फैलावट] को (ते) तेरे (अग्नौ) ज्ञान पर (जुहोमि) मैं छोड़ता हूँ ॥५४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा ने विविध सृष्टि को हमारे सुख के लिये रचकर अपने वश में रक्खा है और सब रुकावटों को हटाया है। मनुष्यों को जितना-जितना ज्ञान होता जाता है, उतना ही वह परमेश्वर पर विश्वास करता है ॥५४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५४−(तन्वम्) विस्तृतिम्। सृष्टिम् (स्वर्गः) सुखप्रापकः परमेश्वरः (बहुधा) विविधप्रकारेण (वि) विशेषेण (चक्रे) रचितवान् (यथा) येन प्रकारेण (विदे) नकारलोपः। अहं विन्दे। लभे (आत्मन्) परमात्मनि (अन्यवर्णाम्) भिन्नभिन्नरूपाम् (अप अजैत्) अजयत्। अवश्यं जितवान्। वशीकृतवान् (कृष्णाम्) कालीम्। अन्धकारयुक्ताम् (रुशतीम्) रुश हिंसायाम्−शतृ। हिंसन्तीम्। करालीं विस्तृतिम् (पुनानः) पावकः। शोधकः (या) तनूः (लोहिनी) म० २१। लोहमयी (ताम्) विस्तृतिम् (ते) तव (अग्नौ) ज्ञाने (जुहोमि) ददामि। त्यजामि ॥

५५ प्राच्यै त्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्राच्यै॑ त्वा दि॒शे॒३॒॑ग्नयेऽधि॑पतयेऽसि॒ताय॑ रक्षि॒त्र आ॑दि॒त्यायेषु॑मते।
ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑।
दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

५५ प्राच्यै त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. To the eastern quarter, to Agni as overlord, to the black
    [serpent] as defender, to Āditya having arrows, we commit thee here;
    guard ye him for us until our coming; may he lead on our appointed
    [life-time] here unto old age; let old age commit us unto death; then
    may we be united with the cooked [offering].
Notes

⌊Vss. 55-60 are partly unmetrical.⌋ We are surprised to find the pause
before instead of after the phrase etám pári dadmaḥ. With the items in
the first division of these verses are to be compared the corresponding
ones in iii. 27. 1-6. The concluding pāda of the metrical refrain is
identical with vi. 119. 2 d. The pada-reading at the end of the
prose is ā́: asmā́kam: ā́॰etoḥ. In every verse, Ppp. omits tvā before
diśé (an improvement) and reads dadhmas for dadmas. In the refrain
⌊of every verse, apparently⌋, it has dadhātv adhā for dadātv atha.
In this verse it combines diśe agnaye. The metrical description of the
Anukr. is very puzzling; the part common to all the verses is 6 + 10: 11

  • 11 + 11 = 49 syllables; then the varying parts range ⌊with some
    resolutions⌋ from 25 to 31 syllables: all together, from 74 to 8o
    syllables; and atidhṛti is regularly 76, and kṛti 80; but the
    Anukr., after calling all atidhṛti, appears to call all but one
    kṛti. The verses are quoted in Kāuś. 63. 22, in connection with the
    rest of the hymn.
Griffith

To the eastern region, to Agni the Regent, to Asita the Protector, Aditya the Archer, we present thee, this offering of ours. Do ye preserve it from aggression To full old age may Destiny conduct us; may full old age deliver us to Mrityu. Then may we be with our prepared oblation.

पदपाठः

प्राच्यै॑। त्वा॒। दि॒शे। अ॒ग्नये॑। अधि॑ऽपतये। अ॒सि॒ताय॑। र॒क्षि॒त्रे। आ॒दि॒त्याय॑। इषु॑ऽमते। ए॒तम्। परि॑। द॒द्मः॒। तम्। नः॒। गो॒पा॒य॒त॒। आ। अ॒स्माक॑म्। आऽए॑तोः। दि॒ष्टम्। नः॒। अत्र॑। ज॒रसे॑। नि। ने॒ष॒त्। ज॒रा। मृ॒त्यवे॑। परि॑। नः॒। द॒दा॒तु॒। अथ॑। प॒क्वेन॑। स॒ह। सम्। भ॒वे॒म॒। ३.५५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राच्यै दिशे) पूर्व वा सन्मुखवाली दिशा में जाने के निमित्त (अग्नये) ज्ञानस्वरूप, (अधिपतये) अधिष्ठाता, (असिताय) बन्धनरहित, (रक्षित्रे) रक्षक परमेश्वर को (इषुमते) बाणवाले [वा हिंसावाले] (आदित्याय) सूर्य [के ताप] रोकने के लिये (एतम्) इस (त्वा) तुझे [जीवात्मा को] (परि दद्मः) हम सौंपते हैं। (तम्) उस [जीवात्मा] को (नः) हमारे अर्थ, (अस्माकम्) हमारी (ऐतोः) सब ओर गति के लिये (आ) सब ओर से (गोपायत) तुम [विद्वानो] बचाओ। वह [परमेश्वर] (नः) हमें (अत्र) यहाँ [संसार में] (दिष्टम्) नियत कर्म की ओर (जरसे) स्तति के लिये (नि नेषत्) ले ही चले। और (जरा) स्तुति [ही] (नः) हमें (मृत्यवे) मृत्यु को (परि ददातु) सौंपे [अर्थात् हम स्तुति के साथ मरें]। (अथ) सो (पक्वेन सह) परिपक्व [दृढ़] स्वभाववाले परमात्मा के साथ (सं भवेम) हम समर्थ होवें ॥५५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि पूर्व वा सन्मुखवाली तथा दूसरी दिशाओं में चलते हुए वे उस सर्वज्ञ, सर्वस्वामी, सर्वरक्षक परमात्मा को ध्यान में रखकर विद्वानों के सत्सङ्ग से अपनी गति बढ़ावें और वेदविहित कर्म करके संसार में कीर्तिमान् होवें और प्रयत्न करके कीर्ति के साथ ही वे शरीर को छोड़ें। यही प्रार्थना परमात्मा से सदा करते रहें। यही भावार्थ अगले मन्त्रों में लगा लें ॥५५॥ मन्त्र ५५-६० के प्रथम भागों का मिलान−अथर्व० का० ३ सू० २७ म० १-६ के प्रथम भागों से यथाक्रम करें (अथ पक्वेन…) अन्तिम भाग अथर्व० ६।११९।२ के अन्त में आया है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५५−(प्राच्यै दिशे) अ० ३।२७।१। क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति चतुर्थी। प्राचीं पूर्वामभिमुखीभूतां वा दिशां गन्तुम् (त्वा) त्वां जीवात्मानम् (अग्नये) ज्ञानस्वरूपाय (अधिपतये) अधिष्ठात्रे (असिताय) अबद्धाय (रक्षित्रे) रक्षकाय परमेश्वराय (आदित्याय) अ० १।९।१। सूर्यतापं निवारयितुम् (इषुमते) ईषेः किच्च। उ० १।१३। ईष गतौ हिंसायां च−उ, कित्। इषुरीषतेर्गतिकर्मणो वधकर्मणो वा−निरु० ९।१८। बाणवन्तं हिंसावन्तं वा निवारयितुम् (एतम्) आत्मानम् (परिदद्मः) समर्पयामः (तम्) जीवात्मानम् (नः) अस्मभ्यम् (गोपायत) रक्षत हे विद्वांसः (आ) समन्तात् (अस्माकम्) (ऐतोः) कमिमनिजनि०। उ० १।७३। आ+इण् गतौ−तु। चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० २।३।६२। चतुर्थ्यर्थे षष्ठी। समन्ताद् गत्यै (दिष्टम्) नियतं विहितं कर्म प्रति (नः) अस्मान् (अत्र) संसारे (जरसे) म० ६। स्तुतिप्राप्तये (नि) निश्चयेन (नेषत्) अ० ७।९।२। नयेत् स परमेश्वरः (जरा) जॄ स्तुतौ−अङ्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० १०।८। स्तुतिः (मृत्यवे) मरणाय (नः) अस्मान् (परि ददातु) समर्पयतु (अथ) अनन्तरम् (पक्वेन) दृढस्वभावेन परमात्मना (सह) (संभवेम) समर्था भवेम ॥

५६ दक्षिणायै त्वा

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दक्षि॑णायै त्वा दि॒श इन्द्रा॒याधि॑पतये॒ तिर॑श्चिराजये रक्षि॒त्रे य॒मायेषु॑मते।
ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑।
दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

५६ दक्षिणायै त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. To the southern quarter, to Indra as overlord, to the cross-lined
    [serpent] as defender, to Yama having arrows, we commit thee here;
    guard ye etc. etc.
Notes
Griffith

To the southern region, to Indra the Regent, to Tiraschiraji the Protector, to Yama the Archer, we present, etc. (as in stanza 55)

पदपाठः

दक्षि॑णायै। त्वा॒। दि॒शे। इन्द्रा॑य। अधि॑ऽपतये। तिर॑श्चिऽराजये। र॒क्षि॒त्रे। य॒माय॑। इषु॑ऽमते। ए॒तम्। परि॑। द॒द्मः॒। तम्। नः॒। गो॒पा॒य॒त॒। आ। अ॒स्माक॑म्। आऽए॑तोः। दि॒ष्टम्। नः॒। अत्र॑। ज॒रसे॑। नि। ने॒ष॒त्। ज॒रा। मृ॒त्यवे॑। परि॑। नः॒। द॒दा॒तु॒। अथ॑। प॒क्वेन॑। स॒ह। सम्। भ॒वे॒म॒। ३.५६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (दक्षिणायै दिशे) दक्षिण वा दाहिनी दिशाओं में जाने के निमित्त (इन्द्राय) पूर्ण ऐश्वर्यवाले, (अधिपतये) अधिष्ठाता, (तिरश्चिराजये) तिरछे चलनेवाले [कीट पतङ्ग बिच्छू आदि] की पङ्क्ति हटाने के अर्थ (रक्षित्रे) रक्षक परमेश्वर को (इषुमते) बाणवाले [वा हिंसावाले] (यमाय) मृत्यु के रोकने के लिये (एतम्) इस (त्वा) तुझे [जीवात्मा को]…. [मन्त्र ५५] ॥५६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५५ देखो ॥५६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५६−(दक्षिणायै दिशे) म० ५५। दक्षिणां दक्षिणहस्तस्थां वा दिशां गन्तुम् (त्वा) जीवात्मानम् (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्ताय (तिरश्चिराजये) अ० ३।२७।२। तिर्यग्गतीनां कीटपतङ्गवृश्चिकादीनां पङ्क्तिं निवारयितुम् (यमाय) अन्तकं मृत्युं निवारयितुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

५७ प्रतीच्यै त्वा

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प्र॒तीच्यै॑ त्वा दि॒शे वरु॑णा॒याधि॑पतये॒ पृदा॑कवे रक्षि॒त्रेऽन्ना॒येषु॑मते।
ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑।
दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

५७ प्रतीच्यै त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. To the western quarter, to Varuṇa as overlord, to the pṛ́dāku as
    defender, to food having arrows, we commit thee here; guard ye etc. etc.
Notes
Griffith

To the western region, to Varuna the Regent, to Pridaku the Protector, to Food the Archer, we present, etc.

पदपाठः

प्र॒तीच्यै॑। त्वा॒। दि॒शे। वरु॑णाय। अधि॑ऽपतये। पृदा॑कवे। र॒क्षि॒त्रे। अन्ना॑य। इषु॑ऽमते। ए॒तम्। परि॑। द॒द्मः॒। तम्। नः॒। गो॒पा॒य॒त॒। आ। अ॒स्माक॑म्। आऽए॑तोः। दि॒ष्टम्। नः॒। अत्र॑। ज॒रसे॑। नि। ने॒ष॒त्। ज॒रा। मृ॒त्यवे॑। परि॑। नः॒। द॒दा॒तु॒। अथ॑। प॒क्वेन॑। स॒ह। सम्। भ॒वे॒म॒। ३.५६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रतीच्यै दिशे) पश्चिम वा पीछेवाली दिशा में जाने के निमित्त (वरुणाय) सब में उत्तम, (अधिपतये) अधिष्ठाता, (पृदाकवे) बड़े-बड़े अजगर सर्प आदि [विषधारी प्राणियों] के समूह हटाने के अर्थ (रक्षित्रे) रक्षा करनेवाले परमेश्वर को (इषुमते) बाणवाले [वा हिंसावाले] (अन्नाय) अन्न रोकने के लिये (एतम्) इस (त्वा) तुझे [जीवात्मा को]….. [ म० ५५] ॥५७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५५ देखो ॥५६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५७−(प्रतीच्यै दिशे) पश्चिमां पश्चाद्भागस्थां वा दिशां गन्तुम् (वरुणाय) सर्वश्रेष्ठाय (पृदाकवे) अजगरसर्पादिमहाविषधारिणां समूहं निवारयितुम् (इषुमते अन्नाय) बाणयुक्तं हिंसायुक्तं वान्नं दूरीकर्तुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

५८ उदीच्यै त्वा

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उदी॑च्यै त्वा दि॒शे सोमा॒याधि॑पतये स्व॒जाय॑ रक्षि॒त्रेऽशन्या॒ इषु॑मत्यै।
ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑।
दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

५८ उदीच्यै त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. To the northern quarter, to Soma as overlord, to the constrictor as
    defender, to the thunderbolt having arrows, we commit thee here; guard
    ye etc. etc.
Notes

Our edition follows all the mss. in accenting rakṣitré ‘śányāi; it
should be, of course, -trè.

Griffith

To the northern region, to Soma the Regent, to Svaja the Protec- tor, to Thunderbolt the Archer, we present, etc.

पदपाठः

उदी॑च्यै। त्वा॒। दि॒शे। सोमा॑य। अधि॑ऽपतये। स्व॒जाय॑। र॒क्षि॒त्रे। अ॒शन्यै॑। इषु॑ऽमत्यै। ए॒तम्। परि॑। द॒द्मः॒। तम्। नः॒। गो॒पा॒य॒त॒। आ। अ॒स्माक॑म्। आऽए॑तोः। दि॒ष्टम्। नः॒। अत्र॑। ज॒रसे॑। नि। ने॒ष॒त्। ज॒रा। मृ॒त्यवे॑। परि॑। नः॒। द॒दा॒तु॒। अथ॑। प॒क्वेन॑। स॒ह। सम्। भ॒वे॒म॒। ३.५८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उदीच्यै दिशे) उत्तर वा बाईं दिशा में जाने के निमित्त (सोमाय) सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले (अधिपतये) अधिष्ठाता, (स्वजाय) अच्छे प्रकार अजन्मे [अथवा सब में चिपटे हुए] (रक्षित्रे) रक्षक परमेश्वर को (इषुमत्यै) तीरवाली [वा हिंसावाली] (अशन्यै) बिजुली हटाने के लिये (एतम्) इस (त्वा) तुझे [जीवात्मा को] …. [मन्त्र ५५] ॥५८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५५ देखो ॥५६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५८−(उदीच्यै दिशे) म० ५५। उत्तरां वामभागस्थां वा दिशां गन्तुम् (सोमाय) सर्वजगदुत्पादकाय (स्वजाय) अ–० ३।२७।४। सुष्ठु अजन्मने। यद्वा, ष्वञ्ज सङ्गे−क। सर्वालिङ्गनशीलाय (इषुमत्यै अशन्यै) बाणवतीं हिंसावतीं वा विद्युतं निवारयितुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

५९ ध्रुवायै त्वा

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ध्रु॒वायै॑ त्वा दि॒शे विष्ण॒वेऽधि॑पतये क॒ल्माष॑ग्रीवाय रक्षि॒त्र ओष॑धीभ्य॒ इषु॑मतीभ्यः।
ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑।
दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

५९ ध्रुवायै त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. To the fixed quarter, to Vishṇu as overlord, to the spotted-necked
    [serpent] as defender, to the herbs having arrows, we commit thee
    here; guard ye etc. etc.
Notes

Ppp. reads vīrudbhyas for oṣadhībhyas.

Griffith

To the stedfast region, to Vishnu the Regent, to Kalmashagriva the Protector, to Plants the Archers, we present, etc.

पदपाठः

ध्रु॒वायै॑। त्वा॒। दि॒शे। विष्ण॑वे। अधि॑ऽपतये। क॒ल्माष॑ऽग्रीवाय। र॒क्षि॒त्रे। ओष॑धीभ्यः। इषु॑ऽमतीभ्यः। ए॒तम्। परि॑। द॒द्मः॒। तम्। नः॒। गो॒पा॒य॒त॒। आ। अ॒स्माक॑म्। आऽए॑तोः। दि॒ष्टम्। नः॒। अत्र॑। ज॒रसे॑। नि। ने॒ष॒त्। ज॒रा। मृ॒त्यवे॑। परि॑। नः॒। द॒दा॒तु॒। अथ॑। प॒क्वेन॑। स॒ह। सम्। भ॒वे॒म॒। ३.५९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ध्रुवायै दिशे) नीचेवाली दिशा में जाने के निमित्त (विष्णवे) सर्वव्यापक, (अधिपतये) अधिष्ठाता, (कल्माषग्रीवाय) हरित रंगवाले−[वृक्ष आदि] का ग्रीवावाले, [रक्षित्रे] रक्षक परमेश्वर को (इषुमतीभ्यः) बाणवाली [विषैली] (ओषधीभ्यः) ओषधियों के हटाने के लिये (एतम्) इस (त्वा) तुझे [जीवात्मा को] ….. [मन्त्र ५५] ॥५९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५५ देखो ॥५६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५९−(ध्रुवायै दिशे) म० ५५। अधःस्थां दिशां गन्तुम् (विष्णवे) सर्वव्यापकाय (कल्माषग्रीवाय) कल्माषा हरितवर्णा वृक्षादयो ग्रीवावद् यस्य तस्मै (इषुमतीभ्यः ओषधीभ्यः) बाणवतीर्हिंसावतीर्वौषधीर्निवारयितुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

६० ऊर्ध्वायै त्वा

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ऊ॒र्ध्वायै॑ त्वा दि॒शे बृह॒स्पत॒येऽधि॑पतये श्वि॒त्राय॑ रक्षि॒त्रे व॒र्षायेषु॑मते।
ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑।
दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

६० ऊर्ध्वायै त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. To the upward quarter, to Brihaspati as overlord, to the white
    [serpent] as defender, to rain having arrows, we commit thee here;
    guard ye etc. etc.
Notes

⌊Here ends the third anuvāka, with 1 hymn and 60 verses. The quoted
Anukr. says svargaḥ ṣaṣṭiḥ, i.e., ’the svarga[-hymn] is sixty.’
The stem svarga, in one form or another, occurs a dozen times in the
hymn.⌋

Griffith

To the upper region, to Brihaspati the Regent, to Svitra the Protector, to Rain the Archer, we present thee, this offering of ours. Do ye preserve it from aggression. To full old age may Destiny conduct us, may full old age deliver us to Mrityu. Then may we be with our prepared oblation.

पदपाठः

ऊ॒र्ध्वायै॑। त्वा॒। दि॒शे। बृह॒स्पत॑ये। अधि॑ऽपतये। श्वि॒त्राय॑। र॒क्षि॒त्रे। व॒र्षाय॑। इषु॑ऽमते। ए॒तम्। परि॑। द॒द्मः॒। तम्। नः॒। गो॒पा॒य॒त॒। आ। अ॒स्माक॑म्। आऽए॑तोः। दि॒ष्टम्। नः॒। अत्र॑। ज॒रसे॑। नि। ने॒ष॒त्। ज॒रा। मृ॒त्यवे॑। परि॑। नः॒। द॒दा॒तु॒। अथ॑। प॒क्वेन॑। स॒ह। सम्। भ॒वे॒म॒। ३.६०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
  • यमः
  • त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
  • स्वर्गौदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ऊर्ध्वायै दिशे) ऊपरवाली दिशा में जाने के निमित्त (बृहस्पतये) बड़ी वाणी अर्थात् वेदशास्त्र और बड़े आकाश आदि के स्वामी, (अधिपतये) अधिष्ठाता, (श्वित्राय) ज्ञानमय (रक्षित्रे) रक्षा करनेवाले परमेश्वर को (इषुमते) बाणवाली [वा हिंसावाली] (वर्षाय) बरसा रोकने के लिये (एतम्) इस (त्वा) तुझे [जीवात्मा को] (परि दद्मः) हम सौंपते हैं…. [मन्त्र ५५] ॥६०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ५५ देखो ॥५६॥ इति तृतीयोऽनुवाकः ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६०−(ऊर्ध्वायै दिशे) म० ५५। उपरि वर्तमानां दिशां गन्तुम् (बृहस्पतये) बृहत्या वाचो बृहतो वेदशास्त्रस्य बृहतामाकाशादीनां च स्वामिने (श्वित्राय) अ० ३।२७।६। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः−क्त्र। ज्ञानमयाय (इषुमते वर्षाय) बाणयुक्तं हिंसायुक्तं वा वृष्टिजलं निवारयितुम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ५५ ॥