०१० आत्मा

०१० आत्मा ...{Loading}...

Whitney subject
  1. Mystic.
VH anukramaṇī

आत्मा।
१-२८ ब्रह्मा। गौः, विराट् अध्यात्मम्, २३ मित्रावरुणौ। त्रिष्टुप्, १,७,१४,१७-१८ जगती,
२१ पञ्चपदातिशक्वरी, २४ चतुष्पदा पुरस्कृतिर्भुरिगतिजगती, २, २६-२७ भुरिक्।

Whitney anukramaṇī

[Brahman.—aṣṭāviṅśakam . govirāḍadhyātmadāivatyam (23. māitrāvaruṇī). trāiṣṭubham: 1, 7, 14, 17, 18. jagatī; 21. 5-p. atiśakvarī; 24. 4-p. puraskṛtir bhurig atijagatī; 2, 26, 27. bhurij.]

Whitney

Comment

This hymn is in RV. a continuation of the preceding; but our vss. 9 and 23 are not found in the RV. with the rest (9 is RV. x. 55. 5 and 23 is RV. i. 152.3); ⌊while of 19, only d is found in RV., making, with the odd fifth pāda of our vs. 21, the first half of RV. i. 164. 42 (42 a, b = 21 e + 19 d); and our 24 (prose) does not occur in the RV. at all⌋. The first 23 verses are found also in Pāipp. xvi. The hymn is not quoted in Kāuś. (except as vs. 20 is also vii. 73. 11); but a few verses (9, 13, 14) are cited in Vāit.

Translations

Translated: as AV. hymn, by Henry, 110, 150; Griffith, i. 464.—For other translations etc. see the introduction to hymn 9.

Griffith

Continuation of Hymn 9

०१ यद्गायत्रे अधि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यद्गा॑य॒त्रे अधि॑ गाय॒त्रमाहि॑तं॒ त्रैष्टु॑भं वा॒ त्रैष्टु॑भान्नि॒रत॑क्षत।
यद्वा॒ जग॒ज्जग॒त्याहि॑तं प॒दं य इत्तद्वि॒दुस्ते अ॑मृत॒त्वमा॑नशुः ॥

०१ यद्गायत्रे अधि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. That the gāyatrī́-verse is set (ā-dhā) in the gāyatrī́-verse, or
    that they fashioned the triṣṭúbh-verse out of the triṣṭúbh-verse, or
    that the jágatī step is set in the jágatī (jágat)—whoever know
    that, they have attained immortality.
Notes

RV. ⌊vs. 23⌋ and Ppp. read in b trāíṣṭubhād vā trāíṣṭubhaṁ.

Griffith

How on the Gayatri the Gayatri was based; how from the Trishtup they fashioned the Trishtup forth: How on the Jagati was based the Jagati–they who know this have won themselves immortal life.

पदपाठः

यत्। गा॒य॒त्रे। अधि॑। गा॒य॒त्रम्। आऽहि॑तम्। त्रैस्तु॑भम्। वा॒। त्रैस्तु॑भात्। निः॒ऽअत॑क्षत। यत्। वा॒। जग॑त्। जग॑ति। आऽहि॑तम्। प॒दम्। ये। इत्। तत्। वि॒दुः। ते। अ॒मृ॒त॒ऽत्वम्। आ॒न॒शुः॒। १५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • जगती
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) क्योंकि (गायत्रम्) स्तुति करनेवालों का रक्षक [ब्रह्म] (गायत्रे) स्तुति योग्य गुण में (अधि) ऐश्वर्य के साथ (आहितम्) स्थापित है, (वा) और (त्रैष्टुभम्) तीन [सत्त्व, रज और तम] के बन्धनवाले [जगत्] को (त्रैष्टुभात्) तीन [ऋषियों ने] पृथक् किया है। (वा) और (यत्) क्योंकि (जगत्) जानने योग्य (पदम्) प्रापणीय [मोक्षपद] (जगति) संसार के भीतर (आहितम्) स्थापित है, (ये इत्) जो ही [पुरुष] (तत्) उस [ब्रह्म] को (विदुः) जानते हैं, (ते) उन्होंने (अमृतत्वम्) अमरपन (आनशुः) पाया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - संसार के भीतर परमात्मा अपने गुणों से सर्वव्यापक है, जो योगी जन उसे साक्षात् करते हैं, वे मोक्ष के भागी होते हैं ॥१॥ मन्त्र १-८ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं-म० १।१६४।२३−३० ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(यत्) यस्मात् कारणात् (गायत्रे) अमिनक्षियजि० उ० ३।१०५। गै गाने-अत्रन्, स च णित्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति-युक्। गायत्रं गायतेः स्तुतिकर्मणः, निरु० १।८। स्तुत्ये गुणे (अधि) ऐश्वर्ये (गायत्रम्) गै गाने-शतृ+त्रैङ् पालने-क, तलोपः। गायतां रक्षकं ब्रह्म (आहितम्) धृतम् (त्रैष्टुभम्) त्रि+ष्टुभ निरोधे−क्विप् सम्पदादिः, ततोऽण्। त्रयाणां सत्त्वरजस्तमसां स्तोभनं बन्धनं यस्मिन् तज् जगत् (वा) समुच्चये (त्रैष्टुभात्) स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। त्रि+ष्टुभ पूजायाम्−क्विप्, ततः प्रज्ञाद्यण्। त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः पूजितात् परब्रह्मणः (निरतक्षत) तक्षतिः करोतिकर्मा-निरु० ४।१९ प्रथमपुरुषस्य मध्यमः। निरतक्षन्। पृथक् कृतवन्तः (यत्) यस्मात् (वा) समुच्चये (जगत्) गन्तव्यं ज्ञातव्यम् (जगति) संसारे (आहितम्) (पदम्) प्रापणीयं मोक्षपदम् (ये) विद्वांसः (इत्) एव (तत्) ब्रह्म (विदुः) जानन्ति (ते) (अमृतत्वम्) अमरत्वं मोक्षसुखम् (आनशुः) प्राप्तवन्तः ॥

०२ गायत्रेण प्रति

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

गा॑य॒त्रेण॒ प्रति॑ मिमीते अ॒र्कम॒र्केण॒ साम॒ त्रैष्टु॑भेन वा॒कम्।
वा॒केन॑ वा॒कं द्वि॒पदा॒ चतु॑ष्पदा॒क्षरे॑ण मिमते स॒प्त वाणीः॑ ॥

०२ गायत्रेण प्रति ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. By the gāyatrī́-verse he measures off the song (arká), by the song
    the chant (sā́man), by the triṣṭúbh-vevse the hymn (vāká), by the
    hymn of two feet [or] of four feet the hymn; by the syllable they
    measure the seven tunes (vā́ṇi).
Notes

The words ‘song,’ ‘hymn,’ ’tune’ are used rather loosely in rendering
here.

Griffith

With Gayatri he measures out the praise-song, Saman with praise-song, triplet with the Trishtup, The triplet with the two or four-foot measure, and with the syllable they form seven metres.

पदपाठः

गा॒य॒त्रेण॑। प्रति॑। मि॒मी॒ते॒। अ॒र्कम्। अ॒र्केण॑। साम॑। त्रैस्तु॑भेन। वा॒कम्। वा॒केन॑। वा॒कम्। द्वि॒ऽपदा॑। चतुः॑ऽपदा। अ॒क्षरे॑ण। मि॒म॒ते॒। स॒प्त। वाणीः॑। १५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (गायत्रेण) स्तुति योग्य गुण से वह [योगी] (अर्कम्) पूजनीय [परमेश्वर] को (प्रति) प्रतीत के साथ (मिमीते) बोलता है, (अर्केण) पूजनीय ब्रह्म के साथ (साम) मोक्षविद्या को, (त्रैष्टुभेन) तीन [कर्म उपासना, ज्ञान] से स्तुति किये गये [ब्रह्म] के साथ (वाकम्) वेदवाक्य को [बोलता है]। (सप्त) सात [दो कान, दो नथने, दो नेत्र और एक मुख] से सम्बन्धवाली [उसी की] (वाणीः) वाणियाँ (द्विपदा) दोपाये [मनुष्य आदि] और (चतुष्पदा) चौपाये [गौ आदि प्राणी] के साथ [वर्तमान] (वाकम्) वेदवाणी के स्वामी [परमेश्वर] को (अक्षरेण) सर्वव्यापक (वाकेन) वेदवाक्य के साथ (मिमते) उच्चारती हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिज्ञासु तत्त्वदर्शी ब्रह्मचारी उत्तम-उत्तम गुणों के द्वारा ब्रह्म से विद्या और विद्या से ब्रह्म को साक्षात् करके मोक्ष को प्राप्त होकर संसार में वेद द्वारा परमात्मा का उपदेश करता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(गायत्रेण) म० २। स्तुत्येन गुणेन। (प्रति) प्रतीत्या (मिमीते) अ० ४।११।२। माङ् माने शब्दे च। तोलयति। उच्चारयति (अर्कम्) अ० ३।३।२। अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्ति-निरु० ५।४। पूजनीयं परमेश्वरम् (अर्केण) पूजनीयेन ब्रह्मणा (साम) अ० ७।५४।१। षो अन्तकर्मणि-मनिन्। दुःखनाशिकां मोक्षविद्याम् (त्रैष्टुभेन) म० १। त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः पूजितेन ब्रह्मणा (वाकम्) वच-घञ्, कुत्वम्। वेदवचनम् (वाकेन) वेदवचनेन (वाकम्) अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। वाक्-अच्। वेदवाक्यस्वामिनं परमेश्वरम् (द्विपदा) पादद्वयोपेतेन मनुष्यादिना सह वर्तमानम् (चतुष्पदा) पादचतुष्टयोपेतेन गवादिना सह वर्तमानम् (अक्षेरण) अशेः सरः। उ० ३।७०। अशू व्याप्तौ-सर, यद्वा, नञ्+क्षर संचलने-पचाद्यच्। अक्षरं वाङ्नाम-निघ० १।११। अक्षर उदकम्-निघ० १।१२। सर्वव्यापकेन। अविनाशिना। मोक्षेण। ब्रह्मणा (मिमते) माङ् माने शब्दे च। तोलन्ति। वदन्ति (सप्त) शीर्षण्यैः सप्तभिः श्रोत्रादिभिः सम्बद्धाः (वाणीः) वाण्यः ॥

०३ जगता सिन्धुम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

जग॑ता॒ सिन्धुं॑ दि॒व्य᳡स्कभायद्रथंत॒रे सूर्यं॒ पर्य॑पश्यत्।
गा॑य॒त्रस्य॑ स॒मिध॑स्ति॒स्र आ॑हु॒स्ततो॑ म॒ह्ना प्र रि॑रिचे महि॒त्वा ॥

०३ जगता सिन्धुम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. By the jágatī he established (skabh) the river in the sky; in the
    rathaṁtará he beheld (pari-paś) the sun; they call the three
    kindlers (samídh) the gāyatrī́-verse’s; it was superior to them by
    bulk, by greatness.
Notes

The translation of the last pāda is not without uncertainties; tátas
is here understood as quasi-object of prá ririce. RV. ⌊vs. 25⌋ reads
in a astabhāyat.

Griffith

With Jagati the flood in heaven he stablished, and saw the Sun in the Rathantara Saman. Gayatri hath, they say, three logs for burning: hence it excels in majesty and vigour.

पदपाठः

जग॑ता। सिन्धु॑म्। दि॒वि। अ॒स्क॒भा॒य॒त्। र॒थ॒म्ऽत॒रे। सूर्य॑म्। परि॑। अ॒प॒श्य॒त्। गा॒य॒त्रस्य॑। स॒म्ऽइधः॑। ति॒स्रः। आ॒हुः॒। ततः॑। म॒ह्ना। प्र। रि॒रि॒चे॒। म॒हि॒ऽत्वा। १५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - उस [प्रजापति] ने (जगता) संसार के साथ (रथन्तरे) रमणीय पदार्थों के तरानेवाले (दिवि) आकाश में (सिन्धुम्) नदी [जल] और (सूर्यम्) सूर्य को (अस्कभायत्) थाँभा और (परि) सब ओर से (अपश्यत्) देखा। (गायत्रस्य) स्तुति योग्य ब्रह्म की (तिस्रः) तीनों [भूत, भविष्यत् और वर्तमान सम्बन्धी] (समिधः) प्रकाशशक्तियों को (आहुः) वे [ब्रह्मज्ञानी] बताते हैं, (ततः) उसी से उस [ब्रह्म] ने (महा) अपनी महिमा और (महित्वा) सामर्थ्य को [सब लोकों को] (प्र) अच्छे प्रकार (रिरिचे) संयुक्त किया ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - त्रिकालज्ञ परमेश्वर ने मेघ, सूर्य और सब लोकों को अपने सामर्थ्य से रचा है ॥३॥ (अस्कभायत्) के स्थान पर [अस्थभायत्] है−ऋ० १।१६४।२५ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(जगता) संसारेण सह (सिन्धुम्) अ० ४।™३।१। नदीम् (दिवि) आकाशे (अस्कभायत्) स्तम्भितवान् (रथन्तरे) अ० ८।१०(२)।६। रमणीयानां लोकानां तारके (सूर्यम्) आदित्यमण्डलम् (परि) सर्वतः (अपश्यत्) दृष्टवान् (गायत्रस्य) म० १। स्तुत्यस्य ब्रह्मणः (समिधः) सम्यग् दीप्तीः प्रकाशशक्तीः (तिस्रः) भूतभविष्यद्वर्तमानैः सह सम्बद्धाः (आहुः) कथयन्ति (ततः) तस्मात् कारणात् (मह्ना) वर्णलोपश्छान्दसः। महिम्ना (प्र) प्रकर्षेण (रिरिचे) रिच वियोजनसम्पर्चनयोः-लिट्। लोकान् संयोजितवान् (महित्वा) अ० ४।२।२। महत्त्वेन सामर्थ्येन ॥

०४ उप ह्वये

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

उप॑ ह्वये सु॒दुघां॑ धे॒नुमे॒तां सु॒हस्तो॑ गो॒धुगु॒त दो॑हदेनाम्।
श्रेष्ठं॑ स॒वं स॑वि॒ता सा॑विषन्नो॒ऽभी᳡द्धो॑ घ॒र्मस्तदु॒ षु प्र वो॑चत् ॥

०४ उप ह्वये ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I invite that well-milking milch-cow; a skilful-handed milker also
    shall milk her; may the impeller impel us the best impulse; the hot
    drink is kindled about: that may he kindly proclaim.
Notes

We had this verse above as vii. 73. 7. The only variant in RV. ⌊vs. 26⌋
is the better vocam at the end. ⌊Oldenberg discusses verses 4-7, IFA.
vi. 182.⌋

Griffith

I invocate this Milch-cow good at milking, so that the Milker, deft of hand, may milk her. May “Savitar give goodliest stimulation. The caldron is made hot: he will proclaim it.

पदपाठः

उप॑। ह्व॒ये॒। सु॒ऽदुघा॑म्। धे॒नुम्। ए॒ताम्। सु॒ऽहस्तः॑। गो॒ऽधुक्। उ॒त। दो॒ह॒त्। ए॒ना॒म्। श्रेष्ठ॑म्। स॒वम्। स॒वि॒ता। सा॒वि॒ष॒त्। नः॒। अ॒भिऽइ॑ध्दः। घ॒र्मः। तत्। ऊं॒ इति॑। सु। प्र। वो॒च॒त्। १५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सुदुघाम्) अच्छे प्रकार कामनाएँ पूरी करनेवाली (एताम्) इस (धेनुम्) विद्या को (उप ह्वये) मैं स्वीकार करता हूँ, (उत) वैसे ही (सुहस्तः) हस्तक्रिया में चतुर (गोधुक्) विद्या को दोहनेवाला [विद्वान्] (एनाम्) इस [विद्या] को (दोहत्) दुहे। (सविता) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (श्रेष्ठम्) श्रेष्ठ (सवम्) ऐश्वर्य को (नः) हमारे लिये (साविषत्) उत्पन्न करे। (अभीद्धः) सब ओर प्रकाशमान (घर्मः) प्रतापी परमेश्वर ने (तत् उ) उस सब को (सु) अच्छे प्रकार (प्रवोचत्) उपदेश किया है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य कल्याणी वेदवाणी का पठन-पाठन करके ऐश्वर्य प्राप्त करें। जिस प्रकार परमेश्वर ने उसका उपदेश किया है ॥४॥ यह मन्त्र आ चुका है-अ० ७।७३।३। (वोचत्) के स्थान पर [वोचम्] है, ऋग्वेद १।१६४।२६। तथा निरुक्त ११।४३ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-अयं मन्त्रः पूर्वं व्याख्यातः-अ० ७।७३।३। तत्रैव द्रष्टव्यः ॥

०५ हिङ्कृण्वती वसुपत्नी

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

हि॑ङ्कृण्व॒ती व॑सु॒पत्नी॒ वसू॑नां व॒त्समि॒च्छन्ती॒ मन॑सा॒भ्यागा॑त्।
दु॒हाम॒श्विभ्यां॒ पयो॑ अ॒घ्न्येयं सा व॑र्धतां मह॒ते सौभ॑गाय ॥

०५ हिङ्कृण्वती वसुपत्नी ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Lowing, mistress of good things, seeking her calf with her mind,
    hath she come unto [it]; let this inviolable one yield milk for the
    Aśvins; let her increase unto great good-fortune.
Notes

This verse, again, is vii. 73. 8, above, excepting that the latter reads
nyā́gan at end of b. Our pada-text has here abhi॰ā́gāt, while
that of RV. ⌊vs. 27⌋ gives abhí: ā́: agāt; both yield the same
saṁhitā-reading.

Griffith

She, Lady of all treasures, hath come hither, yearning in spirit for her calf, and lowing. May this Cow yield her milk for both the Asvins, and may she prosper to our high advantage.

पदपाठः

हि॒ङ्ऽकृ॒ण्व॒ती। व॒सु॒ऽपत्नी॑। वसू॑नाम्। व॒त्सम्। इ॒च्छन्ती॑। मन॑सा। अ॒भि॒ऽआगा॑त्। दु॒हाम्। अ॒श्विऽभ्या॑म्। पयः॑। अ॒घ्न्या। इ॒यम्। सा। व॒र्ध॒ता॒म्। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय। १५.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हिङ्कृण्वती) गति वा वृद्धि करनेवाली, (वसुपत्नी) धन की रक्षा करनेवाली, (वसूनाम्) श्रेष्ठों के बीच (वत्सम्) उपदेशक पुरुष को (इच्छन्ती) चाहनेवाली [वेदवाणी] (मनसा) विज्ञान के साथ (अभ्यागात्) सब ओर से प्राप्त हुई है। (इयम्) यह (अघ्न्या) हिंसा न करनेवाली विद्या (अश्विभ्याम्) दोनों चतुर स्त्री पुरुषों के लिये (पयः) विज्ञान को (दुहाम्) परिपूर्ण करे, (सा) वही [विद्या] (महते) अत्यन्त (सौभगाय) सुन्दर ऐश्वर्य के लिये (वर्धताम्) बढ़े ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यह जो वेदवाणी संसार का उपकार करती है, उसको सब स्त्री-पुरुष प्राप्त होकर यथावत् वृद्धि करें ॥५॥ यह मन्त्र आ चुका है-अ० ७।७३।८। (अभ्यागात्) के स्थान पर वहाँ [न्यागन्] पद है। पदपाठ में (अभि-आगात्) के स्थान पर [अभि। आ। अगात्] हैं−ऋग्वेद १।१६४।२७। तथा निरु० ११।४५ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(अभ्यागात्) आभिमुख्येन आगतवती, प्राप्तवती। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ७।७३।८ ॥

०६ गौरमीमेदभि वत्सम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

गौर॑मीमेद॒भि व॒त्सं मि॒षन्तं॑ मू॒र्धानं॒ हिङ्ङ॑कृणोन्मात॒वा उ॑।
सृक्वा॑णं घ॒र्मम॒भि वा॑वशा॒ना मिमा॑ति मा॒युं पय॑ते॒ पयो॑भिः ॥

०६ गौरमीमेदभि वत्सम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The cow lowed toward the winking calf; she uttered hing at [its]
    head, in order to lowing; bellowing the mouth (? sṛ́kvan) unto the hot
    drink, she lows a lowing, she abounds with milk.
Notes

Compare 1. 8, above; the second line is nearly identical in the two
verses. It is quite differently rendered by the translators at one and
another point, being very obscure. For abhí in a, RV. reads ánu,
Ppp. apa.

Griffith

The Cow hath lowed after her blinking youngling: she licks his forehead as she lows, to form it. His mouth she fondly calls to her warm udder, and suckles him with milk while gently lowing.

पदपाठः

गौः। अ॒मी॒मे॒त्। अ॒भि। व॒त्सम्। मि॒षन्त॑म्। मू॒र्धान॑म्। हिङ्। अ॒कृ॒णो॒त्। मात॒वै। ऊं॒ इति॑। सृका॑णम्। घ॒र्मम्। अ॒भि। वा॒व॒शा॒ना। मिमा॑ति। मा॒युम्। पय॑ते। पयः॑ऽभिः। १५.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (गौः) ब्रह्मवाणी ने (मिषन्तम्) आँखें मींचे हुए (वत्सम्) निवासस्थान [संसार] को (अभि) सब ओर (अमीमेत्) फैलाया और (मूर्धानम्) [लोकों से] बन्धन रखनेवाले [मस्तकरूप सूर्य] को (मातवै) बनाने के लिये (उ) निश्चय करके (हिङ्) तृप्ति कर्म (अकृणोत्) बनाया। वह [ब्रह्मवाणी] (सृक्काणम्) सृष्टिकर्ता (घर्मम्) प्रकाशमान [परमात्मा] की (अभि) सब ओर से (वावशाना) अति कामना करती हुई (मायुम्) शब्द (मिमाति) करती है और (पयोभिः) अनेक बलों के साथ (पयते) चलती है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने प्रलय में लीन संसार को रचकर सूर्य आदि लोकों को परस्पर आकर्षण में ऐसा बनाया, जैसे मस्तक और धड़ होते हैं और उसी ब्रह्म शक्ति द्वारा प्राणियों को सब प्रकार का बल मिलता है ॥६॥ इस मन्त्र के उत्तर भाग का मिलान करो-अ० ९।१।८। (अभि) के स्थान पर [अनु] है−ऋ० १।१६४।२८। तथा निरु० ११।४२ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(गौः) गौर्वाक्-निघ० १।११। ब्रह्मवाणी (अमीमेत्) अ० ९।९।९। डुमिञ् प्रक्षेपणे-लङ्। अमिनोत्। विस्तारितवती (अभि) सर्वतः (वत्सम्) वस निवासे-स। निवासस्थानं संसारम् (मिषन्तम्) मिष स्पर्धायाम्-शतृ। चक्षुर्मीलनं कुर्वन्तम्। प्रलये वर्तमानम् (मूर्धानम्) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। मुर्वी बन्धने-कनिन्, उकारस्य-दीर्घः, वस्य धः। लोकानां बन्धकमाकर्षकं मस्तकरूपं सूर्यम् (हिङ्) अ० ९।६(५)।१। हिवि प्रीणने−क्विन्। तृप्तिकर्म (अकृणोत्) कृतवती (मातवै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० –३।४।९। माङ् माने शब्दे-च-तवै। निर्मातुम् (उ) एव (सृक्वाणम्) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ० ४।११४। सृज विसर्गे-क्वनिप्। चोः कुः। वा० ८।२।३०। कुत्वम्। स्रष्टारम् (घर्मम्) अ० ४।१।२। घृ सेचनदीप्त्योः-मक्। प्रकाशमानं परमात्मानम्। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ९।१।८ ॥

०७ अयं स

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒यं स शि॑ङ्क्ते॒ येन॒ गौर॒भीवृ॑ता॒ मिमा॑ति मा॒युं ध्व॒सना॒वधि॑ श्रि॒ता।
सा चि॒त्तिभि॒र्नि हि च॒कार॒ मर्त्या॑न्वि॒द्युद्भव॑न्ती॒ प्रति॑ व॒व्रिमौ॑हत ॥

०७ अयं स ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This one here twangs, by whom the cow is surrounded; she lows a
    lowing, being set (śritá) on the sparkler (dhvasáni); since she put
    down mortals by her thoughts (cittí), becoming the lightning, she
    threw (ūh) back the wrap.
Notes

Both RV. ⌊vs. 29⌋ and Ppp. read mártyam in c.

Griffith

He also snorts, by whom encompassed round the Cow lows as she closely clings to him who sheds the rain. She with her shrilling cries hath humbled mortal men, and turn- ed to lightning, hath stripped off her covering robe.

पदपाठः

अ॒यम्। सः। शि॒ङ्क्ते॒। येन॑। गौः। अ॒भिऽवृ॑ता। मिमा॑ति। मा॒युम्। ध्व॒सनौ॑। अध‍ि॑। श्रि॒ता। सा। चि॒त्तिऽभिः॑। नि। हि। च॒कार॑। मर्त्या॑न्। वि॒ऽद्युत्। भव॑न्ती। प्रति॑। व॒व्रिम्। औ॒ह॒त॒। १५.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • जगती
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह [समीपस्थ] (सः) वही [दूरस्थ परमेश्वर] (शिङ्क्ते) गरजता सा है, (येन) जिस [परमेश्वर] करके (अभिवृता) सब ओर से घेरी हुई, (ध्वसनौ) अपनी परिधि में (अधि) ठीक-ठीक (श्रिता) ठहरी हुई (गौः) भूमि (मायुम्) मार्ग को (मिमाति) बनाती है। और (सा) उस (भवन्ती) व्यापक (विद्युत्) बिजुली ने (मर्त्यान्) मनुष्यों को (हि) निश्चय करके (चित्तिभिः) चेतनाओं के साथ (नि) निरन्तर (चकार) किया है और (वव्रिम्) प्रत्येक रूप को (प्रति) प्रत्यक्ष (औहत) विचारयोग्य बनाया है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर की शक्ति से यह पृथिवी अपनी परिधि में घूमती है और उसी की महिमा से बिजुली मनुष्यादि प्राणियों में व्यापकर कर्म करने के लिये शरीर के भीतर चेष्टा देती है ॥७॥ (मर्त्यान्) के स्थान पर [मर्त्यम्] है−ऋ० १।१६४।२९। तथा निरु० २।९ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(अयम्) समीपस्थः परमेश्वरः (सः) दूरस्थः (शिङ्क्ते) शिजि अव्यक्ते शब्दे। गर्जनं यथा शब्दं करोति (येन) परमेश्वरेण (गौः) पृथिवी-निघ० १।१। (अभिवृता) वृञ् वरणे-क्त। सर्वतो वेष्टिता (मिमाति) अ० ९।१।८। निर्माति। करोति (मायुम्) अ० ९।१।८। माङ् माने−उण्, युक् च। परिमितं मार्गम्-दयानन्दभाष्ये (ध्वसनौ) अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। ध्वंसु अवस्रंसने गतौ च-अनि, अनुनासिकलोपः। अधऊर्ध्वमध्यपतनार्थे परिधौ-दयानन्दभाष्ये (अधि) उपरि (श्रिता) स्थिता (सा) प्रत्यक्षा (चित्तिभिः) चिती संज्ञाने वा चित संचेतने-क्तिन्। संचेतनैः संज्ञानैः सह (नि) निरन्तरम् (हि) एव (चकार) कृतवती (मर्त्यान्) मनुष्यान् (विद्युत्) विद्योतमाना तडित् (भवन्ती) व्याप्नुवन्ती (प्रति) प्रत्यक्षम् (वव्रिम्) अ० ९।९।५। वरणीयं रूपम् (औहत) ऊह वितर्के-लङ्। विचारणीयं कृतवती ॥

०८ अनच्छये तुरगातु

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒नच्छ॑ये तु॒रगा॑तु जी॒वमेज॑द्ध्रु॒वं मध्य॒ आ प॒स्त्या᳡नाम्।
जी॒वो मृ॒तस्य॑ चरति स्व॒धाभि॒रम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः ॥

०८ अनच्छये तुरगातु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Breathing lies the swift moving thing, living, stirring, fixed, in
    the midst of the abodes (pastyā̀); the living one moves at the will (?
    svadhā́bhis) of the dead one; the immortal one [is] of like source
    with the mortal.
Notes

The verse is excessively obscure, and Hillebrandt’s translation of the
second half, and reference to the moon (Ved. Mythol., pp. 336, 498),
very forced and implausible. The verse lacks a syllable in a (and
the pada-text sets its mark of pāda-division after éjat; perhaps we
are to resolve -ga-ātu. Ppp. puts the verse after our vs. 9. ⌊RV., vs.
30, shows no variant. Roth’s most interesting interpretation (ZDMG.
xlvi. 759) makes of the verse a riddle whose answer is “the body and the
soul.” He emends to ánanac in a. Böhtlingk, Berichte der
sächsischen Gesell.
, 1893, xlv. 88, reviews Roth’s interpretation.⌋

Griffith

That which hath breath and life and speed and motion lies firmly stablished in the midst of houses. The living moves by powers of the departed: the immortal is the brother of the mortal.

पदपाठः

अ॒नत्। श॒ये॒। तु॒रऽगा॑तु। जी॒वम्। एज॑त्। ध्रु॒वम्। मध्ये॑। आ। प॒स्त्या᳡नाम्। जी॒वः। मृ॒तस्य॑। च॒र॒ति॒। स्व॒धाभिः॑। अम॑र्त्यः। मर्त्ये॑न। सऽयो॑निः। १५.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (जीवम्) जीव को (अनत्) प्राण देता हुआ और (एजत्) चेष्टा कराता हुआ, (तुरगातु) शीघ्रगामी, (ध्रुवम्) निश्चल [ब्रह्म] (पस्त्यानाम्) घरों के (मध्ये) मध्य में (आ) सब ओर से (शये) सोता है [वर्तमान है]। (मृतस्य) मरण स्वभाववाले [शरीर] का (अमर्त्यः) अमरणस्वभाववाला (जीवः) जीव [आत्मा] (मर्त्येन) मरण धर्मवाले [जगत्] के साथ (सयोनिः) एकस्थानी होकर (स्वधाभिः) अपनी धारणशक्तियों से (चरति) चलता रहता है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन से अधिक वेगवाला [यजु० ४०।४] सर्वव्यापक ब्रह्म सब में वर्तमान रहकर जीवात्मा को उसके कर्मानुसार संसार के भीतर शरीरधारण करा के पुण्य-पाप का फल देता है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(अनत्) अन्तर्गतण्यर्थः। प्राणयत् (शये) तलोपः। शेते। वर्तते (तुरगातु) कमिमनिजनिगा०। उ० १।७३। गाङ् गतौ गै शब्दे वा-तु। शीघ्रगामि ब्रह्म। मनसो जवीयः-यजु० ४०।४। (जीवम्) जीवात्मानम् (एजत्) एजयत्। कम्पयत् (ध्रुवम्) निश्चलम् (मध्ये) (आ) समन्तात् (पस्त्यानाम्) जनेर्यक्। उ० ४।१११। पस बाधे ग्रन्थे च-यक्, तुगागमः, यद्वा पत्लृ गतौ-यक्, सकार उपजनः। गृहाणाम्-निघ० ३।४। (जीवः) जीवात्मा (मृतस्य) मरणस्वभावस्य शरीरस्य (चरति) गच्छति (स्वधाभिः) अ० २।२९।७। स्व+डुधाञ् धारणपोषणदानेषु−क्विप्। आत्मधारणशक्तिभिः (अमर्त्यः) अमरणस्वभावः (मर्त्येन) मरणधर्मेण संसारेण सह (सयोनिः) समानस्थानः ॥

०९ विधुं दद्राणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

वि॒धुं द॑द्रा॒णं स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे युवा॑नं॒ सन्तं॑ पलि॒तो ज॑गार।
दे॒वस्य॑ पश्य॒ काव्यं॑ महि॒त्वाद्य म॒मार॒ स ह्यः समा॑न ॥

०९ विधुं दद्राणम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The shaker-apart (? vidhú) that runs on the back of the sea, being
    young, the hoary one swallowed; see thou the poesy of the heavenly one
    with greatness; today he died, yesterday he received breath (sam-an).
Notes

This verse is RV. x. 55. 5; also SV. i. 325 etc.; TA. iv. 20. 1; MS. iv.
9. 12. All alike read sámane bahūnā́m for salilásya pṛṣṭhé (MS.,
except in its pada-text, has other slight differences which are
palpable blunders). Vidhú is (as at 8. 22, above) divided in
pada-text vi॰dhú. It doubtless designates here the moon, however it
may have won the right to do so. Ludwig and Hillebrandt (Ved. Mythol.
i. 465) translate d ’today (he died yesterday) he has come to life’;
but this is in the highest degree forced, and may be pronounced even
inadmissible. Ppp. reads vidyudūdrāṇā at the beginning. ⌊See
Kaṭha-hss., p. 82.⌋ The verse is quoted in Vāit. 40. 7; 41. 12.

Griffith

The old hath waked the young Moon from his slumber, who runs his circling course with many round him. Behold the God’s high wisdom in its greatness: he who died yesterday to-day is living.

पदपाठः

वि॒ऽधुम्। द॒द्रा॒णम्। स॒लि॒लस्य॑। पृ॒ष्ठे। युवा॑नम्। सन्त॑म्। प॒लि॒तः। ज॒गा॒र॒। दे॒वस्य॑। प॒श्य॒। काव्य॑म्। म॒हि॒ऽत्वा। अ॒द्य। म॒मार॑। सः। ह्यः। सम्। आ॒न॒। १५.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सलिलस्य) समुद्र की (पृष्ठे) पीठ पर (सन्तम्) वर्तमान, (विधुम्) काम करनेवाले, (दद्राणम्) टेढ़े चलनेवाले (युवानम्) बलवान् पुरुष को (पलितः) पालनकर्ता [परमेश्वर] (जगार) निगल गया। (देवस्य) दिव्यगुणवाले [परमेश्वर] की (काव्यम्) चतुराई को (महित्वा) महत्त्व के साथ (पश्य) देख, (सः) वह [प्राणी] (अद्य) आज (ममार) मर गया [जो] (ह्यः) कल (सम् आन) जी रहा था ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - संसार सागर में दुराचारी बलवान् पुरुष को जगत्पालक परमेश्वर इस प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे समुद्र में बुदबुदा, सो परमात्मा की न्यायकारिता और अपने शरीर की अनित्यता विचार कर मनुष्य धर्म में सदा प्रवृत्त रहे ॥९॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।५५।५। साम० पू० प्र० ४ द० ४ म० ३। तथा उ० प्र० ९।१।७। और निरुक्त १४।१८। (सलिलस्य पृष्ठे) के स्थान पर सब में [समने बहूनाम्] है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(विधुम्) पॄभिदिव्यधि०। उ० १।२३। करोत्यर्थे विपूर्वाद् दधातेः कु। विधारकं कर्मकर्तारम् (दद्राणम्) द्रा कुत्सायां गतौ-कानच्। कुटिलं गतवन्तम् (सलिलस्य) अ० ४।१५।११। षल गतौ−इलच्। सलिलमुदकम्-निघ० १।१२। समुद्रस्य (पृष्ठे) उपरिभागे (युवानम्) अ० ९।९।१। पालयिता-निरु० ४।२६। परमेश्वरः (जगार) गॄ निगरणे-लिट्। निगीर्णवान् (देवस्य) दिव्यगुणविशिष्टस्य परमेश्वरस्य (पश्य) (काव्यम्) मेधावित्वम्। चातुर्यम् (महित्वा) अ० ४।२।२। महत्त्वेन (अद्य) अ० १।१।१। अस्मिन् दिने (ममार) मृतवान् (सः) पुरुषः (ह्यः) अतीतेऽह्नि (सम्) सम्यक् (आन) अन प्राणने-लिट्। जीवितवान् ॥

१० य ईम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

य ईं॑ च॒कार॒ न सो अ॒स्य वे॑द॒ य ईं॑ द॒दर्श॒ हिरु॒गिन्नु तस्मा॑त्।
स मा॒तुर्योना॒ परि॑वीतो अ॒न्तर्ब॑हुप्र॒जा निरृ॑ति॒रा वि॑वेश ॥

१० य ईम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. He who made him knows not of him; [he is] verily out of sight now
    of him who saw him; he, enveloped within his mother’s womb, with his
    much progeny, entered into perdition (nírṛti).
Notes

The translation follows the RV. reading, nírṛtim, in d, since the
nom. -tis seems unconstruable. Both RV. ⌊vs. 32⌋ and Ppp. put the
verse after our vs. 11, and the latter reads so ‘sya in a. Haug
interprets the lightning to be intended.

Griffith

He who hath made him doth not comprehend him: from him who saw him surely he is hidden. He, yet enveloped in his mother’s bosom, source of much life, hath sunk into destruction.

पदपाठः

यः। ई॒म्‌। च॒कार॑। न। सः। अ॒स्य। वे॒द॒। यः। ई॒म्। द॒दर्श॑। हिरु॑क्। इत्। नु। तस्मा॑त्। सः। मा॒तुः। योना॑। परि॑ऽवीतः। अ॒न्तः। ब॒हु॒ऽप्र॒जाः। निःऽऋ॑तिः। आ। वि॒वे॒श॒। १५.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जिस [परमेश्वर] ने (ईम्) इस [प्राणी] को (चकार) बनाया है, (सः) वह [प्राणी] (अस्य) इस [परमेश्वर] को [यथावत्] (न) नहीं (वेद) जानता है, (यः) जिस [प्राणी] ने (ईम्) इस [परमेश्वर] को (ददर्श) देखा है, वह [परमेश्वर] (तस्मात्) उस [प्राणी] से (हिरुक्) गुप्त (इत् नु) अवश्य ही है। (मातुः) माता के (योना अन्तः) गर्भाशय के भीतर (परिवीतः) लपेटा हुआ [बालक जैसे] (सः) उस (बहुप्रजाः) अनेक प्रजाओंवाले [परमेश्वर] ने (निर्ऋतिः=०-तिम्) भूमि में (आ) सब प्रकार (विवेश) प्रवेश किया है ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - कोई विवेकी प्राणी अनन्त सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की सीमा नहीं पा सकता है, यद्यपि वह ईश्वर प्रत्येक वस्तु के भीतर ऐसा स्थित है, जैसे माता के गर्भ में बालक होता है ॥१०॥ (निर्ऋतिः) के स्थान पर [निर्ऋतिम्] है−ऋ० १।१६४।३२ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(यः) परमेश्वरः (ईम्) एनं प्राणिनम् (चकार) ससर्ज (न) निषेधे (सः) प्राणी (अस्य) इमं परमेश्वरम् (वेद) जानाति (यः) प्राणी (ईम्) एनं परमेश्वरम् (ददर्श) दृष्टवान् (हिरुक्) अ० ४।३।१। अन्तर्हितम्-निघ० ३।२५। (इत्) अवश्य (नु) एव (तस्मात्) मनुष्यात् (सः) परमेश्वरः (मातुः) जनन्याः (योना) गर्भाशये (परिवीतः) परिवेष्टितः (अन्तः) मध्ये (बहुप्रजाः) बहुप्रजाश्छन्दसि। पा० ५।४।१२३। बहुप्रजा-असिच्, बहुव्रीहौ। बहुप्रजावान् (निर्ऋतिः) अ० ६।२९।२। निः+ऋ गतौ-क्तिन्। द्वितीयार्थे−सुः। नितरां गमनशीलां पृथिवीम्-निघ० १।१। (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविष्टवान् ॥

११ अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अप॑श्यं गो॒पाम॑नि॒पद्य॑मान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम्।
स स॒ध्रीचीः॒ स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ आ व॑रीवर्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः ॥

११ अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I saw the shepherd, not lying down, moving both hither and thither
    upon his roads; he, clothing himself in the collecting, he in the
    dispersing ones, rolls greatly on among existences.
Notes

Doubtless the sun. The verse ⌊RV. vs. 31⌋ is found a second time in RV.
as x. 177. 3; and also at VS. xxxvii. 17; TA. iv. 7. 1; M.S. iv. 9. 6;
AA. ii. 1. 6⁶⁻¹⁰—all accenting in a ánipadyamānam, which is alone
acceptable. ⌊Our d recurs, with prefixed, at x. 2. 7 c. If
we read varīvartti there, we ought also to do so here.⌋ ⌊Cf.
Kaṭha-hss., p. 101.⌋

Griffith

I saw the Herdsman, him who never stumbles, approaching by his pathways and departing. He clothed with gathered and diffusive splendours, within the worlds continually travels.

पदपाठः

अप॑श्यम्। गो॒पाम्। अ॒नि॒ऽपद्य॑मानाम्। आ। च॒। परा॑। च॒। प॒थिऽभिः॑। चर॑न्तम्। सः। स॒ध्रीचीः॑। सः। विषू॑चीः। वसा॑नः। आ। व॒री॒व॒र्ति॒। भुव॑नेषु। अ॒न्तः। १५.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (गोपाम्) भूमि वा वाणी के रक्षक, (अनिपद्यमानम्) न गिरनेवाले [अचल], (पथिभिः) ज्ञानमार्गों से (आ चरन्तम्) समीप प्राप्त होते हुए (च) और (परा) दूर प्राप्त होते हुए (च) भी [परमेश्वर] को (अपश्यम्) मैंने देखा है। (सः) वह [परमेश्वर] (सध्रीचीः) साथ मिली हुई [दिशाओं] को और (सः) वही (विषूचीः) नाना प्रकार से वर्तमान [प्रजाओं] को (वसानः) ढकता हुआ (भुवनेषु अन्तः) लोकों के भीतर (आ) अच्छे प्रकार (वरीवर्ति) निरन्तर वर्तमान है ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - योगी जन सर्वव्यापी अन्तर्यामी परमेश्वर को सब स्थानों में बाहिर और भीतर साक्षात् करके सदा धर्म में लगे रहते हैं ॥११॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।३१। और १०।१७७।३। तथा यजु० ३७।१७। तथा निरुक्त १४।३ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(अपश्यम्) अहं दृष्टवान् (गोपाम्) अ० ३।८।४। गां भूमिं वाचं वा पातीति तं परमेश्वरम् (अनिपद्यमानम्) पद गतौ-शानच्। नाधः पतन्तम्। अचलम् (आ चरन्तम्) समीपे प्राप्नुवन्तम् (च) (परा) पराचरन्तम्। दूरे प्राप्नुवन्तम् (च) (पथिभिः) ज्ञानमार्गैः (सः) परमेश्वरः (सध्रीचीः) अ० ६।८८।३। सहाञ्चनाः सह वर्तमाना दिशः (सः) (विषूचीः) अ० १।१९।१। विष्वञ्चनाः। नाना वर्तमानाः प्रजाः (वसानः) अ० ४।८।३। आच्छादयन् (आ) समन्तात् (वरीवर्ति) रीगृदुपधस्य च। पा० ७।४।९०। वृतु वर्तने-यङ्लुक्, रीक्। निरन्तरं वर्तते (भुवनेषु) लोकेषु (अन्तः) मध्ये ॥

१२ द्यौर्नः पिता

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

द्यौर्नः॑ पि॒ता ज॑नि॒ता नाभि॒रत्र॒ बन्धु॑र्नो मा॒ता पृ॑थि॒वी म॒हीयम्।
उ॑त्ता॒नयो॑श्च॒म्वो॒३॒॑र्योनि॑र॒न्तरत्रा॑ पि॒ता दु॑हि॒तुर्गर्भ॒माधा॑त् ॥

१२ द्यौर्नः पिता ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The heaven our father, generator, navel here; this great earth our
    connection, mother; the womb (yóni) within the (two) outstretched cups
    (camū́); here the father hath set (ā-dhā) the daughter’s embryo.
Notes

‘Navel,’ i.e. ‘central point, place of union.’ RV. ⌊vs. 33⌋ reads me
for nas in a and b.

Griffith

Dyaus is our father, our begetter: kinship is here. This great Earth is our kin and mother. Between the wide-spread world-halves is the birth-place. The Father laid the Daughter’s germ within it.

पदपाठः

द्यौः। नः॒। पि॒ता। ज॒नि॒ता। नाभिः॑। अत्र॑। बन्धुः॑। नः॒। मा॒ता। पृ॒थि॒वी। म॒ही। इ॒यम्। उ॒त्ता॒नयोः॑। च॒म्वोः᳡। योनिः॑। अ॒न्तः। अत्र॑। पि॒ता। दु॒हि॒तुः। गर्भ॑म्‌। आ। अ॒घा॒त्। १५.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यौः) प्रकाशमान सूर्य (नः) हमारा (पिता) पालनेवाला और (जनिता) उत्पन्न करनेवाला है, (अत्र) इस [सूर्य] में (नः) हमारी (नाभिः) नाभि [प्रकाश वा जलरूप उत्पत्ति का मूल] है, (इयम्) यह (मही) बड़ी (पृथिवी) पृथिवी (माता) और (बन्धुः) बन्धु [के तुल्य] है। (उत्तानयोः) उत्तमता से फैले हुए (चम्वोः) [दो सेनाओं के समान स्थित] सूर्य और पृथिवी के (अन्तः) बीच (योनिः) [जो] घर [अवकाश] है, (अत्र) इस [अवकाश] में (पिता) पालनेवाले [सूर्य वा मेघ] ने (दुहितुः) [रसों को खींचनेवाली] पृथिवी के (गर्भम्) उत्पत्तिसामर्थ्य [जल] को (आ) यथाविधि (अधात्) धारण किया है ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा की महिमा से सूर्य और भूमि सब प्राणियों के पिता, माता और बन्धु के समान हैं, उन दोनों के बीच अन्तरिक्ष में पृथिवी से किरणों द्वारा जल खिंच कर मेघमण्डल में रहता है, फिर वही जल पृथिवी पर बरस कर नाना पदार्थ उत्पन्न करता और प्राणियों को जीवनसाधन देता है, उस जगदीश्वर की उपासना सब मनुष्यों को सदा करनी चाहिये ॥१२॥ (नः, नः) के स्थान में [मे, मे] है−ऋग्वेद १।१६४।३३। तथा निरु० ४।२१ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १२−(द्यौः) अ० २।१२।६। प्रकाशमानः सूर्यः (नः) अस्माकम् (पिता) पिता पालयिता-वा-निरु० ४।२१। (जनिता) जनयिता (नाभिः) अ० १।१३।३। नाभिः सन्नहनान्नाभ्या सन्नद्धा गर्भा जायन्त इत्याहुः-निरु० ४।२१। तुन्दकूपीचक्रं यथा (अत्र) सूर्ये (बन्धुः) सम्बन्धी (नः) (माता) जननी यथा (मही) अ० १।१७।२। महती (इयम्) (उत्तानयोः) अ० ९।९।१४। उत्तमतया विस्तृतयोः (चम्वोः) कृषिचमितनि०। उ० १।८०। चमु अदने−ऊ। चम्वौ द्यावापृथिव्यौ-निघ० ३।३०। चमन्त्यनयोः। द्यावापृथिव्योः। सेनयोरिव-दयानन्दभाष्ये (योनिः) गृहम्-निघ० ३।४। अवकाशः (अन्तः) मध्ये (अत्र) योनौ (पिता) पालकः सूर्यः पर्जन्यो वा (दुहितुः) अ–० ३।१०।१३। दुह प्रपूरणे−तृच्। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा-निरु० ३।४। दोग्धि प्रपूरयतीति दुहिता। रसानां प्रपूरयित्र्याः। पृथिव्याः-निरु० ४।˜२१। दूरे निहिताया भूम्याः−इति सायणः (गर्भम्) सर्वोत्पादनसमर्थं वृष्ट्युदकलक्षणम्−इति सायणः। सर्वभूतगर्भोत्पत्तिहेतुभूतोदकम्−इति दुर्गाचार्यः-निरुक्तटीकायाम्−४।२१। वीर्यरूपं जलम् (आ) समन्तात् (अधात्) धृतवान् ॥

१३ पृच्छामि त्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ पर॒मन्तं॑ पृथि॒व्याः पृ॒च्छामि॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतः॑।
पृ॒च्छामि॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ नाभिं॑ पृ॒च्छामि॑ वा॒चः प॑र॒मं व्यो᳡म ॥

१३ पृच्छामि त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I ask of thee the extreme (pára) end of the earth; I ask the seed
    of the male (vṛ́ṣan) horse; I ask the navel of all existence; I ask the
    highest (paramá) firmament (vyòman) of speech.
Notes

RV. ⌊vs. 34⌋ exchanges the place of b and c, and rectifies the
meter by inserting another tvā before vṛ́ṣṇo, and reading pṛchā́mi
yátra bhúvanasya nā́bhiḥ
. Ppp. follows RV. in the former case, but in
the latter has pṛchāmi tvāṁ bh. n.; it makes ⌊as between b and
c⌋ the same inversion of order as RV.; and it begins d with
vācaṣ pṛchāmi. The Anukr. takes no notice of the irregularity of our
meter. The verse, with the following one, is found also in other texts:
VS. xxiii. 61, 62; TS. vii. 4. 18²; LśS. ix. 10. 13, 14. VS. reads in
both verses precisely as RV., and LśS. differs from it only by having
pṛchāmas instead of -mi four times in vs. 13. TS. has for 13 b
pṛchā́mi tvā bhúvanasya nā́bhim. The two verses are quoted in Vāit. 37.
3.

Griffith

I bid thee tell me earth’s extremest limit, about the Stallion’s genial flow I ask thee; I ask about the universe’s centre, and touching highest heaven where Speech abideth.

पदपाठः

पृ॒च्छामि॑। त्वा॒। पर॑म्। अन्त॑म्। पृ॒थि॒व्याः। पृ॒च्छामि॑। वृष्णः॑। अश्व॑स्य। रेतः॑। पृ॒च्छामि॑। विश्व॑स्य। भुव॑नस्य। नाभि॑म्। पृ॒च्छामि॑। वा॒चः। प॒र॒मम्। विऽओ॑म। १५.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (त्वा) तुझ से (पृथिव्याः) पृथिवी के (परम्) परले (अन्तम्) अन्त को (पृच्छामि) पूँछता हूँ, (वृष्णः) पराक्रमी (अश्वस्य) बलवान् पुरुष के (रेतः) पराक्रम को (पृच्छामि) पूँछता हूँ। (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) संसार के (नाभिम्) नाभि [बन्धनकर्ता] को (पृच्छामि) पूँछता हूँ, (वाचः) वाणी [विद्या] के (परमम्) परम (व्योम) [विविध रक्षास्थान] अवकाश को (पृच्छामि) पूँछता हूँ ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिज्ञासु लोग इस प्रकार के विद्यासम्बन्धी प्रश्न किया करें १−पृथिवी की सीमा का आदि-अन्त क्या है, २-पराक्रमी जन का बल क्या है, ३-जगत् का आकर्षण क्या है और ४-वाणी का पारगन्ता कौन है। इन चार प्रश्नों का उत्तर अगले मन्त्र में है ॥१३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।३४। तथा यजु० २३।६१ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(पृच्छामि) अहं जिज्ञासे (त्वा) विद्वांसम् (परम्) सीमापरिच्छिन्नम् (अन्तम्) सीमाम् (पृथिव्याः) (पृच्छामि) (वृष्णः) अ० १।१२।१। वृषु सेचनप्रजनैश्येषु-कनिन्। ऐश्वर्यवतः। पराक्रमिणः (अश्वस्य) बलवतः पुरुषस्य (रेतः) वीर्यम् (पृच्छामि) (विश्वस्य) सर्वस्य (भुवनस्य) लोकस्य (नाभिम्) अ० १।१३।३। णह बन्धने−इञ्। मध्याकर्षणेन बन्धकम्-दयानन्दभाष्ये, यजु० २३।६१। (पृच्छामि) (वाचः) वाण्या विद्यायाः (परमम्) प्रकृष्टम् (व्योम) अ० ५।१७।६। वि+अव रक्षणे-मनिन्। विविधं रक्षास्थानम्। अवकाशम् ॥

१४ इयं वेदिः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इ॒यं वेदिः॒ परो॒ अन्तः॑ पृथि॒व्या अ॒यं सोमो॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतः॑।
अ॒यं य॒ज्ञो विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ नाभि॑र्ब्र॒ह्मायं वा॒चः प॑र॒मं व्यो᳡म ॥

१४ इयं वेदिः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This sacrificial hearth is the extreme end of the earth; this soma
    is the seed of the male horse; this sacrifice is the navel of all
    existence; this priest (brahmán) is the highest firmament of speech.
Notes

RV. ⌊vs. 35⌋ (also VS. LśS.: see above) and Ppp. read for b, c:
ayáṁ yajñó bhúv. nā́.: ayáṁ sómo etc. (our b). TS. has védim āhuḥ
páram ántam pṛthivyā́ yajñám āhur bhúvanasya nā́bhim: sómam āhur vṛ́. áś.
ré. brahmāí ’vá vācáḥ
etc. The Anukr. absurdly calls the verse a
jagatī on account of the two redundant syllables in the AV. version of
c.

Griffith

The earth’s most distant limit is this altar: this Soma is the Stallion’s genial humour; This sacrifice the universe’s centre: this Brahman highest heaven where Speech abideth.

पदपाठः

इ॒यम्। वेदिः॑। परः॑। अन्तः॑। पृ॒थि॒व्याः। अ॒यम्। सोमः॑। वृष्णः॑। अश्व॑स्य। रेतः॑। अ॒यम्। य॒ज्ञः। विश्व॑स्य। भुव॑नस्य। नाभिः॑। ब्र॒ह्मा। अ॒यम्। वा॒चः। प॒र॒मम्। विऽओ॑म। १५.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • जगती
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इयम्) यह [प्रत्यक्ष] (वेदिः) वेदि [विद्यमानता का बिन्दु वा यज्ञभूमि] (पृथिव्याः) पृथिवी का (परः) परला (अन्तः) अन्त है, (अयम्) यह [प्रत्यक्ष] (सोमः) ऐश्वर्यवान् रस [सोम औषध वा अन्न आदि का अमृत रस] (वृष्णः) पराक्रमी (अश्वस्य) बलवान् पुरुष का (रेतः) वीर्य [पराक्रम] है। (अयम्) यह [प्रत्यक्ष] (यज्ञः) यज्ञ [परमाणुओं का संयोग-वियोग व्यवहार] (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) संसार की (नाभिः) नाभि [नियम में बाँधनेवाली शक्ति] है, (अयम्) यह [प्रत्यक्ष] (ब्रह्मा) ब्रह्मा [चारों वेदों का प्रकाशक परमेश्वर] (वाचः) वाणी [विद्या] का (परमम्) उत्तम (व्योम) [विविध रक्षास्थान] अवकाश है ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - १−पृथिवी गोल है, यदि मनुष्य किसी स्थान से सीधा बिना मुड़े किसी ओर चला जावे, तो वह चलते-चलते फिर वहीं आ पहुँचेगा, जहाँ से चला था। २-सब प्राणी सोम अर्थात् अन्न आदि के रस से बलवान् होते हैं। ३-परमाणुओं के संयोग-वियोग अर्थात् आकर्षण-अपकर्षण में सब संसार की नाभि अर्थात् स्थिति है। ४-परमेश्वर ही सब वाणियों अर्थात् विद्याओं का भण्डार है ॥१४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।३५। तथा यजु० २३।६२। तथा महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ १४७ में भी व्याख्यात है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १४−(इयम्) प्रत्यक्षा (वेदिः) हृपिषिरुहिवृतिविदि०। उ० ४।११९। विद सत्तायाम्, विद ज्ञाने, विद्लृ लाभे−इन्। विद्यमानताबिन्दुः। यज्ञभूमिः (परः) सीमापरिच्छिन्नः (अन्तः) सीमा (पृथिव्याः) (अयम्) (सोमः) ऐश्वर्यवान् रसः। सोमस्यान्नादेर्वा अमृतरसः (वृष्णः) म० १३। पराक्रमिणः (अश्वस्य) बलवतः पुरुषस्य (रेतः) वीर्यम् (अयम्) प्रत्यक्षः (यज्ञः) अ० १।९।४। यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-नङ्। परमाणूनां संयोगवियोगव्यवहारः (विश्वस्य) सर्वस्य (भुवनस्य) संसारस्य (नाभिः) म० १३। तुन्दकूपीवद् बन्धनशक्तिः (ब्रह्मा) बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६। बृहि वृद्धौ-मनिन्, नस्य अकारः, रत्वम्। चतुर्णां वेदानां प्रकाशकः परमेश्वरः (अयम्) प्रत्यक्षः (वाचः) वाण्याः। विद्यायाः (परमम्) प्रकृष्टम् (व्योम) वि+अव रक्षणे-मनिन्। रक्षास्थानम्। अवकाशम् ॥

१५ न वि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

न वि जा॑नामि॒ यदि॑वे॒दमस्मि॑ नि॒ण्यः संन॑द्धो॒ मन॑सा चरामि।
य॒दा माग॑न्प्रथम॒जा ऋ॒तस्यादिद्वा॒चो अ॑श्नुवे भा॒गम॒स्याः ॥

१५ न वि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I do not distinguish what this is that I am; I go secret, fastened
    together with mind; when the first-born of righteousness hath come to
    me, then indeed I attain a share of this speech.
Notes

Ppp. agrees with RV. ⌊vs. 37⌋ in putting this verse ⌊and the next⌋ after
our vs. 17. The RV. pada-text has in c ā́: ágan ⌊so Müller’s five
editions and Aufrecht’s first: Aufrecht’s second, ā́: agan⌋; our
ā॰ágan is better. Ppp. reads balinā for manasā in b.

Griffith

What thing I truly am I know not clearly: mysterious, fettered in my mind I wander. When the first-born of holy Law approached me, then of this Speech I first obtain a portion.

पदपाठः

न। वि। जा॒ना॒मि॒। यत्ऽइ॑व। इ॒दम्। अस्मि॑। नि॒ण्यः। सम्ऽन॑ध्दः। मन॑सा। च॒रा॒मि॒। य॒दा। मा॒। आ॒ऽअग॑न्। प्र॒थ॒म॒ऽजाः। ऋ॒तस्य॑। आत्। इत्। वा॒चः। अ॒श्नु॒वे॒। भा॒गम्। अ॒स्याः। १५.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्−इव) जो कुछ ही (इदम्) यह [कार्यरूप शरीर है, वही] (अस्मि) मैं हूँ, (न वि जानामि) मैं कुछ नहीं जानता, (निण्यः) गुप्त और (मनसा) मन से (सन्नद्धः) जकड़ा हुआ मैं (चरामि) विचरता हूँ। (यदा) जब (ऋतस्य) सत्य [स्वरूप परमात्मा] का (प्रथमजाः) प्रथम उत्पन्न [बोध] (मा) मुझको (आ-अगन्) आया है, (आत इत्) तभी (अस्याः) इस (वाचः) वाणी के (भागम्) सेवनीय परब्रह्म को (अश्नुवे) मैं पाता हूँ ॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - अज्ञानी पुरुष मूढबुद्धि होकर शरीर आत्मा को अलग-अलग नहीं जानता। जब वह वेद द्वारा विद्या प्राप्त करता है तब शरीर, आत्मा और परमात्मा को जान लेता है ॥१५॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।३७। और निरुक्त−७।३। और १४।२२। में भी है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १५−(न) निषेधे (वि) विशेषेण (जानामि) वेद्मि (यत्−इव) यत् किञ्चिदेव (इदम्) दृश्यमानं शरीरम् (अस्मि) अविवेकि जनोऽहम् (निण्यः) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। निर्+णीञ् प्रापणे-यक्, टिलोपो रेफलोपश्च। निण्यं निर्णीतान्तर्हितनाम-निघ० ३।२५। अन्तर्हितः। मूढचित्तः (सन्नद्धः) सम्यग् बद्धो वेष्टितः (मनसा) अन्तःकरणेन (चरामि) गच्छामि (यदा) यस्मिन् काले (मा) माम् (आ-अनन्) अ० ६।११६।२। गमेर्लुङ्। आगमत् (प्रथमजाः) अ० ६।१२२।१। जनेर्विट्। प्रथमोत्पन्नो बोधः (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य परमात्मनः (आत्) अनन्तरम्। अव्यवधानेन (इत्) एव (वाचः) वाण्याः (अश्नुवे) प्राप्नोम (भागम्) भजनीयं पदं परब्रह्म (अस्याः) वेदविख्यातायाः ॥

१६ अपाङ्प्राङेति स्वधया

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अपा॒ङ्प्राङे॑ति स्व॒धया॑ गृभी॒तोऽम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः।
ता शश्व॑न्ता विषू॒चीना॑ वि॒यन्ता॒ न्य१॒॑न्यं चि॒क्युर्न नि चि॑क्युर॒न्यम् ॥

१६ अपाङ्प्राङेति स्वधया ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Offward, forward goes, seized by svadhā́, the immortal one, of
    like source with the mortal; the two, constantly going separate
    apart—the one they noted, the other they noted not.
Notes

Haug and Hillebrandt (Ved. Mythol., i. 336, note) both understand
svadhā́ here as meaning the offering to the manes, but their
conjectural interpretations of the verse are totally discordant. ⌊The
vs. is RV. vs. 38 without variant. See the interpretations of Roth and
of Böhtlingk as cited under vs. 8 above.—The Kaṭha variant (WZKM. xii.
282) is áprān̄ for ápān̄.—The vs. is found at AA. ii. 1. 8.⌋

Griffith

Back, forward goes he, grasped by power inherent, immortal born the brother of the mortal. Ceaseless they move in opposite directions: men mark the one and fail to mark the other.

पदपाठः

अपा॑ङ्। प्राङ्। ए॒ति॒। स्व॒धया॑। गृ॒भी॒तः। अम॑र्त्यः। मर्त्ये॑न। सऽयो॑निः। ता। शश्व॑न्ता। वि॒षू॒चीना॑। वि॒ऽयन्ता॑। नि। अ॒न्यम्। चि॒क्युः। न। नि। चि॒क्युः॒। अ॒न्यम्। १५.१६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (गृभीतः) ग्रहण किया हुआ (अमर्त्यः) अमरण स्वभाववाला [जीव] (मर्त्येन) मरण स्वभाववाले [शरीर] के साथ (सयोनिः) एकस्थानी होकर (अपाङ्) नीचे को जाता हुआ [वा] (प्राङ्) ऊपर को जाता हुआ (एति) चलता है। (ता) वे दोनों (शश्वन्ता) नित्य चलनेवाले, (विषूचीना) सब ओर चलनेवाले और (वियन्ता) दूर-दूर चलनेवाले हैं, [उन दोनों में से] (अन्यम् अन्यम्) एक-एक को (नि चिक्युः) [विवेकियों ने] निश्चय करके जाना है [और मूर्खों ने] (न) नहीं (न चिक्युः) निश्चय किया है ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जीवात्मा अपने कर्मानुसार शरीर पाता और अधोगति वा उर्ध्वगति को प्राप्त होता है। जीवात्मा और शरीर के भेद को विद्वान् जानते हैं और मूर्ख नहीं जानते ॥१६॥ इस मन्त्र का मिलान ऊपर मन्त्र ८ से करो। यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।३८। तथा निरुक्त−१४।२३ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १६−(अपाङ्) अ० ३।३।६। अपगतः। अधोगतः (प्राङ्) अ० ३।४।१। ऊर्ध्वगतः (एति) गच्छति (स्वधया) म० ८। स्वधारणशक्त्या (गृभीतः) गृहीतः (अमर्त्यः) अमरणस्वभावो जीवः (मर्त्येन) छान्दसो दीर्घः। मरणधर्मणा देहेन (सयोनिः) समानस्थानः (ता) तौ मर्त्यामर्त्यौ शरीरजीवौ (शश्वन्ता) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८५। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-अति, द्विर्वचनम्, निपातनाद् रूपसिद्धिः। शश्वद्गामिनौ (विषूचीना) अ० ३।७।१। नानागामिनौ (वियन्ता) एतेः-शतृ। विप्रकृष्टदेशगामिनौ (नि) निश्चयेन (अन्यम्) जीवम् (चिक्युः) कि ज्ञाने-लिट्। ज्ञातवन्तः (न) निषेधे (नि चिक्युः) विभाषा चेः। पा० ७।३।५८। चिनोतेर्लिटि अभ्यासादुत्तरस्य कुत्वम्। निश्चितवन्तः (अन्यम्) देहम् ॥

१७ सप्तार्धगर्भा भुवनस्य

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

स॒प्तार्ध॑ग॒र्भा भुव॑नस्य॒ रेतो॒ विष्णो॑स्तिष्ठन्ति प्र॒दिशा॒ विध॑र्मणि।
ते धी॒तिभि॒र्मन॑सा॒ ते वि॑प॒श्चितः॑ परि॒भुवः॒ परि॑ भवन्ति वि॒श्वतः॑ ॥

१७ सप्तार्धगर्भा भुवनस्य ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Seven half-embryos, the seed of existence, stand in front (?
    pradíśā), in Vishṇu’s distribution; they, by thoughts (dhītí), by
    mind, they, inspired, surround on all sides the surrounders.
Notes

Or, ‘being surrounders.’ As noted above, the verse in RV. ⌊vs. 36⌋ and
Ppp. stands before our vs. 15. Both 17 and 18 are defective as
jagatīs. ⌊Cf. Oldenberg, IFA. vi. 184; also Henry, Actes du dixième
Congrès intern. des Orientalistes
, Section I, Inde, p. 45-50, “Cruelle
énigme."⌋

Griffith

Seven germs unripened yet are Heaven’s prolific seed: their functions they maintain by Vishnu’s ordinance. Endued with wisdom through intelligence and thought, present on every side they compass us about.

पदपाठः

स॒प्त। अ॒र्ध॒ऽग॒र्भाः। भुव॑नस्य। रेतः॑। विष्णोः॑। ति॒ष्ठ॒न्ति॒। प्र॒ऽदिशा॑। विऽध॑र्मणि। ते। धी॒तिऽभिः॑। मन॑सा। ते। वि॒पः॒ऽचितः॑। प॒रि॒ऽभुवः॑। परि॑। भ॒व॒न्ति॒। वि॒श्वतः॑। १५.१७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • जगती
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सप्त) सात (अर्धगर्भाः) समृद्ध गर्भवाले [पूरे उत्पादन सामर्थ्यवाले, महत्तत्त्व, अहंकार, पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश के परमाणु] (भुवनस्य) संसार के (रेतः) बीज होकर (विष्णोः) व्यापक परमात्मा की (प्रदिशा) आज्ञा से (विधर्मणि) विविध धारण सामर्थ्य में (तिष्ठन्ति) ठहरते हैं। (ते ते) वे ही [सातों] (विपश्चितः) बुद्धिमान् [परमेश्वर] की (धीतिभिः) धारणशक्तियों और (मनसा) विचार के साथ (परिभुवः) घेरनेवाले [शरीरों और लोकों] को (विश्वतः) सब ओर से (परि भवन्ति) घेरते हैं ॥१७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - महत्तत्त्व, अहंकार आदि सात पदार्थ जगत् के कारण हैं, वे ईश्वरीय नियम से सृष्टि के सब शरीरधारी प्राणियों और लोकों में परिपूर्ण हैं ॥१७॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।™३६। तथा निरुक्त १४।२१ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १७−(सप्त) (अर्धगर्भाः) ऋधु वृद्धौ-घञ्। ऋद्धः प्रवृद्धो गर्भ उत्पादनसामर्थ्यं येषां ते महत्तत्त्वाहंकारपञ्चभूतपरमाणवः (भुवनस्य) संसारस्य (रेतः) वीर्यम् (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (तिष्ठन्ति) वर्तन्ते (प्रदिशा) आज्ञया (विधर्मणि) विविधधारणव्यापारे (ते) महत्तत्त्वादयः (धीतिभिः) धारणशक्तिभिः (मनसा) विचारेण (ते) वीप्सायां द्विर्वचनम् (विपश्चितः) अ० ६।५२।३। मेधाविनः परमेश्वरस्य (परिभुवः) परिभावकान्। आच्छादकान् शरीरादिलोकान् (विश्वतः) सर्वतः (परिभवन्ति) परितः प्राप्नुवन्ति। आच्छादयन्ति ॥

१८ ऋचो अक्षरे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो᳡म॒न्यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः।
यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत्तद्वि॒दुस्ते॑ अ॒मी समा॑सते ॥

१८ ऋचो अक्षरे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. In the syllable of the verse (ṛ́c) in the highest firmament, on
    which all the gods sat down: he who knoweth not that, what will he do
    with the verse? they who know that sit together yonder.
Notes

RV. ⌊vs. 39⌋ reads imé instead of amī́ in d. O. combines vidúṣ
ṭé
just before it. The verse is found also in TB. iii. 10. 9¹⁴ and TA.
ii. 11. 1—in both, with the RV. reading. Its pratīka occurs also in
GB. i. 22. Read véda in c.

Griffith

Upon what syllable of holy praise-hymn, as ’twere their highest heaven, the Gods repose them Who knows not this, what will he do with praise-hymn? But they who know it well sit here assembled.

पदपाठः

ऋ॒चः। अ॒क्षरे॑। प॒र॒मे। विऽओ॑मन्। यस्मि॑न्। दे॒वाः। अधि॑। विश्वे॑। नि॒ऽसे॒दुः। यः। तत्। न। वेद॑। किम्। ऋ॒चा। क॒रि॒ष्य॒ति॒। ये। इत्। तत्। वि॒दुः॒। ते। अ॒मी इति॑। सम्। आ॒स॒ते॒। १५.१८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • जगती
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस (अक्षरे) व्यापक [वा अविनाशी] (परमे) सर्वोत्तम (व्योमन्) विविध रक्षक [वा आकाशवत् व्यापक] ब्रह्म में (ऋचः) वेदविद्याएँ और (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य पदार्थ [पृथिवी सूर्य आदि लोक] (अधि) ठीक-ठीक (निषेदुः) ठहरे थे। (यः) जो [मनुष्य] (तत्) उस [ब्रह्म] को (न वेद) नहीं जानता, वह (ऋचा) वेदविद्या से (किम्) क्या [लाभ] (करिष्यति) करेगा, (ये) जो [पुरुष] (इत्) ही (तत्) उस [ब्रह्म] को (विदुः) जानते हैं (ते अमी) वे यही [पुरुष] (सम्) शोभा के साथ (आसते) रहते हैं ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर सब सत्य विद्याओं और लोकों का आधार है, विद्वान् लोग वेद द्वारा उसका ज्ञान प्राप्त करके आनन्द भोगते हैं और मूर्ख लोग उस आनन्द को नहीं पाते ॥१८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।३९। तथा निरुक्त १३।१० ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १८−(ऋचः) ऋग् वाङ्नाम-निघ० १।११। वेदविद्याः (अक्षरे) अ० ९।१०।२। सर्वव्यापके। अविनाशिनि (परमे) उत्तमे (व्योमन्) म० १४। विविधं रक्षके आकाशवद् व्यापके वा ब्रह्मणि (यस्मिन्) (देवाः) दिव्यपदार्थाः पृथिवीसूर्यादिलोकाः (अधि) यथाविधि (विश्वे) सर्वे (निषेदुः) तस्थुः (यः) पुरुषः (तत्) ब्रह्म (न) नहि (वेद) जानाति (किम्) कं लाभम् (ऋचा) वेदवाण्या (करिष्यति) प्राप्स्यति (ये) (इत्) एव (तत्) (विदुः) (ते) (अमी) (सम्) सम्यक्। शोभया (आसते) विद्यन्ते ॥

१९ ऋचः पदम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ऋ॒चः प॒दं मात्र॑या क॒ल्पय॑न्तोऽर्ध॒र्चेन॑ चाक्लृपु॒र्विश्व॒मेज॑त्।
त्रि॒पाद्ब्रह्म॑ पुरु॒रूपं॒ वि त॑ष्ठे॒ तेन॑ जीवन्ति प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥

१९ ऋचः पदम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Shaping (kalpay-) with measure the step of the verse, they shaped
    by the half-verse all that stirs; the bráhman of three feet,
    many-formed, spread out (vi-sthā); by that do the four quarters live.
Notes

The comm. to the Prāt. (ii. 93) quotes ví taṣṭhe at end of c as an
example of the s of sthā lingualized after even though the
reduplication intervenes; and that establishes ví taṣṭhe as the true
reading. The majority of the saṁhitā-mss. have it; but W.E.O. give
caṣṭe; Ppp. also has parirūpaṁ vi caṣṭe. Only the fourth pāda is
found in RV., being i. 164. 42 b (we have 42 a as our 21 e);
the same occurs below as xi. 5. 12 d.

Griffith

They, ordering the verse’s foot by measure, with the half-verse arranged each thing that moveth. Prayer was diffused in many forms three-footed thereby the world’s four regions have their being

पदपाठः

ऋ॒चः। प॒दम्। मात्र॑या। क॒ल्पय॑न्तः। अ॒र्ध॒ऽऋ॒चेन॑। च॒क्लृ॒पः॒। विश्व॑म्। एज॑त्। त्रि॒ऽपात्। ब्रह्म॑। पु॒रु॒ऽरूप॑म्। वि। त॒स्थे॒। तेन॑। जी॒व॒न्ति॒। प्र॒ऽदिशः॑। चत॑स्रः। १५.१९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋचः) वेदवाणी से (पदम्) प्रापणीय ब्रह्म को (मात्रया) सूक्ष्मता के साथ (कल्पयन्तः) विचारते हुए [ऋषियों] ने (अर्धर्चेन) समृद्ध वेदज्ञान से (विश्वम्) संसार को (एजत्) चेष्टा कराते हुए [ब्रह्म] को (चक्लृपुः) विचारा। (त्रिपात्) तीन [भूत, भविष्यत्, वर्तमान काल वा ऊँचे-नीचे और मध्यलोक] में गतिवाला, (पुरुरूपम्) बहुत सौन्दर्यवाला (ब्रह्म) ब्रह्म (वि) विविध प्रकार से (तस्थे) ठहरा था (तेन) उस [ब्रह्म] के साथ (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ (जीवन्ति) जीवन करती हैं ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सूक्ष्मदर्शी ऋषि लोग वेद द्वारा ईश्वर की शक्तियों का अनुभव करते हैं कि वह तीनों काल तीनों लोकों में विराज कर सब सृष्टि का प्राणदाता है ॥१९॥ इस मन्त्र का केवल चौथा पाद ऋग्वेद−१।१६४।४२। में है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १९−(ऋचः) वेदवाण्याः सकाशात् (पदम्) प्रापणीयं ब्रह्म (मात्रया) अ० ३।२४।६। माङ् माने शब्दे च−त्रन् टाप्। सूक्ष्मरूपेण (कल्पयन्तः) विचारयन्तः (अर्धर्चेन) ऋधु वृद्धौ-घञ्+ऋच स्तुतौ−क्विप्। ऋक्पूरब्–। पा० ५।४।७४। अ प्रत्ययः। अर्धया समृद्धया वेदविद्यया (चक्लृपुः) विचारितवन्तः (विश्वम्) जगत् (एजत्) एजयत् कम्पयत् (त्रिपात्) त्रिषु कालेषु त्रिलोक्यां वा पादो यस्य तत् (ब्रह्म) प्रवृद्धः परमात्मा (पुरुरूपम्) बहुसौन्दर्ययुक्तम् (वि) विविधम् (तस्थे) तस्थौ (तेन) ब्रह्मणा (जीवन्ति) प्राणान् धारयन्ति (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः (चतस्रः) ॥

२० सूयवसाद्भगवती हि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

सू॑यव॒साद्भग॑वती॒ हि भू॒या अधा॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम।
अ॒द्धि तृण॑मघ्न्ये विश्व॒दानीं॒ पिब॑ शु॒द्धमु॑द॒कमा॒चर॑न्ती ॥

२० सूयवसाद्भगवती हि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Mayest thou be well-portioned, feeding in excellent meadows; so also
    may we be well-portioned; eat thou grass, O inviolable one, at all
    times; drink clear water, moving hither.
Notes

We had this verse ⌊RV. vs. 40⌋ above, as vii. 73. 11.

Griffith

Fortunate mayst thou be with goodly pasture, and may we also be exceeding wealthy. Feed on the grass, O Cow, through all the seasons, and coming hitherward drink limpid water.

पदपाठः

सु॒य॒व॒स॒ऽअत्। भग॑ऽवती। हि। भू॒याः। अध॑। व॒यम्। भग॑ऽवन्तः। स्या॒म॒। अ॒ध्दि। तृण॑म्। अ॒घ्न्ये॒। वि॒श्व॒ऽदानी॑म्। पिब॑। शु॒ध्दम्। उ॒द॒कम्। आ॒ऽचर॑न्ती। १५.२०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजा, सब स्त्री-पुरुषो !] (सूयवसात्) सुन्दर अन्न आदि भोगनेवाली और (भगवती) बहुत ऐश्वर्यवाली (हि) ही (भूयाः) हो, (अध) फिर (वयम्) हम लोग (भगवन्तः) बड़े ऐश्वर्यवाले (स्याम) होवें। (अघ्न्ये) हे हिंसा न करनेवाली प्रजा ! (विश्वदानीम्) समस्त दानों की क्रिया का (आचरन्ती) आचरण करती हुई तू [हिंसा न करनेवाली गो के समान] (तृणम्) घास [अल्पमूल्य पदार्थ] को (अद्धि) खा और (शुद्धम्) शुद्ध (उदकम्) जल को (पिब) पी ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे गौ अल्पमूल्य घास खाकर और शुद्ध जल पीकर दूध-घी आदि देकर उपकार करती है, वैसे ही मनुष्य थोड़े व्यय से शुद्ध आहार-विहार करके संसार का सदा उपकार करें ॥२०॥ यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ० ७।७३।११। और (अध) के स्थान पर ऋग्वेद में [अथो] है−१।१६४।४०। तथा नि–० ११।४४ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २०-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ७।७३।११ ॥

२१ गौरिन्मिमाय सलिलानि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

गौरिन्मि॑माय सलि॒लानि॒ तक्ष॑ती॒ एक॑पदी द्वि॒पदी॒ सा चतु॑ष्पदी।
अ॒ष्टाप॑दी॒ नव॑पदी बभू॒वुषी॑ स॒हस्रा॑क्षरा॒ भुव॑नस्य प॒ङ्क्तिस्तस्याः॑ समु॒द्रा अधि॒ वि क्ष॑रन्ति ॥

२१ गौरिन्मिमाय सलिलानि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The cow verily lowed, fashioning the seas; one-footed, two-footed
    [is] she, four-footed; having become eight-footed, nine-footed,
    thousand-syllabled, a series (pan̄tí) of existence; out from her flow
    apart the oceans.
Notes

The five pādas are vs. 41, and 42 a, of the RV. hymn; which,
however, reads gāurī́s for gāúr íd in a, and paramé vyòman for
bhúvanasya pan̄tíḥ in d. The RV. vs. 41 occurs also in TB. ii. 4.
6¹¹ ⌊and it is there followed by the RV. vs. 42 entire⌋ and TA. i. 9. 4,
with the RV. readings, excepting gāurī́ at the beginning ⌊and tásyām
in TB. for tásyās⌋. Our pādas b-e, again, are repeated as xiii. 1.
42 below. The verse (12 + 12: 12 + 11 + 11 = 58) lacks two syllables of
being a proper atiśakvarī (60 syllables).

Griffith

Forming the water-floods the Cow herself hath lowed, one-foot- ed or two-footed or four-footed, she, Who hath become eight-footed or acquired nine feet, the uni- verse’s thousand-syllabled Pankti. From her descend in streams the seas of water.

पदपाठः

गौः। इत्। मि॒मा॒य॒। स॒लि॒लानि॑। तक्ष॑ती। एक॑ऽपदी। द्वि॒ऽपदी॑। सा। चतुः॑ऽपदी। अ॒ष्टाऽप॑दी। नव॑ऽपदी। ब॒भू॒वुषी॑। स॒हस्र॑ऽअक्षरा। भुव॑नस्य। प॒ङ्क्तिः। तस्याः॑। स॒मु॒द्राः। अधि॑। वि। क्ष॒र॒न्ति॒। १५.२१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • पञ्चपदातिशक्वरी
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सलिलानि) बहुत ज्ञानों [अथवा समुद्रसमान अथाह कर्मों] को (तक्षती) करती हुई (गौः) ब्रह्मवाणी ने (इत्) ही (मिमाय) शब्द किया है, (सा) वह (एकपदी) एक [ब्रह्म] के साथ व्याप्तिवाली, (द्विपदी) दो [भूत भविष्यत्] में गतिवाली, (चतुष्पदी) चार [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] में अधिकारवाली, (अष्टापदी) [छोटाई, हलकाई, प्राप्ति, स्वतन्त्रता, बड़ाई, ईश्वरपन, जितेन्द्रियता, और सत्य सङ्कल्प आठ ऐश्वर्य] आठ पद करानेवाली (नवपदी) नौ [मन बुद्धि सहित दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख] से प्राप्ति योग्य, (सहस्राक्षरा) सहस्रों [असंख्यात] पदार्थों में व्याप्तिवाली (बभूवुषी) होकर के (भुवनस्य) संसार की (पङ्क्तिः) फैलाव शक्ति है। (तस्याः) उस [ब्रह्मवाणी] से (समुद्राः) समुद्र [समुद्ररूप सब लोक] (अधि) अधिक-अधिक (वि) विविध प्रकार से (क्षरन्ति) बहते हैं ॥२१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस ब्रह्मवाणी, वेदविद्या से संसार के सब पदार्थ सिद्ध होते हैं और जिस की आराधना से योगी जन मुक्ति पाते हैं, वह वेदवाणी मनुष्यों को सदा सेवनीय है ॥२१॥ इस मन्त्र का मिलान करो-अ० ५।१९।७ ॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।४१, ४२ तथा निरुक्त−११।४०, ४१ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २१−(गौः) ब्रह्मवाणी (इत्) एव (मिमाय) शब्दं कृतवती (सलिलानि) सलिलं बहुनाम-निघ० ३।१। उदकनाम-निघ० १।१२। बहूनि ज्ञानानि समुद्रवद्गम्भीरकर्माणि वा (तक्षती) कुर्वती (एकपदी) संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१३०। पदादेशः। एकेन ब्रह्मणा पदं व्याप्तिर्यस्याः सा (द्विपदी) भूतभविष्यतोर्गतिर्यस्याः सा (सा) गौः (चतुष्पदी) चतुर्वर्गे धर्मार्थकाममोक्षेषु पुरुषार्थेषु पदमधिकारो यस्याः सा (अष्टापदी) अ० ५।१९।७। अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामावसायिता ॥१॥ इति अष्टैश्वर्याणि पदानि प्राप्तव्यानि यथा सा (नवपदी) मनोबुद्धिसहितैः सप्तशीर्षण्यच्छिद्रैः प्राप्या (बभूवुषी) भवतेः-क्वसु, ङीपि वसोः सम्प्रसारणम्। भूतवती (सहस्राक्षरा) अशेः सरः। उ० ३।७०। अशू व्याप्तौ-सर, टाप्। सहस्रेषु असंख्यातेषु पदार्थेषु व्यापनशीला (भुवनस्य) संसारस्य (पङ्क्तिः) पचि व्यक्तिकरणे-क्तिन्। विस्तारशक्तिः (तत्त्वाः) गोः सकाशात् (समुद्राः) समुद्ररूपलोकाः (अधि) अधिकम् (वि) विविधम् (क्षरन्ति) संचलन्ति ॥

२२ कृष्णं नियानम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

कृ॒ष्णं नि॒यानं॒ हर॑यः सुप॒र्णा अ॒पो वसा॑ना॒ दिव॒मुत्प॑तन्ति।
तं आव॑वृत्र॒न्त्सद॑नादृ॒तस्यादिद्घृ॒तेन॑ पृथि॒वीं व्यू᳡दुः ॥

२२ कृष्णं नियानम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Black the descent, the yellow eagles, clothing themselves in
    waters, fly up to the sky; they have come hither from the seat of
    righteousness; then, forsooth, with ghee they deluged the earth.
Notes

The verse occurs also above as vi. 22. 1, and pādas a-c below in
xiii. 3. 9. For parallel passages etc. see die note to vi. 22. 1. It is
RV. i. 164. 47, the last verse of the RV. hymn that is included in the
AV. text here (RV. vss. 43-46 are our 25-28 below), although of the
remaining five RV. vss. all but one (51) are found in other parts of our
text.

Griffith

Dark the descent: the birds are golden-coloured. Robed in the floods they fly aloft to heaven. Again from Order’s seat have they descended, and inundated all the earth with fatness.

पदपाठः

कृ॒ष्णम्। नि॒ऽयान॑म्। हर॑यः। सु॒ऽप॒र्णाः। अ॒पः। वसा॑नाः। दिव॑म्। उत्। प॒त॒न्ति॒। ते। आ। अ॒व॒वृ॒त्र॒न्। सद॑नात्। ऋ॒तस्य॑। आत्। इत्। घृ॒तेन॑। पृ॒थि॒वीम्। वि। ऊ॒दुः॒। १५.२२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हरयः) रस खींचनेवाली, (सुपर्णाः) अच्छा उड़नेवाली किरणें (अपः) जल को (वसानाः) ओढ़कर (कृष्णम्) खींचनेवाले, (नियानम्) नित्य गमनस्थान अन्तरिक्ष में होकर (दिवम्) प्रकाशमय सूर्यमण्डल को (उत् पतन्ति) चढ़ जाती हैं। (ते) वे (इत्) ही (आत्) फिर (ऋतस्य) जल के (सदनात्) घर [सूर्य] से (आ अववृत्रन्) लौट आती हैं, और उन्होंने (घृतेन) जल से (पृथिवीम्) पृथिवी को (वि) विविध प्रकार से (ऊदुः) सींच दिया है ॥२२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य की किरणें पवन द्वारा भूमि से जल खींचकर और फिर बरसा कर उपकार करती हैं, वैसे ही मनुष्य विद्या प्राप्त करके संसार का उपकार करें ॥२२॥ यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ० ६।२२।१ ॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० १।—१६४।४७। और निरुक्त ७।२४। में भी ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २२-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ६।२२।१ ॥

२३ अपादेति प्रथमा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒पादे॑ति प्रथ॒मा प॒द्वती॑नां॒ कस्तद्वां॑ मित्रावरु॒णा चि॑केत।
गर्भो॑ भा॒रं भ॑र॒त्या चि॑दस्या ऋ॒तं पिप॑र्त्यनृ॑तं॒ नि पा॑ति ॥

२३ अपादेति प्रथमा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. She that is footless goes first of them (fem.) that have feet: who
    understood (ā-cit) that of you, O Mitra and Varuṇa? the embryo brings
    (ā-bhṛ) the burden of her; she (?) fills (? pṛ) truth, protects
    (ni-pā) untruth.
Notes

The last pāda is especially obscure: he? or she? or it? and which root
pṛ, ‘fill’ or ‘pass’? The verse is RV. i. 152. 3, where we read tārit
instead of pāti at the end, and asya for asyās at end of c.
Ppp. also has tārīt, but, instead of ā́ cid asyāḥ (or asya), it
reads ād ṛtasya.

Griffith

The footless Maid precedeth footed creatures. Who marketh, Mitra Varuna! this your doing? The Babe unborn supporteth this world’s burthen, supporteth Right and watcheth Wrong and Falsehood.

पदपाठः

अ॒पात्। ए॒ति॒। प्र॒थ॒मा। प॒त्ऽवती॑नाम्। कः। तत्। वा॒म्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। आ। चि॒के॒त॒। गर्भः॑। भा॒रम्। भ॒र॒ति॒। आ। चि॒त्। अ॒स्याः॒। ऋ॒तम्। पिप॑र्ति। अनृ॑तम्। नि। पा॒ति॒। १५.२३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मित्रावरुणौ
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पद्वतीनाम्) प्रशंसित विभागोंवाली क्रियाओं में (प्रथमा) पहिली (अपात्) विना विभागवाली [सब के लिये एकरस वेदविद्या] (एति) चली आती है, (मित्रावरुणा) दोनों मित्रवरो ! [अध्यापक और शिष्य] (वाम्) तुम दोनों में (कः) किसने (तत्) उस [ज्ञान] को (आ) भले प्रकार (चिकेत) जाना है। (गर्भः) ग्रहण करनेवाला पुरुष (चित्) ही (अस्याः) इस [वेदविद्या] के (भारम्) पोषण गुण को (आ) अच्छे प्रकार (भरति) धारण करता है, (सत्यम्) सत्य व्यवहार को (पिपर्ति) पूर्ण करता है और (अनृतम्) मिथ्या कर्म को (नि) नीचे (पाति) रखता है ॥२३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - आचार्य और ब्रह्मचारी वेदविद्या को यथावत् समझकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करके संसार में उन्नति करें ॥२३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१५२।३। मन्त्र का अर्थ सहर्ष महर्षिदयानन्द-भाष्य के आधार पर किया है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २३−(अपात्) अविद्यमानाः पादा विभागा यस्याः सा वेदविद्या (एति) प्राप्नोति (प्रथमा) आदिमा (पद्वतीनाम्) प्रशस्ताः पादा विभागा विद्यन्ते यासां तासाम् (कः) (तत्) ज्ञानम् (वाम्) युवयोर्मध्ये (मित्रावरुणा) मित्रवरौ। अध्यापकाध्याप्यौ (चिकेत) कित ज्ञाने-लिट्। ज्ञातवान् (गर्भः) यो गृह्णाति सः। विद्याग्राहकः (भारम्) पोषणगुणम् (भरति) धरति (आ) समन्तात् (चित्) अपि (अस्याः) विद्यायाः (ऋतम्) सत्यम् (पिपर्ति) पूरयति (अनृतम्) मिथ्याकर्म (नि) नीचैः (पाति) रक्षति ॥

२४ विराड्वाग्विराट्पृथिवी विराडन्तरिक्षम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

वि॒राड्वाग्वि॒राट्पृ॑थि॒वी वि॒राड॒न्तरि॑क्षं वि॒राट्प्र॒जाप॑तिः।
वि॒राण्मृ॒त्युः सा॒ध्याना॑मधिरा॒जो ब॑भूव॒ तस्य॑ भू॒तं भव्यं॒ वशे॒ स मे॑ भू॒तं भव्यं॒ वशे॑ कृणोतु ॥

२४ विराड्वाग्विराट्पृथिवी विराडन्तरिक्षम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Virā́j [is] speech, virā́j earth, virā́j atmosphere, virā́j
    Prajāpati; virā́j became death, the over-king of the perfectibles
    (sādhyá); in his control are what was, what is to be; let him put in
    my control what was, what is to be.
Notes

⌊Prose.⌋ This verse, with all that follows it, is wanting in Ppp. The
Anukr. reckons the whole first part to the pause as one pāda (20
syllables, a kṛti-pāda); the pada-text understands it as two,
dividing after pṛthivī.

Griffith

Viraj is Speech, and Earth, and Air’s mid-region. He is Praja- pati, and he is Mrityu. He is the Lord Imperial of the Sadhyas. He rules what is and what shall be hereafter. May he make me lord of what is and shall be.

पदपाठः

वि॒ऽराट्। वाक्। वि॒ऽराट्। पृ॒थि॒वी। वि॒ऽराट्। अ॒न्तरि॑क्षम्। वि॒ऽराट्। प्र॒जाऽप॑तिः। वि॒ऽराट्। मृ॒त्युः। सा॒ध्याना॑म्। अ॒धि॒ऽरा॒जः। ब॒भू॒व॒। तस्य॑। भू॒तम्। भव्य॑म्। वशे॑। सः। मे॒। भू॒तम्। भव्य॑म्। वशे॑। कृ॒णो॒तु॒। १५.२४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • चतुष्पदापुरस्कृतिभुरिगतिजगती
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विराट्) विराट् [विविध ऐश्वर्यवाला परमात्मा] (वाक्) वाक् [विद्यास्वरूप], (विराट्) विराट् (पृथिवी) पृथिवी [पृथिवीसमान फैला हुआ], (विराट्) विराट् (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [आकाशतुल्य व्यापक], (विराट्) विराट् (प्रजापतिः) प्रजापालक [सूर्यसमान है], (विराट्) विराट् [परमेश्वर], (मृत्युः) दुष्टों का मृत्यु और (साध्यानाम्) परोपकार साधनेवाले [साधु पुरुषों] का (अधिराजः) राजाधिराज (बभूव) हुआ है, (तस्य) उस [परमेश्वर] के (वशे) वश में (भूतम्) अतीतकाल और (भविष्यम्) भविष्यत् काल है (सः) वह (भूतम्) अतीतकाल और (भव्यम्) भविष्यत् काल को (मे) मेरे (वशे) वश में (कृणोतु) करे ॥२४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सर्वशासक परमात्मा के ज्ञानपूर्वक सब मनुष्य भूतकाल के ज्ञान से दूरदर्शी होकर भविष्यत् का सुधार करें ॥२४॥ (विराट्) के लिये मिलान करें-अथर्व काण्ड ८ सूक्त १० ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २४−(विराट्) अ० ८।९।१। राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च−क्विप्। विविधैश्वर्यवान् परमात्मा (वाक्) विद्यारूपः (विराट्) (पृथिवी) पृथिवीवद् विस्तृतः (विराट्) (अन्तरिक्षम्) आकाशवद् व्यापकः (विराट्) (प्रजापतिः) सूर्यवत् प्रजापालकः (विराट्) (मृत्युः) दुष्टानां मारकः (साध्यानाम्) अ० ७।५।१। परोपकारसाधकानां साधूनाम् (अधिराजः) अधिपतिः (बभूव) (तस्य) परमेश्वरस्य (भूतम्) अतीतकालः (भव्यम्) भविष्यत्कालः (वशे) अधीनत्वे (सः) (मे) मम (भूतम्) (भव्यम्) (वशे) (कृणोतु) करोतु ॥

२५ शकमयं धूममारादपश्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

श॑क॒मयं॑ धू॒ममा॒राद॑पश्यं विषू॒वता॑ प॒र ए॒नाव॑रेण।
उ॒क्षाणं॒ पृश्नि॑मपचन्त वी॒रास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन् ॥

२५ शकमयं धूममारादपश्यम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The dung-made smoke I saw from far, with the dividing one, thus
    beyond the lower; the heroes cooked a spotted ox (ukṣán); those were
    the first ordinances.
Notes

The construction and sense of b are very obscure. The verse is 43 of
RV. i. 164, and the remaining three follow in order. ⌊Henry, Mém. de la
Soc. de linguistique
, ix. 247, cites the vs.⌋

Griffith

1 saw from far away the smoke of fuel with spires that rose on high o’er that beneath it. The heroes cooked and dressed the spotted bullock. These were the customs in the days aforetime.

पदपाठः

श॒क॒ऽमय॑म्। धू॒मम्। आ॒रात्। अ॒प॒श्य॒म्। वि॒षु॒ऽवता॑। प॒रः। ए॒ना। अव॑रेण। उ॒क्षाण॑म्। पृश्नि॑म्। अ॒प॒च॒न्त॒। वी॒राः। तानि॑। धर्मा॑णि। प्र॒थ॒मानि॑। आ॒स॒न्। १५.२५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शकमयम्) शक्तिवाले (धूमम्) कँपानेवाले [परमेश्वर] को (आरात्) समीप से (एना) इस (विषुवता) व्याप्तिवाले (अवरेण) नीचे [जीव] से (परः) परे [उत्तम] (अपश्यम्) मैंने देखा है। (वीराः) वीर लोगों ने [इसी कारण से] (उक्षाणम्) वृद्धि करनेवाले (पृश्निम्) स्पर्श करनेवाले [आत्मा] को (अपचन्त) परिपक्व [दृढ़] किया है, (तानि) वे (धर्माणि) धारण योग्य [ब्रह्मचर्य आदि धर्म] (प्रथमानि) मुख्य [प्रथम कर्तव्य] (आसन्) थे ॥२५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - योगीजन सर्वशक्तिमान् सब को चेष्टा देनेवाले परमेश्वर को अल्पशक्ति जीव से अलग देखते हैं और उन्नति करते हैं जैसे वीर लोग परमात्मा के ज्ञान से अपने आत्मा को परिपक्व करके धर्म में प्रवृत्त रहते हैं ॥२५॥ इस मन्त्र का चतुर्थ पाद आ चुका है-अ० ७।५।१ ॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।४३ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २५−(शकमयम्) शक्लृ सामर्थ्ये-अच्। शक्तिमयम् (धूमम्) अ० ६।७६।२। इषियुधीन्धि०। उ० १।१४५। धूञ् कम्पने-मक्, अन्तर्गतण्यर्थो वा। कम्पयितारं परमात्मानम्। कम्पकं जीवम् (आरात्) समीपात् (अपश्यम्) अहं दृष्टवान् (विषुवता) व्याप्तिमता (परः) परस्तात् (एना) (अपश्यम्) अहं दृष्टवान् (विषुवता) व्याप्तिमता (परः) परस्तात् (एना) एनेन (अवरेण) निकृष्टेन जीवेन (उक्षाणम्) अ० ३।११।८। उक्ष सेचने वृद्धौ च-कनिन्। वृद्धिकर्तारम् (पृश्निम्) अ० २।१।१। स्पृश−स्पर्शे-नि प्रत्ययः, सलोपः। स्पर्शशीलमात्मानम् (अपचन्त) परिपक्वं दृढं कृतवन्तः (वीराः) शूराः (तानि) (धर्माणि) धारणीयानि ब्रह्मचर्यादीनि कर्माणि (प्रथमानि) मुख्यानि कर्तव्यानि (आसन्) अभवन् ॥

२६ त्रयः केशिन

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्रयः॑ के॒शिन॑ ऋतु॒था वि च॑क्षते संवत्स॒रे व॑पत॒ एक॑ एषाम्।
विश्व॑म॒न्यो अ॑भि॒चष्टे॒ शची॑भि॒र्ध्राजि॒रेक॑स्य ददृशे॒ न रू॒पम् ॥

२६ त्रयः केशिन ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Three hairy ones look out seasonably; in the (a?) year one of them
    shears itself; another looks upon all with might (śácībhis); of one is
    seen the rush, not the form.
Notes

The RV. version ⌊vs. 44⌋ has in c víśam éko abhí caṣṭe; our
abhicáṣṭe is a regular case of antithetical accent. The RV.
pada-text does not divide saṁvatsare. Haug interprets the verse of
the three forms of Agni; Hillebrandt (Ved. Mythol., i. p. 472), of the
moon (!?), sun, and wind.

Griffith

Three with long tresses show in ordered season. One of them sheareth when the year is ended. One with his powers the universe regardeth. Of one the sweep is seen, but not the figure.

पदपाठः

त्रयः॑। के॒शिनः॑। ऋ॒तु॒ऽथा। वि। च॒क्ष॒ते॒। स॒म्ऽव॒त्स॒रे। व॒प॒ते॒। एकः॑। ए॒षा॒म्। विश्व॑म्। अ॒न्यः। अ॒भि॒ऽचष्टे॑। शची॑भिः। ध्राजिः॑। एक॑स्य। द॒दृ॒शे॒। न। रू॒पम्। १५.२६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रयः) तीन (केशिनः) प्रकाशवाले [अपने गुण जतानेवाले, अग्नि, सूर्य और वायु] (ऋतुथा) ऋतु के अनुसार (संवत्सरे) संवत्सर [वर्ष] में (वि) विविध प्रकार (चक्षते) दीखते हैं, (एषाम्) इन में से (एकः) एक (अग्नि, ओषधियों को) (वपते) उपजाता है। (अन्यः) दूसरा [सूर्य] (शचीभिः) अपने कर्मों [प्रकाश, वृष्टि आदि] से (विश्वम्) संसार को (अभिचष्टे) देखता रहता है, (एकस्य) एक [वायु] की (ध्राजिः) गति (ददृशे) देखी गई है और (रूपम्) रूप (न) नहीं ॥२६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पार्थिवाग्नि, सूर्य और वायु आदि पदार्थों के गुण और उपकारों से परमेश्वर की अद्भुत महिमा का अनुभव करके सब मनुष्य उसकी उपासना में तत्पर रहें ॥२६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।४४। तथा निरुक्त−१२।२७ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २६−(त्रयः) अग्निसूर्यवायवः (केशिनः) काशृ दीप्तौ-अच् घञ् वा ततः−इनि, काशी सन् केशी। केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद् वा-निरु० १२।२५। प्रकाशवन्तः। स्वगुणज्ञापकाः (ऋतुथा) ऋतुप्रकारेण। काले काले (वि) विविधम् (चक्षते) कर्मण्यर्थे। दृश्यन्ते (संवत्सरे) वर्षे (वपते) उत्पादयति ओषधीः (एकः) पार्थिवाग्निः (एषाम्) त्रयाणां मध्ये (विश्वम्) जगत् (अन्यः) सूर्यः (अभिचष्टे) सर्वतः पश्यति (शचीभिः) अ० ५।११।८। शची कर्मनाम-निघ० २।१। स्वकीयैः प्रकाशवृष्ट्यादिकर्मभिः (ध्राजिः) गतिः (एकस्य) वायोः (ददृशे) दृष्टा (न) निषेधे (रूपम्) वर्णम् ॥

२७ चत्वारि वाक्परिमिता

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

च॒त्वारि॒ वाक्परि॑मिता प॒दानि॒ तानि॑ विदुर्ब्राह्म॒णा ये म॑नी॒षिणः॑।
गुहा॒ त्रीणि॒ निहि॑ता॒ नेङ्ग॑यन्ति तु॒रीयं॑ वा॒चो म॑नु॒ष्या᳡ वदन्ति ॥

२७ चत्वारि वाक्परिमिता ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Speech [is] four measured out quarters (padá); those are known
    by Brahmans who are skilful; three, deposited in secret, they do not set
    in motion (in̄gay-); a fourth of speech human beings speak.
Notes

This verse is found, without variant, in TB. (ii. 8. 8⁵) and śB. (iv. i.
3¹⁷), as well as in RV. ⌊vs. 45⌋. Our Bp.²D.Kp. read ná: īn̄gayanti in
c.

Griffith

Speech hath been measured out in four divisions: the Brahmans who have wisdom comprehend them. Three, kept in close concealment, cause no motion. Of Speech men speak the fourth division only.

पदपाठः

च॒त्वारि॑। वाक्। परि॑ऽमिता। प॒दानि॑। तानि॑। वि॒दुः॒। ब्रा॒ह्म॒णाः। ये। म॒नी॒षिणः॑। गुहा॑। त्रीणि॑। निऽहि॑ता। न। इ॒ङ्ग॒य॒न्ति॒। तु॒रीय॑म्। वा॒चः। म॒नु॒ष्याः᳡। व॒द॒न्ति॒। १५.२७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वाक्=वाचः) वाणी के (चत्वारि) चार [परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी रूप] (परिमिता) परिमाणयुक्त (पदानि) जानने योग्य पद हैं, (तानि) उनको (ब्राह्मणाः) वे ब्राह्मण [ब्रह्मज्ञानी] (विदुः) जानते हैं (ये) जो (मनीषिणः) मननशील हैं। (गुहा) गुहा [गुप्त स्थान] में (निहिता) रक्खे हुए (त्रीणि) तीन [परा, पश्यन्ती और मध्यमा रूप पद] (न) नहीं (ईङ्गयन्ति) चलते [निकलते] हैं, (मनुष्याः) मनुष्य [साधारण लोग] (वाचः) वाणी के (तुरीयम्) चौथे [वैखरी रूप पद] को (वदन्ति) बोलते हैं ॥२७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वाणी की चार अवस्थाएँ हैं−परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। १−नादरूपा मूल आधार नाभि से निकलती हुई परा वाक् है, २−वही हृदय में पहुँचती हुई पश्यन्ती वाक् है, ३−वही बुद्धि में पहुँचकर उच्चारण से पहिले मध्यमा वाक् है, इन तीनों को योगी ही समझते हैं, और ४−मुख में ठहरकर तालु ओष्ठ आदि के व्यापार से बाहिर निकली हुई वैखरी वाक् है, जिस को सब साधारण मनुष्य समझते हैं। विद्वान् लोग अवधारण शक्ति बढ़ाकर प्राणियों के भीतरी भावों को जानकर आनन्द पावें ॥२७॥ पदपाठ में (ईङ्गयन्ति) के स्थान पर [इङ्गयन्ति] है−ऋक्० १।१६४।४५। तथा निरुक्−१३।९ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २७−(चत्वारि) चतुर्विधानि परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरीति। एकैव नादात्मिका वाक् मूलाधारनाभिप्रदेशाद् उदिता सती परेत्युच्यते, सैव हृदयगामिनी पश्यन्तीत्युच्यते, सैव बुद्धिं गता विवक्षां प्राप्ता मध्यमेत्युच्यते, यदा सैव मुखे स्थिता ताल्वोष्ठादिव्यापारेण बहिर्निर्गच्छति तदा वैखरीत्युच्यते। (वाक्) वाचः (परिमिता) परिमाणयुक्तानि (पदानि) वेदितुं योग्यानि प्रयोजनानि (तानि) (विदुः) जानन्ति। (ब्राह्मणाः) अ० २।६।३। ब्रह्मज्ञानिनः (ये) (मनीषिणः) अ० ३।५।६। मननशीलाः। मेधाविनः-निघ० ३।१५। (गुहा) गुहायाम्। गुप्तदेशे (त्रीणि) परापश्यन्तीमध्यमारूपाणि (निहिता) स्थापितानि (न) निषेधे (ईङ्गयन्ति) इङ्गयन्ति। चेष्टन्ते। प्रकाशन्ते (तुरीयम्) चतुर्थं पदम्। वैखरीरूपम् (वाचः) वाण्याः, (मनुष्याः) साधारणजनाः (वदन्ति) उच्चारयन्ति ॥

२८ इन्द्रं मित्रम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्रं॑ मि॒त्रं वरु॑णम॒ग्निमा॑हु॒रथो॑ दि॒व्यः स सु॑प॒र्णो ग॒रुत्मा॑न्।
ए॒कं सद्विप्रा॑ बहु॒धा व॑दन्त्य॒ग्निं य॒मं मा॑तरिश्वानमाहुः ॥

२८ इन्द्रं मित्रम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. They call [him] Indra, Mitra, Varuṇa, Agni; likewise he [is]
    the heavenly winged eagle; what is one the sages (vípra) name (vad)
    variously; they call [him] Agni, Yāma, Mātariśvan.
Notes

Our pada-text differs from that of RV. ⌊vs. 46⌋ by dividing
bahu॰dhā́.

⌊The fifth anuvāka, with 2 hymns and 50 verses, ends here.⌋

⌊One of our mss., P., sums up the book as of 8 artha-sūktas [their
vss. number 214] and 7 paryāya-sūktas [hymns 6 and 7: their ¶’s
number 62 + 26 = 88] or “15 sūktas of both kinds” reckoned together.
Cf. the introduction, p. 517. The same ms., P., sums up the
avasānarcas [of hymns 6 and 7] as 99 [73 + 26] and the “verses of
both kinds” as 313 [that is 214 + 99]; but codex I. gives 302 [that
is 214 + 88].⌋

⌊The twenty-first prapāṭhaka ends here.⌋

Griffith

They call him Indra, Mitra, Varuna, Agni; and he is heavenly nobly-winged Garutman. That which is One bards call by many a title: they call It Agni, Yama, Matariswan.

पदपाठः

इन्द्र॑म्। मि॒त्रम्। वरु॑णम्। अ॒ग्निम्। आ॒हुः॒। अथो॒ इति॑। दि॒व्यः। सः। सु॒ऽप॒र्णः। ग॒रुत्मा॑न्। एक॑म्। सत्। विप्राः॑। ब॒हु॒ऽधा। व॒द॒न्ति॒। अ॒ग्निम्। य॒मम्। मा॒त॒रिश्वा॑नम्। आ॒हुः॒। १५.२८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः, विराट्, अध्यात्मम्
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) अग्नि [सर्वव्यापक परमेश्वर] को (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला] (मित्रम्) मित्र, (वरुणम्) वरुण [श्रेष्ठ] (आहुः) वे [तत्त्वज्ञानी] कहते हैं, (अथो) और (सः) वह (दिव्यः) प्रकाशमय (सुपर्णः) सुन्दर पालन सामर्थ्यवाला (गरुत्मान्) स्तुतिवाला [गुरु आत्मा महान् आत्मा] है (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (एकम्) एक (सत्) सत्तावाले [ब्रह्म] को (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वदन्ति) कहते हैं, (अग्निम्) उसी अग्नि [सर्वव्यापक परमात्मा] को (यमम्) नियन्ता और (मातरिश्वानम्) आकाश में श्वास लेता हुआ [अर्थात् आकाश में व्यापक] (आहुः) वे बताते हैं ॥२८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग परमात्मा के अनेक नामों से उसके गुण कर्म स्वभाव को जानकर और उसकी उपासना करके संसार में उन्नति करें ॥२८॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।४६। और निरुक्त ७।—१८ ॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥ इत्येकविंशः प्रपाठकः ॥ इति नवमं काण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासपरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये नवमं काण्डं समाप्तम् ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २८−(इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानम् (मित्रम्) स्नेहशालिनम् (वरुणम्) श्रेष्ठम् (अग्निम्) सर्वव्यापकम् (आहुः) कथयन्ति तत्त्वज्ञाः (अथो) अपि च (दिव्यः) दिवि प्रकाशे भवः (सः) (सुपर्णः) अ० १।२४।१। शोभनपालनः (गरुत्मान्) मृग्रोरुतिः। उ० १।९४। गॄ शब्दे स्तुतौ च−उति, मतुप्। गृणातिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। गृत्स इति मेधाविनाम गृणातेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ९।५। गरुत्मान् गरणवान् गुर्वात्मा महात्मेति वा-निरु० ७।१८। स्तुतिमान्। महात्मा (एकम्) अद्वितीयम् (सत्) सत्ताविशिष्टम्। विद्यमानं ब्रह्म (विप्राः) मेधाविनः (बहुधा) अनेकप्रकारेण (वदन्ति) (अग्निम्) सर्वव्यापकं परमात्मानम् (यमम्) नियन्तारम् (मातरिश्वानम्) अ० ५।१०।८। मातरि अन्तरिक्षे श्वसन्तं चेष्टमानम् (आहुः) कथयन्ति ॥